उपयोग: Difference between revisions
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<p>I ज्ञान दर्शन उपयोग:</p> | <p>I ज्ञान दर्शन उपयोग:</p> | ||
<p>1. भेद व लक्षण</p> | <p>1. भेद व लक्षण</p> | ||
<p>1. उपयोग सामान्यका लक्षण</p> | <p id="1.1">1. उपयोग सामान्यका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/178 वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो ।178।</p> | <p class="SanskritText">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/178 वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो ।178।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं।</p> | ||
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<p class="SanskritText">गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 2/21/11 मार्गणोपायो ज्ञानदर्शनसामान्यमुपयोगः।</p> | <p class="SanskritText">गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 2/21/11 मार्गणोपायो ज्ञानदर्शनसामान्यमुपयोगः।</p> | ||
<p class="HindiText">= मार्गणा जो अवलोकन ताका जो उपाय सो ज्ञानदर्शनका सामान्य भावरूप उपयोग है।</p> | <p class="HindiText">= मार्गणा जो अवलोकन ताका जो उपाय सो ज्ञानदर्शनका सामान्य भावरूप उपयोग है।</p> | ||
<p>2. उपयोग भावनाका लक्षण</p> | <p id="1.2">2. उपयोग भावनाका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/2 मतिज्ञानावरणीयक्षयोपमजनितार्थ ग्रहणशक्ति रूपलब्धिर्ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिंतनं भावना नीलमिदं, पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोगः।</p> | <p class="SanskritText">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/2 मतिज्ञानावरणीयक्षयोपमजनितार्थ ग्रहणशक्ति रूपलब्धिर्ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिंतनं भावना नीलमिदं, पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोगः।</p> | ||
<p class="HindiText">= मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमजनित अर्थग्रहणकी शक्तिरूप जो लब्धि उसके द्वारा जाने गये पदार्थमें पुनः पुनः चिंतन करना भावना है। जैसे कि `यह नील है', `यह पीत है' इत्यादि रूप अर्थग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है।</p> | <p class="HindiText">= मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमजनित अर्थग्रहणकी शक्तिरूप जो लब्धि उसके द्वारा जाने गये पदार्थमें पुनः पुनः चिंतन करना भावना है। जैसे कि `यह नील है', `यह पीत है' इत्यादि रूप अर्थग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है।</p> | ||
<p>3. उपयोगके ज्ञानदर्शन आदि भेद</p> | <p id="1.3">3. उपयोगके ज्ञानदर्शन आदि भेद</p> | ||
<p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/9/163/7 स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनः-पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुता ज्ञानं विभंगज्ञानं चेति। दर्शनोंपयोगश्चतुर्विधः-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति। तयोः कथं भेदः। साकारानाकारभेदात्। साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/9/163/7 स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनः-पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुता ज्ञानं विभंगज्ञानं चेति। दर्शनोंपयोगश्चतुर्विधः-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति। तयोः कथं भेदः। साकारानाकारभेदात्। साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति।</p> | ||
<p class="HindiText">= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभगज्ञान। दर्शनपयोग चार प्रकारका है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। प्रश्न-इन दोनों उपयोगोंमें किस कारण से भेद है? उत्तर-साकार और अनाकार भेदसे इन दोनों उपयोगोंमें भेद है। साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग।</p> | <p class="HindiText">= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभगज्ञान। दर्शनपयोग चार प्रकारका है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। प्रश्न-इन दोनों उपयोगोंमें किस कारण से भेद है? उत्तर-साकार और अनाकार भेदसे इन दोनों उपयोगोंमें भेद है। साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग।</p> | ||
<p>( नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-12); ( पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 40); ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/9); (राजवार्तिक अध्याय 2/9/1,3/123,124); (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद् 14,119 </span>); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/46); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 4-5); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 672-673)</p> | <p>( नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-12); ( पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 40); ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/9); (राजवार्तिक अध्याय 2/9/1,3/123,124); (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद् 14,119 </span>); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/46); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 4-5); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 672-673)</p> | ||
<p>4. उपयोगके वांचना पृच्छना आदि भेद</p> | <p id="1.4">4. उपयोगके वांचना पृच्छना आदि भेद</p> | ||
<p class="SanskritText">षट्खंडागम पुस्तक 9/4,1/सू. 55/262 (उत्थानिका-संपधि एदेसु जो उवजोगो तस्स भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं।) जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया।</p> | <p class="SanskritText">षट्खंडागम पुस्तक 9/4,1/सू. 55/262 (उत्थानिका-संपधि एदेसु जो उवजोगो तस्स भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं।) जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया।</p> | ||
<p class="HindiText">= इन आगम निक्षेपोंमें जो उपयोग हैं उसके भेदोंकी प्ररूपणाके लिए उत्तर सूत्र प्राप्त होता है-उन नौ आगमोंमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य हैं वे उपयोग हैं।</p> | <p class="HindiText">= इन आगम निक्षेपोंमें जो उपयोग हैं उसके भेदोंकी प्ररूपणाके लिए उत्तर सूत्र प्राप्त होता है-उन नौ आगमोंमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य हैं वे उपयोग हैं।</p> | ||
<p>( षट्खंडागम पुस्तक 13/5,5/सू. 13/203)</p> | <p>( षट्खंडागम पुस्तक 13/5,5/सू. 13/203)</p> | ||
<p>5. उपयोगके स्वभाव विभाव रूप भेद व लक्षण</p> | <p id="1.5">5. उपयोगके स्वभाव विभाव रूप भेद व लक्षण</p> | ||
<p> नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-14 जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ। णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति ।10। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति। सण्णादिरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ।11। सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं। अण्णाणं तिवियप्पं मदियहि भेददो चेव ।12। तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।13। चक्खु-अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति ।14।</p> | <p> नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-14 जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ। णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति ।10। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति। सण्णादिरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ।11। सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं। अण्णाणं तिवियप्पं मदियहि भेददो चेव ।12। तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।13। चक्खु-अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति ।14।</p> | ||
<p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 10,13 स्वभावज्ञानम्.....कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति। कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम्। तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थित त्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् ।10। स्वभावोऽपिद्विविध, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति। तत्र कारणं दृष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य....खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। अन्या कार्यदृष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव ।13।</p> | <p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 10,13 स्वभावज्ञानम्.....कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति। कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम्। तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थित त्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् ।10। स्वभावोऽपिद्विविध, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति। तत्र कारणं दृष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य....खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। अन्या कार्यदृष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव ।13।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीव उपयोगमयी है। उपयोग ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव ज्ञान हैं। तहाँ स्वभावज्ञान भी कार्य और कारण रूपसे दो प्रकारका है। कार्य स्वभावज्ञान तो सकल विमल केवलज्ञान है। और उसका जो कारण परम पारिणामिक भावसे स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान है, वह कारण स्वभावज्ञान है ।10-11। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप भेद किये जाने पर विभाव ज्ञान दो प्रकारका है ।11। सम्यग्ज्ञान चार भेदवाला है-मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययः और अज्ञान मति आदिके भेदसे तीन भेदवाला है ।12। उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है। वह भी दो प्रकारका है - कारणस्वभाव और कार्यस्वभाव तहां कारण स्वभाव दृष्टि (दर्शन) तो सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव परभावोंके अगोचर ऐसा सहज सहज परम पारिणामिकरूप जिसका स्वभाव है, जो कारण समयसार स्वरूप है, ऐसे आत्माके यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है। दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होती है ।13। चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन विभाव दर्शन कहे गये हैं ॥</p> | <p class="HindiText">= जीव उपयोगमयी है। उपयोग ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव ज्ञान हैं। तहाँ स्वभावज्ञान भी कार्य और कारण रूपसे दो प्रकारका है। कार्य स्वभावज्ञान तो सकल विमल केवलज्ञान है। और उसका जो कारण परम पारिणामिक भावसे स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान है, वह कारण स्वभावज्ञान है ।10-11। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप भेद किये जाने पर विभाव ज्ञान दो प्रकारका है ।11। सम्यग्ज्ञान चार भेदवाला है-मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययः और अज्ञान मति आदिके भेदसे तीन भेदवाला है ।12। उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है। वह भी दो प्रकारका है - कारणस्वभाव और कार्यस्वभाव तहां कारण स्वभाव दृष्टि (दर्शन) तो सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव परभावोंके अगोचर ऐसा सहज सहज परम पारिणामिकरूप जिसका स्वभाव है, जो कारण समयसार स्वरूप है, ऐसे आत्माके यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है। दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होती है ।13। चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन विभाव दर्शन कहे गये हैं ॥</p> | ||
<p>2. उपयोग व लब्धि निर्देश</p> | <p>2. उपयोग व लब्धि निर्देश</p> | ||
<p>1. उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामें अंतर</p> | <p id="2.1">1. उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामें अंतर</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 2/1,1/413/5 स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः। न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरंतर्भवति; ज्ञानदृगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारणस्योपयोगत्वविरोधात्।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 2/1,1/413/5 स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः। न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरंतर्भवति; ज्ञानदृगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारणस्योपयोगत्वविरोधात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= स्व व परको ग्रहण करनेवाले परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत नहीं होता है; क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंके कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है।</p> | <p class="HindiText">= स्व व परको ग्रहण करनेवाले परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत नहीं होता है; क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंके कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 2/1,1/415/1 साकारोपयोगो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शन मार्गणायां (अंतर्भवति) तयोर्ज्ञानदर्शनरूपत्वात्।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 2/1,1/415/1 साकारोपयोगो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शन मार्गणायां (अंतर्भवति) तयोर्ज्ञानदर्शनरूपत्वात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= साकार उपयोग ज्ञानमार्गणामें और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत होते हैं; क्योंकि, वे दोनों ज्ञान और दर्शन रूप ही हैं। टिप्पणी-मार्गणाका अर्थ क्षयोपशम सामान्य या लब्धि है और उपयोग उसका कार्य है। अतः इन दोनोंमें भेद है। परंतु जब इन दोनोंके स्वरूपको देखा जाये तो दोनोंमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि उपयोग भी ज्ञानदर्शन स्वरूप है और मार्गणा भी।</p> | <p class="HindiText">= साकार उपयोग ज्ञानमार्गणामें और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत होते हैं; क्योंकि, वे दोनों ज्ञान और दर्शन रूप ही हैं। टिप्पणी-मार्गणाका अर्थ क्षयोपशम सामान्य या लब्धि है और उपयोग उसका कार्य है। अतः इन दोनोंमें भेद है। परंतु जब इन दोनोंके स्वरूपको देखा जाये तो दोनोंमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि उपयोग भी ज्ञानदर्शन स्वरूप है और मार्गणा भी।</p> | ||
<p>2. उपयोग व लब्धिमें अंतर</p> | <p id="2.2">2. उपयोग व लब्धिमें अंतर</p> | ||
<p>उपयोग I1/1/3 ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं।</p> | <p>उपयोग I1/1/3 ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 260 एक्के काले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण वुच्चंति ।260।</p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 260 एक्के काले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण वुच्चंति ।260।</p> | ||
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<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 854-855 नास्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यावल्लब्युपयोगयोः। लब्धिक्षतेरवश्यं स्यादुपयोगक्षतिर्यतः ।854। अभावात्तूपयोगस्य क्षतिर्लब्धेश्च वा न वा यत्तदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिर्न चामुना ।855।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 854-855 नास्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यावल्लब्युपयोगयोः। लब्धिक्षतेरवश्यं स्यादुपयोगक्षतिर्यतः ।854। अभावात्तूपयोगस्य क्षतिर्लब्धेश्च वा न वा यत्तदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिर्न चामुना ।855।</p> | ||
<p class="HindiText">= यहाँ संपूर्ण लब्धि और उपयोगोंमें विषमव्याप्ति ही होती है। क्योंकि लब्धिके नाशसे अवश्य ही उपयोगका नाश हो जाता है; किंतु उपयोगके अभावसे लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो।</p> | <p class="HindiText">= यहाँ संपूर्ण लब्धि और उपयोगोंमें विषमव्याप्ति ही होती है। क्योंकि लब्धिके नाशसे अवश्य ही उपयोगका नाश हो जाता है; किंतु उपयोगके अभावसे लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो।</p> | ||
<p>3. लब्धि तो निर्विकल्प होती है</p> | <p id="2.3">3. लब्धि तो निर्विकल्प होती है</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 858 सिद्धमेतातोक्तेन लब्धिर्या, प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा ।858।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 858 सिद्धमेतातोक्तेन लब्धिर्या, प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा ।858।</p> | ||
<p class="HindiText">= इतना कहनेसे यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है वह स्वतः उपयोग रूप न होनेसे निर्विकल्प है।</p> | <p class="HindiText">= इतना कहनेसे यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है वह स्वतः उपयोग रूप न होनेसे निर्विकल्प है।</p> | ||
<p>4. उपयोगके अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो जाता</p> | <p id="2.4">4. उपयोगके अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो जाता</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 853 कदाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी। नालं लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरसंभवात् ।853।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 853 कदाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी। नालं लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरसंभवात् ।853।</p> | ||
<p class="HindiText">= लब्धि और उपयोगमें समव्याप्ति नहीं होनेसे यदा कदाचित् आत्मोपयोगमें (उपलक्षणसे अन्य उपयोगोंमें भी) तत्पर रहनेवाली उपयोगात्मक ज्ञानचेतना लब्धिरूप ज्ञान चेतनाके नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= लब्धि और उपयोगमें समव्याप्ति नहीं होनेसे यदा कदाचित् आत्मोपयोगमें (उपलक्षणसे अन्य उपयोगोंमें भी) तत्पर रहनेवाली उपयोगात्मक ज्ञानचेतना लब्धिरूप ज्ञान चेतनाके नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है।</p> | ||
<p>II शुद्ध व अशुद्ध आदि उपयोग</p> | <p>II शुद्ध व अशुद्ध आदि उपयोग</p> | ||
<p>1. शुद्धाशुद्धोपयोग सामान्य निर्देश</p> | <p>1. शुद्धाशुद्धोपयोग सामान्य निर्देश</p> | ||
<p>1. उपयोगके शुद्ध अशुद्धादि भेद</p> | <p id="1.1.1">1. उपयोगके शुद्ध अशुद्धादि भेद</p> | ||
<p class="SanskritText">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 155 अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ।155।</p> | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 155 अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ।155।</p> | ||
<p class="HindiText">= आत्मा उपयोगात्मक है। उपयोग ज्ञानदर्शन कहा गया है और आत्माका वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है। </p> | <p class="HindiText">= आत्मा उपयोगात्मक है। उपयोग ज्ञानदर्शन कहा गया है और आत्माका वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है। </p> | ||
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<p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 अथायमुपयोगोद्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन। तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।</p> | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 अथायमुपयोगोद्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन। तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस (ज्ञानदर्शनात्मक) उपयोग के दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध। उनमेंसे शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि रूप व संक्लेश रूप दो प्रकारका है।</p> | <p class="HindiText">= इस (ज्ञानदर्शनात्मक) उपयोग के दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध। उनमेंसे शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि रूप व संक्लेश रूप दो प्रकारका है।</p> | ||
<p>2. ज्ञानदर्शनोपयोग व शुद्धाशुद्ध उपयोगमें अंतर</p> | <p id="1.1.2">2. ज्ञानदर्शनोपयोग व शुद्धाशुद्ध उपयोगमें अंतर</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 6/18/9 ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते। शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 6/18/9 ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते। शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति।</p> | ||
<p class="HindiText">= ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।</p> | ||
<p>2. शुद्धोपयोग निर्देश</p> | <p>2. शुद्धोपयोग निर्देश</p> | ||
<p>1. शुद्धोपयोगका लक्षण</p> | <p id="1.2.1">1. शुद्धोपयोगका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77 (अष्ट पाहुड़) "सुद्धं सुद्धसहाओ अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं।....।"</p> | <p class="SanskritText">भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77 (अष्ट पाहुड़) "सुद्धं सुद्धसहाओ अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं।....।"</p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्धभाव है सो अपना शुद्धस्वभाव आपमें ही है, ऐसा जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= शुद्धभाव है सो अपना शुद्धस्वभाव आपमें ही है, ऐसा जानना चाहिए।</p> | ||
Line 164: | Line 164: | ||
<p class="HindiText">= परमार्थ शब्दके द्वारा कहा जानेवाला तथा साक्षात् मोक्षका कारण ऐसा जो, शुद्धात्म संवित्ति है लक्षण जिसका, और आगम भाषामें जिसे वीतराग धर्मध्यान या शुक्लध्यान कहते हैं उस स्वसंवेदनगम्य शुद्धात्मपदको परम समरसीभावसे अनुभव करता है।</p> | <p class="HindiText">= परमार्थ शब्दके द्वारा कहा जानेवाला तथा साक्षात् मोक्षका कारण ऐसा जो, शुद्धात्म संवित्ति है लक्षण जिसका, और आगम भाषामें जिसे वीतराग धर्मध्यान या शुक्लध्यान कहते हैं उस स्वसंवेदनगम्य शुद्धात्मपदको परम समरसीभावसे अनुभव करता है।</p> | ||
<p> मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद 72 इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावतैं ज्ञान ही में उपयोग लागै ताकुं शुद्धोपयोग कहिये है। सो ही चारित्र है।</p> | <p> मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद 72 इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावतैं ज्ञान ही में उपयोग लागै ताकुं शुद्धोपयोग कहिये है। सो ही चारित्र है।</p> | ||
<p>2. शुद्धोपयोग व्यपदेशमें हेतु</p> | <p id="1.2.2">2. शुद्धोपयोग व्यपदेशमें हेतु</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/97/2 शुद्धोपयोगः शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलंबनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/97/2 शुद्धोपयोगः शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलंबनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्ध उपयोगमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावका धारक जो स्व आत्मा है सो ध्येय होता है इस कारण शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलंबनपनेसे तथा शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग सिद्ध होता है।</p> | <p class="HindiText">= शुद्ध उपयोगमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावका धारक जो स्व आत्मा है सो ध्येय होता है इस कारण शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलंबनपनेसे तथा शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग सिद्ध होता है।</p> | ||
<p>3. शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है</p> | <p id="1.2.3">3. शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है</p> | ||
<p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 42/64 असुहेण णिरयतिरियं सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ।42। सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ।64।</p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 42/64 असुहेण णिरयतिरियं सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ।42। सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ।64।</p> | ||
<p class="HindiText">= यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारोंसे देवों तथा मनुष्योंके सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिंतवन करना चाहिए ।42। इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए ।64।</p> | <p class="HindiText">= यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारोंसे देवों तथा मनुष्योंके सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिंतवन करना चाहिए ।42। इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए ।64।</p> | ||
Line 177: | Line 177: | ||
<p class="SanskritText">ज्ञानार्णव अधिकार 3/34/67 निःशेषक्लेशनिर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम्। फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यं शरीरिणाम् ।34।</p> | <p class="SanskritText">ज्ञानार्णव अधिकार 3/34/67 निःशेषक्लेशनिर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम्। फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यं शरीरिणाम् ।34।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीवोंके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुःखोंसे रहित, स्वभावसे उत्पन्न और अविनाशी ऐसा ज्ञानराज्य है।</p> | <p class="HindiText">= जीवोंके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुःखोंसे रहित, स्वभावसे उत्पन्न और अविनाशी ऐसा ज्ञानराज्य है।</p> | ||
<p>4. शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है</p> | <p id="1.2.4">4. शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है</p> | ||
<p> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 247 शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वंदननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता श्रमोपनयनप्रवृत्तिश्च न दूष्यते।</p> | <p> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 247 शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वंदननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता श्रमोपनयनप्रवृत्तिश्च न दूष्यते।</p> | ||
<p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 254 एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिकां समस्तविरतिमुपेयुषां...रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।</p> | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 254 एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिकां समस्तविरतिमुपेयुषां...रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है। इसलिए जिन्होंने शुद्धात्म परिणति प्राप्त की है, ऐसे श्रमणोंके प्रति जो वंदन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्म परिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी प्रवृत्ति है वह शुभोपयोगियोंके लिए दूषित नहीं है ।247। इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग शुद्धात्मकी प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके (कषाय कणके सद्भावके कारण गौण होता है परंतु गृहस्थोंके मुख्य है, क्योंकि) रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और क्रमशः परमनिर्वाणसौख्यका कारण होता है।</p> | <p class="HindiText">= शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है। इसलिए जिन्होंने शुद्धात्म परिणति प्राप्त की है, ऐसे श्रमणोंके प्रति जो वंदन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्म परिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी प्रवृत्ति है वह शुभोपयोगियोंके लिए दूषित नहीं है ।247। इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग शुद्धात्मकी प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके (कषाय कणके सद्भावके कारण गौण होता है परंतु गृहस्थोंके मुख्य है, क्योंकि) रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और क्रमशः परमनिर्वाणसौख्यका कारण होता है।</p> | ||
<p>3. मिश्रोपयोग निर्देश</p> | <p>3. मिश्रोपयोग निर्देश</p> | ||
<p>1. मिश्रोपयोगका लक्षण</p> | <p id="1.3.1">1. मिश्रोपयोगका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18 "यदात्मनोऽनुभूयमानानेकभावसंकरेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावांतरविवेकेननिःशंकमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तेः।</p> | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18 "यदात्मनोऽनुभूयमानानेकभावसंकरेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावांतरविवेकेननिःशंकमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तेः।</p> | ||
<p class="HindiText">= जब आत्माको, अनुभवमें आनेपर अनेक पर्यायरूप भेद-भावोंके साथ मिश्रितता होनेपर भी सर्व प्रकारसे भेद ज्ञानमें प्रवीणतासे `जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, `इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है' इस प्रकारकी प्रतीतिवाला श्रद्धान उदित होता है, तब समस्त अन्य भावोंका भेद होनेसे, निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे, आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। इस प्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी उपपत्ति है।</p> | <p class="HindiText">= जब आत्माको, अनुभवमें आनेपर अनेक पर्यायरूप भेद-भावोंके साथ मिश्रितता होनेपर भी सर्व प्रकारसे भेद ज्ञानमें प्रवीणतासे `जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, `इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है' इस प्रकारकी प्रतीतिवाला श्रद्धान उदित होता है, तब समस्त अन्य भावोंका भेद होनेसे, निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे, आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। इस प्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी उपपत्ति है।</p> | ||
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<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/203/9 यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिंतां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरंति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/203/9 यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिंतां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरंति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदनाको छोड़कर बाह्यपदार्थोंकी चिंता नहीं करता, तथापि जितने अंशमें उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नहीं है उतने अंशोंमें अनिच्छितवृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यानको `पृथक्त्ववितर्कवीचार' कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदनाको छोड़कर बाह्यपदार्थोंकी चिंता नहीं करता, तथापि जितने अंशमें उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नहीं है उतने अंशोंमें अनिच्छितवृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यानको `पृथक्त्ववितर्कवीचार' कहते हैं।</p> | ||
<p>2. जितना रागांश है उतना बंध है और जितना वीतरागांश है उतना संवर है</p> | <p id="1.3.2">2. जितना रागांश है उतना बंध है और जितना वीतरागांश है उतना संवर है</p> | ||
<p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 212-216 येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेन बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधन भवति ।212। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।213। येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।214। योगात्प्रदेशबंधः स्थितिबंधो भवति तु कषायात्। दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।215। दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।216।</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 212-216 येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेन बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधन भवति ।212। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।213। येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।214। योगात्प्रदेशबंधः स्थितिबंधो भवति तु कषायात्। दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।215। दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।216।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस आत्माके जिस अंशके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र है, उस अंशके द्वारा इसके बंध नहीं है, पर जिस अंशके द्वारा इसके राग है, उस अंशसे बंध होता है ।211-214। योगसे प्रदेशबंध होता है और कषायसे स्थितिबंध होता है। ये दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों न तो योगरूप हैं और न कषायरूप ।215। आत्म विनिश्चयका नाम दर्शन है, आत्मपरिज्ञानका नाम ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम चारित्र है। तब इनसे बंध कैसे हो सकता है ।216।</p> | <p class="HindiText">= इस आत्माके जिस अंशके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र है, उस अंशके द्वारा इसके बंध नहीं है, पर जिस अंशके द्वारा इसके राग है, उस अंशसे बंध होता है ।211-214। योगसे प्रदेशबंध होता है और कषायसे स्थितिबंध होता है। ये दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों न तो योगरूप हैं और न कषायरूप ।215। आत्म विनिश्चयका नाम दर्शन है, आत्मपरिज्ञानका नाम ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम चारित्र है। तब इनसे बंध कैसे हो सकता है ।216।</p> | ||
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<p class="HindiText">= प्रश्न करनेमें चतुर जिज्ञासुओंको संक्षेपसे बंध और मोक्ष इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने रागके अंश हैं उनसे बंध ही होता है तथा जितने अरागके अंश हैं उनसे कभी भी बंध नहीं होता ।772।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न करनेमें चतुर जिज्ञासुओंको संक्षेपसे बंध और मोक्ष इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने रागके अंश हैं उनसे बंध ही होता है तथा जितने अरागके अंश हैं उनसे कभी भी बंध नहीं होता ।772।</p> | ||
<p> मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद/42 प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्मरूप बंध करै है और इन क्रियानिमैं जेता अंश निवृत्ति है ताका फल बंध नाहीं है। ताका फल कर्मकी एकदेश निर्जरा है।</p> | <p> मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद/42 प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्मरूप बंध करै है और इन क्रियानिमैं जेता अंश निवृत्ति है ताका फल बंध नाहीं है। ताका फल कर्मकी एकदेश निर्जरा है।</p> | ||
<p>3. मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन</p> | <p id="1.3.3">3. मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/99/11 अयमत्रार्थ :- यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षण क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि ध्यातृपुरुषेण यदेव निरावरणमखंडैकविमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं न च खंडज्ञानरूपम् इति भावनीयम्। इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागे ज्ञातव्यं इति।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/99/11 अयमत्रार्थ :- यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षण क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि ध्यातृपुरुषेण यदेव निरावरणमखंडैकविमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं न च खंडज्ञानरूपम् इति भावनीयम्। इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागे ज्ञातव्यं इति।</p> | ||
<p class="HindiText">= यहाँ सारांश यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्याता पुरुषको, `नित्य, सकल आवरणरहित अखंड एक सकलविमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप ही मैं हूँ, खंड ज्ञानरूप नहीं हूँ' ऐसा ध्यान करना चाहिए। इस तरह संवर तत्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= यहाँ सारांश यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्याता पुरुषको, `नित्य, सकल आवरणरहित अखंड एक सकलविमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप ही मैं हूँ, खंड ज्ञानरूप नहीं हूँ' ऐसा ध्यान करना चाहिए। इस तरह संवर तत्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिए।</p> | ||
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<p class="HindiText">= रागादिमें भेद विज्ञानके होनेपर भी जितने अंशोंसे रागादिका अनुभव करता है, उतने अंशोंसे वह भेद विज्ञानी बंधता ही है, अतः उसके रागादिकके भेद विज्ञानका फल नहीं है। और जो राग आदिकका भेदविज्ञान होनेपर राग आदिकका त्याग करता है उसके भेदविज्ञानका फल है, यह जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= रागादिमें भेद विज्ञानके होनेपर भी जितने अंशोंसे रागादिका अनुभव करता है, उतने अंशोंसे वह भेद विज्ञानी बंधता ही है, अतः उसके रागादिकके भेद विज्ञानका फल नहीं है। और जो राग आदिकका भेदविज्ञान होनेपर राग आदिकका त्याग करता है उसके भेदविज्ञानका फल है, यह जानना चाहिए।</p> | ||
<p>4. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश</p> | <p>4. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश</p> | ||
<p>1. शुभोपयोगका लक्षण</p> | <p id="1.4.1">1. शुभोपयोगका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो।</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीवों पर दया, शुद्ध मन, वचन, कायकी क्रिया, शुद्धदर्शन ज्ञान रूप उपयोग ये पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं।</p> | <p class="HindiText">= जीवों पर दया, शुद्ध मन, वचन, कायकी क्रिया, शुद्धदर्शन ज्ञान रूप उपयोग ये पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं।</p> | ||
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<p class="SanskritText">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 131/195/13 दानपूजाव्रतशीलादिरूपः शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्रायः।</p> | <p class="SanskritText">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 131/195/13 दानपूजाव्रतशीलादिरूपः शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्रायः।</p> | ||
<p class="HindiText">= दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग तथा चित्त प्रसादरूप परिणाम शुभ है। ऐसा सूत्रका अभिप्राय है। (और भी देखें [[ मनोयोग#5 | मनोयोग - 5]]।)</p> | <p class="HindiText">= दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग तथा चित्त प्रसादरूप परिणाम शुभ है। ऐसा सूत्रका अभिप्राय है। (और भी देखें [[ मनोयोग#5 | मनोयोग - 5]]।)</p> | ||
<p>2. अशुभोपयोगका लक्षण</p> | <p id="1.4.2">2. अशुभोपयोगका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 विपरीतः पापस्य तु आस्रवहेतुं विजानीहि।</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 विपरीतः पापस्य तु आस्रवहेतुं विजानीहि।</p> | ||
<p class="HindiText">= (जीवोंपर दया तथा सम्यग्दर्शनज्ञानरूपी उपयोग पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं) तथा इनसे विपरीत निर्दयपना और मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= (जीवोंपर दया तथा सम्यग्दर्शनज्ञानरूपी उपयोग पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं) तथा इनसे विपरीत निर्दयपना और मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए।</p> | ||
Line 260: | Line 260: | ||
<p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 306 यत्पुनरज्ञानिजनसंबंधिमिथ्यात्वकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमणं तन्नरकादिदुःखकारणमेव।</p> | <p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 306 यत्पुनरज्ञानिजनसंबंधिमिथ्यात्वकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमणं तन्नरकादिदुःखकारणमेव।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो अज्ञानी जनों संबंधी मिथ्यात्व व कषायकी परिणति रूप अप्रतिक्रमण है वह नरक आदि दुःखोंका कारण ही है। (और भी देखें [[ मनोयोग#5 | मनोयोग - 5]])</p> | <p class="HindiText">= जो अज्ञानी जनों संबंधी मिथ्यात्व व कषायकी परिणति रूप अप्रतिक्रमण है वह नरक आदि दुःखोंका कारण ही है। (और भी देखें [[ मनोयोग#5 | मनोयोग - 5]])</p> | ||
<p>3. शुभ व अशुभ दोनों अशुद्धोपयोगके भेद हैं</p> | <p id="1.4.3">3. शुभ व अशुभ दोनों अशुद्धोपयोगके भेद हैं</p> | ||
<p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 तत्र शुद्धो निरुपरागः। अशुद्धो सोपरागः। स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।</p> | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 तत्र शुद्धो निरुपरागः। अशुद्धो सोपरागः। स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकारका है; क्योंकि, उपराग विशुद्ध रूप और संक्लेश रूप दो प्रकारका है।</p> | <p class="HindiText">= शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकारका है; क्योंकि, उपराग विशुद्ध रूप और संक्लेश रूप दो प्रकारका है।</p> | ||
<p>4. शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप है</p> | <p id="1.4.4">4. शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप है</p> | ||
<p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणाहि 235।</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणाहि 235।</p> | ||
<p class="HindiText">= अनुकंपा व शुद्ध (शुभ) उपयोग तो पुण्यके आस्रवभूत हैं तथा इनसे विपरीत अशुभ भाव पापास्रवके कारण हैं।</p> | <p class="HindiText">= अनुकंपा व शुद्ध (शुभ) उपयोग तो पुण्यके आस्रवभूत हैं तथा इनसे विपरीत अशुभ भाव पापास्रवके कारण हैं।</p> | ||
Line 271: | Line 271: | ||
<p class="SanskritText">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 132 सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ।132।</p> | <p class="SanskritText">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 132 सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ।132।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीवके शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभपरिणाम पाप हैं। उन दोनोंके द्वारा पुद्गलमात्र भाव कर्मपनेको प्राप्त होते हैं।</p> | <p class="HindiText">= जीवके शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभपरिणाम पाप हैं। उन दोनोंके द्वारा पुद्गलमात्र भाव कर्मपनेको प्राप्त होते हैं।</p> | ||
<p>5. शुभ व अशुद्ध उपयोगका स्वामित्व</p> | <p id="1.4.5">5. शुभ व अशुद्ध उपयोगका स्वामित्व</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96/6 मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानेषूपर्युपरि मंदत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारंपर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यंतं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96/6 मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानेषूपर्युपरि मंदत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारंपर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यंतं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।</p> | ||
<p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें ऊपर ऊपर मंदतासे अशुभ उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त संयत नामक जो तीन गुणस्थान हैं, इनमें परंपरासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग रहता है। तदनंतर अप्रमात्त आदि क्षीणकषाय तक 6 गुणस्थानोंमें जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है।</p> | <p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें ऊपर ऊपर मंदतासे अशुभ उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त संयत नामक जो तीन गुणस्थान हैं, इनमें परंपरासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग रहता है। तदनंतर अप्रमात्त आदि क्षीणकषाय तक 6 गुणस्थानोंमें जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है।</p> | ||
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<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 205 अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्यादृशां परम्। सुदृशां गौणरूपेण स्यान्न स्याद्वा कदाचन।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 205 अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्यादृशां परम्। सुदृशां गौणरूपेण स्यान्न स्याद्वा कदाचन।</p> | ||
<p class="HindiText">= उस प्रकारकी अशुद्धोपलब्धि भी मुख्यरूपसे मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है और सम्यग्दृष्टियोंके गौण रूपसे कभी-कभी होती है, अथवा नहीं भी होती है। नोट-(और भी देखो `मिथ्यादृष्टि 4' मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके तत्त्वकर्तृत्वमें अंतर)।</p> | <p class="HindiText">= उस प्रकारकी अशुद्धोपलब्धि भी मुख्यरूपसे मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है और सम्यग्दृष्टियोंके गौण रूपसे कभी-कभी होती है, अथवा नहीं भी होती है। नोट-(और भी देखो `मिथ्यादृष्टि 4' मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके तत्त्वकर्तृत्वमें अंतर)।</p> | ||
<p>6. व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है</p> | <p id="1.4.6">6. व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 306 पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णिवत्ती य। णिंदा गरहा सोहो अट्ठविहो होई विसकुंभो ।306। (यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स.....तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकारणासमर्थत्वेन....विषकुंभ एव स्यात्। त.प्र. टीका।)</p> | <p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 306 पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णिवत्ती य। णिंदा गरहा सोहो अट्ठविहो होई विसकुंभो ।306। (यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स.....तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकारणासमर्थत्वेन....विषकुंभ एव स्यात्। त.प्र. टीका।)</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि यह आठ प्रकारका विषकुंभ है। क्योंकि द्रव्यरूप ये प्रतिक्रमणादि, तृतीय जो शुद्धोपयोगकी भूमिका, उसको न देखनेवाले पुरुषके लिए अपना कार्य (कर्म क्षय) करनेको असमर्थ है।</p> | <p class="HindiText">= प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि यह आठ प्रकारका विषकुंभ है। क्योंकि द्रव्यरूप ये प्रतिक्रमणादि, तृतीय जो शुद्धोपयोगकी भूमिका, उसको न देखनेवाले पुरुषके लिए अपना कार्य (कर्म क्षय) करनेको असमर्थ है।</p> | ||
<p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/66 वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ अशुद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण सुद्धि ण तास।</p> | <p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/66 वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ अशुद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण सुद्धि ण तास।</p> | ||
<p class="HindiText">= निःशंक वंदना करो, निंदा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम हैं उसके नियमसे संयम नहीं हो सकता, क्योंकि उसके मनकी शुद्धता नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= निःशंक वंदना करो, निंदा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम हैं उसके नियमसे संयम नहीं हो सकता, क्योंकि उसके मनकी शुद्धता नहीं है।</p> | ||
<p>7. व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है</p> | <p id="1.4.7">7. व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 275 सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं।</p> | <p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 275 सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं।</p> | ||
<p class="HindiText">= वह (अभव्य जीव) भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही श्रद्धा करता है, उसकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किंतु कर्म क्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्मको नहीं जानता।</p> | <p class="HindiText">= वह (अभव्य जीव) भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही श्रद्धा करता है, उसकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किंतु कर्म क्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्मको नहीं जानता।</p> | ||
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<p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/3 धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते।</p> | <p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/3 धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य कहा गया है।</p> | <p class="HindiText">= धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य कहा गया है।</p> | ||
<p>8. शुभोपयोग रूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है</p> | <p id="1.4.8">8. शुभोपयोग रूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 718 रुढितोऽधिवपुर्वाचां क्रिया धर्मः शुभाबहा। तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया ।718।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 718 रुढितोऽधिवपुर्वाचां क्रिया धर्मः शुभाबहा। तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया ।718।</p> | ||
<p class="HindiText">= रूढ़िसे शरीरकी, वचनकी अथवा उसके अनुकूल मनकी शुभ क्रिया धर्म कहलाती है।</p> | <p class="HindiText">= रूढ़िसे शरीरकी, वचनकी अथवा उसके अनुकूल मनकी शुभ क्रिया धर्म कहलाती है।</p> |
Revision as of 18:02, 5 December 2020
सिद्धांतकोष से
चेतनाकी परिणति विशेषका नाम उपयोग है। चेतना सामान्य गुण है और ज्ञान दर्शन ये दो इसकी पर्याय या अवस्थाएँ हैं। इन्हींको उपयोग कहते हैं। तिनमें दर्शन तो अंतर्चित्प्रकाशका सामान्य प्रतिभास है जो निर्विकल्प होनेके कारण वचनातीत व केवल अनुभवगम्य है। और ज्ञान बाह्य पदार्थोंके विशेष प्रतिभासको कहते हैं। सविकल्प होनेके कारण व्याख्येय है। इन दोनों ही उपयोगोंके अनेकों भेद-प्रभेद हैं। यही उपयोग जब बाहरमें शुभ या अशुभ पदार्थोंका आश्रय करता है तो शुभ अशुभ विकल्पों रूप हो जाता है और जब केवल अंतरात्माका आश्रय करता है तो निर्विकल्प होनेके कारण शुद्ध कहलाता है। शुभ अशुभ उपयोग संसारका कारण हैं अतः परमार्थसे हेय हैं और शुद्धोपयोग मोक्ष व आनंदका कारण है, इसलिए उपादेय हैं।
I ज्ञानदर्शन उपयोग
- भेद व लक्षण
- उपयोग सामान्यका लक्षण
- उपयोग भावनाका लक्षण
- उपयोगके ज्ञानदर्शनादि भेद
- उपयोगके वांचना पृच्छना आदि भेद
- उपयोगके स्वभाव विभावरूप भेद व लक्षण
- उपयोग व लब्धि निर्देश
- उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामें अंतर
- उपयोग व लब्धिमें अंतर
- लब्धि तो निर्विकल्प होती है।
- उपयोगके अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो जाता
• ज्ञान व दर्शन उपयोग विशेष-देखें वह वह नाम
• साकार अनाकार उपयोग - देखें आकार
• प्रत्येक उपयोगके साथ नये मनकी उत्पत्ति - देखें मन - 9
• एक समयमें एक ही उपयोग संभव है - देखें उपयोग - I2.2
• उपयोग व इंद्रिय - देखें इंद्रिय
• केवली भगवान्में उपयोग संबंधी - देखें केवली - 6
• ज्ञान दर्शनोपयोगके स्वामित्व संबंधी गुण-स्थान, मार्गणास्थान, जीव समास आदि 20 प्ररूपणाएँ - देखें सत्
II शुद्ध व अशुद्धादि उपयोग
- शुद्धाशुद्ध उपयोग सामान्य निर्देश
- शुद्धोपयोग निर्देश
- शुद्धोपयोगका लक्षण
- शुद्धोपयोग व्यपदेश में हेतु
- शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है
- शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है
- मिश्रोपयोग निर्देश
- मिश्रोपयोगका लक्षण
- जितना रागांश है उतना बंध है और जितना वीतरागांश है उतना संवर है
- मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन
- शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
- शुभोपयोगका लक्षण
- अशुभोपयोगका लक्षण
- शुभ व अशुभ दोनों अशुद्धोपयोगके भेद हैं
- शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप
- शुभ व अशुभ उपयोगोंका स्वामित्व
- व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है
- व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है
- शुभोपयोगरूप व्यवहारको धर्म कहना रूढ़ि है
- वास्तवमें धर्म शुभोपयोगसे अन्य है
• शुद्ध व अशुद्ध उपयोगोंका स्वामित्व - देखें उपयोग - II.4.5
• शुद्धपयोगका स्वामित्व - देखें उपयोग - II.4.5
• धर्ममें शुद्धोपयोगकी प्रधानता - देखें धर्म - 3
• अल्प भूमिकाओंमें भी कथंचित् शुद्धोपयोग - देखें अनुभव - 5
• लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञान चेतनाका सद्भाव - देखें सम्यग्दृष्टि - 2
• एक शुद्धोपयोगमें ही संवरपना कैसे है - देखें संवर - 2
• शुद्धोपयोगके अपर नाम - देखें मोक्षमार्ग - 2.5
• मिश्रोपयोगके अस्तित्व संबंधी शंका - देखें अनुभव - 5/8
• शुभ व विशुद्धमें अंतर - देखें विशुद्धि
• अशुद्धोपयोग हेय है - देखें पुण्य - 2.6
• अशुद्धोपयोगकी मुख्यता गौणता विषयक चर्चा - देखें धर्म - 3-7
• शुभोपयोग साधुको गौण और गृहस्थकोप्रधान होता है - देखें धर्म - 6
• साधुके लिए शुभपयोगकी सीमा - देखें संयत - 3
• ज्ञानोपयोगमें ही उत्कृष्ट संक्लेश या विशुद्ध परिणाम संभव है, दर्शनोपयोगमें नहीं - देखें विशुद्धि
I ज्ञान दर्शन उपयोग:
1. भेद व लक्षण
1. उपयोग सामान्यका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/178 वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो ।178।
= जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 672); (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/332)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/8/163/3 उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।
= जो अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके निमित्तोंसे होता है और चैतन्यका अन्वयी है अर्थात् चैतन्यको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता है।
( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155); ( पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 16); ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 90); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 10)
राजवार्तिक अध्याय 2/18/1-2/130/24 यत्संनिधानादात्मा द्रव्येंद्रियनिर्वृत्तिंप्रतिव्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते ।1। तदुक्तं निमित्तं प्रतीत्य उत्पद्यमान आत्मनः परिणाम उपयोग इत्युपदिश्यते।
= जिसके सन्निधानसे आत्मा द्रव्येंद्रियोंकी रचनाके प्रति व्यापार करता है ऐसे ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेषको लब्धि कहते हैं। उस पूर्वोक्त निमित्त (लब्धि) के अवलंबनसे उत्पन्न होनेवाले आत्माके परिणामको उपयोग कहते हैं।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/18/176/3); ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/6); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/45-46); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 165/391/4); (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86)
राजवार्तिक अध्याय 1/1/3/22 प्रणिधानम् उपयोगः परिणामः इत्यनर्थांतरम्।
= प्रणिधान, उपयोग और परिणाम ये सब एकार्थवाची है।
धवला पुस्तक 2/1,1/413/6 स्वपरग्रहणपरिणामः उपयोगः।
= स्व व परको ग्रहण करनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 40/80/12 आत्मनश्चैतन्यानुविधायिपरिणामः उपयोगः चैतन्यमनुविधात्यन्वयरूपेण परिणमति अथवा पदार्थ परिच्छित्तिकाले घटोऽयं पटोऽयमित्याद्यर्थ ग्रहणरूपेण व्यापारयति चैतन्यानुविधायि स्फुटं द्विविधः।
= आत्माके चैतन्यानुविधायी परिणामका उपयोग कहते हैं जो चैतन्यकी आज्ञाके अनुसार चलता है यो-उसके अन्वयरूपसे परिणमन करता है उसे उपयोग कहते हैं। अथवा पदार्थ परिच्छित्तिके समय `यह घट है;' `यह पट है' इस प्रकार अर्थ ग्रहण रूपसे व्यापार करता है वह चैतन्यका अनुविधायी है। वह दो प्रकारका है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 6/18/9); (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/2)
गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 2/21/11 मार्गणोपायो ज्ञानदर्शनसामान्यमुपयोगः।
= मार्गणा जो अवलोकन ताका जो उपाय सो ज्ञानदर्शनका सामान्य भावरूप उपयोग है।
2. उपयोग भावनाका लक्षण
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/2 मतिज्ञानावरणीयक्षयोपमजनितार्थ ग्रहणशक्ति रूपलब्धिर्ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिंतनं भावना नीलमिदं, पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोगः।
= मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमजनित अर्थग्रहणकी शक्तिरूप जो लब्धि उसके द्वारा जाने गये पदार्थमें पुनः पुनः चिंतन करना भावना है। जैसे कि `यह नील है', `यह पीत है' इत्यादि रूप अर्थग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है।
3. उपयोगके ज्ञानदर्शन आदि भेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/9/163/7 स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनः-पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुता ज्ञानं विभंगज्ञानं चेति। दर्शनोंपयोगश्चतुर्विधः-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति। तयोः कथं भेदः। साकारानाकारभेदात्। साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति।
= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभगज्ञान। दर्शनपयोग चार प्रकारका है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। प्रश्न-इन दोनों उपयोगोंमें किस कारण से भेद है? उत्तर-साकार और अनाकार भेदसे इन दोनों उपयोगोंमें भेद है। साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग।
( नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-12); ( पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 40); ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/9); (राजवार्तिक अध्याय 2/9/1,3/123,124); ( नयचक्र बृहद् 14,119 ); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/46); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 4-5); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 672-673)
4. उपयोगके वांचना पृच्छना आदि भेद
षट्खंडागम पुस्तक 9/4,1/सू. 55/262 (उत्थानिका-संपधि एदेसु जो उवजोगो तस्स भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं।) जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया।
= इन आगम निक्षेपोंमें जो उपयोग हैं उसके भेदोंकी प्ररूपणाके लिए उत्तर सूत्र प्राप्त होता है-उन नौ आगमोंमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य हैं वे उपयोग हैं।
( षट्खंडागम पुस्तक 13/5,5/सू. 13/203)
5. उपयोगके स्वभाव विभाव रूप भेद व लक्षण
नियमसार / मूल या टीका गाथा . 10-14 जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ। णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति ।10। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति। सण्णादिरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ।11। सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं। अण्णाणं तिवियप्पं मदियहि भेददो चेव ।12। तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।13। चक्खु-अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति ।14।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 10,13 स्वभावज्ञानम्.....कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति। कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम्। तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थित त्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् ।10। स्वभावोऽपिद्विविध, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति। तत्र कारणं दृष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य....खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। अन्या कार्यदृष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव ।13।
= जीव उपयोगमयी है। उपयोग ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव ज्ञान हैं। तहाँ स्वभावज्ञान भी कार्य और कारण रूपसे दो प्रकारका है। कार्य स्वभावज्ञान तो सकल विमल केवलज्ञान है। और उसका जो कारण परम पारिणामिक भावसे स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान है, वह कारण स्वभावज्ञान है ।10-11। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप भेद किये जाने पर विभाव ज्ञान दो प्रकारका है ।11। सम्यग्ज्ञान चार भेदवाला है-मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययः और अज्ञान मति आदिके भेदसे तीन भेदवाला है ।12। उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इंद्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है। वह भी दो प्रकारका है - कारणस्वभाव और कार्यस्वभाव तहां कारण स्वभाव दृष्टि (दर्शन) तो सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव परभावोंके अगोचर ऐसा सहज सहज परम पारिणामिकरूप जिसका स्वभाव है, जो कारण समयसार स्वरूप है, ऐसे आत्माके यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है। दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होती है ।13। चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन विभाव दर्शन कहे गये हैं ॥
2. उपयोग व लब्धि निर्देश
1. उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामें अंतर
धवला पुस्तक 2/1,1/413/5 स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः। न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरंतर्भवति; ज्ञानदृगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारणस्योपयोगत्वविरोधात्।
= स्व व परको ग्रहण करनेवाले परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत नहीं होता है; क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंके कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है।
धवला पुस्तक 2/1,1/415/1 साकारोपयोगो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शन मार्गणायां (अंतर्भवति) तयोर्ज्ञानदर्शनरूपत्वात्।
= साकार उपयोग ज्ञानमार्गणामें और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणामें अंतर्भूत होते हैं; क्योंकि, वे दोनों ज्ञान और दर्शन रूप ही हैं। टिप्पणी-मार्गणाका अर्थ क्षयोपशम सामान्य या लब्धि है और उपयोग उसका कार्य है। अतः इन दोनोंमें भेद है। परंतु जब इन दोनोंके स्वरूपको देखा जाये तो दोनोंमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि उपयोग भी ज्ञानदर्शन स्वरूप है और मार्गणा भी।
2. उपयोग व लब्धिमें अंतर
उपयोग I1/1/3 ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 260 एक्के काले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण वुच्चंति ।260।
= जीवके एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता है। किंतु लब्धिरूपसे एक समय अनेक ज्ञान कहे हैं।
( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा 794/965/3)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 854-855 नास्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यावल्लब्युपयोगयोः। लब्धिक्षतेरवश्यं स्यादुपयोगक्षतिर्यतः ।854। अभावात्तूपयोगस्य क्षतिर्लब्धेश्च वा न वा यत्तदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिर्न चामुना ।855।
= यहाँ संपूर्ण लब्धि और उपयोगोंमें विषमव्याप्ति ही होती है। क्योंकि लब्धिके नाशसे अवश्य ही उपयोगका नाश हो जाता है; किंतु उपयोगके अभावसे लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो।
3. लब्धि तो निर्विकल्प होती है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 858 सिद्धमेतातोक्तेन लब्धिर्या, प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा ।858।
= इतना कहनेसे यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है वह स्वतः उपयोग रूप न होनेसे निर्विकल्प है।
4. उपयोगके अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो जाता
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 853 कदाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी। नालं लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरसंभवात् ।853।
= लब्धि और उपयोगमें समव्याप्ति नहीं होनेसे यदा कदाचित् आत्मोपयोगमें (उपलक्षणसे अन्य उपयोगोंमें भी) तत्पर रहनेवाली उपयोगात्मक ज्ञानचेतना लब्धिरूप ज्ञान चेतनाके नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है।
II शुद्ध व अशुद्ध आदि उपयोग
1. शुद्धाशुद्धोपयोग सामान्य निर्देश
1. उपयोगके शुद्ध अशुद्धादि भेद
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 155 अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ।155।
= आत्मा उपयोगात्मक है। उपयोग ज्ञानदर्शन कहा गया है और आत्माका वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 298)।
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76 भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्यं।
= जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारके कहे हैं-शुभ, अशुभ, और शुद्ध। (यह गाथा अष्टपाहुड़में है)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 अथायमुपयोगोद्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन। तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।
= इस (ज्ञानदर्शनात्मक) उपयोग के दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध। उनमेंसे शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि रूप व संक्लेश रूप दो प्रकारका है।
2. ज्ञानदर्शनोपयोग व शुद्धाशुद्ध उपयोगमें अंतर
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 6/18/9 ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते। शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति।
= ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।
2. शुद्धोपयोग निर्देश
1. शुद्धोपयोगका लक्षण
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77 (अष्ट पाहुड़) "सुद्धं सुद्धसहाओ अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं।....।"
= शुद्धभाव है सो अपना शुद्धस्वभाव आपमें ही है, ऐसा जानना चाहिए।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 14 सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति।
= जिन्होंने पदार्थों और सूत्रोंको भली भाँति जान लिया है, जो संयम और तपयुक्त हैं; जो वीतराग हैं, और जिन्हें सुख दुख समान हैं, ऐसे श्रमणको शुद्धोपयोगी कहा गया है।
नयचक्रवृहद् गाथा 356,354 समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तहा चरित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया ।356। सामण्णे णियबोधे विकलिदपरभाव परंसब्भावे। तत्थाराहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती ।354।
= समता तथा माध्यस्थता, शुद्धभाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म ये सब स्वभावकी आराधना कहे गये हैं ।356। पर भावोंसे रहित परमभाव स्वरूप सामान्य निज बोधमें तथा तत्त्वोंकी आराधनामें युक्त रहनेवाला ही शुद्ध चारित्री कहा गया है ।354।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 15 यो हि नाम चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्धो भूत्वा वर्तते स खलु....ज्ञेयतत्त्वमापंनानामंतमवाप्नोति।
= जो चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोगके द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है वह समस्त ज्ञेय पदार्थों के अंतको पा लेता है।
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 4/64-65 साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम्। शुद्धोपयोग इत्येते भवंत्येकार्थवाचकाः ।64। नाकृतिर्नाक्षरं वर्णो नो विकल्पश्च कश्चन। शुद्धं चैतन्यमेवैकं यत्र तत्साम्यमुच्यते ।65।
= साम्य, स्वास्थ्य, समाधि योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं ।64। जहाँ न कोई आकार है, न अकारादि अक्षर है, न कृष्ण-नीलादि वर्ण हैं, और न कोई विकल्प ही है; किंतु जहाँ केवल एक चैतन्य स्वरूप ही प्रतिभासित होता है उसीको साम्य कहा जाता है ।65।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 9/11/12 निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन....
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 15/19/16 निर्मोहशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणेन शुद्धोपयोगसंज्ञेनागमभाषया पृथक्त्ववितर्कवीचारप्रथमशुक्लध्यानेन....
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 17/23/13 जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयमरूपशुद्धोपयोगेनोत्पन्नो....
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 230/315/8 शुद्धात्मनः सकाशादंयद्बाह्याभ्यंतरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गो `निश्चय नयः' सर्वपरित्यागः परमोपेक्षसंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः।
= निश्चयरत्नत्रयात्मक तथा निर्मोह शुद्धात्माका संवेदन ही है लक्षण जिसका तथा जिसे आगमभाषामें पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं वह शुद्धोपयोग है। जीवन मरण आदिमें समता भाव रखना ही है लक्षण जिसका ऐसा परम उपेक्षासंयम शुद्धोपयोग है। शुद्धात्मासे अतिरिक्त अन्य बाह्य और आभ्यंतरका परिग्रह त्याज्य है ऐसा उत्सर्गमार्ग, अथवा निश्चय नय, अथवा सर्व परित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, शुद्धोपयोग ये सब एकार्थवाचक हैं।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 215 परमार्थ शब्दाभिधेयं साक्षान्मोक्षकारणभूतं शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्लध्यानस्वरूपं स्वसंवेद्यशुद्धात्मपदं परमसमरसीभावेन अनुभवति।
= परमार्थ शब्दके द्वारा कहा जानेवाला तथा साक्षात् मोक्षका कारण ऐसा जो, शुद्धात्म संवित्ति है लक्षण जिसका, और आगम भाषामें जिसे वीतराग धर्मध्यान या शुक्लध्यान कहते हैं उस स्वसंवेदनगम्य शुद्धात्मपदको परम समरसीभावसे अनुभव करता है।
मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद 72 इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावतैं ज्ञान ही में उपयोग लागै ताकुं शुद्धोपयोग कहिये है। सो ही चारित्र है।
2. शुद्धोपयोग व्यपदेशमें हेतु
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/97/2 शुद्धोपयोगः शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलंबनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते।
= शुद्ध उपयोगमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावका धारक जो स्व आत्मा है सो ध्येय होता है इस कारण शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलंबनपनेसे तथा शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग सिद्ध होता है।
3. शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है
बारसाणुवेक्खा गाथा 42/64 असुहेण णिरयतिरियं सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ।42। सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ।64।
= यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारोंसे देवों तथा मनुष्योंके सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिंतवन करना चाहिए ।42। इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए ।64।
( प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 11,12,181) ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 9/57-58)।
धवला पुस्तक 12/4,2,8-3/279/6 कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामेहितो जायदे, शुद्धपरिणामेहिंतो तेसिं दोण्णं पि णिम्मूलक्खओ।
= कर्मका बंध शुभ व अशुभ परिणामोंसे होता है, शुद्ध परिणामोंसे उन दोनोंका ही निर्मूल क्षय होता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 156 उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यकारणमशुद्धः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभेनोपात्तद्वैविध्यः।.....यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभावः क्रियते तदा खलूपयोगः शुद्धाश्चावतिष्ठते "स पुनरकारणमेव परद्रव्यसंयोगस्य।"
= जीवका परद्रव्यके संयोगका कारण अशुद्ध उपयोग है। और वह विशुद्धि तथा संक्लेश रूप उपरागके कारण शुभ और अशुभ रूपसे द्विविधताको प्राप्त होता है। जब दोनों प्रकारके अशुद्धोपयोगका अभाव किया जाता है, तब वास्तवमें उपयोग शुद्ध ही रहता है, और वह द्रव्यके संयोगका अकारण है।
ज्ञानार्णव अधिकार 3/34/67 निःशेषक्लेशनिर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम्। फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यं शरीरिणाम् ।34।
= जीवोंके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुःखोंसे रहित, स्वभावसे उत्पन्न और अविनाशी ऐसा ज्ञानराज्य है।
4. शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 247 शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वंदननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता श्रमोपनयनप्रवृत्तिश्च न दूष्यते।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 254 एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिकां समस्तविरतिमुपेयुषां...रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।
= शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है। इसलिए जिन्होंने शुद्धात्म परिणति प्राप्त की है, ऐसे श्रमणोंके प्रति जो वंदन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्म परिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी प्रवृत्ति है वह शुभोपयोगियोंके लिए दूषित नहीं है ।247। इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग शुद्धात्मकी प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके (कषाय कणके सद्भावके कारण गौण होता है परंतु गृहस्थोंके मुख्य है, क्योंकि) रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और क्रमशः परमनिर्वाणसौख्यका कारण होता है।
3. मिश्रोपयोग निर्देश
1. मिश्रोपयोगका लक्षण
समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18 "यदात्मनोऽनुभूयमानानेकभावसंकरेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावांतरविवेकेननिःशंकमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तेः।
= जब आत्माको, अनुभवमें आनेपर अनेक पर्यायरूप भेद-भावोंके साथ मिश्रितता होनेपर भी सर्व प्रकारसे भेद ज्ञानमें प्रवीणतासे `जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, `इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है' इस प्रकारकी प्रतीतिवाला श्रद्धान उदित होता है, तब समस्त अन्य भावोंका भेद होनेसे, निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे, आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। इस प्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी उपपत्ति है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 163/क. 110 `यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ।110।
= जब तक ज्ञानकी कर्म विरति (साम्यता) भली-भाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक कर्म और ज्ञानका (राग व वीतरागताका) एकत्रितपना शास्त्रोंमें कहा है। उसके एकत्रित रहनेमें कोई भी क्षति या विरोध नहीं है। किंतु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मामें अवशपनेसे जो कर्म (राग) प्रगट होता है वह तो बंधका कारण है और जो एक परम ज्ञान है वह एक ही मोक्षका कारण है-जो कि स्वतः विमुक्त है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 246 परद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः शुभोपयोगिचारित्रं स्यात्। अतः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोनिचारित्रलक्षणम्।
= परद्रव्य प्रवृत्तिके साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होनेसे शुभोपयोगी चारित्र है। अतः शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणोंका लक्षण है।
का./त.प्र. 166 अर्हदादिभक्तिसंपन्नः कथंचिच्छुद्वसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोगतामजहत् बहुशः पुण्यं बघ्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते।
= अर्हदादिके प्रति भक्ति संपन्न जीव, कथंचित् `शुद्ध संप्रयोगवाला' होने पर भी रागलव जीवित होनेसे `शुभोपयोगीपने' को नहीं छोड़ता हुआ, बहुत पुण्य बांधता है, परंतु वास्तवमें सकल कर्मोंका क्षय नहीं करता।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 255/348/27 यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगी भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबंधो भवति परंपरया निर्वाणं च। नो चेत्पुण्यबंधमात्रमेव।
= जब पूर्वसूत्र कथित न्यायसे सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्य वृत्तिसे तो पुण्यबंध ही होता है, परंतु परंपरासे मोक्ष भी होता है। केवल पुण्यबंध मात्र नहीं होता।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 414 अत्राह शिष्यः-केवलज्ञानं शुद्धं छद्मस्थज्ञान पुनरशुद्धं शुद्धस्य केवलज्ञानस्य कारणं न भवति। कस्मात्। इति चेत्-`सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो' इति वचनात् इति। नैवं, छद्मास्थज्ञानं कथं चिच्छुद्धाशुद्धत्वं। तद्यथा-यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया शुद्धं न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन वीतरागसम्यक्त्वचारित्रसहितत्वेन च शुद्धं।
= प्रश्न-केवलज्ञान शुद्ध है और छद्मस्थ ज्ञान अशुद्ध है। वह शुद्ध केवलज्ञानका कारण कैसे हो सकता है? क्योंकि ऐसा वचन है कि शुद्धको जाननेवाला ही शुद्धात्मा को प्राप्त करता है? उत्तर-ऐसा नहीं है; क्योंकि, छद्मस्थका ज्ञान भी कथंचित् शुद्धाशुद्ध है। वह ऐसे कि-यद्यपि केवलज्ञानकीं अपेक्षा तो अशुद्ध ही है, तथापि मिथ्यात्व रागादिसे रहित तथा वीतराग सम्यक्त्व व चारित्र (शुद्धोपयोग) से सहित होनेके कारण शुद्ध है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/203/9 यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिंतां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरंति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते।
= यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदनाको छोड़कर बाह्यपदार्थोंकी चिंता नहीं करता, तथापि जितने अंशमें उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नहीं है उतने अंशोंमें अनिच्छितवृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यानको `पृथक्त्ववितर्कवीचार' कहते हैं।
2. जितना रागांश है उतना बंध है और जितना वीतरागांश है उतना संवर है
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 212-216 येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेन बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधन भवति ।212। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।213। येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।214। योगात्प्रदेशबंधः स्थितिबंधो भवति तु कषायात्। दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।215। दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।216।
= इस आत्माके जिस अंशके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र है, उस अंशके द्वारा इसके बंध नहीं है, पर जिस अंशके द्वारा इसके राग है, उस अंशसे बंध होता है ।211-214। योगसे प्रदेशबंध होता है और कषायसे स्थितिबंध होता है। ये दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों न तो योगरूप हैं और न कषायरूप ।215। आत्म विनिश्चयका नाम दर्शन है, आत्मपरिज्ञानका नाम ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम चारित्र है। तब इनसे बंध कैसे हो सकता है ।216।
( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 773)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 218/प्रक्षेपक गाथा 2/292/21 सूक्ष्मजंतुघातेऽपि यावतांशेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बंधो भवति, न च पादसंघट्टमात्रेण।
= सूक्ष्म जंतुका घात होते हुए भी जितने अंशमें स्वभावभावसे चलनरूप रागादि परिणति लक्षणवाली भाव हिंसा है, उतने ही अंशमें बंध होता है, पाँवसे चलने मात्रसे नहीं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 238/329/14 यांतरात्मावस्था सा मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन शुद्धा....यावतांशेन निरावरणरामादिरहितत्वेन शुद्धा च तावतांशेन मोक्षकारणं भवति।
= जो अंतरात्मारूप अवस्था है वह मिथ्यात्वरागादिसे रहित होनेके कारण शुद्ध है। जितने अंशमें निरावरण रागादिरहित होनेके कारण शुद्ध हैं, उतने अंशमें मोक्षका कारण होती है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 36/153/5)
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/110/112 येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जंतोस्तेन न बंधनम्। येनांशेन तु रागः स्यात्तेन स्यादेव बंधनम्।
= आत्माके जितने अंशमें विशुद्धि होती है, उन अंशोंकी अपेक्षा उसके कर्मबंध नहीं हुआ करता। किंतु जिन अंशोंमें रागादिका आवेश पाया जाता है, उनकी अपेक्षासे अवश्य ही बंध हुआ करता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 772 बंधो मोक्षश्च ज्ञातव्यः समासात्प्रश्नकोविदैः। रागांशैर्बंध एव स्यान्नारागांशैः कदाचन ।772।
= प्रश्न करनेमें चतुर जिज्ञासुओंको संक्षेपसे बंध और मोक्ष इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने रागके अंश हैं उनसे बंध ही होता है तथा जितने अरागके अंश हैं उनसे कभी भी बंध नहीं होता ।772।
मोक्षपाहुड़ / पं. जयचंद/42 प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्मरूप बंध करै है और इन क्रियानिमैं जेता अंश निवृत्ति है ताका फल बंध नाहीं है। ताका फल कर्मकी एकदेश निर्जरा है।
3. मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/99/11 अयमत्रार्थ :- यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षण क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि ध्यातृपुरुषेण यदेव निरावरणमखंडैकविमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं न च खंडज्ञानरूपम् इति भावनीयम्। इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागे ज्ञातव्यं इति।
= यहाँ सारांश यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्याता पुरुषको, `नित्य, सकल आवरणरहित अखंड एक सकलविमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप ही मैं हूँ, खंड ज्ञानरूप नहीं हूँ' ऐसा ध्यान करना चाहिए। इस तरह संवर तत्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिए।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 36/153/5 रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिकमनुभवति तावतांशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम्।
= रागादिमें भेद विज्ञानके होनेपर भी जितने अंशोंसे रागादिका अनुभव करता है, उतने अंशोंसे वह भेद विज्ञानी बंधता ही है, अतः उसके रागादिकके भेद विज्ञानका फल नहीं है। और जो राग आदिकका भेदविज्ञान होनेपर राग आदिकका त्याग करता है उसके भेदविज्ञानका फल है, यह जानना चाहिए।
4. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
1. शुभोपयोगका लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो।
= जीवों पर दया, शुद्ध मन, वचन, कायकी क्रिया, शुद्धदर्शन ज्ञान रूप उपयोग ये पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं।
( रयणसार गाथा 65)
भा.प./मू. 76 (अष्ट पाहुड़) शुभः धर्म्यं
= धर्मध्यान शुभभाव है।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 69-157 देवजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा मुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ।69। जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकपो उवओगो सो सुहो तस्स ।157।
= देव गुरु और यतिकी पूजामें तथा दानमें एवं सुशीलोंमें और उपवासादिकमें लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है ।69। जो जिनेंद्रों (अर्हंतों) को जानता है, सिद्धों तथा अनगारोंकी श्रद्धा करता है, (अर्थात् पंच परमेष्ठीमें अनुरक्त है) और जीवोंके प्रति अनुकंपा युक्त है, उसके वह शुभ उपयोग है।
( नयचक्र बृहद् 311 )
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 131,136 मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।131। अरहंतसिद्धसाहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ।136।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 131 दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीति रागद्वेषौ। तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागाश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः।
= दर्शनमोहनीयके विपाकसे होनेवाली कलुषपरिणामताका नाम मोह है। विचित्र चारित्र मोहनीयके आश्रयसे होनेवाली प्रीति अप्रीति राग द्वेष कहलाते हैं। उसी चारित्रमोहके मंद उदयसे होनेवाला विशुद्ध परिणाम चित्तप्रसाद है। ये तीनों भाव जिसके होते हैं, उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम है। तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद जहाँ है वहाँ शुभ परिणाम है ।131। अर्हंत सिद्ध साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें यथार्थतया चेष्टा और गुरुओंका अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है ।136।
( नयचक्र बृहद् 309 )
ज्ञानार्णव अधिकार 2-7/3 यमप्रशमनिर्वेदतत्त्व चिंतावलंबितं। मैत्र्याविभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम् ।3।
= यम, प्रशम, निर्वेद तथा तत्वोंका चिंतवन इत्यादिका अवलंबन हो; एवं मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थता इन चार भावोंकी जिस मनमें भावना हो वही मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 38/158 में उद्धृत-"उद्वम मिथ्यात्वविषं भावय दृष्टिं च कुरु परां भक्तिम्। भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि ।6। पंचमहाव्रतरक्षां कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम्। दुर्दांतेंद्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरुद्योगम् ।2।" इत्यायाद्वियकथितलक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन परिणताः।
= (शुभभाव युक्त कैसे होता है सो कहते हैं)-मिथ्यात्वरूपी विषको वमन करो, सम्यग्दर्शनकी भावना करो, उत्कृष्ट भक्ति करो, और भाव नमस्कारमें तत्पर होकर सदा ज्ञानमें लगे रहो ।1। पाँच महाव्रतोंका पालन करो, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करो, प्रबल इंद्रिय शत्रुओंको विजय करो तथा बाह्य और अभ्यंतर तपको सिद्ध करनेमें उद्यम करो ।2। इस प्रकार दोनों आर्य छंदोंमें कहे हुए लक्षण सहित शुभ उपयोगरूप परिणामसे युक्त या परिणत हुआ जो जीव है वह पुण्यको धारण करता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 45/196/9 तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति।
= वह चारित्र-मूलाचार, भगवती, आराधना आदि चरणानुयोगके शास्त्रोंमें कहे अनुसार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप होता हुआ भी अपहृतसंयम नामक शुभोपयोग लक्षणवाले, सरागचारित्र नामवाला होता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 230/315/10 तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो `व्यवहारनय' एकदेशपरित्यागस्तथापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः।
= उस शुद्धोपयोग परमोपेक्षा संयममें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनाके सहकारीभूत जो कुछ भी प्रासुक आहार या ज्ञानोपकरणादिक ग्रहण करता है, सो अपवाद है। उसीको व्यवहार नय कहते हैं। वह तथा एकदेशपरित्याग तथा अपहृत संयम या सराग चारित्र अथवा शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 9/10 गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्यः।
= गृहस्थकी अपेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्वपूर्वक दान पूजादिरूप शुभ अनुष्ठानके द्वारा, तथा तपोधनकी या साधुकी अपेक्षा मूल व उत्तर गुणादिरूप शुभ अनुष्ठानके द्वारा परिणत हुआ आत्मा शुभ कहलाता है।
समयसार / आ.वृ. 306 प्रतिक्रमणाद्यष्टविकल्परूपः शुभोपयोगः।
= प्रतिक्रमण आदिक अष्ट विकल्प (प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि) रूप शुभोपयोग है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 131/195/13 दानपूजाव्रतशीलादिरूपः शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्रायः।
= दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग तथा चित्त प्रसादरूप परिणाम शुभ है। ऐसा सूत्रका अभिप्राय है। (और भी देखें मनोयोग - 5।)
2. अशुभोपयोगका लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 विपरीतः पापस्य तु आस्रवहेतुं विजानीहि।
= (जीवोंपर दया तथा सम्यग्दर्शनज्ञानरूपी उपयोग पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं) तथा इनसे विपरीत निर्दयपना और मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए।
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76। अष्टपाहुड़-"अशुभश्च आर्त्तरौद्रम्।"
= आर्त-रौद्र ध्यान अशुभ भाव है।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 158 विसयकसायओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ।158।
= जिसका उपयोग विषय कषायमें अवगाढ़ (मग्न), कुश्रुति, कुविचार और कुसंगतिमें लगा हुआ है, उग्र है तथा उन्मार्गमें लगा हुआ है, उसके अशुभोपयोग है।
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 131 तथा इसकी त. प्र. टी. (देखो पीछे शुभोपयोगका लक्षण नं. 4) "यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राशुभ इति।"
= (शुभोपयोगके लक्षणमें प्रशस्त राग तथा चित्त प्रसादको शुभ बताया गया है) जहाँ मोह द्वेष व अप्रशस्त राग होता है, वहाँ अशुभ उपयोग है।
( नयचक्र बृहद् 309 )
ज्ञानार्णव अधिकार 2-7/4 कषायदहनोद्दीप्तं विषयैर्व्याकुलीकृतम्। संचिनोति मनः कर्म जंमसंबंधसूचकम्।
= कषायरूप अग्निसे प्रज्वलित और इंद्रियोंके विषयोंसे व्याकुल मन संसारके सूचक अशुभ कर्मोंका संचय करता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 9/11/11 मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपंचप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः।
= मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोगसे परिणत हुआ आत्मा अशुभ कहलाता है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 306 यत्पुनरज्ञानिजनसंबंधिमिथ्यात्वकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमणं तन्नरकादिदुःखकारणमेव।
= जो अज्ञानी जनों संबंधी मिथ्यात्व व कषायकी परिणति रूप अप्रतिक्रमण है वह नरक आदि दुःखोंका कारण ही है। (और भी देखें मनोयोग - 5)
3. शुभ व अशुभ दोनों अशुद्धोपयोगके भेद हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 155 तत्र शुद्धो निरुपरागः। अशुद्धो सोपरागः। स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च।
= शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकारका है; क्योंकि, उपराग विशुद्ध रूप और संक्लेश रूप दो प्रकारका है।
4. शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणाहि 235।
= अनुकंपा व शुद्ध (शुभ) उपयोग तो पुण्यके आस्रवभूत हैं तथा इनसे विपरीत अशुभ भाव पापास्रवके कारण हैं।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 156 उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तधा पावं तेसिमभावे ण संचयमत्थि ।156।
= उपयोग यदि शुभ हो तो जीवके पुण्य संचयको प्राप्त होता है और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है। उन दोनोंके अभावमें संचय नहीं होता।
( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/71)
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 132 सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ।132।
= जीवके शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभपरिणाम पाप हैं। उन दोनोंके द्वारा पुद्गलमात्र भाव कर्मपनेको प्राप्त होते हैं।
5. शुभ व अशुद्ध उपयोगका स्वामित्व
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96/6 मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानेषूपर्युपरि मंदत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारंपर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यंतं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।
= मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें ऊपर ऊपर मंदतासे अशुभ उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त संयत नामक जो तीन गुणस्थान हैं, इनमें परंपरासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग रहता है। तदनंतर अप्रमात्त आदि क्षीणकषाय तक 6 गुणस्थानोंमें जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 181/244/18); ( प्रवचनसार 9/11/15)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 205 अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्यादृशां परम्। सुदृशां गौणरूपेण स्यान्न स्याद्वा कदाचन।
= उस प्रकारकी अशुद्धोपलब्धि भी मुख्यरूपसे मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है और सम्यग्दृष्टियोंके गौण रूपसे कभी-कभी होती है, अथवा नहीं भी होती है। नोट-(और भी देखो `मिथ्यादृष्टि 4' मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके तत्त्वकर्तृत्वमें अंतर)।
6. व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है
समयसार / मूल या टीका गाथा 306 पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णिवत्ती य। णिंदा गरहा सोहो अट्ठविहो होई विसकुंभो ।306। (यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स.....तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकारणासमर्थत्वेन....विषकुंभ एव स्यात्। त.प्र. टीका।)
= प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि यह आठ प्रकारका विषकुंभ है। क्योंकि द्रव्यरूप ये प्रतिक्रमणादि, तृतीय जो शुद्धोपयोगकी भूमिका, उसको न देखनेवाले पुरुषके लिए अपना कार्य (कर्म क्षय) करनेको असमर्थ है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/66 वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ अशुद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण सुद्धि ण तास।
= निःशंक वंदना करो, निंदा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम हैं उसके नियमसे संयम नहीं हो सकता, क्योंकि उसके मनकी शुद्धता नहीं है।
7. व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है
समयसार / मूल या टीका गाथा 275 सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं।
= वह (अभव्य जीव) भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही श्रद्धा करता है, उसकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किंतु कर्म क्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्मको नहीं जानता।
रयणसार गाथा 64-65 दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूवे वारसणुवेक्खे ।64। रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो ।65।
= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बंधमोक्ष, बंधमोक्षके कारण बारह भावनाएँ, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव, और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवोंके भाव हैं, वे शुभ भाव हैं।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/71 सुहपरिणामे धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु। दोहिं वि एहिं विवज्जिपउ सुद्धु ण बंधउ कम्मु।
= शुभ परिणामोंसे पुण्यरूप व्यवहार धर्म मुख्यतासे होता है, तथा अशुभ परिणामोंसे पाप होता है। और इन दोनोंसे रहित शुद्ध परिणाम युक्त पुरुष कर्मोंको नहीं बाँधता।
( प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 156)
नयचक्रवृहद् गाथा 376 भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदो ।376।
= जब तक जीवको भेद व उपचार वर्तता है उस समय तक वह भी शुभ व अशुभके ही आधीन है और इसी लिए वह संसारी आत्मा कर्ता कहा जाता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 69 यदा आत्मा.....अशुभोपयोगभूमिकामतिक्राम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमंगीकरोति तदेंद्रियसुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत।
= जब यह आत्मा अशुभोपयोगकी भूमिकाका उल्लंघन करके, देव गुरु यतिकी पूजा, दान, शील और उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अंगीकार करता है तब वह इंद्रिय-सुखके साधनीभूत शुभोपयोग भूमिकामें आरूढ़ कहलाता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 45 असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणितं ।45।
= जो अशुभ कार्यसे निवृत्त होना और शुभ कार्यमें प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। जिनेंद्रदेवने उस चारित्रको व्रत समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है।
(बा. अनु. 54)
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 125/प्रक्षेपक गाथा 3 की टीका "यः परमयोगींद्रः स्वसंवेदनज्ञाने स्थित्वा शुभोपयोगपरिणामरूपं धर्मं पुण्यसंगं त्यक्त्वा निजशुद्धात्म.....
= जो परमयोगींद्र स्वसंवेदन ज्ञानमें स्थित होकर शुभोपयोग परिणामरूप धर्मको अर्थात् पुण्यसंगको छोड़कर....॥
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 131/195/12 दानपूजाव्रतशीलादिरूपः शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्रायः।
= दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ राग तथा चित्तप्रसाद रूप परिणाम शुभ है, ऐसा सूत्रका अभिप्राय है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 135/199/23 वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षणः पंचपरमेष्ठिनिर्भरगुणानुरागः प्रशस्तधर्मानुरागः अनुकंपासंश्रितश्चपरिणामः दयासहितो मनोवचनकायव्यापाररूपः शुभपरिणामाः चित्ते नास्तिकालुष्यं.....यस्यैते पूर्वोक्ता त्रयः शुभपरिणामाः संति तस्य जीवस्य द्रव्यपुण्यास्रवकारणभूते भावपुण्यमास्रवतीति सूत्राभिप्रायः।
= वीतराग परमात्म द्रव्यसे विलक्षण पंचपरमेष्ठी निर्भर गुणानुराग प्रशस्त धर्मानुराग है। अनुकंपायुक्त परिणाम व दया सहित मन वचन कायके व्यापाररूप परिणाम शुभ परिणाम हैं। तथा चित्तमें कालुष्यका न होना; जिसके इतने पूर्वोक्त तीन शुभ परिणाम होते हैं उस जीवके द्रव्य पुण्यास्रवका कारणभूत भाव पुण्यका आस्रव होता है, ऐसा सूत्रका अभिप्राय है।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 108/172/8)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/149/5 व्रतसमितिगुप्ति....भावसंवरकारणभूतानां यद् व्याख्यानं कृतं तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि।
= व्रत, समिति, गुप्ति आदिक भावसंवरके कारणभूत जिन बातोंका व्याख्यान किया है, उनमें निश्चय रत्नत्रयको साधने वाला व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग है उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापास्रवके संवरमें कारण जानना (पुण्यास्रवके संवरमें नहीं)।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/3 धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते।
= धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य कहा गया है।
8. शुभोपयोग रूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 718 रुढितोऽधिवपुर्वाचां क्रिया धर्मः शुभाबहा। तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया ।718।
= रूढ़िसे शरीरकी, वचनकी अथवा उसके अनुकूल मनकी शुभ क्रिया धर्म कहलाती है।
9. वास्तवमें धर्म शुभोपयोगसे अन्य है
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 83 पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।83।
= जिन शासनमें व्रत सहित पूजादिकको पुण्य कहा गया है और मोह तथा क्षोभ विहीन आत्माके परिणामको धर्म कहा है।
पुराणकोष से
जीव का स्वरूप । ज्ञान और दर्शन के भेद से यह दो प्रकार का है । जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में अनुपलब्ध जीव के इम गुण का घातियाकर्म घात करते हैं । इसकी विशुद्धि के लिए आत्म तत्त्व का चिंतन किया जाता है, जिससे बंध के कारण नष्ट हो जाते हैं । महापुराण 21. 18-19,24.100, 54.227-228, पद्मपुराण 105, 147