संक्रमण: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 10: | Line 10: | ||
<ul><li>विसंयोजना। - देखें [[ विसंयोजना ]]।</li></ul> | <ul><li>विसंयोजना। - देखें [[ विसंयोजना ]]।</li></ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>[[संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ]]</strong><br /> | <li><strong>[[#2 | संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ]]</strong><br /> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li>[[#2.1 | केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।]]</li> | <li>[[#2.1 | केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।]]</li> | ||
Line 28: | Line 28: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li><strong>[[#3| प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका]]</strong><br /> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li>[[#3.1 | बध्यमान व अबध्यमान प्रकृतियों संबंधी।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>दर्शन मोह में अबध्यमान का भी संक्रमण होता है। - देखें [[ संक्रमण#3.1 | संक्रमण - 3.1]]।</li></ul> | <ul><li>दर्शन मोह में अबध्यमान का भी संक्रमण होता है। - देखें [[ संक्रमण#3.1 | संक्रमण - 3.1]]।</li></ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li id="3.2">[[ | <li id="3.2">[[#3.2 | मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>स्वजाति उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। - देखें [[ संक्रमण#3.2 | संक्रमण - 3.2]]।</li></ul> | <ul><li>स्वजाति उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। - देखें [[ संक्रमण#3.2 | संक्रमण - 3.2]]।</li></ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li id="3.3">[[ | <li id="3.3">[[3.3 | उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
Line 46: | Line 46: | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li id="3.4">[[ | <li id="3.4">[[#3.4 | दर्शन मोह त्रिक का स्व उदयकाल में ही संक्रमण नहीं होता।]]</li> | ||
<li id="3.5">[[ | <li id="3.5">[[#3.5 | प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश।]]</li> | ||
<li id="3.6">[[ | <li id="3.6">[[#3.6 | संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय।]]</li> | ||
<li id="3.7">[[ | <li id="3.7">[[#3.7 | अचलावलि पर्यंत संक्रमण संभव नहीं।]]</li> | ||
<li id="3.8">[[ | <li id="3.8">[[#3.8 | संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
Line 57: | Line 57: | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li id="4"><strong>[[उद्वेलना संक्रमण निर्देश]]</strong><br /> | <li id="4"><strong>[[उद्वेलना संक्रमण निर्देश]]</strong><br /> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 224: | Line 225: | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 </span>संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय के बिना 12 उद्वेलन प्रकृतियों में (देखें [[ संक्रमण#2.1 | संक्रमण - 2.1]]) पाँचों ही संक्रमण होते हैं।</span></p></li></ol></li> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 </span>संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय के बिना 12 उद्वेलन प्रकृतियों में (देखें [[ संक्रमण#2.1 | संक्रमण - 2.1]]) पाँचों ही संक्रमण होते हैं।</span></p></li></ol></li> | ||
<li><span class="HindiText" id="3"><strong>प्रकृतियों के संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका</strong> <br /></span><ol> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.1"><strong>बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/409/4 </span>बंधे अधापमत्तो...'बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ तासिं पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि। एसो णियमो बंधपयडीणं, अबंधपयडीणं णत्थि। कुदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/420/5 </span>तिण्णि संजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होंति। तं तहा - तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो।</span> = <span class="HindiText">1. बंध के होने पर अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/416 </span>) 2. 'बंधे अधापवत्तो' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियों का बंध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बंध के होने पर और उसके न होने पर भी अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। यह नियम बंध प्रकृतियों के लिए है, अबंध प्रकृतियों के लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अबंध प्रकृतियों में भी अध:प्रवृत्तसंक्रमण पाया जाता है। 3. तीन संज्वलन और पुरुषवेद के अध:प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम ये दो संक्रम होते हैं। यथा - तीन संज्वलन कषायों और पुरुष वेद का मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्त संक्रम होता है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/424 </span>)।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./410 बंधे संकामिज्जदि णोबंधे।410। | |||
</span><span class="SanskritText">बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एवं संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्य:।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहीं पर जिसका बंध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोह के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.2"><strong>मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/408/10 </span>जं पदेसग्गं अण्णपयडिं संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि। उत्तरपयडिं संकमे पयदं। | |||
</span> = <span class="HindiText">जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पद के अनुसार मूलप्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./410/574 णत्थि मूलपयडीणं।...संकमणं।410।</span> | |||
<span class="SanskritText">मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=</span><span class="HindiText">मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.3"><strong>उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/341/1 </span>दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो। साभावियादो। | |||
</span> = <span class="HindiText">दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में संक्रांत नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रांत नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्म का संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/410/574 </span>)।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/411-412/234/4 </span>दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीयसंकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएसु णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाणं पच्चासत्ति अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिण्णजादित्तणेण तेसिं पच्चासत्तीए अभावादो।</span> = <span class="HindiText">दर्शनमोहनीय का चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है। <strong>प्रश्न</strong> - कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारण से होता है? <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अत: उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्पर में संक्रमण हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong> - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूप से इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अत: इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि परस्पर में प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भिन्न जाति होने से उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अत: इनका परस्पर में संक्रमण नहीं होता है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.4"><strong>दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/411/575 </span>सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि।...।411।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में और मिश्र में नहीं संक्रमण करती।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.5"><strong>प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/348/388/10 </span>ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताण...।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का संक्रमण नहीं होता...।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./411/574 सासणमिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि।411।.</span>..<span class="SanskritText">सासादनमिश्रयोर्नियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति। असंयतादिचतुर्ष्वस्तीत्यर्थ:।</span> = <span class="HindiText">सासादन गुणस्थान में नियम से दर्शनमोह त्रिक का संक्रमण नहीं होता। असंयतादि (4-7) में होता है।</span></p> | |||
<p class="PrakritText"> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/429 </span>बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति।429।</p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व टी./442/594 आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...।442।</span> ...<span class="SanskritText">तत्रापि संक्रमकरणं विना षडेव सयोगपर्यंतं भवंति।</span> = <span class="HindiText">बंधरूप प्रदेशों का संक्रमण भी सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत है। क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथासूत्र के अभिप्राय से स्थितिबंध पर्यंत ही संक्रमण संभव है।429। उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत आदि के सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं।442।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.6"><strong>संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/430/244/9 </span>उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए...। | |||
</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के उपांत्य समय में पररूप से संक्रामित हो जाती है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.7"><strong>अचलावली पर्यंत संक्रमण संभव नहीं</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/411/233/4 </span>अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो णियमो। साहावियादो। | |||
</span> = <span class="HindiText">बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के अनंतर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों? उत्तर - स्वभाव से ही यह नियम है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="3.8"><strong>संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,16/ </span>गा.21/346 संकामेदुक्कउदि जे अंसे ते अवट्ठिदा होंति। आवलियं ते काले तेण परं होंति भजिदव्वा।21।</span> = <span class="HindiText">जिन कर्म प्रदेशों का संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियांतर परिणाम के बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भाव से रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओं से भजनीय हैं।21।</span></p></li></ol></li> | |||
Revision as of 08:16, 16 May 2021
जीव के परिणामों के वश से कर्म प्रकृति का बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है। इसके उद्वेलना आदि अनेकों भेद हैं। इनका नाम वास्तव में संक्रमण भागाहार है। उपचार से इनको संक्रमण कहने में आता है। अत: इनमें केवल परिणामों की उत्कृष्टता आदि ही के प्रति संकेत किया गया है। ऊँचे परिणामों से अधिक द्रव्य प्रतिसमय संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अल्प होना चाहिए। और नीचे परिणामों से कम द्रव्य संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अधिक होना चाहिए। यही बात इन सब भेदों के लक्षणों पर से जाननी चाहिए। उद्वेलना, विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन तीन भेदों में भागहानि क्रम से द्रव्य संक्रमाया जाता है, गुणश्रेणी संक्रमण में गुणश्रेणी रूप से और सर्वसंक्रमण में अंत का बचा हुआ सर्व द्रव्य युगपत् संक्रमा दिया जाता है।
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
- संक्रमण सामान्य का लक्षण।
- संक्रमण के भेद।
- पाँचों संक्रमणों का क्रम।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम।
- विसंयोजना। - देखें विसंयोजना ।
- संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल विघ्यात योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल अध:प्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल गुणसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल सर्व संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ।
- विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन दो के योग्य।
- अध:प्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य।
- अध:प्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य।
- विघ्यात अध:प्रवृत्त व गुण इन तीन के योग्य।
- अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीन के योग्य।
- विघ्यातगुण व सर्व इन तीन के योग्य।
- उद्वेलना के बिना चार के योग्य।
- विघ्यात के बिना चार के योग्य।
- पाँचों के योग्य।
- प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका
- दर्शन मोह में अबध्यमान का भी संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 3.1।
- स्वजाति उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 3.2।
- चारों आयुओं में परस्पर संक्रमण संभव नहीं।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- दर्शन चारित्र मोह में परस्पर संक्रमण संभव नहीं।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- कषाय नोकषाय में परस्पर संक्रमण संभव है।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- उद्वेलना संक्रमण निर्देश
- उद्वेलना संक्रमण द्विचरम कांडक पर्यंत होता है। - देखें संक्रमण - 1.4।
- मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।
- मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना योग्य काल।
- यह मिथ्यात्व अवस्था में होता है।
- सम्यक व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम। - देखें संक्रमण - 1.4।
- यह कांडक घात रूप से होता है। - देखें संक्रमण - 6.2।
- विघ्यात संक्रमण निर्देश
- बंध व्युच्छित्ति होने के पश्चात् उन प्रकृतियों का 4-7 गुणस्थानों में विघ्यात संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 1।
- अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
- कांडकघात व अपवर्तनाघात में अंतर। - देखें अपकर्षण - 4.6।
- शेष प्रकृतियों का व्युच्छित्ति पर्यंत होता है। - देखें संक्रमण - 1/3।
- गुण संक्रमण निर्देश
- गुण संक्रमण का स्वामित्व।। - देखें संक्रमण - 1/3।
- मिथ्यात्व के त्रिधाकरण में गुण संक्रमण। - देखें उपशम - 2।
- गुणश्रेणी निर्देश
- गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश।
- गुणश्रेणी निर्जरा के आवश्यक अधिकार।
- गुणश्रेणी का लक्षण।
- गुणश्रेणी निर्जरा का लक्षण।
- गुणश्रेणि शीर्ष का लक्षण।
- गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- गुणश्रेणि आयामों का यंत्र।
- अंतर स्थिति व द्वितीय स्थिति का लक्षण।
- गुणश्रेणि निक्षेपण विधान।
- गुणश्रेणि निर्जरा का 11 स्थानीय अल्पबहुत्व। - देखें अल्पबहुत्व - 3.10।
- सर्व संक्रमण निर्देश
- चरम फालिका सर्वसंक्रमण ही होता है। - देखें संक्रमण - 1/3/4।
- आनुपूर्वी व स्तिवुक संक्रमण निर्देश
- अनुदय प्रकृतियाँ स्तिवुक संक्रमण द्वारा उदय में आती हैं। - देखें संक्रमण - 3.6।
- संक्रमण सामान्य निर्देश
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1,18/315/3 अंतरकरणे कए जं णवुंसयवेयक्खणं तस्स 'संकमणं' ति सण्णा। = अंतकरण कर लेने पर जो नपुंसकवेद का (क्षपक के जो) क्षपण होता है यहाँ उसकी (उस काल की) संक्रमण संज्ञा है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/438/591/14 परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणम् । = जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/409/573/5 )।
- संक्रमण के भेद
- सामान्य संक्रमण के भेद
धवला 15/282-284
चार्ट
गोम्मटसार जीवकांड/504/903 संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदि। = संक्रमण दो प्रकार का है - स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण [ इसके अतिरिक्त आनुपूर्वी संक्रमण ( लब्धिसार/ मू./249 ), फालिसंक्रमण और कांडक संक्रमण ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575 ) का निर्देश भी आगम में पाया जाता है।]
- भागाहार संक्रमण के भेद
धवला 16/ गा.1/409 उव्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सव्वो य। (संकमणं)...।409। = उसके (भागाहार या संक्रमण के) उद्वेलन, विघ्यात, अध:प्रवृत्त, गुणसंक्रमण, और सर्वसंक्रमण के भेद से पाँच प्रकार हैं।409। ( गोम्मटसार कर्मकांड/409 )।
- सामान्य संक्रमण के भेद
- पाँचों संक्रमणों का क्रम
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./416 बंधे अधापवत्तो विज्झादं सत्तमोत्ति हु अबंधे। एत्तो गुणो अवंधे पयडीणं अप्पसंत्थाणं।416। प्रकृतीनां बंधेसति स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंतमध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य।...बंधव्युच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यंतं विघ्यातसंक्रमणं स्यात् । इत: अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशांतकषायपर्यंतं बंधरहिताप्रशस्तप्रकृतीनां गुणसंक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादंतर्मुहूर्तपर्यंतं पुन: मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्यो: पूरणकाले मिथ्यात्वक्षपणायामपूर्वकरणपरिणामांमिथ्यात्वचरमकांडकद्विकचरमफालिपर्यंतं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफालौ सर्वसंक्रमणं स्यात् ।=प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी बंध व्युच्छित्ति पर्यंत अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है परंतु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। और बंध की व्युच्छित्ति होने पर असंयत से लेकर अप्रमत्तपर्यंत विध्यात नामा संक्रमण होता है। तथा अप्रमत्त से आगे उपशांत कषाय पर्यंत बंध रहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व आदि अन्य जगह भी गुणसंक्रमण होता है ऐसा जानना। तथा मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के पूरण काल में और मिथ्यात्व के क्षय करने में अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व के अंतिम कांडक की उपांत्य फालिपर्यंत गुणसंक्रमण और अंतिम फालि में सर्व संक्रमण होता है।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम
गोम्मटसार कर्मकांड/412-413 मिच्छेसमिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडोत्ति णियमेण।412। उव्वेलणपयडीणं गुणं तु चरिमम्हि कंडये णियमा। चरिमे फालिम्मि पुणो सव्वं च य होदि संकमणं।413। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। और उद्वेलन नामा संक्रमण द्विचरम कांडक पर्यंत नियम से प्रवर्तता है।412। उद्वेलन प्रकृतियों का अंत के कांडक में नियम से गुण संक्रमण होता है। और अंत की फालि में सर्व संक्रमण होता है।413।
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
- संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
पंचसंग्रह / प्राकृत/2/8 आहारय-वेउव्विय-णिर-णर-देवाण होंति जुगलाणि। सम्मत्तुच्चं मिस्सं एया उव्वेलणा-पयडी। = आहारक युगल (आहारक शरीर-आहारक अंगोपांग), वैक्रियक युगल (वैक्रियक शरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग), नरक युगल (नरकगति-नरक गत्यानुपूर्वी), नरयुगल (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी), देवयुगल (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी), सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति और उच्चगोत्र ये तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड/415/577 )।
- केवल विघ्यात योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/426 सम्मत्तूणुव्वेलणथीणतितीसं च दुक्खवीसं च। वज्जोरालदुतित्थं मिच्छं विज्झादसत्तट्ठी।426। = सम्यक्त्व मोहनीय के बिना उद्वेलना प्रकृतियाँ 12 (देखें संक्रमण - 2.1), स्त्यानगृद्धि तीन आदिक 30 प्रकृतियाँ (देखें संक्रमण - 2.1), असाता वेदनीय आदिक 20 प्रकृतियाँ (देखें संक्रमण - 2.9), वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिक युगल, तीर्थंकर प्रकृति और मिथ्यात्व प्रकृति ये (12+30+20+5=)67 प्रकृतियाँ विघ्यात संक्रमण वाली हैं।
- केवल अध:प्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड 419-420/580 सुहुमरस बंधघादी सादं संजलणलोहपंचिंदी। तेजदुसमवण्णचऊ अगुरुलहुपरघादउस्सासं।419। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु।...।420। =सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में बंधव्युच्छिन्न होने वाली घातिया कर्मों की 14 प्रकृतियाँ (देखें प्रकृतिबंध - 7.2) साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेंद्रिय जाति, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र, वर्णादि 4, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस आदि 10 (देखें उदय - 6.1) और निर्माण इन 39 प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
गोम्मटसार कर्मकांड/427/584 मिच्छूणिगिवीससयं अधापवत्तस्स होंति पयडीओ।...।427। = मिथ्यात्व प्रकृति के बिना 121 प्रकृतियाँ अध:प्रवृत्त संक्रमण की होती हैं।
- केवल गुण संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/427-428/584-585 ...सुहुमस्स बंधघादिप्पहुदी उगुदालुरालदुगतित्थं।427। वज्जं पंसंजलणति ऊणा गुणसंकमस्स पयडीओ। पणहत्तरिसंखाओ पयडीणियमं विजाणाहि।428। =सूक्ष्म सांपराय में बँधने वाली घातिया कर्मों की 14 प्रकृतियों को आदि लेकर (देखें संक्रमण - 2.3 में केवल अध:प्रवृत्त संक्रमण योग्य) 39 प्रकृतियाँ, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तीर्थंकर, वज्रर्षभनाराच, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधादि तीन, (39+8) 47 प्रकृतियों को कम करके (122 - 47) शेष 75 प्रकृतियाँ गुण संक्रमण की हैं।427-428।
- केवल सर्वसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/417/579 तिरियेयारुव्वेल्लणपयडी संजलणलोहसम्ममिस्सूणा। मोहा थीणतिगं च य बावण्णे सव्वसंकमणं।417। तिर्यगेकादश (देखें उदय - 6.1), उद्वेलन की 13 (देखें संक्रमण - 2.1), संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र, इन तीन के बिना मोहनीय की 25 और स्त्यानगृद्धि आदिक 3 (स्त्यानगृद्धि, प्रचला-प्रचला, निद्रानिद्रा) प्रकृतियाँ, ये (11+13+25+3) 52 प्रकृतियों में सर्वसंक्रमण होता है।417।
- विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/425/583 ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तो य।425। =औदारिक शरीर-अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन तीर्थंकर प्रकृति-इन चारों में विघ्यातसंक्रमण और अध:प्रवृत्त ये दो संक्रमण हैं।
- अध:प्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/421-422/581 ...णिद्दा पयला असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे।421। सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तो य।...।422। =निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात, इन सात प्रकृतियों के गुणसंक्रमण और अध:प्रवृत्त संक्रमण पाये जाते हैं।
- अध:प्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424। = संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद इन चारों में अध:प्रवृत्त और सर्व संक्रमण ये दो ही संक्रमण पाये जाते हैं।
- विघ्यात अध:प्रवृत्त व गुण इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/422-423 ...दुक्खमसुहगदी। संहदि संठाणदसं णीचापुण्णथिरछक्कं च।422। वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गुणो य।...।423। =असाता वेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, पहले के बिना पाँच संहनन व पाँच संस्थान ये 10, नीचगोत्र, अपर्याप्त और अस्थिरादि 6, इस प्रकार 20 प्रकृतियों के विघ्यातसंक्रमण, अध:प्रवृत्त संक्रमण, सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।
- अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/425/583 हस्सरदि भयजुगुप्छे अधापवत्तो गुणो सव्वो।425। =हास्य, रति, भय और जुगुप्सा - इन चार प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन संक्रमण पाये जाते हैं।425।
- विघ्यात गुण और सर्व इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/423/582 विज्झादगुणे सव्वं सम्मे...।423। =मिथ्यात्व प्रकृति में विघ्यात, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।423।
- उद्वेलना के बिना चार के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/420-421/581 थीणतिबारकसाया संढित्थी अरइ सोगो य।420। तिरियेयारं तीसे उव्वेलणहीणचारि संकमणा।...।421। =स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, (संज्वलन के बिना) 12 कषाय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, और तिर्यक् एकादश की 11 (देखें उदय - 6.1) इन तीस (30) प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमण के बिना चार संक्रमण होते हैं।
- विघ्यात के बिना चार के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/423/582 सम्मे विज्झादपरिहीणा।423। = सम्यक्त्व मोहनीय में विघ्यात के बिना सर्व संक्रमण पाये जाते हैं।
- पाँचों के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424। =सम्यक्त्व मोहनीय के बिना 12 उद्वेलन प्रकृतियों में (देखें संक्रमण - 2.1) पाँचों ही संक्रमण होते हैं।
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
- प्रकृतियों के संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका
- बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी
धवला 16/409/4 बंधे अधापमत्तो...'बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ तासिं पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि। एसो णियमो बंधपयडीणं, अबंधपयडीणं णत्थि। कुदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो।
धवला 16/420/5 तिण्णि संजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होंति। तं तहा - तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो। = 1. बंध के होने पर अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/416 ) 2. 'बंधे अधापवत्तो' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियों का बंध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बंध के होने पर और उसके न होने पर भी अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। यह नियम बंध प्रकृतियों के लिए है, अबंध प्रकृतियों के लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अबंध प्रकृतियों में भी अध:प्रवृत्तसंक्रमण पाया जाता है। 3. तीन संज्वलन और पुरुषवेद के अध:प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम ये दो संक्रम होते हैं। यथा - तीन संज्वलन कषायों और पुरुष वेद का मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्त संक्रम होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/424 )।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410 बंधे संकामिज्जदि णोबंधे।410। बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एवं संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्य:। = जिस प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहीं पर जिसका बंध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोह के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना।
- मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता
धवला 16/408/10 जं पदेसग्गं अण्णपयडिं संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि। उत्तरपयडिं संकमे पयदं। = जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पद के अनुसार मूलप्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410/574 णत्थि मूलपयडीणं।...संकमणं।410। मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।
- उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद
धवला 16/341/1 दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो। साभावियादो। = दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में संक्रांत नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रांत नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्म का संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/410/574 )।
कषायपाहुड़ 3/3,22/411-412/234/4 दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीयसंकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएसु णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाणं पच्चासत्ति अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिण्णजादित्तणेण तेसिं पच्चासत्तीए अभावादो। = दर्शनमोहनीय का चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है। प्रश्न - कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारण से होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अत: उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्पर में संक्रमण हो जाता है। प्रश्न - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूप से इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अत: इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि परस्पर में प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भिन्न जाति होने से उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अत: इनका परस्पर में संक्रमण नहीं होता है।
- दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता
गोम्मटसार कर्मकांड/411/575 सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि।...।411। = सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में और मिश्र में नहीं संक्रमण करती।
- प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश
कषायपाहुड़ 3/3,22/348/388/10 ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताण...। = सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का संक्रमण नहीं होता...।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./411/574 सासणमिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि।411।...सासादनमिश्रयोर्नियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति। असंयतादिचतुर्ष्वस्तीत्यर्थ:। = सासादन गुणस्थान में नियम से दर्शनमोह त्रिक का संक्रमण नहीं होता। असंयतादि (4-7) में होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/429 बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति।429।
गोम्मटसार कर्मकांड व टी./442/594 आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...।442। ...तत्रापि संक्रमकरणं विना षडेव सयोगपर्यंतं भवंति। = बंधरूप प्रदेशों का संक्रमण भी सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत है। क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथासूत्र के अभिप्राय से स्थितिबंध पर्यंत ही संक्रमण संभव है।429। उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत आदि के सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं।442।
- संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय
कषायपाहुड़ 3/3,22/430/244/9 उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए...। = जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के उपांत्य समय में पररूप से संक्रामित हो जाती है।
- अचलावली पर्यंत संक्रमण संभव नहीं
कषायपाहुड़ 3/3,22/411/233/4 अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो णियमो। साहावियादो। = बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के अनंतर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों? उत्तर - स्वभाव से ही यह नियम है।
- संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता
धवला 6/1,9-8,16/ गा.21/346 संकामेदुक्कउदि जे अंसे ते अवट्ठिदा होंति। आवलियं ते काले तेण परं होंति भजिदव्वा।21। = जिन कर्म प्रदेशों का संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियांतर परिणाम के बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भाव से रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओं से भजनीय हैं।21।
- बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी