युक्त्यनुशासन - गाथा 37: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>स्वच्छंदवृत्तेर्जगत: | <div class="PravachanText"><p><strong>स्वच्छंदवृत्तेर्जगत: स्वभावात् </strong></p><p><strong>उच्चैरनाचारपथेष्वदोषम् ।</strong></p> | ||
<p><strong> निर्घुष्य दीक्षासममुक्तिमाना</strong></p><p><strong>स्त्वद᳭दृष्टि बाह्या बत ! विभ्रमंति ।।37।।</strong></p> | <p><strong> निर्घुष्य दीक्षासममुक्तिमाना</strong></p><p><strong>स्त्वद᳭दृष्टि बाह्या बत ! विभ्रमंति ।।37।।</strong></p> | ||
<p> <strong>(136) स्वच्छंदवृत्ति होने से लोकों की महापापों में भी अदोष की आस्था―</strong>यह संसार स्वभाव से ही स्वच्छंद प्रवृत्ति वाला है, और यही कारण है कि जीव इस लोक में ऊँचे से ऊँचे पापों के मार्ग में नि:शंक प्रवृत्ति करते हैं और साथ ही यह घोषणा करते हैं कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 महापापों में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही जैसा चाहे वैसी प्रवृत्ति करने का है, इस कारण पाप में दोष नहीं है, ऐसा कहते हैं और ऐसे पुरुष तीन भागों में विभक्त हैं―एक है लौकायतिक; जहाँ धर्म कर्म कुछ नहीं, और जीव की सत्ता भी नहीं । दूसरे वे पुरुष हैं जो स्वच्छंद प्रवृत्ति तो रखते हैं, पर थोड़ा मंत्र दीक्षा के व्यवहार में भी कहते हैं । तीसरे वे पुरुष हैं जो प्रवृत्ति तो स्वच्छंद रखते हैं, पर साथ ही यज्ञ क्रियाकांड में भी आस्था रखते हैं । सो जो पहले प्रकार के जीव हैं, भूतों से चेतन की व्यक्ति मानते हैं, जीव की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं वे तो निःशंक पाप में प्रवृत्त होते ही हैं और दूसरी प्रकार के मांत्रिक लोग पापों में प्रवृत्ति भी करते और दीक्षामंत्र भी ग्रहण करते, पर वह मानते हैं । तो यों मंत्र विशेष के आरोपण से समय ही मुक्त हो जाने का जिन्हें अभिमान है वे पुरुष पापों में हर प्रकार से स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि उन्होने यह आस्था बना रखी है कि दीक्षा लेते ही मुक्ति हो जाया करती है, और मुक्त को फिर किसी प्रवृत्ति में हानि कुछ नहीं है, तीसरी प्रकार के वे लोग जो यज्ञ क्रियाकांड में विश्वास रखते हैं, मुक्ति में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए स्वर्ग ही सब कुछ है । जो यम नियम दीक्षा नहीं मानते, स्वभाव से ही प्राणियों को स्वछंद प्रवृत्ति बतलाते हैं, यज्ञादिक के नाम पर अथवा धर्मप्रसंग में अन्य समय में भी मांस-भक्षण करना, मदिरापान करना और यथेच्छ कामसेवन करना; ऐसे अनाचारों में वे कोई दोष नहीं देखते हैं । यज्ञक्रिया में पशुवध आदिक होना उस मार्ग में भी निर्दोष बतलाते हे, ऐसे ये तीसरे प्रकार के लोग भी 5 महापापों में स्वच्छ होकर प्रवृत्ति किया करते हैं । सो हे जिनेंद्रदेव ! जो तुम्हारे शासन से बहिर्भूत हैं वे भ्रम में पड़े हुए है और पापकार्यों को करके भी वे मन में निर्दोष रहा करते हैं ꠰ यह उनका घोर अंधकार है और यह बड़े ही खेद का विषय है ।</p> | <p> <strong>(136) स्वच्छंदवृत्ति होने से लोकों की महापापों में भी अदोष की आस्था―</strong>यह संसार स्वभाव से ही स्वच्छंद प्रवृत्ति वाला है, और यही कारण है कि जीव इस लोक में ऊँचे से ऊँचे पापों के मार्ग में नि:शंक प्रवृत्ति करते हैं और साथ ही यह घोषणा करते हैं कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 महापापों में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही जैसा चाहे वैसी प्रवृत्ति करने का है, इस कारण पाप में दोष नहीं है, ऐसा कहते हैं और ऐसे पुरुष तीन भागों में विभक्त हैं―एक है लौकायतिक; जहाँ धर्म कर्म कुछ नहीं, और जीव की सत्ता भी नहीं । दूसरे वे पुरुष हैं जो स्वच्छंद प्रवृत्ति तो रखते हैं, पर थोड़ा मंत्र दीक्षा के व्यवहार में भी कहते हैं । तीसरे वे पुरुष हैं जो प्रवृत्ति तो स्वच्छंद रखते हैं, पर साथ ही यज्ञ क्रियाकांड में भी आस्था रखते हैं । सो जो पहले प्रकार के जीव हैं, भूतों से चेतन की व्यक्ति मानते हैं, जीव की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं वे तो निःशंक पाप में प्रवृत्त होते ही हैं और दूसरी प्रकार के मांत्रिक लोग पापों में प्रवृत्ति भी करते और दीक्षामंत्र भी ग्रहण करते, पर वह मानते हैं । तो यों मंत्र विशेष के आरोपण से समय ही मुक्त हो जाने का जिन्हें अभिमान है वे पुरुष पापों में हर प्रकार से स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि उन्होने यह आस्था बना रखी है कि दीक्षा लेते ही मुक्ति हो जाया करती है, और मुक्त को फिर किसी प्रवृत्ति में हानि कुछ नहीं है, तीसरी प्रकार के वे लोग जो यज्ञ क्रियाकांड में विश्वास रखते हैं, मुक्ति में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए स्वर्ग ही सब कुछ है । जो यम नियम दीक्षा नहीं मानते, स्वभाव से ही प्राणियों को स्वछंद प्रवृत्ति बतलाते हैं, यज्ञादिक के नाम पर अथवा धर्मप्रसंग में अन्य समय में भी मांस-भक्षण करना, मदिरापान करना और यथेच्छ कामसेवन करना; ऐसे अनाचारों में वे कोई दोष नहीं देखते हैं । यज्ञक्रिया में पशुवध आदिक होना उस मार्ग में भी निर्दोष बतलाते हे, ऐसे ये तीसरे प्रकार के लोग भी 5 महापापों में स्वच्छ होकर प्रवृत्ति किया करते हैं । सो हे जिनेंद्रदेव ! जो तुम्हारे शासन से बहिर्भूत हैं वे भ्रम में पड़े हुए है और पापकार्यों को करके भी वे मन में निर्दोष रहा करते हैं ꠰ यह उनका घोर अंधकार है और यह बड़े ही खेद का विषय है ।</p> |
Latest revision as of 16:06, 6 December 2021
स्वच्छंदवृत्तेर्जगत: स्वभावात्
उच्चैरनाचारपथेष्वदोषम् ।
निर्घुष्य दीक्षासममुक्तिमाना
स्त्वद᳭दृष्टि बाह्या बत ! विभ्रमंति ।।37।।
(136) स्वच्छंदवृत्ति होने से लोकों की महापापों में भी अदोष की आस्था―यह संसार स्वभाव से ही स्वच्छंद प्रवृत्ति वाला है, और यही कारण है कि जीव इस लोक में ऊँचे से ऊँचे पापों के मार्ग में नि:शंक प्रवृत्ति करते हैं और साथ ही यह घोषणा करते हैं कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 महापापों में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही जैसा चाहे वैसी प्रवृत्ति करने का है, इस कारण पाप में दोष नहीं है, ऐसा कहते हैं और ऐसे पुरुष तीन भागों में विभक्त हैं―एक है लौकायतिक; जहाँ धर्म कर्म कुछ नहीं, और जीव की सत्ता भी नहीं । दूसरे वे पुरुष हैं जो स्वच्छंद प्रवृत्ति तो रखते हैं, पर थोड़ा मंत्र दीक्षा के व्यवहार में भी कहते हैं । तीसरे वे पुरुष हैं जो प्रवृत्ति तो स्वच्छंद रखते हैं, पर साथ ही यज्ञ क्रियाकांड में भी आस्था रखते हैं । सो जो पहले प्रकार के जीव हैं, भूतों से चेतन की व्यक्ति मानते हैं, जीव की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं वे तो निःशंक पाप में प्रवृत्त होते ही हैं और दूसरी प्रकार के मांत्रिक लोग पापों में प्रवृत्ति भी करते और दीक्षामंत्र भी ग्रहण करते, पर वह मानते हैं । तो यों मंत्र विशेष के आरोपण से समय ही मुक्त हो जाने का जिन्हें अभिमान है वे पुरुष पापों में हर प्रकार से स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि उन्होने यह आस्था बना रखी है कि दीक्षा लेते ही मुक्ति हो जाया करती है, और मुक्त को फिर किसी प्रवृत्ति में हानि कुछ नहीं है, तीसरी प्रकार के वे लोग जो यज्ञ क्रियाकांड में विश्वास रखते हैं, मुक्ति में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए स्वर्ग ही सब कुछ है । जो यम नियम दीक्षा नहीं मानते, स्वभाव से ही प्राणियों को स्वछंद प्रवृत्ति बतलाते हैं, यज्ञादिक के नाम पर अथवा धर्मप्रसंग में अन्य समय में भी मांस-भक्षण करना, मदिरापान करना और यथेच्छ कामसेवन करना; ऐसे अनाचारों में वे कोई दोष नहीं देखते हैं । यज्ञक्रिया में पशुवध आदिक होना उस मार्ग में भी निर्दोष बतलाते हे, ऐसे ये तीसरे प्रकार के लोग भी 5 महापापों में स्वच्छ होकर प्रवृत्ति किया करते हैं । सो हे जिनेंद्रदेव ! जो तुम्हारे शासन से बहिर्भूत हैं वे भ्रम में पड़े हुए है और पापकार्यों को करके भी वे मन में निर्दोष रहा करते हैं ꠰ यह उनका घोर अंधकार है और यह बड़े ही खेद का विषय है ।