अतिथि: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है। वह चार प्रकार का है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म का श्रद्धापूर्वक निवास-स्थान भी देना चाहिए। सूत्रमें `च' शब्द है, वह आगे कहे जानेवाले गृहस्थ धर्म के संग्रह करने के लिए दिया गया है। </p> | <p class="HindiText">= अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है। वह चार प्रकार का है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म का श्रद्धापूर्वक निवास-स्थान भी देना चाहिए। सूत्रमें `च' शब्द है, वह आगे कहे जानेवाले गृहस्थ धर्म के संग्रह करने के लिए दिया गया है। </p> | ||
<p>(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21, 12/548/18</span>) (<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21 28/550/10</span>)।</p> | <p>(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21, 12/548/18</span>) (<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21 28/550/10</span>)।</p> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 360-361 <p class="PrakritText">तिविहे पत्तह्मि सया सद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी। दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहोहि संजुत्तो ॥360॥ सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे सव्वसिद्धि-सोक्खयरं। दाणं चउविहं पि य सव्वे दाणाण सारयरं ॥361॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 360-361</span>)।</p> <p class="PrakritText">तिविहे पत्तह्मि सया सद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी। दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहोहि संजुत्तो ॥360॥ सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे सव्वसिद्धि-सोक्खयरं। दाणं चउविहं पि य सव्वे दाणाण सारयरं ॥361॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= श्रद्धा आदि गुणों से युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकार के पात्रों को दान की नौ विधियों के साथ स्वयं दान देता है, उसके तीसरा शिक्षा व्रत होता है। यह चार प्रकार का दान सब दानों में श्रेष्ठ है और सब सुखों का व सब सिद्धियों का करनेवाला है।</p> | <p class="HindiText">= श्रद्धा आदि गुणों से युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकार के पात्रों को दान की नौ विधियों के साथ स्वयं दान देता है, उसके तीसरा शिक्षा व्रत होता है। यह चार प्रकार का दान सब दानों में श्रेष्ठ है और सब सुखों का व सब सिद्धियों का करनेवाला है।</p> | ||
<span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/41</span><p class="SanskritText"> व्रतमतिथिसंविभागः, पात्रविशेषाय विधिविशेषेण। द्रव्यविशेषवितरणं, दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥ 41॥ </p> | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/41</span><p class="SanskritText"> व्रतमतिथिसंविभागः, पात्रविशेषाय विधिविशेषेण। द्रव्यविशेषवितरणं, दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥ 41॥ </p> |
Revision as of 22:19, 10 December 2022
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/362
संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः। अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथिः अनियतकालागमन इत्यर्थः।
= संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो आता है, वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं, उसे अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसके आने का कोई काल निश्चित नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/42 में उद्धृत
"तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना। अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः।"
= जिस महात्मा ने तिथि पर्व उत्सव आदि सब का त्याग कर दिया है अर्थात् अमुक पर्व या तिथि में भोजन नहीं करना ऐसे नियम का त्याग कर दिया है, उसको अतिथि कहते हैं। शेष व्यक्तियों को अभ्यागत कहते हैं।
चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 25/45
न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः। अथवा संयमलाभार्थमतति गच्छति उद्दंडचर्यां करातीत्यतिथिर्यतिः।
= जिसको प्रतिपदा आदिक तिथि न हों वह अतिथि है। अथवा संयम पालनार्थ जो विहार करता है, जाता है, उद्दंडचर्या करता है, ऐसा यति अतिथि है।
1. अतिथिसंविभाग व्रत
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/362
अतिथिये संविभागोऽतिथिसंविभागः। स चतुर्विधः भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्। मोक्षार्थमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धाय शुद्धचेतसा निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनाद्युपवृंहणानि दातव्यानि। औषधमपि योग्यमुपयोजनींयम्। प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति। `च' शब्दो वक्ष्यमाणगृहस्थधर्मसमुच्चयार्थः।
= अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है। वह चार प्रकार का है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म का श्रद्धापूर्वक निवास-स्थान भी देना चाहिए। सूत्रमें `च' शब्द है, वह आगे कहे जानेवाले गृहस्थ धर्म के संग्रह करने के लिए दिया गया है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 12/548/18) (राजवार्तिक अध्याय 7/21 28/550/10)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 360-361)।
तिविहे पत्तह्मि सया सद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी। दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहोहि संजुत्तो ॥360॥ सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे सव्वसिद्धि-सोक्खयरं। दाणं चउविहं पि य सव्वे दाणाण सारयरं ॥361॥
= श्रद्धा आदि गुणों से युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकार के पात्रों को दान की नौ विधियों के साथ स्वयं दान देता है, उसके तीसरा शिक्षा व्रत होता है। यह चार प्रकार का दान सब दानों में श्रेष्ठ है और सब सुखों का व सब सिद्धियों का करनेवाला है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/41
व्रतमतिथिसंविभागः, पात्रविशेषाय विधिविशेषेण। द्रव्यविशेषवितरणं, दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥ 41॥
= जो विशेष दाता का विशेष फल के लिए, विशेष विधि के द्वारा, विशेष पात्र के लिए, विशेष द्रव्य का दान करना है वह अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है।
2. अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/36
सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः
= 1. सचित्त कमल पत्रादि में आहार रखना, 2. सचित्त से ढक देना, 3. स्वयं न देकर दूसरे को दान देने को कहकर चले जाना, 4. दान देते समय आदर भाव न रहना, 5. साधुओं के भिक्षा काल को टालकर द्वारापेक्षण करना, ये पाँच अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार हैं।
( रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 121)
• दान व दान योग्य पात्र अपात्र – देखें वह वह विषय ।
पुराणकोष से
(1) भ्रमणशील, अपरिग्रही, सम्यग्दर्शन आदि गुणों से युक्त, निःस्पृही और अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत किये बिना संयम की वृद्धि के लिए आहार हेतु गृहस्थ के घर आगत श्रमणमुनि । हरिवंशपुराण 58.158, 15.6, पद्मपुराण 14.200, 35.113
(2) भरतक्षेत्र के चारणयुगल नगर के राजा सुयोधन की रानी, सुलसा की जननी । महापुराण 67.213-214