पद्मपुराण - पर्व 21: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! अब आठवें बलभद्र श्रीराम का संबंध बतलाने के लिए कुछ महापुरुषों से उत्पन्न वंशों का कथन करता हूँ सो सुन ।।1।। दशवें तीर्थकर श्री शीतलनाथ भगवान के मोक्ष चले जाने के बाद कौशांबी नगरी में एक सुमुख नाम का राजा हुआ। उसी समय उस नगरी में एक वीरक नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी स्त्री का नाम वनमाला था। राजा सुमुख ने वनमाला का हरण कर उसके साथ इच्छानुसार कामोपभोग किया और अंत में वह मुनियों के लिए दान देकर विजयार्ध पर्वत पर गया। वहाँ विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक हरिपुर नाम का नगर था। उसमें वे दोनों दंपती उत्पन्न हुए अर्थात् विद्याधर-विद्याधरी हुए। वहाँ क्रीड़ा करता हुआ राजा सुमुख का जीव विद्याधर भोगभूमि गया। उसके साथ उसकी स्त्री विद्याधरी भी थी। इधर स्त्री के विरह रूपी अंगार से जिसका शरीर जल रहा था ऐसा वीरक श्रेष्ठी तप के प्रभाव से अनेक देवियों के समूह से युक्त देवपद को प्राप्त हुआ ।।2-5।। उसने अवधि ज्ञान से जब यह जाना कि हमारा वैरी राजा सुमुख हरि क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है तो पाप बुद्धि में प्रेम करनेवाला वह देव उसे वहाँ से भरतक्षेत्र में रख गया तथा उसकी दुर्दशा की ।।6।। | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! अब आठवें बलभद्र श्रीराम का संबंध बतलाने के लिए कुछ महापुरुषों से उत्पन्न वंशों का कथन करता हूँ सो सुन ।।1।।<span id="2" /><span id="3" /><span id="4" /><span id="5" /> दशवें तीर्थकर श्री शीतलनाथ भगवान के मोक्ष चले जाने के बाद कौशांबी नगरी में एक सुमुख नाम का राजा हुआ। उसी समय उस नगरी में एक वीरक नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी स्त्री का नाम वनमाला था। राजा सुमुख ने वनमाला का हरण कर उसके साथ इच्छानुसार कामोपभोग किया और अंत में वह मुनियों के लिए दान देकर विजयार्ध पर्वत पर गया। वहाँ विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक हरिपुर नाम का नगर था। उसमें वे दोनों दंपती उत्पन्न हुए अर्थात् विद्याधर-विद्याधरी हुए। वहाँ क्रीड़ा करता हुआ राजा सुमुख का जीव विद्याधर भोगभूमि गया। उसके साथ उसकी स्त्री विद्याधरी भी थी। इधर स्त्री के विरह रूपी अंगार से जिसका शरीर जल रहा था ऐसा वीरक श्रेष्ठी तप के प्रभाव से अनेक देवियों के समूह से युक्त देवपद को प्राप्त हुआ ।।2-5।।<span id="6" /> उसने अवधि ज्ञान से जब यह जाना कि हमारा वैरी राजा सुमुख हरि क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है तो पाप बुद्धि में प्रेम करनेवाला वह देव उसे वहाँ से भरतक्षेत्र में रख गया तथा उसकी दुर्दशा की ।।6।।<span id="7" /> चूंकि वह अपनी भार्या के साथ हरि क्षेत्र से हरकर लाया गया था इसलिए समस्त संसार में वह हरि इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।।7।। उसके महागिरि नाम का पुत्र हुआ, उसके हिमगिरि, हिमगिरि के वसुगिरि, वसुगिरि के इंद्रगिरि, इंद्रगिरि के रत्नमाला, रत्नमाला के संभूत और संभूत के भूतदेव आदि सैकड़ों राजा क्रमश: उत्पन्न हुए। ये सब हरिवंशज कहलाये ।।8-1।।<span id="10" /> आगे चलकर उसी हरिवंश में कुशाग्र नामक महानगर में सुमित्र नामक प्रसिद्ध उत्कृष्ट राजा हुआ ।।10।।<span id="11" /> राजा भोगों से इंद्र के समान था कांति से चंद्रमा को जीतने वाला था, दीप्ति से सूर्य को पराजित कर रहा था और प्रताप से समस्त शत्रुओं को नम्र करने वाला था ।।11।।<span id="12" /> उसकी पद्मावती नाम की स्त्री थी। पद्मावती बहुत ही सुंदर थी। उसके नेत्र कमल के समान थे, वह विशाल कांति की धारक थी, शुभ लक्षणों से संपूर्ण थी तथा उसके सर्व मनोरथ पूर्ण हुए थे ।।12।।<span id="13" /> एक दिन वह रात्रि के समय सुंदर महल में सुखकारी शय्या पर सो रही थी कि उसने पिछले पहर में निम्नलिखित सोलह उत्तम स्वप्न देखे ।।13।।<span id="14" /><span id="15" /> गज 1 वृषभ 2 सिंह 3 लक्ष्मी का अभिषेक 4 दो मालाएँ 5 चंद्रमा 6 सूर्य 7 दो मीन 8 कलश 9 कमल कलित सरोवर 10 समुद्र 11 रत्नों से चित्र—विचित्र सिंहासन 12 विमान 13 उज्जवल भवन 14 रत्नराशि 15 और अग्नि 16 ।।14-15।।<span id="16" /> तदनंतर जिसका चित्त आश्चर्य से चकित हो रहा था ऐसी बुद्धिमती रानी पद्मावती जाग कर तथा प्रातःकाल संबंधी यथायोग्य कार्य कर बड़ी नम्रता से पति के समीप गयी ।।16।।<span id="17" /> वहाँ जाकर जिसका मुखकमल फूल रहा था ऐसी न्याय की जानने वाली रानी भद्रासन पर सुख से बैठी। तदनंतर उसने हाथ जोड़कर पति से अपने स्वप्नों का फल पूछा ।।17।।<span id="18" /> इधर पति ने जब तक उससे स्वप्नों का फल कहा तब तक उधर आकाश से रत्नों की वृष्टि पड़ने लगी ।।18।।<span id="19" /> इंद्र की आज्ञा से प्रसन्न यक्ष प्रतिदिन इसके घर में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करता था ।।19।।<span id="20" /> पंद्रह मास तक लगातार पड़ती हुई धनवृष्टि से वह समस्त नगर रत्न तथा सुवर्णादिमय हो गया ।।20।।<span id="21" /> पद्म, महापद्म आदि सरोवरों के कमलों में रहने वाली श्री आदि देवियाँ अपने परिवार के साथ मिलकर जिन माता की सब प्रकार की सेवा बड़े आदरभाव से करती थीं ।।21।।<span id="22" /></p> | ||
<p>अथानंतर भगवान का जन्म हुआ। सो जन्म होते ही इंद्र ने लोकपालों के साथ बड़े वैभव से सुमेरु पर्वत पर भगवान का क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया ।।22।। अभिषेक के बाद इंद्र ने भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा की, स्तुति की, प्रणाम किया और तदनंतर प्रेमपूर्वक माता की गोद में लाकर विराजमान कर दिया ।।23।। जब भगवान् गर्भ में स्थित थे तभी से उनकी माता विशेष कर सुव्रता अर्थात् उत्तम व्रतों को धारण करने वाली हो गयी थीं इसलिए वे मुनिसुव्रत नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ।।24।। जिनका मुख चंद्रमा के समान था ऐसे सुव्रतनाथ भगवान् यद्यपि अंजनागिरि के समान श्यामवर्ण थे तथापि उन्होंने अपने तेज से सूर्य को जीत लिया था ।।25।। इंद्र के द्वारा कल्पित उत्तम भोगों को धारण करते हुए उन्होंने अहमिंद्र का भारी सुख दूर से ही तिरस्कृत कर दिया था ।।26।। हा-हा, हू-हू, तुंबुरु, नारद और विश्वावसु आदि गंधर्व देव सदा उनके समीप गाते रहते थे तथा किन्नर देवियाँ और अनेक अप्सराएँ वीणा, बांसुरी आदि बाजों के साथ नृत्य करती रहती थी। अनेक देवियाँ उबटन आदि लगाकर उन्हें स्नान कराती थीं ।।27-28।। सुंदर शरीर को धारण करने वाले भगवान ने यौवन अवस्था में मंद मुसकान, लज्जा, दंभ, ईर्ष्या, प्रसाद आदि सुंदर विभ्रमों से युक्त स्त्रियों को इच्छानुसार रमण कराया था ।।29।।</p> | <p>अथानंतर भगवान का जन्म हुआ। सो जन्म होते ही इंद्र ने लोकपालों के साथ बड़े वैभव से सुमेरु पर्वत पर भगवान का क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया ।।22।।<span id="23" /> अभिषेक के बाद इंद्र ने भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा की, स्तुति की, प्रणाम किया और तदनंतर प्रेमपूर्वक माता की गोद में लाकर विराजमान कर दिया ।।23।।<span id="24" /> जब भगवान् गर्भ में स्थित थे तभी से उनकी माता विशेष कर सुव्रता अर्थात् उत्तम व्रतों को धारण करने वाली हो गयी थीं इसलिए वे मुनिसुव्रत नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ।।24।।<span id="25" /> जिनका मुख चंद्रमा के समान था ऐसे सुव्रतनाथ भगवान् यद्यपि अंजनागिरि के समान श्यामवर्ण थे तथापि उन्होंने अपने तेज से सूर्य को जीत लिया था ।।25।।<span id="26" /> इंद्र के द्वारा कल्पित उत्तम भोगों को धारण करते हुए उन्होंने अहमिंद्र का भारी सुख दूर से ही तिरस्कृत कर दिया था ।।26।।<span id="27" /><span id="28" /> हा-हा, हू-हू, तुंबुरु, नारद और विश्वावसु आदि गंधर्व देव सदा उनके समीप गाते रहते थे तथा किन्नर देवियाँ और अनेक अप्सराएँ वीणा, बांसुरी आदि बाजों के साथ नृत्य करती रहती थी। अनेक देवियाँ उबटन आदि लगाकर उन्हें स्नान कराती थीं ।।27-28।।<span id="29" /> सुंदर शरीर को धारण करने वाले भगवान ने यौवन अवस्था में मंद मुसकान, लज्जा, दंभ, ईर्ष्या, प्रसाद आदि सुंदर विभ्रमों से युक्त स्त्रियों को इच्छानुसार रमण कराया था ।।29।।<span id="30" /></p> | ||
<p>अथानंतर एक बार शरद ऋतु के मेघ को विलीन होता देख वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये जिससे दीक्षा लेने की इच्छा उनके मन में जाग उठी। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर उनकी स्तुति की ।।30।। तदनंतर जिसमें समस्त सामंतों के समूह नम्रीभूत थे तथा सुख से जिसका पालन होता था ऐसा राज्य उन्होंने अपने सुव्रत नामक पुत्र के लिए देकर सब प्रकार की इच्छा छोड़ दी ।।31।। तत्पश्चात् जिसने अपनी सुगंधि से दशों दिशाओं को व्याप्त कर रखा था, जिसमें शरीर पर लगा हुआ दिव्य विलेपन ही सुंदर मकरंद था, जिसने अपनी सुगंधि से आतुर भ्रमरियों के भारी समूह को अपनी ओर खींच रखा था, जो हरे मणियों की कांतिरूपी पत्तों के समूह से व्याप्त था, जो दांतों की पंक्ति की सफेद कांतिरूपी मृणाल के समूह से युक्त था, जो नाना प्रकार के आभूषणों की ध्वनि रूपी पक्षियों की कलन से परिपूर्ण था, बलि रूपी तरंगों से युक्त था और जो स्तनरूपी चक्राक पक्षियों से सुशोभित था ऐसी उत्तम स्त्रियोंरूपी कमल वन से वे कीर्तिधवल राजहंस (श्रेष्ठ राजा भगवान् मुनि सुव्रतनाथ) इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी कमल वन से राजहंस (हंस विशेष) निकलता है ।।32-35।। तदनंतर मनुष्यों के चूड़ामणि भगवान् मुनि सुव्रतनाथ, देवों तथा राजाओं के द्वारा उठायी हुई अपराजिता नाम को पालकी में सवार होकर विपुल नामक उद्यान में गये ।।36।। तदनंतर पालकी से उतरकर हरिवंश के आभूषण स्वरूप भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने कई हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।37।। भगवान ने दीक्षा लेते समय दो दिन का उपवास किया था। उपवास समाप्त होने पर राजगृह नगर में वृषभ दत्त ने उन्हें परमान्न अर्थात् खीर से भक्तिपूर्वक पारणा करायी ।।38।। जिनशासन में आचार की वृत्ति किस तरह है यह बतलाने के लिए ही भगवान ने आहार ग्रहण किया था। आहारदान के प्रभाव से वृषभ दत्त पंचातिशय को प्राप्त हुआ ।।35।।</p> | <p>अथानंतर एक बार शरद ऋतु के मेघ को विलीन होता देख वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये जिससे दीक्षा लेने की इच्छा उनके मन में जाग उठी। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर उनकी स्तुति की ।।30।।<span id="31" /> तदनंतर जिसमें समस्त सामंतों के समूह नम्रीभूत थे तथा सुख से जिसका पालन होता था ऐसा राज्य उन्होंने अपने सुव्रत नामक पुत्र के लिए देकर सब प्रकार की इच्छा छोड़ दी ।।31।।<span id="32" /><span id="33" /><span id="34" /><span id="35" /> तत्पश्चात् जिसने अपनी सुगंधि से दशों दिशाओं को व्याप्त कर रखा था, जिसमें शरीर पर लगा हुआ दिव्य विलेपन ही सुंदर मकरंद था, जिसने अपनी सुगंधि से आतुर भ्रमरियों के भारी समूह को अपनी ओर खींच रखा था, जो हरे मणियों की कांतिरूपी पत्तों के समूह से व्याप्त था, जो दांतों की पंक्ति की सफेद कांतिरूपी मृणाल के समूह से युक्त था, जो नाना प्रकार के आभूषणों की ध्वनि रूपी पक्षियों की कलन से परिपूर्ण था, बलि रूपी तरंगों से युक्त था और जो स्तनरूपी चक्राक पक्षियों से सुशोभित था ऐसी उत्तम स्त्रियोंरूपी कमल वन से वे कीर्तिधवल राजहंस (श्रेष्ठ राजा भगवान् मुनि सुव्रतनाथ) इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी कमल वन से राजहंस (हंस विशेष) निकलता है ।।32-35।।<span id="36" /> तदनंतर मनुष्यों के चूड़ामणि भगवान् मुनि सुव्रतनाथ, देवों तथा राजाओं के द्वारा उठायी हुई अपराजिता नाम को पालकी में सवार होकर विपुल नामक उद्यान में गये ।।36।।<span id="37" /> तदनंतर पालकी से उतरकर हरिवंश के आभूषण स्वरूप भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने कई हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।37।।<span id="38" /> भगवान ने दीक्षा लेते समय दो दिन का उपवास किया था। उपवास समाप्त होने पर राजगृह नगर में वृषभ दत्त ने उन्हें परमान्न अर्थात् खीर से भक्तिपूर्वक पारणा करायी ।।38।।<span id="35" /> जिनशासन में आचार की वृत्ति किस तरह है यह बतलाने के लिए ही भगवान ने आहार ग्रहण किया था। आहारदान के प्रभाव से वृषभ दत्त पंचातिशय को प्राप्त हुआ ।।35।।<span id="40" /></p> | ||
<p>तदनंतर चंपक वृक्ष के नीचे शुक्ल-ध्यान से विराजमान भगवान को घातिया कर्मो का क्षय होने के उपरांत केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।40।। तदनंतर इंद्रों सहित देवों ने आकर स्तुति की, प्रणाम किया तथा उत्तम गणधरों से युक्त उन मुनिसुव्रतनाथ भगवान से उत्तम धर्म का उपदेश सुना ।।41।। भगवान ने सागार और अनगार के भेद से अनेक प्रकार के धर्म का निरूपण किया सो उस निर्मल धर्मं को विधिपूर्वक सुनकर वे सब यथायोग्य अपने अपने स्थान पर गये ।।42।। हर्ष से भरे नम्रीभूत सुरासुर जिनकी स्तुति करते थे ऐसे भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कर महाधैर्य के धारक तथा गण की रक्षा करने वाले गणधरों एवं अन्यान्य साधुओं के साथ पृथिवी तल पर विहार किया ।।43-44।। तदनंतर सम्मेदाचल के शिखर पर आरूढ़ होकर तथा चार अघातिया कर्मो का क्षय कर वे लोक के चूड़ामणि हो गये अर्थात् सिद्धालय में जाकर विराजमान हो गये ।।45।। जो मनुष्य उत्तम भाव से मुनिसुव्रत भगवान के इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।।46।। वे पुन: आकर रत्नत्रय को निर्मल कर उस परम स्थान को प्राप्त होते हैं जहाँ से कि फिर आना नहीं होता ।।47।।</p> | <p>तदनंतर चंपक वृक्ष के नीचे शुक्ल-ध्यान से विराजमान भगवान को घातिया कर्मो का क्षय होने के उपरांत केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।40।।<span id="41" /> तदनंतर इंद्रों सहित देवों ने आकर स्तुति की, प्रणाम किया तथा उत्तम गणधरों से युक्त उन मुनिसुव्रतनाथ भगवान से उत्तम धर्म का उपदेश सुना ।।41।।<span id="42" /> भगवान ने सागार और अनगार के भेद से अनेक प्रकार के धर्म का निरूपण किया सो उस निर्मल धर्मं को विधिपूर्वक सुनकर वे सब यथायोग्य अपने अपने स्थान पर गये ।।42।।<span id="43" /><span id="44" /> हर्ष से भरे नम्रीभूत सुरासुर जिनकी स्तुति करते थे ऐसे भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कर महाधैर्य के धारक तथा गण की रक्षा करने वाले गणधरों एवं अन्यान्य साधुओं के साथ पृथिवी तल पर विहार किया ।।43-44।।<span id="45" /> तदनंतर सम्मेदाचल के शिखर पर आरूढ़ होकर तथा चार अघातिया कर्मो का क्षय कर वे लोक के चूड़ामणि हो गये अर्थात् सिद्धालय में जाकर विराजमान हो गये ।।45।।<span id="46" /> जो मनुष्य उत्तम भाव से मुनिसुव्रत भगवान के इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।।46।।<span id="47" /> वे पुन: आकर रत्नत्रय को निर्मल कर उस परम स्थान को प्राप्त होते हैं जहाँ से कि फिर आना नहीं होता ।।47।।<span id="48" /></p> | ||
<p>तदनंतर मुनि सुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत ने भी चिरकाल तक निश्चल राज्य कर अंत में अपने पुत्र दक्ष के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया ।।48।। राजा दक्ष के इलावर्धन, इलावर्धन के श्रीवर्धन्, श्रीवर्धन् के श्रीवृक्ष, श्रीवृक्ष के संजयंत, सजयंत के कुणिम, कुणिम के महारथ और महारथ के पुलोमा इत्यादि हजारों राजा हरिवंश में उत्पन्न हुए। इनमें से कितने ही राजा निर्वाण को प्राप्त हुए और कितने ही स्वर्ग गये ।।49-51।। इस प्रकार क्रम से अनेक राजाओं के हो चुकने पर इसी वंश में मिथिला का राजा वासवकेतु हुआ ।।52।। उसकी विपुला नाम की पट्टरानी थी। वह विपुला, विपुल अर्थात् दीर्घ नेत्रों को धारण करने वाली थी और उत्कृष्ट लक्ष्मी की धारक होकर भी मध्यभाग से दरिद्रता को प्राप्त थी अर्थात् उसकी कमर अत्यंत कृश थी ।।53।। उन दोनों के नीतिनिपुण जनक नाम का पुत्र हुआ। वह जनक, जनक अर्थात् पिता के समान ही निरंतर प्रजा का हित करता था ।।54।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह मैंने तेरे लिए राजा जनक की उत्पत्ति कही। अब जिस वंश में राजा दशरथ हुए उसका कथन करता हूँ सो सुन ।।55।।</p> | <p>तदनंतर मुनि सुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत ने भी चिरकाल तक निश्चल राज्य कर अंत में अपने पुत्र दक्ष के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया ।।48।।<span id="49" /><span id="50" /><span id="51" /> राजा दक्ष के इलावर्धन, इलावर्धन के श्रीवर्धन्, श्रीवर्धन् के श्रीवृक्ष, श्रीवृक्ष के संजयंत, सजयंत के कुणिम, कुणिम के महारथ और महारथ के पुलोमा इत्यादि हजारों राजा हरिवंश में उत्पन्न हुए। इनमें से कितने ही राजा निर्वाण को प्राप्त हुए और कितने ही स्वर्ग गये ।।49-51।।<span id="52" /> इस प्रकार क्रम से अनेक राजाओं के हो चुकने पर इसी वंश में मिथिला का राजा वासवकेतु हुआ ।।52।।<span id="53" /> उसकी विपुला नाम की पट्टरानी थी। वह विपुला, विपुल अर्थात् दीर्घ नेत्रों को धारण करने वाली थी और उत्कृष्ट लक्ष्मी की धारक होकर भी मध्यभाग से दरिद्रता को प्राप्त थी अर्थात् उसकी कमर अत्यंत कृश थी ।।53।।<span id="54" /> उन दोनों के नीतिनिपुण जनक नाम का पुत्र हुआ। वह जनक, जनक अर्थात् पिता के समान ही निरंतर प्रजा का हित करता था ।।54।।<span id="55" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह मैंने तेरे लिए राजा जनक की उत्पत्ति कही। अब जिस वंश में राजा दशरथ हुए उसका कथन करता हूँ सो सुन ।।55।।<span id="56" /><span id="57" /><span id="58" /></p> | ||
<p>अथानंतर इक्ष्याकुओं के रमणीय कुल में जब भगवान् ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त हो गये और उनके बाद चक्रवर्ती भरत, अर्ककीर्ति तथा वंश के अलंकार भूत सोम आदि राजा व्यतीत हो चुके तब असंख्यात काल के भीतर उस वंश में अनेक राजा हुए। उनमें कितने ही राजा अत्यंत कठिन तपश्चरण कर निर्वाण को प्राप्त हुए, कितने ही स्वर्ग में जाकर भोगों में निमग्न हो क्रीड़ा करने लगे और कितने ही पुण्य का संचय नहीं करने से शुष्क हो गये अर्थात् नरकादि गतियों में जाकर रोते हुए अपने कर्मो का फल भोगने लगे ।।56-58।। हे श्रेणिक! इस संसार में जो व्यसन—कष्ट हैं वे चक्र की नाई बदलते रहते हैं अर्थात् कभी व्यसन महोत्सव रूप हो जाते हैं और कभी महोत्सव व्यसन रूप हो जाते हैं, कभी इस जीव में धीरे-धीरे माया आदि दोष वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ।।59।। कभी ये जीव निर्धन होकर क्लेश उठाते हैं और कभी पूर्वबद्ध आयु के क्षीण हो जाने अथवा किसी कारणवश कम हो जाने से बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं ।।60।। कभी ये जीव नाना रूपता को धारण करते हैं, कभी ज्यों का त्यों स्थिर रह जाते हैं, कभी एक दूसरे को मारते हैं, कभी शोक करते हैं, कभी रोते हैं, कभी खाते हैं, कभी बाधा पहुँचाते हैं, कभी विवाद करते हैं, कभी गमन करते हैं, कभी चलते हैं, कभी प्रभावशील होते हैं, अर्थात् स्वामी बनते हैं, कभी भार ढोते हैं, कभी गाते हैं, कभी उपासना करते हैं, कभी भोजन करते हैं, कभी दरिद्रता को प्राप्त करते हैं, कभी शब्द करते हैं ।।61-62।। कभी जीतते हैं, कभी देते हैं, कभी कुछ छोड़ते हैं, कभी विराजमान होते हैं, कभी अनेक विलास धारण करते हैं, कभी संतोष धारण करते हैं, कभी शासन करते हैं, कभी शांति अर्थात् क्षमा की अभिलाषा करते हैं, कभी शांति का हरण करते हैं ।।63।। कभी लज्जित होते हैं, कभी कुत्सित चाल चलते हैं, कभी किसी को सताते हैं, कभी संतप्त होते हैं, कभी कपट धारण करते हैं, कभी याचना करते, कभी सम्मुख दौड़ते हैं, कभी मायाचार दिखाते हैं, कभी किसी के द्रव्यादि का हरण करते हैं ।।64।। कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी किसी वस्तु को नष्ट करते हैं, कभी किसी को कुछ देते हैं, कभी कहीं वास करते हैं, कभी किसी को लोंचते हैं, कभी किसी को नापते हैं, कभी दुःखी होते हैं, कभी क्रोध करते हैं, कभी विचलित होते हैं, ।।65।। कभी संतुष्ट होते हैं, कभी किसी की पूजा करते हैं, कभी किसी को छलते हैं, कभी किसी को सांतवना देते हैं, कभी कुछ समझते हैं, कभी मोहित होते हैं, कभी रक्षा करते हैं, कभी नृत्य करते हैं, कभी स्नेह करते हैं, कभी विनय करते हैं, ।।66।। कभी किसी को प्रेरणा देते हैं, कभी दाने-दाने बीनकर पेट भरते हैं, कभी खेत जोतते हैं, कभी भाड़ भूँजते हैं, कभी नमस्कार करते हैं, कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी लुनते हैं, कभी सुनते हैं, कभी होम करते हैं, कभी चलते हैं, कभी जागते हैं ।।67।। कभी सोते हैं, कभी डरते हैं, कभी नाना चेष्टा करते हैं, कभी नष्ट करते हैं, कभी किसी को खंडित करते हैं, कभी किसी को पीड़ा पहुँचाते हैं, कभी पूर्ण करते हैं, कभी स्नान करते हैं, कभी बांधते हैं, कभी रोकते हैं, कभी चिल्लाते हैं, ।।68।। कभी सोते हैं, कभी घूमते हैं, कभी जीर्ण होते हैं, कभी पीते हैं, कभी रचते हैं, कभी वरण करते हैं, कभी मसलते हैं, कभी फैलाते हैं, कभी तर्पण करते हैं ।।69।। कभी मीमांसा करते हैं, कभी घृणा करते हैं, कभी इच्छा करते हैं, कभी तरते हैं, कभी चिकित्सा करते हैं, कभी अनुमोदना करते हैं, कभी रोकते हैं और कभी निगलते हैं ।।70।। हे राजन्! इत्यादि क्रियाओं के जाल से जिनके मन व्याप्त हो रहे थे तथा शुभ-अशुभ कार्यों में लीन थे ऐसे अनेक मानव उस इक्ष्याकुवंश में क्रम से हुए थे ।।71।। इस प्रकार जिसमें समस्त मानवों की चेष्टाएँ चित्रपट के समान नाना प्रकार की हैं ऐसा यह अवसर्पिणी नाम का काल धीरे-धीरे समाप्त होता गया ।।72।।</p> | <p>अथानंतर इक्ष्याकुओं के रमणीय कुल में जब भगवान् ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त हो गये और उनके बाद चक्रवर्ती भरत, अर्ककीर्ति तथा वंश के अलंकार भूत सोम आदि राजा व्यतीत हो चुके तब असंख्यात काल के भीतर उस वंश में अनेक राजा हुए। उनमें कितने ही राजा अत्यंत कठिन तपश्चरण कर निर्वाण को प्राप्त हुए, कितने ही स्वर्ग में जाकर भोगों में निमग्न हो क्रीड़ा करने लगे और कितने ही पुण्य का संचय नहीं करने से शुष्क हो गये अर्थात् नरकादि गतियों में जाकर रोते हुए अपने कर्मो का फल भोगने लगे ।।56-58।।<span id="59" /> हे श्रेणिक! इस संसार में जो व्यसन—कष्ट हैं वे चक्र की नाई बदलते रहते हैं अर्थात् कभी व्यसन महोत्सव रूप हो जाते हैं और कभी महोत्सव व्यसन रूप हो जाते हैं, कभी इस जीव में धीरे-धीरे माया आदि दोष वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ।।59।।<span id="60" /> कभी ये जीव निर्धन होकर क्लेश उठाते हैं और कभी पूर्वबद्ध आयु के क्षीण हो जाने अथवा किसी कारणवश कम हो जाने से बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं ।।60।।<span id="61" /><span id="62" /> कभी ये जीव नाना रूपता को धारण करते हैं, कभी ज्यों का त्यों स्थिर रह जाते हैं, कभी एक दूसरे को मारते हैं, कभी शोक करते हैं, कभी रोते हैं, कभी खाते हैं, कभी बाधा पहुँचाते हैं, कभी विवाद करते हैं, कभी गमन करते हैं, कभी चलते हैं, कभी प्रभावशील होते हैं, अर्थात् स्वामी बनते हैं, कभी भार ढोते हैं, कभी गाते हैं, कभी उपासना करते हैं, कभी भोजन करते हैं, कभी दरिद्रता को प्राप्त करते हैं, कभी शब्द करते हैं ।।61-62।।<span id="63" /> कभी जीतते हैं, कभी देते हैं, कभी कुछ छोड़ते हैं, कभी विराजमान होते हैं, कभी अनेक विलास धारण करते हैं, कभी संतोष धारण करते हैं, कभी शासन करते हैं, कभी शांति अर्थात् क्षमा की अभिलाषा करते हैं, कभी शांति का हरण करते हैं ।।63।।<span id="64" /> कभी लज्जित होते हैं, कभी कुत्सित चाल चलते हैं, कभी किसी को सताते हैं, कभी संतप्त होते हैं, कभी कपट धारण करते हैं, कभी याचना करते, कभी सम्मुख दौड़ते हैं, कभी मायाचार दिखाते हैं, कभी किसी के द्रव्यादि का हरण करते हैं ।।64।।<span id="65" /> कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी किसी वस्तु को नष्ट करते हैं, कभी किसी को कुछ देते हैं, कभी कहीं वास करते हैं, कभी किसी को लोंचते हैं, कभी किसी को नापते हैं, कभी दुःखी होते हैं, कभी क्रोध करते हैं, कभी विचलित होते हैं, ।।65।।<span id="66" /> कभी संतुष्ट होते हैं, कभी किसी की पूजा करते हैं, कभी किसी को छलते हैं, कभी किसी को सांतवना देते हैं, कभी कुछ समझते हैं, कभी मोहित होते हैं, कभी रक्षा करते हैं, कभी नृत्य करते हैं, कभी स्नेह करते हैं, कभी विनय करते हैं, ।।66।।<span id="67" /> कभी किसी को प्रेरणा देते हैं, कभी दाने-दाने बीनकर पेट भरते हैं, कभी खेत जोतते हैं, कभी भाड़ भूँजते हैं, कभी नमस्कार करते हैं, कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी लुनते हैं, कभी सुनते हैं, कभी होम करते हैं, कभी चलते हैं, कभी जागते हैं ।।67।।<span id="68" /> कभी सोते हैं, कभी डरते हैं, कभी नाना चेष्टा करते हैं, कभी नष्ट करते हैं, कभी किसी को खंडित करते हैं, कभी किसी को पीड़ा पहुँचाते हैं, कभी पूर्ण करते हैं, कभी स्नान करते हैं, कभी बांधते हैं, कभी रोकते हैं, कभी चिल्लाते हैं, ।।68।।<span id="69" /> कभी सोते हैं, कभी घूमते हैं, कभी जीर्ण होते हैं, कभी पीते हैं, कभी रचते हैं, कभी वरण करते हैं, कभी मसलते हैं, कभी फैलाते हैं, कभी तर्पण करते हैं ।।69।।<span id="70" /> कभी मीमांसा करते हैं, कभी घृणा करते हैं, कभी इच्छा करते हैं, कभी तरते हैं, कभी चिकित्सा करते हैं, कभी अनुमोदना करते हैं, कभी रोकते हैं और कभी निगलते हैं ।।70।।<span id="71" /> हे राजन्! इत्यादि क्रियाओं के जाल से जिनके मन व्याप्त हो रहे थे तथा शुभ-अशुभ कार्यों में लीन थे ऐसे अनेक मानव उस इक्ष्याकुवंश में क्रम से हुए थे ।।71।।<span id="72" /> इस प्रकार जिसमें समस्त मानवों की चेष्टाएँ चित्रपट के समान नाना प्रकार की हैं ऐसा यह अवसर्पिणी नाम का काल धीरे-धीरे समाप्त होता गया ।।72।।<span id="73" /><span id="74" /></p> | ||
<p>अथानंतर जिसमें देवों का आगमन जारी रहता था ऐसे बीसवें वर्तमान तीर्थंकर का अंतराल शुरू होने पर अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नाम का बड़ा राजा हुआ। उसने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था। वह सूर्य के समान प्रताप से संयुक्त था तथा प्रजा का पालन करने में निपुण था ।।73-74।। उसकी हेमचूला नाम की महा तेजस्विनी पट्टरानी थी सो उसके सुरेंद्रमंयु नाम का महागुणवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ।।75।। | <p>अथानंतर जिसमें देवों का आगमन जारी रहता था ऐसे बीसवें वर्तमान तीर्थंकर का अंतराल शुरू होने पर अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नाम का बड़ा राजा हुआ। उसने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था। वह सूर्य के समान प्रताप से संयुक्त था तथा प्रजा का पालन करने में निपुण था ।।73-74।।<span id="75" /> उसकी हेमचूला नाम की महा तेजस्विनी पट्टरानी थी सो उसके सुरेंद्रमंयु नाम का महागुणवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ।।75।।<span id="76" /><span id="77" /> सुरेंद्रमंयु की कीर्तिसमा स्त्री हुई सो उसके चंद्रमा और सूर्य के समान कांति को धारण करने वाले दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र गुणों से सुशोभित थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम वज्रबाहु और छोटे पुत्र का नाम पुरंदर था। दोनों ही सार्थक नाम को धारण करने वाले थे और संसार में सुख से क्रीड़ा करते थे ।।76-77।।<span id="78" /><span id="79" /> उसी समय अत्यंत मनोहर हस्तिनापुर नगर में इशवाहन नाम का राजा रहता था। उसकी स्त्री का नाम चूड़ामणि था। उन दोनों के मनोदया नाम की अत्यंत सुंदरी पुत्री थी सो उसे मनुष्यों में अत्यंत प्रशंसनीय वज्रबाहु कुमार ने प्राप्त किया ।।78-79।।<span id="80" /> कदाचित् कन्या का भाई उदयसुंदर उस कन्या को लेने के लिए वज्रबाहु के घर गया सो जिस पर अत्यंत सुशोभित सफेद छत्र लग रहा था ऐसा वज्रबाहु स्वयं भी उसके साथ चलने के लिए उद्यत हुआ ।।80।।<span id="81" /> वह कन्या अपने सौंदर्य से समस्त पृथ्वी में प्रसिद्ध थी, उसे मन में धारण करता हुआ वज्रबाहु बड़े वैभव के साथ श्वसुर के नगर की ओर चला ।।81।।<span id="82" /></p> | ||
<p>अथानंतर चलते-चलते उसकी दृष्टि वसंत ऋतु के फूलों से व्याप्त वसंत नामक मनोहर पर्वत पर पड़ी ।।82।। वह जैसे-जैसे उस पर्वत के समीप आता जाता वैसे-वैसे ही उसकी परम शोभा को देखता हुआ हर्ष को प्राप्त हो रहा था ।।83।। फूलों की धूली से मिली सुगंधित वायु उसका आलिंगन कर रही थी सो ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकाल के बाद प्राप्त हुआ मित्र ही आलिंगन कर रहा हो ।।84।। जहाँ वृक्षों के अग्रभाग वायु से कंपित हो रहे थे ऐसा वह पर्वत पुंस्कोकिलाओं के शब्दों के बहाने मानो वज्रबाहु की जय-जयकार ही कर रहा था ।।85।। वीणा की झंकार के समान मनोहर मदशाली भ्रमरों के शब्द से उसके श्रवण तथा मन साथ-ही-साथ हरे गये ।।86।। यह आम है, यह कनेर है, यह फूलों से सहित लोध्र है, यह प्रिया है और यह जलती हुई अग्नि के समान सुशोभित पलाश है इस प्रकार क्रम से चलती हुई उसकी निश्चल दृष्टि दूरी के कारण जिसमें मनुष्य के आकार का संशय हो रहा था ऐसे मुनिराज पर पड़ी ।।87-88।। कायोत्सर्ग से स्थित मुनिराज के विषय में वज्रबाहु को वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यह झूठ है? या साधु हैं अथवा पर्वत का शिखर है ।।89।। तदनंतर जब अत्यंत समीपवर्ती मार्ग में पहुँचा तब उसे निश्चय हुआ कि ये महायोगी मुनिराज हैं ।।90।। | <p>अथानंतर चलते-चलते उसकी दृष्टि वसंत ऋतु के फूलों से व्याप्त वसंत नामक मनोहर पर्वत पर पड़ी ।।82।।<span id="83" /> वह जैसे-जैसे उस पर्वत के समीप आता जाता वैसे-वैसे ही उसकी परम शोभा को देखता हुआ हर्ष को प्राप्त हो रहा था ।।83।।<span id="84" /> फूलों की धूली से मिली सुगंधित वायु उसका आलिंगन कर रही थी सो ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकाल के बाद प्राप्त हुआ मित्र ही आलिंगन कर रहा हो ।।84।।<span id="85" /> जहाँ वृक्षों के अग्रभाग वायु से कंपित हो रहे थे ऐसा वह पर्वत पुंस्कोकिलाओं के शब्दों के बहाने मानो वज्रबाहु की जय-जयकार ही कर रहा था ।।85।।<span id="86" /> वीणा की झंकार के समान मनोहर मदशाली भ्रमरों के शब्द से उसके श्रवण तथा मन साथ-ही-साथ हरे गये ।।86।।<span id="87" /><span id="88" /> यह आम है, यह कनेर है, यह फूलों से सहित लोध्र है, यह प्रिया है और यह जलती हुई अग्नि के समान सुशोभित पलाश है इस प्रकार क्रम से चलती हुई उसकी निश्चल दृष्टि दूरी के कारण जिसमें मनुष्य के आकार का संशय हो रहा था ऐसे मुनिराज पर पड़ी ।।87-88।।<span id="89" /> कायोत्सर्ग से स्थित मुनिराज के विषय में वज्रबाहु को वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यह झूठ है? या साधु हैं अथवा पर्वत का शिखर है ।।89।।<span id="90" /> तदनंतर जब अत्यंत समीपवर्ती मार्ग में पहुँचा तब उसे निश्चय हुआ कि ये महायोगी मुनिराज हैं ।।90।।<span id="91" /><span id="92" /><span id="93" /><span id="94" /> वे मुनिराज ऊँची-नीची शिलाओं से विषम धरातल में स्थिर विराजमान थे, सूर्य की किरणों से आलिंगित होने के कारण उनका मुखकमल म्लान हो रहा था, किसी बड़े सर्प के समान सुशोभित उनकी दोनों उत्तम भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, उनका वक्षःस्थल सुमेरु के तट के समान स्थूल तथा चौड़ा था, उनकी देदीप्यमान दोनों उत्कृष्ट जाँघें दिग्गजों के बाँधने के खंभों के समान स्थिर थीं, यद्यपि वे तप के कारण कृश थे तथापि कांति से अत्यंत स्थूल जान पड़ते थे, उन्होंने अपने अत्यंत सौम्य निश्चल नेत्र नासिका के अग्रभाग पर स्थापित कर रखे थे, इस प्रकार एकाग्र रूप से ध्यान करते हुए मुनिराज को देखकर राजा वज्रबाहु इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।91-94।।<span id="95" /> अहो! इन अत्यंत प्रशांत उत्तम मानव को धन्य है जो समस्त परिग्रह का त्याग कर मोक्ष की इच्छा से तपस्या कर रहे हैं ।।95।।<span id="96" /><span id="97" /><span id="98" /> इन मुनिराज पर मुक्ति-लक्ष्मी ने अनुग्रह किया है, इनकी बुद्धि आत्मकल्याण में लीन है, इनकी आत्मा पर पीड़ा से निवृत्त हो चुकी है, ये अलौकिक लक्ष्मी से अलंकृत हैं, शत्रु और मित्र तथा रत्नों की राशि और तृण में समान बुद्धि रखते हैं, मान एवं मत्सर से रहित हैं, सिद्धि रूपी वधू का आलिंगन करने में इनकी लालसा बढ़ रही है, इन्होंने इंद्रियों और मन को वश में कर लिया है, ये सुमेरु के समान स्थिर हैं, वीतराग हैं तथा कुशल कार्य में मन स्थिर कर ध्यान कर रहे हैं ।।96-98।।<span id="99" /> मनुष्य में जन्म का पूर्ण-फल इन्होंने प्राप्त किया है, इंद्रियरूपी दुष्ट चोर इन्हें नहीं ठग सके हैं ।।99।।<span id="100" /> और मैं तो कर्मरूपी पाशों से उस तरह निरंतर वेष्टित हूँ जिस तरह कि आशीविष जाति के बड़े-बड़े सर्पों से चंदन का वृक्ष वेष्टित होता है ।।100।।<span id="101" /> जिसका चित्त प्रमाद से भरा हुआ है ऐसे जड्तुल्य मुझ पापी के लिए धिक्कार है। मैं भोगरूपी पर्वत की बड़ी गोल चट्टान के अग्रभाग पर बैठकर सो रहा हूँ ।।101।।<span id="102" /> यदि मैं इन मुनिराज की इस अवस्था को धारण कर सकूँ तो मनुष्य-जन्म का फल मुझे प्राप्त हो जावे ।।102।।<span id="103" /> इस प्रकार विचार करते हुए राजा वज्रबाहु की दृष्टि उन निर्ग्रंथ मुनिराज पर खंभे में बँधी हुई के समान अत्यंत निश्चल हो गयी ।।103।।<span id="104" /><span id="105" /></p> | ||
<p>इस तरह वज्रबाहु को निश्चल दृष्टि देख उदयसुंदर ने मुस्कराकर हँसी करते हुए कहा कि आप इन मुनिराज को बड़ी देर से देख रहे हैं सो क्या इस दीक्षा को ग्रहण कर रहे हो? इसमें आप अनुरक्त दिखाई पड़ते हैं ।।104-105।। तदनंतर अपने भाव को छिपाकर वज्रबाहु ने कहा कि हे उदय! तुम्हारा क्या भाव है सो तो कहो ।।106।। उसे अंतर से विरक्त न जानकर उदयसुंदर ने परिहास के अनुरागवश दांतों की किरणों से ओठों को व्याप्त करते हुए कहा कि ।।107।। यदि आप इस दीक्षा को स्वीकृत करते हैं तो मैं भी आपका सखा अर्थात् साथी होऊँगा। अहो कुमार! आप इस मुनि दीक्षा से अत्यधिक सुशोभित होओगे ।।108।। ‘ऐसा हो’ इस प्रकार कहकर विवाह के आभूषणों से युक्त वज्रबाहु हाथी से उतरा और पर्वत पर चढ़ गया ।।109।। तब विशाल नेत्रों को धारण करने वाली स्त्रियां जोर-जोर से रोने लगीं। उनके नेत्रों से टूटे हुए मोतियों के हार के समान आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं ।।110।। उदयसुंदर ने भी आँखों में आँसू भरकर कहा कि हे देव! प्रसन्न होओ, यह क्या कर रहे हो? मैंने तो हंसी की थी ।।111।। तदनंतर मधुर शब्दों में सांतवना देते हुए वज्रबाहु ने उदयसुंदर से कहा कि हे उत्तम अभिप्राय के धारक! मैं कुएँ में गिर रहा था सो तुमने निकाला है ।।112।। तीनों लोकों में तुम्हारे समान मेरा दूसरा मित्र नहीं है। हे सुंदर! संसार में जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है और जो मरता है उसका जन्म अवश्यंभावी है ।।113।। यह जन्म-मरणरूपी घटी यंत्र बिजली, लहर तथा दुष्ट सर्प की जिह्वा से भी अधिक चंचल है तथा निरंतर घूमता रहता है ।।114।। दुःख में फंसे हुए संसार के जीवन की ओर तुम क्यों नहीं देख रहे हो? ये भोग स्वप्नों के भोगों के समान हैं, जीवन सुख के तुल्य है, स्नेह संध्या की लालिमा के समान है और यौवन फल के समान है। हे भद्र! तेरी हँसी भी मेरे लिए अमृत के समान हो गयी ।।115-116।। क्या हंसी में पी गयी औषधि रोग को नहीं हरती? चूंकि तुमने मेरी कल्याण की ओर प्रवृत्ति करायी है इसलिए आज तुम्हीं एक मेरे बंधु हो ।।117।। मैं संसार के आचार में लीन था सो आज तुम उससे विरक्ति के कारण हो गये। लो, अब मैं दीक्षा लेता हूँ। तुम अपने अभिप्राय के अनुसार कार्य करो ।।118।। इतना कहकर वह गुणसागर नामक मुनिराज के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम कर बड़ी विनय से हाथ जोड़ता हुआ बोला कि हे स्वामिन्! आपके प्रसाद से मेरा मन पवित्र हो गया है सो आज मैं इस भयंकर संसाररूपी कारागृह से निकलना चाहता ।।119-120।।</ | <p>इस तरह वज्रबाहु को निश्चल दृष्टि देख उदयसुंदर ने मुस्कराकर हँसी करते हुए कहा कि आप इन मुनिराज को बड़ी देर से देख रहे हैं सो क्या इस दीक्षा को ग्रहण कर रहे हो? इसमें आप अनुरक्त दिखाई पड़ते हैं ।।104-105।।<span id="106" /> तदनंतर अपने भाव को छिपाकर वज्रबाहु ने कहा कि हे उदय! तुम्हारा क्या भाव है सो तो कहो ।।106।।<span id="107" /> उसे अंतर से विरक्त न जानकर उदयसुंदर ने परिहास के अनुरागवश दांतों की किरणों से ओठों को व्याप्त करते हुए कहा कि ।।107।।<span id="108" /> यदि आप इस दीक्षा को स्वीकृत करते हैं तो मैं भी आपका सखा अर्थात् साथी होऊँगा। अहो कुमार! आप इस मुनि दीक्षा से अत्यधिक सुशोभित होओगे ।।108।।<span id="109" /> ‘ऐसा हो’ इस प्रकार कहकर विवाह के आभूषणों से युक्त वज्रबाहु हाथी से उतरा और पर्वत पर चढ़ गया ।।109।।<span id="110" /> तब विशाल नेत्रों को धारण करने वाली स्त्रियां जोर-जोर से रोने लगीं। उनके नेत्रों से टूटे हुए मोतियों के हार के समान आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं ।।110।।<span id="111" /> उदयसुंदर ने भी आँखों में आँसू भरकर कहा कि हे देव! प्रसन्न होओ, यह क्या कर रहे हो? मैंने तो हंसी की थी ।।111।।<span id="112" /> तदनंतर मधुर शब्दों में सांतवना देते हुए वज्रबाहु ने उदयसुंदर से कहा कि हे उत्तम अभिप्राय के धारक! मैं कुएँ में गिर रहा था सो तुमने निकाला है ।।112।।<span id="113" /> तीनों लोकों में तुम्हारे समान मेरा दूसरा मित्र नहीं है। हे सुंदर! संसार में जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है और जो मरता है उसका जन्म अवश्यंभावी है ।।113।।<span id="114" /> यह जन्म-मरणरूपी घटी यंत्र बिजली, लहर तथा दुष्ट सर्प की जिह्वा से भी अधिक चंचल है तथा निरंतर घूमता रहता है ।।114।।<span id="115" /><span id="116" /> दुःख में फंसे हुए संसार के जीवन की ओर तुम क्यों नहीं देख रहे हो? ये भोग स्वप्नों के भोगों के समान हैं, जीवन सुख के तुल्य है, स्नेह संध्या की लालिमा के समान है और यौवन फल के समान है। हे भद्र! तेरी हँसी भी मेरे लिए अमृत के समान हो गयी ।।115-116।।<span id="117" /> क्या हंसी में पी गयी औषधि रोग को नहीं हरती? चूंकि तुमने मेरी कल्याण की ओर प्रवृत्ति करायी है इसलिए आज तुम्हीं एक मेरे बंधु हो ।।117।।<span id="118" /> मैं संसार के आचार में लीन था सो आज तुम उससे विरक्ति के कारण हो गये। लो, अब मैं दीक्षा लेता हूँ। तुम अपने अभिप्राय के अनुसार कार्य करो ।।118।।<span id="119" /><span id="120" /> इतना कहकर वह गुणसागर नामक मुनिराज के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम कर बड़ी विनय से हाथ जोड़ता हुआ बोला कि हे स्वामिन्! आपके प्रसाद से मेरा मन पवित्र हो गया है सो आज मैं इस भयंकर संसाररूपी कारागृह से निकलना चाहता ।।119-120।।<span id="121" /><span id="122" /><span id="123" /></p> | ||
< | <p>तदनंतर ध्यान समाप्त होने पर मुनिराज ने उसके इस कार्य की अनुमोदना की। सो महासंवेग से भरा वज्रबाहु वस्त्राभूषण त्याग कर उनके समक्ष शीघ्र ही पद्मासन से बैठ गया। उसने पल्लव के समान लाल-लाल हाथों से केश उखाड़कर फेंक दिये। उसे उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उसका शरीर रोगरहित होने से हलका हो गया हो। इस तरह उसने विवाह संबंधी दीक्षा का परित्याग कर मोक्ष प्राप्त कराने वाली दीक्षा धारण कर ली ।।121-123।।<span id="124" /><span id="125" /> तदनंतर जिन्होंने राग, द्वेष और मद का परित्याग कर दिया था, संवेग की ओर जिनका वेग बढ़ रहा था तथा जो काम के समान सुंदर विभ्रम को धारण करने वाले थे, ऐसे उदयसुंदर आदि छब्बीस राजकुमारों ने भी परमोत्साह से संपन्न हो मुनिराज को प्रणाम कर दीक्षा धारण कर ली ।।124-125।।<span id="126" /> यह समाचार जानकर भाई के स्नेह से भीरु मनोदया ने भी बहुत भारी संवेग से युक्त हो दीक्षा ले ली ।।126।।<span id="127" /> सफेद वस्त्र से जिसका विशाल स्तन मंडल आच्छादित था, जिसका उदर अत्यंत कृश था और जिसके शरीर पर मैल लग रहा था ऐसी मनोदया बड़ी तपस्विनी हो गयी ।।127।।<span id="128" /><span id="129" /> वज्रबाहु के बाबा विजय स्पंदन को जब उसके इस समाचार का पता चला तब शोक से पीड़ित होता हुआ वह सभा के बीच में इस प्रकार बोला कि अहो! आश्चर्य की बात देखो, प्रथम अवस्था में स्थित मेरा नाती विषयों से विरक्त हो दिगंबरी दीक्षा को प्राप्त हुआ है ।।128-129।।<span id="130" /> मेरे समान वृद्ध पुरुष भी दुःख से छोड़ने योग्य जिन विषयों के अधीन हो रहा है वे विषय उस कुमार ने कैसे छोड़ दिये ।।130।।<span id="131" /> अथवा उस भाग्यशाली पर मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने बड़ा अनुग्रह किया है जिससे वह भोगों को तृण के समान छोड़कर निराकुल भाव को प्राप्त हुआ है ।।131।।<span id="132" /> प्रारंभ में सुंदर दिखने वाले पापी विषयों ने जिसे चिरकाल से ठगा है तथा जो वृद्धावस्था से पीड़ित है ऐसा मैं अभागा इस समय कौन-सी चेष्टा को धारण करूँ? ।।132।।<span id="133" /> मेरे जो केश इंद्रनील मणि की किरणों के समान श्याम वर्ण थे वे ही आज कास के फूलों की राशि के समान सफेद हो गये हैं ।।133।।<span id="134" /> सफेद काली और लाल कांति को धारण करने वाले मेरे जो नेत्र मनुष्यों के मन को हरण करने वाले थे अबे उनका मार्ग भृकुटी रूपी लताओं से आच्छादित हो गया है अर्थात् अब वे लताओं से आच्छादित गर्त के समान जान पड़ते हैं ।।134।।<span id="135" /> मेरा जो यह शरीर कांति से उज्ज्वल तथा महाबल से युक्त था वह अब वर्षा से ताड़ित चित्र के समान निष्प्रभ हो गया ।।135।।<span id="136" /> अर्थ, धर्म और काम ये तीन पुरुषार्थ तरुण मनुष्य के योग्य हैं। वृद्ध मनुष्य के लिए इनका करना कठिन है ।।136।।<span id="137" /> चेतनाशून्य, दुराचारी, प्रमादी तथा भाई-बंधुओं के मिथ्या स्नेहरूपी सागर की भंवर में पड़े हुए मुझ पापी को धिक्कार हो ।।137।।<span id="138" /><span id="139" /> इस प्रकार कहकर तथा समस्त बंधुजनों से पूछकर उदार हृदय वृद्ध राजा विजयस्पंदन ने निस्पृह हो छोटे पोते पुरंदर के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं निर्वाण घोष नामक निर्ग्रंथ महात्मा के समीप अपने पुत्र सुरेंद्रमंयु के साथ दीक्षा ले ली ।।138-139।।<span id="140" /></p> | ||
<p>तदनंतर पुरंदर की भार्या पृथिवीमती ने कीर्तिधर नामक पुत्र को उत्पन्न किया। वह पुत्र समस्त प्रसिद्ध गुणों का मानो सागर ही था ।।140।। अपनी सुंदर चेष्टा से समस्त बंधुओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ विनयी कीर्तिधर क्रम-क्रम से यौवन की प्राप्त हुआ ।।141।। तब राजा पुरंदर ने उसके लिए कौशल देश के राजा की पुत्री स्वीकृत की। इस तरह पुत्र का विवाहकर राजा पुरंदर विरक्त हो घर से निकल पड़ा ।।142।। गुणरूपी आभूषणों को धारण करने वाले राजा पुरंदर ने क्षेमंकर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर कर्मों की निर्जरा का कारण कठिन तप करना प्रारंभ किया ।।143।। इधर शत्रुओं को जीतने वाला राजा कीर्तिधर कुल-क्रमागत राज्य का पालन करता हुआ देवों के समान उत्तम भोगों के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करने लगा ।।144।।</p> | <p>तदनंतर पुरंदर की भार्या पृथिवीमती ने कीर्तिधर नामक पुत्र को उत्पन्न किया। वह पुत्र समस्त प्रसिद्ध गुणों का मानो सागर ही था ।।140।।<span id="141" /> अपनी सुंदर चेष्टा से समस्त बंधुओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ विनयी कीर्तिधर क्रम-क्रम से यौवन की प्राप्त हुआ ।।141।।<span id="142" /> तब राजा पुरंदर ने उसके लिए कौशल देश के राजा की पुत्री स्वीकृत की। इस तरह पुत्र का विवाहकर राजा पुरंदर विरक्त हो घर से निकल पड़ा ।।142।।<span id="143" /> गुणरूपी आभूषणों को धारण करने वाले राजा पुरंदर ने क्षेमंकर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर कर्मों की निर्जरा का कारण कठिन तप करना प्रारंभ किया ।।143।।<span id="144" /> इधर शत्रुओं को जीतने वाला राजा कीर्तिधर कुल-क्रमागत राज्य का पालन करता हुआ देवों के समान उत्तम भोगों के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करने लगा ।।144।।<span id="145" /><span id="146" /></p> | ||
<p>अथानंतर किसी दिन शत्रुओं को भयभीत करनेवाला प्रजा-वत्सल राजा कीर्तिधर, अपने सुंदर भवन के ऊपर नलकूबर विद्याधर के समान सुख से बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था कि उसकी दृष्टि राहु विमान की नील कांति से आच्छादित सूर्यमंडल (सूर्यग्रहण) पर पड़ी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि अहो! उदय में आया कर्म दूर नहीं किया जा सकता ।।145-146।। सूर्य भीषण अंधकार को नष्ट कर चंद्र मंडल को कांतिहीन कर देता है तथा कमलों के वन को विकसित करता है वह सूर्य राहु को दूर करने में समर्थ नहीं है ।।147।। जिस प्रकार यह सूर्य नष्ट हो रहा है उसी प्रकार यह यौवन रूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहण को प्राप्त कर नष्ट हो जावेगा। मजबूत पाश से बँधा हुआ यह बेचारा प्राणी अवश्य ही मृत्यु के मुख में जाता है ।।148।। इस प्रकार समस्त संसार को अनित्य मानकर राजा कीर्तिधर ने सभा में बैठे हुए मंत्रियों से कहा कि अहो मंत्री जनो! इस सागरांत पृथिवी की आप लोग रक्षा करो। मैं तो मुक्ति के मार्ग में प्रयाण करता हूँ ।।149।। राजा के ऐसा कहने पर विद्वानों तथा बंधुजनों से परिपूर्ण सभा विषाद को प्राप्त हो उससे इस प्रकार बोली कि हे राजन्! इस समस्त पृथिवी के तुम्हीं एक अद्वितीय पति हो ।।150।। यह पृथिवी आपके अधीन है तथा आपने समस्त शत्रुओं को जीता है, इसलिए आपके छोड़ने पर सुशोभित नहीं होगी। उन्नत पराक्रम के धारक! अभी आपकी नयी अवस्था है इसलिए इंद्र के समान राज्य करो ।।151।। इसके उत्तर में राजा ने कहा कि जो जन्मरूपी वृक्षों से संकुल है, व्याप्त है, बुढ़ापा, वियोग तथा अरति रूपी अग्नि से प्रज्वलित है तथा अत्यंत दीर्घ है ऐसी इस व्यसन रूपी अटवी को देखकर मुझे भारी भय उत्पन्न हो रहा है ।।152।। जब मंत्रिजनो को राजा के दृढ़ निश्चय का बोध हो गया तब उन्होंने बहुत से बुझे हुए अंगारों का समूह बुझाकर उसमें किरणों से सुशोभित उत्तम वैदूर्यमणि रखा सो उसके प्रभाव से वह बुझे हुए अंगारों का समूह प्रकाशमान हो गया ।।153।। तदनंतर वह रत्न उठाकर बोले कि हे राजन्! जिस प्रकार इस उत्तम रत्न से रहित अंगारों का समूह शोभित नहीं होता है उसी प्रकार आपके बिना यह संसार शोभित नहीं होगा ।।154।। हे नाथ! तुम्हारे बिना यह बेचारी समस्त प्रजा अनाथ तथा विकल होकर नष्ट हो जायेगी। प्रजा के नष्ट होने पर धर्म नष्ट हो जायेगा और धर्म के नष्ट होने पर क्या नहीं नष्ट होगा सो तुम्हीं कहो ।।155।। इसलिए जिस प्रकार आपके पिता ने प्रजा की रक्षा के लिए आपको देकर मोक्ष प्रदान करने में दक्ष तपश्चरण किया था उसी प्रकार आप भी अपने इस कुलधर्म की रक्षा कीजिए ।।156।।</p> | <p>अथानंतर किसी दिन शत्रुओं को भयभीत करनेवाला प्रजा-वत्सल राजा कीर्तिधर, अपने सुंदर भवन के ऊपर नलकूबर विद्याधर के समान सुख से बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था कि उसकी दृष्टि राहु विमान की नील कांति से आच्छादित सूर्यमंडल (सूर्यग्रहण) पर पड़ी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि अहो! उदय में आया कर्म दूर नहीं किया जा सकता ।।145-146।।<span id="147" /> सूर्य भीषण अंधकार को नष्ट कर चंद्र मंडल को कांतिहीन कर देता है तथा कमलों के वन को विकसित करता है वह सूर्य राहु को दूर करने में समर्थ नहीं है ।।147।।<span id="148" /> जिस प्रकार यह सूर्य नष्ट हो रहा है उसी प्रकार यह यौवन रूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहण को प्राप्त कर नष्ट हो जावेगा। मजबूत पाश से बँधा हुआ यह बेचारा प्राणी अवश्य ही मृत्यु के मुख में जाता है ।।148।।<span id="149" /> इस प्रकार समस्त संसार को अनित्य मानकर राजा कीर्तिधर ने सभा में बैठे हुए मंत्रियों से कहा कि अहो मंत्री जनो! इस सागरांत पृथिवी की आप लोग रक्षा करो। मैं तो मुक्ति के मार्ग में प्रयाण करता हूँ ।।149।।<span id="150" /> राजा के ऐसा कहने पर विद्वानों तथा बंधुजनों से परिपूर्ण सभा विषाद को प्राप्त हो उससे इस प्रकार बोली कि हे राजन्! इस समस्त पृथिवी के तुम्हीं एक अद्वितीय पति हो ।।150।।<span id="151" /> यह पृथिवी आपके अधीन है तथा आपने समस्त शत्रुओं को जीता है, इसलिए आपके छोड़ने पर सुशोभित नहीं होगी। उन्नत पराक्रम के धारक! अभी आपकी नयी अवस्था है इसलिए इंद्र के समान राज्य करो ।।151।।<span id="152" /> इसके उत्तर में राजा ने कहा कि जो जन्मरूपी वृक्षों से संकुल है, व्याप्त है, बुढ़ापा, वियोग तथा अरति रूपी अग्नि से प्रज्वलित है तथा अत्यंत दीर्घ है ऐसी इस व्यसन रूपी अटवी को देखकर मुझे भारी भय उत्पन्न हो रहा है ।।152।।<span id="153" /> जब मंत्रिजनो को राजा के दृढ़ निश्चय का बोध हो गया तब उन्होंने बहुत से बुझे हुए अंगारों का समूह बुझाकर उसमें किरणों से सुशोभित उत्तम वैदूर्यमणि रखा सो उसके प्रभाव से वह बुझे हुए अंगारों का समूह प्रकाशमान हो गया ।।153।।<span id="154" /> तदनंतर वह रत्न उठाकर बोले कि हे राजन्! जिस प्रकार इस उत्तम रत्न से रहित अंगारों का समूह शोभित नहीं होता है उसी प्रकार आपके बिना यह संसार शोभित नहीं होगा ।।154।।<span id="155" /> हे नाथ! तुम्हारे बिना यह बेचारी समस्त प्रजा अनाथ तथा विकल होकर नष्ट हो जायेगी। प्रजा के नष्ट होने पर धर्म नष्ट हो जायेगा और धर्म के नष्ट होने पर क्या नहीं नष्ट होगा सो तुम्हीं कहो ।।155।।<span id="156" /> इसलिए जिस प्रकार आपके पिता ने प्रजा की रक्षा के लिए आपको देकर मोक्ष प्रदान करने में दक्ष तपश्चरण किया था उसी प्रकार आप भी अपने इस कुलधर्म की रक्षा कीजिए ।।156।।<span id="157" /></p> | ||
<p>अथानंतर कुशल मंत्रियों के इस प्रकार कहने पर राजा कीर्तिधर ने नियम किया कि जिस समय मैं पुत्र को उत्पन्न हुआ सुनूँगा उस समय मुनियों का उत्कृष्ट पद अवश्य धारण कर लूँगा ।।157।। तदनंतर जिसके भोग और पराक्रम इंद्र के समान थे तथा जिसकी आत्मा सदा सावधान रहती थी ऐसे राजा कीर्तिधर ने सब प्रकार के भय से रहित तथा व्यवस्था से युक्त दीर्घ पृथ्वी का चिरकाल तक पालन किया ।।158।। तदनंतर राजा कीर्तिधर के साथ चिरकाल तक सुख का उपभोग करती हुई रानी सहदेवी ने सर्वगुणों से परिपूर्ण एवं पृथ्वी के धारण करने में समर्थ पुत्र को उत्पन्न किया ।।159।। पुत्र-जन्म का समाचार राजा के कानों तक न पहुंच जावे इस भय से पुत्र जन्म का उत्सव नहीं किया गया तथा इसी कारण कितने ही दिन तक प्रसव का समय गुप्त रक्खा गया ।।160।। तदनंतर उगते हुए सूर्य के समान वह बालक चिरकाल तक छिपाकर कैसे रक्खा जा सकता था? फलस्वरूप किसी दरिद्र मनुष्य ने पुरस्कार पाने के लोभ से राजा को उसकी खबर दे दी ।।161।। राजा ने हर्षित होकर उसके लिए मुकुट आदि दिये तथा विपुल धन से युक्त सौ गाँवों के साथ घोष नाम का मनोहर शाखा नगर दिया ।।162।। और माता की महा तेजपूर्ण गोद में स्थित उस एक पक्ष के बालक को बुलवाकर उसे बड़े वैभव के साथ अपने पद पर बैठाया तथा सब लोगों का सन्मान किया ।।163।। चूंकि उसके उत्पन्न होने पर वह कोसला नगरी वैभव से अत्यंत मनोहर हो गयी थी इसलिए उत्तम चेष्टाओं को धारण करनेवाला वह बालक सुकौशल इस नाम को प्राप्त हुआ ।।164।। तदनंतर राजा कीर्तिधर भवन रूपी कारागार से निकलकर तपोवन में पहुँचा और तप संबंधी तेज से वर्षाकाल से रहित सूर्य के समान अत्यंत सुशोभित होने लगा ।।165।।</p> | <p>अथानंतर कुशल मंत्रियों के इस प्रकार कहने पर राजा कीर्तिधर ने नियम किया कि जिस समय मैं पुत्र को उत्पन्न हुआ सुनूँगा उस समय मुनियों का उत्कृष्ट पद अवश्य धारण कर लूँगा ।।157।।<span id="158" /> तदनंतर जिसके भोग और पराक्रम इंद्र के समान थे तथा जिसकी आत्मा सदा सावधान रहती थी ऐसे राजा कीर्तिधर ने सब प्रकार के भय से रहित तथा व्यवस्था से युक्त दीर्घ पृथ्वी का चिरकाल तक पालन किया ।।158।।<span id="159" /> तदनंतर राजा कीर्तिधर के साथ चिरकाल तक सुख का उपभोग करती हुई रानी सहदेवी ने सर्वगुणों से परिपूर्ण एवं पृथ्वी के धारण करने में समर्थ पुत्र को उत्पन्न किया ।।159।।<span id="160" /> पुत्र-जन्म का समाचार राजा के कानों तक न पहुंच जावे इस भय से पुत्र जन्म का उत्सव नहीं किया गया तथा इसी कारण कितने ही दिन तक प्रसव का समय गुप्त रक्खा गया ।।160।।<span id="161" /> तदनंतर उगते हुए सूर्य के समान वह बालक चिरकाल तक छिपाकर कैसे रक्खा जा सकता था? फलस्वरूप किसी दरिद्र मनुष्य ने पुरस्कार पाने के लोभ से राजा को उसकी खबर दे दी ।।161।।<span id="162" /> राजा ने हर्षित होकर उसके लिए मुकुट आदि दिये तथा विपुल धन से युक्त सौ गाँवों के साथ घोष नाम का मनोहर शाखा नगर दिया ।।162।।<span id="163" /> और माता की महा तेजपूर्ण गोद में स्थित उस एक पक्ष के बालक को बुलवाकर उसे बड़े वैभव के साथ अपने पद पर बैठाया तथा सब लोगों का सन्मान किया ।।163।।<span id="164" /> चूंकि उसके उत्पन्न होने पर वह कोसला नगरी वैभव से अत्यंत मनोहर हो गयी थी इसलिए उत्तम चेष्टाओं को धारण करनेवाला वह बालक सुकौशल इस नाम को प्राप्त हुआ ।।164।।<span id="165" /> तदनंतर राजा कीर्तिधर भवन रूपी कारागार से निकलकर तपोवन में पहुँचा और तप संबंधी तेज से वर्षाकाल से रहित सूर्य के समान अत्यंत सुशोभित होने लगा ।।165।।<span id="21" /></p> | ||
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<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में भगवान् मुनि सुव्रतनाथ वज्रबाहु तथा राजा कीर्तिधर के माहात्म्य को कथन करनेवाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।21।।</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में भगवान् मुनि सुव्रतनाथ वज्रबाहु तथा राजा कीर्तिधर के माहात्म्य को कथन करनेवाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।21।।<span id="22" /></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! अब आठवें बलभद्र श्रीराम का संबंध बतलाने के लिए कुछ महापुरुषों से उत्पन्न वंशों का कथन करता हूँ सो सुन ।।1।। दशवें तीर्थकर श्री शीतलनाथ भगवान के मोक्ष चले जाने के बाद कौशांबी नगरी में एक सुमुख नाम का राजा हुआ। उसी समय उस नगरी में एक वीरक नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी स्त्री का नाम वनमाला था। राजा सुमुख ने वनमाला का हरण कर उसके साथ इच्छानुसार कामोपभोग किया और अंत में वह मुनियों के लिए दान देकर विजयार्ध पर्वत पर गया। वहाँ विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक हरिपुर नाम का नगर था। उसमें वे दोनों दंपती उत्पन्न हुए अर्थात् विद्याधर-विद्याधरी हुए। वहाँ क्रीड़ा करता हुआ राजा सुमुख का जीव विद्याधर भोगभूमि गया। उसके साथ उसकी स्त्री विद्याधरी भी थी। इधर स्त्री के विरह रूपी अंगार से जिसका शरीर जल रहा था ऐसा वीरक श्रेष्ठी तप के प्रभाव से अनेक देवियों के समूह से युक्त देवपद को प्राप्त हुआ ।।2-5।। उसने अवधि ज्ञान से जब यह जाना कि हमारा वैरी राजा सुमुख हरि क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है तो पाप बुद्धि में प्रेम करनेवाला वह देव उसे वहाँ से भरतक्षेत्र में रख गया तथा उसकी दुर्दशा की ।।6।। चूंकि वह अपनी भार्या के साथ हरि क्षेत्र से हरकर लाया गया था इसलिए समस्त संसार में वह हरि इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।।7।। उसके महागिरि नाम का पुत्र हुआ, उसके हिमगिरि, हिमगिरि के वसुगिरि, वसुगिरि के इंद्रगिरि, इंद्रगिरि के रत्नमाला, रत्नमाला के संभूत और संभूत के भूतदेव आदि सैकड़ों राजा क्रमश: उत्पन्न हुए। ये सब हरिवंशज कहलाये ।।8-1।। आगे चलकर उसी हरिवंश में कुशाग्र नामक महानगर में सुमित्र नामक प्रसिद्ध उत्कृष्ट राजा हुआ ।।10।। राजा भोगों से इंद्र के समान था कांति से चंद्रमा को जीतने वाला था, दीप्ति से सूर्य को पराजित कर रहा था और प्रताप से समस्त शत्रुओं को नम्र करने वाला था ।।11।। उसकी पद्मावती नाम की स्त्री थी। पद्मावती बहुत ही सुंदर थी। उसके नेत्र कमल के समान थे, वह विशाल कांति की धारक थी, शुभ लक्षणों से संपूर्ण थी तथा उसके सर्व मनोरथ पूर्ण हुए थे ।।12।। एक दिन वह रात्रि के समय सुंदर महल में सुखकारी शय्या पर सो रही थी कि उसने पिछले पहर में निम्नलिखित सोलह उत्तम स्वप्न देखे ।।13।। गज 1 वृषभ 2 सिंह 3 लक्ष्मी का अभिषेक 4 दो मालाएँ 5 चंद्रमा 6 सूर्य 7 दो मीन 8 कलश 9 कमल कलित सरोवर 10 समुद्र 11 रत्नों से चित्र—विचित्र सिंहासन 12 विमान 13 उज्जवल भवन 14 रत्नराशि 15 और अग्नि 16 ।।14-15।। तदनंतर जिसका चित्त आश्चर्य से चकित हो रहा था ऐसी बुद्धिमती रानी पद्मावती जाग कर तथा प्रातःकाल संबंधी यथायोग्य कार्य कर बड़ी नम्रता से पति के समीप गयी ।।16।। वहाँ जाकर जिसका मुखकमल फूल रहा था ऐसी न्याय की जानने वाली रानी भद्रासन पर सुख से बैठी। तदनंतर उसने हाथ जोड़कर पति से अपने स्वप्नों का फल पूछा ।।17।। इधर पति ने जब तक उससे स्वप्नों का फल कहा तब तक उधर आकाश से रत्नों की वृष्टि पड़ने लगी ।।18।। इंद्र की आज्ञा से प्रसन्न यक्ष प्रतिदिन इसके घर में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करता था ।।19।। पंद्रह मास तक लगातार पड़ती हुई धनवृष्टि से वह समस्त नगर रत्न तथा सुवर्णादिमय हो गया ।।20।। पद्म, महापद्म आदि सरोवरों के कमलों में रहने वाली श्री आदि देवियाँ अपने परिवार के साथ मिलकर जिन माता की सब प्रकार की सेवा बड़े आदरभाव से करती थीं ।।21।।
अथानंतर भगवान का जन्म हुआ। सो जन्म होते ही इंद्र ने लोकपालों के साथ बड़े वैभव से सुमेरु पर्वत पर भगवान का क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया ।।22।। अभिषेक के बाद इंद्र ने भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा की, स्तुति की, प्रणाम किया और तदनंतर प्रेमपूर्वक माता की गोद में लाकर विराजमान कर दिया ।।23।। जब भगवान् गर्भ में स्थित थे तभी से उनकी माता विशेष कर सुव्रता अर्थात् उत्तम व्रतों को धारण करने वाली हो गयी थीं इसलिए वे मुनिसुव्रत नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ।।24।। जिनका मुख चंद्रमा के समान था ऐसे सुव्रतनाथ भगवान् यद्यपि अंजनागिरि के समान श्यामवर्ण थे तथापि उन्होंने अपने तेज से सूर्य को जीत लिया था ।।25।। इंद्र के द्वारा कल्पित उत्तम भोगों को धारण करते हुए उन्होंने अहमिंद्र का भारी सुख दूर से ही तिरस्कृत कर दिया था ।।26।। हा-हा, हू-हू, तुंबुरु, नारद और विश्वावसु आदि गंधर्व देव सदा उनके समीप गाते रहते थे तथा किन्नर देवियाँ और अनेक अप्सराएँ वीणा, बांसुरी आदि बाजों के साथ नृत्य करती रहती थी। अनेक देवियाँ उबटन आदि लगाकर उन्हें स्नान कराती थीं ।।27-28।। सुंदर शरीर को धारण करने वाले भगवान ने यौवन अवस्था में मंद मुसकान, लज्जा, दंभ, ईर्ष्या, प्रसाद आदि सुंदर विभ्रमों से युक्त स्त्रियों को इच्छानुसार रमण कराया था ।।29।।
अथानंतर एक बार शरद ऋतु के मेघ को विलीन होता देख वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये जिससे दीक्षा लेने की इच्छा उनके मन में जाग उठी। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर उनकी स्तुति की ।।30।। तदनंतर जिसमें समस्त सामंतों के समूह नम्रीभूत थे तथा सुख से जिसका पालन होता था ऐसा राज्य उन्होंने अपने सुव्रत नामक पुत्र के लिए देकर सब प्रकार की इच्छा छोड़ दी ।।31।। तत्पश्चात् जिसने अपनी सुगंधि से दशों दिशाओं को व्याप्त कर रखा था, जिसमें शरीर पर लगा हुआ दिव्य विलेपन ही सुंदर मकरंद था, जिसने अपनी सुगंधि से आतुर भ्रमरियों के भारी समूह को अपनी ओर खींच रखा था, जो हरे मणियों की कांतिरूपी पत्तों के समूह से व्याप्त था, जो दांतों की पंक्ति की सफेद कांतिरूपी मृणाल के समूह से युक्त था, जो नाना प्रकार के आभूषणों की ध्वनि रूपी पक्षियों की कलन से परिपूर्ण था, बलि रूपी तरंगों से युक्त था और जो स्तनरूपी चक्राक पक्षियों से सुशोभित था ऐसी उत्तम स्त्रियोंरूपी कमल वन से वे कीर्तिधवल राजहंस (श्रेष्ठ राजा भगवान् मुनि सुव्रतनाथ) इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी कमल वन से राजहंस (हंस विशेष) निकलता है ।।32-35।। तदनंतर मनुष्यों के चूड़ामणि भगवान् मुनि सुव्रतनाथ, देवों तथा राजाओं के द्वारा उठायी हुई अपराजिता नाम को पालकी में सवार होकर विपुल नामक उद्यान में गये ।।36।। तदनंतर पालकी से उतरकर हरिवंश के आभूषण स्वरूप भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने कई हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।37।। भगवान ने दीक्षा लेते समय दो दिन का उपवास किया था। उपवास समाप्त होने पर राजगृह नगर में वृषभ दत्त ने उन्हें परमान्न अर्थात् खीर से भक्तिपूर्वक पारणा करायी ।।38।। जिनशासन में आचार की वृत्ति किस तरह है यह बतलाने के लिए ही भगवान ने आहार ग्रहण किया था। आहारदान के प्रभाव से वृषभ दत्त पंचातिशय को प्राप्त हुआ ।।35।।
तदनंतर चंपक वृक्ष के नीचे शुक्ल-ध्यान से विराजमान भगवान को घातिया कर्मो का क्षय होने के उपरांत केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।40।। तदनंतर इंद्रों सहित देवों ने आकर स्तुति की, प्रणाम किया तथा उत्तम गणधरों से युक्त उन मुनिसुव्रतनाथ भगवान से उत्तम धर्म का उपदेश सुना ।।41।। भगवान ने सागार और अनगार के भेद से अनेक प्रकार के धर्म का निरूपण किया सो उस निर्मल धर्मं को विधिपूर्वक सुनकर वे सब यथायोग्य अपने अपने स्थान पर गये ।।42।। हर्ष से भरे नम्रीभूत सुरासुर जिनकी स्तुति करते थे ऐसे भगवान् मुनि सुव्रतनाथ ने भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कर महाधैर्य के धारक तथा गण की रक्षा करने वाले गणधरों एवं अन्यान्य साधुओं के साथ पृथिवी तल पर विहार किया ।।43-44।। तदनंतर सम्मेदाचल के शिखर पर आरूढ़ होकर तथा चार अघातिया कर्मो का क्षय कर वे लोक के चूड़ामणि हो गये अर्थात् सिद्धालय में जाकर विराजमान हो गये ।।45।। जो मनुष्य उत्तम भाव से मुनिसुव्रत भगवान के इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।।46।। वे पुन: आकर रत्नत्रय को निर्मल कर उस परम स्थान को प्राप्त होते हैं जहाँ से कि फिर आना नहीं होता ।।47।।
तदनंतर मुनि सुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत ने भी चिरकाल तक निश्चल राज्य कर अंत में अपने पुत्र दक्ष के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया ।।48।। राजा दक्ष के इलावर्धन, इलावर्धन के श्रीवर्धन्, श्रीवर्धन् के श्रीवृक्ष, श्रीवृक्ष के संजयंत, सजयंत के कुणिम, कुणिम के महारथ और महारथ के पुलोमा इत्यादि हजारों राजा हरिवंश में उत्पन्न हुए। इनमें से कितने ही राजा निर्वाण को प्राप्त हुए और कितने ही स्वर्ग गये ।।49-51।। इस प्रकार क्रम से अनेक राजाओं के हो चुकने पर इसी वंश में मिथिला का राजा वासवकेतु हुआ ।।52।। उसकी विपुला नाम की पट्टरानी थी। वह विपुला, विपुल अर्थात् दीर्घ नेत्रों को धारण करने वाली थी और उत्कृष्ट लक्ष्मी की धारक होकर भी मध्यभाग से दरिद्रता को प्राप्त थी अर्थात् उसकी कमर अत्यंत कृश थी ।।53।। उन दोनों के नीतिनिपुण जनक नाम का पुत्र हुआ। वह जनक, जनक अर्थात् पिता के समान ही निरंतर प्रजा का हित करता था ।।54।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह मैंने तेरे लिए राजा जनक की उत्पत्ति कही। अब जिस वंश में राजा दशरथ हुए उसका कथन करता हूँ सो सुन ।।55।।
अथानंतर इक्ष्याकुओं के रमणीय कुल में जब भगवान् ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त हो गये और उनके बाद चक्रवर्ती भरत, अर्ककीर्ति तथा वंश के अलंकार भूत सोम आदि राजा व्यतीत हो चुके तब असंख्यात काल के भीतर उस वंश में अनेक राजा हुए। उनमें कितने ही राजा अत्यंत कठिन तपश्चरण कर निर्वाण को प्राप्त हुए, कितने ही स्वर्ग में जाकर भोगों में निमग्न हो क्रीड़ा करने लगे और कितने ही पुण्य का संचय नहीं करने से शुष्क हो गये अर्थात् नरकादि गतियों में जाकर रोते हुए अपने कर्मो का फल भोगने लगे ।।56-58।। हे श्रेणिक! इस संसार में जो व्यसन—कष्ट हैं वे चक्र की नाई बदलते रहते हैं अर्थात् कभी व्यसन महोत्सव रूप हो जाते हैं और कभी महोत्सव व्यसन रूप हो जाते हैं, कभी इस जीव में धीरे-धीरे माया आदि दोष वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ।।59।। कभी ये जीव निर्धन होकर क्लेश उठाते हैं और कभी पूर्वबद्ध आयु के क्षीण हो जाने अथवा किसी कारणवश कम हो जाने से बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं ।।60।। कभी ये जीव नाना रूपता को धारण करते हैं, कभी ज्यों का त्यों स्थिर रह जाते हैं, कभी एक दूसरे को मारते हैं, कभी शोक करते हैं, कभी रोते हैं, कभी खाते हैं, कभी बाधा पहुँचाते हैं, कभी विवाद करते हैं, कभी गमन करते हैं, कभी चलते हैं, कभी प्रभावशील होते हैं, अर्थात् स्वामी बनते हैं, कभी भार ढोते हैं, कभी गाते हैं, कभी उपासना करते हैं, कभी भोजन करते हैं, कभी दरिद्रता को प्राप्त करते हैं, कभी शब्द करते हैं ।।61-62।। कभी जीतते हैं, कभी देते हैं, कभी कुछ छोड़ते हैं, कभी विराजमान होते हैं, कभी अनेक विलास धारण करते हैं, कभी संतोष धारण करते हैं, कभी शासन करते हैं, कभी शांति अर्थात् क्षमा की अभिलाषा करते हैं, कभी शांति का हरण करते हैं ।।63।। कभी लज्जित होते हैं, कभी कुत्सित चाल चलते हैं, कभी किसी को सताते हैं, कभी संतप्त होते हैं, कभी कपट धारण करते हैं, कभी याचना करते, कभी सम्मुख दौड़ते हैं, कभी मायाचार दिखाते हैं, कभी किसी के द्रव्यादि का हरण करते हैं ।।64।। कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी किसी वस्तु को नष्ट करते हैं, कभी किसी को कुछ देते हैं, कभी कहीं वास करते हैं, कभी किसी को लोंचते हैं, कभी किसी को नापते हैं, कभी दुःखी होते हैं, कभी क्रोध करते हैं, कभी विचलित होते हैं, ।।65।। कभी संतुष्ट होते हैं, कभी किसी की पूजा करते हैं, कभी किसी को छलते हैं, कभी किसी को सांतवना देते हैं, कभी कुछ समझते हैं, कभी मोहित होते हैं, कभी रक्षा करते हैं, कभी नृत्य करते हैं, कभी स्नेह करते हैं, कभी विनय करते हैं, ।।66।। कभी किसी को प्रेरणा देते हैं, कभी दाने-दाने बीनकर पेट भरते हैं, कभी खेत जोतते हैं, कभी भाड़ भूँजते हैं, कभी नमस्कार करते हैं, कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी लुनते हैं, कभी सुनते हैं, कभी होम करते हैं, कभी चलते हैं, कभी जागते हैं ।।67।। कभी सोते हैं, कभी डरते हैं, कभी नाना चेष्टा करते हैं, कभी नष्ट करते हैं, कभी किसी को खंडित करते हैं, कभी किसी को पीड़ा पहुँचाते हैं, कभी पूर्ण करते हैं, कभी स्नान करते हैं, कभी बांधते हैं, कभी रोकते हैं, कभी चिल्लाते हैं, ।।68।। कभी सोते हैं, कभी घूमते हैं, कभी जीर्ण होते हैं, कभी पीते हैं, कभी रचते हैं, कभी वरण करते हैं, कभी मसलते हैं, कभी फैलाते हैं, कभी तर्पण करते हैं ।।69।। कभी मीमांसा करते हैं, कभी घृणा करते हैं, कभी इच्छा करते हैं, कभी तरते हैं, कभी चिकित्सा करते हैं, कभी अनुमोदना करते हैं, कभी रोकते हैं और कभी निगलते हैं ।।70।। हे राजन्! इत्यादि क्रियाओं के जाल से जिनके मन व्याप्त हो रहे थे तथा शुभ-अशुभ कार्यों में लीन थे ऐसे अनेक मानव उस इक्ष्याकुवंश में क्रम से हुए थे ।।71।। इस प्रकार जिसमें समस्त मानवों की चेष्टाएँ चित्रपट के समान नाना प्रकार की हैं ऐसा यह अवसर्पिणी नाम का काल धीरे-धीरे समाप्त होता गया ।।72।।
अथानंतर जिसमें देवों का आगमन जारी रहता था ऐसे बीसवें वर्तमान तीर्थंकर का अंतराल शुरू होने पर अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नाम का बड़ा राजा हुआ। उसने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था। वह सूर्य के समान प्रताप से संयुक्त था तथा प्रजा का पालन करने में निपुण था ।।73-74।। उसकी हेमचूला नाम की महा तेजस्विनी पट्टरानी थी सो उसके सुरेंद्रमंयु नाम का महागुणवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ।।75।। सुरेंद्रमंयु की कीर्तिसमा स्त्री हुई सो उसके चंद्रमा और सूर्य के समान कांति को धारण करने वाले दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र गुणों से सुशोभित थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम वज्रबाहु और छोटे पुत्र का नाम पुरंदर था। दोनों ही सार्थक नाम को धारण करने वाले थे और संसार में सुख से क्रीड़ा करते थे ।।76-77।। उसी समय अत्यंत मनोहर हस्तिनापुर नगर में इशवाहन नाम का राजा रहता था। उसकी स्त्री का नाम चूड़ामणि था। उन दोनों के मनोदया नाम की अत्यंत सुंदरी पुत्री थी सो उसे मनुष्यों में अत्यंत प्रशंसनीय वज्रबाहु कुमार ने प्राप्त किया ।।78-79।। कदाचित् कन्या का भाई उदयसुंदर उस कन्या को लेने के लिए वज्रबाहु के घर गया सो जिस पर अत्यंत सुशोभित सफेद छत्र लग रहा था ऐसा वज्रबाहु स्वयं भी उसके साथ चलने के लिए उद्यत हुआ ।।80।। वह कन्या अपने सौंदर्य से समस्त पृथ्वी में प्रसिद्ध थी, उसे मन में धारण करता हुआ वज्रबाहु बड़े वैभव के साथ श्वसुर के नगर की ओर चला ।।81।।
अथानंतर चलते-चलते उसकी दृष्टि वसंत ऋतु के फूलों से व्याप्त वसंत नामक मनोहर पर्वत पर पड़ी ।।82।। वह जैसे-जैसे उस पर्वत के समीप आता जाता वैसे-वैसे ही उसकी परम शोभा को देखता हुआ हर्ष को प्राप्त हो रहा था ।।83।। फूलों की धूली से मिली सुगंधित वायु उसका आलिंगन कर रही थी सो ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकाल के बाद प्राप्त हुआ मित्र ही आलिंगन कर रहा हो ।।84।। जहाँ वृक्षों के अग्रभाग वायु से कंपित हो रहे थे ऐसा वह पर्वत पुंस्कोकिलाओं के शब्दों के बहाने मानो वज्रबाहु की जय-जयकार ही कर रहा था ।।85।। वीणा की झंकार के समान मनोहर मदशाली भ्रमरों के शब्द से उसके श्रवण तथा मन साथ-ही-साथ हरे गये ।।86।। यह आम है, यह कनेर है, यह फूलों से सहित लोध्र है, यह प्रिया है और यह जलती हुई अग्नि के समान सुशोभित पलाश है इस प्रकार क्रम से चलती हुई उसकी निश्चल दृष्टि दूरी के कारण जिसमें मनुष्य के आकार का संशय हो रहा था ऐसे मुनिराज पर पड़ी ।।87-88।। कायोत्सर्ग से स्थित मुनिराज के विषय में वज्रबाहु को वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यह झूठ है? या साधु हैं अथवा पर्वत का शिखर है ।।89।। तदनंतर जब अत्यंत समीपवर्ती मार्ग में पहुँचा तब उसे निश्चय हुआ कि ये महायोगी मुनिराज हैं ।।90।। वे मुनिराज ऊँची-नीची शिलाओं से विषम धरातल में स्थिर विराजमान थे, सूर्य की किरणों से आलिंगित होने के कारण उनका मुखकमल म्लान हो रहा था, किसी बड़े सर्प के समान सुशोभित उनकी दोनों उत्तम भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, उनका वक्षःस्थल सुमेरु के तट के समान स्थूल तथा चौड़ा था, उनकी देदीप्यमान दोनों उत्कृष्ट जाँघें दिग्गजों के बाँधने के खंभों के समान स्थिर थीं, यद्यपि वे तप के कारण कृश थे तथापि कांति से अत्यंत स्थूल जान पड़ते थे, उन्होंने अपने अत्यंत सौम्य निश्चल नेत्र नासिका के अग्रभाग पर स्थापित कर रखे थे, इस प्रकार एकाग्र रूप से ध्यान करते हुए मुनिराज को देखकर राजा वज्रबाहु इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।91-94।। अहो! इन अत्यंत प्रशांत उत्तम मानव को धन्य है जो समस्त परिग्रह का त्याग कर मोक्ष की इच्छा से तपस्या कर रहे हैं ।।95।। इन मुनिराज पर मुक्ति-लक्ष्मी ने अनुग्रह किया है, इनकी बुद्धि आत्मकल्याण में लीन है, इनकी आत्मा पर पीड़ा से निवृत्त हो चुकी है, ये अलौकिक लक्ष्मी से अलंकृत हैं, शत्रु और मित्र तथा रत्नों की राशि और तृण में समान बुद्धि रखते हैं, मान एवं मत्सर से रहित हैं, सिद्धि रूपी वधू का आलिंगन करने में इनकी लालसा बढ़ रही है, इन्होंने इंद्रियों और मन को वश में कर लिया है, ये सुमेरु के समान स्थिर हैं, वीतराग हैं तथा कुशल कार्य में मन स्थिर कर ध्यान कर रहे हैं ।।96-98।। मनुष्य में जन्म का पूर्ण-फल इन्होंने प्राप्त किया है, इंद्रियरूपी दुष्ट चोर इन्हें नहीं ठग सके हैं ।।99।। और मैं तो कर्मरूपी पाशों से उस तरह निरंतर वेष्टित हूँ जिस तरह कि आशीविष जाति के बड़े-बड़े सर्पों से चंदन का वृक्ष वेष्टित होता है ।।100।। जिसका चित्त प्रमाद से भरा हुआ है ऐसे जड्तुल्य मुझ पापी के लिए धिक्कार है। मैं भोगरूपी पर्वत की बड़ी गोल चट्टान के अग्रभाग पर बैठकर सो रहा हूँ ।।101।। यदि मैं इन मुनिराज की इस अवस्था को धारण कर सकूँ तो मनुष्य-जन्म का फल मुझे प्राप्त हो जावे ।।102।। इस प्रकार विचार करते हुए राजा वज्रबाहु की दृष्टि उन निर्ग्रंथ मुनिराज पर खंभे में बँधी हुई के समान अत्यंत निश्चल हो गयी ।।103।।
इस तरह वज्रबाहु को निश्चल दृष्टि देख उदयसुंदर ने मुस्कराकर हँसी करते हुए कहा कि आप इन मुनिराज को बड़ी देर से देख रहे हैं सो क्या इस दीक्षा को ग्रहण कर रहे हो? इसमें आप अनुरक्त दिखाई पड़ते हैं ।।104-105।। तदनंतर अपने भाव को छिपाकर वज्रबाहु ने कहा कि हे उदय! तुम्हारा क्या भाव है सो तो कहो ।।106।। उसे अंतर से विरक्त न जानकर उदयसुंदर ने परिहास के अनुरागवश दांतों की किरणों से ओठों को व्याप्त करते हुए कहा कि ।।107।। यदि आप इस दीक्षा को स्वीकृत करते हैं तो मैं भी आपका सखा अर्थात् साथी होऊँगा। अहो कुमार! आप इस मुनि दीक्षा से अत्यधिक सुशोभित होओगे ।।108।। ‘ऐसा हो’ इस प्रकार कहकर विवाह के आभूषणों से युक्त वज्रबाहु हाथी से उतरा और पर्वत पर चढ़ गया ।।109।। तब विशाल नेत्रों को धारण करने वाली स्त्रियां जोर-जोर से रोने लगीं। उनके नेत्रों से टूटे हुए मोतियों के हार के समान आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं ।।110।। उदयसुंदर ने भी आँखों में आँसू भरकर कहा कि हे देव! प्रसन्न होओ, यह क्या कर रहे हो? मैंने तो हंसी की थी ।।111।। तदनंतर मधुर शब्दों में सांतवना देते हुए वज्रबाहु ने उदयसुंदर से कहा कि हे उत्तम अभिप्राय के धारक! मैं कुएँ में गिर रहा था सो तुमने निकाला है ।।112।। तीनों लोकों में तुम्हारे समान मेरा दूसरा मित्र नहीं है। हे सुंदर! संसार में जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है और जो मरता है उसका जन्म अवश्यंभावी है ।।113।। यह जन्म-मरणरूपी घटी यंत्र बिजली, लहर तथा दुष्ट सर्प की जिह्वा से भी अधिक चंचल है तथा निरंतर घूमता रहता है ।।114।। दुःख में फंसे हुए संसार के जीवन की ओर तुम क्यों नहीं देख रहे हो? ये भोग स्वप्नों के भोगों के समान हैं, जीवन सुख के तुल्य है, स्नेह संध्या की लालिमा के समान है और यौवन फल के समान है। हे भद्र! तेरी हँसी भी मेरे लिए अमृत के समान हो गयी ।।115-116।। क्या हंसी में पी गयी औषधि रोग को नहीं हरती? चूंकि तुमने मेरी कल्याण की ओर प्रवृत्ति करायी है इसलिए आज तुम्हीं एक मेरे बंधु हो ।।117।। मैं संसार के आचार में लीन था सो आज तुम उससे विरक्ति के कारण हो गये। लो, अब मैं दीक्षा लेता हूँ। तुम अपने अभिप्राय के अनुसार कार्य करो ।।118।। इतना कहकर वह गुणसागर नामक मुनिराज के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम कर बड़ी विनय से हाथ जोड़ता हुआ बोला कि हे स्वामिन्! आपके प्रसाद से मेरा मन पवित्र हो गया है सो आज मैं इस भयंकर संसाररूपी कारागृह से निकलना चाहता ।।119-120।।
तदनंतर ध्यान समाप्त होने पर मुनिराज ने उसके इस कार्य की अनुमोदना की। सो महासंवेग से भरा वज्रबाहु वस्त्राभूषण त्याग कर उनके समक्ष शीघ्र ही पद्मासन से बैठ गया। उसने पल्लव के समान लाल-लाल हाथों से केश उखाड़कर फेंक दिये। उसे उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उसका शरीर रोगरहित होने से हलका हो गया हो। इस तरह उसने विवाह संबंधी दीक्षा का परित्याग कर मोक्ष प्राप्त कराने वाली दीक्षा धारण कर ली ।।121-123।। तदनंतर जिन्होंने राग, द्वेष और मद का परित्याग कर दिया था, संवेग की ओर जिनका वेग बढ़ रहा था तथा जो काम के समान सुंदर विभ्रम को धारण करने वाले थे, ऐसे उदयसुंदर आदि छब्बीस राजकुमारों ने भी परमोत्साह से संपन्न हो मुनिराज को प्रणाम कर दीक्षा धारण कर ली ।।124-125।। यह समाचार जानकर भाई के स्नेह से भीरु मनोदया ने भी बहुत भारी संवेग से युक्त हो दीक्षा ले ली ।।126।। सफेद वस्त्र से जिसका विशाल स्तन मंडल आच्छादित था, जिसका उदर अत्यंत कृश था और जिसके शरीर पर मैल लग रहा था ऐसी मनोदया बड़ी तपस्विनी हो गयी ।।127।। वज्रबाहु के बाबा विजय स्पंदन को जब उसके इस समाचार का पता चला तब शोक से पीड़ित होता हुआ वह सभा के बीच में इस प्रकार बोला कि अहो! आश्चर्य की बात देखो, प्रथम अवस्था में स्थित मेरा नाती विषयों से विरक्त हो दिगंबरी दीक्षा को प्राप्त हुआ है ।।128-129।। मेरे समान वृद्ध पुरुष भी दुःख से छोड़ने योग्य जिन विषयों के अधीन हो रहा है वे विषय उस कुमार ने कैसे छोड़ दिये ।।130।। अथवा उस भाग्यशाली पर मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने बड़ा अनुग्रह किया है जिससे वह भोगों को तृण के समान छोड़कर निराकुल भाव को प्राप्त हुआ है ।।131।। प्रारंभ में सुंदर दिखने वाले पापी विषयों ने जिसे चिरकाल से ठगा है तथा जो वृद्धावस्था से पीड़ित है ऐसा मैं अभागा इस समय कौन-सी चेष्टा को धारण करूँ? ।।132।। मेरे जो केश इंद्रनील मणि की किरणों के समान श्याम वर्ण थे वे ही आज कास के फूलों की राशि के समान सफेद हो गये हैं ।।133।। सफेद काली और लाल कांति को धारण करने वाले मेरे जो नेत्र मनुष्यों के मन को हरण करने वाले थे अबे उनका मार्ग भृकुटी रूपी लताओं से आच्छादित हो गया है अर्थात् अब वे लताओं से आच्छादित गर्त के समान जान पड़ते हैं ।।134।। मेरा जो यह शरीर कांति से उज्ज्वल तथा महाबल से युक्त था वह अब वर्षा से ताड़ित चित्र के समान निष्प्रभ हो गया ।।135।। अर्थ, धर्म और काम ये तीन पुरुषार्थ तरुण मनुष्य के योग्य हैं। वृद्ध मनुष्य के लिए इनका करना कठिन है ।।136।। चेतनाशून्य, दुराचारी, प्रमादी तथा भाई-बंधुओं के मिथ्या स्नेहरूपी सागर की भंवर में पड़े हुए मुझ पापी को धिक्कार हो ।।137।। इस प्रकार कहकर तथा समस्त बंधुजनों से पूछकर उदार हृदय वृद्ध राजा विजयस्पंदन ने निस्पृह हो छोटे पोते पुरंदर के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं निर्वाण घोष नामक निर्ग्रंथ महात्मा के समीप अपने पुत्र सुरेंद्रमंयु के साथ दीक्षा ले ली ।।138-139।।
तदनंतर पुरंदर की भार्या पृथिवीमती ने कीर्तिधर नामक पुत्र को उत्पन्न किया। वह पुत्र समस्त प्रसिद्ध गुणों का मानो सागर ही था ।।140।। अपनी सुंदर चेष्टा से समस्त बंधुओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ विनयी कीर्तिधर क्रम-क्रम से यौवन की प्राप्त हुआ ।।141।। तब राजा पुरंदर ने उसके लिए कौशल देश के राजा की पुत्री स्वीकृत की। इस तरह पुत्र का विवाहकर राजा पुरंदर विरक्त हो घर से निकल पड़ा ।।142।। गुणरूपी आभूषणों को धारण करने वाले राजा पुरंदर ने क्षेमंकर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर कर्मों की निर्जरा का कारण कठिन तप करना प्रारंभ किया ।।143।। इधर शत्रुओं को जीतने वाला राजा कीर्तिधर कुल-क्रमागत राज्य का पालन करता हुआ देवों के समान उत्तम भोगों के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करने लगा ।।144।।
अथानंतर किसी दिन शत्रुओं को भयभीत करनेवाला प्रजा-वत्सल राजा कीर्तिधर, अपने सुंदर भवन के ऊपर नलकूबर विद्याधर के समान सुख से बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था कि उसकी दृष्टि राहु विमान की नील कांति से आच्छादित सूर्यमंडल (सूर्यग्रहण) पर पड़ी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि अहो! उदय में आया कर्म दूर नहीं किया जा सकता ।।145-146।। सूर्य भीषण अंधकार को नष्ट कर चंद्र मंडल को कांतिहीन कर देता है तथा कमलों के वन को विकसित करता है वह सूर्य राहु को दूर करने में समर्थ नहीं है ।।147।। जिस प्रकार यह सूर्य नष्ट हो रहा है उसी प्रकार यह यौवन रूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहण को प्राप्त कर नष्ट हो जावेगा। मजबूत पाश से बँधा हुआ यह बेचारा प्राणी अवश्य ही मृत्यु के मुख में जाता है ।।148।। इस प्रकार समस्त संसार को अनित्य मानकर राजा कीर्तिधर ने सभा में बैठे हुए मंत्रियों से कहा कि अहो मंत्री जनो! इस सागरांत पृथिवी की आप लोग रक्षा करो। मैं तो मुक्ति के मार्ग में प्रयाण करता हूँ ।।149।। राजा के ऐसा कहने पर विद्वानों तथा बंधुजनों से परिपूर्ण सभा विषाद को प्राप्त हो उससे इस प्रकार बोली कि हे राजन्! इस समस्त पृथिवी के तुम्हीं एक अद्वितीय पति हो ।।150।। यह पृथिवी आपके अधीन है तथा आपने समस्त शत्रुओं को जीता है, इसलिए आपके छोड़ने पर सुशोभित नहीं होगी। उन्नत पराक्रम के धारक! अभी आपकी नयी अवस्था है इसलिए इंद्र के समान राज्य करो ।।151।। इसके उत्तर में राजा ने कहा कि जो जन्मरूपी वृक्षों से संकुल है, व्याप्त है, बुढ़ापा, वियोग तथा अरति रूपी अग्नि से प्रज्वलित है तथा अत्यंत दीर्घ है ऐसी इस व्यसन रूपी अटवी को देखकर मुझे भारी भय उत्पन्न हो रहा है ।।152।। जब मंत्रिजनो को राजा के दृढ़ निश्चय का बोध हो गया तब उन्होंने बहुत से बुझे हुए अंगारों का समूह बुझाकर उसमें किरणों से सुशोभित उत्तम वैदूर्यमणि रखा सो उसके प्रभाव से वह बुझे हुए अंगारों का समूह प्रकाशमान हो गया ।।153।। तदनंतर वह रत्न उठाकर बोले कि हे राजन्! जिस प्रकार इस उत्तम रत्न से रहित अंगारों का समूह शोभित नहीं होता है उसी प्रकार आपके बिना यह संसार शोभित नहीं होगा ।।154।। हे नाथ! तुम्हारे बिना यह बेचारी समस्त प्रजा अनाथ तथा विकल होकर नष्ट हो जायेगी। प्रजा के नष्ट होने पर धर्म नष्ट हो जायेगा और धर्म के नष्ट होने पर क्या नहीं नष्ट होगा सो तुम्हीं कहो ।।155।। इसलिए जिस प्रकार आपके पिता ने प्रजा की रक्षा के लिए आपको देकर मोक्ष प्रदान करने में दक्ष तपश्चरण किया था उसी प्रकार आप भी अपने इस कुलधर्म की रक्षा कीजिए ।।156।।
अथानंतर कुशल मंत्रियों के इस प्रकार कहने पर राजा कीर्तिधर ने नियम किया कि जिस समय मैं पुत्र को उत्पन्न हुआ सुनूँगा उस समय मुनियों का उत्कृष्ट पद अवश्य धारण कर लूँगा ।।157।। तदनंतर जिसके भोग और पराक्रम इंद्र के समान थे तथा जिसकी आत्मा सदा सावधान रहती थी ऐसे राजा कीर्तिधर ने सब प्रकार के भय से रहित तथा व्यवस्था से युक्त दीर्घ पृथ्वी का चिरकाल तक पालन किया ।।158।। तदनंतर राजा कीर्तिधर के साथ चिरकाल तक सुख का उपभोग करती हुई रानी सहदेवी ने सर्वगुणों से परिपूर्ण एवं पृथ्वी के धारण करने में समर्थ पुत्र को उत्पन्न किया ।।159।। पुत्र-जन्म का समाचार राजा के कानों तक न पहुंच जावे इस भय से पुत्र जन्म का उत्सव नहीं किया गया तथा इसी कारण कितने ही दिन तक प्रसव का समय गुप्त रक्खा गया ।।160।। तदनंतर उगते हुए सूर्य के समान वह बालक चिरकाल तक छिपाकर कैसे रक्खा जा सकता था? फलस्वरूप किसी दरिद्र मनुष्य ने पुरस्कार पाने के लोभ से राजा को उसकी खबर दे दी ।।161।। राजा ने हर्षित होकर उसके लिए मुकुट आदि दिये तथा विपुल धन से युक्त सौ गाँवों के साथ घोष नाम का मनोहर शाखा नगर दिया ।।162।। और माता की महा तेजपूर्ण गोद में स्थित उस एक पक्ष के बालक को बुलवाकर उसे बड़े वैभव के साथ अपने पद पर बैठाया तथा सब लोगों का सन्मान किया ।।163।। चूंकि उसके उत्पन्न होने पर वह कोसला नगरी वैभव से अत्यंत मनोहर हो गयी थी इसलिए उत्तम चेष्टाओं को धारण करनेवाला वह बालक सुकौशल इस नाम को प्राप्त हुआ ।।164।। तदनंतर राजा कीर्तिधर भवन रूपी कारागार से निकलकर तपोवन में पहुँचा और तप संबंधी तेज से वर्षाकाल से रहित सूर्य के समान अत्यंत सुशोभित होने लगा ।।165।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में भगवान् मुनि सुव्रतनाथ वज्रबाहु तथा राजा कीर्तिधर के माहात्म्य को कथन करनेवाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।21।।