हरिवंश पुराण - सर्ग 54: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर राजा श्रेणिकने पुनः पांडवों की चेष्टा पूछी सो संदेहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे ॥1॥ जब पांडव हस्तिनापुर में यथायोग्य रीति से रहने लगे तब कुरु देश को प्रजा अपने पूर्व स्वामियों को प्राप्त कर अत्यधिक संतुष्ट हुई ॥2॥ पांडवों के सुखदायक सुराज्य के चालू होने पर देश के सभी वर्ण और सभी आश्रम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि को सर्वथा भूल गये ॥3॥ एक दिन सर्वत्र बे-रोक-टोक गमन करने वाले, क्रुद्ध हृदय और स्वभाव से कलह प्रेमी नारद, पांडवों के घर आये | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर राजा श्रेणिकने पुनः पांडवों की चेष्टा पूछी सो संदेहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे ॥1॥<span id="2" /> जब पांडव हस्तिनापुर में यथायोग्य रीति से रहने लगे तब कुरु देश को प्रजा अपने पूर्व स्वामियों को प्राप्त कर अत्यधिक संतुष्ट हुई ॥2॥<span id="3" /> पांडवों के सुखदायक सुराज्य के चालू होने पर देश के सभी वर्ण और सभी आश्रम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि को सर्वथा भूल गये ॥3॥<span id="4" /> एक दिन सर्वत्र बे-रोक-टोक गमन करने वाले, क्रुद्ध हृदय और स्वभाव से कलह प्रेमी नारद, पांडवों के घर आये ॥4॥<span id="5" /> पांडवों ने नारद को बहुत आदर से देखा परंतु जब वे द्रौपदी के घर गये तब वह आभूषण धारण करने में व्यग्र थी इसलिए कब नारद ने प्रवेश किया और कब निकल गये यह वह नहीं जान सकी ॥5॥<span id="6" /> नारदजी, द्रौपदी के इस व्यवहार से तेल के संग से अग्नि के समान, क्रोध से जलने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जो प्राणी सम्मान से दुखी होता है वह सज्जनों के भी अवसर को नहीं जानता ॥6॥<span id="7" /> उन्होंने द्रौपदी को दुःख देने का दृढ़ निश्चय कर लिया और उसी निश्चय के अनुसार वे पूर्वधातकीखंड के भरत क्षेत्र की ओर आकाश में चल पड़े ॥7॥<span id="8" /> वे निःशंक होकर अंग देश को अमरकंकापुरी में पहुंचे और वहाँ उन्होंने स्त्रीलंपट, पद्मनाभ नामक शोभासंपन्न राजा को देखा ॥8॥<span id="9" /> राजा पद्मनाभ ने नारद को आत्मीय जान, अपना अंतःपुर दिखाया और पूछा कि ऐसा स्त्रियों का रूप आपने कहीं अन्यत्र भी देखा है ? ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /> राजा पद्मनाभ के प्रश्न को खीर में पड़े घी के समान अनुकूल मानते हुए नारद ने द्रौपदी के लोकोत्तर सौंदर्य का वर्णन इस रीति से किया कि उसने उसे द्रौपदीरूपी पिशाच के वशीभूत कर दिया अर्थात् उसके हृदय में द्रौपदी के प्रति अत्यंत उत्कंठा उत्पन्न कर दो । तदनंतर द्रौपदी के द्वीप क्षेत्र, नगर तथा भवन का पता बता कर वे कहीं चले गये ॥10-11 ॥<span id="12" /> पद्मनाभ ने द्रौपदी के प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र तप के द्वारा पाताललोक में निवास करने वाले संगमक नामक देव की आराधना की ॥12॥<span id="13" /> तदनंतर आराधना किया हुआ वह देव रात्रि के समय सोती हुई द्रौपदी को पद्मनाभ की नगरी में उठा लाया ॥13॥<span id="14" /> देव ने लाकर उसे भवन के उद्यान में छोड़ दिया और इसकी सूचना राजा पद्मनाभ को कर दी । राजा पद्मनाभ ने जाकर साक्षात् देवांगना द्रौपदी को देखा ॥14॥<span id="15" /> यद्यपि द्रोपदी अपनी सर्व तो भद्र शय्या पर जाग उठी थी और निद्रारहित हो गयी थी तथापि यह स्वप्न है इस प्रकार शंका करती हुई बार-बार सो रही थी ॥15॥<span id="16" /> नेत्रों को बंद करने वाली द्रौपदी का अभिप्राय जानकर राजा पद्मनाभ धीरे से उसके पास गया और प्रिय वचन बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा ॥16॥<span id="17" /> उसने कहा कि हे विशाललोचने ! देखो, यह स्वप्न नहीं है । हे घटस्तनि! यह धातकीखंडद्वीप है और मैं राजा पद्मनाभ हूँ ॥17॥<span id="18" /> नारद ने मुझे तुम्हारा मनोहर रूप बतलाया था और मेरे द्वारा आराधित देव मेरे लिए तुम्हें यहाँ हरकर लाया है ॥18॥<span id="19" /> यह सुनकर उसका हृदय चकित हो गया तथा यह क्या है इस प्रकार कहती हुई वह विचार करने लगी कि अहो ! यह मुझे दुरंत दुःख आ पड़ा है ॥19॥<span id="20" /> जब तक अर्जुन का दर्शन नहीं होता तब तक के लिए मेरे आहार का त्याग है ऐसा नियम लेकर उसने अर्जुन के द्वारा छोड़ने योग्य वेणी बाँध ली ॥20॥<span id="21" /> तदनंतर शीलरूपी वज्रमयकोट के भीतर स्थित द्रौपदी काम के द्वारा पीड़ित होने वाले राजा पद्मनाभ से इस प्रकार बोली ॥21॥<span id="22" /> कि बलदेव और कृष्णनारायण मेरे भाई हैं, धनुर्धारी अर्जुन मेरा पति है, पति के बड़े भाई महावीर भीम और युधिष्ठिर अतिशय वीर हैं और पति के छोटे भाई सहदेव और नकुल यमराज के समान हैं ॥22॥<span id="23" /> जल और स्थल के मार्गों से जिन्हें कोई कहीं रोक नहीं सका ऐसे मनोरथ के समान शीघ्रगामी उनके रथ समस्त पृथिवी में विचरण करते हैं ॥23॥<span id="24" /> इसलिए हे राजन् ! यदि तू भाई-बांधवों-सहित, इनसे अपना भला चाहता है तो सर्पिणी के समान मुझे शीघ्र ही वापस भेज दे ॥24॥<span id="25" /> जिसकी अन्य सब इच्छाएं दूर हो चुकी थीं ऐसे पद्मनाभ ने द्रौपदी के इस तरह कहने पर भी जब अपना हठ नहीं छोड़ा तब परिस्थिति के अनुसार तत्काल विचार करने वाली द्रौपदी ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया ॥25॥<span id="26" /> कि हे राजन् ! यदि मेरे आत्मीय जन एक मास के भीतर यहाँ नहीं आते हैं तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह मेरा करना ॥26॥<span id="27" /> तथास्तु ऐसा हो इस प्रकार कहकर पद्मनाभ अपनी स्त्रियों के साथ उसे अनुकूल करता और सैकड़ों प्रिय पदार्थों से लुभाता हुआ रहने लगा ॥27॥<span id="28" /> द्रोपदी भय छोड़कर विश्वस्त हो गयी और निरंतर अश्रु छोड़ती तथा आहार-विहार बंद कर पति का मार्ग देखने लगी ॥28॥<span id="29" /></p> | ||
<p> इधर जब द्रौपदी अकस्मात् अदृश्य हो गयी तब पांचों पांडव किंकर्तव्यविमूढ़ हो अत्यंत व्याकुल हो गये ॥29॥ | <p> इधर जब द्रौपदी अकस्मात् अदृश्य हो गयी तब पांचों पांडव किंकर्तव्यविमूढ़ हो अत्यंत व्याकुल हो गये ॥29॥<span id="30" /> तदनंतर जब वे निरुपाय हो गये तब उन्होंने श्रीकृष्ण के पास जाकर सब समाचार कहा । उसे सुनकर यादवों सहित श्रीकृष्ण बहुत दुःखी हुए और उसी समय उन्होंने समस्त भरत क्षेत्र में यह समाचार श्रवण कराया ॥30॥<span id="31" /> जब भरत क्षेत्र में कहीं पता नहीं चला तब उन्होंने समझ लिया कि कोई क्षुद्र वृत्ति वाला मनुष्य इसे हरकर दूसरे क्षेत्र में ले गया है । इस तरह समस्त यादव उसका समाचार प्राप्त करने में तत्पर हो गये ॥31॥<span id="32" /><span id="33" /><span id="34" /></p> | ||
<p> किसी दिन श्रीकृष्ण सभामंडप में बैठे हुए थे कि उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुंचे । समस्त यादवों ने उनका सम्मान किया । तदनंतर प्रिय समाचार सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैंने द्रौपदी को धातकीखंड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के घर देखा है । उसका शरीर अत्यंत काला तथा दुर्बल हो गया है, उसके नेत्र निरंतर पड़ती हुई अश्रुधारा से व्यस्त रहते हैं और राजा पद्मनाभ के अंतःपुर की स्त्रियां बड़े आदर के साथ उसकी सेवा करती रहती हैं ॥32-34॥ | <p> किसी दिन श्रीकृष्ण सभामंडप में बैठे हुए थे कि उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुंचे । समस्त यादवों ने उनका सम्मान किया । तदनंतर प्रिय समाचार सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैंने द्रौपदी को धातकीखंड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के घर देखा है । उसका शरीर अत्यंत काला तथा दुर्बल हो गया है, उसके नेत्र निरंतर पड़ती हुई अश्रुधारा से व्यस्त रहते हैं और राजा पद्मनाभ के अंतःपुर की स्त्रियां बड़े आदर के साथ उसकी सेवा करती रहती हैं ॥32-34॥<span id="35" /> उसे इस समय अपने शीलव्रत का ही सबसे बड़ा भरोसा है, तथा वह लंबी-लंबी श्वास छोड़ती रहती है । आप-जैसे भाइयों के रहते हुए वह शत्रु के घर में क्यों रह रही है ? ॥35 ॥<span id="36" /> इस प्रकार द्रौपदी का समाचार पाकर उस समय कृष्ण आदि बहुत हर्षित हुए और अपकार के साथ-साथ उपकार करने वाले नारद की प्रशंसा करने लगे ॥36॥<span id="37" /> वह दुष्ट द्रौपदी का हरण कर कहां जावेगा? मृत्यु के इच्छुक उस दुराचारी को अभी यमराज के घर भेजता हूँ ॥37 ॥<span id="38" /> इस प्रकार शत्रु के प्रति द्वेष प्रकट करते हुए श्रीकृष्ण द्रोपदी को लाने के लिए उद्यत हुए और रथ पर बैठकर दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहुंचे ॥38॥<span id="39" /> वहाँ जाकर उन्होंने धातकीखंड द्वीप को प्राप्त करने की इच्छा से पांडवों के साथ यम में स्थित लवणसमुद्र के अधिष्ठाता देव की अच्छी तरह आराधना की ॥39॥<span id="40" /> तदनंतर समुद्र का अधिष्ठाता देव पाँच पांडवों सहित कृष्ण को छह रथों में ले गया और इस तरह वे शीघ्र ही समुद्र का उल्लंघन कर धातकीखंड द्वीप के भरतक्षेत्र में जा पहुंचे ॥40॥<span id="41" /> वहाँ जाकर ये अमरकंकापुरी के उद्यान में ठहर गये और राजा पद्मनाभ के द्वारा नियुक्त पुरुषों ने उसे खबर दी कि कृष्ण आदि आ पहुंचे हैं ॥41॥<span id="42" /> खबर पाते ही उसकी उद्धत चतुरंग सेना नगरी से बाहर निकली परंतु पांचों पांडवों ने युद्ध में उसे इतना मारा कि वह भागकर नगर में जा घुसी ॥42॥<span id="43" /><span id="44" /><span id="45" /> राजा पद्मनाभ बड़ा नीतिज्ञ था इसलिए वह नगर का द्वार बंद कर भीतर रह गया । नगर का द्वार लांघना जब पांडवों के वश की बात नहीं रही तब श्रीकृष्ण ने स्वयं पैर के आघातों से द्वार को तोड़ना शुरू किया । उनके पैर के आघात क्या थे मानो वज्र के प्रहार थे । उन्होंने नगर की समस्त बाह्य तथा अभ्यंतर भूमि को तहस-नहस कर डाला । प्राकार और गोपुर टूटकर गिर गये । बड़े-बड़े महल और शालाओं के समूह गिरने लगे जिससे मदोन्मत्त हाथी और घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगे, नगर में सर्वत्र हाहाकार का महान् शब्द गूंजने लगा और मनुष्य घबड़ाकर बाहर निकल आये ॥43-45॥<span id="46" /><span id="47" /> जब द्रोही राजा पद्मनाभ निरुपाय हो गया तब वह भय से व्याकुल हो नगरवासियों और अंतःपुर की स्त्रियों को साथ ले शीघ्र ही द्रौपदी की शरण में पहुंचा और नम्रीभूत होकर कहने लगा कि हे देवि ! तू देवता के समान है, सौम्य है, पतिव्रता है, मुझ पापी को क्षमा करो, क्षमा करो और अभयदान दिलाओ ॥46-47॥<span id="48" /><span id="49" /> द्रौपदी परम दयालु थी इसलिए उसने शरण में आये हुए पद्मनाभ से कहा कि तू स्त्री का वेष धारण कर चक्रवर्ती कृष्ण की शरण में जा । क्योंकि उत्तम मनुष्य नमस्कार करने वाले अपराधी जनों पर भी प्रायः दया-सहित होते हैं, फिर जो भीरु हैं अथवा भीरुजनों का वेष धारण करते हैं उन पर तो वे और भी अधिक दया करते हैं ॥48-49॥<span id="50" /> यह सुनकर राजा पद्मनाभ ने स्त्री का वेष धारण कर लिया और स्त्रियों को साथ ले तथा द्रौपदी को आगे कर वह श्रीकृष्ण की शरण में जा पहुँचा ॥50॥<span id="51" /> श्रीकृष्ण शरणागतों का भय हरने वाले थे इसलिए उन्होंने उसे अभयदान देकर अपने स्थान पर वापस कर दिया, केवल उसके स्थान तथा नाम आदि में परिवर्तन कर दिया ॥51॥<span id="52" /> द्रौपदी ने कुशल-प्रश्न पूर्वक श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार किया और पाँचों पांडवों के साथ यथायोग्य विनय का व्यवहार किया ॥52॥<span id="53" /> तदनंतर अर्जुन ने विरह से पीड़ित वल्लभा का आलिंगन कर पसीना से भीगे हुए दोनों हाथों से स्वयं उसकी वेणी खोली ॥53॥<span id="54" /> द्रौपदी ने पांडवों के साथ स्नान किया, भोजन किया, हृदय से सबका अतिथि-सत्कार किया, उनके सामने अपना दुःख निवेदन किया और अश्रुधारा के साथ-साथ सब दुःख छोड़ दिया । भावार्थ― पांडवों के सामने सब दु:ख प्रकट कर वह सब दुःख भूल गयी ॥54॥<span id="55" /> </p> | ||
<p> तदनंतर कृष्ण ने द्रोपदी को रथ में बैठाकर समुद्र के किनारे आ इस रीति से अपना शंख बजाया कि उसका शब्द समस्त दिशाओं में व्याप्त हो गया ॥55॥ उस समय वहाँ चंपा नगरी के बाहर स्थित जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करने के लिए धातकीखंड का नारायण कपिल आया था उसने पृथिवी को कंपित करने वाला शंख का उक्त शब्द सुनकर जिनेंद्र भगवान् से पूछा कि हे नाथ ! मेरे समान शक्ति को धारण करने वाले किस मनुष्य ने यह शंख बजाया है । इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्र में मेरे समान दूसरा मनुष्य नहीं है | <p> तदनंतर कृष्ण ने द्रोपदी को रथ में बैठाकर समुद्र के किनारे आ इस रीति से अपना शंख बजाया कि उसका शब्द समस्त दिशाओं में व्याप्त हो गया ॥55॥<span id="56" /><span id="57" /> उस समय वहाँ चंपा नगरी के बाहर स्थित जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करने के लिए धातकीखंड का नारायण कपिल आया था उसने पृथिवी को कंपित करने वाला शंख का उक्त शब्द सुनकर जिनेंद्र भगवान् से पूछा कि हे नाथ ! मेरे समान शक्ति को धारण करने वाले किस मनुष्य ने यह शंख बजाया है । इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्र में मेरे समान दूसरा मनुष्य नहीं है ॥ 56-57॥<span id="58" /><span id="59" /><span id="60" /> प्रश्न का उत्तर देने वाले जिनेंद्र भगवान् ने जब यथार्थ बात कही तब कृष्ण को देखने की इच्छा करता हुआ वह वहाँ से जाने लगा । यह देख जिनेंद्र भगवान् ने कहा कि हे राजन् ! तीन लोक में कभी चक्रवर्ती-चक्रवर्तियों का, तीर्थंकर-तीर्थंकरों का, बलभद्र-बलभद्रों का, नारायण-नारायणों का और प्रतिनारायण-प्रतिनारायणों का परस्पर मिलाप नहीं होता । तुम जाओगे तो चिह्न मात्र से ही उसका और तुम्हारा मिलाप हो सकेगा । एक दूसरे के शंख का शब्द सुनना तथा रथों की ध्वजाओं का देखना इन्हीं चिह्नों से तुम्हारा और उसका साक्षात्कार होगा ॥58-60॥<span id="61" /> तदनंतर कपिल नारायण, श्रीकृष्ण को लक्ष्य कर आया और जिनेंद्र भगवान् के कहे अनुसार उसका दूर से ही समुद्र में कृष्ण के साथ साक्षात्कार हुआ ॥61॥<span id="62" /> कपिल नारायण ने चंपा नगरी में वापस आकर अनुचित कार्य करने वाले अमरकंकापुरी के स्वामी राजा पद्मनाभ को क्रोध में आकर बहुत डांटा ॥62॥<span id="63" /> कृष्ण तथा पांडव पहले की ही भांति महासागर को शीघ्र ही पार कर इस तट पर आ गये । वहाँ कृष्ण तो विश्राम करने लगे परंतु पांडव चले आये ॥63 ॥<span id="65" /> पांडव नौ का के द्वारा गंगा को पार कर दक्षिण तट पर आ ठहरे । भीम का स्वभाव क्रीड़ा करने का था इसलिए उसने इस पार आने के बाद नौ का तट पर छिपा दी ॥65॥<span id="65" /><span id="66" /> पीछे जब द्रौपदी के साथ कृष्ण आये और उन्होंने पूछा कि आप लोग इस गंगा को किस तरह पार हुए हैं ? तो कृष्ण की चेष्टा को जान ने के इच्छुक भीम ने कहा कि हम लोग भुजाओं से तैरकर आये हैं । श्रीकृष्ण भीम के कथन को सत्य मान गंगा को पार करने की शीघ्रता करने लगे ॥65-66॥<span id="67" /> श्रीकृष्ण ने घोड़ों और सारथी के सहित रथ को एक हाथ पर उठा लिया और एक हाथ तथा दो जंघाओं से गंगा को इस तरह पार कर लिया जिस तरह मानो वह घोटू बराबर हो ॥67 ॥<span id="68" /> तदनंतर आश्चर्य से चकित और आनंद से विभोर पांडवों ने शीघ्र ही सामने जाकर नम्रीभूत हो श्री कृष्ण का आलिंगन किया और उनकी अपूर्व शक्ति से परिचित हो वे उनकी स्तुति करने लगे ॥68 ॥<span id="69" /> तत्पश्चात् भीम ने सबको सुनाते हुए स्वयं कहा कि यह तो मैंने हंसी की थी । यह सुन, श्रीकृष्ण उसी समय पांडवों से विरक्तता को प्राप्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बिना देश-काल की हंसी शोभा नहीं देती ॥69॥<span id="70" /> कृष्ण ने पांडवों को फटकारते हुए कहा कि अरे निंद्य पांडवो ! मैंने संसार में तुम लोगों के देखते-देखते अनेकों बार अमानुषिक कार्य किये हैं फिर इस गंगा के पार करने में कौन-सी बात मेरी परीक्षा करने में समर्थ थी ? ॥70॥<span id="71" /> इस प्रकार पांडवों से कहकर वे उन्हीं के साथ हस्तिनापुर गये और वहाँ सुभद्रा के पुत्र आर्य-सूनु के लिए राज्य देकर उन्होंने पांडवों को क्रोधवश वहाँ से विदा कर लिया ॥71 ॥<span id="72" /> </p> | ||
<p> तदनंतर समस्त सामंत जिनके पीछे-पीछे चल रहे थे और यादवों ने सम्मुख आकर जिनका अभिनंदन किया था ऐसे कृतकार्य श्रीकृष्ण ने विशाल द्वारिका नगरी में प्रवेश कर अपनी स्त्रियों के समूह को प्रसन्न किया ॥72॥ असमय में वज्रपात के समान कठोर कृष्णचंद्र की आज्ञा से पांडव, अपने अनुकूल जनों के साथ दक्षिणदिशा की ओर गये और वहाँ उन्होंने मथुरा नगरी बसायी | <p> तदनंतर समस्त सामंत जिनके पीछे-पीछे चल रहे थे और यादवों ने सम्मुख आकर जिनका अभिनंदन किया था ऐसे कृतकार्य श्रीकृष्ण ने विशाल द्वारिका नगरी में प्रवेश कर अपनी स्त्रियों के समूह को प्रसन्न किया ॥72॥<span id="73" /> असमय में वज्रपात के समान कठोर कृष्णचंद्र की आज्ञा से पांडव, अपने अनुकूल जनों के साथ दक्षिणदिशा की ओर गये और वहाँ उन्होंने मथुरा नगरी बसायी ॥73॥<span id="74" /> वहाँ वे दक्षिणदिशा में लौंग और कृष्णा गुरु की सुगंधित वायु से व्याप्त समुद्र के मनोहर तटों पर तथा उत्तम चंदन से दिशाओं को सुगंधित करने वाली मलयगिरि की ऊंची-ऊंची चोटियों पर विहार करने लगे ॥74॥<span id="75" /> </p> | ||
<p> गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, कहां तो लवणसमुद्र और जंबूवृक्ष से सुशोभित जंबूद्वीप की भूमि और कहां अत्यंत दुर्गम धातकीखंड की भूमि ? फिर भी पूर्वकृत जैनधर्म के प्रभाव से वहाँ यातायात के द्वारा कार्य की सिद्धि हो जाती है ॥75॥</p> | <p> गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, कहां तो लवणसमुद्र और जंबूवृक्ष से सुशोभित जंबूद्वीप की भूमि और कहां अत्यंत दुर्गम धातकीखंड की भूमि ? फिर भी पूर्वकृत जैनधर्म के प्रभाव से वहाँ यातायात के द्वारा कार्य की सिद्धि हो जाती है ॥75॥<span id="54" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में द्रौपदी का हरण, पुनः उसका ले आना तथा दक्षिण-मथुरा के बसाये जाने का वर्णन करने वाला चौवनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥54॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में द्रौपदी का हरण, पुनः उसका ले आना तथा दक्षिण-मथुरा के बसाये जाने का वर्णन करने वाला चौवनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥54॥<span id="55" /></strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर राजा श्रेणिकने पुनः पांडवों की चेष्टा पूछी सो संदेहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे ॥1॥ जब पांडव हस्तिनापुर में यथायोग्य रीति से रहने लगे तब कुरु देश को प्रजा अपने पूर्व स्वामियों को प्राप्त कर अत्यधिक संतुष्ट हुई ॥2॥ पांडवों के सुखदायक सुराज्य के चालू होने पर देश के सभी वर्ण और सभी आश्रम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि को सर्वथा भूल गये ॥3॥ एक दिन सर्वत्र बे-रोक-टोक गमन करने वाले, क्रुद्ध हृदय और स्वभाव से कलह प्रेमी नारद, पांडवों के घर आये ॥4॥ पांडवों ने नारद को बहुत आदर से देखा परंतु जब वे द्रौपदी के घर गये तब वह आभूषण धारण करने में व्यग्र थी इसलिए कब नारद ने प्रवेश किया और कब निकल गये यह वह नहीं जान सकी ॥5॥ नारदजी, द्रौपदी के इस व्यवहार से तेल के संग से अग्नि के समान, क्रोध से जलने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जो प्राणी सम्मान से दुखी होता है वह सज्जनों के भी अवसर को नहीं जानता ॥6॥ उन्होंने द्रौपदी को दुःख देने का दृढ़ निश्चय कर लिया और उसी निश्चय के अनुसार वे पूर्वधातकीखंड के भरत क्षेत्र की ओर आकाश में चल पड़े ॥7॥ वे निःशंक होकर अंग देश को अमरकंकापुरी में पहुंचे और वहाँ उन्होंने स्त्रीलंपट, पद्मनाभ नामक शोभासंपन्न राजा को देखा ॥8॥ राजा पद्मनाभ ने नारद को आत्मीय जान, अपना अंतःपुर दिखाया और पूछा कि ऐसा स्त्रियों का रूप आपने कहीं अन्यत्र भी देखा है ? ॥9॥ राजा पद्मनाभ के प्रश्न को खीर में पड़े घी के समान अनुकूल मानते हुए नारद ने द्रौपदी के लोकोत्तर सौंदर्य का वर्णन इस रीति से किया कि उसने उसे द्रौपदीरूपी पिशाच के वशीभूत कर दिया अर्थात् उसके हृदय में द्रौपदी के प्रति अत्यंत उत्कंठा उत्पन्न कर दो । तदनंतर द्रौपदी के द्वीप क्षेत्र, नगर तथा भवन का पता बता कर वे कहीं चले गये ॥10-11 ॥ पद्मनाभ ने द्रौपदी के प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र तप के द्वारा पाताललोक में निवास करने वाले संगमक नामक देव की आराधना की ॥12॥ तदनंतर आराधना किया हुआ वह देव रात्रि के समय सोती हुई द्रौपदी को पद्मनाभ की नगरी में उठा लाया ॥13॥ देव ने लाकर उसे भवन के उद्यान में छोड़ दिया और इसकी सूचना राजा पद्मनाभ को कर दी । राजा पद्मनाभ ने जाकर साक्षात् देवांगना द्रौपदी को देखा ॥14॥ यद्यपि द्रोपदी अपनी सर्व तो भद्र शय्या पर जाग उठी थी और निद्रारहित हो गयी थी तथापि यह स्वप्न है इस प्रकार शंका करती हुई बार-बार सो रही थी ॥15॥ नेत्रों को बंद करने वाली द्रौपदी का अभिप्राय जानकर राजा पद्मनाभ धीरे से उसके पास गया और प्रिय वचन बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा ॥16॥ उसने कहा कि हे विशाललोचने ! देखो, यह स्वप्न नहीं है । हे घटस्तनि! यह धातकीखंडद्वीप है और मैं राजा पद्मनाभ हूँ ॥17॥ नारद ने मुझे तुम्हारा मनोहर रूप बतलाया था और मेरे द्वारा आराधित देव मेरे लिए तुम्हें यहाँ हरकर लाया है ॥18॥ यह सुनकर उसका हृदय चकित हो गया तथा यह क्या है इस प्रकार कहती हुई वह विचार करने लगी कि अहो ! यह मुझे दुरंत दुःख आ पड़ा है ॥19॥ जब तक अर्जुन का दर्शन नहीं होता तब तक के लिए मेरे आहार का त्याग है ऐसा नियम लेकर उसने अर्जुन के द्वारा छोड़ने योग्य वेणी बाँध ली ॥20॥ तदनंतर शीलरूपी वज्रमयकोट के भीतर स्थित द्रौपदी काम के द्वारा पीड़ित होने वाले राजा पद्मनाभ से इस प्रकार बोली ॥21॥ कि बलदेव और कृष्णनारायण मेरे भाई हैं, धनुर्धारी अर्जुन मेरा पति है, पति के बड़े भाई महावीर भीम और युधिष्ठिर अतिशय वीर हैं और पति के छोटे भाई सहदेव और नकुल यमराज के समान हैं ॥22॥ जल और स्थल के मार्गों से जिन्हें कोई कहीं रोक नहीं सका ऐसे मनोरथ के समान शीघ्रगामी उनके रथ समस्त पृथिवी में विचरण करते हैं ॥23॥ इसलिए हे राजन् ! यदि तू भाई-बांधवों-सहित, इनसे अपना भला चाहता है तो सर्पिणी के समान मुझे शीघ्र ही वापस भेज दे ॥24॥ जिसकी अन्य सब इच्छाएं दूर हो चुकी थीं ऐसे पद्मनाभ ने द्रौपदी के इस तरह कहने पर भी जब अपना हठ नहीं छोड़ा तब परिस्थिति के अनुसार तत्काल विचार करने वाली द्रौपदी ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया ॥25॥ कि हे राजन् ! यदि मेरे आत्मीय जन एक मास के भीतर यहाँ नहीं आते हैं तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह मेरा करना ॥26॥ तथास्तु ऐसा हो इस प्रकार कहकर पद्मनाभ अपनी स्त्रियों के साथ उसे अनुकूल करता और सैकड़ों प्रिय पदार्थों से लुभाता हुआ रहने लगा ॥27॥ द्रोपदी भय छोड़कर विश्वस्त हो गयी और निरंतर अश्रु छोड़ती तथा आहार-विहार बंद कर पति का मार्ग देखने लगी ॥28॥
इधर जब द्रौपदी अकस्मात् अदृश्य हो गयी तब पांचों पांडव किंकर्तव्यविमूढ़ हो अत्यंत व्याकुल हो गये ॥29॥ तदनंतर जब वे निरुपाय हो गये तब उन्होंने श्रीकृष्ण के पास जाकर सब समाचार कहा । उसे सुनकर यादवों सहित श्रीकृष्ण बहुत दुःखी हुए और उसी समय उन्होंने समस्त भरत क्षेत्र में यह समाचार श्रवण कराया ॥30॥ जब भरत क्षेत्र में कहीं पता नहीं चला तब उन्होंने समझ लिया कि कोई क्षुद्र वृत्ति वाला मनुष्य इसे हरकर दूसरे क्षेत्र में ले गया है । इस तरह समस्त यादव उसका समाचार प्राप्त करने में तत्पर हो गये ॥31॥
किसी दिन श्रीकृष्ण सभामंडप में बैठे हुए थे कि उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुंचे । समस्त यादवों ने उनका सम्मान किया । तदनंतर प्रिय समाचार सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैंने द्रौपदी को धातकीखंड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के घर देखा है । उसका शरीर अत्यंत काला तथा दुर्बल हो गया है, उसके नेत्र निरंतर पड़ती हुई अश्रुधारा से व्यस्त रहते हैं और राजा पद्मनाभ के अंतःपुर की स्त्रियां बड़े आदर के साथ उसकी सेवा करती रहती हैं ॥32-34॥ उसे इस समय अपने शीलव्रत का ही सबसे बड़ा भरोसा है, तथा वह लंबी-लंबी श्वास छोड़ती रहती है । आप-जैसे भाइयों के रहते हुए वह शत्रु के घर में क्यों रह रही है ? ॥35 ॥ इस प्रकार द्रौपदी का समाचार पाकर उस समय कृष्ण आदि बहुत हर्षित हुए और अपकार के साथ-साथ उपकार करने वाले नारद की प्रशंसा करने लगे ॥36॥ वह दुष्ट द्रौपदी का हरण कर कहां जावेगा? मृत्यु के इच्छुक उस दुराचारी को अभी यमराज के घर भेजता हूँ ॥37 ॥ इस प्रकार शत्रु के प्रति द्वेष प्रकट करते हुए श्रीकृष्ण द्रोपदी को लाने के लिए उद्यत हुए और रथ पर बैठकर दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहुंचे ॥38॥ वहाँ जाकर उन्होंने धातकीखंड द्वीप को प्राप्त करने की इच्छा से पांडवों के साथ यम में स्थित लवणसमुद्र के अधिष्ठाता देव की अच्छी तरह आराधना की ॥39॥ तदनंतर समुद्र का अधिष्ठाता देव पाँच पांडवों सहित कृष्ण को छह रथों में ले गया और इस तरह वे शीघ्र ही समुद्र का उल्लंघन कर धातकीखंड द्वीप के भरतक्षेत्र में जा पहुंचे ॥40॥ वहाँ जाकर ये अमरकंकापुरी के उद्यान में ठहर गये और राजा पद्मनाभ के द्वारा नियुक्त पुरुषों ने उसे खबर दी कि कृष्ण आदि आ पहुंचे हैं ॥41॥ खबर पाते ही उसकी उद्धत चतुरंग सेना नगरी से बाहर निकली परंतु पांचों पांडवों ने युद्ध में उसे इतना मारा कि वह भागकर नगर में जा घुसी ॥42॥ राजा पद्मनाभ बड़ा नीतिज्ञ था इसलिए वह नगर का द्वार बंद कर भीतर रह गया । नगर का द्वार लांघना जब पांडवों के वश की बात नहीं रही तब श्रीकृष्ण ने स्वयं पैर के आघातों से द्वार को तोड़ना शुरू किया । उनके पैर के आघात क्या थे मानो वज्र के प्रहार थे । उन्होंने नगर की समस्त बाह्य तथा अभ्यंतर भूमि को तहस-नहस कर डाला । प्राकार और गोपुर टूटकर गिर गये । बड़े-बड़े महल और शालाओं के समूह गिरने लगे जिससे मदोन्मत्त हाथी और घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगे, नगर में सर्वत्र हाहाकार का महान् शब्द गूंजने लगा और मनुष्य घबड़ाकर बाहर निकल आये ॥43-45॥ जब द्रोही राजा पद्मनाभ निरुपाय हो गया तब वह भय से व्याकुल हो नगरवासियों और अंतःपुर की स्त्रियों को साथ ले शीघ्र ही द्रौपदी की शरण में पहुंचा और नम्रीभूत होकर कहने लगा कि हे देवि ! तू देवता के समान है, सौम्य है, पतिव्रता है, मुझ पापी को क्षमा करो, क्षमा करो और अभयदान दिलाओ ॥46-47॥ द्रौपदी परम दयालु थी इसलिए उसने शरण में आये हुए पद्मनाभ से कहा कि तू स्त्री का वेष धारण कर चक्रवर्ती कृष्ण की शरण में जा । क्योंकि उत्तम मनुष्य नमस्कार करने वाले अपराधी जनों पर भी प्रायः दया-सहित होते हैं, फिर जो भीरु हैं अथवा भीरुजनों का वेष धारण करते हैं उन पर तो वे और भी अधिक दया करते हैं ॥48-49॥ यह सुनकर राजा पद्मनाभ ने स्त्री का वेष धारण कर लिया और स्त्रियों को साथ ले तथा द्रौपदी को आगे कर वह श्रीकृष्ण की शरण में जा पहुँचा ॥50॥ श्रीकृष्ण शरणागतों का भय हरने वाले थे इसलिए उन्होंने उसे अभयदान देकर अपने स्थान पर वापस कर दिया, केवल उसके स्थान तथा नाम आदि में परिवर्तन कर दिया ॥51॥ द्रौपदी ने कुशल-प्रश्न पूर्वक श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार किया और पाँचों पांडवों के साथ यथायोग्य विनय का व्यवहार किया ॥52॥ तदनंतर अर्जुन ने विरह से पीड़ित वल्लभा का आलिंगन कर पसीना से भीगे हुए दोनों हाथों से स्वयं उसकी वेणी खोली ॥53॥ द्रौपदी ने पांडवों के साथ स्नान किया, भोजन किया, हृदय से सबका अतिथि-सत्कार किया, उनके सामने अपना दुःख निवेदन किया और अश्रुधारा के साथ-साथ सब दुःख छोड़ दिया । भावार्थ― पांडवों के सामने सब दु:ख प्रकट कर वह सब दुःख भूल गयी ॥54॥
तदनंतर कृष्ण ने द्रोपदी को रथ में बैठाकर समुद्र के किनारे आ इस रीति से अपना शंख बजाया कि उसका शब्द समस्त दिशाओं में व्याप्त हो गया ॥55॥ उस समय वहाँ चंपा नगरी के बाहर स्थित जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करने के लिए धातकीखंड का नारायण कपिल आया था उसने पृथिवी को कंपित करने वाला शंख का उक्त शब्द सुनकर जिनेंद्र भगवान् से पूछा कि हे नाथ ! मेरे समान शक्ति को धारण करने वाले किस मनुष्य ने यह शंख बजाया है । इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्र में मेरे समान दूसरा मनुष्य नहीं है ॥ 56-57॥ प्रश्न का उत्तर देने वाले जिनेंद्र भगवान् ने जब यथार्थ बात कही तब कृष्ण को देखने की इच्छा करता हुआ वह वहाँ से जाने लगा । यह देख जिनेंद्र भगवान् ने कहा कि हे राजन् ! तीन लोक में कभी चक्रवर्ती-चक्रवर्तियों का, तीर्थंकर-तीर्थंकरों का, बलभद्र-बलभद्रों का, नारायण-नारायणों का और प्रतिनारायण-प्रतिनारायणों का परस्पर मिलाप नहीं होता । तुम जाओगे तो चिह्न मात्र से ही उसका और तुम्हारा मिलाप हो सकेगा । एक दूसरे के शंख का शब्द सुनना तथा रथों की ध्वजाओं का देखना इन्हीं चिह्नों से तुम्हारा और उसका साक्षात्कार होगा ॥58-60॥ तदनंतर कपिल नारायण, श्रीकृष्ण को लक्ष्य कर आया और जिनेंद्र भगवान् के कहे अनुसार उसका दूर से ही समुद्र में कृष्ण के साथ साक्षात्कार हुआ ॥61॥ कपिल नारायण ने चंपा नगरी में वापस आकर अनुचित कार्य करने वाले अमरकंकापुरी के स्वामी राजा पद्मनाभ को क्रोध में आकर बहुत डांटा ॥62॥ कृष्ण तथा पांडव पहले की ही भांति महासागर को शीघ्र ही पार कर इस तट पर आ गये । वहाँ कृष्ण तो विश्राम करने लगे परंतु पांडव चले आये ॥63 ॥ पांडव नौ का के द्वारा गंगा को पार कर दक्षिण तट पर आ ठहरे । भीम का स्वभाव क्रीड़ा करने का था इसलिए उसने इस पार आने के बाद नौ का तट पर छिपा दी ॥65॥ पीछे जब द्रौपदी के साथ कृष्ण आये और उन्होंने पूछा कि आप लोग इस गंगा को किस तरह पार हुए हैं ? तो कृष्ण की चेष्टा को जान ने के इच्छुक भीम ने कहा कि हम लोग भुजाओं से तैरकर आये हैं । श्रीकृष्ण भीम के कथन को सत्य मान गंगा को पार करने की शीघ्रता करने लगे ॥65-66॥ श्रीकृष्ण ने घोड़ों और सारथी के सहित रथ को एक हाथ पर उठा लिया और एक हाथ तथा दो जंघाओं से गंगा को इस तरह पार कर लिया जिस तरह मानो वह घोटू बराबर हो ॥67 ॥ तदनंतर आश्चर्य से चकित और आनंद से विभोर पांडवों ने शीघ्र ही सामने जाकर नम्रीभूत हो श्री कृष्ण का आलिंगन किया और उनकी अपूर्व शक्ति से परिचित हो वे उनकी स्तुति करने लगे ॥68 ॥ तत्पश्चात् भीम ने सबको सुनाते हुए स्वयं कहा कि यह तो मैंने हंसी की थी । यह सुन, श्रीकृष्ण उसी समय पांडवों से विरक्तता को प्राप्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बिना देश-काल की हंसी शोभा नहीं देती ॥69॥ कृष्ण ने पांडवों को फटकारते हुए कहा कि अरे निंद्य पांडवो ! मैंने संसार में तुम लोगों के देखते-देखते अनेकों बार अमानुषिक कार्य किये हैं फिर इस गंगा के पार करने में कौन-सी बात मेरी परीक्षा करने में समर्थ थी ? ॥70॥ इस प्रकार पांडवों से कहकर वे उन्हीं के साथ हस्तिनापुर गये और वहाँ सुभद्रा के पुत्र आर्य-सूनु के लिए राज्य देकर उन्होंने पांडवों को क्रोधवश वहाँ से विदा कर लिया ॥71 ॥
तदनंतर समस्त सामंत जिनके पीछे-पीछे चल रहे थे और यादवों ने सम्मुख आकर जिनका अभिनंदन किया था ऐसे कृतकार्य श्रीकृष्ण ने विशाल द्वारिका नगरी में प्रवेश कर अपनी स्त्रियों के समूह को प्रसन्न किया ॥72॥ असमय में वज्रपात के समान कठोर कृष्णचंद्र की आज्ञा से पांडव, अपने अनुकूल जनों के साथ दक्षिणदिशा की ओर गये और वहाँ उन्होंने मथुरा नगरी बसायी ॥73॥ वहाँ वे दक्षिणदिशा में लौंग और कृष्णा गुरु की सुगंधित वायु से व्याप्त समुद्र के मनोहर तटों पर तथा उत्तम चंदन से दिशाओं को सुगंधित करने वाली मलयगिरि की ऊंची-ऊंची चोटियों पर विहार करने लगे ॥74॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, कहां तो लवणसमुद्र और जंबूवृक्ष से सुशोभित जंबूद्वीप की भूमि और कहां अत्यंत दुर्गम धातकीखंड की भूमि ? फिर भी पूर्वकृत जैनधर्म के प्रभाव से वहाँ यातायात के द्वारा कार्य की सिद्धि हो जाती है ॥75॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में द्रौपदी का हरण, पुनः उसका ले आना तथा दक्षिण-मथुरा के बसाये जाने का वर्णन करने वाला चौवनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥54॥