केकया: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री, द्रोणमेघ की बहिन राजा दशरथ की रानी और भरत की जननी । इसे अनेक लिपियों और कलाओं का ज्ञान था । स्वयंवर में जैसे ही इसने दशरथ का वरण किया वहाँ आये नृप कुपित होकर दशरथ के विरोधी हो गये । दशरथ ने सभी से युद्ध किया और विजयी हुआ । इस युद्ध में इसने रथ की रास स्वयं सम्हाली थी । इससे दशरथ ने प्रसन्न हो इसे वर मांगने को कहा । इसने कहा था कि वह समय आने पर इच्छित वस्तु मांग लेगी । <span class="GRef">पद्मपुराण 24.1-35, 90. 102-109, 125-126, 130, 25.35</span></span><br> | <span class="HindiText"> कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री, द्रोणमेघ की बहिन राजा दशरथ की रानी और भरत की जननी । इसे अनेक लिपियों और कलाओं का ज्ञान था । स्वयंवर में जैसे ही इसने दशरथ का वरण किया वहाँ आये नृप कुपित होकर दशरथ के विरोधी हो गये । दशरथ ने सभी से युद्ध किया और विजयी हुआ । इस युद्ध में इसने रथ की रास स्वयं सम्हाली थी । इससे दशरथ ने प्रसन्न हो इसे वर मांगने को कहा । इसने कहा था कि वह समय आने पर इच्छित वस्तु मांग लेगी । <span class="GRef">पद्मपुराण 24.1-35, 90. 102-109, 125-126, 130, 25.35</span></span><br> | ||
<span class="HindiText"> जब दशरथ को सर्यभूतहित मुनि से अपने पूर्वभवों के वृत्तांत सुनने से वैराग्य हो गया तो उसके वैराग्य की बात सुनकर भरत को भी वैराग्य हो गया था । दशरथ ने अपने प्रथम पुत्र राम को राज्य देने की घोषणा की तब भरत के वैरागी होने से दु:खी हुई कैकया ने दशरथ से यह वर मांग लिया कि राज्य भरत को मिले । परिस्थितिवश दशरथ ने यह वर दे दिया । <span class="GRef"> पद्मपुराण 31. 55-61, 95, 112-114 </span></span><br> | <span class="HindiText"> जब दशरथ को सर्यभूतहित मुनि से अपने पूर्वभवों के वृत्तांत सुनने से वैराग्य हो गया तो उसके वैराग्य की बात सुनकर भरत को भी वैराग्य हो गया था । दशरथ ने अपने प्रथम पुत्र राम को राज्य देने की घोषणा की तब भरत के वैरागी होने से दु:खी हुई कैकया ने दशरथ से यह वर मांग लिया कि राज्य भरत को मिले । परिस्थितिवश दशरथ ने यह वर दे दिया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#55|पद्मपुराण - 31.55-61]], 95, 112-114 </span></span><br> | ||
<span class="HindiText">जब राम ने यह निर्णय सुना तो पिता के वचन का पालन करने के लिए उन्होंने वन जाने का निर्णय कर लिया और भरत को समझाया कि वह पिता की आज्ञा का पालन करें । जब सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को जाने लगे तो राम को वन से लौटाने के लिए इसने क्षमायाचना करते हुए कहा कि स्त्रीपने के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । <span class="GRef"> पद्मपुराण 32.127-129 </span><br> | <span class="HindiText">जब राम ने यह निर्णय सुना तो पिता के वचन का पालन करने के लिए उन्होंने वन जाने का निर्णय कर लिया और भरत को समझाया कि वह पिता की आज्ञा का पालन करें । जब सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को जाने लगे तो राम को वन से लौटाने के लिए इसने क्षमायाचना करते हुए कहा कि स्त्रीपने के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#127|पद्मपुराण - 32.127-129]] </span><br> | ||
<span class="HindiText">जब राम वन से लौटे तो भरत दीक्षित हो गये । उनके दीक्षित होने पर पुत्र-वियोग से दुखित होकर इसने करुण रुदन किया था । राम, लक्ष्मण और सपत्नी जनों के वचनों से आश्वस्त होकर आत्म-निंदा करते हुए इसने कहा कि स्त्री के इस शरीर को धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है । अंत में निर्मल सम्यक्त्व को धारण कर यह तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हुई और तप कर इसने आनत स्वर्ग में देवपद पाया ।</span> <span class="GRef"> पद्मपुराण 86.11-24,98.39, 123.80 </span> | <span class="HindiText">जब राम वन से लौटे तो भरत दीक्षित हो गये । उनके दीक्षित होने पर पुत्र-वियोग से दुखित होकर इसने करुण रुदन किया था । राम, लक्ष्मण और सपत्नी जनों के वचनों से आश्वस्त होकर आत्म-निंदा करते हुए इसने कहा कि स्त्री के इस शरीर को धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है । अंत में निर्मल सम्यक्त्व को धारण कर यह तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हुई और तप कर इसने आनत स्वर्ग में देवपद पाया ।</span> <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_86#11|पद्मपुराण - 86.11-24]],98.39, 123.80 </span> | ||
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Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री, द्रोणमेघ की बहिन राजा दशरथ की रानी और भरत की जननी । इसे अनेक लिपियों और कलाओं का ज्ञान था । स्वयंवर में जैसे ही इसने दशरथ का वरण किया वहाँ आये नृप कुपित होकर दशरथ के विरोधी हो गये । दशरथ ने सभी से युद्ध किया और विजयी हुआ । इस युद्ध में इसने रथ की रास स्वयं सम्हाली थी । इससे दशरथ ने प्रसन्न हो इसे वर मांगने को कहा । इसने कहा था कि वह समय आने पर इच्छित वस्तु मांग लेगी । पद्मपुराण 24.1-35, 90. 102-109, 125-126, 130, 25.35
जब दशरथ को सर्यभूतहित मुनि से अपने पूर्वभवों के वृत्तांत सुनने से वैराग्य हो गया तो उसके वैराग्य की बात सुनकर भरत को भी वैराग्य हो गया था । दशरथ ने अपने प्रथम पुत्र राम को राज्य देने की घोषणा की तब भरत के वैरागी होने से दु:खी हुई कैकया ने दशरथ से यह वर मांग लिया कि राज्य भरत को मिले । परिस्थितिवश दशरथ ने यह वर दे दिया । पद्मपुराण - 31.55-61, 95, 112-114
जब राम ने यह निर्णय सुना तो पिता के वचन का पालन करने के लिए उन्होंने वन जाने का निर्णय कर लिया और भरत को समझाया कि वह पिता की आज्ञा का पालन करें । जब सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को जाने लगे तो राम को वन से लौटाने के लिए इसने क्षमायाचना करते हुए कहा कि स्त्रीपने के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । पद्मपुराण - 32.127-129
जब राम वन से लौटे तो भरत दीक्षित हो गये । उनके दीक्षित होने पर पुत्र-वियोग से दुखित होकर इसने करुण रुदन किया था । राम, लक्ष्मण और सपत्नी जनों के वचनों से आश्वस्त होकर आत्म-निंदा करते हुए इसने कहा कि स्त्री के इस शरीर को धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है । अंत में निर्मल सम्यक्त्व को धारण कर यह तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हुई और तप कर इसने आनत स्वर्ग में देवपद पाया । पद्मपुराण - 86.11-24,98.39, 123.80