सिद्धार्थ: Difference between revisions
From जैनकोष
Jagrti jain (talk | contribs) mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 9: | Line 9: | ||
</li> | </li> | ||
<li>भगवान् महावीर के पिता-देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।</li> | <li>भगवान् महावीर के पिता-देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।</li> | ||
<li>एक क्षुल्लक था जिसने लव व कुश को शिक्षा दी थी | <li>एक क्षुल्लक था जिसने लव व कुश को शिक्षा दी थी <span class="GRef">( पद्मपुराण/100/47 )</span>।</li> | ||
<li>श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप नागसेन के शिष्य और धृतिषेण के गुरु थे। 11 अंग तथा 10 पूर्वधारी थे। समय-वी.नि.247-264। तृतीय दृष्टि से वी.नि.307-324। (देखें [[ इतिहास#4.2 | इतिहास - 4.2]])।</li> | <li>श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप नागसेन के शिष्य और धृतिषेण के गुरु थे। 11 अंग तथा 10 पूर्वधारी थे। समय-वी.नि.247-264। तृतीय दृष्टि से वी.नि.307-324। (देखें [[ इतिहास#4.2 | इतिहास - 4.2]])।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 33: | Line 33: | ||
<p id="9">(9) भरतक्षेत्र के काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा अकंपन का मंत्री । <span class="GRef"> महापुराण 43.121-124, 181-188 </span></p> | <p id="9">(9) भरतक्षेत्र के काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा अकंपन का मंत्री । <span class="GRef"> महापुराण 43.121-124, 181-188 </span></p> | ||
<p id="10">(10) द्रौपदी को उसके स्वयंवर में आये राजकुमारी का परिचय कराने वाला पुरोहित । <span class="GRef"> महापुराण 72.210 </span></p> | <p id="10">(10) द्रौपदी को उसके स्वयंवर में आये राजकुमारी का परिचय कराने वाला पुरोहित । <span class="GRef"> महापुराण 72.210 </span></p> | ||
<p id="11">(11) एक नगर । यहाँ का राजा नंद था । तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने इसके यहाँ आहार लिये थे । देशभूषण और कुलभूषण का जन्म इसी नगर में हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 57. 49-50, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 39. 158-159 </span></p> | <p id="11">(11) एक नगर । यहाँ का राजा नंद था । तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने इसके यहाँ आहार लिये थे । देशभूषण और कुलभूषण का जन्म इसी नगर में हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 57. 49-50, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_39#158|पद्मपुराण - 39.158-159]] </span></p> | ||
<p id="12">(12) तीर्थंकर नेमिनाथ के पूर्वभव का जीव । <span class="GRef"> पद्मपुराण 20. 23-24 </span></p> | <p id="12">(12) तीर्थंकर नेमिनाथ के पूर्वभव का जीव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#23|पद्मपुराण - 20.23-24]] </span></p> | ||
<p id="13">(13) एक महास्त्र । लक्ष्मण ने इसी अस्त्र से रावण के ‘‘विघ्नविनायक’’ अस्त्र को नष्ट किया था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 75. 18-19 </span></p> | <p id="13">(13) एक महास्त्र । लक्ष्मण ने इसी अस्त्र से रावण के ‘‘विघ्नविनायक’’ अस्त्र को नष्ट किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_75#18|पद्मपुराण - 75.18-19]] </span></p> | ||
<p id="14">(14) भरत के साथ दीक्षित अनेक राजाओं में एक राजा । <span class="GRef"> पद्मपुराण 88. 3 </span></p> | <p id="14">(14) भरत के साथ दीक्षित अनेक राजाओं में एक राजा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_88#3|पद्मपुराण - 88.3]] </span></p> | ||
<p id="15">(15) एक क्षुल्लक । यह महाविद्याओं में इतना अधिक निपुण था कि दिन ने तीन बार मेरु पर्वत पर जिन प्रतिमाओं की वंदना कर लौट आता था । यह अणुव्रती था । अष्टांग महानिमित्तज्ञ था । इसने अल्प समय में ही सीता के दोनों पुत्रों को शस्त्र और शास्त्रविद्या ग्रहण करा दी थी । लवणांकुश को बलभद्र और नारायण होने का लक्ष्मण के उत्पन्न भ्रम को इसी ने दूर किया था । सीता की अग्नि परीक्षा के समय भुजा ऊपर उठाकर इसने कहा था कि ‘‘हे राम ! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है, किंतु सीता के शील में कोई लांछन नहीं लगा सकता । इसने अग्नि-परीक्षा को रोकने के लिए जिनवंदना और तप की भी शपथ ली थी । <span class="GRef"> पद्मपुराण 100.32-35, 44-47, 103.39-41, 104. 81-86 </span></p> | <p id="15">(15) एक क्षुल्लक । यह महाविद्याओं में इतना अधिक निपुण था कि दिन ने तीन बार मेरु पर्वत पर जिन प्रतिमाओं की वंदना कर लौट आता था । यह अणुव्रती था । अष्टांग महानिमित्तज्ञ था । इसने अल्प समय में ही सीता के दोनों पुत्रों को शस्त्र और शास्त्रविद्या ग्रहण करा दी थी । लवणांकुश को बलभद्र और नारायण होने का लक्ष्मण के उत्पन्न भ्रम को इसी ने दूर किया था । सीता की अग्नि परीक्षा के समय भुजा ऊपर उठाकर इसने कहा था कि ‘‘हे राम ! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है, किंतु सीता के शील में कोई लांछन नहीं लगा सकता । इसने अग्नि-परीक्षा को रोकने के लिए जिनवंदना और तप की भी शपथ ली थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_100#32|पद्मपुराण - 100.32-35]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_100#44|पद्मपुराण - 100.44-47]], 103.39-41, 104. 81-86 </span></p> | ||
<p id="16">(16) समवसरण में कल्पवृक्षों के मध्य में रहने वाले इस नाम के दिव्य-वृक्ष । ये कल्पवृक्षों के समान होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 22.151-252, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.133-134 </span></p> | <p id="16">(16) समवसरण में कल्पवृक्षों के मध्य में रहने वाले इस नाम के दिव्य-वृक्ष । ये कल्पवृक्षों के समान होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 22.151-252, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.133-134 </span></p> | ||
<p id="17">(17) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.108 </span></p> | <p id="17">(17) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.108 </span></p> |
Revision as of 22:36, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
- अपर नाम सिद्धायतन-देखें सिद्धायतन ।
- विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर-देखें विद्याधर ।
- मानुषोत्तर पर्वतस्थ अंजनमूलकूट का स्वामी भवनवासी सुपर्णकुमार देव-देखें लोक - 5.10
- महापुराण/69/ श्लोककौशांबी नगरी के राजा पार्थिव के पुत्र थे। (4) अंत में दीक्षा ले तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया (12-15) तथा समाधिमरण कर अपराजित विमान में अहमिंद्र हुआ (16) यह नमिनाथ भगवान् का पूर्व का दूसरा भव है।-देखें नमिनाथ ।
- हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोकबलदेव (कृष्ण का भाई) का छोटा भाई था। यदि मैं देव हुआ तो तुम्हें संबोधूँगा बलदेव से यह प्रतिज्ञा कर दीक्षा ग्रहण की (61/41) स्ववचनानुसार स्वर्ग से आकर कृष्ण की मृत्यु पर बलदेव को संबोधा (63/61-71)
- भगवान् महावीर के पिता-देखें तीर्थंकर - 5।
- एक क्षुल्लक था जिसने लव व कुश को शिक्षा दी थी ( पद्मपुराण/100/47 )।
- श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप नागसेन के शिष्य और धृतिषेण के गुरु थे। 11 अंग तथा 10 पूर्वधारी थे। समय-वी.नि.247-264। तृतीय दृष्टि से वी.नि.307-324। (देखें इतिहास - 4.2)।
पुराणकोष से
(1) भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् हुए ग्यारह अंगों में दस पूर्वों के धारी ग्यारह मुनियों में छठे मुनि । महापुराण 2.141-145, 76.522, हरिवंशपुराण 1.62-63, वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 45-47
(2) एक देव । इससे प्रतिबोधित होकर बलदेव ने दीक्षा ली थी । हरिवंशपुराण 1.121, पांडवपुराण 22.88, 18-99
(3) बलदेव का भाई और कृष्ण का सारथी । देव होने पर इसने प्रतिज्ञानुसार स्वर्ग से आकर कृष्ण की मृत्यु के समय बलदेव को संबोधा था । हरिवंशपुराण 61.41, 63.61-71
(4) एक वन । इसमें अशोक, चंपा, सप्तपर्ण, आम और वटवृक्ष थे । तीर्थंकर वृषभदेव ने यही दीक्षा ली थी । महापुराण 71.417, हरिवंशपुराण 9.92-93
(5) हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस का द्वारपाल । महापुराण 20. 69 हरिवंशपुराण 9. 168
(6) भगवान् महावीर का पिता । यह जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विदेह देश के कुंडपुर नगर के नाथवंशी राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती का पुत्र था । इसकी पत्नी राजा चटक की पुत्री प्रियकारिणी थी, जिसका अपर नाम त्रिशला था । यह तीन ज्ञान का धारी या । महापुराण 75.3-8, हरिवंशपुराण 2.1, 5, 13-18, वीरवर्द्धमान चरित्र 7.25-28
(7) तीर्थंकर शंभवनाथ द्वारा व्यवहृत शिविका-पालकी । महापुराण 49. 19, 37
(8) कौशांबी नगरी के राजा पार्थिव तथा रानी सुंदरी का पुत्र । इसने दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था तथा आयु के अंत में समाधिपूर्वक देह त्याग कर यह अपराजित विमान में अहमिंद्र हुआ । महापुराण 69.2-4, 12-16
(9) भरतक्षेत्र के काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा अकंपन का मंत्री । महापुराण 43.121-124, 181-188
(10) द्रौपदी को उसके स्वयंवर में आये राजकुमारी का परिचय कराने वाला पुरोहित । महापुराण 72.210
(11) एक नगर । यहाँ का राजा नंद था । तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने इसके यहाँ आहार लिये थे । देशभूषण और कुलभूषण का जन्म इसी नगर में हुआ था । महापुराण 57. 49-50, पद्मपुराण - 39.158-159
(12) तीर्थंकर नेमिनाथ के पूर्वभव का जीव । पद्मपुराण - 20.23-24
(13) एक महास्त्र । लक्ष्मण ने इसी अस्त्र से रावण के ‘‘विघ्नविनायक’’ अस्त्र को नष्ट किया था । पद्मपुराण - 75.18-19
(14) भरत के साथ दीक्षित अनेक राजाओं में एक राजा । पद्मपुराण - 88.3
(15) एक क्षुल्लक । यह महाविद्याओं में इतना अधिक निपुण था कि दिन ने तीन बार मेरु पर्वत पर जिन प्रतिमाओं की वंदना कर लौट आता था । यह अणुव्रती था । अष्टांग महानिमित्तज्ञ था । इसने अल्प समय में ही सीता के दोनों पुत्रों को शस्त्र और शास्त्रविद्या ग्रहण करा दी थी । लवणांकुश को बलभद्र और नारायण होने का लक्ष्मण के उत्पन्न भ्रम को इसी ने दूर किया था । सीता की अग्नि परीक्षा के समय भुजा ऊपर उठाकर इसने कहा था कि ‘‘हे राम ! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है, किंतु सीता के शील में कोई लांछन नहीं लगा सकता । इसने अग्नि-परीक्षा को रोकने के लिए जिनवंदना और तप की भी शपथ ली थी । पद्मपुराण - 100.32-35,पद्मपुराण - 100.44-47, 103.39-41, 104. 81-86
(16) समवसरण में कल्पवृक्षों के मध्य में रहने वाले इस नाम के दिव्य-वृक्ष । ये कल्पवृक्षों के समान होते हैं । महापुराण 22.151-252, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.133-134
(17) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.108