प्रायोपगमन: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="HindiText"> <p> संन्यास (समाधिमरण, सल्लेखना) का उत्कृष्ट रूप । इसकी साधना शरीर से ममत्व छोड़कर निर्जन स्थान या वन में की जाती है । साधक वहाँ कर्मों का नाश करके रत्नत्रय की उपलब्धि करता है । इसका साधक जीवों में मैत्रीभाव, गुणियों में प्रमोदभाव विपरीत स्वभावधारियों में माध्यस्थ भाव रखते हुए आमरण साधना में रत रहता है । प्रायेणापगम, प्रायेणोपगम और प्रायोपवेशन इसी संन्यास के अपर नाम है । <span class="GRef"> महापुराण 5.234, 11. 94-98, 62.410, 70.49, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18.121, 34.42, 43.214, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 9.129-130 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> संन्यास (समाधिमरण, सल्लेखना) का उत्कृष्ट रूप । इसकी साधना शरीर से ममत्व छोड़कर निर्जन स्थान या वन में की जाती है । साधक वहाँ कर्मों का नाश करके रत्नत्रय की उपलब्धि करता है । इसका साधक जीवों में मैत्रीभाव, गुणियों में प्रमोदभाव विपरीत स्वभावधारियों में माध्यस्थ भाव रखते हुए आमरण साधना में रत रहता है । प्रायेणापगम, प्रायेणोपगम और प्रायोपवेशन इसी संन्यास के अपर नाम है । <span class="GRef"> महापुराण 5.234, 11. 94-98, 62.410, 70.49, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#121|हरिवंशपुराण - 18.121]], 34.42, 43.214, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 9.129-130 </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
संन्यास (समाधिमरण, सल्लेखना) का उत्कृष्ट रूप । इसकी साधना शरीर से ममत्व छोड़कर निर्जन स्थान या वन में की जाती है । साधक वहाँ कर्मों का नाश करके रत्नत्रय की उपलब्धि करता है । इसका साधक जीवों में मैत्रीभाव, गुणियों में प्रमोदभाव विपरीत स्वभावधारियों में माध्यस्थ भाव रखते हुए आमरण साधना में रत रहता है । प्रायेणापगम, प्रायेणोपगम और प्रायोपवेशन इसी संन्यास के अपर नाम है । महापुराण 5.234, 11. 94-98, 62.410, 70.49, हरिवंशपुराण - 18.121, 34.42, 43.214, पांडवपुराण 9.129-130