प्रायोपगमन
From जैनकोष
संन्यास (समाधिमरण, सल्लेखना) का उत्कृष्ट रूप । इसकी साधना शरीर से ममत्व छोड़कर निर्जन स्थान या वन में की जाती है । साधक वहाँ कर्मों का नाश करके रत्नत्रय की उपलब्धि करता है । इसका साधक जीवों में मैत्रीभाव, गुणियों में प्रमोदभाव विपरीत स्वभावधारियों में माध्यस्थ भाव रखते हुए आमरण साधना में रत रहता है । प्रायेणापगम, प्रायेणोपगम और प्रायोपवेशन इसी संन्यास के अपर नाम है । महापुराण 5.234, 11. 94-98, 62.410, 70.49, हरिवंशपुराण - 18.121, 34.42, 43.214, पांडवपुराण 9.129-130