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कोई एक कार्य विशेष हो चुकनेपर जितने काल पश्चात् उसका पुनः होना सम्भव हो उसे अन्तर काल कहते हैं। जीवों की गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बन्ध उदय आदि सर्व प्रकरणों में इस अन्तर कालका विचार करना ज्ञानकी विशदता के लिए आवश्यक है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।<br>१. अन्तर निर्देश - पृष्ठ<br>1. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण <br>2. अन्तर के भेद <br>3. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण <br>4. स्थानान्तर का लक्षण <br>२. अन्तर प्ररूपणासम्बन्धी कुछ नियम- <br>1. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम <br>2. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>4. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>5. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>6. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>३. सारणी में दिया गया अन्तर काल निकालना- <br>1. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अन्तर निकालना <br>2. गति परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना <br>3. निरन्तर काल निकालना <br>4. २ x ६६ सागर अन्तर निकालना <br>5. एक समय अन्तर निकालना <br>6. पल्य/असं. अन्तर निकालना <br>• काल व अन्तर में अन्तर दे. काल/६<br>7. अनन्तकाल अन्तर निकालना <br>४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ- <br>1. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा <br>2. सारणी में प्रयुक्त संकेतों की सूची <br>3. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा <br>4. आदेश प्ररूपणा <br>5. कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व विषयक अन्तर प्ररूपणा <br>6. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ <br>• काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर - दे. काल/५<br>१. अन्तर निर्देश<br>१. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण-<br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /१/८/२९ अन्तरं विरहकालः। <br>= विरह कालको अन्तर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस कालको अन्तर कहते हैं।) <br>([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,८/१०३/१५६) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ५५३/९८२)<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८/७/४२/५ अन्तरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।७। [अन्तरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सान्तरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' [वैशे. सू. १/१/१०] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम्।।'' [गरुड़पु. ११०/१५] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यान्तरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अन्तरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयत इत्यर्थः। <br>= अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं। १. यथा `सान्तरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। २. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। ३. `हिमवत्सागरान्तरे' में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। ४. `शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है। ५. कहीं पर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे - घोड़ा, हाथी और लोहे में, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जलमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है। यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। ६. `ग्रामस्यान्तर कूपाः' में बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआँ है। ७. कहीं उपसंव्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है यथा `अन्तरे शाटकाः'। ८. कहीं विरह अर्थ में जैसे `अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते' - अनिष्ट व्यक्तियों के विरहमें मण्त्रणा करता है।<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८/८/४२/१४ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तान्तरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदन्तरमित्युच्यते। <br>= किसी समर्थ द्रव्यकी किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होनेपर निमित्तान्तर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तब तक के कालको अन्तर कहते हैं।<br>[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या १४३/३५७ लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे मार्गणास्थानान्तरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अन्तरं नाम। <br>= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अन्तर है।<br>२. अन्तर के भेद <br>- [[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ./प.<br>(Chitra-1)<br>अन्तर १/९<br>(नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव)<br>२/१ ३/५ २/३<br>सद्भाव असद्भाव आगम नो आगम आगम नो आगम<br>२/४<br>ज्ञायक भव्य तद्व्यतिरिक्त<br>२/५ ३/१<br>भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र<br>३. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण - दे. निक्षेप।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ. ३/४ खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा। <br>= क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है।<br>४. स्थानान्तर का लक्षण<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १२/४ २,७,२०१/११४/९ हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम। <br>= उपरिम स्थानों में अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करने पर जो प्राप्त हो वह स्थानों का अन्तर कहा जाता है।<br>२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम -<br>१. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१०४/६६/२ जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए त मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्वा। जीए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेव गुणट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ। <br>= जिस मार्गणा में बहुत गुणस्थान होते हैं, उस मार्गणा को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानों से अन्तर कराकर अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु जिस मार्गणा में एक ही गुणस्थान होता है, वहाँ पर अन्य मार्गणा में अन्तर करा करके अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का अभिप्राय है।<br>२. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१५३/८७/९ कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो। <br>= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अन्तर का अभाव कैसे कहा? उत्तर - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेपर विवक्षित मार्गणा के विनाश की आपत्ति आती है। और न अन्य गुणस्थान में जाने से भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को गये हुए जीवके अन्य योग को प्राप्त हुए बिना पुनः आगमन का अभाव है।<br>३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३७५/१७०/२ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो। <br>= उपशम श्रेणीसे नीचे उतरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहलेवाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुनः उपशम श्रेणी पर समारोहण की सम्भावना का अभाव है।<br>४. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,३,१३६/२३३/११ उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोबारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। <br>= उपशम श्रेणीसे उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दोबार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता।<br>५. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३६/३१/२ जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेव णिप्फिददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय जो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फिददि। <br>= जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है।<br>६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ७/२,३/सू.१३९/२३३ जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,३,१३९/२३३/३ कुदो। पढमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणहिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं ठविय तिण्णि वि करणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसम-सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तंतरुवलंभादो। उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण शासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरं उवलब्भदे, एदमेत्थ किण्ण परूविदं। ण च उवसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति णियमो अत्थि, `आसाणं पि गच्छेज्ज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो। एत्थ परिहारो उच्चदे - उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। तम्हि भवे सासणं पडिवज्जिय उवसमसेडिमारुहिय तत्तो ओदिण्णो वि ण सासणं पडिवज्जदि त्ति अहिप्पओ एदस्स सुत्तरस। तेणंतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णंतरं णोवलब्भदे।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,७/१०/३ उवसमसम्मत्तं पि अंतोमुहुत्तेण किण्ण पडिवज्जदे। ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं गंतूणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीमेत्तट्ठिदिं घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा जाव हेट्ठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा। ताणं ट्ठिदीओ अंतोमुहुत्तेण घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किण्ण करेदि। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामेण अंतोमुहुत्तक्कीरणकालेहि उव्वेलणखंडएहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,६५/२८८/१ एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो। <br>= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्यसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।१३९।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना कालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्वमात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। <br>([[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,५-७/७-११) ([[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३७६/१७०/९) <br>प्रश्न - उपशम श्रेणीसे उतरकर सासादन को प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया! उत्तर - उपशमश्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। क. पा. की अपेक्षा ऐसा सम्भव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। प्रश्न - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है? | कोई एक कार्य विशेष हो चुकनेपर जितने काल पश्चात् उसका पुनः होना सम्भव हो उसे अन्तर काल कहते हैं। जीवों की गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बन्ध उदय आदि सर्व प्रकरणों में इस अन्तर कालका विचार करना ज्ञानकी विशदता के लिए आवश्यक है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।<br>१. अन्तर निर्देश - पृष्ठ<br>1. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण <br>2. अन्तर के भेद <br>3. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण <br>4. स्थानान्तर का लक्षण <br>२. अन्तर प्ररूपणासम्बन्धी कुछ नियम- <br>1. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम <br>2. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>4. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>5. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>6. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम <br>३. सारणी में दिया गया अन्तर काल निकालना- <br>1. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अन्तर निकालना <br>2. गति परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना <br>3. निरन्तर काल निकालना <br>4. २ x ६६ सागर अन्तर निकालना <br>5. एक समय अन्तर निकालना <br>6. पल्य/असं. अन्तर निकालना <br>• काल व अन्तर में अन्तर दे. काल/६<br>7. अनन्तकाल अन्तर निकालना <br>४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ- <br>1. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा <br>2. सारणी में प्रयुक्त संकेतों की सूची <br>3. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा <br>4. आदेश प्ररूपणा <br>5. कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व विषयक अन्तर प्ररूपणा <br>6. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ <br>• काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर - दे. काल/५<br>१. अन्तर निर्देश<br>१. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण-<br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /१/८/२९ अन्तरं विरहकालः। <br>= विरह कालको अन्तर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस कालको अन्तर कहते हैं।) <br>([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,८/१०३/१५६) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ५५३/९८२)<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८/७/४२/५ अन्तरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।७। [अन्तरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सान्तरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' [वैशे. सू. १/१/१०] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम्।।'' [गरुड़पु. ११०/१५] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यान्तरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अन्तरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयत इत्यर्थः। <br>= अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं। १. यथा `सान्तरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। २. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। ३. `हिमवत्सागरान्तरे' में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। ४. `शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है। ५. कहीं पर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे - घोड़ा, हाथी और लोहे में, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जलमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है। यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। ६. `ग्रामस्यान्तर कूपाः' में बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआँ है। ७. कहीं उपसंव्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है यथा `अन्तरे शाटकाः'। ८. कहीं विरह अर्थ में जैसे `अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते' - अनिष्ट व्यक्तियों के विरहमें मण्त्रणा करता है।<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८/८/४२/१४ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तान्तरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदन्तरमित्युच्यते। <br>= किसी समर्थ द्रव्यकी किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होनेपर निमित्तान्तर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तब तक के कालको अन्तर कहते हैं।<br>[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या १४३/३५७ लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे मार्गणास्थानान्तरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अन्तरं नाम। <br>= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अन्तर है।<br>२. अन्तर के भेद <br>- [[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ./प.<br>(Chitra-1)<br>अन्तर १/९<br>(नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव)<br>२/१ ३/५ २/३<br>सद्भाव असद्भाव आगम नो आगम आगम नो आगम<br>२/४<br>ज्ञायक भव्य तद्व्यतिरिक्त<br>२/५ ३/१<br>भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र<br>३. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण - दे. निक्षेप।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ. ३/४ खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा। <br>= क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है।<br>४. स्थानान्तर का लक्षण<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १२/४ २,७,२०१/११४/९ हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम। <br>= उपरिम स्थानों में अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करने पर जो प्राप्त हो वह स्थानों का अन्तर कहा जाता है।<br>२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम -<br>१. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१०४/६६/२ जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए त मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्वा। जीए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेव गुणट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ। <br>= जिस मार्गणा में बहुत गुणस्थान होते हैं, उस मार्गणा को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानों से अन्तर कराकर अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु जिस मार्गणा में एक ही गुणस्थान होता है, वहाँ पर अन्य मार्गणा में अन्तर करा करके अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का अभिप्राय है।<br>२. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१५३/८७/९ कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो। <br>= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अन्तर का अभाव कैसे कहा? <br> <b>उत्तर</b> - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेपर विवक्षित मार्गणा के विनाश की आपत्ति आती है। और न अन्य गुणस्थान में जाने से भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को गये हुए जीवके अन्य योग को प्राप्त हुए बिना पुनः आगमन का अभाव है।<br>३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३७५/१७०/२ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो। <br>= उपशम श्रेणीसे नीचे उतरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहलेवाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुनः उपशम श्रेणी पर समारोहण की सम्भावना का अभाव है।<br>४. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,३,१३६/२३३/११ उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोबारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। <br>= उपशम श्रेणीसे उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दोबार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता।<br>५. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३६/३१/२ जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेव णिप्फिददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय जो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फिददि। <br>= जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है।<br>६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम<br>[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ७/२,३/सू.१३९/२३३ जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,३,१३९/२३३/३ कुदो। पढमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणहिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं ठविय तिण्णि वि करणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसम-सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तंतरुवलंभादो। उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण शासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरं उवलब्भदे, एदमेत्थ किण्ण परूविदं। ण च उवसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति णियमो अत्थि, `आसाणं पि गच्छेज्ज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो। एत्थ परिहारो उच्चदे - उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। तम्हि भवे सासणं पडिवज्जिय उवसमसेडिमारुहिय तत्तो ओदिण्णो वि ण सासणं पडिवज्जदि त्ति अहिप्पओ एदस्स सुत्तरस। तेणंतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णंतरं णोवलब्भदे।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,७/१०/३ उवसमसम्मत्तं पि अंतोमुहुत्तेण किण्ण पडिवज्जदे। ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं गंतूणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीमेत्तट्ठिदिं घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा जाव हेट्ठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा। ताणं ट्ठिदीओ अंतोमुहुत्तेण घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किण्ण करेदि। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामेण अंतोमुहुत्तक्कीरणकालेहि उव्वेलणखंडएहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,६५/२८८/१ एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो। <br>= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्यसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।१३९।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना कालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्वमात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। <br>([[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,५-७/७-११) ([[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३७६/१७०/९) <br><br> <b>प्रश्न</b> - उपशम श्रेणीसे उतरकर सासादन को प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया! <br> <b>उत्तर</b> - उपशमश्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। क. पा. की अपेक्षा ऐसा सम्भव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। <br> <b>प्रश्न</b> - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति की उद्वेलना करता हुआ, उनकी अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता तब तक उपशम सम्यक्त्व का ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। <br> <b>प्रश्न</b> - सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थितियों को अन्तर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपम से, अथवा सागरोपम पृथक्त्व कालसे नीचे क्यों नहीं करता? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र आयाम के द्वारा अन्तर्मुहूर्त उत्कीरण कालवाले उद्वेलना काण्डकों से घात की जानेवाली सम्यक् और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन IV/२/६) <br>यहाँ यह (पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अन्त समय मिथ्यात्व को प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवों में उत्पन्न होनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यदि सम्यक्त्व को प्राप्त करता भी है तो) वेदकसम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमसम्यग्दर्शन का अन्तरकाल जो पल्य का असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता।<br>[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ७०४/११४१/१५ ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः] अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये सासादना भवन्ति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्० कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति। <br>= अप्रमत्त संयत के बिना वे तीनों (४,५,६ठे गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि ज व) उस सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवलिमात्र शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धी की कोई एक प्रकृति के उदयमें सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं अथवा वे (४-७ तक) चारों ही यदि भव्यता गुण विशेष के द्वारा सम्यक्त्व की विराधना न करें तो उतना काल पूर्ण हो जानेपर या तो सम्यक्प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं, या मिश्र प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं, या मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। <br>नोट :- यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशम श्रेणीपर चढ़कर उतरने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पुनः द्वितीयोपशम उत्पन्न करके श्रेणीपर आरूढ़ होना सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो मिथ्यादृष्टि को ही प्राप्त होता है, और वह भी उस समय जब कि उसकी सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्याप्रकृति की स्थिति सागरोपमपृथक्त्व से कम हो जाये। अतः इसका जघन्य अन्तर पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र जानना।]<br>३. सारणी में दिया गया अन्तरकाल निकालना<br>१. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,३/५/५ एक्को मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजमसंजमेसु बहुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चण्णसम्मत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तं त सम्मत्तेण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धमंतोमुहुत्तं सव्वजहण्णं मिच्छतंतरं। <br>= एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयतमें बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, और वहाँ पर सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,६/९/२ नाना जीव की अपेक्षा भी उपरोक्तवत् ही कथन है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ एक जीव की बजाय युगपत् सात, आठ या अधिक जीवों का ग्रहण करना चाहिए।<br>२. गति परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,४५/४०/३ एक्को मणुसो णेइरयो देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्धाए पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो। त थ पंचाणउदिपुव्वकोडिअब्भहिय तिण्णि पलिदोवमाणि गमिय अवसाणे (उवसमसम्मत्तं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो। एवं दुसमऊणसगट्ठिदी सासणुक्कस्संतरं होदि। <br>= कोई एक मनुष्य, नारकी अथवा देव सासादन गुणस्थान के कालमें एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवे पूर्व कोटिकाल से अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशम सम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तर होता है।<br>३. निरन्तरकाल निकालना<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,२/४/८ णत्थि अंतरं मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदो विरहो अभावो णत्थि त्ति उत्तं होदि। <br>= अन्तर नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व पर्याय से परिणत जीवों का तीनों ही कालों में व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है। (अन्य विवक्षित स्थानों के सम्बन्धमें भी निरन्तर का अर्थ नाना जीवापेक्षया ऐसा ही जानना।)<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,१८/२१/७ एगजीवं णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।।१८।। कुदो। खवगाणं पदणाबावा। <br>= एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकों का और अयोगिकेवली का अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ।।१८।। क क्योंकि, क्षपक श्रेणीवाले जीवों के पतन का अभाव है।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,२०/२२/१ सजोगिणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा। <br>= अयोगि केवली रूपसे परिणत हुए सयोगि केवलियों का पुनः सयोगिकेवली रूपसे परिणमन नहीं होता है। [अर्थात् उनका अपने स्थानसे पतन नहीं होता है, इसी प्रकार एक जीव की अपेक्षा सर्वत्र ही निरन्तर काल निकाल ने में पतनाभाव कारण जानना।]<br>४. २X६६ सागर अन्तर निकालना-<br>एक जीवापेक्षया-<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,४/६/६ उक्कसेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि ।।४।। एदस्स णिदरिसणं-एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतयकाविट्ठकप्पवासियदेवेसु चोद्दससागरोवमाउट्ठिदिएसु उप्पण्णो। एक्कं सागरोवमं गमियविदियसागरोवमादिसमएसम्मत्तंपडिवण्णो। तेरसागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमा-संजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूववावीससागरोवमाउट्ठिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो। तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेवज्जे देवेसु मणुसाउएणूणएक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तूणछावट्ठिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउट्ठिदिएसुवज्जिय पुणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्ठिदिएसु देवेसुवज्जिय अंतोमुहुत्तूणवेछावट्ठिसागरोवमचरिमसमये मिच्छत्तं गदो! लद्धमंतरं अंतोमुहुत्तूण वेछावट्टिसागरोवमाणि। एसो उप्पत्तिकमो अउप्पण्णउप्पायणट्ठं उत्तो। परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्वा। <br>= मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है ।।४।। कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयु स्थिति वाले लान्तव कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपम के आदि समयमें सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयम को अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्य भवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरणाच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भवमें संयम को अनुपालन कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयु की स्थितिवाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम कालके चरम समयमें परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयम को अथवा संयमासंयम को परिपालन कर, इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयुसे कम बीस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आनतप्राणत कल्पों के देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रम से मनुष्यायु से कम बाईस और चोबीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम काल के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। (१४-१+२२+३१+२०+२२+२४ = २x६६ सागरोपम) यह ऊपर बताया गया उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्न जनों के समझाने के लिए कहा है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है।<br>५. एक समय अन्तर निकालना<br>नानाजीवापेक्षया -<br>[दो जीवों को आदि करके पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र विक्लप से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थान में रहकर सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समय के लिए सासादन सम्यग्दृष्टियों का अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समय में कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का (नानाजीवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने काल के क्षयसे सम्यक्त्व को अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीवों का एक समय के लिए अभाव हो गया। पुनः अनन्तर समयमें ही मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व का एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया] <br>(विशेष दे. - [[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,४/७/९)।<br>६. पल्य/असं. अन्तर निकालना<br>नानाजीवापेक्षया -<br>[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तर एक समयवत् ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँपर एक समय के स्थानपर उत्कृष्ट अन्तर पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है] <br>(विशेष दे.[[धवला]] पुस्तक संख्या ५/१,६,६/८/८)।<br>७. अनन्त काल अन्तर निकालना<br>एक जीवापेक्षया -<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ९/४,१,६६/३०५/२ होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरिक्खाणं, सेसतिगदीट्ठिदीए आणंतियाभावादो। ण, अप्पिदपदजीव सेसतिगदीसु हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्खेसु पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपदेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणंतंतरुलंभादो। <br>= <br> <b>प्रश्न</b> -यह अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का भले ही हो, किन्तु वह सामान्य तिर्यंचों का नहीं है? <br> <b>उत्तर</b> - ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित पद (कृति संचित आदि) वाले जीव को शेष तीन गतियों में गुमाकर तथा अविवक्षित पदसे तिर्यंचों में प्रवेश कराकर वहाँ अनन्तकाल तक रहनेके बाद निकलकर अर्पित पद से तिर्यंचों में उत्पन्न होनेपर अनन्तकाल अन्तर पाया जाता है।<br>४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ<br>१. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा<br>१. नरक गति -<br>[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/२०६ पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ।।२०६।। <br>= रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों में नारकियों की उत्पत्ति का अन्तरकाल क्रमशः ४५ मुहबर्त, एक पक्थ, एक मास, दो मास चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है।<br>[[हरिवंश पुराण]] सर्ग ४/३७०-३७१ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्घटिकाः प्रथमक्षितौ अन्तर। नरकोत्पत्तेरन्तरज्ञैः स्फुटीकृतम् ।।३७०।। सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो भासौ यथाक्रमम्। चत्वारोऽपि च षण्मासा विरहं षट्षु भूमिषु ।।३७१।। <br>= अन्तर के जाननेवाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों की उत्पत्ति का अन्तर ४८ घड़ी बतलाया है ।।३७०।। और नीचे की ६ भूमियों में क्रम से १ सप्ताह, १ पक्ष, १ मास, २ मास, ४ मास और ६ मास का विरह अर्थात् अन्तरकाल कहा है ।।३७१।। नोट - (यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओं में कुछ अन्तर है जो ऊपर से विदित होता है।<br>२. देवगति -<br>[[त्रिलोकसार]] गाथा संख्या ५२९-५३० दुसुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य। सत्तदिणपक्खमासं दुगचदुछम्मासगं होदि ।।५२९।। वरविरह छम्मासं इंदमहादेविलोयवालाणं। चउतेत्तीससुराणं तणुरक्खसमाण परिसाणं ।।५३०।। <br>= दोय दोय तीन चतुष्क शेष इन विषै जननानन्तर अर च्यवनै कहिये मरण विषै अन्तर सो सात दिन, पक्ष, मास, दो, चार, छह मास प्रमाण हैं। (अर्थात् सामान्य देवों के जन्म व मरण का अन्तर उत्कृष्टपने सौधर्मादिक विमानवासी देवों में क्रमसे दो स्वर्गों में सात दिन, आगे के दो स्वर्गों में एक पक्ष, आगे चार स्वर्गों में एक मास, आगे चार स्वर्गों में दो मास, आगे चार स्वर्गों में चार मास, अवशेष ग्रैवेयकादि विषै छ मास जानना) ।।५२९।। उत्कृष्टपने मरण भए पीछे तिसकी जगह अन्य जीव आय यावत् न अवतरै तिस काल का प्रमाण सो सर्व ही इन्द्र और इन्द्र की महादेवी, अर लोकपाल, इनका तो विरह छ मास जानना। बहुरि त्रायस्त्रिंश देव अर अंगरक्षक अर सामानिक अर पारिषद इनका च्यार मास विरह काल जानना ।।५३०।।<br>२. सारणी में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ<br>संकेत अर्थ संकेत अर्थ<br>अन्तर्मु. अन्तर्मुहूर्त (जघन्य कोष्ठकमें जघन्य व उत्कृष्ट कोष्ठक में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त)। बा. भुजगार बादर भुजगार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य बन्ध उदय आदि।<br>अप. अपर्याप्त मा. मास<br>असं. असंख्यात मिथ्या. मिथ्यात्व<br>आ. आवली मनु. मनुष्य<br>उप. उपशम ल.अप. लब्धि अपर्याप्त<br>एके.या ए. एकेंद्रिय वन. वनस्ति<br>औ. औदारिक विकलें. विकलेन्द्र<br>२८/ज. २८ प्रकृतियों की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव। वृद्धि बन्ध उदयादि में षट्स्थान पतित वृद्धि हानि।<br>ज-उ. उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य व अजघन्य बन्ध उदयादि। वृद्धि आ.पद जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि हानि व अवस्थान पद।<br>ति. तिर्यंच सम्य. सम्यक्त्व<br>दि. दिन सं. संख्यात<br>न.पुं. नपुंसक सा. सागर व सामान्य<br>नि. निगोद सू. सूक्ष्म<br>प. पर्याप्त सासा. सासादनवत्<br>पंचें. पंचेन्द्रिय सा.वत् सासादनवत्<br>पु.परि. पुद्गल परिवर्तन स्थान जैसे २४ प्रकृति बन्ध<br>परि. परिवर्तन स्थान, २८ प्रकृति<br>पू.को. पूर्वकोटी बन्ध का स्थान आदि।<br>पृ. पृथक्त्व क्षप, क्षपक<br>३. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा : <br>१. [[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ५/१-६/सूत्र सं. टीका सहित<br>- [[धवला]] पुस्तक संख्या ५/पृ. १-२१<br>गुणस्थान नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>प्रमाण प्रमाण प्रमाण<br>जघन्य अपेक्षा उत्कृष्ट अपेक्षा जघन्य अपेक्षा उत्कृष्ट अपेक्षा<br>सू सू सू सू<br>१ २ ... निरन्तर २ ... निरन्तर ३ अन्तर्मुहूर्त दे. अन्तर ३/१ ४ २X६६ सागर अन्तर्मुहूर्त दे. अन्तर ३/४<br>२ ५ १ समय दे. अन्तर ३/५ ६ पल्य/असं. दे. अन्तर ३/६ ७ पल्य/अस. दे. अन्तर २/६/१ ८ अर्ध. पु. परि. १४ अन्तर्मुहूर्त + १ समय प्रथमोपशमसे सासादन पूर्वक मिथ्यात्व पुनः वैसे ही। फिर वेदक, क्षायिक व मोक्ष<br>३ ५ " " ५ " " ७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ८ " सासादनवत्<br>४ ९ ... निरन्तर ९ ... निरन्तर १० " ४ व ५ के बीच गुणस्थान परिवर्तन ११ अर्ध. पु. परि. - ११ अन्तर्मु. मिथ्यात्व से प्रथमोपशम, अन्तर्मुहूर्त तक २रे ३रे आदिमें रहकर मिथ्यात्व। १० अन्तर्मुहूर्त संसार शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्व।<br>५ ९ ... " ९ ... " १० " ५वें से ४थे ६ठे या १ले में आ पुनः ५वाँ ११ " प्रथमोपशम के साथ ५वाँ। आगे उपरोक्तवत्<br>६ ९ ... " ९ ... " १० " ६ठे से ७वाँ पुनः ६ठा। नीचे उतर कर जघन्य अंतर प्राप्त नहीं होता। ११ अर्ध. पु. परि. १० अन्तर्मुहूर्त पहले ही प्रथमोपशम के साथ प्रमत्त। आगे उपरोक्तवत्<br>७ ९ ... " ९ ... " १० " ७वें से उपशम श्रेणी पुनः ७वाँ। नीचे उतर कर जघन्य अन्तर नहीं होता ११ " उपरोक्तवत् (६ठे के स्थान पर ७वाँ)<br>उपशम<br>८ १२ १ समय ७-८ जन ऊपर चढ़ें तब १ समय के लिए अन्तर पड़े १३ वर्ष पृ. ७-८ जनें ऊपर चढ़ें तब १४ " यथाक्रम ८, ९, १०, ११ में चढ़ कर नीचे गिरा १५ अर्ध. पु. परि. २८ अन्तर्मुहूर्त अनादि मिथ्यादृष्टि यथाक्रम ११ वें जाकर ८वें को प्राप्त करता हुआ नीचे गिरा। पुनः ८, ९, १०, ११, १०, ९, ८, ७-६, ८, ९, १०, १२, १३, १४ मोक्ष<br>९-११ १२ " " १३ " " १४ " " १५ "-२६ अन्तर्मु. यथायोग्यरूपेण उपरोक्तवत्<br>१० १२ " " १३ " " १४ " " १५ "-२४ " "<br>११ १२ " " १३ " " १४ " यथाक्रम ११ से १०, ९, ८, ७-६, ८, ९, १०, ११ रूपसे गिरकर ऊपर चढ़ना १५ "-२२ " "<br>क्षपक ७-८ या <br>८-१२ १६ " १०८ जन ऊपर चढ़ने पर अन्तर होता है १७ ६ मास " १८ ... पतन का अभाव १८ ... पतन का अभाव<br>१३ १९ ... निरन्तर १९ ... निरन्तर २० ... " २० ... "<br>१४ १६ १ समय ८-१२ तक की भाँति १७ ... " १८ ... " १८ ... "<br>४. आदेश प्ररूपणा :- <br>प्रमाण - १. [[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ५/१, ६/सूत्र सं. टीका सहित, २. [[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ७/२, ३/सूत्र सं. टीका सहित, ३. [[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या ७/२, ९/सूत्र सं. टीका सहित,<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या पु. ५/पृ. २१-१७९ [[धवला]] पुस्तक संख्या ७/पृ. १८७-२३६ [[धवला]] पुस्तक संख्या ७/पृ. ४७८-४९४<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>१. गति मार्गणा-<br>१. नरकगति- नरक सामान्य ... २ ... निरन्तर - २ ... २ अन्तर्मुहूर्त गति परिवर्तन ३ असं. पु. परि. गति परिवर्तन<br>१-७ पृथिवी ... ४ निरन्तर - ४ ... ४ अन्तर्मुहूर्त गति परिवर्तन ४ असं. पु. परि. गति परिवर्तन<br>नरक सामान्य १ २१ ... निरन्तर २१ ... २२ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २३ ३३ सा.-अन्तर्मु. ६ २८/ज. ७वीं पृथिवी में ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण कर वेदकसम्य. हो भव के अन्त में मिथ्यात्व सहित चयकर तिर्यंच हुआ।<br> ४ २१ ... निरन्तर २१ ... २२ अन्तर्मुहूर्त " २३ " - " २८/ज. ७वीं पृ. १ लेसे ४था वेदक, पुनः १ला। आयु के अन्त में उपशम सम्यक्त्व।<br> २ २४ १ समय ओघवत् २५ पल्य/असं. २६ पल्य/असं. ओघवत् २७ " -५ " "<br> ३ २४ " " २५ " २६ अन्तर्मुहूर्त " २७ " - ६ " "<br>१-७ पृथिवी १, ४ २८ ... निरन्तर २८ ... २९ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ३० क्रमेण देशोन १, ३, ७, १०, १७, २२, ३३ सा. "<br> २ ३१ १ समय ओघवत् ३२ पल्य/असं. ३३ पल्य/असं. ओघवत् ३४ " "<br> ३ ३१ " " ३२ " ३३ अन्तर्मुहूर्त " ३४ " "<br>२. तिर्यंच गति -<br>तिर्यंच सामान्य ... ६ ... निरन्तर ६ ... ६ क्षुद्र भव ति. से मनु. हो कदली घात कर पुनः ति. ७ १०० सा. पृ. शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण<br>पंचे. सा., प., अप., ... ६ ... " ६ ... ९ " " १० असं. पु. परि. "<br>योनिमति ... ६ ... " ६ ... ९ " " १० " "<br>ल. अप. ... ५२ ... " ५२ - ... ५३ " पर्याय विच्छेद ५४ " "<br>तिर्यंच सामान्य १ ३५ ... " ३५ ... ३६ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ३७ ३ पल्य-२ मास+मुहूर्त पृ. २८/ज. वेदक हो आयु के अन्त में मिथ्या. पुनः सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति<br> २-५ ३८ ओघवत् ओघवत् ३८ ओघवत् ३८ ओघवत् " ३८ " "<br>पंचे. सा. प. व योनिमति १ ३९ ... निरन्तर ३९ ... ४० अन्तर्मुहूर्त " ४१ ३ पल्य-२ मास+२ अन्तर्मुहूर्त "<br> २ ४२ १ समय ओघवत् ४३ पल्य/असं. ४४ पल्य/असं. " ४५ ३ पल्य-९५ पू.को. योनिमति में ९५ के स्थानपर १५ पू. को. दे. अन्तर ३/२<br> ३ ४२ " " ४२ " ४४ अन्तर्मुहूर्त " ४५ " " (सासा. के स्थल पर मिश्र)<br> ४ ४६ ... निरन्तर ४६ ... ४७ " ४८ " " (सासा. के स्थल पर सम्य.)<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १/३ १/२ १/२<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>पंचें. सा., प. ५ ४९ ... निरन्तर ४९ ... ५० अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ५१ ३ पल्य+९६पू. को. सासादनवत्<br>योनिमति ५ ४९ ... निरन्तर ४९ ... ५० " " ५१ "+१६ पू. को. "<br>पंचें. ति. ल. अप. १ ५२ ... " ५२ ... ५६ ... निरन्तर ५६ ... निरन्तर<br>३. मनुष्य गति :-<br>मनु.सा.,प.व. मनुष्यणी ... ६ ... निरन्तर ६ ... ९ क्षुद्र भव गति परिवर्तन (मनु.से ति.) १० असं.पु.परि. अविवक्षित गतियों में भ्रमण<br>मनुष्य ल. अप. ... ७८ ९ १ समय ... ७९ १० पल्य/असं. ८० ९ " " ८१ १० " "<br>मनु.सा.प.व मनुष्यणी १ ५७ ... निरन्तर ... ५८ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ५९ ३पल्य-९मास+४९दिन+२ अन्तर्मु. भोग भूमिजों में भ्रमण<br> २ ६० १ समय ओघवत् ६१ पल्य/असं. ६२ पल्य/असं. " ६३ ३पल्य+४७पू.को. मनु.गति में भ्रमण तथा गुण स्थान परिवर्तन<br> ३ ६० " " ६१ " ६२ अन्तर्मुहूर्त " ६३ उपरोक्त-८ वर्ष "<br> ४ ६४ ... निरन्तर ६४ ... ६५ अन्तर्मुहूर्त " ६६ " "<br>मनुष्य सामान्य ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ ३पल्य-८ वर्ष+४८ पू.को. "<br>मनुष्य पर्याप्त ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ "-"+२४ पू.को. "<br>मनुष्यणी ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ "-"+८ पू.को. "<br>उपशमक :-<br>मनुष्य पर्याप्त ८-११ ७० १ समय ओघवत् ७१ वर्ष पृ. ७२ " " ७३ "-"+२४ पू.को. "<br>मनुष्यणी ८-११ ७० " " ७१ " ७२ " " ७३ "-"+८ पू. को. "<br>क्षपक :-<br>मनुष्य पर्याप्त ८-१२ ७४ " " ७५ ६ मास ७६ ... " ७६ ... ओघवत्<br>मनुष्यणी ८-१२ ७४ " उपशमकवत् ७५ वर्ष पृ. ७६ ... " ७६ ... "<br>मनुष्य व मनुष्यणी १३ ७७ ... ओघवत् ७७ ... ७७ ... " ७७ ... "<br> १४ ७४ १ समय ८-१२ वत् ७५ ६ मास व वर्ष पृ. ७६ ... " ७६ ... "<br>मनुष्य ल. अप. १ ८३ ... निरन्तर ८३ ... ८३ ... निरन्तर ८३ ... निरन्तर<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवा पेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>४. देवगति :-<br>देवसामान्य ... १२ .. निरन्तर १२ ... १२ अन्तर्मुहूर्त देवसे गर्भज मनु. या ति. पुनः देव १३ असं.पु.परि. तिर्यंचों में भ्रमण<br>भवनत्रिक ... १४ ... " १४ ... १४ " " १४ " "<br>सौधर्म ईशान ... १४ ... " १४ ... १४ " " १४ " "<br>सानत्कुमार माहेन्द्र ... १४ ... " १४ ... १६ मुहूर्त पृथक्त्व इस स्वर्ग में मनु. या ति. की आयु इससे कम नहीं बन्धती १७ " "<br>ब्रह्म-कापिष्ठ ... १४ ... " १४ ... १९ दिवस पृथक्त्व " २० " "<br>शुक्र-सहस्रार ... १४ ... " १४ ... २२ पक्ष पृथक्त्व " २३ " "<br>आनत-अच्युत ... १४ ... " १४ ... २५ मास पृथक्त्व " २६ " "<br>नव ग्रैवेयक ... १४ ... " १४ ... २८ वर्ष पृथक्त्व " २९ " "<br>नव अनुदिश ... १४ ... " १४ ... ३१ " " ३२ २+सा.+२पू.को. वहाँ से चय पूर्व कोटि वाला मनु.हो, वहाँ से सौधर्म ईशानमें जा; २ सा. पश्चात् पुनः पूर्व कोटिवाला मनु. हो संयम धार मरे और विवक्षित देव होय.<br>सर्वार्थसिद्धि ... १४ ... " १४ ... ३४ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष ३४ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष<br>देव सामान्य १ ८४ ... " ८४ ... ८५ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ८६ ३१ सा.-४ अंतर्मू. द्रव्य लिंगी उपशम ग्रैवेयक में जा सम्य. ग्रहणकर भव के अन्त में मिथ्यात्व<br> ४ ८४ ... " ८४ ... ८५ " " ८६ " -५ अंतर्मु. "<br> २ ८७ १ समय ओघवत् ८८ पल्य/असं. ८९ पल्य/असं. " ९० " -३ समय " परन्तु सासादन सहित उत्पत्ति<br> ३ ८७ " " ८८ " ८९ अन्तर्मुहूर्त " ९० " -६ अंतर्मु. उपरोक्त जीव नव ग्रैवेयक में नवीन सम्य. को प्राप्त हुआ<br>भवनत्रिक व सौधर्म-सहस्रार १ ९१ ... निरन्तर ९१ ... ९२ " " ९३ स्व आयु-४ अंतर्मु. मि. सहित उत्पत्ति, सम्य, प्राप्ति, अन्त में च्युति<br> ४ ९१ ... निरन्तर ९१ ... ९२ " " ९३ " -५ अंतर्मु. "<br> २-३ ९४ देव सा.वत् ९४ देव सा. वत् देव सा.वत् ९४ देव सा. वत् नोट :- ३१ सागर के स्थानपर स्व. आयु लिखना।<br>आनत-उप. ग्रैवेयक १-४ ९५व ९८ " " ९५व ९८ " ९६व ९८ " " ९७व ९८ " "<br>अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि ४ ९९ ... निरन्तर ९९ ... ९९ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष ९९ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>२. इन्द्रिय मार्गणा -<br>एकेन्द्रिय सा. ... १०१ १६ ... निरन्तर १०१ १६ ... १०२ ३६ क्षुद्रभव अन्य पर्याय में जाकर पुनः एकेन्द्रिय १०३ ३७ २००० सा.+पू.को. त्रसकायिक में भ्रमण<br>वा.सा., प., अप. ... १०४ १६ ... " १०४ १६ ... १०५ ३९ " " १०६ ४० असं. लोक सूक्ष्म एकें. में भ्रमण (तीनों में कुछ-कुछ अन्तर है)<br>सू. सा. ... १०८ १६ ... " १०८ १६ ... १०९ ४२ " " ११० ४३ असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी बा.एके.में भ्रमण<br>सू.प., अप. ... १०८ १६ ... " १०८ १६ ... १०९ ४२ " " ४३ ऊपर से कुछ अधिक अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण<br>विकलें. व पञ्चों. सा. ... १११ १६ ... " " १११ १६ ... ११२ ४५ " " ४६ असं.पु.परि. एकेन्द्रियों में भ्रमण<br>पंचें.ल.अप. ... १२७ ... " १२७ ... १२७ " गति परिवर्तन १२७ असं.पु.परि. विकलेन्द्रिय में भ्रमण<br>" १ १२९ ... " १२९ ... १२९ ... निरन्तर १२९ ... निरन्तर<br>एकेन्द्रिय सा. १ १०१ ... " १०१ ... १०२ क्षुद्रभव अन्य प. में जाकर पुनः ए. १०३ २००० सा.+पू.को. त्रसकाय में भ्रमण<br>" बा.सा. १ १०४ ... " १०४ ... १०५ " " १०६ असं.लोक सूक्ष्म एकें. में भ्रमण<br>बा.प.अप. १ १०७ ... " १०७ ... १०७ " " १०७ " "<br>सू.सा., प., अप. १ १०८ ... " १०८ ... १०९ " " ११० सू.सा.वत् बा.एकें में भ्रमण<br>विकलें. सा., प., अप. १ १११ ... " १११ ... ११२ " " ११३ असं.पु.परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण<br>पंचें.सा., प. १ ११४ - मूल ओघवत् ११४ - ११४ - मूल ओघवत् ११४ - ओघवत्<br> २-३ ११५ - " ११६ - ११७ - " ११८ भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति-आ./असं.-क्रमेण ९ या १२ अन्तर्मुहूर्त एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी पंचें. हो भवनत्रिक में उत्पन्न हुआ। उपशम पूर्वक सासादन फिर मिथ्यादृष्टि। भव के अंत में पुनः सासादन<br> ४ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति १० अंतर्मु. असंज्ञी पंचें. भव को प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो उपशम पा गिरा। भव के अंत में पुनः उपशम।<br> ५ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ स्व उ. स्थिति-३ पक्ष ३ दिन १२ अंत.+६ मुहूर्त संज्ञी भव प्राप्त एकें. उपशम सहित ५वाँ पा गिरा। भव के अंत में पुनः उपशम सहित संयमासंयम प्राप्त किया।<br> ६-७ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ स्व उ. स्थित-(८ वर्ष+१० अंतर्मु.+६ अंतर्मु.) पश्चात् संयम पा गिरा। मनु. व देवादि में भ्रमण। अन्त में मनुष्य हो, भव के अन्त में संयम.<br>उपशमक ८-११ १२२ - " १२२ - १२३ - " १२४ " नोट :- १० अन्तर्मु. के स्थान पर क्रमशः ३०, २८, २६, २४ करें।<br>क्षपक ८-१४ १२५ - " १२५ - १२५ - " १२५ - मूलोघवत्<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>३. काय मार्गणा :-<br>चार स्थावर बा. सू. प. अप. ... १९ ... निरन्तर १९ ... ४८ क्षुद्रभव अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे ४९ असं.पु.परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण<br>वनस्पति साधारण निगो. ... १९ ... " १९ ... ५१ " " ५२ असं.लोक पृथिवी आदि में भ्रमण<br>वन.नि.बा.सू.प.अप. ... १९ ... " १९ ... ५१ " " ५२ " "<br>वन. प्रत्येक बा.प. ... १९ ... " १९ ... ५४ " " ५५ २.१/२ पु. परि. निगोदादि में भ्रमण<br>त्रस.सा.प.अप. ... १९ ... " १९ ... ५७ " " ५८ असं.पु.परि. वनस्पति आदि स्थावरों में भ्रमण<br>त्रस ल. अप. ... ... " ... " " " "<br>चार स्थावर बा.सू.प. अप. १ १३० ... " १३० ... १३१ " " १३२ " अविवक्षित वनस्पति में भ्रमण<br>वन.नि.सा.बा.सू.प.अप. १ १३३ ... " १३३ ... १३४ " " १३५ असं.लोक चार स्थावरों में भ्रमण<br>वन.प्रत्येक सा.प. अप. १ १३६ ... " १३६ ... १३७ " " १३८ २.१/२ पु. परि. निगोदादि में भ्रमण<br>त्रस सा.प. १ १३९ - मूल ओघवत् १३९ - १३९ - मूल ओघवत् १३९ - मूल ओघवत्<br> २ १४० - " १४० - १४१ - " १४२ २००० सा+पू.को.पृ.-आ/असं-९ अंतर्मु. असंज्ञी पंचें. भव प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो त्रसों में भ्रमण कर अन्त में सासादन फिर स्थावर।<br> ३ १४० - " १४० - १४१ - " १४२ " " १-२ अंतर्मू. "<br> ४ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " "-१० अंतर्मू. "<br> ५ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " ४८ दिन-१२ अंतर्मु. संज्ञी प्राप्त एकें. ५वाँ पा गिरे। भ्रमण। फिर संज्ञी पा ५वाँ प्राप्त करे।<br> ६-७ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " ८ वर्ष-१० अंतर्मु. उपरोक्तवत् परन्तु एकें. से मनु. भव।<br>उपशमक ८-११ १४६ - " १४६ - १४७ - " १४८ नोट :- १० अंतर्मु. के स्थानपर क्रमशः ३०, २८, २६, २४ करें<br>क्षपक ८-१४ १४९ - " १४९ - १४९ - " १४९ - मूल ओघवत्<br>त्रस ल. अप. १ १५१ ... " १५१ ... १५१ ... निरन्तर १५१ ... निरन्तर<br>४. योग मार्गणा :-<br>पाँचों मन व वचन योग ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६० अन्तर्मुहूर्त एक समय अन्तर सम्भव नहीं ६१ असं.पु.परि. काययोगियों में भ्रमण<br>काययोग सा. ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६३ १ समय मरण पश्चात् भी पुनः काय योग होता ही है। ६४ अन्तर्मुहूर्त योग परिवर्तन<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>औदारिक ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६६ १ समय मरकर जन्मते ही काय योग होता ही है ६७ ३३ सा.+९ अंतर्मु.+२ समय औ. से चारों मनोयोग फिर चारों वचन योग फिर सर्वार्थसिद्धि देव, फिर मनुष्य में अन्तर्मु. तक औ. मिश्र, फिर औदारिक.<br>औदारिक मिश्र ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६६ " विग्रह गति में १ समय कार्मण फिर औ. मिश्र ६७ ३३ सा.+पू.को.+अन्तर्मु. "<br>वैक्रियक ... २२ ... " २२ ... ६९ ... व्याघात की अपेक्षा ७० असं.पु.परि. औ.काययोगियों में भ्रमण<br>वैक्रियिक मिश्र ... २५ १ समय ... २६ १२ मुहूर्त्त ७२ साधिक १०००० वर्ष नारकी व देवों में जा वहाँ से आ पुनः वहाँ ही जानेवाले मनु.व.ति. ७३ " "<br>आहारक ... २८ " ... २९ वर्ष पृ. ७५ अन्तर्मुहूर्त ... ७६ अर्ध.पु.परि. ८ अन्त. ...<br>आहारक मिश्र ... २८ " ... २९ " ७५ " ... ७६ "-७ अन्तर्मु. ...<br>कार्मण ... २२ ... निरन्तर ... ७८ क्षुद्र भव-३ समय ... ७९ असं. X असं. उत्. अवसर्पिणी बिना मोड़े की गति से भ्रमण<br>मनो वचन सा. व चारों प्रकार के विशेष १ १५३ ... निरन्तर १५३ ... १५३ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १५३ ... निरन्तर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है।<br>तथा काय सा. व. औ. ४-७ " ... " " ... " ... " " ... "<br> १३ ... " " ... " ... " " ... "<br> २-३ १५४ - मूलोघवत् १५५ - १५६ - " १५६ ... "<br>उपशमक ८-११ १५७ - " १५७ - १५८ ... " १५८ ... "<br>क्षपक ८-१२ १५९ - " १५९ - १५९ - मूल ओघवत् १५९ - मूल ओघवत्<br>औ. मिश्र १ १३० ... निरन्तर १६० ... १६० ... निरन्तर १६० ... निरन्तर<br> २ १६१ - मूलोघवत् १६१ - १६२ ... निरन्तर १६२ ... मिश्र योग में अन्य योग रूप परि. भी नहीं तथा गुणस्थान परि. भी नहीं<br> ४ १६३ १ समय देखें टिप्पण १६४ वर्ष पृ. १६५ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १६५ ... "<br> १३ १६६ १ समय १६७ वर्ष पृ. १६८ ... " १६८ ... "<br>वैक्रियिक १-४ १६९ - मनोयोगवत् १६९ - १६९ - मनोयोगवत् १६९ - मनोयोगवत्<br>वै. मिश्र १ १७० १ समय १७१ १२ मुहूर्त्त १७२ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १७२ ... औ. मिश्र के सासादनवत्<br> २-४ १७३ - औ. मिश्रवत् १७३ - १७३ - औ. मिश्रवत् १७३ - औ. मिश्रवत्<br>आहारक व मिश्र ६ १७४ १ समय ... १७५ वर्ष पृ. १७६ - निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १७६ ... औ. मिश्र के सासादनवत्<br>कार्मण १,२,४,१३ १७७ - औ.मिश्रवत् १७७ - १७७ ... " १७७ ... "<br>१ समय अन्तर = असंयत सम्यग्दृष्टि देव नरक व मनु. का मनु. में उत्पत्ति के बिना और असं. मनुष्यों का तिर्यंचों में उत्पत्ति के बिना वर्ष पृ. अन्तर = असंयत सम्यग्दृष्टियों का इतने काल तक तिर्यंच मनुष्यों में उत्पाद नहीं होता।<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>५. वेद मार्गणा :-<br>स्त्रीवेद सा. ... ३१ ... निरन्तर ३१ ... ८१ क्षुद्र भव ८२ असं.पु.परि. नपुं.वेदी एकेन्द्रियों में भ्रमण<br>पुरुषवेद सा. ... ३१ ... निरन्तर ३१ ... ८४ १ समय उपशम श्रेणी से उतरते हुए मृत्यु ८५ " "<br>नपुंसकवेद सा. ... ३१ ... " ३१ ... ८७ अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव में भी नपुं. है। ८८ १०० सा.पृ. अविवक्षित वेदों में भ्रमण<br>अपगतवेद उप. ... ३१ ... " ३१ ... ९० " उपशम से उतरकर पुनः आरोहण ९१ कुछ कम अर्ध. पु. परि.<br>" क्षपक ... ३१ ... " ३१ ... ९२ ... पतन का अभाव ९२ ... पतन का अभाव<br>१. स्त्रीवेद १ १७८ ... " १७८ ... १७९ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन १८० ५५ पल्य-५ अन्तर्मु. २८/ज.पुं. वेदी मनु. देवियों में जो गुणस्थान परिवर्तन कर पुनः मनुष्य<br> २ १८१ - मूलोघवत् १८१ - १८२ पल्य/असं. मूल ओघवत् १८३ पल्यशत पृ.-२ समय सासादन की १ समय स्थिति रहनेपर अन्य वेदी स्त्रीवेद सा. में उपजा। च्युत हो स्त्रीवेदियों में भ्रमण। भवान्त में सासादन हो देवों में जन्म।<br> ३ १८१ - " १८१ - १८२ अन्तर्मुहूर्त " १८३ "-६ अंतर्मु. " (परन्तु देवियों में जन्म)<br> ४ १८४ ... निरन्तर १८४ ... १८५ " " १८६ "-५ अन्तर्मु. "<br> ५ १८४ ... " १८४ - १८५ " " १८६ "-(२ मास+दिवस पृ.+२ अंतर्मु.) "(स्त्रीवेदी सामान्य में उत्पन्न कराना)<br> ६-७ १८४ " " १८४ ... १८५ " " १८६ "-(८ वर्ष+३३ अंत.) "(स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न कराना)<br>उपशमक ८ १८७ - मूल ओघवत् १८७ - १८८ " " १८९ "-(८ वर्ष+१३ अंत.) " (")<br>" ९ १८७ ... " १८७ - १८८ " " १८९ "-(८ वर्ष+१२ अंत.) " (")<br>क्षपक ८-९ १९० १ समय अप्रशस्त वेद में अधिक नहीं होते १९१ वर्ष पृ. १९२ ... पतन का अभाव १९२ ... पतन का अभाव<br>२. पुरुषवेद १ १९३ - मूलोघवत् १९३ १९३ - मूलोघवत् १९३ - मूलोघवत्<br> २ १९४ १ समय " १९५ पल्य/असं. १९६ पल्य/असं. " १९७ पल्यशत पृ.-२ समय स्त्रीवेदीवत् (परन्तु देवियों में जन्म)<br> ३ १९४ " " १९५ " १९६ अन्तर्मुहूर्त " १९७ "-६ अन्तर्मु. "<br> ४ १९८ ... निरन्तर १९८ ... १९९ " " २०० "-५ " "<br> ५ १९८ ... " १९८ ... १९९ " " २०० "-(२मा. ३दि. ११ अंत.) "<br> ६-७ १९८ ... " १९८ ... १९९ " " २०० "-(८ वर्ष १० अं.+६ अं.) "<br>उपशमक ८ २०१ - मूलोघवत् २०१ - २०२ " " २०३ "-(८ वर्ष २९ अंत.) "<br>" ९ २०१ - " २०१ - २०२ " " २०३ "-(८ वर्ष २७ अंत.) "<br>क्षपक (दृष्टि १) ८-९ २०४ १ समय स्त्री व नपुंसक रहते हैं २०५ साधिक १ वर्ष ६ मास २०६ ... पतन का अभाव २०६ ... पतन का अभाव<br>" (दृष्टि २) ८-९ २०५ " स्त्री व नपुं. नहीं २०५ " २०६ ... " ... "<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>३. नपुंसक वेद १ २०७ ... निरन्तर २०७ ... २०८ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् २०९ ३३ सा.-६ अन्तर्मु. २८/ज. ७ वीं पृथिवी में उपज सम्यक्त्व पा भव के अन्त में पुनः मिथ्यादृष्टि<br> २-७ २१० - मूलोघवत् २१० - २१० - " २१० - मूलोघवत्<br>उपशमक ८-९ २१० - " २१० - २१० - " २१० - "<br>क्षपक ८-९ २११ १ समय स्त्रीवेदीवत् २१२ वर्ष पृ. २१३ ... पतन का अभाव २१३ ... पतन का अभाव<br>४. अपगत वेद उप. ९-१० २१४ " मूलोघवत् २१५ " २१६ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् २१७ अन्तर्मुहूर्त गिरनेपर अपगत वेदी नहीं रहता<br> ११ २१८ " ऊपर चढ़कर गिरे २१९ " २२० ... वेद का उदय नहीं २२० ... इस स्थान में वेद का उदय नहीं<br>" क्षपक ९-१४ २२१ - मूलोघवत् २२१ - २२१ - मूलोघवत् २२१ - मूलोघवत्<br>६. कषाय मार्गणा-<br>क्रोध ... ३४ ... निरन्तर ३४ ... ९४ १ समय कषाय परि. कर मरे, नरक में जन्म ९५ अन्तर्मुहूर्त किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं<br>मान ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " मनु. जन्म व्याघात नहीं ९५ " "<br>माया ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " ति. जन्म व्याघात नहीं ९५ " "<br>लोभ ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " देव जन्म व्याघात नहीं ९५ " "<br>उपशान्त कषाय ... - मूलोघवत् - ९६ अन्तर्मुहूर्त उपशम श्रेणी से उतर पुनः आरोहण ९६ कुछ कम अर्ध. पु. परि.<br>क्षीण कषाय ... - - ९६ ... पतन का अभाव ९६ ... पतन का अभाव<br>चारों कषाय १-१० २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - मनोयोगीवत्<br>उपशमक ८-१० २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - २२३ - " २२३ - "<br>क्षपक ८-१० २२३ - " २२३ - २२३ - " २२३ - "<br>अकषाय ११ २२४ १ समय उपशम श्रेणी के कारण २२५ वर्ष पृ. २२६ ... नीचे उतरने पर अकषाय नहीं रहता २२६ ... नीचे उतरने पर अकषाय नहीं रहता<br>" १२-१४ २२७ - मूलोघवत् २२७ - २२७ - मूलोघवत् २२७ - मूलोघवत्<br>७. ज्ञान मार्गणा-<br>मति. श्रुत अज्ञान ... ३७ ... निरन्तर ३७ - ९८ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ९९ १३२ सा. सम्यक्त्व के साथ ६६ सा. रह सम्यग्मि. में जा पुनः सम्यक्त्व के साथ ६६ सा.। फिर मिथ्या.<br>विभंग ... ३७ ... " ३७ ... १०१ " " १०२ असं. पु. परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण<br>मति, श्रुत, अवधिज्ञान ... ३७ ... " ३७ ... १०४ " " १०५ कुछकम अर्ध.पु.परि. सम्यक्त्व से च्युत हो भ्रमण, पुनः सम्य.<br>मनःपर्यय ... ३७ ... " ३७ ... १०४ " " १०५ " "<br>केवल ... ३७ ... पतन का अभाव ३७ ... १०७ ... पतन का अभाव १०७ ... पतन का अभाव<br>कुमति, कुश्रुत व विभंग १ २२९ ... निरन्तर २२९ ... २२९ ... निरन्तर २२९ ... निरन्तर<br> २ २३० - मूलोघवत् २३० - २३१ ... " २३१ निरन्तर इस गुणस्थान में अज्ञान ही, होता ज्ञान नहीं.<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br>स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br>सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>मति-श्रुतज्ञान ४ २३२ ... निरन्तर २३२ ... २३३ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २३४ १ पू.को.-४ अन्तर्मु. २८/ज. सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकों में उपज ४थे ५वें में रहकर मरे देव होय<br> ५ २३५ ... " २३५ ... २३६ " " २३७ ६६ सा.+३ पू.को. -८ वर्ष ११ अन्तर्मु. २८/ज. मनुष्य हो ५ वाँ ६ ठा धार उत्कृष्ट स्थिति पश्चात् देव हुआ। वहाँ से चय मनुष्य हो छठा धार पुनः देव हुआ। वहाँ से चय मनुष्य हो ५ वाँ फिर ६ ठा धार मुक्त हुआ<br> ६-७ २३८ ... " २३८ ... २३९ " " २४० ३३ सा.+पू.को.-३.१/२ व ५.१/२ अन्तर्मु. ६ठे से ऊपर जा मरा, देव हो, मनु. हुआ। भव के अन्त में पुनः ६ठा उपशमक ८-११ २४१ १ समय मूलोघवत् २४२ वर्ष पृ. २४३ " " २४४ ६६सा.+३ पू. को. श्रेणी परि.कर नीचे आ असंयत हो मनुष्य<br>क्षपक ८-१२ - " - - मूल ओघवत् -८ वर्ष २६ अन्तर्मु. अनुत्तर देवों में उपजा। वहाँ से मनु. संयत, पुनः अनुत्तर देव। फिर मनु. उप.। पीछे नीचे आ क्षपक हो मुक्त हुआ।<br>अवधिज्ञान ४ २३२ ... निरन्तर २३२ ... २३३ " गुणस्थान परिवर्तन २३४ १ पू.को.-५ अन्तर्मु. मतिज्ञानवत् (सम्य.के साथ अवधिभी हुआ)<br> ५ २३५ ... निरन्तर २३५ ... २३६ " " २३७ ६६ सा.+३पू.को. - ८ वर्ष १२ अन्तर्मु. "<br> ६-७ २३८ - मति-श्रुतवत् - २३९ - मति-श्रुतवत् २३९ - मतिश्रुतवत्<br>उपशमक ८-११ २४५ १ समय ऐसे जीव कम होते हैं २४५ वर्ष पृ. २४५ ... पतन का अभाव २४५ ... पतन का अभाव<br>क्षपक ८-१२ २४५ - मूलोघवत् २४५ - २४५ - मूलोघवत् २४५ - मूलोघवत्<br>मनःपर्यय ६-७ २४६ ... निरन्तर २४६ ... २४७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २४८ अन्तर्मुहूर्त ६ ठें से ७ वाँ और ७वें से ६ठा<br>उपशमक ८-११ २४९ १ समय मूलोघवत् २५० वर्ष पृ. २५१ " " २५२ पू.को.-८ वर्ष-क्रमशः १२, १०, ९, ८ अन्तर्मु. उप. श्रेणीप्राप्त मनुष्य गुणस्थान परि. कर भव के अन्त में पुनः श्रेणी चढ़ मरे, देव हो<br>क्षपक ८-१२ २५३ " " २५४ " २५५ ... पतन का अभाव २५५ ... पतन का अभाव<br>केवलज्ञान १३-१४ २५६ - " २५६ - २५६ - मूलोघवत् २५६ - मूलोघवत्<br>८. संयम मार्गणा :-<br>संयम सामान्य ... ४० ... निरन्तर ... १०९ अन्तर्मुहूर्त असंयत हो पुनः संयत ११० कुछ कम अर्ध.पु.परि.<br>सामायिक छेदो, ... ४० ... निरन्तर ... १०९ " सूक्ष्म साम्य, हो पुनः सामा- ११० " "-अन्तर्मु. उप. सम्य. व संयम का युगपत् ग्रहण<br>परिहारविशुद्धि ... ४० ... " ... १०९ " सामा. छेदो. हो पुनः परिहार विशुद्धि ११० "-३० वर्ष-अन्तर्मु. सम्य. के ३० वर्ष पश्चात् परिहार विशुद्धिका ग्रहण<br>सूक्ष्मसाम्पराय उप. ... ४३ १ समय ४४ ६ मास ११२ " उपशान्तकषाय हो पुनः सूक्ष्मसाम्पराय ११३ अर्ध पु.परि.-अंत उप. सम्य व संयम का युगपत् ग्रहण। तुरत श्रेणी। गिरकर भ्रमण। पुनः श्रेणी।<br>" " क्षप. ... ४३ " ४४ " ११४ ... पतन का अभाव ११४ ... पतन का अभाव<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>यथाख्यात उप. ... ४० ... निरन्तर ४० ... ११२ अंतर्मुहूर्त सूक्ष्मसाम्पराय हो पुनः यथा. ११३ अर्ध.पु.परि.-अंतर्मुहूर्त मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण<br>क्षप. ... ४० ... " ४० ... ११४ ... पतन का अभाव ११४ ... पतन का अभाव<br>संयतासंयत ... ४० ... " ४० ... १०९ अंतर्मुहूर्त असंयत हो पुनः संयतासंयत ११० कुछ कम अर्ध. पु. परि. मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण<br>असंयत ... ४० ... " ४० ... ११६ " संयतासंयत हो पुनः असंयत ११७ १ पू.को.-अंतर्मु. संयतासंयत हो देवगति में उत्पत्ति<br>सामान्य व उप. ६-११ २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत् २५८ - २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत् २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत्<br>क्षप. ८-१३ २५९ ... मूलोघवत् २५९ - २५९ - मूलोघवत् २५९ - मूलोघवत्<br>सामायिक छेदो. ६-७ २६१ ... निरन्तर २६१ ... २६२ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परि. २६३ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परिवर्तन<br>उपशमक ८-९ २६४ १ समय मूलोघवत् २६५ वर्ष पृ. २६६ " श्रेणी से उतरकर पुनः चढ़नेवाले २६७ पू.को.-८ वर्ष-११ अंतर्मु. व ९ अंतर्मु. श्रेणी चढ़ फिर प्रमत्त अप्रमत्त हो भव के अन्त में पुनः श्रेणी चढ़ मरे देव हो<br>क्षपक ८-९ २६८ - मूलोघवत् २६८ - २६८ - मूलोघवत् २६८ - मूलोघवत्<br>परिहार विशुद्धि ६-७ २६९ ... निरन्तर २६९ ... २७० अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परि. २७१ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परिवर्तन<br>सूक्ष्मसाम्पराय उप. १० २७२ १ समय मूलोघवत् २७३ वर्ष पृ. २७४ ... अन्य गुण. सम्भव नहीं २७४ ... अन्य गुणस्थान में सम्भव नहीं<br>" क्षप. १० २७५ - " २७५ - २७५ - मूलोघवत् २७५ - मूलोघवत्<br>यथाख्यात उप. क्षप. ११-१४ २७६ - अकषायवत् २७६ ... २७६ - अकषायवत् २७६ - अकषायवत्<br>संयतासंयत ५ २७७ ... निरन्तर २७७ ... २७७ ... अन्य गुण. सम्भव नहीं २७७ ... अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं<br>असंयत १ २७८ ... निरन्तर २७८ - २७९ अंतर्मुहूर्त १ले व ४थे में गुण. परि. २८० ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ. को प्राप्त मिथ्यात्वी सम्यक्त्व धार भव के अन्त में पुनः मिथ्यात्व<br> २-४ २८१ - मूलोघवत् २८१ - २८१ - मूलोघवत् २८१ ४थे में ११ की बजाये १५ अंतर्मु. शेष मूलोघवत्<br>९. दर्शन मार्गणा :-<br>चक्षुदर्शन सा. ... ४६ ... निरन्तर ४६ ... ११९ क्षुद्रभव १२० असं. पु. परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण<br>अचक्षुदर्शन सा. ... ४६ ... " ४६ ... १२२ ... संसारी जीव को सदा रहता है १२२ ... संसारी जीव को सदा रहता है<br>अवधिदर्शन ... ४६ ... " ४६ ... १२३ अंतर्मुहूर्त अवधिज्ञानवत् १२३ कुछ कम अर्ध.पु.परि. अवधि ज्ञानवत्<br>केवलदर्शन ... ४६ ... " ४६ ... १२४ - केवलज्ञानवत् १२४ - केवलज्ञानवत्<br>चक्षुदर्शन १ २८२ - मूलोघवत् २८२ - २८२ - मूलोघवत् २८२ - मूलोघवत्<br> २ २८३ - मूलोघवत् २८३ - २८४ - " २८५ २००० सा.-आ/असं.-९ अंतर्मु. अचक्षु से असंज्ञी पंचें. सासादन हो गिरा चक्षु दर्शनियों में भ्रमण। अंतिम भव में पुनः सासादन।<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>चक्षुदर्शन ३ २८३ - मूलोघवत् २८३ - २८४ - मूलोघवत् २८५ २००० सा. -१२ अंतर्मु. उपरोक्त जीव भवनत्रिक में जा उप. सम्य. पूर्वक मिश्र हो गिरे। स्वस्थिति प्रमाणभ्रमण। अंतिम भव के अंत में पुनः मिश्र।<br> ४ २८६ ... निरन्तर २८६ ... २८७ अंतर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २८८ २००० सा. -१० अंतर्मु. उपरोक्त मिश्रवत् <br> ५ २८६ ... निरन्तर २८६ ... २८७ अंतर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २८८ २०००-४८ दिन -१२ अंतर्मु. अचक्षुदर्शनी गर्भज संज्ञी में उपज उप. सम्य. पूर्वक ५वाँ धार गिरा। स्वस्थिति प्रमाण भ्रमण। अन्तिम भव के अन्त में वेदक सहित संयमासंयम।<br> ६-७ २८६ ... " २८६ ... २८७ " " २८८ "-८वर्ष-१० अंतर्मु. " (परन्तु प्रथम व अन्तिम भव में मनुष्य)<br>उपशमक ८-११ २८९ - मूलोघवत् २८९ - २९० " " २९१ "-"-क्रमशः २९, २७, २५, २३, अंतर्मु. " "<br>क्षपक ८-१२ २९२ - " २९२ - २९२ - मूलोघवत् २९२ - मूलोघवत्<br>अचक्षुदर्शन १-१२ २९३ - " २९३ - २९३ - मूलोघवत् २९३ - "<br>अवधिदर्शन ४-१२ २९४ - अवधिज्ञानवत् २९४ - २९४ - अवधिज्ञानवत् २९४ - अवधिज्ञानवत्<br>केवलदर्शन १३-१४ २९५ - केवलज्ञानवत् २९५ - २९५ - केवलज्ञानवत् २९५ - केवलज्ञानवत्<br>१० लेश्यामार्गणा :-<br>कृष्ण ... ४९ ... निरन्तर ४९ ... १२६ अंतर्मुहूर्त नील में जा पुनः कृष्ण १२७ ३३ सा.+१ पू.को. -८ वर्ष + १० अंतर्मु. ८ वर्ष में ६ अंतर्मु. शेष रहने पर कृष्ण हो अन्य पाँचों लेश्याओं में भ्रमणकर, संयम सहित १ पू.को. रह देव हुआ। वहाँ से आ पुनः कृष्ण।<br>नील ... ४९ ... " ४९ ... १२६ " कापोत हो पुनः नील १२७ "+"-"+८ अंतर्मु. "<br>कापोत ... ४९ ... " ४९ ... १२७ " तेज हो पुनः कापोत १२७ "+"-"+ ६ अंतर्मु. "<br>तेज ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " १३० असं.पु.परि.<br> गो. सा.१३० आ/असं.पु.परि.+असं.पु.परि. सं. सहस्रवर्ष+६ अंतर्मु.<br>पद्म ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " गो. सा. १३० आ/असं.पु.परि.+असं.पु.परि. सं. सहस्रवर्ष+पल्य/असं+२सा.+५ अंत.<br>शुक्ल ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " गो. सा.१३० असं.पु.परि. ...<br>गो. सा. पद्मवत् परन्तु ५ अंतर्मु. की जगह ७ अंतर्मु.<br>कृष्ण १ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ. में उपज सम्य.। भवान्त में मिथ्या.<br> २ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-५ अंतर्मु. " (परन्तु सम्य. से मिथ्या. कराकर भव के अन्त में सम्य. कराना)<br> ३ २९९ " " २९९ " ३०० अंतर्मुहूर्त " ३०१ "-६ अंतर्मु. " "<br> ४ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-८ अंतर्मु. ७वीं पृ. में उपज सम्य. धार मिथ्या. हुआ। भव के अन्त में पुनः सम्य.।<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>नील १ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २९८ १७ सा.-४ अंतर्मु. कृष्णवत्पर ७वीं की अपेक्षा ५ वीं पृ.<br> २ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-४" "<br> ३ २९९ " " २९९ " ३०० अन्तर्मुहूर्त " ३०१ "-६" "<br> ४ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-६" "<br>कापोत १ २९६ ... " २९६ ... २९७ " " २९८ ७ सा.-४" कृष्णवत्पर ७वीं की अपेक्षा १ ली. पृ.<br> २ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-४" "<br> ३ २९९ " " २९९ " ३०० अन्तर्मुहूर्त " ३०१ "-६" "<br> ४ २९६ " निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-६" "<br>तेज १ ३०२ ... " ३०२ ... ३०३ " " ३०४ साधिक २ सा. - ४ अंतर्मु. २ सागर आयुवाले देवों में उत्पन्न मिथ्या. सम्य. धारे; भवान्त में पुनः मिथ्या<br> २ ३०५ १ समय मूलोघवत् ३०५ पल्य/असं. ३०६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३०७ "-२ समय "<br> ३ ३०५ " मूलोघवत् ३०५ " ३०६ अन्तर्मुहूर्त " ३०७ "-६ अंतर्मु. "<br> ४ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " गुणस्थान परिवर्तन ३०४ "-५ अंतर्मु. " (परन्तु मिथ्यात्व प्राप्त को भवान्त में सम्य)<br>पद्म १ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " " ३०४ साधिक १८ सा.- ४ अंतर्मु. तेजवत्पर ७ की बजाये १८ सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति<br> २ ३०५ १ समय मूलोघवत् ३०५ पल्य/असं. ३०६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३०७ "-२ समय "<br> ३ ३०५ " " ३०५ " ३०६ अन्तर्मुहूर्त " ३०७ "-६ अंतर्मु. "<br> ४ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " गुणस्थान परिवर्तन ३०४ "-५ अंतर्मु. "<br>तेज व पद्म ५-७ ३०८ ... " ३०८ ... ३०८ ... लेश्याकाल से गुणस्थानका काल अधिक है ३०८ ... लेश्या काल से गुणस्थान का काल अधिक है।<br>शुक्ल १ ३०९ ... " ३०९ ... ३१० अन्तर्मुहूर्त देवों में गुणस्थान परि. ३११ ३१ सा.-४ अंतर्मु. द्रव्य लिंगी उपरिम ग्रैवेयक में जा सम्य. धार भव के अन्त में पुनः मिथ्या.<br> २ ३१२ १ समय मूलोघवत् ३१२ पल्य/असं. ३१३ पल्य/असं. मूलोघवत् ३१४ "-५ अंतर्मु. " (यथायोग्य)<br> ३ ३१२ " " ३१२ " ३१३ अन्तर्मुहूर्त " ३१४ "-५ " "<br> ४ ३०९ ... निरन्तर ३०९ ... ३१० " देवों में गुणस्थान परि. ३११ "-५" " (परन्तु सम्य. से मिथ्या. भवान्त में सम्य.)<br> ५-६ ३१५ ... निरन्तर ३१५ ... ३१५ ... लेश्या का काल गुणस्थान से कम है ३१५ ... लेश्या का काल गुणस्थान से कम है<br> ७ ३१६ ... " ३१६ ... ३१७ अन्तर्मुहूर्त ७ वें पूर्वक उपशम श्रेणी पर चढ़कर उतरे ३१८ अन्तर्मुहूर्त उप. श्रेणी से उतरकर प्रमत्त हो पुनः चढ़े<br>उपशमक ८-१० ३१९ १ समय मूलोघवत् ३२० वर्ष पृ. ३२१ " लघु काल से चढ़कर उतरे ३२२ " दीर्घ काल से गिरकर चढ़े<br> ११ ३२३ " " ३२४ " ३२५ ... गुणस्थान का काल लेश्यासे अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदले ३२५ ... गुणस्थान का काल लेश्या से अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदल जाये<br>क्षपक ८-१३ ३२६ - मूलोघवत् ३२६ - ३२६ - मूलोघवत् ३२६ - मूलोघवत्<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>११. भव्यत्व मार्गणा :<br>भव्याभव्य सा. ... ५२ ... निरन्तर ५२ ... १३२ ... अन्योन्य परिवर्तनाभाव १३२ ... अन्योन्य परिवर्तन का अभाव<br>भव्य १-१४ ३२८ - मूलोघवत् ३२८ - ३२८ - मूलोघवत् ३२८ - मूलोघवत्<br>अभव्य १ ३२९ " निरन्तर ३२९ ... ३३० ... परिवर्तन का अभाव ३३० ... परिवर्तन का अभाव<br>१२ सम्यक्त्व मार्गणा<br>सम्यक्त्व सा. ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३४ अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्व हो पुनः सम्य. १३५ कुछ कम अर्ध. पु. परि. भ्रमण<br>क्षायिक सा. ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३७ ... पतन का अभाव १३७ ... पतन का अभाव<br>प्रथमोपशम ... १ समय सासादनवत् पल्य/असं. पल्य/असं. (दे. अंतर २/६) कुछ कम अर्ध पु. परि. परिभ्रमण<br>द्वितीयोपशम ... ५८ " ५९ ७ रात-दिन १३४ अन्तर्मुहूर्त उप. श्रेणीसे उतर वेदक हो पुनः उप. श्रेणी १३५ " "<br>वेदक ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३४ " मिथ्यात्व हो पुनः सम्य. १३५ " "<br>सासादन ... ६१ १ समय मूलोघवत् ६२ पल्य/असं. १३९ पल्य/असं. मूलोघवत् १४० " "<br>सम्यग्मिथ्यात्व ... ६१ " " ६२ " १३४ अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्व हो पुनः ३रा १३५ " मिथ्यात्व में ले जाकर चढ़ाना<br>मिथ्यादर्शन ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १४१ " मति अज्ञानवत् १४१ १३२ सागर मति अज्ञानवत्<br>सम्यक्त्व सा. ४ ३३१ ... निरन्तर ३३१ ... ३३२ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३३३ पू.को.पृ.-४ अंतर्मु. २८/ज संज्ञी सम्मूर्च्छिम हो वेदक सम्य.पा. ५ वां धार मरा देव हुआ। मिथ्या दर्शन में ले जाने से मार्गणा नष्ट होती है।<br> ५-७ ३३४ - अवधिज्ञानवत् ३३४ - ३३४ - अवधिज्ञानवत् ३३४ - अवधिज्ञानवत्<br>उपशमक ८-११ ३३४ - " ३३४ - ३३४ - " ३३४ - "<br>क्षपक ८-१४ ३३५ - मूलोघवत् ३३५ - ३३५ - मूलोघवत् ३३५ - मूलोघवत्<br>क्षायिक सम्यक्त्व ४ ३३७ ... निरन्तर ३३७ ... ३३८ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३३९ पू.को.-८ वर्ष-२ अंत. २८/ज. मनुष्य असंयत हो ऊपर चढ़े<br> ५ ३४० ... निरन्तर ३४० ... ३४१ " " ३४२ ३३ सा.+२ पू. को.-८ वर्ष-१४ अंतर्मु. " पर अनुत्तर देव हो। चयकर मनु. हो। भवान्त में ५वाँ व ६ठा धार मुक्त।<br> ६-७ ३४० ... " ३४० ... ३४१ " " ३४२ ३३ सा. +१ पू.को. -८ वर्ष-१ अंतर्मु. " (परन्तु प्रथम मनुष्य भव के अंत में भी संयत बनाना)<br>उपशमक ८-११ ३४३ १ समय मूलोघवत् ३४४ वर्ष पृ. ३४५ " ऊपर नीचे दोनों ओर परिवर्तन ३४६ " (१ अंतर्मु. की जगह क्रमशः २७, २५, २३, २१ अंतर्मु.)<br>क्षपक ८-१४ ३४७ - मूलोघवत् ३४७ - ३४७ - मूलोघवत् ३४७ - मूलोघवत्<br>वेदक सम्यक्त्व ४ ३४९ - सम्यक्त्व सा. वत् ३४९ - ३४९ - सम्यक्त्व सामान्यवत् ३४९ - सम्यक्त्व सामान्यवत्<br> ५ ३५० ... निरन्तर ३५० ... ३५१ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३५२ ६६ सा.-३ अंतर्मु. वेदक ५ वाँ मनु. भव के आदि में संयम पा मरे; अनुत्तर देव हो, फिर मनु., संयत, देव, पुनः मनु.। वेदक काल की समाप्ति के निकट संयतासंयत हो क्षायिक, संयत बन मोक्ष।<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>वेदक सम्य. ६-७ ३५३ ... निरन्तर ३५३ ... ३५४ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३५५ ३३ सा.+पू.को.-क्रमशः ७ व ८ अंत. संयतासंयतवत् पर १ बार भ्रमण (६ठे में ७ अंत. और ७वें में ८ अंत.) सासादन मूलोघवत्<br>प्रथमोपशम* (दे. नीचे) सामान्य १ समय सासादनवत् पल्य/असं.- पल्य/असं. सासादन मूलोघवत् अर्ध पु. परि. सासादन मूलोघवत्<br>उपशमसामान्य ४ ३५६ १ समय निरन्तर नहीं होते ३५७ ७ दिन रात ३५८ अन्तर्मुहूर्त श्रेणी से उतर ४ थे व ५वें में परिवर्तन ३५९ अंतर्मुहूर्त श्रेणी से उतर ४, ५, ७, ६ में जा पुनः ४ था<br> ५ ३६० " ३६१ १४ " ३६२ " " ३६३ " " " ५, ७, ६, ४ में " ५वाँ।<br> ६-७ ३६४ " ३६५ १५ " ३६६ " ६-७ में गुणस्थान परि. ३६७ " " " ६, ५, ४, ५, ७ और फिर ६ठा " " ७, ६, ४, ५ और फिर ७वाँ<br>उपशमक ८-१० ३६८ " मूलोघवत् ३६९ वर्ष पृथ. ३७० " चढ़कर द्वि. बार उतरना ३७१ " चढकर प्रथम बार उतरना<br> ११ ३७२ " मूलोघवत् ३७३ " ३७४ ... श्रेणी से उतरकर पुनः उसी सम्यक्त्व से ऊपर नहीं चढता ३७४ ... श्रेणी से उतर पुनः उसी सम्यक्त्व से ऊपर नहीं चढता<br>सासादन २ ३७५ " " ३७६ पल्य/असं. ३७७ ... गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है ३७७ ... गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है<br>सम्यग्मिथ्यात्व ३ ३७५ " " ३७६ " ३७७ ... " ३७७ ... "<br>मिथ्यादर्शन १ ३७८ ... विच्छेदाभाव ३७८ ... ३७८ ... अन्य गुणस्थान में संक्रमण नहीं होता ३७८ ... अन्य गुणस्थान में क्रमण नहीं होता<br>१३. संज्ञी मार्गणा<br>संज्ञी सामान्य ... ६४ ... निरन्तर ६४ ... १४३ क्षुद्रभव १४४ असं.पु.परि. असंज्ञियों में भ्रमण<br>असंज्ञी सामान्य ... ६४ ... निरन्तर ६४ ... १४६ " १४७ १०० सा. पृ. संज्ञियों में भ्रमण<br>संज्ञी १ ३७९ - मूलोघवत् ३७९ - ३७९ - मूलोघवत् ३७९ - मूलोघवत्<br> २-७ ३८० - पुरुषवेदवत् ३८० - ३८० - पुरुषवेदवत् ३८० - पुरुषवेदवत्<br>उपशमक ८-११ ३८० - " ३८० - ३८० - " ३८० - "<br>क्षपक ८-१२ ३८१ - मूलोघवत् ३८१ - ३८१ - मूलोघवत् ३८१ - मूलोघवत्<br>असंज्ञी १ ३८२ ... निरन्तर ३८२ ... ३८३ ... गुणस्थान परिवर्तनाभाव ३८३ ... गुणस्थान परिवर्तन का अभाव<br>१४. आहारक मार्गणा<br>आहारक सा. ... ६७ ... " ६७ ... १४९ ५ समय विग्रह गति में १५० ३ समय विग्रह गति में<br>अनाहारक सा. ... ६७ ... " ६७ ... १५१ क्षुद्रभव-३ समय कार्मण काययोगीवत् १५१ असंख्याता सं. उत्. अवसर्पिणी बिना मोड़ेकी गति से भ्रमण<br>आहारक १ ३८४ - मूलोघवत् ३८४ - ३८४ - मूलोघवत् ३८४ - मूलोघवत्<br>नोट - न. खं./१/६ में द्वितीयोपशम का कथन किया है, क्योंकि प्रथमोपशम से मिथ्यात्व की ओर ले जाने से मार्गणा विनष्ट हो जाती है। इसके कथन के लिए देखो अंतर २/६।<br>मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा<br> स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २<br> सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.<br>आहारक २ ३८५ १ समय मूलोघवत् ३८५ पल्य/असं. ३८६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३८७ आहारक काल-२ समय या असंख्यातासं. उत्. अवसर्पिणी २ समय स्थिति वाला सासादन मरकर एक विग्रह से उत्पन्न होकर द्वितीय समय आहारक हो तृतीय समय मिथ्यात्व में गया। परिभ्रमण कर आहारक काल के अंत में उप. सम्य. को प्राप्त हो आहारक काल का एक समय शेष रहने पर पुनः सासादन।<br> ३ ३८५ १ समय मूलोघवत् ३८५ पल्य/असं. ३८६ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३८७ आहारक काल-६ अंतर्मु. या असं. उत्. अवसर्पिणी २८/ज देवों में उत्पन्न हो सम्यग्मिथ्या, को प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो आहारक काल प्रमाण भ्रमण कर, उपशम पूर्वक सम्यग्मिथ्यात्व धार सम्य. या मिथ्या. होकर विग्रह गति में गया।<br> ४ ३८८ ... निरन्तर ३८८ ... ३८९ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३९० "-५ अंतर्मु. "<br> ५ ३८८ ... निरन्तर ३८८ ... ३८९ " " ३९० " " " किन्तु संज्ञी सम्मूर्च्छिम तिर्यं. में उत्पन्न करा के प्रथम संयमासंयम ग्रहण कराना। फिर भ्रमण।<br> ६-७ ३८८ ... " ३८८ ... ३८९ " " ३९० "-८ वर्ष-३ अंतर्मु. " परन्तु मनुष्यों में उत्पन्न करा के संयत बनाना। फिर भ्रमण<br>उपशमक ८-११ ३९१ - मूलोघवत् ३९१ - ३९२ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३९३ "-८ वर्ष-क्रमशः १२, १०, ९, ८ अंतर्मु. प्रमत्ताप्रमत्तवत् (८वें में १२, ९वें में १०, १०वें में ९ ११वें में ८)<br>क्षपक ८-१३ ३९४ - " ३९४ - ३९४ - " ३९४ - मूलोघवत्<br>अनाहारक १,२,४,१३ ३९६ - कार्मण योगवत् ३९६ - ३९६ - कार्मण काययोगवत् ३९६ - कार्मण काययोगवत्<br> १४ ३९७ - मूलोघवत् ३९७ - ३९७ - मूलोघवत् ३९७ - मूलोघवत्<br>५. कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणा :-<br>नोट - उस उस विषय की प्ररूपणा के लिए देखो संकेतित प्रमाण अर्थात् शास्त्र में वह वह स्थल।<br>सं. विषय मूल प्रकृति की ओघ आदेश प्ररूपणा उत्तर प्रकृति की ओघ आदेश प्ररूपणा<br> नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया<br>(१) अष्ट कर्म प्रकृति बन्ध में अन्तर :- ([[महाबंध]] पुस्तक संख्या सू./पृ.)<br>१ ज.उ. १/३६५-३९०/२५०-२५८ १/८४-१२२/६९-९४<br>(२) अष्ट कर्म स्थिति बन्ध में अन्तर :- ([[महाबंध]] पुस्तक संख्या सू./पृ.)<br>१ ज.उ. २/२०४-२२०/११८-१२५ २/९७-१२५/५९-७७ २/५५५-५६४/२५६-२६० २/२१७-२९९/३६५-४३९<br>२ भुजगार. २/३२६-३३६/१६९-१७२ २/२८१-२९४/१५१-१५७ ३/७९६-८०६/३८०-३८५ ३/७३३-७६३/३३९-३६१<br>३ वृद्धि. २/४०३-४०४/२०२-२०३ २/३७०-३८२/१८८-१९४ ताड़ पत्र नष्ट हो गये ३/८८२-९१३/४१८-४४४<br>(३) अष्ट कर्म अनुभाग बन्ध में अन्तर :- ([[महाबंध]] पुस्तक संख्या सू.पृ.)<br>१ ज.उ. ४/२५४-२५८/११६-१२० ४/११८-१७९/४४-७४<br>२ भुजगार. ४/३००-३०१/१३८ ४/२७३-२८४/१२७-१३१<br>३ वृद्धि. ४/३३६/१६६ ४/३५९/१६३<br>(४) अष्ट कर्म प्रदेश बन्ध में अन्तर :- ([[महाबंध]] पुस्तक संख्या सू./पृ.)<br>१. ज.उ. ६/९५-९६/५०-५१ ६/९०-९३/४५-४८ ६/१४८-२६८/१५४<br>२ भुजगार. ६/१४०-१४१/७६-७७ ६/१०७-१२४/५७-६५<br>३ वृद्धि.<br>(५) अष्ट कर्म प्रकृति उदय में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ सामान्य १५/२८५ १५/२८५ १५/२८८ १५/२८८<br>(६) अष्ट कर्म स्थिति उदय में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ ज.उ. १५/२९१ १५/२९१ १५/२९५ १५/२९५<br>२ भुजगार. १५/२९४ १५/२९४ " "<br>३ वृद्धि. " " " "<br>(७) अष्ट कर्म अनुभाग उदय में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ ज.उ. १५/२९६ १५/२९६ १५/२९६ १५/२९६<br>२ भुजगार. " " " "<br>३ वृद्धि. " " " "<br>(८) अष्ट कर्म प्रदेश उदय में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ ज.उ. १५/२९६ १५/२९६ १५/३०९ १५/३०९<br>२ भुजगार. " " १५/३२९<br>३ वृद्धि. " "<br>(९) अष्ट कर्म प्रकृति उदीरणा में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ ज.उ. १५-४६-५० १५/४६-५० १५/६८-९७ १५/६८-९७<br>२ भुजगार. १५/५१-५२ १५/५१-५२ १५/९७ १५/९७<br>३ वृद्धि.<br>(१०) अष्ट कर्म स्थिति उदीरणा में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ ज.उ. १५/१४१ १५/१३०-१३७ १५/१४१ १५/१३०-१३९<br>२ भुजगार. १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२<br>३ वृद्धि.<br>(११) अष्ट कर्म अनुभाग उदीरणा में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१. ज.उ. १५/२०८-२१० १५/१९९-२०३<br>२. भुजगार. १५/२३६ १५/२३३/२३४<br>३. वृद्धि.<br>(१२) अष्ट कर्म प्रदेश उदीरणा में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१. ज.उ. १५/२६१ १५/२६१<br>२. भुजगार. १५/२७४ १५/२७४<br>३. वृद्धि. " "<br>(१३) अष्टकर्म अप्रशस्त उपशमना में अन्तर:- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ प्रकृति के तीनों विकल्प १५/२७७ १५/२७७ १५/२७८-२८० १५/२७८-२८०<br>२ स्थिति के तीनों विकल्प १५/२८१ १५/२८१ १५/२८१ १५/२८१<br>३ अनुभाग के तीनों विकल्प १५/२८२ १५/२८२ १५/२८२ १५/२८२<br>४ प्रदेश के तीनों विकल्प<br>(१४) अष्टकर्म संक्रमण में अन्तर :- ([[धवला]] पुस्तक संख्या /पृ.)<br>१ प्रकृति के तीनों विकल्प १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४<br>२ स्थिति के तीनों विकल्प " " " "<br>३ अनुभाग के तीनों विकल्प " " " "<br>४ प्रदेश के तीनों विकल्प " " " "<br>(१५) मोहनीय प्रकृति सत्त्व में अन्तर :- ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या पैरापू.)<br>१ राग व द्वेष १/३९१/४०६-४०७ १/३७५<br>२ सामान्य २/६४/४४ २/१८४-१८५/१७३-१७५ २/१३५-१४१/१२३-१३०<br>३ सत्त्व स्थान. २/३७८-३८१/३४४-३५२ २/३०८-३२५/१८१-२६२<br>४ भुजगार. २/४६४-४६७/४१९-४२२ २/४३८-४४२/३९७-४०२<br>५ वृद्धि. २/५२९-५३१/४७५-४७८ २/४९८-५०४/४४९-४५५<br>(१६) माहनीय स्थिति सत्त्व में अन्तर :- ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या पैरा/पृ.)<br>१ ज.उ. स्थिति ३/२१८-२२२/१२३-१२५ ३/१८८-१९४/१०८-११० ३/१५५-१६३/८८-९३ ३/८३-९२/४७-५४<br>२ वृद्धि. आदि पद. ३/३२८-३४१/१८०-१८५ ३/२७३-२८९/१४९-१६०<br>३ ज.उ. स्थिति स्वामित्व ३/६७३-७०६/४०६-४२४ ३/५३८-५७२/३१६-३४५<br>४ भुजगार. ४/१४३-१६१/७४-८२ ४/७१-९१/४२-५०<br>५ वृद्धि. ४/- -४५८/२६०-२७४ ४/३१५-३५७/१९१-२२१<br>(१७) माहनीय अनुभाग सत्त्व में अन्तर :- ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या पैरा/पृ.)<br>१ ज.उ. ५/१३१-१३७/८५-९० ५/६०-८१/४३-५२ ५/२९१-३१८/२४१-२४९ ५/३०३-३२४/२०१-२१३<br>२ भुजगार. ५/१५९/१०६ ५/१४७-१५०/९७-९९ ५/५०५-५०८/२९५-२९७ ५/४८१-४८६/२८०-२८६<br>३ वृद्धि. ५/१८३/१२३-१२४ ५/१७४-१७६/११६/११८<br>४ वृद्धि आदि पद ५/५६२-५६५/३२६-३२८ ५/५४०-५४४/३१२-३१६<br>६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ :-<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ९/४,१,७१/३७०-४२८ पाँचों शरीरोंके योग्य पुद्गल स्कन्धों को उत्कृष्ट अनृत्कृष्ट जघन्य संघातन-परिशातन व तदुभय कृति सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १२/४,२,७,२०१/११४-१२७/१४ जीवसमासों में अनुभाग बन्ध स्थानों के अन्तरका अल्प-बहुत्व।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,४,३१/१३२-१७२ प्रयोग कर्म, समवधानकर्म, अधःकर्म, तपःकर्म, ईर्यापथ कर्म, और क्रिया कर्म में १४ मार्गणाओं की अपेक्षा प्ररूपणा।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,११६/१५०-१५१/९ तेइस प्रकार वर्गणाओं का जघन्य उत्कृष्ट अन्तर।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,१६७/२८४-३०१/६ पाँचों शरीरों के स्वामियों के (२,३,४) भंगों का ओघ आदेश से जघन्य उत्कृष्ट अन्तर।<br>[[Category:अ]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] <br>[[Category:धवला]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br>[[Category:षट्खण्डागम]] <br>[[Category:पंचसंग्रह प्राकृत]] <br>[[Category:हरिवंश पुराण]] <br>[[Category:त्रिलोकसार]] <br>[[Category:महाबंध]] <br>[[Category:कषायपाहुड़]] <br> |
Revision as of 05:23, 3 August 2008
कोई एक कार्य विशेष हो चुकनेपर जितने काल पश्चात् उसका पुनः होना सम्भव हो उसे अन्तर काल कहते हैं। जीवों की गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बन्ध उदय आदि सर्व प्रकरणों में इस अन्तर कालका विचार करना ज्ञानकी विशदता के लिए आवश्यक है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
१. अन्तर निर्देश - पृष्ठ
1. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण
2. अन्तर के भेद
3. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण
4. स्थानान्तर का लक्षण
२. अन्तर प्ररूपणासम्बन्धी कुछ नियम-
1. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
2. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम
3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम
4. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम
5. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम
6. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम
३. सारणी में दिया गया अन्तर काल निकालना-
1. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अन्तर निकालना
2. गति परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना
3. निरन्तर काल निकालना
4. २ x ६६ सागर अन्तर निकालना
5. एक समय अन्तर निकालना
6. पल्य/असं. अन्तर निकालना
• काल व अन्तर में अन्तर दे. काल/६
7. अनन्तकाल अन्तर निकालना
४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ-
1. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा
2. सारणी में प्रयुक्त संकेतों की सूची
3. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा
4. आदेश प्ररूपणा
5. कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व विषयक अन्तर प्ररूपणा
6. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
• काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर - दे. काल/५
१. अन्तर निर्देश
१. अन्तर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/८/२९ अन्तरं विरहकालः।
= विरह कालको अन्तर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस कालको अन्तर कहते हैं।)
(धवला पुस्तक संख्या १/१,१,८/१०३/१५६) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ५५३/९८२)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/८/७/४२/५ अन्तरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।७। [अन्तरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सान्तरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' [वैशे. सू. १/१/१०] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम्।। [गरुड़पु. ११०/१५] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यान्तरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अन्तरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयत इत्यर्थः।
= अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं। १. यथा `सान्तरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। २. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। ३. `हिमवत्सागरान्तरे' में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। ४. `शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है। ५. कहीं पर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे - घोड़ा, हाथी और लोहे में, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जलमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है। यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। ६. `ग्रामस्यान्तर कूपाः' में बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआँ है। ७. कहीं उपसंव्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है यथा `अन्तरे शाटकाः'। ८. कहीं विरह अर्थ में जैसे `अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते' - अनिष्ट व्यक्तियों के विरहमें मण्त्रणा करता है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/८/८/४२/१४ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तान्तरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदन्तरमित्युच्यते।
= किसी समर्थ द्रव्यकी किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होनेपर निमित्तान्तर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तब तक के कालको अन्तर कहते हैं।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या १४३/३५७ लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे मार्गणास्थानान्तरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अन्तरं नाम।
= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अन्तर है।
२. अन्तर के भेद
- धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ./प.
(Chitra-1)
अन्तर १/९
(नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव)
२/१ ३/५ २/३
सद्भाव असद्भाव आगम नो आगम आगम नो आगम
२/४
ज्ञायक भव्य तद्व्यतिरिक्त
२/५ ३/१
भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र
३. निक्षेप रूप अन्तर के लक्षण - दे. निक्षेप।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,१/पृ. ३/४ खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा।
= क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है।
४. स्थानान्तर का लक्षण
धवला पुस्तक संख्या १२/४ २,७,२०१/११४/९ हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम।
= उपरिम स्थानों में अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करने पर जो प्राप्त हो वह स्थानों का अन्तर कहा जाता है।
२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम -
१. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,१०४/६६/२ जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए त मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्वा। जीए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेव गुणट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ।
= जिस मार्गणा में बहुत गुणस्थान होते हैं, उस मार्गणा को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानों से अन्तर कराकर अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु जिस मार्गणा में एक ही गुणस्थान होता है, वहाँ पर अन्य मार्गणा में अन्तर करा करके अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का अभिप्राय है।
२. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,१५३/८७/९ कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो।
= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अन्तर का अभाव कैसे कहा?
उत्तर - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेपर विवक्षित मार्गणा के विनाश की आपत्ति आती है। और न अन्य गुणस्थान में जाने से भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को गये हुए जीवके अन्य योग को प्राप्त हुए बिना पुनः आगमन का अभाव है।
३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,३७५/१७०/२ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो।
= उपशम श्रेणीसे नीचे उतरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहलेवाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुनः उपशम श्रेणी पर समारोहण की सम्भावना का अभाव है।
४. सासादन सम्यक्त्व में अन्तर सम्बन्धी नियम
धवला पुस्तक संख्या ७/२,३,१३६/२३३/११ उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोबारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति।
= उपशम श्रेणीसे उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दोबार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता।
५. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर सम्बन्धी नियम
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,३६/३१/२ जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेव णिप्फिददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय जो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फिददि।
= जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है।
६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अन्तर सम्बन्धी नियम
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,३/सू.१३९/२३३ जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो।
धवला पुस्तक संख्या ७/२,३,१३९/२३३/३ कुदो। पढमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणहिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं ठविय तिण्णि वि करणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसम-सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तंतरुवलंभादो। उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण शासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरं उवलब्भदे, एदमेत्थ किण्ण परूविदं। ण च उवसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति णियमो अत्थि, `आसाणं पि गच्छेज्ज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो। एत्थ परिहारो उच्चदे - उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। तम्हि भवे सासणं पडिवज्जिय उवसमसेडिमारुहिय तत्तो ओदिण्णो वि ण सासणं पडिवज्जदि त्ति अहिप्पओ एदस्स सुत्तरस। तेणंतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णंतरं णोवलब्भदे।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,७/१०/३ उवसमसम्मत्तं पि अंतोमुहुत्तेण किण्ण पडिवज्जदे। ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं गंतूणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीमेत्तट्ठिदिं घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा जाव हेट्ठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा। ताणं ट्ठिदीओ अंतोमुहुत्तेण घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किण्ण करेदि। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामेण अंतोमुहुत्तक्कीरणकालेहि उव्वेलणखंडएहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो।
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,६५/२८८/१ एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो।
= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्यसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।१३९।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना कालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्वमात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
(धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,५-७/७-११) (धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,३७६/१७०/९)
प्रश्न - उपशम श्रेणीसे उतरकर सासादन को प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया!
उत्तर - उपशमश्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। क. पा. की अपेक्षा ऐसा सम्भव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता।
प्रश्न - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति की उद्वेलना करता हुआ, उनकी अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता तब तक उपशम सम्यक्त्व का ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है।
प्रश्न - सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थितियों को अन्तर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपम से, अथवा सागरोपम पृथक्त्व कालसे नीचे क्यों नहीं करता?
उत्तर - नहीं, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र आयाम के द्वारा अन्तर्मुहूर्त उत्कीरण कालवाले उद्वेलना काण्डकों से घात की जानेवाली सम्यक् और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन IV/२/६)
यहाँ यह (पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अन्त समय मिथ्यात्व को प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवों में उत्पन्न होनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यदि सम्यक्त्व को प्राप्त करता भी है तो) वेदकसम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमसम्यग्दर्शन का अन्तरकाल जो पल्य का असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ७०४/११४१/१५ ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः] अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये सासादना भवन्ति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्० कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति।
= अप्रमत्त संयत के बिना वे तीनों (४,५,६ठे गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि ज व) उस सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवलिमात्र शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धी की कोई एक प्रकृति के उदयमें सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं अथवा वे (४-७ तक) चारों ही यदि भव्यता गुण विशेष के द्वारा सम्यक्त्व की विराधना न करें तो उतना काल पूर्ण हो जानेपर या तो सम्यक्प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं, या मिश्र प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं, या मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं।
नोट :- यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशम श्रेणीपर चढ़कर उतरने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पुनः द्वितीयोपशम उत्पन्न करके श्रेणीपर आरूढ़ होना सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो मिथ्यादृष्टि को ही प्राप्त होता है, और वह भी उस समय जब कि उसकी सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्याप्रकृति की स्थिति सागरोपमपृथक्त्व से कम हो जाये। अतः इसका जघन्य अन्तर पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र जानना।]
३. सारणी में दिया गया अन्तरकाल निकालना
१. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,३/५/५ एक्को मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजमसंजमेसु बहुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चण्णसम्मत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तं त सम्मत्तेण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धमंतोमुहुत्तं सव्वजहण्णं मिच्छतंतरं।
= एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयतमें बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, और वहाँ पर सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,६/९/२ नाना जीव की अपेक्षा भी उपरोक्तवत् ही कथन है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ एक जीव की बजाय युगपत् सात, आठ या अधिक जीवों का ग्रहण करना चाहिए।
२. गति परिवर्तन-द्वारा अन्तर निकालना
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,४५/४०/३ एक्को मणुसो णेइरयो देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्धाए पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो। त थ पंचाणउदिपुव्वकोडिअब्भहिय तिण्णि पलिदोवमाणि गमिय अवसाणे (उवसमसम्मत्तं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो। एवं दुसमऊणसगट्ठिदी सासणुक्कस्संतरं होदि।
= कोई एक मनुष्य, नारकी अथवा देव सासादन गुणस्थान के कालमें एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवे पूर्व कोटिकाल से अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशम सम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
३. निरन्तरकाल निकालना
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,२/४/८ णत्थि अंतरं मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदो विरहो अभावो णत्थि त्ति उत्तं होदि।
= अन्तर नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व पर्याय से परिणत जीवों का तीनों ही कालों में व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है। (अन्य विवक्षित स्थानों के सम्बन्धमें भी निरन्तर का अर्थ नाना जीवापेक्षया ऐसा ही जानना।)
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,१८/२१/७ एगजीवं णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।।१८।। कुदो। खवगाणं पदणाबावा।
= एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकों का और अयोगिकेवली का अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ।।१८।। क क्योंकि, क्षपक श्रेणीवाले जीवों के पतन का अभाव है।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,२०/२२/१ सजोगिणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा।
= अयोगि केवली रूपसे परिणत हुए सयोगि केवलियों का पुनः सयोगिकेवली रूपसे परिणमन नहीं होता है। [अर्थात् उनका अपने स्थानसे पतन नहीं होता है, इसी प्रकार एक जीव की अपेक्षा सर्वत्र ही निरन्तर काल निकाल ने में पतनाभाव कारण जानना।]
४. २X६६ सागर अन्तर निकालना-
एक जीवापेक्षया-
धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,४/६/६ उक्कसेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि ।।४।। एदस्स णिदरिसणं-एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतयकाविट्ठकप्पवासियदेवेसु चोद्दससागरोवमाउट्ठिदिएसु उप्पण्णो। एक्कं सागरोवमं गमियविदियसागरोवमादिसमएसम्मत्तंपडिवण्णो। तेरसागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमा-संजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूववावीससागरोवमाउट्ठिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो। तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेवज्जे देवेसु मणुसाउएणूणएक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तूणछावट्ठिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउट्ठिदिएसुवज्जिय पुणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्ठिदिएसु देवेसुवज्जिय अंतोमुहुत्तूणवेछावट्ठिसागरोवमचरिमसमये मिच्छत्तं गदो! लद्धमंतरं अंतोमुहुत्तूण वेछावट्टिसागरोवमाणि। एसो उप्पत्तिकमो अउप्पण्णउप्पायणट्ठं उत्तो। परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्वा।
= मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है ।।४।। कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयु स्थिति वाले लान्तव कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपम के आदि समयमें सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयम को अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्य भवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरणाच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भवमें संयम को अनुपालन कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयु की स्थितिवाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम कालके चरम समयमें परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयम को अथवा संयमासंयम को परिपालन कर, इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयुसे कम बीस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आनतप्राणत कल्पों के देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रम से मनुष्यायु से कम बाईस और चोबीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम काल के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। (१४-१+२२+३१+२०+२२+२४ = २x६६ सागरोपम) यह ऊपर बताया गया उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्न जनों के समझाने के लिए कहा है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है।
५. एक समय अन्तर निकालना
नानाजीवापेक्षया -
[दो जीवों को आदि करके पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र विक्लप से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थान में रहकर सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समय के लिए सासादन सम्यग्दृष्टियों का अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समय में कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का (नानाजीवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने काल के क्षयसे सम्यक्त्व को अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीवों का एक समय के लिए अभाव हो गया। पुनः अनन्तर समयमें ही मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व का एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया]
(विशेष दे. - धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,४/७/९)।
६. पल्य/असं. अन्तर निकालना
नानाजीवापेक्षया -
[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तर एक समयवत् ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँपर एक समय के स्थानपर उत्कृष्ट अन्तर पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है]
(विशेष दे.धवला पुस्तक संख्या ५/१,६,६/८/८)।
७. अनन्त काल अन्तर निकालना
एक जीवापेक्षया -
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,६६/३०५/२ होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरिक्खाणं, सेसतिगदीट्ठिदीए आणंतियाभावादो। ण, अप्पिदपदजीव सेसतिगदीसु हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्खेसु पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपदेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणंतंतरुलंभादो।
=
प्रश्न -यह अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का भले ही हो, किन्तु वह सामान्य तिर्यंचों का नहीं है?
उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित पद (कृति संचित आदि) वाले जीव को शेष तीन गतियों में गुमाकर तथा अविवक्षित पदसे तिर्यंचों में प्रवेश कराकर वहाँ अनन्तकाल तक रहनेके बाद निकलकर अर्पित पद से तिर्यंचों में उत्पन्न होनेपर अनन्तकाल अन्तर पाया जाता है।
४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ
१. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा
१. नरक गति -
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/२०६ पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ।।२०६।।
= रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों में नारकियों की उत्पत्ति का अन्तरकाल क्रमशः ४५ मुहबर्त, एक पक्थ, एक मास, दो मास चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है।
हरिवंश पुराण सर्ग ४/३७०-३७१ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्घटिकाः प्रथमक्षितौ अन्तर। नरकोत्पत्तेरन्तरज्ञैः स्फुटीकृतम् ।।३७०।। सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो भासौ यथाक्रमम्। चत्वारोऽपि च षण्मासा विरहं षट्षु भूमिषु ।।३७१।।
= अन्तर के जाननेवाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों की उत्पत्ति का अन्तर ४८ घड़ी बतलाया है ।।३७०।। और नीचे की ६ भूमियों में क्रम से १ सप्ताह, १ पक्ष, १ मास, २ मास, ४ मास और ६ मास का विरह अर्थात् अन्तरकाल कहा है ।।३७१।। नोट - (यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओं में कुछ अन्तर है जो ऊपर से विदित होता है।
२. देवगति -
त्रिलोकसार गाथा संख्या ५२९-५३० दुसुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य। सत्तदिणपक्खमासं दुगचदुछम्मासगं होदि ।।५२९।। वरविरह छम्मासं इंदमहादेविलोयवालाणं। चउतेत्तीससुराणं तणुरक्खसमाण परिसाणं ।।५३०।।
= दोय दोय तीन चतुष्क शेष इन विषै जननानन्तर अर च्यवनै कहिये मरण विषै अन्तर सो सात दिन, पक्ष, मास, दो, चार, छह मास प्रमाण हैं। (अर्थात् सामान्य देवों के जन्म व मरण का अन्तर उत्कृष्टपने सौधर्मादिक विमानवासी देवों में क्रमसे दो स्वर्गों में सात दिन, आगे के दो स्वर्गों में एक पक्ष, आगे चार स्वर्गों में एक मास, आगे चार स्वर्गों में दो मास, आगे चार स्वर्गों में चार मास, अवशेष ग्रैवेयकादि विषै छ मास जानना) ।।५२९।। उत्कृष्टपने मरण भए पीछे तिसकी जगह अन्य जीव आय यावत् न अवतरै तिस काल का प्रमाण सो सर्व ही इन्द्र और इन्द्र की महादेवी, अर लोकपाल, इनका तो विरह छ मास जानना। बहुरि त्रायस्त्रिंश देव अर अंगरक्षक अर सामानिक अर पारिषद इनका च्यार मास विरह काल जानना ।।५३०।।
२. सारणी में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ
संकेत अर्थ संकेत अर्थ
अन्तर्मु. अन्तर्मुहूर्त (जघन्य कोष्ठकमें जघन्य व उत्कृष्ट कोष्ठक में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त)। बा. भुजगार बादर भुजगार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य बन्ध उदय आदि।
अप. अपर्याप्त मा. मास
असं. असंख्यात मिथ्या. मिथ्यात्व
आ. आवली मनु. मनुष्य
उप. उपशम ल.अप. लब्धि अपर्याप्त
एके.या ए. एकेंद्रिय वन. वनस्ति
औ. औदारिक विकलें. विकलेन्द्र
२८/ज. २८ प्रकृतियों की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव। वृद्धि बन्ध उदयादि में षट्स्थान पतित वृद्धि हानि।
ज-उ. उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य व अजघन्य बन्ध उदयादि। वृद्धि आ.पद जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि हानि व अवस्थान पद।
ति. तिर्यंच सम्य. सम्यक्त्व
दि. दिन सं. संख्यात
न.पुं. नपुंसक सा. सागर व सामान्य
नि. निगोद सू. सूक्ष्म
प. पर्याप्त सासा. सासादनवत्
पंचें. पंचेन्द्रिय सा.वत् सासादनवत्
पु.परि. पुद्गल परिवर्तन स्थान जैसे २४ प्रकृति बन्ध
परि. परिवर्तन स्थान, २८ प्रकृति
पू.को. पूर्वकोटी बन्ध का स्थान आदि।
पृ. पृथक्त्व क्षप, क्षपक
३. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा :
१. षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१-६/सूत्र सं. टीका सहित
- धवला पुस्तक संख्या ५/पृ. १-२१
गुणस्थान नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
प्रमाण प्रमाण प्रमाण
जघन्य अपेक्षा उत्कृष्ट अपेक्षा जघन्य अपेक्षा उत्कृष्ट अपेक्षा
सू सू सू सू
१ २ ... निरन्तर २ ... निरन्तर ३ अन्तर्मुहूर्त दे. अन्तर ३/१ ४ २X६६ सागर अन्तर्मुहूर्त दे. अन्तर ३/४
२ ५ १ समय दे. अन्तर ३/५ ६ पल्य/असं. दे. अन्तर ३/६ ७ पल्य/अस. दे. अन्तर २/६/१ ८ अर्ध. पु. परि. १४ अन्तर्मुहूर्त + १ समय प्रथमोपशमसे सासादन पूर्वक मिथ्यात्व पुनः वैसे ही। फिर वेदक, क्षायिक व मोक्ष
३ ५ " " ५ " " ७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ८ " सासादनवत्
४ ९ ... निरन्तर ९ ... निरन्तर १० " ४ व ५ के बीच गुणस्थान परिवर्तन ११ अर्ध. पु. परि. - ११ अन्तर्मु. मिथ्यात्व से प्रथमोपशम, अन्तर्मुहूर्त तक २रे ३रे आदिमें रहकर मिथ्यात्व। १० अन्तर्मुहूर्त संसार शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्व।
५ ९ ... " ९ ... " १० " ५वें से ४थे ६ठे या १ले में आ पुनः ५वाँ ११ " प्रथमोपशम के साथ ५वाँ। आगे उपरोक्तवत्
६ ९ ... " ९ ... " १० " ६ठे से ७वाँ पुनः ६ठा। नीचे उतर कर जघन्य अंतर प्राप्त नहीं होता। ११ अर्ध. पु. परि. १० अन्तर्मुहूर्त पहले ही प्रथमोपशम के साथ प्रमत्त। आगे उपरोक्तवत्
७ ९ ... " ९ ... " १० " ७वें से उपशम श्रेणी पुनः ७वाँ। नीचे उतर कर जघन्य अन्तर नहीं होता ११ " उपरोक्तवत् (६ठे के स्थान पर ७वाँ)
उपशम
८ १२ १ समय ७-८ जन ऊपर चढ़ें तब १ समय के लिए अन्तर पड़े १३ वर्ष पृ. ७-८ जनें ऊपर चढ़ें तब १४ " यथाक्रम ८, ९, १०, ११ में चढ़ कर नीचे गिरा १५ अर्ध. पु. परि. २८ अन्तर्मुहूर्त अनादि मिथ्यादृष्टि यथाक्रम ११ वें जाकर ८वें को प्राप्त करता हुआ नीचे गिरा। पुनः ८, ९, १०, ११, १०, ९, ८, ७-६, ८, ९, १०, १२, १३, १४ मोक्ष
९-११ १२ " " १३ " " १४ " " १५ "-२६ अन्तर्मु. यथायोग्यरूपेण उपरोक्तवत्
१० १२ " " १३ " " १४ " " १५ "-२४ " "
११ १२ " " १३ " " १४ " यथाक्रम ११ से १०, ९, ८, ७-६, ८, ९, १०, ११ रूपसे गिरकर ऊपर चढ़ना १५ "-२२ " "
क्षपक ७-८ या
८-१२ १६ " १०८ जन ऊपर चढ़ने पर अन्तर होता है १७ ६ मास " १८ ... पतन का अभाव १८ ... पतन का अभाव
१३ १९ ... निरन्तर १९ ... निरन्तर २० ... " २० ... "
१४ १६ १ समय ८-१२ तक की भाँति १७ ... " १८ ... " १८ ... "
४. आदेश प्ररूपणा :-
प्रमाण - १. षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१, ६/सूत्र सं. टीका सहित, २. षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२, ३/सूत्र सं. टीका सहित, ३. षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२, ९/सूत्र सं. टीका सहित,
धवला पुस्तक संख्या पु. ५/पृ. २१-१७९ धवला पुस्तक संख्या ७/पृ. १८७-२३६ धवला पुस्तक संख्या ७/पृ. ४७८-४९४
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
१. गति मार्गणा-
१. नरकगति- नरक सामान्य ... २ ... निरन्तर - २ ... २ अन्तर्मुहूर्त गति परिवर्तन ३ असं. पु. परि. गति परिवर्तन
१-७ पृथिवी ... ४ निरन्तर - ४ ... ४ अन्तर्मुहूर्त गति परिवर्तन ४ असं. पु. परि. गति परिवर्तन
नरक सामान्य १ २१ ... निरन्तर २१ ... २२ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २३ ३३ सा.-अन्तर्मु. ६ २८/ज. ७वीं पृथिवी में ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण कर वेदकसम्य. हो भव के अन्त में मिथ्यात्व सहित चयकर तिर्यंच हुआ।
४ २१ ... निरन्तर २१ ... २२ अन्तर्मुहूर्त " २३ " - " २८/ज. ७वीं पृ. १ लेसे ४था वेदक, पुनः १ला। आयु के अन्त में उपशम सम्यक्त्व।
२ २४ १ समय ओघवत् २५ पल्य/असं. २६ पल्य/असं. ओघवत् २७ " -५ " "
३ २४ " " २५ " २६ अन्तर्मुहूर्त " २७ " - ६ " "
१-७ पृथिवी १, ४ २८ ... निरन्तर २८ ... २९ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ३० क्रमेण देशोन १, ३, ७, १०, १७, २२, ३३ सा. "
२ ३१ १ समय ओघवत् ३२ पल्य/असं. ३३ पल्य/असं. ओघवत् ३४ " "
३ ३१ " " ३२ " ३३ अन्तर्मुहूर्त " ३४ " "
२. तिर्यंच गति -
तिर्यंच सामान्य ... ६ ... निरन्तर ६ ... ६ क्षुद्र भव ति. से मनु. हो कदली घात कर पुनः ति. ७ १०० सा. पृ. शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण
पंचे. सा., प., अप., ... ६ ... " ६ ... ९ " " १० असं. पु. परि. "
योनिमति ... ६ ... " ६ ... ९ " " १० " "
ल. अप. ... ५२ ... " ५२ - ... ५३ " पर्याय विच्छेद ५४ " "
तिर्यंच सामान्य १ ३५ ... " ३५ ... ३६ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ३७ ३ पल्य-२ मास+मुहूर्त पृ. २८/ज. वेदक हो आयु के अन्त में मिथ्या. पुनः सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति
२-५ ३८ ओघवत् ओघवत् ३८ ओघवत् ३८ ओघवत् " ३८ " "
पंचे. सा. प. व योनिमति १ ३९ ... निरन्तर ३९ ... ४० अन्तर्मुहूर्त " ४१ ३ पल्य-२ मास+२ अन्तर्मुहूर्त "
२ ४२ १ समय ओघवत् ४३ पल्य/असं. ४४ पल्य/असं. " ४५ ३ पल्य-९५ पू.को. योनिमति में ९५ के स्थानपर १५ पू. को. दे. अन्तर ३/२
३ ४२ " " ४२ " ४४ अन्तर्मुहूर्त " ४५ " " (सासा. के स्थल पर मिश्र)
४ ४६ ... निरन्तर ४६ ... ४७ " ४८ " " (सासा. के स्थल पर सम्य.)
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १/३ १/२ १/२
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
पंचें. सा., प. ५ ४९ ... निरन्तर ४९ ... ५० अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ५१ ३ पल्य+९६पू. को. सासादनवत्
योनिमति ५ ४९ ... निरन्तर ४९ ... ५० " " ५१ "+१६ पू. को. "
पंचें. ति. ल. अप. १ ५२ ... " ५२ ... ५६ ... निरन्तर ५६ ... निरन्तर
३. मनुष्य गति :-
मनु.सा.,प.व. मनुष्यणी ... ६ ... निरन्तर ६ ... ९ क्षुद्र भव गति परिवर्तन (मनु.से ति.) १० असं.पु.परि. अविवक्षित गतियों में भ्रमण
मनुष्य ल. अप. ... ७८ ९ १ समय ... ७९ १० पल्य/असं. ८० ९ " " ८१ १० " "
मनु.सा.प.व मनुष्यणी १ ५७ ... निरन्तर ... ५८ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ५९ ३पल्य-९मास+४९दिन+२ अन्तर्मु. भोग भूमिजों में भ्रमण
२ ६० १ समय ओघवत् ६१ पल्य/असं. ६२ पल्य/असं. " ६३ ३पल्य+४७पू.को. मनु.गति में भ्रमण तथा गुण स्थान परिवर्तन
३ ६० " " ६१ " ६२ अन्तर्मुहूर्त " ६३ उपरोक्त-८ वर्ष "
४ ६४ ... निरन्तर ६४ ... ६५ अन्तर्मुहूर्त " ६६ " "
मनुष्य सामान्य ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ ३पल्य-८ वर्ष+४८ पू.को. "
मनुष्य पर्याप्त ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ "-"+२४ पू.को. "
मनुष्यणी ५-७ ६७ ... " ६७ ... ६८ " " ६९ "-"+८ पू.को. "
उपशमक :-
मनुष्य पर्याप्त ८-११ ७० १ समय ओघवत् ७१ वर्ष पृ. ७२ " " ७३ "-"+२४ पू.को. "
मनुष्यणी ८-११ ७० " " ७१ " ७२ " " ७३ "-"+८ पू. को. "
क्षपक :-
मनुष्य पर्याप्त ८-१२ ७४ " " ७५ ६ मास ७६ ... " ७६ ... ओघवत्
मनुष्यणी ८-१२ ७४ " उपशमकवत् ७५ वर्ष पृ. ७६ ... " ७६ ... "
मनुष्य व मनुष्यणी १३ ७७ ... ओघवत् ७७ ... ७७ ... " ७७ ... "
१४ ७४ १ समय ८-१२ वत् ७५ ६ मास व वर्ष पृ. ७६ ... " ७६ ... "
मनुष्य ल. अप. १ ८३ ... निरन्तर ८३ ... ८३ ... निरन्तर ८३ ... निरन्तर
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवा पेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
४. देवगति :-
देवसामान्य ... १२ .. निरन्तर १२ ... १२ अन्तर्मुहूर्त देवसे गर्भज मनु. या ति. पुनः देव १३ असं.पु.परि. तिर्यंचों में भ्रमण
भवनत्रिक ... १४ ... " १४ ... १४ " " १४ " "
सौधर्म ईशान ... १४ ... " १४ ... १४ " " १४ " "
सानत्कुमार माहेन्द्र ... १४ ... " १४ ... १६ मुहूर्त पृथक्त्व इस स्वर्ग में मनु. या ति. की आयु इससे कम नहीं बन्धती १७ " "
ब्रह्म-कापिष्ठ ... १४ ... " १४ ... १९ दिवस पृथक्त्व " २० " "
शुक्र-सहस्रार ... १४ ... " १४ ... २२ पक्ष पृथक्त्व " २३ " "
आनत-अच्युत ... १४ ... " १४ ... २५ मास पृथक्त्व " २६ " "
नव ग्रैवेयक ... १४ ... " १४ ... २८ वर्ष पृथक्त्व " २९ " "
नव अनुदिश ... १४ ... " १४ ... ३१ " " ३२ २+सा.+२पू.को. वहाँ से चय पूर्व कोटि वाला मनु.हो, वहाँ से सौधर्म ईशानमें जा; २ सा. पश्चात् पुनः पूर्व कोटिवाला मनु. हो संयम धार मरे और विवक्षित देव होय.
सर्वार्थसिद्धि ... १४ ... " १४ ... ३४ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष ३४ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष
देव सामान्य १ ८४ ... " ८४ ... ८५ अन्तर्मुहूर्त ओघवत् ८६ ३१ सा.-४ अंतर्मू. द्रव्य लिंगी उपशम ग्रैवेयक में जा सम्य. ग्रहणकर भव के अन्त में मिथ्यात्व
४ ८४ ... " ८४ ... ८५ " " ८६ " -५ अंतर्मु. "
२ ८७ १ समय ओघवत् ८८ पल्य/असं. ८९ पल्य/असं. " ९० " -३ समय " परन्तु सासादन सहित उत्पत्ति
३ ८७ " " ८८ " ८९ अन्तर्मुहूर्त " ९० " -६ अंतर्मु. उपरोक्त जीव नव ग्रैवेयक में नवीन सम्य. को प्राप्त हुआ
भवनत्रिक व सौधर्म-सहस्रार १ ९१ ... निरन्तर ९१ ... ९२ " " ९३ स्व आयु-४ अंतर्मु. मि. सहित उत्पत्ति, सम्य, प्राप्ति, अन्त में च्युति
४ ९१ ... निरन्तर ९१ ... ९२ " " ९३ " -५ अंतर्मु. "
२-३ ९४ देव सा.वत् ९४ देव सा. वत् देव सा.वत् ९४ देव सा. वत् नोट :- ३१ सागर के स्थानपर स्व. आयु लिखना।
आनत-उप. ग्रैवेयक १-४ ९५व ९८ " " ९५व ९८ " ९६व ९८ " " ९७व ९८ " "
अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि ४ ९९ ... निरन्तर ९९ ... ९९ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष ९९ ... वहाँ से आकर नियम से मोक्ष
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
२. इन्द्रिय मार्गणा -
एकेन्द्रिय सा. ... १०१ १६ ... निरन्तर १०१ १६ ... १०२ ३६ क्षुद्रभव अन्य पर्याय में जाकर पुनः एकेन्द्रिय १०३ ३७ २००० सा.+पू.को. त्रसकायिक में भ्रमण
वा.सा., प., अप. ... १०४ १६ ... " १०४ १६ ... १०५ ३९ " " १०६ ४० असं. लोक सूक्ष्म एकें. में भ्रमण (तीनों में कुछ-कुछ अन्तर है)
सू. सा. ... १०८ १६ ... " १०८ १६ ... १०९ ४२ " " ११० ४३ असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी बा.एके.में भ्रमण
सू.प., अप. ... १०८ १६ ... " १०८ १६ ... १०९ ४२ " " ४३ ऊपर से कुछ अधिक अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
विकलें. व पञ्चों. सा. ... १११ १६ ... " " १११ १६ ... ११२ ४५ " " ४६ असं.पु.परि. एकेन्द्रियों में भ्रमण
पंचें.ल.अप. ... १२७ ... " १२७ ... १२७ " गति परिवर्तन १२७ असं.पु.परि. विकलेन्द्रिय में भ्रमण
" १ १२९ ... " १२९ ... १२९ ... निरन्तर १२९ ... निरन्तर
एकेन्द्रिय सा. १ १०१ ... " १०१ ... १०२ क्षुद्रभव अन्य प. में जाकर पुनः ए. १०३ २००० सा.+पू.को. त्रसकाय में भ्रमण
" बा.सा. १ १०४ ... " १०४ ... १०५ " " १०६ असं.लोक सूक्ष्म एकें. में भ्रमण
बा.प.अप. १ १०७ ... " १०७ ... १०७ " " १०७ " "
सू.सा., प., अप. १ १०८ ... " १०८ ... १०९ " " ११० सू.सा.वत् बा.एकें में भ्रमण
विकलें. सा., प., अप. १ १११ ... " १११ ... ११२ " " ११३ असं.पु.परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
पंचें.सा., प. १ ११४ - मूल ओघवत् ११४ - ११४ - मूल ओघवत् ११४ - ओघवत्
२-३ ११५ - " ११६ - ११७ - " ११८ भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति-आ./असं.-क्रमेण ९ या १२ अन्तर्मुहूर्त एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी पंचें. हो भवनत्रिक में उत्पन्न हुआ। उपशम पूर्वक सासादन फिर मिथ्यादृष्टि। भव के अंत में पुनः सासादन
४ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति १० अंतर्मु. असंज्ञी पंचें. भव को प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो उपशम पा गिरा। भव के अंत में पुनः उपशम।
५ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ स्व उ. स्थिति-३ पक्ष ३ दिन १२ अंत.+६ मुहूर्त संज्ञी भव प्राप्त एकें. उपशम सहित ५वाँ पा गिरा। भव के अंत में पुनः उपशम सहित संयमासंयम प्राप्त किया।
६-७ ११९ - " ११९ - १२० - " १२१ स्व उ. स्थित-(८ वर्ष+१० अंतर्मु.+६ अंतर्मु.) पश्चात् संयम पा गिरा। मनु. व देवादि में भ्रमण। अन्त में मनुष्य हो, भव के अन्त में संयम.
उपशमक ८-११ १२२ - " १२२ - १२३ - " १२४ " नोट :- १० अन्तर्मु. के स्थान पर क्रमशः ३०, २८, २६, २४ करें।
क्षपक ८-१४ १२५ - " १२५ - १२५ - " १२५ - मूलोघवत्
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
३. काय मार्गणा :-
चार स्थावर बा. सू. प. अप. ... १९ ... निरन्तर १९ ... ४८ क्षुद्रभव अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे ४९ असं.पु.परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
वनस्पति साधारण निगो. ... १९ ... " १९ ... ५१ " " ५२ असं.लोक पृथिवी आदि में भ्रमण
वन.नि.बा.सू.प.अप. ... १९ ... " १९ ... ५१ " " ५२ " "
वन. प्रत्येक बा.प. ... १९ ... " १९ ... ५४ " " ५५ २.१/२ पु. परि. निगोदादि में भ्रमण
त्रस.सा.प.अप. ... १९ ... " १९ ... ५७ " " ५८ असं.पु.परि. वनस्पति आदि स्थावरों में भ्रमण
त्रस ल. अप. ... ... " ... " " " "
चार स्थावर बा.सू.प. अप. १ १३० ... " १३० ... १३१ " " १३२ " अविवक्षित वनस्पति में भ्रमण
वन.नि.सा.बा.सू.प.अप. १ १३३ ... " १३३ ... १३४ " " १३५ असं.लोक चार स्थावरों में भ्रमण
वन.प्रत्येक सा.प. अप. १ १३६ ... " १३६ ... १३७ " " १३८ २.१/२ पु. परि. निगोदादि में भ्रमण
त्रस सा.प. १ १३९ - मूल ओघवत् १३९ - १३९ - मूल ओघवत् १३९ - मूल ओघवत्
२ १४० - " १४० - १४१ - " १४२ २००० सा+पू.को.पृ.-आ/असं-९ अंतर्मु. असंज्ञी पंचें. भव प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो त्रसों में भ्रमण कर अन्त में सासादन फिर स्थावर।
३ १४० - " १४० - १४१ - " १४२ " " १-२ अंतर्मू. "
४ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " "-१० अंतर्मू. "
५ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " ४८ दिन-१२ अंतर्मु. संज्ञी प्राप्त एकें. ५वाँ पा गिरे। भ्रमण। फिर संज्ञी पा ५वाँ प्राप्त करे।
६-७ १४३ - " १४३ - १४४ - " १४५ " ८ वर्ष-१० अंतर्मु. उपरोक्तवत् परन्तु एकें. से मनु. भव।
उपशमक ८-११ १४६ - " १४६ - १४७ - " १४८ नोट :- १० अंतर्मु. के स्थानपर क्रमशः ३०, २८, २६, २४ करें
क्षपक ८-१४ १४९ - " १४९ - १४९ - " १४९ - मूल ओघवत्
त्रस ल. अप. १ १५१ ... " १५१ ... १५१ ... निरन्तर १५१ ... निरन्तर
४. योग मार्गणा :-
पाँचों मन व वचन योग ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६० अन्तर्मुहूर्त एक समय अन्तर सम्भव नहीं ६१ असं.पु.परि. काययोगियों में भ्रमण
काययोग सा. ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६३ १ समय मरण पश्चात् भी पुनः काय योग होता ही है। ६४ अन्तर्मुहूर्त योग परिवर्तन
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
औदारिक ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६६ १ समय मरकर जन्मते ही काय योग होता ही है ६७ ३३ सा.+९ अंतर्मु.+२ समय औ. से चारों मनोयोग फिर चारों वचन योग फिर सर्वार्थसिद्धि देव, फिर मनुष्य में अन्तर्मु. तक औ. मिश्र, फिर औदारिक.
औदारिक मिश्र ... २२ ... निरन्तर २२ ... ६६ " विग्रह गति में १ समय कार्मण फिर औ. मिश्र ६७ ३३ सा.+पू.को.+अन्तर्मु. "
वैक्रियक ... २२ ... " २२ ... ६९ ... व्याघात की अपेक्षा ७० असं.पु.परि. औ.काययोगियों में भ्रमण
वैक्रियिक मिश्र ... २५ १ समय ... २६ १२ मुहूर्त्त ७२ साधिक १०००० वर्ष नारकी व देवों में जा वहाँ से आ पुनः वहाँ ही जानेवाले मनु.व.ति. ७३ " "
आहारक ... २८ " ... २९ वर्ष पृ. ७५ अन्तर्मुहूर्त ... ७६ अर्ध.पु.परि. ८ अन्त. ...
आहारक मिश्र ... २८ " ... २९ " ७५ " ... ७६ "-७ अन्तर्मु. ...
कार्मण ... २२ ... निरन्तर ... ७८ क्षुद्र भव-३ समय ... ७९ असं. X असं. उत्. अवसर्पिणी बिना मोड़े की गति से भ्रमण
मनो वचन सा. व चारों प्रकार के विशेष १ १५३ ... निरन्तर १५३ ... १५३ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १५३ ... निरन्तर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है।
तथा काय सा. व. औ. ४-७ " ... " " ... " ... " " ... "
१३ ... " " ... " ... " " ... "
२-३ १५४ - मूलोघवत् १५५ - १५६ - " १५६ ... "
उपशमक ८-११ १५७ - " १५७ - १५८ ... " १५८ ... "
क्षपक ८-१२ १५९ - " १५९ - १५९ - मूल ओघवत् १५९ - मूल ओघवत्
औ. मिश्र १ १३० ... निरन्तर १६० ... १६० ... निरन्तर १६० ... निरन्तर
२ १६१ - मूलोघवत् १६१ - १६२ ... निरन्तर १६२ ... मिश्र योग में अन्य योग रूप परि. भी नहीं तथा गुणस्थान परि. भी नहीं
४ १६३ १ समय देखें टिप्पण १६४ वर्ष पृ. १६५ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १६५ ... "
१३ १६६ १ समय १६७ वर्ष पृ. १६८ ... " १६८ ... "
वैक्रियिक १-४ १६९ - मनोयोगवत् १६९ - १६९ - मनोयोगवत् १६९ - मनोयोगवत्
वै. मिश्र १ १७० १ समय १७१ १२ मुहूर्त्त १७२ ... निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १७२ ... औ. मिश्र के सासादनवत्
२-४ १७३ - औ. मिश्रवत् १७३ - १७३ - औ. मिश्रवत् १७३ - औ. मिश्रवत्
आहारक व मिश्र ६ १७४ १ समय ... १७५ वर्ष पृ. १७६ - निरन्तर (उत्कृष्टवत्) १७६ ... औ. मिश्र के सासादनवत्
कार्मण १,२,४,१३ १७७ - औ.मिश्रवत् १७७ - १७७ ... " १७७ ... "
१ समय अन्तर = असंयत सम्यग्दृष्टि देव नरक व मनु. का मनु. में उत्पत्ति के बिना और असं. मनुष्यों का तिर्यंचों में उत्पत्ति के बिना वर्ष पृ. अन्तर = असंयत सम्यग्दृष्टियों का इतने काल तक तिर्यंच मनुष्यों में उत्पाद नहीं होता।
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
५. वेद मार्गणा :-
स्त्रीवेद सा. ... ३१ ... निरन्तर ३१ ... ८१ क्षुद्र भव ८२ असं.पु.परि. नपुं.वेदी एकेन्द्रियों में भ्रमण
पुरुषवेद सा. ... ३१ ... निरन्तर ३१ ... ८४ १ समय उपशम श्रेणी से उतरते हुए मृत्यु ८५ " "
नपुंसकवेद सा. ... ३१ ... " ३१ ... ८७ अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव में भी नपुं. है। ८८ १०० सा.पृ. अविवक्षित वेदों में भ्रमण
अपगतवेद उप. ... ३१ ... " ३१ ... ९० " उपशम से उतरकर पुनः आरोहण ९१ कुछ कम अर्ध. पु. परि.
" क्षपक ... ३१ ... " ३१ ... ९२ ... पतन का अभाव ९२ ... पतन का अभाव
१. स्त्रीवेद १ १७८ ... " १७८ ... १७९ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन १८० ५५ पल्य-५ अन्तर्मु. २८/ज.पुं. वेदी मनु. देवियों में जो गुणस्थान परिवर्तन कर पुनः मनुष्य
२ १८१ - मूलोघवत् १८१ - १८२ पल्य/असं. मूल ओघवत् १८३ पल्यशत पृ.-२ समय सासादन की १ समय स्थिति रहनेपर अन्य वेदी स्त्रीवेद सा. में उपजा। च्युत हो स्त्रीवेदियों में भ्रमण। भवान्त में सासादन हो देवों में जन्म।
३ १८१ - " १८१ - १८२ अन्तर्मुहूर्त " १८३ "-६ अंतर्मु. " (परन्तु देवियों में जन्म)
४ १८४ ... निरन्तर १८४ ... १८५ " " १८६ "-५ अन्तर्मु. "
५ १८४ ... " १८४ - १८५ " " १८६ "-(२ मास+दिवस पृ.+२ अंतर्मु.) "(स्त्रीवेदी सामान्य में उत्पन्न कराना)
६-७ १८४ " " १८४ ... १८५ " " १८६ "-(८ वर्ष+३३ अंत.) "(स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न कराना)
उपशमक ८ १८७ - मूल ओघवत् १८७ - १८८ " " १८९ "-(८ वर्ष+१३ अंत.) " (")
" ९ १८७ ... " १८७ - १८८ " " १८९ "-(८ वर्ष+१२ अंत.) " (")
क्षपक ८-९ १९० १ समय अप्रशस्त वेद में अधिक नहीं होते १९१ वर्ष पृ. १९२ ... पतन का अभाव १९२ ... पतन का अभाव
२. पुरुषवेद १ १९३ - मूलोघवत् १९३ १९३ - मूलोघवत् १९३ - मूलोघवत्
२ १९४ १ समय " १९५ पल्य/असं. १९६ पल्य/असं. " १९७ पल्यशत पृ.-२ समय स्त्रीवेदीवत् (परन्तु देवियों में जन्म)
३ १९४ " " १९५ " १९६ अन्तर्मुहूर्त " १९७ "-६ अन्तर्मु. "
४ १९८ ... निरन्तर १९८ ... १९९ " " २०० "-५ " "
५ १९८ ... " १९८ ... १९९ " " २०० "-(२मा. ३दि. ११ अंत.) "
६-७ १९८ ... " १९८ ... १९९ " " २०० "-(८ वर्ष १० अं.+६ अं.) "
उपशमक ८ २०१ - मूलोघवत् २०१ - २०२ " " २०३ "-(८ वर्ष २९ अंत.) "
" ९ २०१ - " २०१ - २०२ " " २०३ "-(८ वर्ष २७ अंत.) "
क्षपक (दृष्टि १) ८-९ २०४ १ समय स्त्री व नपुंसक रहते हैं २०५ साधिक १ वर्ष ६ मास २०६ ... पतन का अभाव २०६ ... पतन का अभाव
" (दृष्टि २) ८-९ २०५ " स्त्री व नपुं. नहीं २०५ " २०६ ... " ... "
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
३. नपुंसक वेद १ २०७ ... निरन्तर २०७ ... २०८ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् २०९ ३३ सा.-६ अन्तर्मु. २८/ज. ७ वीं पृथिवी में उपज सम्यक्त्व पा भव के अन्त में पुनः मिथ्यादृष्टि
२-७ २१० - मूलोघवत् २१० - २१० - " २१० - मूलोघवत्
उपशमक ८-९ २१० - " २१० - २१० - " २१० - "
क्षपक ८-९ २११ १ समय स्त्रीवेदीवत् २१२ वर्ष पृ. २१३ ... पतन का अभाव २१३ ... पतन का अभाव
४. अपगत वेद उप. ९-१० २१४ " मूलोघवत् २१५ " २१६ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् २१७ अन्तर्मुहूर्त गिरनेपर अपगत वेदी नहीं रहता
११ २१८ " ऊपर चढ़कर गिरे २१९ " २२० ... वेद का उदय नहीं २२० ... इस स्थान में वेद का उदय नहीं
" क्षपक ९-१४ २२१ - मूलोघवत् २२१ - २२१ - मूलोघवत् २२१ - मूलोघवत्
६. कषाय मार्गणा-
क्रोध ... ३४ ... निरन्तर ३४ ... ९४ १ समय कषाय परि. कर मरे, नरक में जन्म ९५ अन्तर्मुहूर्त किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं
मान ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " मनु. जन्म व्याघात नहीं ९५ " "
माया ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " ति. जन्म व्याघात नहीं ९५ " "
लोभ ... ३४ ... " ३४ ... ९४ " " देव जन्म व्याघात नहीं ९५ " "
उपशान्त कषाय ... - मूलोघवत् - ९६ अन्तर्मुहूर्त उपशम श्रेणी से उतर पुनः आरोहण ९६ कुछ कम अर्ध. पु. परि.
क्षीण कषाय ... - - ९६ ... पतन का अभाव ९६ ... पतन का अभाव
चारों कषाय १-१० २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - मनोयोगीवत्
उपशमक ८-१० २२३ - मनोयोगीवत् २२३ - २२३ - " २२३ - "
क्षपक ८-१० २२३ - " २२३ - २२३ - " २२३ - "
अकषाय ११ २२४ १ समय उपशम श्रेणी के कारण २२५ वर्ष पृ. २२६ ... नीचे उतरने पर अकषाय नहीं रहता २२६ ... नीचे उतरने पर अकषाय नहीं रहता
" १२-१४ २२७ - मूलोघवत् २२७ - २२७ - मूलोघवत् २२७ - मूलोघवत्
७. ज्ञान मार्गणा-
मति. श्रुत अज्ञान ... ३७ ... निरन्तर ३७ - ९८ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ९९ १३२ सा. सम्यक्त्व के साथ ६६ सा. रह सम्यग्मि. में जा पुनः सम्यक्त्व के साथ ६६ सा.। फिर मिथ्या.
विभंग ... ३७ ... " ३७ ... १०१ " " १०२ असं. पु. परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
मति, श्रुत, अवधिज्ञान ... ३७ ... " ३७ ... १०४ " " १०५ कुछकम अर्ध.पु.परि. सम्यक्त्व से च्युत हो भ्रमण, पुनः सम्य.
मनःपर्यय ... ३७ ... " ३७ ... १०४ " " १०५ " "
केवल ... ३७ ... पतन का अभाव ३७ ... १०७ ... पतन का अभाव १०७ ... पतन का अभाव
कुमति, कुश्रुत व विभंग १ २२९ ... निरन्तर २२९ ... २२९ ... निरन्तर २२९ ... निरन्तर
२ २३० - मूलोघवत् २३० - २३१ ... " २३१ निरन्तर इस गुणस्थान में अज्ञान ही, होता ज्ञान नहीं.
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
मति-श्रुतज्ञान ४ २३२ ... निरन्तर २३२ ... २३३ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २३४ १ पू.को.-४ अन्तर्मु. २८/ज. सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकों में उपज ४थे ५वें में रहकर मरे देव होय
५ २३५ ... " २३५ ... २३६ " " २३७ ६६ सा.+३ पू.को. -८ वर्ष ११ अन्तर्मु. २८/ज. मनुष्य हो ५ वाँ ६ ठा धार उत्कृष्ट स्थिति पश्चात् देव हुआ। वहाँ से चय मनुष्य हो छठा धार पुनः देव हुआ। वहाँ से चय मनुष्य हो ५ वाँ फिर ६ ठा धार मुक्त हुआ
६-७ २३८ ... " २३८ ... २३९ " " २४० ३३ सा.+पू.को.-३.१/२ व ५.१/२ अन्तर्मु. ६ठे से ऊपर जा मरा, देव हो, मनु. हुआ। भव के अन्त में पुनः ६ठा उपशमक ८-११ २४१ १ समय मूलोघवत् २४२ वर्ष पृ. २४३ " " २४४ ६६सा.+३ पू. को. श्रेणी परि.कर नीचे आ असंयत हो मनुष्य
क्षपक ८-१२ - " - - मूल ओघवत् -८ वर्ष २६ अन्तर्मु. अनुत्तर देवों में उपजा। वहाँ से मनु. संयत, पुनः अनुत्तर देव। फिर मनु. उप.। पीछे नीचे आ क्षपक हो मुक्त हुआ।
अवधिज्ञान ४ २३२ ... निरन्तर २३२ ... २३३ " गुणस्थान परिवर्तन २३४ १ पू.को.-५ अन्तर्मु. मतिज्ञानवत् (सम्य.के साथ अवधिभी हुआ)
५ २३५ ... निरन्तर २३५ ... २३६ " " २३७ ६६ सा.+३पू.को. - ८ वर्ष १२ अन्तर्मु. "
६-७ २३८ - मति-श्रुतवत् - २३९ - मति-श्रुतवत् २३९ - मतिश्रुतवत्
उपशमक ८-११ २४५ १ समय ऐसे जीव कम होते हैं २४५ वर्ष पृ. २४५ ... पतन का अभाव २४५ ... पतन का अभाव
क्षपक ८-१२ २४५ - मूलोघवत् २४५ - २४५ - मूलोघवत् २४५ - मूलोघवत्
मनःपर्यय ६-७ २४६ ... निरन्तर २४६ ... २४७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २४८ अन्तर्मुहूर्त ६ ठें से ७ वाँ और ७वें से ६ठा
उपशमक ८-११ २४९ १ समय मूलोघवत् २५० वर्ष पृ. २५१ " " २५२ पू.को.-८ वर्ष-क्रमशः १२, १०, ९, ८ अन्तर्मु. उप. श्रेणीप्राप्त मनुष्य गुणस्थान परि. कर भव के अन्त में पुनः श्रेणी चढ़ मरे, देव हो
क्षपक ८-१२ २५३ " " २५४ " २५५ ... पतन का अभाव २५५ ... पतन का अभाव
केवलज्ञान १३-१४ २५६ - " २५६ - २५६ - मूलोघवत् २५६ - मूलोघवत्
८. संयम मार्गणा :-
संयम सामान्य ... ४० ... निरन्तर ... १०९ अन्तर्मुहूर्त असंयत हो पुनः संयत ११० कुछ कम अर्ध.पु.परि.
सामायिक छेदो, ... ४० ... निरन्तर ... १०९ " सूक्ष्म साम्य, हो पुनः सामा- ११० " "-अन्तर्मु. उप. सम्य. व संयम का युगपत् ग्रहण
परिहारविशुद्धि ... ४० ... " ... १०९ " सामा. छेदो. हो पुनः परिहार विशुद्धि ११० "-३० वर्ष-अन्तर्मु. सम्य. के ३० वर्ष पश्चात् परिहार विशुद्धिका ग्रहण
सूक्ष्मसाम्पराय उप. ... ४३ १ समय ४४ ६ मास ११२ " उपशान्तकषाय हो पुनः सूक्ष्मसाम्पराय ११३ अर्ध पु.परि.-अंत उप. सम्य व संयम का युगपत् ग्रहण। तुरत श्रेणी। गिरकर भ्रमण। पुनः श्रेणी।
" " क्षप. ... ४३ " ४४ " ११४ ... पतन का अभाव ११४ ... पतन का अभाव
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
यथाख्यात उप. ... ४० ... निरन्तर ४० ... ११२ अंतर्मुहूर्त सूक्ष्मसाम्पराय हो पुनः यथा. ११३ अर्ध.पु.परि.-अंतर्मुहूर्त मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण
क्षप. ... ४० ... " ४० ... ११४ ... पतन का अभाव ११४ ... पतन का अभाव
संयतासंयत ... ४० ... " ४० ... १०९ अंतर्मुहूर्त असंयत हो पुनः संयतासंयत ११० कुछ कम अर्ध. पु. परि. मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण
असंयत ... ४० ... " ४० ... ११६ " संयतासंयत हो पुनः असंयत ११७ १ पू.को.-अंतर्मु. संयतासंयत हो देवगति में उत्पत्ति
सामान्य व उप. ६-११ २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत् २५८ - २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत् २५८ - मनःपर्ययज्ञानीवत्
क्षप. ८-१३ २५९ ... मूलोघवत् २५९ - २५९ - मूलोघवत् २५९ - मूलोघवत्
सामायिक छेदो. ६-७ २६१ ... निरन्तर २६१ ... २६२ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परि. २६३ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परिवर्तन
उपशमक ८-९ २६४ १ समय मूलोघवत् २६५ वर्ष पृ. २६६ " श्रेणी से उतरकर पुनः चढ़नेवाले २६७ पू.को.-८ वर्ष-११ अंतर्मु. व ९ अंतर्मु. श्रेणी चढ़ फिर प्रमत्त अप्रमत्त हो भव के अन्त में पुनः श्रेणी चढ़ मरे देव हो
क्षपक ८-९ २६८ - मूलोघवत् २६८ - २६८ - मूलोघवत् २६८ - मूलोघवत्
परिहार विशुद्धि ६-७ २६९ ... निरन्तर २६९ ... २७० अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परि. २७१ अंतर्मुहूर्त परस्पर गुणस्थान परिवर्तन
सूक्ष्मसाम्पराय उप. १० २७२ १ समय मूलोघवत् २७३ वर्ष पृ. २७४ ... अन्य गुण. सम्भव नहीं २७४ ... अन्य गुणस्थान में सम्भव नहीं
" क्षप. १० २७५ - " २७५ - २७५ - मूलोघवत् २७५ - मूलोघवत्
यथाख्यात उप. क्षप. ११-१४ २७६ - अकषायवत् २७६ ... २७६ - अकषायवत् २७६ - अकषायवत्
संयतासंयत ५ २७७ ... निरन्तर २७७ ... २७७ ... अन्य गुण. सम्भव नहीं २७७ ... अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं
असंयत १ २७८ ... निरन्तर २७८ - २७९ अंतर्मुहूर्त १ले व ४थे में गुण. परि. २८० ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ. को प्राप्त मिथ्यात्वी सम्यक्त्व धार भव के अन्त में पुनः मिथ्यात्व
२-४ २८१ - मूलोघवत् २८१ - २८१ - मूलोघवत् २८१ ४थे में ११ की बजाये १५ अंतर्मु. शेष मूलोघवत्
९. दर्शन मार्गणा :-
चक्षुदर्शन सा. ... ४६ ... निरन्तर ४६ ... ११९ क्षुद्रभव १२० असं. पु. परि. अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
अचक्षुदर्शन सा. ... ४६ ... " ४६ ... १२२ ... संसारी जीव को सदा रहता है १२२ ... संसारी जीव को सदा रहता है
अवधिदर्शन ... ४६ ... " ४६ ... १२३ अंतर्मुहूर्त अवधिज्ञानवत् १२३ कुछ कम अर्ध.पु.परि. अवधि ज्ञानवत्
केवलदर्शन ... ४६ ... " ४६ ... १२४ - केवलज्ञानवत् १२४ - केवलज्ञानवत्
चक्षुदर्शन १ २८२ - मूलोघवत् २८२ - २८२ - मूलोघवत् २८२ - मूलोघवत्
२ २८३ - मूलोघवत् २८३ - २८४ - " २८५ २००० सा.-आ/असं.-९ अंतर्मु. अचक्षु से असंज्ञी पंचें. सासादन हो गिरा चक्षु दर्शनियों में भ्रमण। अंतिम भव में पुनः सासादन।
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
चक्षुदर्शन ३ २८३ - मूलोघवत् २८३ - २८४ - मूलोघवत् २८५ २००० सा. -१२ अंतर्मु. उपरोक्त जीव भवनत्रिक में जा उप. सम्य. पूर्वक मिश्र हो गिरे। स्वस्थिति प्रमाणभ्रमण। अंतिम भव के अंत में पुनः मिश्र।
४ २८६ ... निरन्तर २८६ ... २८७ अंतर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २८८ २००० सा. -१० अंतर्मु. उपरोक्त मिश्रवत्
५ २८६ ... निरन्तर २८६ ... २८७ अंतर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २८८ २०००-४८ दिन -१२ अंतर्मु. अचक्षुदर्शनी गर्भज संज्ञी में उपज उप. सम्य. पूर्वक ५वाँ धार गिरा। स्वस्थिति प्रमाण भ्रमण। अन्तिम भव के अन्त में वेदक सहित संयमासंयम।
६-७ २८६ ... " २८६ ... २८७ " " २८८ "-८वर्ष-१० अंतर्मु. " (परन्तु प्रथम व अन्तिम भव में मनुष्य)
उपशमक ८-११ २८९ - मूलोघवत् २८९ - २९० " " २९१ "-"-क्रमशः २९, २७, २५, २३, अंतर्मु. " "
क्षपक ८-१२ २९२ - " २९२ - २९२ - मूलोघवत् २९२ - मूलोघवत्
अचक्षुदर्शन १-१२ २९३ - " २९३ - २९३ - मूलोघवत् २९३ - "
अवधिदर्शन ४-१२ २९४ - अवधिज्ञानवत् २९४ - २९४ - अवधिज्ञानवत् २९४ - अवधिज्ञानवत्
केवलदर्शन १३-१४ २९५ - केवलज्ञानवत् २९५ - २९५ - केवलज्ञानवत् २९५ - केवलज्ञानवत्
१० लेश्यामार्गणा :-
कृष्ण ... ४९ ... निरन्तर ४९ ... १२६ अंतर्मुहूर्त नील में जा पुनः कृष्ण १२७ ३३ सा.+१ पू.को. -८ वर्ष + १० अंतर्मु. ८ वर्ष में ६ अंतर्मु. शेष रहने पर कृष्ण हो अन्य पाँचों लेश्याओं में भ्रमणकर, संयम सहित १ पू.को. रह देव हुआ। वहाँ से आ पुनः कृष्ण।
नील ... ४९ ... " ४९ ... १२६ " कापोत हो पुनः नील १२७ "+"-"+८ अंतर्मु. "
कापोत ... ४९ ... " ४९ ... १२७ " तेज हो पुनः कापोत १२७ "+"-"+ ६ अंतर्मु. "
तेज ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " १३० असं.पु.परि.
गो. सा.१३० आ/असं.पु.परि.+असं.पु.परि. सं. सहस्रवर्ष+६ अंतर्मु.
पद्म ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " गो. सा. १३० आ/असं.पु.परि.+असं.पु.परि. सं. सहस्रवर्ष+पल्य/असं+२सा.+५ अंत.
शुक्ल ... ४९ ... " ४९ ... १२९ " गो. सा.१३० असं.पु.परि. ...
गो. सा. पद्मवत् परन्तु ५ अंतर्मु. की जगह ७ अंतर्मु.
कृष्ण १ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ. में उपज सम्य.। भवान्त में मिथ्या.
२ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-५ अंतर्मु. " (परन्तु सम्य. से मिथ्या. कराकर भव के अन्त में सम्य. कराना)
३ २९९ " " २९९ " ३०० अंतर्मुहूर्त " ३०१ "-६ अंतर्मु. " "
४ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-८ अंतर्मु. ७वीं पृ. में उपज सम्य. धार मिथ्या. हुआ। भव के अन्त में पुनः सम्य.।
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
नील १ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन २९८ १७ सा.-४ अंतर्मु. कृष्णवत्पर ७वीं की अपेक्षा ५ वीं पृ.
२ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-४" "
३ २९९ " " २९९ " ३०० अन्तर्मुहूर्त " ३०१ "-६" "
४ २९६ ... निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-६" "
कापोत १ २९६ ... " २९६ ... २९७ " " २९८ ७ सा.-४" कृष्णवत्पर ७वीं की अपेक्षा १ ली. पृ.
२ २९९ १ समय मूलोघवत् २९९ पल्य/असं. ३०० पल्य/असं. मूलोघवत् ३०१ "-४" "
३ २९९ " " २९९ " ३०० अन्तर्मुहूर्त " ३०१ "-६" "
४ २९६ " निरन्तर २९६ ... २९७ " गुणस्थान परिवर्तन २९८ "-६" "
तेज १ ३०२ ... " ३०२ ... ३०३ " " ३०४ साधिक २ सा. - ४ अंतर्मु. २ सागर आयुवाले देवों में उत्पन्न मिथ्या. सम्य. धारे; भवान्त में पुनः मिथ्या
२ ३०५ १ समय मूलोघवत् ३०५ पल्य/असं. ३०६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३०७ "-२ समय "
३ ३०५ " मूलोघवत् ३०५ " ३०६ अन्तर्मुहूर्त " ३०७ "-६ अंतर्मु. "
४ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " गुणस्थान परिवर्तन ३०४ "-५ अंतर्मु. " (परन्तु मिथ्यात्व प्राप्त को भवान्त में सम्य)
पद्म १ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " " ३०४ साधिक १८ सा.- ४ अंतर्मु. तेजवत्पर ७ की बजाये १८ सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति
२ ३०५ १ समय मूलोघवत् ३०५ पल्य/असं. ३०६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३०७ "-२ समय "
३ ३०५ " " ३०५ " ३०६ अन्तर्मुहूर्त " ३०७ "-६ अंतर्मु. "
४ ३०२ ... निरन्तर ३०२ ... ३०३ " गुणस्थान परिवर्तन ३०४ "-५ अंतर्मु. "
तेज व पद्म ५-७ ३०८ ... " ३०८ ... ३०८ ... लेश्याकाल से गुणस्थानका काल अधिक है ३०८ ... लेश्या काल से गुणस्थान का काल अधिक है।
शुक्ल १ ३०९ ... " ३०९ ... ३१० अन्तर्मुहूर्त देवों में गुणस्थान परि. ३११ ३१ सा.-४ अंतर्मु. द्रव्य लिंगी उपरिम ग्रैवेयक में जा सम्य. धार भव के अन्त में पुनः मिथ्या.
२ ३१२ १ समय मूलोघवत् ३१२ पल्य/असं. ३१३ पल्य/असं. मूलोघवत् ३१४ "-५ अंतर्मु. " (यथायोग्य)
३ ३१२ " " ३१२ " ३१३ अन्तर्मुहूर्त " ३१४ "-५ " "
४ ३०९ ... निरन्तर ३०९ ... ३१० " देवों में गुणस्थान परि. ३११ "-५" " (परन्तु सम्य. से मिथ्या. भवान्त में सम्य.)
५-६ ३१५ ... निरन्तर ३१५ ... ३१५ ... लेश्या का काल गुणस्थान से कम है ३१५ ... लेश्या का काल गुणस्थान से कम है
७ ३१६ ... " ३१६ ... ३१७ अन्तर्मुहूर्त ७ वें पूर्वक उपशम श्रेणी पर चढ़कर उतरे ३१८ अन्तर्मुहूर्त उप. श्रेणी से उतरकर प्रमत्त हो पुनः चढ़े
उपशमक ८-१० ३१९ १ समय मूलोघवत् ३२० वर्ष पृ. ३२१ " लघु काल से चढ़कर उतरे ३२२ " दीर्घ काल से गिरकर चढ़े
११ ३२३ " " ३२४ " ३२५ ... गुणस्थान का काल लेश्यासे अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदले ३२५ ... गुणस्थान का काल लेश्या से अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदल जाये
क्षपक ८-१३ ३२६ - मूलोघवत् ३२६ - ३२६ - मूलोघवत् ३२६ - मूलोघवत्
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
११. भव्यत्व मार्गणा :
भव्याभव्य सा. ... ५२ ... निरन्तर ५२ ... १३२ ... अन्योन्य परिवर्तनाभाव १३२ ... अन्योन्य परिवर्तन का अभाव
भव्य १-१४ ३२८ - मूलोघवत् ३२८ - ३२८ - मूलोघवत् ३२८ - मूलोघवत्
अभव्य १ ३२९ " निरन्तर ३२९ ... ३३० ... परिवर्तन का अभाव ३३० ... परिवर्तन का अभाव
१२ सम्यक्त्व मार्गणा
सम्यक्त्व सा. ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३४ अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्व हो पुनः सम्य. १३५ कुछ कम अर्ध. पु. परि. भ्रमण
क्षायिक सा. ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३७ ... पतन का अभाव १३७ ... पतन का अभाव
प्रथमोपशम ... १ समय सासादनवत् पल्य/असं. पल्य/असं. (दे. अंतर २/६) कुछ कम अर्ध पु. परि. परिभ्रमण
द्वितीयोपशम ... ५८ " ५९ ७ रात-दिन १३४ अन्तर्मुहूर्त उप. श्रेणीसे उतर वेदक हो पुनः उप. श्रेणी १३५ " "
वेदक ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १३४ " मिथ्यात्व हो पुनः सम्य. १३५ " "
सासादन ... ६१ १ समय मूलोघवत् ६२ पल्य/असं. १३९ पल्य/असं. मूलोघवत् १४० " "
सम्यग्मिथ्यात्व ... ६१ " " ६२ " १३४ अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्व हो पुनः ३रा १३५ " मिथ्यात्व में ले जाकर चढ़ाना
मिथ्यादर्शन ... ५५ ... निरन्तर ५५ ... १४१ " मति अज्ञानवत् १४१ १३२ सागर मति अज्ञानवत्
सम्यक्त्व सा. ४ ३३१ ... निरन्तर ३३१ ... ३३२ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३३३ पू.को.पृ.-४ अंतर्मु. २८/ज संज्ञी सम्मूर्च्छिम हो वेदक सम्य.पा. ५ वां धार मरा देव हुआ। मिथ्या दर्शन में ले जाने से मार्गणा नष्ट होती है।
५-७ ३३४ - अवधिज्ञानवत् ३३४ - ३३४ - अवधिज्ञानवत् ३३४ - अवधिज्ञानवत्
उपशमक ८-११ ३३४ - " ३३४ - ३३४ - " ३३४ - "
क्षपक ८-१४ ३३५ - मूलोघवत् ३३५ - ३३५ - मूलोघवत् ३३५ - मूलोघवत्
क्षायिक सम्यक्त्व ४ ३३७ ... निरन्तर ३३७ ... ३३८ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३३९ पू.को.-८ वर्ष-२ अंत. २८/ज. मनुष्य असंयत हो ऊपर चढ़े
५ ३४० ... निरन्तर ३४० ... ३४१ " " ३४२ ३३ सा.+२ पू. को.-८ वर्ष-१४ अंतर्मु. " पर अनुत्तर देव हो। चयकर मनु. हो। भवान्त में ५वाँ व ६ठा धार मुक्त।
६-७ ३४० ... " ३४० ... ३४१ " " ३४२ ३३ सा. +१ पू.को. -८ वर्ष-१ अंतर्मु. " (परन्तु प्रथम मनुष्य भव के अंत में भी संयत बनाना)
उपशमक ८-११ ३४३ १ समय मूलोघवत् ३४४ वर्ष पृ. ३४५ " ऊपर नीचे दोनों ओर परिवर्तन ३४६ " (१ अंतर्मु. की जगह क्रमशः २७, २५, २३, २१ अंतर्मु.)
क्षपक ८-१४ ३४७ - मूलोघवत् ३४७ - ३४७ - मूलोघवत् ३४७ - मूलोघवत्
वेदक सम्यक्त्व ४ ३४९ - सम्यक्त्व सा. वत् ३४९ - ३४९ - सम्यक्त्व सामान्यवत् ३४९ - सम्यक्त्व सामान्यवत्
५ ३५० ... निरन्तर ३५० ... ३५१ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३५२ ६६ सा.-३ अंतर्मु. वेदक ५ वाँ मनु. भव के आदि में संयम पा मरे; अनुत्तर देव हो, फिर मनु., संयत, देव, पुनः मनु.। वेदक काल की समाप्ति के निकट संयतासंयत हो क्षायिक, संयत बन मोक्ष।
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
वेदक सम्य. ६-७ ३५३ ... निरन्तर ३५३ ... ३५४ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३५५ ३३ सा.+पू.को.-क्रमशः ७ व ८ अंत. संयतासंयतवत् पर १ बार भ्रमण (६ठे में ७ अंत. और ७वें में ८ अंत.) सासादन मूलोघवत्
प्रथमोपशम* (दे. नीचे) सामान्य १ समय सासादनवत् पल्य/असं.- पल्य/असं. सासादन मूलोघवत् अर्ध पु. परि. सासादन मूलोघवत्
उपशमसामान्य ४ ३५६ १ समय निरन्तर नहीं होते ३५७ ७ दिन रात ३५८ अन्तर्मुहूर्त श्रेणी से उतर ४ थे व ५वें में परिवर्तन ३५९ अंतर्मुहूर्त श्रेणी से उतर ४, ५, ७, ६ में जा पुनः ४ था
५ ३६० " ३६१ १४ " ३६२ " " ३६३ " " " ५, ७, ६, ४ में " ५वाँ।
६-७ ३६४ " ३६५ १५ " ३६६ " ६-७ में गुणस्थान परि. ३६७ " " " ६, ५, ४, ५, ७ और फिर ६ठा " " ७, ६, ४, ५ और फिर ७वाँ
उपशमक ८-१० ३६८ " मूलोघवत् ३६९ वर्ष पृथ. ३७० " चढ़कर द्वि. बार उतरना ३७१ " चढकर प्रथम बार उतरना
११ ३७२ " मूलोघवत् ३७३ " ३७४ ... श्रेणी से उतरकर पुनः उसी सम्यक्त्व से ऊपर नहीं चढता ३७४ ... श्रेणी से उतर पुनः उसी सम्यक्त्व से ऊपर नहीं चढता
सासादन २ ३७५ " " ३७६ पल्य/असं. ३७७ ... गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है ३७७ ... गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है
सम्यग्मिथ्यात्व ३ ३७५ " " ३७६ " ३७७ ... " ३७७ ... "
मिथ्यादर्शन १ ३७८ ... विच्छेदाभाव ३७८ ... ३७८ ... अन्य गुणस्थान में संक्रमण नहीं होता ३७८ ... अन्य गुणस्थान में क्रमण नहीं होता
१३. संज्ञी मार्गणा
संज्ञी सामान्य ... ६४ ... निरन्तर ६४ ... १४३ क्षुद्रभव १४४ असं.पु.परि. असंज्ञियों में भ्रमण
असंज्ञी सामान्य ... ६४ ... निरन्तर ६४ ... १४६ " १४७ १०० सा. पृ. संज्ञियों में भ्रमण
संज्ञी १ ३७९ - मूलोघवत् ३७९ - ३७९ - मूलोघवत् ३७९ - मूलोघवत्
२-७ ३८० - पुरुषवेदवत् ३८० - ३८० - पुरुषवेदवत् ३८० - पुरुषवेदवत्
उपशमक ८-११ ३८० - " ३८० - ३८० - " ३८० - "
क्षपक ८-१२ ३८१ - मूलोघवत् ३८१ - ३८१ - मूलोघवत् ३८१ - मूलोघवत्
असंज्ञी १ ३८२ ... निरन्तर ३८२ ... ३८३ ... गुणस्थान परिवर्तनाभाव ३८३ ... गुणस्थान परिवर्तन का अभाव
१४. आहारक मार्गणा
आहारक सा. ... ६७ ... " ६७ ... १४९ ५ समय विग्रह गति में १५० ३ समय विग्रह गति में
अनाहारक सा. ... ६७ ... " ६७ ... १५१ क्षुद्रभव-३ समय कार्मण काययोगीवत् १५१ असंख्याता सं. उत्. अवसर्पिणी बिना मोड़ेकी गति से भ्रमण
आहारक १ ३८४ - मूलोघवत् ३८४ - ३८४ - मूलोघवत् ३८४ - मूलोघवत्
नोट - न. खं./१/६ में द्वितीयोपशम का कथन किया है, क्योंकि प्रथमोपशम से मिथ्यात्व की ओर ले जाने से मार्गणा विनष्ट हो जाती है। इसके कथन के लिए देखो अंतर २/६।
मार्गणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
मार्गणा गुण प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट प्रमाण जघन्य अपेक्षा प्रमाण उत्कृष्ट अपेक्षा
स्थान १ ३ १ ३ १ २ १ २
सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू. सू.
आहारक २ ३८५ १ समय मूलोघवत् ३८५ पल्य/असं. ३८६ पल्य/असं. मूलोघवत् ३८७ आहारक काल-२ समय या असंख्यातासं. उत्. अवसर्पिणी २ समय स्थिति वाला सासादन मरकर एक विग्रह से उत्पन्न होकर द्वितीय समय आहारक हो तृतीय समय मिथ्यात्व में गया। परिभ्रमण कर आहारक काल के अंत में उप. सम्य. को प्राप्त हो आहारक काल का एक समय शेष रहने पर पुनः सासादन।
३ ३८५ १ समय मूलोघवत् ३८५ पल्य/असं. ३८६ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३८७ आहारक काल-६ अंतर्मु. या असं. उत्. अवसर्पिणी २८/ज देवों में उत्पन्न हो सम्यग्मिथ्या, को प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो आहारक काल प्रमाण भ्रमण कर, उपशम पूर्वक सम्यग्मिथ्यात्व धार सम्य. या मिथ्या. होकर विग्रह गति में गया।
४ ३८८ ... निरन्तर ३८८ ... ३८९ अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन ३९० "-५ अंतर्मु. "
५ ३८८ ... निरन्तर ३८८ ... ३८९ " " ३९० " " " किन्तु संज्ञी सम्मूर्च्छिम तिर्यं. में उत्पन्न करा के प्रथम संयमासंयम ग्रहण कराना। फिर भ्रमण।
६-७ ३८८ ... " ३८८ ... ३८९ " " ३९० "-८ वर्ष-३ अंतर्मु. " परन्तु मनुष्यों में उत्पन्न करा के संयत बनाना। फिर भ्रमण
उपशमक ८-११ ३९१ - मूलोघवत् ३९१ - ३९२ अन्तर्मुहूर्त मूलोघवत् ३९३ "-८ वर्ष-क्रमशः १२, १०, ९, ८ अंतर्मु. प्रमत्ताप्रमत्तवत् (८वें में १२, ९वें में १०, १०वें में ९ ११वें में ८)
क्षपक ८-१३ ३९४ - " ३९४ - ३९४ - " ३९४ - मूलोघवत्
अनाहारक १,२,४,१३ ३९६ - कार्मण योगवत् ३९६ - ३९६ - कार्मण काययोगवत् ३९६ - कार्मण काययोगवत्
१४ ३९७ - मूलोघवत् ३९७ - ३९७ - मूलोघवत् ३९७ - मूलोघवत्
५. कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणा :-
नोट - उस उस विषय की प्ररूपणा के लिए देखो संकेतित प्रमाण अर्थात् शास्त्र में वह वह स्थल।
सं. विषय मूल प्रकृति की ओघ आदेश प्ररूपणा उत्तर प्रकृति की ओघ आदेश प्ररूपणा
नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया
(१) अष्ट कर्म प्रकृति बन्ध में अन्तर :- (महाबंध पुस्तक संख्या सू./पृ.)
१ ज.उ. १/३६५-३९०/२५०-२५८ १/८४-१२२/६९-९४
(२) अष्ट कर्म स्थिति बन्ध में अन्तर :- (महाबंध पुस्तक संख्या सू./पृ.)
१ ज.उ. २/२०४-२२०/११८-१२५ २/९७-१२५/५९-७७ २/५५५-५६४/२५६-२६० २/२१७-२९९/३६५-४३९
२ भुजगार. २/३२६-३३६/१६९-१७२ २/२८१-२९४/१५१-१५७ ३/७९६-८०६/३८०-३८५ ३/७३३-७६३/३३९-३६१
३ वृद्धि. २/४०३-४०४/२०२-२०३ २/३७०-३८२/१८८-१९४ ताड़ पत्र नष्ट हो गये ३/८८२-९१३/४१८-४४४
(३) अष्ट कर्म अनुभाग बन्ध में अन्तर :- (महाबंध पुस्तक संख्या सू.पृ.)
१ ज.उ. ४/२५४-२५८/११६-१२० ४/११८-१७९/४४-७४
२ भुजगार. ४/३००-३०१/१३८ ४/२७३-२८४/१२७-१३१
३ वृद्धि. ४/३३६/१६६ ४/३५९/१६३
(४) अष्ट कर्म प्रदेश बन्ध में अन्तर :- (महाबंध पुस्तक संख्या सू./पृ.)
१. ज.उ. ६/९५-९६/५०-५१ ६/९०-९३/४५-४८ ६/१४८-२६८/१५४
२ भुजगार. ६/१४०-१४१/७६-७७ ६/१०७-१२४/५७-६५
३ वृद्धि.
(५) अष्ट कर्म प्रकृति उदय में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ सामान्य १५/२८५ १५/२८५ १५/२८८ १५/२८८
(६) अष्ट कर्म स्थिति उदय में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ ज.उ. १५/२९१ १५/२९१ १५/२९५ १५/२९५
२ भुजगार. १५/२९४ १५/२९४ " "
३ वृद्धि. " " " "
(७) अष्ट कर्म अनुभाग उदय में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ ज.उ. १५/२९६ १५/२९६ १५/२९६ १५/२९६
२ भुजगार. " " " "
३ वृद्धि. " " " "
(८) अष्ट कर्म प्रदेश उदय में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ ज.उ. १५/२९६ १५/२९६ १५/३०९ १५/३०९
२ भुजगार. " " १५/३२९
३ वृद्धि. " "
(९) अष्ट कर्म प्रकृति उदीरणा में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ ज.उ. १५-४६-५० १५/४६-५० १५/६८-९७ १५/६८-९७
२ भुजगार. १५/५१-५२ १५/५१-५२ १५/९७ १५/९७
३ वृद्धि.
(१०) अष्ट कर्म स्थिति उदीरणा में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ ज.उ. १५/१४१ १५/१३०-१३७ १५/१४१ १५/१३०-१३९
२ भुजगार. १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२ १५/१६१-१६२
३ वृद्धि.
(११) अष्ट कर्म अनुभाग उदीरणा में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१. ज.उ. १५/२०८-२१० १५/१९९-२०३
२. भुजगार. १५/२३६ १५/२३३/२३४
३. वृद्धि.
(१२) अष्ट कर्म प्रदेश उदीरणा में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१. ज.उ. १५/२६१ १५/२६१
२. भुजगार. १५/२७४ १५/२७४
३. वृद्धि. " "
(१३) अष्टकर्म अप्रशस्त उपशमना में अन्तर:- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ प्रकृति के तीनों विकल्प १५/२७७ १५/२७७ १५/२७८-२८० १५/२७८-२८०
२ स्थिति के तीनों विकल्प १५/२८१ १५/२८१ १५/२८१ १५/२८१
३ अनुभाग के तीनों विकल्प १५/२८२ १५/२८२ १५/२८२ १५/२८२
४ प्रदेश के तीनों विकल्प
(१४) अष्टकर्म संक्रमण में अन्तर :- (धवला पुस्तक संख्या /पृ.)
१ प्रकृति के तीनों विकल्प १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४
२ स्थिति के तीनों विकल्प " " " "
३ अनुभाग के तीनों विकल्प " " " "
४ प्रदेश के तीनों विकल्प " " " "
(१५) मोहनीय प्रकृति सत्त्व में अन्तर :- (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या पैरापू.)
१ राग व द्वेष १/३९१/४०६-४०७ १/३७५
२ सामान्य २/६४/४४ २/१८४-१८५/१७३-१७५ २/१३५-१४१/१२३-१३०
३ सत्त्व स्थान. २/३७८-३८१/३४४-३५२ २/३०८-३२५/१८१-२६२
४ भुजगार. २/४६४-४६७/४१९-४२२ २/४३८-४४२/३९७-४०२
५ वृद्धि. २/५२९-५३१/४७५-४७८ २/४९८-५०४/४४९-४५५
(१६) माहनीय स्थिति सत्त्व में अन्तर :- (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या पैरा/पृ.)
१ ज.उ. स्थिति ३/२१८-२२२/१२३-१२५ ३/१८८-१९४/१०८-११० ३/१५५-१६३/८८-९३ ३/८३-९२/४७-५४
२ वृद्धि. आदि पद. ३/३२८-३४१/१८०-१८५ ३/२७३-२८९/१४९-१६०
३ ज.उ. स्थिति स्वामित्व ३/६७३-७०६/४०६-४२४ ३/५३८-५७२/३१६-३४५
४ भुजगार. ४/१४३-१६१/७४-८२ ४/७१-९१/४२-५०
५ वृद्धि. ४/- -४५८/२६०-२७४ ४/३१५-३५७/१९१-२२१
(१७) माहनीय अनुभाग सत्त्व में अन्तर :- (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या पैरा/पृ.)
१ ज.उ. ५/१३१-१३७/८५-९० ५/६०-८१/४३-५२ ५/२९१-३१८/२४१-२४९ ५/३०३-३२४/२०१-२१३
२ भुजगार. ५/१५९/१०६ ५/१४७-१५०/९७-९९ ५/५०५-५०८/२९५-२९७ ५/४८१-४८६/२८०-२८६
३ वृद्धि. ५/१८३/१२३-१२४ ५/१७४-१७६/११६/११८
४ वृद्धि आदि पद ५/५६२-५६५/३२६-३२८ ५/५४०-५४४/३१२-३१६
६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ :-
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७१/३७०-४२८ पाँचों शरीरोंके योग्य पुद्गल स्कन्धों को उत्कृष्ट अनृत्कृष्ट जघन्य संघातन-परिशातन व तदुभय कृति सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,२०१/११४-१२७/१४ जीवसमासों में अनुभाग बन्ध स्थानों के अन्तरका अल्प-बहुत्व।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,३१/१३२-१७२ प्रयोग कर्म, समवधानकर्म, अधःकर्म, तपःकर्म, ईर्यापथ कर्म, और क्रिया कर्म में १४ मार्गणाओं की अपेक्षा प्ररूपणा।
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,११६/१५०-१५१/९ तेइस प्रकार वर्गणाओं का जघन्य उत्कृष्ट अन्तर।
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,१६७/२८४-३०१/६ पाँचों शरीरों के स्वामियों के (२,३,४) भंगों का ओघ आदेश से जघन्य उत्कृष्ट अन्तर।