मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
No edit summary |
||
Line 11: | Line 11: | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> मुक्तियोग्य काल निर्देश</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> मुक्तियोग्य काल निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 </span><span class="SanskritText">कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अंत्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च सिध्यति । </span>= <span class="HindiText">काल की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नय से, जन्म की अपेक्षा सामान्यरूप में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दुःषमा के अंत भाग में और दुःषमा-सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुःषमा में उत्पन्न हुआ दुःषमा में सिद्ध नहीं होता । इस काल को छोड़कर अन्य काल में सिद्ध नहीं होता है । संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में सिद्ध होता है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/10/9/3/646/22 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 </span><span class="SanskritText">कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अंत्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च सिध्यति । </span>= <span class="HindiText">काल की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नय से, जन्म की अपेक्षा सामान्यरूप में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दुःषमा के अंत भाग में और दुःषमा-सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुःषमा में उत्पन्न हुआ दुःषमा में सिद्ध नहीं होता । इस काल को छोड़कर अन्य काल में सिद्ध नहीं होता है । संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में सिद्ध होता है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/10/9/3/646/22 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/553, 1239 </span><span class="PrakritGatha"> सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुव्वाणिं । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।553। तियवासा अडमासं पक्खं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिंदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।1239।</span> = <span class="HindiText">सुषमादुषमा नामक तीसरे काल के 8400,000 पूर्व, 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर भगवान् ॠषभदेव का अवतार हुआ ।553। तृतीयकाल में 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर ॠषभ जिनेंद्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहने पर वीरप्रभु सिद्धि को प्राप्त हुए ।1239। (और भी देखें [[ महावीर#1 | महावीर - 1]] | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/553, 1239 </span><span class="PrakritGatha"> सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुव्वाणिं । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।553। तियवासा अडमासं पक्खं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिंदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।1239।</span> = <span class="HindiText">सुषमादुषमा नामक तीसरे काल के 8400,000 पूर्व, 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर भगवान् ॠषभदेव का अवतार हुआ ।553। तृतीयकाल में 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर ॠषभ जिनेंद्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहने पर वीरप्रभु सिद्धि को प्राप्त हुए ।1239। (और भी देखें [[ महावीर#1 | महावीर - 1, 3]]) । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/41/78 </span><span class="SanskritText"> केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पंचमे युगे । </span>=<span class="HindiText"> पंचमकाल में प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा । </span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/41/78 </span><span class="SanskritText"> केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पंचमे युगे । </span>=<span class="HindiText"> पंचमकाल में प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-8, 11/ पृ.</span>/<span class="PrakritText">पंक्ति दुस्सम (दुस्समदुस्सम), सुस्समासुस्समा-सुसमदुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं । जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (246/1)...एदेण वक्खाणभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमत्थि । कुदा । एइंदियादो आगंतूणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसणमोहक्खवणदंसणादो । एवं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । </span>= <span class="HindiText">दुःषमा (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा है । जिस काल में जिन संभव हैं उस ही काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है (किन्हीं अन्य आचार्यों के), व्याख्यान के अभिप्राय से दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोह की क्षपणा नहीं होती है । अवशिष्ट दोनों कालों में अर्थात् सुषमादुःषमा और दुःषमासुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है । यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए । <br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1, 9-8, 11/ पृ.</span>/<span class="PrakritText">पंक्ति दुस्सम (दुस्समदुस्सम), सुस्समासुस्समा-सुसमदुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं । जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (246/1)...एदेण वक्खाणभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमत्थि । कुदा । एइंदियादो आगंतूणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसणमोहक्खवणदंसणादो । एवं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । </span>= <span class="HindiText">दुःषमा (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा है । जिस काल में जिन संभव हैं उस ही काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है (किन्हीं अन्य आचार्यों के), व्याख्यान के अभिप्राय से दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोह की क्षपणा नहीं होती है । अवशिष्ट दोनों कालों में अर्थात् सुषमादुःषमा और दुःषमासुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है । यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए । <br /> |
Revision as of 21:55, 25 November 2024
- मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद
तत्त्वार्थसूत्र/10/9 क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनानंतरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ।9। = क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अंतर, संख्या और अल्पबहुत्व इन द्वारा सिद्धजीव विभाग करने योग्य हैं ।
- मुक्तियोग्य क्षेत्र निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/11 क्षेत्रेण तावत्कस्मिन् क्षेत्रे सिध्यंति । प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रतिपंचदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । = क्षेत्र की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, सिद्धिक्षेत्र में, अपने प्रदेश में या आकाश प्रदेश में सिद्धि होती है । अतीतग्राही नय से जन्म की अपेक्षा पंद्रह कर्मभूमियों में और अपहरण की अपेक्षा मानुषक्षेत्र में सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/2/646/18 )।
- मुक्तियोग्य काल निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अंत्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च सिध्यति । = काल की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नय से, जन्म की अपेक्षा सामान्यरूप में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दुःषमा के अंत भाग में और दुःषमा-सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुःषमा में उत्पन्न हुआ दुःषमा में सिद्ध नहीं होता । इस काल को छोड़कर अन्य काल में सिद्ध नहीं होता है । संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में सिद्ध होता है । ( राजवार्तिक/10/9/3/646/22 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/553, 1239 सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुव्वाणिं । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।553। तियवासा अडमासं पक्खं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिंदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।1239। = सुषमादुषमा नामक तीसरे काल के 8400,000 पूर्व, 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर भगवान् ॠषभदेव का अवतार हुआ ।553। तृतीयकाल में 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर ॠषभ जिनेंद्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहने पर वीरप्रभु सिद्धि को प्राप्त हुए ।1239। (और भी देखें महावीर - 1, 3) ।
महापुराण/41/78 केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पंचमे युगे । = पंचमकाल में प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा ।
धवला 6/1, 9-8, 11/ पृ./पंक्ति दुस्सम (दुस्समदुस्सम), सुस्समासुस्समा-सुसमदुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं । जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (246/1)...एदेण वक्खाणभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमत्थि । कुदा । एइंदियादो आगंतूणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसणमोहक्खवणदंसणादो । एवं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । = दुःषमा (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा है । जिस काल में जिन संभव हैं उस ही काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है (किन्हीं अन्य आचार्यों के), व्याख्यान के अभिप्राय से दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोह की क्षपणा नहीं होती है । अवशिष्ट दोनों कालों में अर्थात् सुषमादुःषमा और दुःषमासुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है । यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए ।
देखें विदेह − (उपर्युक्त तीसरे व चौथे काल संबंधी नियम भरत व ऐरावत क्षेत्र के लिए ही हैं, विदेह क्षेत्र के लिए नहीं) ।
देखें जंबूस्वामी − (जंबूस्वामी चौथेकाल में उत्पन्न होकर पंचमकाल में मुक्त हुए । यह अपवाद हुंडावसर्पिणी के कारण से है ।)
देखें जन्म - 5.1(चरमशरीरियों की उत्पत्ति चौथे काल में ही होती है) ।
- मुक्तियोग्य गति निर्देश
शीलपाहुड़/ मूल/29 सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो । जो सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं । = श्वान, गधे, गौ, पशु व महिला आदि किसी को मोक्ष होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि मोक्ष तो चौथे अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थ से होता है जो केवल मनुष्यगति व पुरुषलिंग में ही संभव है । (देखें मनुष्य - 2.2)।
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/5 गत्या कस्यां गतौ सिद्धिः । सिद्धिगतौ मनुष्यगतौ वा । = गतिकी अपेक्षा−सिद्धगति में या मनुष्यगति में सिद्धि होती है । (और भी देखें मनुष्य - 2.2)।
राजवार्तिक/10/9/4/646/28 प्रत्युत्पन्ननयाश्रयेण सिद्धिगतौ सिद्धयति । भूतविषयनयापेक्षया...अनंतरगतौ मनुष्यगतौ सिद्धयति । एकांतरगतौ चतसृषु गतिषु जातः सिद्धयति । = वर्तमानग्राही नय के आश्रय से सिद्धिगति में सिद्धि होती है । भूतग्राही नय से, अनंतर गति की अपेक्षा मनुष्यगति से और एकांतरगति की अपेक्षा चारों ही गतियों में उत्पन्न हुओं को सिद्धि होती है ।
- मुक्तियोग्य लिंग निर्देश
सूत्रपाहुड़/23 णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासण जइ वि होइ तित्थयरो । एग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।23। = जिनशासन में−तीर्थंकर भी जब तक वस्त्र धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं पाते । इसलिए एक निर्ग्रंथ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग उन्मार्ग हैं ।
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/5 लिंगेन केन सिद्धिः अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुंलिंगेनैव । अथवा निर्ग्रंथलिंगेन । सग्रंथलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया । = लिंग की अपेक्षा- वर्तमानग्राही नय से अवेदभाव से तथा भूतगोचर नय से तीनों वेदों से सिद्धि होती है । यह कथन भाववेद की अपेक्षा है द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो पुंलिंग से ही सिद्धि होती है । (विशेष देखें वेद - 7.6)। अथवा वर्तमानग्राही नय से निर्ग्रंथलिंग से सिद्धि होती है और भूतग्राही नय से सग्रंथलिंग से भी सिद्धि होती है । (विशेष देखें लिंग )। ( राजवार्तिक/10/9/5/646/32 ) ।
- मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/7 तीर्थेन तीर्थसिद्धिर्द्वेधा, तीर्थकरेतरविकल्पात् । इतरे द्विविधाः सति तीर्थंकरे सिद्धा असति चेति । = तीर्थसिद्धि दो प्रकार की होती है−तीर्थंकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकार के होते हैं । कितने ही जीव तीर्थंकर के रहते हुए सिद्ध होते हैं और कितने ही जीव तीर्थंकर के अभाव में सिद्ध होते हैं । ( राजवार्तिक/10/9/6/647/3 )।
- मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/8 चारित्रेण केन सिद्धयति । अव्यपदेशेनैकचतुःपंचविकल्पचारित्रेण वा सिद्धिः । = चारित्र की अपेक्षा−प्रत्युत्पन्ननय से व्यपदेशरहित सिद्धि होती है अर्थात् न चारित्र से होती है और न अचारित्र से (देखें मोक्ष - 3.6) । भूतपूर्वनय से अनंतर की अपेक्षा एक यथाख्यात चारित्र से सिद्धि होती है और व्यवधान की अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्यपराय इन तीन सहित चार से अथवा परिहारविशुद्धि सहित पाँच चारित्रों से सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/7/647/6 )।
- मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश
राजवार्तिक/10/9/8/647/10 केचित्प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, परोपदेशमनपेक्ष्य स्वशक्त्यैवाविर्भूतज्ञानातिशयाः । अपरे बोधितबुद्धसिद्धाः, परोपदेशपूर्वकज्ञानपकर्षास्कंदिनः । = कुछ प्रत्येक बुद्ध सिद्ध होते हैं, जो परोपदेश के बिना स्वशक्ति से ही ज्ञानातिशय प्राप्त करते हैं । कुछ बोधित बुद्ध होते हैं जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/9 ) ।
- मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/10 ज्ञानेन केन । एकेन द्वित्रिचतुर्भिश्च ज्ञानविशेषैः सिद्धिः । = ज्ञान की अपेक्षा−प्रत्युत्पन्न नय से एक ज्ञान से सिद्धि होती है; और भूतपूर्वगति से मति व श्रुत दो से अथवा मति, श्रुत व अवधि इन तीन से अथवा मनःपर्ययसहित चार ज्ञानों से सिद्धि होती है । (विशेष देखें ज्ञान 1.4.11), ( राजवार्तिक/10/9/9/647/14 ) ।
- मुक्तियोग्य अवगाहना निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/11 आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम्, उत्कष्टजघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्ट पंचधनुःशतानि पंचविंशत्युत्तराणि । जघन्यमर्धचतुर्थारत्नयो देशानाः । मध्ये विकल्पाः । एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयति । = आत्मप्रदेश में व्याप्त करके रहना इसका नाम अवगाहना है । वह दो प्रकार की है−जघन्य व उत्कृष्ट । उत्कृष्ट अवगाहना 525 धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम 3½ अरत्नि है । बीच के भेद अनेक हैं । किसी एक अवगाहना में सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/10/647/15 )।
राजवार्तिक/10/9/10/647/19 एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयंति पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापने तु एतस्मिन्नेव देशोने । = भूतपूर्व नय से इन (उपरोक्त) अवगाहनाओं में से किसी भी एक में सिद्धि होती है और प्रत्युपन्न नय की अपेक्षा कुछ कम इन्हीं अवगाहनाओं में सिद्धि होती है, क्योंकि मुक्तात्माओं का आकार चरम शरीर से किंचिदून रहता है । (देखें मोक्ष - 5)] ।
- मुक्तियोग्य अंतर निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/2 किमंतरम् । सिद्धयतां सिद्धानामनंतरं जघन्येन द्वौ समयौ उत्कर्षेणाष्टौ । अंतरं जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेण षण्मासाः । = अंतर की अपेक्षा−सिद्धि को प्राप्त होने वाले सिद्धों का जघन्य अनंतर दो समय है और उत्कृष्ट अनंतर आठ समय है । जघन्य अंतर एक समय और उत्कृष्ट अंतर छह महीना है । ( राजवार्तिक/10/9/11-12/647/21 )।
देखें नीचे शीर्षक नं - 12 (छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है) ।
- मुक्त जीवों की संख्या
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/3 संख्या जघन्येन एकसमये एकः सिध्यति । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । = संख्या की अपेक्षा−जघन्य रूप से एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूप से एक समय में 108 जीव सिद्ध होते हैं । ( राजवार्तिक/10/9/13/647/25 ) ।
धवला 14/4, 6, 116/143/10 सव्वकालमदीदकालस्स सिद्धा असंखेज्जदिभागे चेव, छम्मासमंतरिय णिव्वुइगमणणियमादो । = सिद्ध जीव सदा अतीत काल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है ।
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद