रात्रि भोजन: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> रात्रि भोजन त्याग छठा अणुव्रत | <li class="HindiText"> रात्रि भोजन त्याग छठा अणुव्रत है− देखें - [[ व्रत#3.4 | व्रत / ३ / ४ ]]। <br /> | ||
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रा. वा./७/१/१७-२०/५३४ <span class="SanskritText">स्यान्मतम्यद्यालोकनार्थं दिवाभोजनम्, प्रदीपचन्द्रादिप्रकाशाभिव्यक्तं रात्रौ कार्यमिति; तन्न; किं कारणम् अनेकारम्भदोषात्। अग्न्यादिसमारम्भकरणकारणलक्षणो हि दोषः स्यात्। स्यादेतत्-परकृत-प्रदीपादिसंभवे नारम्भदोषः इति; तन्न; किं कारणम्। चङ्क्रमणाद्यसंभवात्।‘ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यटय यतिः भिक्षां शुद्धामुपाददीत’ इत्याचारोपदेशः, न चायं विधिः रात्रौ भवतीति चङ्क्रमणाद्यसंभवः।१८। स्यान्मतम्−दिवा ग्रामं पर्यटय केनचिद्भाजने भोजनाद्यानीय रात्रावुपयोगः प्रसक्त इति; तन्न; किं कारणम्। उक्तोत्तरत्वात्। उक्तोतरमेतत्-प्रदीपादिसमारम्भप्रसंग इति। नेदं संयमसाधनम्-आनीय भोक्तव्यमिति। नापि निस्संगस्य पाणिपात्रपुटाहारिणः आनयनं संभवति। भोजनान्तरसंग्रहे अनेकावद्यदर्शनात् अतिदीनचरित-प्रसङ्गादचिरादेव निवृत्तिपरिणामासंभावाच्च। भाजनेनानीतस्य परीक्ष्य भोजनं संभवतीति चेत्; न; योनिप्राभृतज्ञस्य संयोगविभागगुण-दोषविचारस्य तदानीमेवोपपत्ते; आनीतस्य पुनर्दोषदर्शनात् विसर्जनेऽनेकदोषोपपत्तेश्च।१९। यथा रविप्रकाशस्य स्फुटार्थाभिव्यंजकत्वात् भूमिदेशदातृजनचङ्क्रमणाद्यन्नपानादिपतितमितरच्च स्पष्टमुपलभ्यते न तथा चन्द्रादिप्रकाशानाम् अस्फुटार्थाभिव्यंजकत्वावत् स्फुटा भूम्याद्युपलब्धिरस्तीति दिवाभोजनमेव युक्तम्।२०। </span>=<strong> <span class="HindiText">प्रश्न−</span></strong><span class="HindiText">यदि आलोकित पान भोजन (देखकर ही भोजन आदि करने की) विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्रादि के प्रकाश में रात्रि भोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है। <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि इसमें अनेक आरम्भ दोष हैं। दीप के जलाने में और अग्नि आदि के करने कराने में अनेक दोष होते हैं। <strong>प्रश्न−</strong>दूसरे के द्वारा जलाये हुए प्रदीप के प्रकाश में तो कोई आरम्भ दोष भी सम्भव नहीं है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि भले वहाँ स्वयं का आरम्भ दोष न हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते। ‘ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यति को योग्य देशकाल में शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए’ यह आचारशास्त्र का उपदेश है। यह विधि रात्रि में नहीं बनती। <strong>प्रश्न−</strong>दिन के समय ग्राम में घूमकर किसी भोजन में भोजनादि लाकर रात्रि में उसे ग्रहण करने से उपरोक्त दोष की निवृत्ति हो जाती है। <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि इसमें अन्य अनेकों दोष लगते हैं - १. दीपक आदि का आरम्भ करना पड़ेगा, २. लाकर भोजन करना’ यह संयम का साधन भी नहीं है; ३. निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी साधु को भिक्षा माँगकर लाना भी सम्भव नहीं है; ४. पात्र रखने पर अनेकों दोष देखे जाते हैं - अतिदीन वृत्ति आ जाती है और शीघ्र पूर्णनिवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते क्योंकि सर्व - सावद्य निवृत्ति काल में ही पात्र ग्रहण करने से पात्र निवृत्ति के परिणाम हो सकेंगे; ५. पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी योनि प्राभृतज्ञ साधु को संयोग विभाग आदि से होने वाले गुणदोषों का विचार करना पड़ता है, लाने में दोष है, छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं; ६. जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं, तथा भूमि, दाता, अन्न, पान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्रमा आदि के प्रकाश में नहीं दिखते। अतः दिन में भोजन करना ही निर्दोष है। <br /> | रा. वा./७/१/१७-२०/५३४ <span class="SanskritText">स्यान्मतम्यद्यालोकनार्थं दिवाभोजनम्, प्रदीपचन्द्रादिप्रकाशाभिव्यक्तं रात्रौ कार्यमिति; तन्न; किं कारणम् अनेकारम्भदोषात्। अग्न्यादिसमारम्भकरणकारणलक्षणो हि दोषः स्यात्। स्यादेतत्-परकृत-प्रदीपादिसंभवे नारम्भदोषः इति; तन्न; किं कारणम्। चङ्क्रमणाद्यसंभवात्।‘ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यटय यतिः भिक्षां शुद्धामुपाददीत’ इत्याचारोपदेशः, न चायं विधिः रात्रौ भवतीति चङ्क्रमणाद्यसंभवः।१८। स्यान्मतम्−दिवा ग्रामं पर्यटय केनचिद्भाजने भोजनाद्यानीय रात्रावुपयोगः प्रसक्त इति; तन्न; किं कारणम्। उक्तोत्तरत्वात्। उक्तोतरमेतत्-प्रदीपादिसमारम्भप्रसंग इति। नेदं संयमसाधनम्-आनीय भोक्तव्यमिति। नापि निस्संगस्य पाणिपात्रपुटाहारिणः आनयनं संभवति। भोजनान्तरसंग्रहे अनेकावद्यदर्शनात् अतिदीनचरित-प्रसङ्गादचिरादेव निवृत्तिपरिणामासंभावाच्च। भाजनेनानीतस्य परीक्ष्य भोजनं संभवतीति चेत्; न; योनिप्राभृतज्ञस्य संयोगविभागगुण-दोषविचारस्य तदानीमेवोपपत्ते; आनीतस्य पुनर्दोषदर्शनात् विसर्जनेऽनेकदोषोपपत्तेश्च।१९। यथा रविप्रकाशस्य स्फुटार्थाभिव्यंजकत्वात् भूमिदेशदातृजनचङ्क्रमणाद्यन्नपानादिपतितमितरच्च स्पष्टमुपलभ्यते न तथा चन्द्रादिप्रकाशानाम् अस्फुटार्थाभिव्यंजकत्वावत् स्फुटा भूम्याद्युपलब्धिरस्तीति दिवाभोजनमेव युक्तम्।२०। </span>=<strong> <span class="HindiText">प्रश्न−</span></strong><span class="HindiText">यदि आलोकित पान भोजन (देखकर ही भोजन आदि करने की) विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्रादि के प्रकाश में रात्रि भोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है। <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि इसमें अनेक आरम्भ दोष हैं। दीप के जलाने में और अग्नि आदि के करने कराने में अनेक दोष होते हैं। <strong>प्रश्न−</strong>दूसरे के द्वारा जलाये हुए प्रदीप के प्रकाश में तो कोई आरम्भ दोष भी सम्भव नहीं है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि भले वहाँ स्वयं का आरम्भ दोष न हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते। ‘ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यति को योग्य देशकाल में शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए’ यह आचारशास्त्र का उपदेश है। यह विधि रात्रि में नहीं बनती। <strong>प्रश्न−</strong>दिन के समय ग्राम में घूमकर किसी भोजन में भोजनादि लाकर रात्रि में उसे ग्रहण करने से उपरोक्त दोष की निवृत्ति हो जाती है। <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि इसमें अन्य अनेकों दोष लगते हैं - १. दीपक आदि का आरम्भ करना पड़ेगा, २. लाकर भोजन करना’ यह संयम का साधन भी नहीं है; ३. निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी साधु को भिक्षा माँगकर लाना भी सम्भव नहीं है; ४. पात्र रखने पर अनेकों दोष देखे जाते हैं - अतिदीन वृत्ति आ जाती है और शीघ्र पूर्णनिवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते क्योंकि सर्व - सावद्य निवृत्ति काल में ही पात्र ग्रहण करने से पात्र निवृत्ति के परिणाम हो सकेंगे; ५. पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी योनि प्राभृतज्ञ साधु को संयोग विभाग आदि से होने वाले गुणदोषों का विचार करना पड़ता है, लाने में दोष है, छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं; ६. जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं, तथा भूमि, दाता, अन्न, पान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्रमा आदि के प्रकाश में नहीं दिखते। अतः दिन में भोजन करना ही निर्दोष है। <br /> | ||
देखें - [[ रात्रि भोजन#2.1 | रात्रि भोजन / २ / १ ]](रात्रि में जलाये गये दीपक में भी भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा को किस प्रकार दूर किया जा सकेगा)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> छठी प्रतिमा का रात्रि भोजन त्याग निरपवाद है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> छठी प्रतिमा का रात्रि भोजन त्याग निरपवाद है</strong> </span><br /> | ||
ला. सं./२/४३<span class="SanskritGatha"> तत्र ताम्बूलतोयादि निषिद्धं यावदञ्जसा। प्राणन्तेऽपि न भोक्तव्यमौषधादि मनीषिणा।४३।</span> = <span class="HindiText">उस छठी प्रतिमा में पानी, पान, सुपारी, इलायची, औषध आदि समस्त पदार्थों का सर्वथा त्याग बतलाया है, इसलिए छठी प्रतिमाधारी बुद्धिमान् मनुष्य को औषधि व जल आदि पदार्थ प्राणान्त के समय भी रात्रि में नहीं खाने चाहिए।४३। (सा. ध./२/७६)। <br /> | ला. सं./२/४३<span class="SanskritGatha"> तत्र ताम्बूलतोयादि निषिद्धं यावदञ्जसा। प्राणन्तेऽपि न भोक्तव्यमौषधादि मनीषिणा।४३।</span> = <span class="HindiText">उस छठी प्रतिमा में पानी, पान, सुपारी, इलायची, औषध आदि समस्त पदार्थों का सर्वथा त्याग बतलाया है, इसलिए छठी प्रतिमाधारी बुद्धिमान् मनुष्य को औषधि व जल आदि पदार्थ प्राणान्त के समय भी रात्रि में नहीं खाने चाहिए।४३। (सा. ध./२/७६)। <br /> | ||
देखें - [[ रात्रिभोजन#3.1 | रात्रिभोजन / ३ / १ ]](छठी प्रतिमाधारी रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> छठी प्रतिमा से पूर्व रात्रि भोजन का निषेध क्यों ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> छठी प्रतिमा से पूर्व रात्रि भोजन का निषेध क्यों ?</strong></span><br /> |
Revision as of 15:25, 6 October 2014
जैन आम्नाय में रात्रि भोजन में त्रसहिंसा का भारी दोष माना गया है। भले ही दीपक व चन्द्रमा आदि के प्रकाश में आप भोजन को देख सकें पर उसमें पड़ने वाले जीवों को नहीं बचा सकते। पाक्षिक श्रावक रात्रि भोजन त्याग व्रत को सापवाद पालते हैं और छठी प्रतिमा वाला निरपवाद पालता है।
- रात्रि भोजन त्याग व्रत निर्देश
- रात्रि भोजन का लक्षण
ध. १२/४, २, ८, ७/२८२/१३ रत्तीए भोयणं रादि भोयणं। = रात्रि में भोजन सो रात्रि भोजन।
- साधु के योग्य आहार काल
मू. आ./३५ उदयत्थमणे कालेणालीतियवज्जिय मज्झम्हि...।३५। = सूर्य के उदय व अस्त काल की तीन घड़ी छोड़कर इसके मध्य काल में कोई भी समय आहार ग्रहण करने का काल है। (अन. ध./९/९२); (आचारसार/१/४९)।
रा. वा./७/१/१८/५३५/२ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यटय यतिः भिक्षां शुद्धामुपाददीत इत्याचारोपदेशः। न चायं विधि रात्रौ भवतीति चङ्कमणाद्यसंभवः। = ज्ञानसूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यति को योग्य देश काल में शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए’ यह आचारशास्त्र का उपदेश है। यह विधि रात्रि में नहीं बनती, क्योंकि रात्रि को गमन आदि नहीं हो सकता। अतः रात्रि भोजन का निषेध किया जाता है।
- श्रावक के योग्य आहार काल
ला. सं./५/२३४-२३५ काले पूर्वाह्णिके यावत्परतोऽपराह्णेऽपि च। यामस्यार्द्धं न भोक्तव्यं निशायां चापि दुर्दिने।२३४। याम मध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत्। आहारस्यास्त्यर्थं कालो नौषधादेर्जलस्य वा।२३५। = भोजन का समय दोपहर से पहले-पहल है अथवा दोपहर के पश्चात् दिन ढले का समय भी भोजन का है। अणुव्रती श्रावकों को सूर्य निकलने के पश्चात् आधे पहर तक तथा सूर्य अस्त से आधे पहर पहले भोजन कर लेना चाहिए। इसी प्रकार उन्हें रात्रि को या जिस समय पानी बरस रहा हो अथवा काली घटा छाने से अंधेरा हो गया हो उस समय भोजन नहीं करना चाहिए।२३४। अणुव्रती श्रावकों को पहले पहर में भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मुनियों की भिक्षाचर्या का समय नहीं है तथा उन्हें दोपहर का समय भी नहीं टालना चाहिए उनके लिए सूर्योदय के पश्चात् छह घण्टे बीत जाने पर भोजन करने का निषेध है, परन्तु औषध व जल के ग्रहण का नहीं।२३५।
- रात्रि भोजन त्याग के अतिचार
सा. ध./३/१५ मुहूर्तेऽन्त्ये तथाद्येऽह्नो, वल्भानस्तमिताशिनः। गदच्छिदेऽप्याम्रघृताद्युपयोगंच दुष्यति।१५। = रात्रि भोजन त्यागव्रत का पालन करने वाले श्रावक के दिन के अन्तिम और प्रथम मुहूर्त में भोजन करना तथा रोग को दूर करने के लिए भी आम और घी वगैरह का सेवन करना अतिचारजनक होता है।१५।
- रात्रि भोजन त्याग में अन्य भी व्रतों का अन्तर्भाव
ध. १२/४, २, ८८/२८३/१ जेणेदं सुत्तं देसमासियं तेणेत्थ महु मांस पचुंबरं णिंवसण हुल्लमक्खण सुरापान अवेलासणादीणं पि णाणावरण पच्चयत्तं परुवेदव्वं। = क्योंकि यह सूत्र (रात्रि भोजन प्रत्यय से ज्ञानावरणीय वेदना या बन्ध होता है) देशामर्षक है अतः उससे यहाँ मधु, मांस, पंचुदम्बर फल, निन्द्य भोजन और फूलों के भक्षण, मद्यपान तथा आसमयिक भोजन आदि को ज्ञानावरणीय का प्रत्यय बतलाना चाहिए।
- रात्रि भोजन का हिंसा में अन्तर्भाव−देखें - हिंसा।
- रात्रि भोजन त्याग छठा अणुव्रत है− देखें - व्रत / ३ / ४ ।
- रात्रि भोजन का हिंसा में अन्तर्भाव−देखें - हिंसा।
- रात्रि भोजन त्याग का महत्त्व
पु. सि. उ./१३४ किं वा बहु प्रलपितैरिति सिद्धं यो मनो वचन कायैः। परिहरति रात्रिभुक्तिं सततमहिंसा स पालयति।१३४। = बहुत कहने से क्या। जो पुरुष मन, वचन और काय से रात्रि भोजन को त्याग देता है वह निरन्तर अहिंसा को पालन करता है ऐसा सार सिद्धान्त हुआ।१३४।
का. अ./मू./३८३ जो णिसि भुतिं वज्जदि, सो उववासं करेदि छम्मासं। संवच्छरस्स मज्झे आरंभं मुयदि रयणीए।३८३। = जो पुरुष रात्रि भोजन को छोड़ता है वह एक वर्ष में छह महीने का उपवास करता है। रात्रि भोजन का त्याग करने के कारण वह भोजन व व्यापार आदि सम्बन्धी सम्पूर्ण आरम्भ भी रात्रि को नहीं करता।
- रात्रि भोजन का निषेध क्यों ?
पु. सि. उ./१२९-१३३ रात्रौ भुञ्जानानां यस्माद् निवारिता भवति हिंसा। हिंसाविरतैस्तस्मात्त्यकृत्या रात्रिभुक्तिरपि।१२९। रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्तिर्नातिवर्तते हिंसा। रात्रि दिवामाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति।१३०। यद्येवं तर्हि दिवा कर्त्तव्यो भोजनस्य परिहारः। भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा।१३१। नैवं वासरभुक्तः भवति हि रागाधिको रजनि भुक्तौ। अन्नकवलस्य भुक्तेः भुक्तविव मासंकवलस्य।१३२। अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसा। अपि बोधितः प्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम्।१३३। = रात्रि में भोजन करने वालों के हिंसा अनिवारित होती है, अतएव हिंसा के त्यागी को रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए।१२९। अत्यागभाव रागादिभावों के उदय की उत्कृष्टता से हिंसा को उल्लंघन करके नहीं वर्तते हैं तो रात-दिन आहार करने वालों के निश्चय कर हिंसा कैसे सम्भव नहीं होती अर्थात् तीव्र रागी ही रात्रि-दिन खायेगा और जहाँ राग है वहाँ हिंसा है।१३०। प्रश्न−यदि ऐसा है तो दिन के भोजन का त्याग करना चाहिए और रात्रि को भोजन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से हिंसा सदा काल न होगी।१३१। उत्तर−अन्न के ग्रास के भोजन की अपेक्षा मांस के ग्रास के भोजन में जैसे राग अधिक होता है वैसे ही दिन के भोजन की अपेक्षा रात्रि भोजन में निश्चय कर अधिक राग होता है अतएव रात्रि भोजन ही त्याज्य है।१३२। दूसरे सूर्य के प्रकाश के बिना रात्रि में भोजन करने वाले पुरुषों के जलाये हुए दीपक में भी भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जीवों को कैसे दूर किया जा सकेगा। अतएव रात्रि भोजन प्रत्यक्ष हिंसा है।
सा. ध./४/२४ अहिंसाव्रतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये। नक्तं भुक्तिं चतुर्धापि, सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत्।१२४। = व्रतों का पालक श्रावक अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए धैर्य से युक्त होता हुआ रात्रि में मन, वचन व काय से चारों ही प्रकार के आहार को भी जीवन पर्यन्त के लिए छोड़े।२४।
ला. सं./२/४५ अस्ति तत्र कुलाचारः सैष नाम्ना कुलक्रिया। तां विना दार्शनिको न स्यान्नास्यान्नमतस्तथा।४५। = रात्रि भोजन का त्याग करना पाक्षिक श्रावक का कुलाचार वा कुलक्रिया है। इस कुलक्रिया के बिना वह मनुष्य दर्शन प्रतिमाधारी अर्थात् पाक्षिक श्रावक भी नहीं हो सकता और की तो बात ही क्या ?
- दीप व चन्द्रादि के प्रकाश में भोजन करने में दोष सम्बन्धी
रा. वा./७/१/१७-२०/५३४ स्यान्मतम्यद्यालोकनार्थं दिवाभोजनम्, प्रदीपचन्द्रादिप्रकाशाभिव्यक्तं रात्रौ कार्यमिति; तन्न; किं कारणम् अनेकारम्भदोषात्। अग्न्यादिसमारम्भकरणकारणलक्षणो हि दोषः स्यात्। स्यादेतत्-परकृत-प्रदीपादिसंभवे नारम्भदोषः इति; तन्न; किं कारणम्। चङ्क्रमणाद्यसंभवात्।‘ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यटय यतिः भिक्षां शुद्धामुपाददीत’ इत्याचारोपदेशः, न चायं विधिः रात्रौ भवतीति चङ्क्रमणाद्यसंभवः।१८। स्यान्मतम्−दिवा ग्रामं पर्यटय केनचिद्भाजने भोजनाद्यानीय रात्रावुपयोगः प्रसक्त इति; तन्न; किं कारणम्। उक्तोत्तरत्वात्। उक्तोतरमेतत्-प्रदीपादिसमारम्भप्रसंग इति। नेदं संयमसाधनम्-आनीय भोक्तव्यमिति। नापि निस्संगस्य पाणिपात्रपुटाहारिणः आनयनं संभवति। भोजनान्तरसंग्रहे अनेकावद्यदर्शनात् अतिदीनचरित-प्रसङ्गादचिरादेव निवृत्तिपरिणामासंभावाच्च। भाजनेनानीतस्य परीक्ष्य भोजनं संभवतीति चेत्; न; योनिप्राभृतज्ञस्य संयोगविभागगुण-दोषविचारस्य तदानीमेवोपपत्ते; आनीतस्य पुनर्दोषदर्शनात् विसर्जनेऽनेकदोषोपपत्तेश्च।१९। यथा रविप्रकाशस्य स्फुटार्थाभिव्यंजकत्वात् भूमिदेशदातृजनचङ्क्रमणाद्यन्नपानादिपतितमितरच्च स्पष्टमुपलभ्यते न तथा चन्द्रादिप्रकाशानाम् अस्फुटार्थाभिव्यंजकत्वावत् स्फुटा भूम्याद्युपलब्धिरस्तीति दिवाभोजनमेव युक्तम्।२०। = प्रश्न−यदि आलोकित पान भोजन (देखकर ही भोजन आदि करने की) विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्रादि के प्रकाश में रात्रि भोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है। उत्तर−नहीं, क्योंकि इसमें अनेक आरम्भ दोष हैं। दीप के जलाने में और अग्नि आदि के करने कराने में अनेक दोष होते हैं। प्रश्न−दूसरे के द्वारा जलाये हुए प्रदीप के प्रकाश में तो कोई आरम्भ दोष भी सम्भव नहीं है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि भले वहाँ स्वयं का आरम्भ दोष न हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते। ‘ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यति को योग्य देशकाल में शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए’ यह आचारशास्त्र का उपदेश है। यह विधि रात्रि में नहीं बनती। प्रश्न−दिन के समय ग्राम में घूमकर किसी भोजन में भोजनादि लाकर रात्रि में उसे ग्रहण करने से उपरोक्त दोष की निवृत्ति हो जाती है। उत्तर−नहीं, क्योंकि इसमें अन्य अनेकों दोष लगते हैं - १. दीपक आदि का आरम्भ करना पड़ेगा, २. लाकर भोजन करना’ यह संयम का साधन भी नहीं है; ३. निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी साधु को भिक्षा माँगकर लाना भी सम्भव नहीं है; ४. पात्र रखने पर अनेकों दोष देखे जाते हैं - अतिदीन वृत्ति आ जाती है और शीघ्र पूर्णनिवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते क्योंकि सर्व - सावद्य निवृत्ति काल में ही पात्र ग्रहण करने से पात्र निवृत्ति के परिणाम हो सकेंगे; ५. पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी योनि प्राभृतज्ञ साधु को संयोग विभाग आदि से होने वाले गुणदोषों का विचार करना पड़ता है, लाने में दोष है, छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं; ६. जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं, तथा भूमि, दाता, अन्न, पान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्रमा आदि के प्रकाश में नहीं दिखते। अतः दिन में भोजन करना ही निर्दोष है।
देखें - रात्रि भोजन / २ / १ (रात्रि में जलाये गये दीपक में भी भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा को किस प्रकार दूर किया जा सकेगा)।
- रात्रि भोजन का लक्षण
- रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा निर्देश
- रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा व अणुव्रत का लक्षण
र. क. श्रा./१४२ अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्। स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः।१४२। = जो जीवों पर दयायुक्त चित्त वाला होता हुआ रात्रि में, अन्न, जल, लाडू आदि खाद्य और रबड़ी आदि लेह्य पदार्थों को नहीं खाता वह रात्रि भुक्तित्याग नामक प्रतिमा का धारी है।१४२। (का. अनु./३८२); (सा. ध./७/१५)।
आचारसार/५/७०७१ व्रतत्राणायकर्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम्। सर्वथान्नान्निवृत्तिः तत्प्रोक्तं षष्ठमणुव्रतम्।७०७१। = अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि को भोजन का त्याग अथवा उस समय अन्न खाने का त्याग करना छठी रात्रि भुक्ति प्रतिमा या छठा अणुव्रत है।
वसु. श्रा./२९६ मण-वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहिं मेहुणं णवधा। दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सोसावओ छट्ठो। = जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारों से दिन में मैथुन का त्याग करता है, वह प्रतिमारूप गुणस्थान में छठा श्रावक अर्थात् छठा प्रतिमाधारी है।२९६। (गुण. श्रा./१७९); (सा. ध.७/१२); (द्र. सं./टी.४५/१९५/८)।
चा. सा./१३/२ रात्रावन्नपानखादलेह्येभ्यश्चतुर्भ्यः सत्त्वानुकम्पया विरमणं रात्रिभोजनविरमणं षष्ठमणुव्रतम्।
चा. सा./३८/३ रात्रिभुक्तव्रतः रात्रौ स्त्रीणां भजनं रात्रिभक्तं तद्व्रतयति सेवत इति रात्रिव्रतातिचारा रत्रिभुक्तव्रतः दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः। = जीवों पर दया कर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना रात्रिभोजन विरमण नाम का छठा अणुव्रत है। छठी प्रतिमा का रात्रिभक्तव्रत नाम है । रात्रि में ही स्त्रियों के सेवन करने का व्रत लेना अर्थात् दिन में ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा लेना रात्रिभक्त व्रत प्रतिमा है। रात्रि भोजन त्याग के अतिचार त्याग करना ही रात्रि भक्त व्रत है।
- पाक्षिक श्रावक के रात्रि भोजन त्याग में कुछ अपवाद
सा. ध./२/७६ भृत्वाश्रितानवृत्त्यार्तान् कृपयानाश्रितानपि। भुञ्जीताह्न्यम्बुभैषज्य-ताम्बूलैलादि निश्यपि। = गृहस्थ अपने आश्रित मनुष्य और तिर्यंचों को और आजीविका के न होने से दुःखी अनाश्रित मनुष्य वा तिर्यंचों को भी दिन में भोजन करावे। जल, दवा, पान और इलायची आदि का रात्रि में भी खा और खिला सकता है।७६।
सा. ध./२/७६ में उद्धृत ताम्बूलमौषधं तोयं, मुम्त्वाहरादिकां क्रियाम्। प्रयाख्यानं प्रदीयेत यावत् प्रातिर्दनं भवेत्। = दिन उगे तक ताम्बूल, औषध और पानी को छोड़कर सब प्रकार के आहारादि के त्याग का व्रत देना चाहिए।
ला. सं./२/४२ निषिद्धमन्नमात्रादिस्थूलभोज्यं व्रते दृशः। न निषिद्धं जलाद्यन्न ताम्बूलाद्यापि वा निशि।४२। = इस व्रत में (रात्रि भोजन त्याग व्रत में) रात्रि में केवल अन्नादिक स्थूल भोजनों का त्याग है, इसमें जल तथा आदि शब्द से औषधि का त्याग नहीं है।४२।
- छठी प्रतिमा का रात्रि भोजन त्याग निरपवाद है
ला. सं./२/४३ तत्र ताम्बूलतोयादि निषिद्धं यावदञ्जसा। प्राणन्तेऽपि न भोक्तव्यमौषधादि मनीषिणा।४३। = उस छठी प्रतिमा में पानी, पान, सुपारी, इलायची, औषध आदि समस्त पदार्थों का सर्वथा त्याग बतलाया है, इसलिए छठी प्रतिमाधारी बुद्धिमान् मनुष्य को औषधि व जल आदि पदार्थ प्राणान्त के समय भी रात्रि में नहीं खाने चाहिए।४३। (सा. ध./२/७६)।
देखें - रात्रिभोजन / ३ / १ (छठी प्रतिमाधारी रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है।)
- छठी प्रतिमा से पूर्व रात्रि भोजन का निषेध क्यों ?
ला. सं./२/३९-४१ ननु रात्रि भुक्तित्यागो नात्रोद्देश्यस्त्वया क्वचित्। षष्ठसंख्यक-विख्यातप्रतिमायामास्ते यतः।३९। सत्यं सर्वात्मना तत्र निशाभोजनवर्जनम्। हेतोः किंत्वत्र दिग्मात्रं सिद्धं स्वानुभवागमात्।४०। अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र स्वल्पाभासोर्थतो महान्। सातिचारोऽत्र दिग्मात्रे तत्रातिचारवर्जिताः।४१। = प्रश्न−आपको यहाँ पर श्रावकों के मूलगुणों के वर्णन में रात्रिभोजन के त्याग का उपदेश नहीं देना चाहिए, क्योंकि रात्रिभोजन त्याग नाम की छठी प्रतिमा पृथक् रूप से स्वीकार की गयी है।३९। उत्तर−यह बात ठीक है, किन्तु उसके साथ इतना और समझ लेना चाहिए कि छठी प्रतिमा में तो रात्रि भोजन का त्याग पूर्ण रूप से है और यहाँ पर मूल गुणों के वर्णन में अपूर्ण रूप से है। मूल गुणों में रात्रिभोजन का त्याग करना अनुभव तथा आगम दोनों से सिद्ध है।४०। यहाँ पर इस रात्रि भोजन त्याग में कुछ विशेषता है, यद्यपि वह थोड़ी प्रतीत होती है, परन्तु वह है महान्। वह यह है कि यहाँ तो वह व्रत अतिचार सहित है और छठी प्रतिमा में अतिचार रहित है।४१।
- रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा व अणुव्रत का लक्षण