अनुप्रेक्षा: Difference between revisions
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<p>किसी बात को पुनः-पुनः चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की वृद्धि के अर्थ बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का कथन जैनागम में प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं। इनके भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से निर्विण्ण होकर साम्य भावमें स्थिति पा सकता है।</p> | |||
<p>1. भेद व लक्षण</p> | |||
<p>1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण</p> | |||
<p>2. अनुप्रेक्षा के भेद</p> | |||
<p>3. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>5. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>6. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>7. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>8. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>9. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>10. निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>12. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>13. संवरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>14. संसारानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)</p> | |||
<p>2. अनुप्रेक्षा निर्देश</p> | |||
<p>1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं</p> | |||
<p>2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षा में अन्तर</p> | |||
<p>• धर्म ध्यान व अनुप्रेक्षा में अन्तर - देखें [[ धर्मध्यान#3 | धर्मध्यान - 3]]।</p> | |||
<p>3. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओं की सार्थकता</p> | |||
<p>4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ</p> | |||
<p>• ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ - देखें [[ ध्येय ]]।</p> | |||
<p>3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार</p> | |||
<p>1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व</p> | |||
<p>2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभभाव है।</p> | |||
<p>3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है।</p> | |||
<p>4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन</p> | |||
<p>1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल</p> | |||
<p>2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन</p> | |||
<p>3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>8. एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>13. संवरानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | |||
<p>1. भेद व लक्षण</p> | |||
<p>1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण</p> | |||
<p> तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | |||
<p>= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।</p> | |||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409 शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | |||
<p>= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। </p> | |||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)</p> | |||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443 अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। </p> | |||
<p>= जाने हुए अर्थ का मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। </p> | |||
Revision as of 16:54, 10 June 2020
किसी बात को पुनः-पुनः चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की वृद्धि के अर्थ बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का कथन जैनागम में प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं। इनके भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से निर्विण्ण होकर साम्य भावमें स्थिति पा सकता है।
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
2. अनुप्रेक्षा के भेद
3. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
5. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
7. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
8. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
9. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
10. निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
12. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
13. संवरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
14. संसारानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षा में अन्तर
• धर्म ध्यान व अनुप्रेक्षा में अन्तर - देखें धर्मध्यान - 3।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओं की सार्थकता
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
• ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ - देखें ध्येय ।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व
2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभभाव है।
3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है।
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
8. एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन
13. संवरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409 शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443 अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा।
= जाने हुए अर्थ का मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20) ( चारित्रसार पृष्ठ 153/3) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)।
धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम।
= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूपसे हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।
धवला पुस्तक 14/5,6,14/9/5 सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहणं णाम।
= सुने हुए अर्थ का श्रुत के अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
2. अनुप्रेक्षा के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 अनित्याशरणसंसारे कत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥7॥
= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं।
( बारसाणुवेक्खा गाथा 2) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692) (राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)।
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1715/1547 अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥
= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिन्तन करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन।
= अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आश्रय से चार प्रकार का है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 7 परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥7॥
= शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है। अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/7 उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वाभावोऽनित्यत्वम्।
= उपात्त और अनुपात्त द्रव्य संयोगों का व्यभिचारी स्वभाव अनित्य है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102 तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता।
= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होनेपर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्मा कों प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 6 जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥
= जब क्षीरनीरक्त जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। (भूधरकृत 12 भावनाएँ) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413 इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा।
= ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले संयोगों से विपरीत स्वभाववाले होते हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1716-1728/1543) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9) (प.विं./3 सम्पूर्ण) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/45) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/1) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)।
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 13 अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥
= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनेसे जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38) ( समयसार / क./5)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते।
= शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बन्ध की अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1754) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31) ( चारित्रसार पृष्ठ 170/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्।
= नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अवलम्बन भेदसे अन्यत्व चार प्रकार का है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामों में अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओं में भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीव-अजीव आदि सो द्रव्यों में अन्यत्व है और एक ही द्रव्य में बाल और युवा, मनुष्य या दैव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है। बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमें भेद होना सो अन्यत्व है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 21 मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥
= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।
धम्मपद/5/3 पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहञ्जति। अत्ता हि अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धनं॥
= मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते हैं। इस संसारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥
= देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होनेसे विनश्वर है। निश्चय नयसे निज परमात्म पदार्थसे अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1755-1767/1547) (भूधरकृत भावना सं. 4) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
5. अशरणानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 11 जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥
= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मों की बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात् संसारमें अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है।
( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30 दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥
= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हीं का सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1746)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103 अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता।
= निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण हैं। उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादि के समय शरणभूत नहीं होते जैसे महावनमें व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा समुद्रमें जहाज से छूटे पक्षी को कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर आगामी भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज शुद्धात्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्धात्मा की भावना करता है। जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज शुद्धात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1729 णासदि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सच्छं तणं पि णीयं विहुंति अरी।
= कर्म का उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होती है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्त के उपदेश से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनों से मनुष्य प्राणी हित और अहित का स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरी का काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं।
(विस्तार देखें भगवती आराधना मुल या टीका गाथा 1729-1745)
बारसाणुवेक्खा गाथा 8 मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥
= मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा।
= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीचमें भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःखमें भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुम्बी रोगग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्रमें तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इन्द्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्टमें धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/46) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)।
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 46 देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥
= वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनन्त सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए।
( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18) (श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109 सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता।
= अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होनेसे ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होनेसे अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि) के हा पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1813-1815 असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं। एओ चेव सुभी णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥1813॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं सुत्तिपडिपंथो ॥1814॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा ॥1815॥
= अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यों का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्यों का दाता है ॥1813॥ इस लोक और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक में नाना दुःखों का अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात् धन अनर्थ का कारण है। महाभय का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान प्रतिबन्ध करता है ॥1814॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गति में दुःख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। और प्राप्त होनेमें कठिन है।
बारसाणुवेक्खा गाथा 44 दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरिवं अचेयणा सुत्तं। सडणपडणसहावं देह इदि चिंतये णिच्चं ॥4॥
= यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा।
= यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप का मालिश और सुगन्धित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि के जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1816-1820) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/6) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/50) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69) स.सा.नाटक 4 (भूधरकृत भावना सं. 6) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ) (और भी देखो अशुचि के भेद)।
7. आस्रवानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 60 पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥
= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरन्तर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 51) ( समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/क.120)।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 59 पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥
= कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए संसारमें भटकनेवाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 730 धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ॥730॥
= मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो; क्योंकि हृदयमें रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन वचन को नहीं पहचानता।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयन्ति तथा कषायोदयोऽपीह वधबन्धापयशःपरिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा
= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतङ्ग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1821-1835) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110 इन्द्रियाणि....कषाया....पञ्चाव्रतानि....पञ्चविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति।
= पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर संसारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
8. एकत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1752-1753 जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ॥1752॥ बद्धस्स बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स। धिससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ॥1753॥
= सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही लोकमें इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥1752॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनों में राग नहीं करता है, वैसे ही ज्ञानी जनों के शरीरमें स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विष के समान दुःखद व महाभय प्रदायी अर्थमें अर्थात् धनमें भी राग नहीं होता है ॥1753॥
बारसाणुवेक्खा गाथा 20 एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥
= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 73) (सामायिक पाठ अमितगति 27) (स.सा.ना./33)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107 निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता।
= निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमयी यह औदारिक शरीर नहीं। निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं। स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नहीं। स्वशुद्धात्मा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकत्व भावना का फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मा में एकत्व भावना करनी चाहिए। इस प्रकार एकत्व भावना कही गयी।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 14 एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥
= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बन्धुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा।
= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना 1747-1751) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601) ( चारित्रसार पृष्ठ 187/2) (पं.विं./6/48 तथा सम्पूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65) (भूधरकृत भावना सं. 3) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
9. धर्मानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 82 णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झस्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥82॥
= जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,10/603/23 उक्तानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि च, तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो धर्मः जिनशासने स्वाख्यातः॥
= पूर्वोक्त जीवस्थानों व गुणस्थानों का उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्त्व को विचारणालक्षणवाला धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 68,81 एयारसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जोवो। सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतये णिच्चं ॥81॥
= उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः। अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा।
= जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1857-1865) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/2) (पं.विं.6/56) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633) (भूधरकृत भावना सं. 12)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145 चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता।
= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्मकी प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हन्तपद और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियों का भण्डार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिन्तामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
10. निर्जरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
समयसार / मूल या टीका गाथा 198 उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥198॥
= कर्मों के उदय का रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकार का कहा है। वे कर्म विपाक से हुए भाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112 निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता।
= निजपरमात्मानुभूति के बलसे निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादिरूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 67 सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥
= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है।
(भूधरकृत भावना सं. 10)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा।
= वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतनेपर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1845-1856) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11) (प.विं./6/53) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)।
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 83-84 उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु। सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥84॥
= जिस उपायसे सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिन्ता करने को अत्यन्त दुर्लभबोधि भावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यन्त कठिन है ॥83॥ अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिक ज्ञानकर्मों के उदय से, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्मा का निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥84॥
2. व्यवहार
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418 एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनन्तगुणाः। एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नोरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थं चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा।
= एक निगोद शरीरमें सिद्धों से अनन्त गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरन्तर भरा हुआ है। अतः इस लोकमें त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्रमें पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होनेके कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1866-1873) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/4) (पं.विं./6/55) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631) (भूधरकृत भावना सं. 11)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144 कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥
= यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति, आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनकी प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है। ....इसलिए उसको ही निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है। ऐसा संक्षेप से बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ।
12. लोकानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 42 असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥
= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभविचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करना चाहिए।
( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्।
= यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पों से) लोक के अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीव के धर्म प्रवृत्ति का यहाँ क्रम कहा गया है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/143 आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनादर्शे बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्थां लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। ....इति....निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा।
= आदि, मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है।...इस प्रकार....निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है।
2. व्यवहार
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719 तत्थणुवहंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं। जम्मणमरणपुणव्भवमणतभवसायरे भीमे ॥715॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादूत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥716॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ॥717॥ घिब्भक्दु लोगधम्मं देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥718॥ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥719॥
= इस लोकमें ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागरमें जन्म-मरण को बारम्बार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुन्दरता से अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगनेवाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनन्त जानकर अनन्त सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1798, 1812 आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होंति। सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवेहिं ॥1798॥ विज्जू वि चंचलं फेणदुव्वलं बाधिमहियमच्चुहदं। णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुद्धुदं लोगं ॥1812॥
= एक देशसे दूसरे देश को जानेवाले पुरुष के समान इस जीव को सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीव के साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अतः सर्व जीव इसके सम्बन्धी हैं ॥1798॥ यह जगत् बिजली के समान चंचल है, समुद्र के फेन के समान बलहीन है, व्याधि और मृत्यु से पीड़ित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दुःखों से भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं अर्थात् ज्ञानी इस लोक से प्रेम नहीं करते। इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा।
= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देशमें स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/4) (पं.विं./6/54) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77) (भूधरकृत भावना सं. 5)।
13. संवरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 65 जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥
= शुद्ध निश्चय नयसे जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / 181/क.127)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111 अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या।
= अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जानेसे जलके न घुसने से निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवरूपी जहाज़ अपने शुद्ध आत्म ज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवछिद्रों के मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसने से केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे संवर के गुणों के चिन्तवन रूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64 सुहजोगेण पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ सुद्धुपजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणो ति विचिंतये णिच्चं ॥64॥
= मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥64॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्धः इति सवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा।
= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वार के रुके होनेपर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तवन करना संवरानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1836-1844) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/2) (पं.विं./6/52) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73) (भूधरकृत 12 भावनाएँ)।
14. संसारानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 37 कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥37॥
= यद्यपि यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्मसे रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105 एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता।
= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिन्तवन करते हुए इस जीवके, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुख के अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बलसे संसार को नष्ट करनेवाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 24 पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। जिणमग्गमपेछंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥25॥
= यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकार के संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रङ्गे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिन्तनमनुप्रेक्षा
= कर्म विपाक के वशसे आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1768-1797) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710) (राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601) ( चारित्रसार पृष्ठ /186/5) (पं.विं./6/47) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28 चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनन्तः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पञ्चविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )।
= आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और तीनों से विलक्षण। अनेक योनि वाली चार गतियों में भ्रमण करना संसार है। शिवपद के परमामृत सुखमें प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें भ्रमण न होनेसे और मोक्ष की प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवनमुक्ति अवस्था ईषत् संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं। अभव्य तता भव्य सामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोसंसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षण का काल अन्तर्मुहूर्त है। नोसंसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड़ पूर्व है। सादि सान्त संसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है। ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भाव के भेद से पाँच प्रकार का है।
श्रीमद्राजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मल्यो। तोये अरे भव चक्रनो आंटो नहीं एके टलो।...रे आत्म तारो। आत्म तारो॥ शीघ्र एने ओणखो। सर्वात्म मां समदृष्टि द्यों आ वचनने हृदय लखो। = बहुत पुण्य के उदय से यह मानव की उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में किंचित् हानि न कर सका। अरे! अब शीघ्र अपनी आत्मा को पहिचानकर सर्व आत्माओं को समदृष्टि से देख, इस वचन को हृदयमें रख।
(विशेष दे.- संसार 3 में पंच परिवर्तन)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
अनगार धर्मामृत अधिकार 6/82/634 इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादिष्वद्धा यत्किंचिदन्तःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे। उच्चैरुच्चैः यदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराजत्कार्तार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्ध्नि॥
= परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं में-से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभी का तत्त्वतः हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनों पर विजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है। तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थंकरादि उन्नतोन्नत पदों को प्राप्त करने की अभिलाषा लगी हुई है ऐसे संसार के दुःख समुद्रसे पार पहुँच कर कृतकृत्यता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनों को धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक के ऊपर प्रदीप्त होता है।
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामें अन्तर
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव।
= एकत्व अनुप्रेक्षामें तो `मैं अकेला हूँ' इत्यादि प्रकार से विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में `देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि-निषेध रूप का ही अन्तर है। तात्पर्य दोनों का एक ही है।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा इन भावनाओं की सार्थकता
राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602 आस्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थकमुक्तत्वादिति चेत्, नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥7॥
= प्रश्न - आस्रव संवर और निर्जरा का कथन पहले प्रकरणों में हो चुका है अतः यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है? उत्तर - नहीं, उनके दोष विचार ने के लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12 जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥
= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।
( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)।
महापुराण सर्ग संख्या 21/99 विषयेष्वनभिष्वङ्गः कायतत्त्वानुचिन्तनम्। जगत्स्वभावचिन्त्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥
= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करना और जगत् के स्वभाव का चिन्तवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति।
= इससे (अर्थात् शरीर व आत्मा के भिन्न रूप समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है
रयणसार गाथा 64-65 दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूपे बारसणुवेक्खे ॥46॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुभभावो ॥65॥
= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बंधमोक्ष के कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवों के भाव हैं वे शुभ भाव हैं।
बारसाणुवेक्खा गाथा 63 सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजं गस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥
= मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियों से अशुभ योग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 149 एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम्।
= इस प्रकार भाव संवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के वर्णन करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है
तत्त्वार्थसार अधिकार 6/43/351 एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥43॥
= इस प्रकार (अन्तरंग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् संवर होता है।
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
बारसाणुवेक्खा गाथा 89,90 मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥
= जो पुरुष इन बारह भावनाओं का चिन्तन करके अनादि कालसे आज तक मोक्ष को गये हैं उनको मैं मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥89॥ इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है इतना ही बहुत है कि भूतकालमें जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिन्तवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओं का ही महत्त्व समझना चाहिए।
ज्ञानार्णव अधिकार 13/2/59 विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम्। उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्।
= इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश होता है।
पं./विं./6/42 द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥42॥
= महात्मा पुरुषों को निरन्तर बारहों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कर्म के क्षय का कारण होती है।
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1874/1679 इय आलंबणमणुपेहाओ धमस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंताणविणस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥1874॥
= धर्मध्यान में जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप हैं, अनुप्रेक्षा के बलपर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूप में एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होने पर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रता के लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/6/413 कस्मात्क्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते यस्मात्तप्तायःपिण्डवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः।
स./सि./9/7/419 मध्ये अनुप्रेक्षावचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते।
= तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महित की इच्छा करने वालों को ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बीचमें अनुप्रेक्षाओं का कथन दोनों अर्थ के लिए हैं। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परिषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग कालमें भी सन्ताप नहीं होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22 चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥
= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षणभंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मनको विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो।
( चारित्रसार पृष्ठ 178/2)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति।
= इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/4)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82 जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं।
= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है।
( चारित्रसार पृष्ठ 18/2)।
5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31 अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥
= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है।
( चारित्रसार पृष्ठ 180/2)।
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते।
= इस प्रकार चिन्तवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87 जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स।
= जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यान में लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवन्ति।
= इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30) ( चारित्रसार पृष्ठ 195/5)।
का.अ/.मू./94 एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥
= जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।
8. एकत्वानुप्रेक्ष का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति। परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।
= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिए निःसङ्गता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27) ( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥
= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीवके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।
9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यन्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437 इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥
= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पापसे दूर हो रहो।
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114 जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥
= जो मुनि समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जीतनेवाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301 इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥
= इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का अत्यन्त आदर करो।
12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति।
= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥
= जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिमत होकर इस प्रकार लोक के स्वरूप का ध्यान करता है वह कर्मपुंज को नष्ट करके उसी लोक का शिखामणि होता है।
13. संवारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः संवरे नित्योद्यक्तता भवति। ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के संवरमें निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
बारसाणुवेक्खा गाथा 38 संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचितिज्जो ॥38॥
= जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिए और जो संसाररूपी दुःखों से घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते।
= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए संसार के दुःख के भयसे उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73 इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥
= इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार-परिभ्रमण का नाश होता है।
अनुभव-लौकिक अथवा पारमार्थिक सुख-दुःख के वेदन को अनुभव कहते हैं। पारमार्थिक आनन्द का अनुभव ही शुद्धात्मा का अनुभव है, जो कि मोक्ष-मार्गमें सर्वप्रधान है। साधक की जघन्य स्थिति से लेकर उसकी उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त यह अनुभव बराबर तारतम्य भावसे बढ़ता जाता है और एक दिन उसे कृतकृत्य कर देता है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
1. भेद व लक्षण
1. अनुभव का अर्थ अनुभाग
2. अनुभव का अर्थ उपभोग
3. अनुभव का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
4. अनुभूति का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
5. स्वसंवेदन ज्ञान का अर्थ अन्तःसुख का वेदन
6. संवित्तिका अर्थ सुखसंवेदन
2. अनुभव निर्देश
1. स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शन का विषय है।
2. आत्मा का अनुभव स्वसंवेदन-द्वारा ही संभव है।
3. अन्य ज्ञेयों से शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है।
4. आत्मानुभव करने की विधि।
• आत्मानुभव व शुक्लध्यान की एकार्थता - देखें पद्धति ।
• आत्मानुभवजन्य सुख। - देखें सुख ।
• परमुखानुभव। - देखें राग ।
3. मोक्षमार्ग में आत्मानुभव का स्थान
1. आत्मा को जानने में अनुभव ही प्रधान है।
2. पदार्थ की सिद्धि आगमयुक्ति व अनुभव से होती है।
3. तत्त्वार्थश्रद्धान में आत्मानुभव ही प्रधान है।
4. आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता।
• शुद्धात्मानुभव का महत्त्व व फल। - देखें उपयोग - II.2।
• जो एक को जानता है वही सर्व को जान सकता है। - देखें श्रुतकेवली - 2.6।
4. स्वसंवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता
1. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है।
2. स्वसंवेदनमें केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है।
3. सम्यग्दृष्टि को स्वात्मदर्शन के विषय में किसीसे पूछने की आवश्यकता नहीं।
4. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता व परोक्षता का समन्वय।
5. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता का प्रयोजन।
• स्वसंवेदन ज्ञानमें विकल्प का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव। - देखें विकल्प ।
• मति-श्रुतज्ञान की पारमार्थिक परोक्षता। - देखें परोक्ष ।
• स्वसंवेदन ज्ञानके अनेकों नाम हैं। - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
5. अल्प भूमिकाओं में आत्मानुभव विषयक चर्चा
1. सम्यग्दृष्टि को स्वानुभूत्यावरण कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है।
2. सम्यग्दृष्टि को कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है।
• लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञानचेतना रहती है। - देखें सम्यग्दृष्टि - 2।
• सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना अवश्य होती है। - देखें चेतना - 2।
3. धर्मध्यान में कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है।
4. धर्मध्यान अल्पभूमिकाओं में भी यथायोग्य होता है।
• पंचमकालमें शुद्धानुभव संभव है। - देखें धर्मध्यान - 5।
5. निश्चय धर्मध्यान मुनि को होता है, गृहस्थ को नहीं।
6. गृहस्थ को निश्चय ध्यान कहना अज्ञान है।
7. साधु व गृहस्थ के निश्चय ध्यानमें अन्तर
• शुभोपयोग मुनि को गौण होता है और गृहस्थ को मुख्य। - देखें धर्म - 6।
• 1-3 गुणस्थान तक अशुभ और 4-6 गुणस्थान तक शुभ उपयोग प्रधान है। - देखें उपयोग - II.4।
8. अल्पभूमिका में आत्मानुभव के सद्भाव असद्भाव का समन्वय।
• शुद्धात्मानुभूति के अनेकों नाम। - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
6. शुद्धात्मा के अनुभव विषयक शंका समाधान
1. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्मा का अनुभव कैसे करें।
2. अशुद्धता के सद्भाव में भी उसकी उपेक्षा कैसे करें।
3. देहसहित भी उसका देहरहित अनुभव कैसे करें।
4. परोक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे करें।
• मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के अनुभवमें अन्तर। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
1. भेद व लक्षण
1. अनुभव का अर्थ अनुभाग
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/21 विपाकोऽनुभवः।
= विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देनेकी शक्ति का (कर्मों में) पड़ना ही अनुभव है।
देखो विपाक-द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से उत्पन्न पाक ही अनुभव है।
2. अनुभव का अर्थ उपभोग
राजवार्तिक अध्याय 3/273, 191 अनुभवः उपभोगपरिभोगसम्पत्।
= अनुभव उपभोग परिभोग रूप होता है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /3/27/222)।
3. अनुभव का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 42/184 स्वसंवेदनगम्य आत्म सुख का वेदन ही स्वानुभव है
- देखें आगे स्वसंवेदन ।
न्यायदीपिका अधिकार 3/8/56 इदन्तोल्लेखिज्ञानमनुभवः।
= `यह है' ऐसे उल्लेख से चिह्नित ज्ञान अनुभव है।
4. अनुभूति का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/क13 आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बद्ध्वा। आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमवबोधधनः समन्तात् ॥13॥
= शुद्धनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। अतः आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके सदा सर्व और एक ज्ञानधन आत्मा है इस प्रकार देखो।
पं.का./ता.प्र./39/79 चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात्।
= चेतना, अनुभव, उपलब्धि और वेदना ये एकार्थक हैं।
पं.ध.पु./651-652 स्वात्माध्यानाविष्टस्तथेह कश्चिन्नरोऽपिकिल यावत्। अयमहमात्मा स्वयमिति स्यामनुभविताहमस्य नयपक्षः ॥651॥ चिरमचिरं वा देवात् स एव यदि निर्विकल्पकश्च स्यात्। स्वयमात्मेत्यनुभवनात् स्यादियमात्मानुभूतिरिह तावत् ॥652॥
= स्वात्मध्यानसे युक्त कोई मनुष्य भी जहाँ तक 'मैं ही यह आत्मा हूँ और मैं स्वयं ही उसका अनुभव करनेवाला हूँ' इस प्रकार के विकल्प से युक्त रहता है, तब तक वह नयपक्ष वाला कहा जाता है ॥651॥ किन्तु यदि वही दैववशसे अधिक या थोड़े कालमें निर्विकल्प हो जाता है, तो `मैं स्वयं आत्मा हूँ' इस प्रकार का अनुभव करने से यहाँ पर उसी समय आत्मानभूति कही जाती है।
5. स्वसंवेदनज्ञान का अर्थ अन्तःसुख का वेदन
तत्त्वानुशासन श्लोक 161 वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत् स्वस्य स्वेन योगिनः। तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम् ॥161॥
= `स्वसंवेदन' आत्मा के उस साक्षात् दर्शनरूप अनुभव का नाम है जिसमें योगी आत्मा स्वयं ही ज्ञेय तथा ज्ञायक भाव को प्राप्त होता है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 12 अन्तरात्मलक्षणवीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन...यं परमात्मस्वभावम्...ज्ञातः।
= अन्तरात्म लक्षण वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा जो यह परमात्मस्वभाव जाना गया है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/176 रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसंजातसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादं...।
= रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परम स्वास्थ्य लक्षण संवित्ति या स्वसंवेदन से उत्पन्न सदानन्द रूप एक लक्षण अमृत रस का आस्वाद...
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 40/163; 42/184)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/177 शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन।
= शुद्धोपयोग लक्षण स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा...।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/21 तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम्।
= उसी शुद्धात्मा के उपाधिरहित स्वसंवेदरूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है।
6. संवित्ति का अर्थ सुखसंवेदन
नयचक्रवृहद् गाथा 350 लक्खणदो णियलक्खे अणुहवयाणस्स जं हवे सोक्खं। सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा ॥350॥
= निजात्मा के लक्ष्य से सकल विकल्पों को दग्ध करनेपर जो सौख्य होता है उसे संवित्ति कहते हैं।
2. अनुभव निर्देश
1. स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शन का विषय है
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/34/155 अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहक भवति।
= चारों दर्शनों में-से मानस अचक्षुदर्शन आत्मग्राहक है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 711-712 तदभिज्ञानं हि यथा शुद्धस्वात्मानुभूतिसमयेऽस्मिन्। स्पर्शनरसनघ्राणं चक्षुः श्रोतं च नोपयोगि मतम् ॥711॥ केवलमुपयोगि मनस्तत्र च भवतीह तन्मनी द्वेधा। द्रव्यमनो भावमनो नोइंद्रियनाम किल स्वार्थात् ॥712॥
= शुद्ध स्वात्मानुभूति के समयमें स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियाँ उपयोगी नहीं मानी जातीं ॥711॥ तहाँ केवल एक मन ही उपयोगी है और वह मन दो प्रकार का है - द्रव्यमन व भावमन।
2. आत्मा का अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है
तत्त्वानुशासन श्लोक 166-167 मोहीन्द्रियाधिया दृश्यं रूपादिरहितत्वतः। विसर्कास्तत्र पक्ष्यन्ति ते ह्यविस्पष्टतर्कणाः ॥166॥ उभयस्मिन्निरुद्धे तु स्याद्विस्पष्टमतीन्द्रियम्। स्वसंवेद्यं हि तद्रूपं स्वसंवित्त्यैव दृश्यताम् ॥167॥
= रूपादि से रहित होनेके कारण वह आत्मरूप इन्द्रियज्ञानसे दिखाई देनेवाला नहीं है। तर्क करनेवाले उसे देख नहीं पाते। वे अपनी तर्कणा में भी विशेष रूपसे स्पष्ट नहीं हो पाते ॥166॥ इन्द्रिय और मन दोनों के निरुद्ध होनेपर अतीन्द्रिय ज्ञान विशेष रूपसे स्पष्ट होता है। अपना वह जो स्वसंवेदन के गोचर है, उसे स्वसंवेदन के द्वारा ही देखना चाहिए ॥167॥
3. अन्य ज्ञेयों से शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है
तत्त्वानुशासन श्लोक 160, 172 चिन्ताभावी न जैनानां तुच्छो मिथ्यादृशामिव। दृग्बोधसामान्यरूपस्य स्वस्य संवेदनं हि सः ॥160॥ तदा च परमैकाग्र्याद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥172॥
= चिन्ता का अभाव जैनियों के मतमें अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान तुच्छाभाव नहीं है, क्योंकि वह वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और समतारूप आत्मा के संवेदन रूप है ॥160॥ उस समाधिकालमें स्वात्मामें देखनेवाले योगी की परम एकाग्रता के कारण बाह्य पदार्थों के विद्यमान होते हुए भी आत्मा के (सामान्य प्रतिभास के) अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ॥172॥
देखें ध्यान - 4.6 (आलेख्याकारवत् अन्य ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं) - इन दोनों का समन्वय देखें दर्शन - 2।
4. आत्मानुभव करने की विधि
समयसार / आत्मख्याति गाथा 144 यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावात्मानं निश्चित्य ततः खल्वात्मख्यातये परख्यातिहेतूनखिला एवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरवधार्य आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वतः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेकविकल्पैराफुयन्तीः श्रुतज्ञानबुद्धिरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरितरन्तमिबाखण्डप्रतिभासमयमनन्तं विज्ञान घनं परमात्मानं समयसारं विन्दन्नैवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च।
= प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके, और फिर आत्मा की प्रसिद्धि के लिए, पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत इन्द्रियों और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसम्मुख किया है; तथा जो नाना प्रकार के नयपक्षों के आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान तत्त्व को भी आत्मसम्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरससे ही प्रकट होता हुआ, आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल, एक, सम्पूर्ण ही विश्वपर मानो तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है, और ज्ञात होता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 381/क223 रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः, पूर्वागामिसमस्तकर्म बिकला भिन्नास्तदात्वादयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं, विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥223॥
= जिनका तेज राजद्वेषरूपी विभावसे रहित है, जो सदा स्वभाव को स्पर्श करनेवाले हैं, जो भूतकाल के तथा भविष्यत्काल के समस्त कर्मों से रहित हैं, और जो वर्तमानकाल के कर्मोदय से भिन्न हैं; वे ज्ञानी अतिप्रबल चारित्र के वैभव के बलसे ज्ञानकी संचेतना का अनुभव करते हैं - जो ज्ञान चेतना चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और जिसने अपने रस से समस्त लोक को सींचा है।
3. मोक्षमार्ग में आत्मानुभव का स्थान
1. आत्मा को जानने में अनुभव ही प्रधान है
समयसार / मूल या टीका गाथा 5 तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेतव्वं ॥5॥
= उस एकत्व विभक्त आत्मा को मैं निजात्मा के वैभव से दिखाता हूँ। यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल ग्रहण न करना।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 3), (पं.विं./1/110), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 963) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 71)
समयसार / आ/5 यदि दर्शेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्त्तव्यम्।
= मैं जो यह दिखाऊँ उसे स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण करना।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / परिशिष्ट/प्रारम्भ-ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यत इति चेत्। आत्मा हि तावच्चैतन्यसामान्यव्याप्तानन्तधर्माधिष्ठात्रेकं द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्रुतक्षानलक्षणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात्।
= प्रश्न - यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है? उत्तर - आत्मा वास्तवमें चैतन्यसामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से प्रमेय होता है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 20/44 तदित्थं भूतमात्मागमानुमानस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानात् शुद्धो भवति।
= वह इस प्रकार का यह आत्मा आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से शुद्ध होता है।
2. पदार्थ की सिद्धि आगम, युक्ति व अनुभव से होती है
सा.सा./आ./44 न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः।
= जो इन अध्यवसानादिक को जीव कहते हैं, वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं हैं, क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभव से उनका पक्ष बाधित है। (और भी देखें पक्षाभास व अकिंचित्करहेत्वाभास ) ।
3. तत्त्वार्थश्रद्धान में आत्मानुभव ही प्रधान है
समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18 परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वाच्छ्रद्धानमपि नोत्प्लवते।
= परके साथ एकत्व के निश्चयसे मूढ़ अज्ञानी जनको `जी यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 415-20 स्वानुभूतिसनाथश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः। स्वानुभूतिं विनाभासा नार्थाच्छ्रद्धादयो गुणाः ॥415॥ नैवं यतः समव्याप्तिः श्रद्धा स्वानुभवद्वयोः। नूनं नानुपलब्धेऽर्थे श्रद्धा खरविषाणवत् ॥420॥
= यदि श्रद्धा आदि स्वानुभव सहित हों तो वे सम्यग्दृष्टि के गुण लक्षण कहलाते हैं और वास्तव में स्वानुभव के बिना उक्त श्रद्धा आदि सम्यग्दर्शन के लक्षण नहीं कहलाते किन्तु लक्षणाभास कहलाते हैं ॥415॥ श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनों में समव्याप्ति है, कारण कि निश्चय से सम्यग्ज्ञान के द्वारा अगृहीत पदार्थ में सम्यक्श्रद्धा खरविषाण के समान हो ही नहीं सकती ॥420॥
( लांटी संहिता अधिकार 3/60,66)।
4. आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता
रयणसार गाथा 90 णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तुवलद्धि णत्थि णियमेण। सम्मत्तुवलद्धि विणा णिव्वाणं णत्थि जिणुद्दिट्ठं ॥90॥
= निज तत्त्वोपलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं होती और सम्यक्त्व की उपलब्धि के बिना निर्वाण नहीं होता ॥90॥
समयसार / आत्मख्याति गाथा 12/क6 एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियतमात्मा चतावानयं, तन्मुक्त्वानवतत्त्वसंततिमिमात्मायमेकोऽस्तु नः ॥6॥
= इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहनेवाला है और शुद्ध नयसे एक तत्त्वमें निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है। एवं जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए इस नव तत्त्व की सन्तति को छोड़कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।
4. स्वसंवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता
1. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है
नयचक्रवृहद् गाथा 266 पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥266॥
= आराधना कालमें युक्ति आदि का आलम्बन करना योग्य नहीं; क्योंकि अनुभव प्रत्यक्ष होता है।
तत्त्वानुशासन श्लोक 168 वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण चकासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥168॥
= स्वतन्त्रता से चमकती हुई यह ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूपसे प्रतिभासित न होनेपर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 127/190 यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्षज्ञानेन व्यवहारनयेन धूमादग्निवदशुद्धात्मा ज्ञायते तथापि स्वसंवेदनज्ञानसमुत्पन्न...सुखामृतजलेन....भरितावस्थानां परमयोगितां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणां न भवति।
= यद्यपि अनुमान लक्षण परोक्षज्ञान के द्वारा व्यवहारनयसे धूमसे अग्नि की भाँति अशुद्धात्मा जानी जाती है, परन्तु स्वसंवेदन ज्ञानसे उत्पन्न सुखामृत जलसे परिपूर्ण परमयोगियों को जैसा शुद्धात्मा प्रत्यक्ष होता है, वैसा अन्य को नहीं होता।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा )।
2. स्वसंवेदन में केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190 प्रक्षेपक गाथा-को विदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्जरूवमिणं। पच्चक्खमेव दिट्ठं परोक्खणाणे पवंट्ठं तं।
= वर्तमानमें ही परोक्ष ज्ञानमें प्रवर्तमान स्वरूप भी साधु को प्रत्यक्ष होता है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1/$31/44 केवलणाणस्स ससंवेयणपच्छक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो। = स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप ज्ञान की निर्बाधरूपसे उपलब्धि होती है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 143 यथा खलु भगवान्केवली.....विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु.....नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल यः.....श्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु....स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात्.....नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः।
= जैसे केवली भगवान् विश्व के साक्षीपने के कारण, स्वरूप को ही मात्र जानते हैं, परन्तु किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते; इसी प्रकार श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होनेपर भी परका ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे स्वरूप को ही केवल जानते हैं परन्तु स्वयं ही विज्ञानघन होनेसे नय पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तवमें समस्त विकल्पों से पर परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्याति रूप अनुभूतिमात्र समयसार है। (और भी देखें नय - I.3.5-6)।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/12 भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधीर्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देव स्वयं शाश्वतः ॥12॥
= यदि कोई सुबुद्धि जीव भूत, वर्तमान व भविष्यत् कर्मों के बन्ध को अपने आत्मासे तत्काल भिन्न करके तथा उस कर्मोदय के बलसे होने वाले मिथ्यात्व को अपने बलसे रोककर अन्तरंग में अभ्यास करे, तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिसको प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य कर्मकलंक से रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव बिराजमान है।
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 203/क 240)।
ज्ञानार्णव अधिकार 32/44 सुसंवृत्तेन्द्रियग्रामे प्रसन्ने चान्तरात्मनि। क्षणं स्फुरति यत्तत्त्वं तद्रूपं परमेष्ठिनः ॥44॥
= इन्द्रियों का संवर करके अन्तरंग में अन्तरात्मा के प्रसन्न होनेपर जो उस समय तत्त्व स्फुरण होता है, वही परमेष्ठी का रूप है।
( समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 30)।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 110 इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्टं चतुर्थकाले केवलज्ञानिवत्।
= यह आत्म-स्वरूप मेरे द्वारा चतुर्थ कालमें केवलज्ञानियों की भाँति प्रत्यक्ष देखा गया।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 33 यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति रात्रौ किमपि प्रदीपेनेति। तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिवसस्थानीयमाक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति। संसारी विवेकिजनः पुनर्निशास्थानीयसंसारपर्याये प्रदीपस्थानीयेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिना निजात्मानं पश्यतीति।
= जैसे कोई देवदत्त सूर्योदय के द्वारा दिनमें देखता है और दीपक के द्वारा रात्रि को कुछ देखता है। उसी प्रकार मोक्ष पर्यायमें भगवान् आत्मा को केवलज्ञान के द्वारा देखते हैं। संसारी विवेकी जन संसारी पर्यायमें रागादिविकल्प रहित समाधि के द्वारा निजात्मा को देखते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 146/क. 253 सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः। न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडाः वयम् ॥253॥
= सर्वज्ञ वीतरागमें और इस स्ववश योगीमें कहीं कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरेरे! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ॥253॥
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 178/क 297 भावाः पञ्च भवन्ति येषु सततं भावः परः पञ्चम। स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः ॥297॥
= भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव(पारिणामिक भाव) निरन्तर स्थायी है। संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों के गोचर है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 210,489 नातिव्याप्तिरभिज्ञाने ज्ञाने वा सर्ववेदिनः। तयोः संवेदनाभावात् केवलं ज्ञानमात्रतः ॥210॥ अस्ति चात्मपरिच्छेदिज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः। स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् ॥489॥
= स्वानुभूति रूप मति-श्रुतज्ञानमें अथवा सर्वज्ञ के ज्ञानमें अशुद्धोपलब्धि की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि उन दोनों ज्ञानों में सुख दुःख का संवेदन नहीं होता है। वे मात्र ज्ञान रूप होते हैं ॥210॥ सम्यग्दृष्टि जीव का अपनी आत्मा को जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान शुद्ध और सिद्धों के समान होता है ॥489॥
समयसार / 143 पं. जयचन्द "जब नयपक्ष को छोड़ वस्तुस्वरूप को केवल जानता ही हो, तब उस कालमें श्रुतज्ञानी भी केवली की तरह वीतराग के समान ही होता है।
3. सम्यग्दृष्टि को स्वात्मदर्शन के विषय में किसीसे पूछने की आवश्यकता नहीं
समयसार / आत्मख्याति गाथा 206 आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति। तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः।
= आत्मसे तृप्त ऐसे तुझ को वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा और उस सुख को उसी क्षण तू ही स्वयं देखेगा, दूसरों से मत पूछ।
4. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता व परोक्षता का समन्वय
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190 यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविकल्परहितंस्वसंवेदनरूपं भावश्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्षं भण्यते, तथापि इन्द्रियमनोजनितसविकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षम्। तेन कारणेन आत्मा स्वसंवेदनज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षोऽपि भवति, केवलज्ञानापेक्षया पुनः परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तुं नायाति। किंतु चतुर्थकालेऽपि केवलिनः, किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयन्ति। तेऽपि दिव्यध्वनिना भणित्वा गच्छन्ति। तथापि श्रवणकाले श्रोतृणां परोक्ष एव पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति। तथा इदानीं कालेऽपीति भावार्थः।
= यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा रागादि विकल्परहित स्वसंवेदनरूप भाव श्रुतज्ञान शुद्ध निश्चय से परोक्ष कहा जाता है, तथापि इन्द्रिय मनोजनित सविकल्प ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आत्मा स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता हुआ भी केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष भी है। `सर्वथा परोक्ष ही है' ऐसा कहना नहीं बनता। चतुर्थकाल में क्या केवली भगवान् आत्मा को हाथमें लेकर दिखाते हैं। वे भी तो दिव्यध्वनि के द्वारा कहकर चले ही जाते हैं। फिर भी सुनने के समय जो श्रोता के लिए परोक्ष है, वही पीछे परम समाधिकालमें प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार वर्तमान कालमें भी समझना।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 99/159 स्वसंवेदनज्ञानरूपेण यदात्मग्राहकं भावश्रुतं तत्प्रत्यक्षं यत्पुनर्द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमज्ञं तच्च मूर्तामूर्तोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसदृशमित्यभिप्रायः।
= स्वसंवेदन ज्ञानरूपसे आत्मग्राहक भाव श्रुतज्ञान है वह प्रत्यक्ष है और जो बारह अंग चौदह पूर्व रूप परमागम नामवाला ज्ञान है, वह मूर्त, अमूर्त व उभय रूप अर्थों के जानने के विषय में अनुमान ज्ञान के रूपमें परोक्ष होता हुआ भी केवलज्ञानसदृश है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 5/16/1 शब्दात्मकं श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्; स्वर्गापवर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं तदपि परोक्षम् यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषत्परोक्षम्। यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्यं वीतरागसम्यक्चारित्राविनाभूतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावात् क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते। अत्राह शिष्यः-आद्ये परोक्षमिति तत्त्वार्थसूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्षं भणितं तिष्ठति, कथं प्रत्यक्षं भवतीति परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इदं पुनरपवादव्याख्यानम्, यदि तदुत्सर्गव्याख्यानं न भवति तर्हि मतिज्ञानं कथं तत्त्वार्थे परोक्षं भणितं तिष्ठति। तर्कशास्त्रेसांव्यवहारिकं प्रत्यक्षं कथं जातम्। यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानं तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्षं भण्यते। यदि पुनरेकान्तेन परोक्षं भवति तर्हि सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्षं प्राप्नोति, न च तथा।
= श्रुतज्ञान के भेदों में शब्दात्मश्रुतज्ञान तो परक्ष ही है और स्वर्ग मोक्ष आदि बाह्य विषयों की परिच्छित्ति रूप विकल्पात्मक ज्ञान भी परोक्ष ही है। यह जो अभ्यन्तर में सुख दुःख के विकल्प रूप या अनन्त ज्ञानादि रूप मैं हूँ ऐसा ज्ञान होता है वह ईषत्परोक्ष है। परन्तु जो निश्चय भाव श्रुतज्ञान है, वह शुद्धात्माभिमुख स्वसंवित्ति स्वरूप है। यह यद्यपि संवित्ति के आकार रूपसे सविकल्प है, परन्तु इन्द्रिय मनोजनित रागादि विकल्प जालसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। अभेदनय से वही ज्ञान आत्मा शब्द से कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक् चारित्र के बिना नहीं होता। वह ज्ञान यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है तथापि संसारियों को क्षायिक ज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे क्षायोपशमिक होनेपर भी `प्रत्यक्ष' कहलाता है। प्रश्न - `आद्ये परोक्षम्' इस तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है, फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? उत्तर - तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग व्याख्यान की अपेक्षा कहा है और यहाँ अपवाद व्याख्यान की अपेक्षा है। यवि तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग का कथन न होता तो तत्त्वार्थसूत्रमें मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है? और यदि सूत्र के अनुसार वह सर्वथा परोक्ष ही होता तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ? इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्षरूप भी मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है वैसे ही स्वात्मसन्मुख ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि एकान्तसे मति, श्रुत दोनों परोक्ष ही हों तो सुख दुःख आदि का जो संवेदन होता है वह भी परोक्ष ही होगा। किन्तु वह स्वसंवेदन परोक्ष नहीं है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 706-707 अपि किंचाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिम यावत्। स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥706॥ तदिह द्वैतमिदं चित्स्पर्शादीन्द्रियविषयपरिग्रहणे। व्योमाद्यवगमकाले भवति परोक्षं न समक्षमिह नियमात् ॥707॥
= स्वात्मानुभूति के समयमें मति व श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष की भाँति होने के कारण प्रत्यक्ष है, परोक्ष नहीं ॥706॥ स्पर्शादि इन्द्रिय के विषयों को ग्रहण करते समय और आकाशादि पदार्थों को विषय करते समय ये दोनों ही परोक्ष हैं प्रत्यक्ष नहीं।
( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 460-462)।
रहस्यपूर्ण चिठ्ठी पं. टोडरमल-"अनुभवमें आत्मा तो परोक्ष ही है। - परन्तु स्वरूपमें परिणाम मग्न होते जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है....स्वयं ही इस अनुभव का रसास्वाद वेदे है।
5. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता का प्रयोजन
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86 निर्विकारशुद्धात्मानुभूत्यभिमुखं यन्मतिज्ञानंतदेवोपादेयभूतानन्तसुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरङ्गं पुनर्व्यवहारेणेति तात्पर्यम्।....अभेदरत्नत्रयात्मकं यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयभूतपरमात्मतत्त्वसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं, तत्साधकं बहिरङ्गं तु व्यवहारेणेति तात्पर्यम्।
= निर्विकार शुद्धात्मानुभूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनन्त सुख का साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है और उसका साधक बहिरंग मतिज्ञान व्यवहार से उपादेय है। इसी प्रकार अभेद रत्नत्र्यात्मक जो भाव श्रुतज्ञान है वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्व का साधक होनेसे निश्चय से उपादेय है और उसका साधक बहिरंग श्रुतज्ञान व्यवहार से उपादेय है, ऐसा तात्पर्य है।
5. अल्प भूमिकाओं में आत्मानुभव विषयक चर्चा
1. सम्यग्दृष्टि को स्वानुभूत्यावरण कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है
धवला पुस्तक पं./उ./407,856 हेतुस्तत्रापि सम्यक्त्वोत्पत्तिकालेऽस्त्यवश्यतः। तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवस्थान्तरं स्वतः ॥407॥ अवश्यं सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षति... ॥856॥
= सम्यक्त्व के होनेपर नियमपूर्वक लब्धि रूप स्वानुभूति के रहनेमें कारण यह है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय अवश्य ही स्वयं स्वानुभूत्यावरण कर्म का भी यथायोग्य क्षयोपशम होता है ॥407॥ सम्यक्त्व होते ही स्वानुभूत्यावरण कर्म का नाश अवश्य होता है ॥856॥
2. सम्यग्दृष्टि को कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है
समयसार / मूल या टीका गाथा 14 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्टं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं बियाणीहि ॥14॥
= जो नय आत्मा बन्ध रहित, परके स्पर्श रहित, अन्यत्व रहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भाव रूपसे देखता है उसे हे शिष्य! तू शुद्ध नय जान ॥14॥ इस नयके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है ॥11॥
( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 233)।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/38/4 सम्यग्दृष्टीनामवगताप्तस्वरूपाणां...ज्ञानदर्शनानामावरणविविक्तानन्तज्ञानदर्शनशक्तिखचितात्मस्मर्तृणां वा पापक्षयकारित्वतस्तयोस्तदुपपत्तेः।
= आप्त के स्वरूप को जाननेवाले और आवरणरहित अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शनरूप शक्ति से युक्त आत्माका स्मरण करनेवाले सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानमें पाप का क्षयकारीपना पाया जाता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/क.13 आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियमेष किलेति बुद्ध्वा....॥13॥
= जो पूर्वकथित शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वही वास्तव में ज्ञानकी अनुभूति है
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 166/239 अर्हदादिभक्तिसंपन्नः कथंचिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोगतामजहत बहुशः पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते।
= अर्हन्तादिके प्रति भक्ति सम्पन्न जीव कथंचित् शुद्ध संप्रयोगवाला होनेपर भी राग लव जीवित होनेसे शुभोपयोग को न छोड़ता हुआ बहुत पुण्य बाँधता है, परन्तु वास्तवमें सकल कर्मों का क्षय नहीं करता।
ज्ञानार्णव अधिकार 32/43 स्याद्यद्यत्प्रीतयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम्। विभेत्ययं पुनर्यस्मिंस्तदेवानन्दमन्दिरम् ॥43॥
= अज्ञानी पुरुष जिस-जिस विषयमें प्रीति करता है, वे सब ज्ञानी के लिए आपदा के स्थान हैं तथा अज्ञानी जिस-जिस तपश्चरणादि से भय करता है वही ज्ञानी के आनन्द का निवास है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 248 श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते।
= श्रावकों के भी सामायिकादि कालमें शुद्ध भावना दिखाई देती है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 170 चतुर्थगुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति, ततोऽपि स्वर्गादागत्य मनुष्य भवे चक्रवर्त्यादिविभूतिं लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति।
= चतुर्थ गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को नहीं छोड़ता हुआ वह देवलोक में काल गँवाता है। पीछे स्वर्ग से आकर मनुष्य भवमें चक्रवर्ती आदि की विभूति को प्राप्त करके भी, पूर्वभवमें भावित शुद्धात्मभावना के बलसे मोह नहीं करता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 710 इह सम्यग्दृष्टेः किल मिथ्यात्वोदयविनाशजा शक्तिः। काचिंदनिर्वचनीया स्वात्मप्रत्यक्षमेतदस्ति यथा॥
= सम्यग्दृष्टि जीव के निश्चय हो मिथ्यात्वकर्म के अभावसे कोई अनिर्वचनीय शक्ति होती है जिससे यह आत्मप्रत्यक्ष होता है।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 7/376/6 नीचली दशाविषै केई जीवनिकै शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का युक्तपना पाइये है।
सा.सं./भाषा/4/266/193 चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन के साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भी आत्मामें प्रगट हो जाता है।
यु.अ./51 पं. जुगल किशोर "स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥51॥
= असंयत सम्यग्दृष्टि के भी स्वानुरूप मनःसाम्य की अपेक्षा मनका सम होना बनता है; क्योंकि उसकें संयम का सर्वथा अभाव नहीं है।
3. धर्मध्यान में किंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 47/199 निश्चयमोक्षमार्ग तथैव....व्यवहारमोक्षमार्गं च तद्द्विविधमपि निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकपरमध्यानेन मुनिः प्राप्नोति....।
= निश्चय मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्ग इन दोनों को मुनि निर्विकार स्वसंवेदनरूप परमध्यान के द्वारा प्राप्त करता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 56/225 तस्मिन्ध्याने स्थितानां यद्वीतरागपरमानन्दसुखं प्रतिभाति तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम्। तच्च पर्यायनामान्तरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते। तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं तदेवैकदेशव्यक्तिरूप.....परमहंसस्वरूपम्। .....तदेव शुद्धचारित्रं....स एव शुद्धोपयोगः, .....षडावश्यकस्वरूपं, ....सामायिकं, ...चतुर्विधाराधना, ....धर्मध्यानं, .....शुक्लध्यानं, ....शून्यध्यानं, ....परमसाम्यं, ...भेदज्ञानं, ....परमसमाधि, .....परमस्वाध्याय इत्यादि 66 बोल।
= उस ध्यानमें स्थित जीवों को जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासता है, वह निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। वही पर्यायान्तरसे क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते हैं। वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप तथा एकदेश परमहंसस्वरूप है। वही शुद्धचारित्र, शुद्धोपयोग, षडावश्यकस्वरूपसामायिक, चतुर्विराधना, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, शून्यध्यान, परमसाम्य, भेदज्ञान, परम समाधि, परमस्वाध्याय आदि हैं।
4. धर्मध्यान अल्प भूमिकाओंमें भी यथायोग्य होता है
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 194 ध्यायति यः कर्ता। कम्। निजात्मानम्। किं कृत्वा। स्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा।.....कथंभूतः।....यतिः गृहस्थः। य एवं गुणविशिष्टः क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम्।
= जो यति या गृहस्थ स्वसंवेदनज्ञान से जानकर निजात्मा को ध्याता है उसकी मोहग्रन्थि नष्ट हो जाती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/201-205 तावदागमभाषया (201).....तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधानचतुर्गुणस्थानवर्त्तिजावसंभवं, मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यानं कथ्यते ॥202॥.....अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनी भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धिं कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहमनन्तसुखोऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यन्तरधर्मध्यानमुच्यते। पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरंगधर्मध्यानंभ वति (204)।
= आगम भाषा के अनुसार तारतम्य रूपसे असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानवर्ती जीवोंमें सम्भव, मुख्यरूप से पुण्यबन्ध का कारण होते हुए भी परम्परासे मुक्ति का कारण धर्मध्यान कहा गया है। अध्यात्म भाषा के अनुसार सहज शुद्ध परम चैतन्य शालिनी निर्भरानन्द मालिनी भगवती निजात्मामें उपादेय बुद्धि करके पीछे `मैं अनन्त ज्ञानरूप हूँ, मैं अनन्त सुख रूप हूँ' ऐसी भावना रूप अभ्यन्तर धर्मध्यान कहा जाता है। पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति आदि तथा तदनुकूल शुभानुष्ठान बहिरंग धर्मध्यान होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 688,915 दृङ्मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत्। न भवेद्विघ्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥688॥ प्रमत्तानां विकल्पत्वान्नस्यात्मा शुद्धचेतना। अस्तोति वासनोन्मेषः केषांश्चित्स न सन्निह ॥915॥
= आत्मा के दर्शनमोहकर्म का अभाव होनेपर शुद्धात्मा का अनुभव होता है। उसमें किसी भी चारित्रावरणकर्म का उदय बाधक नहीं होता ॥688॥ `प्रमत्तगुणस्थान तक विकल्प का सद्भाव होनेसे वहाँ शुद्ध चेतना सम्भव नहीं ऐसा जो किन्हीं के वासना का उदय है, सो ठीक नहीं है ॥915॥
5. निश्चय धर्मध्यान मुनि को होता है गृहस्थ को नहीं
ज्ञानार्णव अधिकार 4/17 खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमें ॥17॥
= आकाशपुष्प अथवा खरविषाण का होना कदाचित सम्भव है, परन्तु किसी भी देशकालमें गृहस्थाश्रममें ध्यान की सिद्धि होनी सम्भव नहीं ॥17॥
तत्त्वानुशासन श्लोक 47 मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा। अप्रमत्तेषुं तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥47॥
= धर्मध्यान मुख्य और उपचार के भेदसे दो प्रकार का है। अप्रमत्त गुणस्थानों में मुख्य तथा अन्य प्रमत्तगुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 96 ननु वीतरागस्वसंवेदनज्ञानविचारकाले वीतरागविशेषणं किमिति क्रियते प्रचुरेण भवद्भिः, किं सरागमपि स्वसंवेदनज्ञानंमस्तीति। अत्रोत्तरं विषयसुखानुभवानन्दरूपं स्वसंवेदनज्ञानं सर्वजनप्रसिद्धं सरागमप्यस्ति। शुद्धात्मसुखानुभूतिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं वीतरागमिति। इदं व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थः।
= प्रश्न - वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान का विचार करते हुए आप सर्वत्र `वीतराग' विशेषण किसलिए लगाते हैं। क्या सराग को भी स्वसंवेदनज्ञान होता है? उत्तर - विषय सुखानुभव के आनन्द रूपसंवेदनज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध है। वह सराग को भी होता है। परन्तु शुद्धात्म सुखानुभूति रूप स्वसंवेदनज्ञान वीतराग को ही होता है। स्वसंवेदनज्ञान के प्रकरणमें सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 254/347 विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्त्तरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति।
= विषय कषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र ध्यानों में परिणत गृहस्थजनों को आत्माश्रित धर्म का अवकाश नहीं है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96 असंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यभोत्कृष्टभेदेन विवक्षितै कदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।
= असंयत सम्यग्दृष्टिसेप्रमत्तसंयत तक के तीन गुणस्थानों में परम्परा रूपसे शुद्धोपयोग का साधक तथा ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक विशुद्ध शुभोपयोग वर्तता है और उसके अनन्तर अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त के गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद को लिये विवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है।
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305/9 मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते। तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते।
= मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्तलोह के गोले के समान गृहस्थों को परमात्मध्यान प्राप्त नहीं होता।
(देवसेन सूरिकृत भावसंग्रह 371-397, 605)
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 81/232/24 क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलन ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीनः। एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्धैकस्वभावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानन्दरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते। स परिणामो गृहस्थानां न भवति। पञ्चसूनासहितत्वात्।
= परिषह व उपसर्ग के आनेपर चित्त का चलना क्षोभ है। उससे रहित मोह-क्षोभ विहीन है। ऐसे गुणों से विशिष्ट शुद्धबुद्ध एकस्वभावी आत्मा का चिच्चमत्कार लक्षण चिदानन्द परिणाम धर्म कहलाता है। पंचसून दोष सहित होने के कारण वह परिणाम गृहस्थों को नहीं होता।
6. गृहस्थ को निश्चयध्यान कहना अज्ञान है
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305 ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रूवते ते जिनधर्मविराध का मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः।
= जो गृहस्थ होते हुए भी मनाक् आत्मभावना को प्राप्त करके `हम ध्यानी हैं' ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म विराधक मिथ्यादृष्टि जानने चाहिए।
भावसंग्रह/385 (गृहस्थों को निरालम्ब ध्यान माननेवाला मूर्ख है)।
7. साधु व गृहस्थ के निश्चय ध्यानमें अन्तर
भो.पा./मू./83-86 णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सी होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥83॥ एवं जिणेहिं कहि सवणाणं सावयाण पुण सुणसु। संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥85॥ गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं। तं जाणे ज्झाइज्जइ सावय! दुक्खक्खयट्ठाए ॥86॥
= निश्चय नय का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा ही विषैं आपही के अर्थि भले प्रकार रत होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाणकू पावै है ॥83॥ इस प्रकार का उपदेश श्रमणों के लिए किया गया है। बहुरि अब श्रावकनिकूं कहिये हैं, सो सुनो। कैसा कहिये है-संसार का तो विनाश करनेवाला और सिद्धि जो मोक्ष ताका करनेवाला उत्कृष्ट कारण है ॥85॥ प्रथम तौ श्रावककूं भलै प्रकार निर्मल और मेरुवत् अचल अर चल, मलिन, अगाढ दूषण रहित अत्यन्त निश्चल ऐसा सम्यक्त्कूं ग्रहणकरि, तिसकूं ध्यानविषैं ध्यावना, कौन अर्थिदुःख का क्षय के अर्थि ध्यावना ॥86॥ जो जीव सम्यक्त्वकूं ध्यावै है, सो जीव सम्यग्दृष्टि है, बहुरि सम्यक्त्वरूप परिणया संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥87॥
8. अल्पभूमिका में आत्मानुभव के सद्भाव-असद्भाव का समन्वय
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 10 यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मानं जानातिस निश्चयश्रुतकेवली भवति। यस्तु स्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति, बहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति। ननु तर्हि-स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तत्र यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किंतु धर्मध्यानयोग्यमस्तीत्यर्थः।
= जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञान के बलसे शुद्धात्मा को जानता है, वह निश्चय श्रुतकेवली होता है। जो शुद्धात्मा का संवेदन तो नहीं करता परन्तु बहिर्विषयरूप द्रव्य श्रुत को जानता है वह व्यवहारश्रुतकेवली होता है। प्रश्न - तब तो स्वसंवेदन ज्ञान के बलसे इस कालमें श्रुतकेवली हो सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदनज्ञान पूर्वपुरुषों को होता था वैसा इस कालमें नहीं है, किन्तु धर्मध्यान के योग्य है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 248 ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयोगिनामपि क्वापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते। श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते; तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति। परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्त्तन्ते, यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते। येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्त्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव। कस्मात्। बहुपदस्य प्रधानत्वादाम्रवननिम्बवनवदिति।
= प्रश्न - शुभोपयोगियों के भी किसी काल शुद्धोपयोग की भावना देखी जाती है और शुद्धोपयोगियों के भी किसी काल शुभोपयोग की भावना देखी जाती है। श्रावकों के भी सामायिकादि कालमें शुद्धभावना दिखाई देती है। इनमें किस प्रकार विशेष या भेद जाना जाये? उत्तर - जो प्रचुर रूपसे शुभोपयोग में वर्तते हैं वे यद्यपि किसी काल शुद्धोपयोग की भावना भी करते हैं तथापि शुभोपयोगी ही कहलाते हैं और इसी प्रकार शुद्धोपयोगी भी यद्यपि किसी काल शुभोपयोग रूपसे वर्तते हैं तथापि शुद्धोपयोगी ही कहे जाते हैं। कारण कि आम्रवन व निम्बवन की भाँति बहुपद की प्रधानता होती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/97/1 तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगो कथं घटते इति चेत्तत्रोत्तरम्-शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्माध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते। स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति फलभूतकेवलज्ञानपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किंतु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं एकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते।
= प्रश्न - अशुद्ध निश्चयमें शुद्धोपयोग कैसे घटित होता है? उत्तर - शुद्धोपयोग में शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ध्येयरूपसे रहती है। इस कारणसे शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलम्बन होनेसे और शुद्धात्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग घटित होता है। संवर शब्द का वाच्य वह शुद्धोपयोग न तो मिथ्यात्वरागादि अशुद्ध पर्यायवत् अशुद्ध होता है और न ही केवलज्ञानपर्यायवत् शुद्ध ही होता है। किन्तु अशुद्ध व शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण एकदेश निवारण तृतीय अवस्थान्तर कही जाती है।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 181/245/11)।
6. शुद्धात्मा के अनुभव विषयक शंका-समाधान
1. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्मा का अनुभव कैसे करें
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 414/508/23 केवलज्ञानं शुद्धं छद्मस्थज्ञानं पुनरशुद्ध शुद्धस्य केवलज्ञानस्य कारणं न भवति। ....नैवं छद्मस्थज्ञानस्य कथंचिच्छुद्धाशुद्धत्वम्। तद्यथा-यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया शुद्धं न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन वीतरागसम्यक्चारित्रसहितत्वेन च शुद्धम्। अभेदनयेन छद्मस्थानां संबन्धिभेदत्रानमात्मस्वरूपमेव ततः कारणात्तेनैकदेशव्यक्तिरूपेणापि सकलव्यक्तिरूपं केवलज्ञानं जायते नास्ति दोषः। ...क्षायोपशमिकमपि भावश्रुतज्ञानं मोक्षकारणं भवति। शुद्धपारिणामिकभावः एकदेशव्यक्तिलक्षणायां कथंचिद्भेदाभेदरूपस्यद्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवपदार्थस्य शुद्धभावनावस्थायां ध्येयभूतद्रव्यरूपेण तिष्ठति न च ध्यानपर्यायरूपेण।
= प्रश्न - केवलज्ञान शुद्ध होता है और छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध। वह शुद्ध केवलज्ञान का कारण नहीं हो सकता? उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि छद्मस्थज्ञानमें भी कथंचित् शुद्धाशुद्धत्व होता है। वह ऐसे कि यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा तो वह शुद्ध नहीं होता, तथापि मिथ्यात्व रागादि से रहित होने के कारण तथा वीतराग सम्यक्चारित्र से सहित होने के कारण वह शुद्ध भी है। अभेद नयसे छद्मस्थों सम्बन्धी भेदज्ञान भी आत्मस्वरूप ही है। इस कारण एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञानसे सकल व्यक्तिरूप केवलज्ञान हो जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है। क्षायोपशमिक भावश्रुतज्ञान भी (भले सावरण हो पर) मोक्ष का कारण हो सकता है। शुद्ध पारिणामिकभाव एकदेश व्यक्तिलक्षणरूप से कथंचित् भेदाभेद द्रव्यपर्यात्मक जीवपदार्थ की शुद्धभावना की अवस्थामें ध्येयभूत द्रव्यरूप से रहता है, ध्यान की पर्यायरूप से नहीं। (और भी देखो पीछे `अनुभव/5/7')।
2. अशुद्धता के सद्भाव में भी उसकी उपेक्षा कैसे करें
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 159,162 न चाशङ्क्यं सतस्तस्यस्यादुपेक्षा कथं जवात् ॥159॥ यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम्। न दृश्यते परोपाधिः स्वेष्टं दृष्टेन हेम तत् ॥162॥
= उस सत्स्वरूपपर संयुक्त द्रव्य की सहसा उपेक्षा कैसे हो जायेगी-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए ॥159॥ क्योंकि जिस समय अशुद्ध स्वर्ण के रूपों में केवल शुद्ध स्वर्ण दृष्टिगोचर किया जाता है, उस समय परद्रव्य की उपाधि दृष्टिगोचर नहीं होती, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से अपना अभीष्ट वह केवल शुद्धस्वर्ण ही दृष्टिगोचर होता है।
3. देह सहित भी उसका देह रहित अनुभव कैसे करें
ज्ञानार्णव अधिकार 32/9-11 कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदम्बकात्। आत्मानमभ्य सेद्योगी निर्विकल्पमतीन्द्रियम् ॥9॥ अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणान्तरात्मना। ध्यायेद्विशुद्धमत्यन्तं परमात्मानमव्ययम् ॥10॥ संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः। बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनाम् ॥11॥
= प्रश्न - यदि आत्मा ऐसा है तो इसे देहादि पदार्थों के समूह से पृथक् करके निर्विकल्प व अतीन्द्रिय, ऐसा कैसे ध्यान करैं ॥9॥ उत्तर - योगी बहिरात्मा को छोड़कर भले प्रकार स्थिर अन्तरात्मा होकर अत्यन्त विशुद्ध अविनाशी परमात्मा का ध्यान करै ॥10॥ जो बहिरात्मा है, सो चैतन्यरूप आत्मा की देहके साथ संयोजन करता है और ज्ञानी देह को देही से पृथक् ही देखता है ॥11॥
4. परोक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे करें
ज्ञानार्णव अधिकार 33/4 अलक्ष्य लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत्। सालम्बाच्च निरालम्ब तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ॥4॥
= तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्व को प्रगटतया चिन्तवन करे कि लक्ष्य के सम्बन्ध से तो अलक्ष्य को और स्थूल से सूक्ष्म को और सालम्ब ध्यान से निरालम्ब वस्तु स्वरूप को चिन्तवन करता हुआ उससे तन्मय हो जाये।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190 परोक्षस्यात्मनः कथं ध्यानं भवतीति। उपदेशेन परोक्षरूपं यथा द्रष्टा जानाति भण्यते तथैव ध्रियते जीवो दृष्टश्च ज्ञातश्च ॥1॥ आत्मा स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षो भवति केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्षमिति वक्तुं नायाति।
= प्रश्न - परोक्ष आत्मा का ध्यान कैसे होता है? उत्तर - उपदेश के द्वारा परोक्षरूपसे भी जैसे द्रष्टा जानता है, उसे उसी प्रकार कहता है और धारण करता है। अतः जीव द्रष्टा भी है और ज्ञाता भी है ॥1॥ आत्मा स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है और केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष भी होता है सर्वथा परोक्ष कहना नहीं बनता।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 296 कथं स गृह्यते आत्मा `दृष्टिविषयो न भवत्यमूर्त्तत्वात्' इति प्रश्नः। प्रज्ञाभेदज्ञानेन गृह्यते इत्युत्तरम्।
= प्रश्न - वह आत्मा कैसे ग्रहण की जाती है, क्योंकि अमूर्त होने के कारण वह दृष्टि का विषय नहीं है? उत्तर - प्रज्ञारूप भेदज्ञान के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
अनुभव प्रकाश - पं. दीपचन्दजी शाह (ई. 1722) द्वारा रचित हिन्दी भाषा का एक आध्यात्मिक ग्रन्थ।
अनुभाग - अनुभाग नाम द्रव्य की शक्ति का है। जीवके रागादि भावों को तरतमता के अनुसार, उसके साथ बन्धनेवाले कर्मों की फलदान शक्ति में भी तरतमता होनी स्वाभाविक है। मोक्ष के प्रकरणमें कर्मों की यह शक्ति ही अनुभाग रूपसे इष्ट है। जिस प्रकार एक बूँद भी पकता हुआ तेल शरीर को दझानेमें समर्थ है और मन भर भी कम गर्म तेल शरीर को जलानेमें समर्थ नहीं है; उसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोड़े भी कर्मप्रदेश जीव के गुणों का घात करने में समर्थ हैं, परन्तु अल्प अनुभाग युक्त अधिक भी कर्मप्रदेश उसका पराभव करने में समर्थ नहीं हैं। अतः कर्मबन्ध के प्रकरण में कर्मप्रदेशों की गणना प्रधान नहीं है, बल्कि अनुभाग ही प्रधान है। हीन शक्तिवाला अनुभाग केवल एकदेश रूपसे गुण का घात करने के कारण देशघाती और अधिक शक्तिवाला अनुभाग पूर्णरूपेण गुण का घातक होने के कारण सर्वघाती कहलाता है। इस विषय का ही कथन इस अधिकार में किया गया है।
1. भेद व लक्षण
1. अनुभाग सामान्य का लक्षण व भेद।
2. जीवादि द्रव्यानुभागों के लक्षण।
3. अनुभागबन्ध सामान्य का लक्षण।
4. अनुभाग बन्ध के 14 भेदों का निर्देश।
5. सादि अनादि ध्रुव-अध्रुव आदि अनुभागों के लक्षण।
6. अनुभाग स्थान सामान्य का लक्षण।
7. अनुभाग स्थान के भेद।
8. अनुभाग स्थान के भेदों के लक्षण।
1. अनुभाग सत्कर्म; 2. अनुभागबन्धस्थान; 3. बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान; 4. हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान; 5. हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान
• अनुभाग अध्यवसायस्थान। - देखें अध्यवसाय ।
• अनुभागकाण्डकघात। - देखें अपकर्षण - 4।
2. अनुभागबन्ध निर्देश
1. अनुभाग बन्ध सामान्य का कारण।
2. शुभाशुभ प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध के कारण।
3. शुभाशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग निर्देश।
• कषायों की अनुभाग शक्तियाँ। - देखें कषाय - 2।
• स्थिति व अनुभाग बन्धों की प्रधानता। - देखें स्थिति - 3।
• प्रकृति व अनुभागमें अन्तर। - देखें प्रकृतिबंध - 4।
4. प्रदेशों के बिना अनुभाग बन्ध सम्भव नहीं।
5. परन्तु प्रदेशों की हीनाधिकता से अनुभाग की हीनाधिकता नहीं होती।
3. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
1. घाती व अघाती प्रकृति के लक्षण।
2. घाती अघाती की अपेक्षा प्रकृतियों का विभाग।
3. जीवविपाकी प्रकृतियों को घातिया न कहने का कारण।
4. वेदनीय भी कथंचित् घातिया है।
5. अन्तराय भी कथंचित् अघातिया है।
4. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
1. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश।
2. सर्वघाती व देशघाती के लक्षण।
3. सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियों का निर्देश।
4. सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग।
5. कर्मप्रकृतियों में यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग।
1. ज्ञानावरणादि सर्वप्रकृतियों की सामान्य प्ररूपणा।
2. मोहनीय प्रकृति की विशेष प्ररूपणा।
6. कर्मप्रकृतियों में सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक शंका समाधान
1. मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं?
2. केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती?
3. सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है?
4. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है?
5. मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है?
6. प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती कैसे है?
7. मिथ्यात्व का अनुभाग चतुःस्थानीय कैसे हो सकता है?
8. मानकषाय की शक्तियों के दृष्टान्त मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के अनुभागों में कैसे लागू हो सकते हैं?
• सर्वघातीमें देशघाती है, पर देशघातीमें सर्वघाती नहीं। - देखें उदय - 4.2।
5. अनुभाग बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ
1. प्रकृतियों के अनुभागकी तरतमतासम्बन्धी सामान्य नियम।
2. प्रकृति विशेषों में अनुभाग की तरतमता का निर्देश
1. ज्ञानावरण और दर्शनावरण के अनुभाग परस्पर समान होते हैं।
2. केवलज्ञानदर्शनावरण, असाता व अन्तराय के अनुभाग परस्पर समान हैं।
3. तिर्यंचायु से मनुष्यायु का अनुभाग अनन्तगुणा है।
3. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धकों सम्बन्धी नियम
• उत्कृष्ट अनुभाग का बन्धक ही उत्कृष्ट स्थिति को बान्धता है। - देखें स्थिति - 4।
• उत्कृष्ट अनुभाग के साथ ही उत्कृष्ट स्थिति बन्ध का कारण। - देखें स्थिति - 5।
1. अघातिया कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टि को ही बंधता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं।
2. गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध तेज व वातकायिकों में ही सम्भव है।
4. प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंधकों की प्ररूपणा।
5. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र।
• अनुभाग सत्त्व। - देखें सत्त्व
• प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग बन्ध के काल, अंतर, क्षेत्र, स्पर्शन, भाव अल्पबहुत्व व संख्या सम्बन्धी प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम
1. भेद व लक्षण
1. अनुभाग सामान्य का लक्षण व भेद
धवला पुस्तक 13/5,5,82/349/5 छदव्वाणं सत्ती अणुभागो णाम। सो च अणुभागो छव्विहो-जीवाणुभागो, पोग्गलाणुभागो धम्मत्थियअणुभागो अधम्मत्थियअणुभागो आगासत्थियअणुभागो कालदव्वाणुभागो चेदि।
= छह द्रव्यों की शक्ति का नाम अनुभाग है। वह अनुभाग छः प्रकार का है-जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग।
2. जीवादि द्रव्यानुभागों के लक्षण
धवला पुस्तक /13/5,5,82/349/7 तत्थ असेसदव्वागमो जीवाणुभागो। जरकुट्ठक्खयादिविणासणं तदुप्पायणं च पोग्गलाणुभागो। जोणिपाहुडे भणिदमंततंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेतव्वो। जीवपोग्गलाणं गमणागमणहेदुत्तं धम्मत्थियाणुभागो। तेसिमवट्ठाणहेदुत्तं अधम्मत्थियाणुभागो। जीवादिदव्वाणमाहारत्तमागासत्थियाणुभागो। अण्णेसिं दव्वाणं कमाकमेहि परिणमणहेदुत्तं कालदव्वाणुभागो। एवं दुसंजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायव्वा। जहा [मट्टिआ] पिंड-दंड-चक्क-चीवर-जल-कुंभारादीणं घडुप्पायणाणुभागो।
= समस्त द्रव्यों का जानना जीवानुभाग है। ज्वर, कुष्ट और क्षय आदि का विनाश करना और उनका उत्पन्न करना, इसका नाम पुद्गलानुभाग है। योनिप्राभृत में कहे गये मन्त्र तन्त्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जीव और पुद्गलों के गमन और आगमन में हेतु होना, धर्मास्तिकायानुभाग है। उन्हीं के अवस्थान में हेतु होना, अधर्मास्तिकायानुभाग है। जीवादि द्रव्यों का आधार होना, आकाशास्तिकायानुभाग है। अन्य द्रव्यों के क्रम और अक्रम से परिणमनमें हेतु होना, कालद्रव्यानुभाग है। इसी प्रकार द्विसंयोगादि रूपसे अनुभाग का कथन करना चाहिए। जैसे-मृत्तिकापिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल और कुम्भार आदि का घटोत्पादन रूप अनुभाग।
3. अनुभाग बन्ध सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/21,22 विपाकोऽनुभवः ॥21॥ स यथानाम ॥22॥
= विविध प्रकार के पाक अर्थात् फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभव है ॥21॥ वह जिस कर्म का जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ॥22॥
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1240 कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा। बंधो सो अणुभागो पदेसबंधो इमो होइ ॥1240॥
= ज्ञानावरणादि कर्मों का जो कषायादि परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस है वह अनुभागबन्ध है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/3/379 तद्रसविशेषोऽनुभवः। यथा-अजगोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषः तथा कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽनुभवः।
= उस (कर्म) के रस विशेष को अनुभव कहते हैं। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का अलग अलग तीव्र मन्द आदि रस विशेष होता है, उसी प्रकार कर्म-पुद्गलों का अलग-अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है।
(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार /4/514) (राजवार्तिक अध्याय 8/3,6/567) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/366) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/93)।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,199/91/8 अट्ठण्णं वि कम्माणं जीवपदेसाणं अण्णोणाणुगमणहेदुपरिणामो।
= अनुभाग किसे कहते हैं? आठों कर्मों और प्रदेशों के परस्पर में अन्वय (एकरूपता) के कारणभूत परिणाम को अनुभाग कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-23/1/2/3 को अणुभागो। कम्माणं सगकज्जकरणसत्ती अणुभागो णामा।
= कर्मों के अपना कार्य करने (फल देने) की शक्ति को अनुभाग कहते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 40 शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफलदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्धः।
= शुभाशुभकर्म की निर्जरा के समय सुखदुःखरूप फल देने की शक्तिवाला अनुभागबन्ध है।
4. अनुभाग बन्ध के 14 भेदों का निर्देश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 4/441 सादि अणादिय अट्ठ य पसत्थिदरपरूवणा तहा सण्णा। पच्चय विवाय देसा सामित्तेणाह अणुभागो ॥441॥
= अनुभाग के चौदह भेद हैं। वे इस प्रकार हैं-1. सादि, 2. अनादि, 3. ध्रुव, 4. अध्रुव, 5. जघन्य, 6. अजघन्य, 7. उत्कृष्ट, 8. अनुत्कृष्ट, 9. प्रशस्त, 10. अप्रशस्त, 11. देशघाति व सर्वघाति, 12. प्रत्यय, 13. विपाक, ये तेरह प्रकार तो अनुभाग बन्ध और 14 वाँ स्वामित्व। इन चौदह भेदों की अपेक्षा अनुभाग बन्ध का वर्णन किया जाता है।
5. सादि अनादि ध्रुव अध्रुव आदि अनुभागों के लक्षण
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./91/75 येषां कर्मणां उत्कृष्टाः तेषामेव कर्मणां उत्कृष्टः स्थित्यनुभागप्रदेशः साद्यादिभेदाच्चतुर्विधो भवति। अजघन्येऽपि एवमेव चतुर्विधः। तेषां लक्षणं.....अत्रोदाहरणमात्रं किंचित्प्रदर्श्यते। तद्यथा-उपशमश्रेण्यारोहकः सूक्ष्मसाम्परायः उच्चैर्गोत्रानुभागं उत्कृष्टं बद्ध्वा उपशान्तकषायो जातः। पुनरवरोहणे सूक्ष्मसाम्परायो भूत्वा तदनुभागमनुत्कृष्टं बध्नातितदास्य सादित्वम्। तत्सूक्ष्मसाम्परायचरमादधोऽनादित्वम्। अभव्ये ध्रुवत्वं यदा अनुत्कृष्टं त्यक्त्वाउत्कृष्टं बध्नाति तदा अध्रुवत्वमिति। अजघन्येऽप्येवमेव चतुर्विधः। तद्यथा-सप्तमपृथिव्यां प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिश्चरमसमये नीचैर्गोत्रानुभाग जघन्यं बद्ध्वा सम्यग्दृष्टिर्भूत्वा तदनुभागमजघन्यं बध्नाति तदास्य सादित्वं द्वितीयादिसमयेषु अनादित्वमिति चतुर्विधं यथासम्भव द्रष्टव्यम्।
= अनुभाग व प्रदेश बन्ध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भेदतैं चार प्रकार ही है। बहुरि अजघन्य भी ऐसे ही अनुत्कृष्टवत् च्यार प्रकार ही है। इनके लक्षण यहाँ उदाहरण मात्र किंचित् कहिये है - उपशम श्रेणी चढ़नेवाला जीव सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवर्ती भया तहाँ उत्कृष्ट उच्चगोत्र का अनुभागबन्ध करि पीछे उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती भया। बहुरि इहाँ तैं उतरि करि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती भया। तहाँ अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग बन्ध किया। तहाँ इस अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग को सादि कहिये। जातैं अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग का अभाव होइ बहुरि सद्भाव भया तातैं सादि कहिये। बहुरि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानतैं नीचे के गुणस्थानवर्ती जीव हैं तिनके सो बन्ध अनादि है। बहुरि अभव्य जीव विषैं सो बन्ध ध्रुव है। बहुरि उपशम श्रेणीवाले के जहाँ अनुत्कृष्ट को उत्कृष्ट बन्ध हो है तहाँ सो बन्ध अध्रुव है ऐसे अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग बन्धविषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार कहै। ऐसे ही जघन्य भी च्यारि प्रकार है, सो कहिये है। सप्तम नरक पृथिवीविषैं प्रथमोपशम सम्यक्त्व का सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव तहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्तसमय विषैं जघन्य नीचगोत्र के अनुभाग को बान्धे है। बहुरि सो जीव सम्यग्दृष्टि होइ पीछे मिथ्यात्वके उदयकरि मिथ्यादृष्टि भया तहाँ अजघन्य नीचगोत्र के अनुभाग को बान्धे है। तहाँ इस अजघन्य नीचगोत्र के अनुभाग को सादि कहिये। बहुरि तिस मिथ्यादृष्टि के तिस अंतसमयतैं पहिलै सो बन्ध अनादि है। अभव्य जीव के सो बन्ध ध्रुव है। जहां अजघन्य को छोड़ जघन्य को प्राप्त भया तहाँ सो बन्ध अध्रुव है। ऐसे अजघन्य नीचगोत्र के अनुभागविषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार कहे। ऐसे ही यथा सम्भव और भी बन्ध विषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार जानने। प्रकृति बन्ध विषैं उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य ऐसे भेद नाहीं है। स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबन्धनि विषैं वे भेद यथायोग्य जानने।
6. अनुभाग स्थान सामान्य का लक्षण
धवला पुस्तक 12/4,2,7,200/111/12 एगजीवम्मि एक्कम्हि समये जो दीसदि कम्माणुभागो तं ठाणं णाम
= एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानुभाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/336/1 अनुभागट्ठाणं णाम चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्हि ट्ठिदअणुभागट्ठाणविभागपडिच्छेदकलावो। सो उक्कडणाए वट्टदि...।
= अन्तिम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के एक परमाणु में स्थित अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदों के समूह को अनुभाग स्थान कहते हैं। प्रश्न - ऐसा माननेपर `एक अनुभाग स्थान में अनन्त स्पर्धक होते हैं' इस सूत्र के साथ विरोध आता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि जघन्य अनुभाग स्थान के जघन्य स्पर्धक से लेकर ऊपर के सर्व स्पर्धक उसमें पाये जाते हैं।.... प्रश्न - तो एक अनुभाग स्थान में जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट स्थान की उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त क्रमसे बढ़ते हुए प्रदेशों के रहने का जो कथन किया जाता है उसका अभाव प्राप्त होता है? उत्तर - ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि जहाँ यह उत्कृष्ट अनुभागवाला परमाणु है, वहाँ क्यां यह एक ही परमाणु है या अन्य भी परमाणु हैं। ऐसा पूछा जानेपर कहा जायेगा कि वहाँ वह एक ही परमाणु नहीं है, किन्तु वहाँ अनन्त कर्मस्कन्ध होने चाहिए और उन कर्मस्कन्धों के अवस्थान का यह क्रम है, यह बतलाने के लिए अनुभाग स्थान की उक्त प्रकार से प्ररूपणा की है। प्रश्न - जैसे योगस्थान में जीव के सब प्रदेशों की सब योगों के अविभाग प्रतिच्छेदों को लेकर स्थान प्ररूपणा की है वैसा कथन यहाँ क्यों नहीं करते? उत्तर - नहीं, क्योंकि वैसा कथन करनेपर अधःस्थित गलना के द्वारा और अन्य प्रकृति रूप संक्रमण के द्वारा अनुभाग काण्डक की अन्तिम फाली को छोड़कर द्विचरम आदि फालियों में अनुभागस्थान के घात का प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि काण्डक घात को छोड़कर अन्यत्र उसका घात नहीं होता।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 52 यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणानि अनुभागस्थानानि.....।
= भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के रस के परिणाम जिनका लक्षण हैं, ऐसे जो अनुभाग स्थान.....।
7. अनुभाग स्थान के भेद
धवला पुस्तक 12/4,7,2,200/111/13 तं च ठाणं दुविहं-अणुभागबंधट्ठाणं अणुभागसंतट्ठाणं चेदि।
= वह स्थान दो प्रकार का है - अनुभाग बन्ध स्थान व अनुभाग सत्त्वस्थान।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/ठाणप्ररूपणा सूत्र/पृ.330/14 संतकम्मट्ठाणाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि।
= सत्कर्मस्थान (अनुभाग) तीन प्रकार के हैं - बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक।
( कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/8)।
8. अनुभागस्थान के भेदों के लक्षण
1. अनुभाग सत्कर्म का लक्षण
धवला पुस्तक /12/4,2,4,200/112/1 जमणुभागट्ठाणं घादिज्जमाणं बंधाणुभागट्ठाणेण सरिसंण होदि, बंधअट्ठंक उव्वंकाणं विच्चाले हेट्ठिम उव्वंकादो अणंतगुणं उवरिम अट्ठंकादो अणंतगुणहीणं होदूण चेट्ठदि, तमणुभागसंतकम्मट्ठाणं।
= घाता जानेवाला जो अनुभागस्थान बन्धानुभाग के सदृश नहीं होता है, किन्तु बन्ध सदृश अष्टांक और उर्वक के मध्यमें अधस्तन उर्वक से अनन्तगुणा और उपरिम अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होकर स्थित रहता है, वह अनुभाग सत्कर्मस्थान है।
2. अनुभागबन्धस्थान का लक्षण
धवला पुस्तक /12/4,2,7,200/13 तत्थ जं बंधेण णिप्फण्णं तं बंधट्ठाण णाम। पुव्वबंधाणुभागे घादिज्जमाणे जं बंधाणुभागेण सरिसं होदूण पददि तं पि बंधट्ठाणं चेव, तत्सरिसअणुभागबंधुवलंभादो।
= जो बन्ध से उत्पन्न होता है वह बन्धस्थान कहा जाता है। पूर्व बद्ध अनुभाग का घात किये जानेपर जो बन्ध अनुभाग के सदृश होकर पड़ता है वह भी बन्धस्थान ही है, क्योंकि, उसके सदृश अनुभाग बन्ध पाया जाता है।
3. बन्ध समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$570/331/1 बन्धात्समुत्पत्तिर्येषां तानि बन्धसमुत्पत्तिकानि।
= जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति बन्ध से होती है, उन्हें बन्धसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/9 हदसमुप्पत्तियं कादूणच्छिदसुहुमणिगोदजहण्णाणुभागसंतट्ठाणसमाणबंधट्ठाणमादिं कादूण जाव सण्णिपंचिदियपज्जतसव्वुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणे त्ति ताव एदाणि असंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणि बंधसमुत्पत्तियट्ठाणाणि त्ति भण्णंति, बंधेण समुप्पण्णत्तादी। अणुभागसंतट्ठाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागसंतट्ठाणं तं पि एत्थ बंधट्ठाणमिदि घेत्तव्वं, बंधट्ठाणसमाणत्तादो।
= 1. हतसमुत्पत्तिक सत्कर्म को करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थान के समान बन्धस्थान से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान पर्यन्त जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें बन्ध समुत्पत्तिकस्थान कहते हैं, क्योंकि वे स्थान बन्ध से उत्पन्न होते हैं। 2. अनुभाग सत्त्वस्थान के घातसे जो अनुभाग सत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें भी यहाँ बन्धस्थान ही मानना चाहिए; क्योंकि वे बन्धस्थान के समान हैं। (सारांश यह है कि बन्धनेवाले स्थानों को ही बन्धसमुत्पत्तिकस्थान नहीं कहते, किन्तु पूर्वबद्ध अनुभागस्थानों में भी रसघात होने से परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी धस्थान ही कहे जाते हैं।
4. हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
धवला पुस्तक 12/4,2,7,35/29/5 `हदसमुप्पत्तियकम्मेण' इति वुत्ते पुव्विल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं घादिय अणंतगुणहीणं कादूण `ट्ठिदेण' इति वुत्तं होदि।
= `हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले' ऐसा कहने पर पूर्व के समस्त अनुभाग सत्त्व का घात करके और उसे अनन्त गुणा हीन करके स्थित हुए जीव के द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$470/331/1 हते समुत्पत्तिर्येषां तानि हतसमुत्पत्तिकानि।
= घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है, उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/14 पुणो एदेसिमसंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणं मज्झे अणंतगुणवड्ढि-अणंतगुणहाणि अट्ठंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणि हदसमुपत्तियसंतकम्मछट्ठाणाणि भण्णंति। बंधट्ठाणघादेण बंधट्ठाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पणतादो।
= इन असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानों के मध्यमें अष्टांक और उर्वक रूप जो अणंतगुणवृद्धियाँ और अणंतगुणहानियाँ हैं उनके मध्य में जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं, उन्हें हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं। क्योंकि बंधस्थान का घात होने से बन्धस्थानों के बीचमें ये जात्यन्तर रूपसे उत्पन्न हुए हैं।
5. हतहतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$470/331/2 हतस्य हतिः हतहतिः ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि हतहतिसमुत्पत्तिकानि।
= घाते हुएका पुनः घात किये जाने पर जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है, उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/126/2 पुणो एदेसिमसंखे0 लोकमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणमणंतगुणवड्ढि-हाणि अट्ठंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे0 लोगमेतछट्ठाणाणि हदहदसमुप्पत्तियसंतकम्म ट्ठाणाणि, वुच्चंति, धादेणुप्पण्ण अणुभागट्ठाणाणि बंधाणुभागट्ठाणेहिंतो विसरिसाणि घादियबंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तियअणुभागट्ठाणेहिंतो विसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो।
= इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानों के जो कि अष्टांक और उर्वंकरूप अनन्तगुण वृद्धि हानिरूप हैं, बीचमें जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं, उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं। बन्धस्थानों से विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघातसे उत्पन्न हुए है; उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान बन्धसमुत्पत्तिक और हतसमुत्पत्तिक अनुभागस्थानों से विलक्षणरूप से ही वे उत्पन्न किये जाते हैं।
2. अनुभागबन्ध निर्देश
1. अनुभाग बन्धसामान्य का कारण
षट्खण्डागम पुस्तक 12/4-2-8 सन्त 13/288 कसायपच्चए ट्ठिदि अणुभागवेयण ॥13॥
= कषाय प्रत्यय से स्थिति व अनुभाग वेदना होती है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/3/379) (राजवार्तिक अध्याय 8/3,10/567) ( धवला पुस्तक 12/4-2-8-13/गा. 2/489) ( नयचक्रवृहद् गाथा 155) ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/257/364) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33)।
2. शुभाशुभ प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध के कारण
पंचसंग्रह / अधिकार /4/451-452 सुहपयडीण विसोही तिव्वं असुहाण संकिलेसेण। विवरीए दु जहण्णो अणुभाओ सव्वपयडीणं ॥451॥ बायालं पि पसत्था विसोहिगुण उक्कडस्स तिव्वाओ। वासीय अप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकि लिट्ठस्स ॥442॥
= शुभ प्रकृतियों का अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामों से तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट होता है। अशुभ प्रकृतियों का अनुभागबन्ध संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट होता है। इससे विपरीत अर्थात् शुभ प्रकृतियों का संक्लेश से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्धि से जघन्य अनुभाग बन्ध होता है ॥451॥ जो ब्यालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्धिगुण की उत्कटता वाले जीव के होता है तथा ब्यासी जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीव के होता है ॥452॥
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/21/398) (राजवार्तिक अध्याय 8/21,1/583/14) ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/163-164/199) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/273-274)।
3. शुभाशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग निदश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार /4/487 सुहपयडीणं भावा गुडखंडसियामयाण खलु सरिसा। इयरा दु णिंबकंजीरविसहालाहलेण अहमाई।
= शुभ प्रकृतियों के अनुभाग गुड़ खाँड शक्कर और अमृत के तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते हैं। पाप प्रकृतियों का अनुभाग निंब, कांजीर, विष व हालाहल के समान निश्चय से उत्तरोत्तर कटुक जानना।
( पंचसंग्रह / अधिकार /4/319) (गो.क./मू/184/216) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/39)।
4. प्रदेशों के बिना अनुभागबन्ध सम्भव नहीं
धवला पुस्तक 6/1,9,7,43/201/5 अणुभागबंधादो पदेसबंधो तक्कारणजोगट्ठाणाणं च सिद्धाणि हवंति। कुदो। पदंसेहि विणा अणुभागाणुववत्तीदो।
= अनुभाग बन्धसे प्रदेश बन्ध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभाग बन्ध नहीं हो सकता।
5. परन्तु प्रदेशों की हीनाधिकता से अनुभाग की हीनाधिकता नहीं होती
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$557/337/11 ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभावघादो णत्थि त्ति जाणावणट्ठं।
= प्रदेशों के गलने से जैसे स्थिति घात होता है, वैसे प्रदेशों के गलने से अनुभाग का घात नहीं होता।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/336/1 उक्कट्ठिदे अणुभागट्ठाणाविभागपडिछेदाणं वड्ढीए अभावादो। ....ण सो उक्कऽणाए वड्ढदि, बंधेण विणा तदुक्कड्डणाणुववत्तीदो।
= उत्कृषण के होनेपर अनुभाग स्थान के अविभाग प्रतिच्छेदों का समूहरूप वह अनुभाग स्थान उत्कर्षण से नहीं बढ़ता, क्योंकि बन्ध के बिना उनका उत्कर्षण नहीं बन सकता।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,201/115/5 जोगवड्ढीदो अणुभागवड्ढीए अभावादो।
= योग वृद्धिसे अनुभाग वृद्धि सम्भव नहीं।
3. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
1. घाती व अघाती प्रकृति के लक्षण
धवला पुस्तक 7/2,1,15/62/6 केवलणाण-दंसण-सम्मत्त-चारित्तवीरियाणमणेयभेयभिण्णाण जीवगुणाण विरोहित्तणेण तेसिं घादिववदेसादो।
= केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र और वीर्य रूप जो अनेक भेद-भिन्न जीवगुण हैं, उनके उक्त कर्म विरोधी अर्थात् घातक होते हैं और इसलिए वे घातियाकर्म कहलाते हैं।
( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./10/8) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 998)।
धवला पुस्तक 7/2,1,15/62/7 सेसकम्माणं घादिववदेसो किण्ण होदि। ण, तेसि जीवगुणविणासणसत्तीए अभावा।
= शेष कर्मों को घातिया नहीं कहते क्योंकि, उनमें जीव के गुणों का विनाश करने की शक्ति नहीं पायी जाती।
( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 999)।
2. घाती अघाती की अपेक्षा प्रकृतियों का विभाग
राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/28 ताः पुनः कर्मप्रकृतयो द्विविधाः-घाति का अघातिकाश्चेति। तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या घातिका। इतरा अघातिकाः।
= वह कर्म प्रकृतियाँ दो प्रकार की हैं - घातिया व अघातिया। तहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह व अन्तराय ये तो घातिया हैं और शेष चार (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) अघातिया।
( धवला पुस्तक 7/2,1,15/62), ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/7,9/7)।
3. जीवविपाकी प्रकृतियों को घातिया न कहने का कारण
धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/1 जीवविवाइणामकम्मवेयणियाणं घादिकम्मववएसो किण्ण होदि। ण जीवस्स अणप्पभूदसुभगदुभगादिपज्जयसमुप्पायणे वावदाणं जीव-गुणविणासयत्तविरहादो। जीवस्स सुहविणासिय दुक्खप्पाययं असादावेदणीयं घादिववएसं किण्ण लहदे। ण तस्स घादिकम्मसहायस्स घादिकम्मेहि विणा सकलकरणे असमत्थस्स सदो तत्थ पउत्ती णत्थि त्ति जाणावणट्ठं तव्ववएसाकरणादो।
= प्रश्न - जीवविपाकी नामकर्म एवं वेदनीय कर्मों को घातिया कर्म क्यों नहीं माना? उत्तर - नहीं माना, क्योंकि, उनका काम अनात्मभूत सुभग दुर्भग आदि जीव की पर्यायें उत्पन्न करना है, जिससे उन्हें जीवगुण विनाशक मानने में विरोध उत्पन्न होता है। प्रश्न - जीव के सुखको नष्ट करके दुःख उत्पन्न करनेवाले असातावेदनीयको घातिया कर्मनाम क्यों नहीं दिया? उत्तर - नहीं दिया, क्योंकि, वह घातियाकर्मों का सहायक मात्र है और घातिया कर्मों के बिना अपना कार्य करने में असमर्थ तथा उसमें प्रवृत्ति रहित है। इसी बात को बतलाने के लिए असाता वेदनीय को घातिया कर्म नहीं कहा।
4. वेदनीय भी कथंचित् घातिया है
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/19/12 घादिंव वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं। इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्हि पढिदं तु ॥19॥
= वेदनीयकर्म घातिया कर्मवत् मोहनीयकर्म का भेद जो रति अरति तिनि के उदयकाल करि ही जीव को घातै है। इसी कारण इसको घाती कर्मों के बीचमें मोहनीयसे पहिले गिना गया है।
5. अन्तराय भी कथंचित् अघातिया है
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/17/11 घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणिमित्तादो विग्घं पडिदं अघादि चरिमम्हि ॥17॥
= अन्तरायकर्म घातिया है तथापि अघातिया कर्मवत् है। समस्त जीव के गुण घातने को समर्थ नाहीं है। नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन कर्मनि के निमित्ततैं ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियानि के पीछे अन्त विषैं अन्तराय कर्म कह्या है।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/44/4 रहस्यमन्तरायः, तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता।
= रहस्य अन्तरायकर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है और अन्तराय कर्म के नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं।
4. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
1. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/29 घातिकाश्चापि द्विविधाः सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति।
= घातिया प्रकृतियाँ भी दो प्रकार हैं-सर्वघाती व देशघाती।
( धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/6) ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./38/48/2)।
2. सर्वघाती व देशघाती के लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/$3/3/11 सव्वघादि त्ति किं। सगपडिबद्धं जीवगुणं सव्वं णिरवसेसं घाइउं विणासिदुं सीलं जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सव्व घादी।
= सर्वघाती इस पद का क्या अर्थ है? अपने से प्रतिबद्ध जीवके गुण को पूरी तरह से घातने का जिस अनुभाग का स्वभाव है उस अनुभाग को सर्वघाती कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/99 सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते।
= सर्वप्रकार से आत्मगुणप्रच्छादक कर्मों की शक्तियाँ सर्वघाती स्पर्धक कहे जाते हैं और विवक्षित एकदेश रूपसे आत्मगुणप्रच्छादक शक्तियाँ देशघाती स्पर्द्धक कहे जाते हैं।
3. सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियों का निर्देश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 483-484 केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोहवारसयं। ता सव्वघाइसण्णा मिस्सं मिच्छत्तमेयवीसदिमं ॥483॥ णाणावरणचउक्कं दंसणतिगमंतराइगे पंच। ता होंति देशघाई सम्मं संजलणणीकसाया य ॥484॥
= केवलज्ञानावरण, दर्शनावरणषट्क अर्थात् पाँच निद्रायें व केवलदर्शनावरण, मोहनीय की बारह अर्थात् अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन 21 प्रकृतियों की सर्वघाती संज्ञा है ॥483॥ ज्ञानावरण के शेष चार, दर्शनावरण की शेष तीन, अन्तराय की पाँच, सम्यक्त्वप्रकृति, संज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय-ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं ॥484॥
(राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/30) ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/39-40/43) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/310-313)।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./546/708/14 द्वादश कषायाणां स्पर्धकानि सर्वघातीन्येव न देशघातीनि।
= बारह कषाय अर्थात् अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क के स्पर्धक सर्वघाती ही हैं, देशघाती नहीं।
4. सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग
धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/गा.14 सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होदि दारुगसमाणे। हेठ्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥14॥
= घातिया कर्मों की जो अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल समान कही गयी है, उसमें दारु तुल्य से ऊपर अस्थि और शैल तुल्य भागों में तो उत्कृष्ट सर्वावरणीय या सर्वघाती शक्ति पायी जाती है, किन्तु दारु सम भागके निचले अनन्तिम भागमें (व उससे नीचे सब लता तुल्य भागमें) देशावरण या देशघाती शक्ति है, तथा ऊपर के अनन्त बहु भागों में (मध्यम) सर्वावरण शक्ति है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या/180/211 सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवमाहु घादीणं। दारुअणंतिमभागोत्ति देसघादी तदो सव्वं।
= घातिया प्रकृतियों में लता दारु अस्थि व शैल ऐसी चार शक्तियाँ हैं। उनमें दारु का अनन्तिम भाग (तथा लता) तो देशघाती हैं और शेष सर्वघाती हैं।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/93)
क्षपणासार /भाषा टी./465/540/11 तहाँ जघन्य स्पर्धकतैं लगाय अनन्त स्पर्धक लता भाग रूप हैं। तिनके ऊपर अनन्त स्पर्धक दारु भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर अनन्त स्पर्धक अस्थि भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त अनन्त स्पर्धक शैल भाग रूप हैं। तहाँ प्रथम स्पर्धक देशघाती का जघन्य-स्पर्धक है तहाँ तैं लगाय लता भाग के सर्व स्पर्धक अर दारु भाग के अनन्तवाँ भाग मात्र (निचले) स्पर्धक देशघाती हैं। तहाँ अन्त विषैं देशघाती उत्कृष्ट स्पर्धक भया। बहुरि ताके ऊपरि सर्वघाती का जघन्य स्पर्धक है। तातैं लगाय ऊपरि के सब स्पर्धक सर्वघाती है। तहाँ अन्त स्पर्धक उत्कृष्ट सर्वघाती जानना।
5. कर्म प्रकृतियों में यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग
1. ज्ञानावरणादि सर्व प्रकृतियों की सामान्य प्ररूपणा
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 4/486 आवरणदेसघायंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं। चउविहभावपरिणया तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं।
= मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अन्तराय की पाँच, संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैल रूप चार प्रकार के भावों से परिणत हैं। अर्थात् इनका अनुभाग बन्ध एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। शेष 107 प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकार के भावों से परिणत होती हैं। उ का एक स्थानीय (केवल लता रूप) अनुभाग बन्ध नहीं होता ॥48॥
क्षपणासार /भाषा टीका/465/540/17 केवल के विना च्यारि ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, अर सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन चतुष्क, नोकषाय नव, अन्तराय पाँच इन छब्बीस प्रकृतिनिकी लता समान स्पर्धक की प्रथम वर्गणा सो एक-एक वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेद की अपेक्षा समान है। ......बहुरि मिथ्यात्व बिना केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा पाँच, मिश्रमोहनीय, संज्वलन बिना 12 कषाय इन सर्वघाती 20 प्रकृतिनि के देशघाती स्पर्धक हैं नाहीं। तातें सर्वघाती जघन्य स्पर्धक वर्गणा तैसे ही परस्पर समान जाननी। तहाँ पूर्वोक्त देशघाती छब्बीस प्रकृतिनिकी अनुभाग रचना देशवाती जघन्य स्पर्धक तैं लगाय उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यन्त होइ। तहाँ सम्यक्त्वमोहनीय का तौ इहाँ ही उत्कृष्ट अनुभाग होइ निवरया। अवशेष 25 प्रकृतिनिकी रचना तहाँ तैं ऊपर सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त जाननी। बहुरि सर्वघाती बीस प्रकृतिनिकी रचना सर्वघाती का जघन्य स्पर्धकतैं लगाय उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त है। यहाँ विशेष इतना-सर्वघाती दारु भाग के स्पर्धकनिका अनन्तवाँ भागमात्र स्पर्धक पर्यन्त मिश्र मोहनीय के स्पर्धक जानने। ऊपरि नहीं हैं। बहुरि इहाँ पर्यन्त मिथ्यात्व के स्पर्धक नाहीं है। इहाँतै ऊपरि उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त मिथ्यात्व के स्पर्धक हैं।
2. मोहनीय प्रकृति की विशेष प्ररूपणा
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/चूर्णसूत्र/$189-214/129-151 उत्तरपयडिअणुभागविहत्तिं वत्तइस्सामो।$189। पुव्वं गणिज्जा इमा परूवणा ।$190। सम्मत्तस्स पढमं देसघादिफद्दयमादिं कादूण जाव चरिम घादिफद्दगं त्ति एदाणि फद्दयाणि ।$191। सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादिआदिफद्दयमादिंकादूण दारुअसमाणस्स अणंतभागे णिट्ठिदं ।$192। मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिट्ठिदं तदो अणंतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्धं ।$193। बारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादिं कादूण उवरिमप्पडिसिद्धं ।$194। चदुसंजलणणवणोकसायाणमणुभागसंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादिं कादूण उवरि सव्वघादि त्ति अप्पडिसिद्धं ।$195। तत्थ दुविधा सण्णा घादि सण्णा ट्ठाणसण्णा च ।$196। ताओ दो वि एक्कदो णिज्जंति ।$197। मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं सव्वघादि दुट्ठाणियं ।$198। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादिचदुट्ठाणियं ।$200। एवं बारसकसायछण्णोकसायाणं ।$201। सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादि एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणियं वा ।$202। सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादि दुट्ठाणियं ।$203। एक्कं चेव ट्ठाणं सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स ।$204। चदुसंजलणाणमणुभागसतकम्मं सव्वघाती वा देसघादी वा एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणियं वा तिट्ठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।$205। इत्थिवेदस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादौ दुट्ठाणियं वा तिट्ठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।$206। मोत्तूण खवगचरिमसमयइत्थिवेदय उदयणिसेगं ।$207। तस्स देसघादी एगट्ठामियं ।$208। पुरिसवेदस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं देसघादी एगट्ठाणियं ।$209। उक्कस्साणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चदुट्ठाणियं ।$210। णवुंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं सव्वघादी दुट्ठाणियं ।$211। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चउट्ठाणियं ।$212। णवरि खवगस्स चरिमसमयणवुंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादी एगट्ठाणियं ।$214।
= अब उत्तर प्रकृति अनुभाग विभक्ति को कहते हैं ।189। पहिले इस प्ररूपणा को जानना चाहिए ।190। सम्यक्त्व प्रकृति के प्रथम देशघाती स्पर्धक से लेकर अन्तिम देशघाती स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते हैं ।191। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभागसत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारु के अनन्तवें भाग तक होता है ।192। जिस स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभागसत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के मिथ्यात्व सत्कर्म होता है ।193। बारह कषायों का अनुभागसत्कर्म सर्वघातियों के द्विस्थानिक प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के होते हैं। (अर्थात् दारु के जिस भागसे सर्वघाती स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं उस भागसे लेकर शैल पर्यन्त उनके स्पर्धक होते हैं) ।194। चार संज्वलन और नव नोकषायों का अनुभागसत्कर्म देशघातियों के प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के सर्वघाती पर्यन्त है। (तो भी उन सबके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं) ।195। उनमें-से संज्ञा दो प्रकार की है-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा ।166। आगे उन दोनों संज्ञाओं को एक साथ कहते हैं॥ 197॥ मिथ्यात्व का जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक (लता, दारु रूप) है॥ 198॥ मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक (लता, दारु, अस्थि, शैल) रूप है॥ 200॥ इसी प्रकार बारह कसाय और छः नोकषायों (त्रिवेद रहित) का अनुभाग सत्कर्म है॥ 201॥ सम्यक्त्व का अनुभाग सत्कर्म देशघाती है और एकस्थानिक तथा द्विस्थानिक है (लता रूप तथा लता दारु रूप)॥ 202॥ सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक (लता दारु रूप) है ॥203॥ सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभाग का एक (द्विस्थानिक) ही स्थान होता है॥204॥ चार संज्वलन कषायों का अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और देशघाती तथा एक स्थानिक (लता) द्विस्थानिक (लता, दारु), त्रिस्थानिक (लता, दारु, अस्थि) और चतुःस्थानिक (लता, दारु, अस्थि व शैल) होता है ॥205॥ स्त्रीवेद का अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है (केवल लतारूप नहीं होता) ॥206॥ मात्र अन्तिम समयवर्ती क्षपक स्त्रीवेदी के उदयगत निषेक को छोड़कर शेष अनुभाग सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है ॥207॥ किन्तु उस (पूर्वोक्त क्षपक) का अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक है ॥209॥ तथा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है ॥210॥ नपुंसकवेद का जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक होता है ॥211॥ तथा (उसीका) उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है ॥212॥ इतना विशेष है कि अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपक का अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है ॥214॥
6. कर्मप्रकृतियों में सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक शंका-समाधान
1. मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं