ज्ञानबिन्दु
From जैनकोष
प्रश्न - मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं?
उत्तर - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय चार ज्ञानावरण ज्ञानांशको घात करने के कारण देशघाती हैं, जब कि केवलज्ञानावरण ज्ञान के प्रचुर अंशों को घातने के कारण सर्वघाती है। (अवधि व मनःपर्यय ज्ञानावरण में देशघाती सर्वघाती दोनों स्पर्धक हैं। दे.-उदय ४।२)।
२. केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२१/२१४/१० केवलणाणावरणीयं किं सव्वघादी आहो देसघादो। ण ताव सव्वघादी, केवलणाणस्स णिस्सेणाभावे संते जीवाभावप्पसंगादो आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो वा। ण च देसघादी, `केवलणाण-केवलदंसणावरणीयपयडीओ सव्वघादियाओ'त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। एत्थ परिहारो-ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादी, किंतु सव्वघादी चेव; णिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणे आवरिदे वि चदुण्णं णाणाणं संतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं। कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारच्छण्णग्गीदोबप्फुप्पत्तीए इव सव्वघादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति।
=
प्रश्न - केवलज्ञानावरणीयकर्म क्या सर्वघाती है या देशघाती? (क) सर्वघाती तो हो नहीं सकता, क्योंकि केवलज्ञानका निःशेष अभाव मान लेनेपर जीव के अभाव का प्रसंग आता है। अथवा आवरणीय ज्ञानों का अभाव होनेपर शेष आवरणों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। (ख) केवलज्ञानावरणीय कर्म देशघाती भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा माननेपर `केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म सर्वघाती है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है?
उत्तर - केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किन्तु सर्वघाती ही है; क्योंकि वह केवलज्ञान का निःशेष आवरण करता है, फिर भी जीव का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान के आवृत होनेपर भी चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है।
प्रश्न - जीवमें एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत्त कहते हो, तब फिर चार ज्ञानों का सद्भाव कैसे हो सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्नि से बाष्प की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार सर्वघाती आवरण के द्वारा केवलज्ञान के आवृत्त होनेपर भी उससे चार ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता।
प्रश्न - चारों ज्ञान केवलज्ञान के अवयव हैं या स्वतन्त्र?
उत्तर - देखे ज्ञान I/४।
३. सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$१९१/१३०/१ लदासमाणजहण्णफद्दयमादिं कादूण जाव देसघादिदारू असमाणुक्कस्सफद्दयं ति ट्ठिदसम्मत्ताणुभागस्स कुदो देसघादित्तं। ण, सम्मत्तस्स एगदेसं घादेंताणं तदविरोहो। को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि। थिरत्तं णिक्कंक्खत्तं।
=
प्रश्न - लता रूप जघन्य स्पर्धक से लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त स्थित सम्यक्त्व का अनुभाग देशघाती कैसे है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग सम्यग्दर्शन के एकदेश को घातता है। अतः उसके देशघाती होनेमें कोई विरोध नहीं है।
प्रश्न - सम्यक्त्व के कौन-से भाग का सम्यक्त्व प्रकृति द्वारा घात होता है?
उत्तर - उसकी स्थिरता और निष्कांक्षिता का घात होता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जानेसे सम्यग्दर्शन का मूलसे विनाश तो नहीं होता किन्तु उसमें चल, मल आदि दोष आ जाते हैं।
४. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$१९२/१३०/१० सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं कुदो सव्वघादित्तं। णिस्सेससम्मत्तघायणादो। ण च सम्मामिच्छत्ते सम्मत्तस्स गंधो वि अत्थि, मिच्छत्तसम्मत्तेहिंतो जच्चंतरभावेणुप्पण्णे सम्मामिच्छत्ते सम्मत्त-मिच्छत्ताणमत्थित्तविरोहादो।
=
प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व के स्पर्धक सर्वघाती कैसे हैं?
उत्तर - क्योंकि वे सम्पूर्ण सम्यक्त्व का घात करते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व के उदयमें सम्यक्त्व की गन्ध भी नहीं रहती, क्योंकि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा जात्यन्तररूपसे उत्पन्न हुए सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के अस्तित्व का विरोध है। अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिथ्यात्व ही रहता है, किन्तु मिला हुआ दही-गुड़ के समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,७,४/१९८/९ सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवं विहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मपि सव्वघादी चेव होदु, जच्चतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। किंतु सद्दहणभागो ण होदि, सद्दहणासद्दहणाणमेयत्तविरोहा।
= सम्यग्मिथ्यात्व का उदय रहते हुए अवयवी रूप सम्यक्त्व गुण का तो निराकरण रहता है किन्तु सम्यक्त्व गुण का अवयव रूप अंश प्रगट रहता है, इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि जात्यन्तर सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्वता का अभाव है। किन्तु श्रद्धान भाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११/१६८/५ सम्यग्दृष्टेर्निरन्वयविनाशाकारिणः सम्यग्मिथ्यात्वस्य कथं सर्वघातित्वमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टेः साकल्यप्रतिबन्धितामपेक्ष्य तस्य तथोपदेशात्।
=
प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शनका निरन्वय विनाश तो करता नहीं है, फिर उसे सर्वघाती क्यों कहा?
उत्तर - ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करता है, इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाती कहा है।
धवला पुस्तक संख्या ७/२,१,७९/११०/८ होदु णाम सम्मत्तं पडुच्च सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तं, किंतु असुद्धणए विवक्खिए ण सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तमत्थि, तेसिमुदए संते वि मिच्छत्तसंवलिदसम्मत्तकणस्सुवलंभादो।
= सम्यक्त्व की अपेक्षा भले ही सम्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकों में सर्वघातीपन हो, किन्तु अशुद्धनय की विवक्षासे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के स्पर्धकों में सर्वघातीपन नहीं होता, क्योंकि उनका उदय रहनेपर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्व का कण पाया जाता है।
(धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,१९/२१/६)।
५. मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$२००/१३९/७ कुदो सव्वघादित्तं। सम्मत्तासेसावयवविणासणेण।
=
प्रश्न - यह सर्वघाती क्यों है?
उत्तर - क्योंकि यह सम्यक्त्व के सब अवयवों का विनाश करता है, अतः सर्वघाती है।
६. प्रत्याख्यानावरणकषाय सर्वघाती कैसे है
धवला पुस्तक संख्या ५/१,७,७/२०२/५ एवं संते पच्चक्खाणावरणस्स सव्वघादित्तं फिट्टदि त्ति उत्ते ण फिट्टदि, पच्चक्खाणं सव्वं घादयदि त्ति तं सव्वघादी उच्चदि। सव्वमपच्चक्खाणं ण घादेदि, तस्स तत्थ वावाराभावा।
=
प्रश्न - यदि ऐसा माना जाये (कि प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के उदय के सर्व प्रकार के चारित्र विनाश करने की शक्ति का अभाव है) तो प्रत्याख्यानावरण कषाय का सर्वघातीपन नष्ट हो जाता है?
उत्तर - नहीं होता, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्व प्रत्याख्यान (संयम) गुण को घातता है, इसलिए वह सर्वघाती कहा जाता है। किन्तु सर्व अप्रत्याख्यान को नहीं घातता है, क्योंकि इसका इस विषय में व्यापार नहीं है।
७. मिथ्यात्व का अनुभाग चतुःस्थानीय कैसे हो सकता है
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$१९८-२००/१३७-१४०/१२ मिच्छत्ताणुभागस्स दारुअट्ठि-सेलसमाणाणि त्ति तिण्णि चेव ट्ठाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्लंघिय दारुसमाणम्मि अवठिदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयादोअणंतगुणभावेझ मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवट्ठाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णासु भागसंतकम्मं दुट्ठाणियमिदि वुत्ते दारु-अट्ठि-समाणफद्दयाणं गहणं कायव्वं, अण्णहा तस्स दुट्ठाणियत्तीणुववत्तीदो! ....लतादारुस्थानाभ्यां केनचिदंशान्तरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्व्यपदेशोपपत्तेः। समुदाये प्रवृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्त्युपलम्भाद्वा ।।पृ. १३७-१३८।। लदासमाणफद्दएहि विणा कधं मिच्छत्ताणुभागस्स चदुट्ठाणियत्तं। .....मिच्छत्तुकस्सफद्दयम्मि लदादारु-अट्ठि-सेलसमाणट्ठाणाणि चत्तारि वि अत्थि, तेसि फद्दयाविभागपलिच्छेदाणसंभवो, .....मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंतकम्मं चदुट्ठाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफद्दयस्सेव कधं गहणं। ण, मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयचरियवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिदअणंताविभागपलिच्छेदणिप्पण्णअणंतंफद्दयाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मववएसादो।
=
प्रश्न - मिथ्यात्व के अनुभाग के दारु के समान, अस्थि के समान और शैल के समान, इस प्रकार तीन ही स्थान हैं। क्योंकि लता समान स्पर्धकों को उल्लंघन करके दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक से मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है ऐसा कहनेपर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धकों का ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता?
उत्तर - किसी अंशान्तर की अपेक्षा समान होने के कारण लता समान और दारु समान स्थानों से दारुस्थान अभिन्न है, अतः उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रवृत्त होता है, उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः केवल दारुसमान स्थानों को भी द्विस्थानिक कहा जाता है। .....
प्रश्न - जब मिथ्यात्व के स्पर्धक लता समान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतुःस्थानिक कैसे है?
उत्तर - मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक में लता समान, दारु-समान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं, क्योंकि उनके स्पर्धकों के अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या यहाँ पायी जाती है। और बहुत अविभाग प्रतिच्छेदों में स्तोक अविभाग प्रतिच्छेदों का होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक आदि संख्याके बिना अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या बहुत नहीं हो सकती।....
प्रश्न - मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है, ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व के एक उत्कृष्ट स्पर्धक का ही ग्रहण कैसे होता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक की अन्तिम वर्गणामें एक परमाणु के द्वारा धारण किये गये अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न अनन्त स्पर्धकों की उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म संज्ञा है।
८. मानकषाय की शक्तियों के दृष्टान्त मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के अनुभागों में कैसे लागू हो सकते हैं
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$१९९/१३९/१ लदा-दारु-अट्ठि-सेलसण्णाओ माणाणुभागफद्दयाणं लयाओ, कंध मिच्छत्तम्मि पयट्टंति। ण, माणम्मि अवट्ठिदचदुण्हं सण्णाणमणुभागाविभागपलिच्छेदेहि समाणत्तं पेक्खिदूण पयडिविरुद्धमिच्छत्तादिफद्दएसु वि पबुत्तीए वि रोहाभावादो।
=
प्रश्न - लता, दारु, अस्थि और शैल संज्ञाएँ मान कषाय के अनुभाग स्पर्धकों में की गयी हैं। (देखे कषाय ३), ऐसी दशामें वे संज्ञाएँ मिथ्यात्व में कैसे प्रवृत्त हो सकती हैं?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, मानकषाय और मिथ्यात्व के अनुभाग के अविभागी प्रतिच्छेदों के परस्पर में समानता देखकर मानकषाय में होनेवाली चारों संज्ञाओं की मानकषाय से विरुद्ध प्रकृतिवाले मिथ्यात्वादि (सर्व कर्मों के अनुभाग) स्पर्धकों में भी प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है।
५. अनुभाग बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ
१. प्रकृतियों के अनुभाग की तरतमता सम्बन्धी सामान्य नियम
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,६५/५५/४ महाबिसयस्स अणुभागो महल्लो होदि, थोवविसयस्स अणुभागो थोवो होदि।....खवगसेडीए देसघादिबंधकरणे जस्स पुव्वमेव अणुभागबंधो देसघादी जादो तस्साणुभागो थोवो। जस्स पच्छा जादो तस्स बहुओ।
= महान् विषयवाली प्रकृति का अनुभाग महान् होता है और अल्प विषयवाली प्रकृति का अनुभाग अल्प होता है।....यथा-क्षपकश्रेणी में देशघाती बन्धकरण के समय जिसका अनुभाग बन्ध पहले ही देशघाती हो गया है उसका अनुभाग स्तोक होता है और जिसका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उसका अनुभाग बहुत होता है।
(धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,१२४/६६/१५)।
२. प्रकृति विशेषों में अनुभाग की तरतमता का निर्देश
१. ज्ञानावरण व दर्शनावरण के अनुभाग परस्पर समान होते हैं
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १२/४,२,७/४३/३३/२ णाणावरणीय-दंसणावरणीयवेयणाभावदो जहण्णियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ।
= भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की जघन्य वेदनाएँ दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं।
२. केवलज्ञान, दर्शनावरण, असाता व अन्तराय के अनुभाग परस्पर समान हैं
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १२/४,२,७/सू.७६/४९/६ केवलणाणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं असादवेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि ।।७६।।
= केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर उसमें अनंतगुणी हैं ।।७६।।
३. तिर्यंचायु से मनुष्यायु का अनुभाग अनन्तगुणा है
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,१६२/४३१/१२ सहावदो चेव तिरिक्खाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्स अणंतगुणत्ता।
= स्वभाव से ही तिर्यंचायु के अनुभाग से मनुष्यायु का भाव अनन्तगुणा है।
३. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग के बन्ध कों सम्बन्धी नियम
१. अघातिया कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टि को ही बन्धता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३/२५०/४५६/४ ण च मिच्छाइट्ठीसु अघादिकम्माणमुक्कस्सभावो अत्थि सम्माइट्ठीसु णियमिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छइट्ठीसु संभवविरोहादो।
= मिथ्यादृष्टि जीवों में अघातिकर्मों का उत्कृष्ट भाव संभव नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों में नियम से पाये जानेवाले अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग के मिथ्यादृष्टि जीवों में होने का विरोध है।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,२५६/४५९/२ असंजदसम्मादिट्ठिणा मिच्छादिट्ठिणा वा बद्धस्स देवाउअं पेक्खिदूण अप्पसत्थस्स उक्कस्सत्तविरोहादो। तेण अणंतगुणहीणा।
= सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के द्वारा बान्धी गयी मनुष्यायु चूँकि देवायु की अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होने का विरोध है। इसी कारण वह अनन्तगुणी हीन है।
२. गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध तेज व वातकायिकों में ही सम्भव है
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,२०४/४४१/८ बादरतेउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्थ उप्पज्जदि तो णियमा अणंतगुणवड्ढीए वड्ढिदं चेव उप्पज्जदि ण अण्णहा।
= बादरतेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभाग के साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं। यदि वह अन्य जीवों में उत्पन्न होता है तो नियम से वह अनन्तगुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नहीं।
४. प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्धकों की प्ररूपणा
प्रमाण-१.
( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या ४/४६०-४८२) (देखे स्थिति ६), (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$२२९-२७६/१५१-१८५/केवल मोहनीय कर्म विषयक)
संकेत-अनि० = अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति से पहला समय; अपू० = अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति से पहला समय; अप्र० = अप्रमत्तसंयत; अवि० = अविरतसम्यग्दृष्टि; क्षपक० = क्षपकश्रेणी; चतु० = चतुर्गति के जीव; ति० = तिर्यंच; तीव्र० = तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; देश०-देशसंयत; ना० = नारकी; प्र० = प्रमत्तसंयत; मध्य० = मध्य परिणामों युक्त जीव; मनु० = मनुष्य; मि० = मिथ्यादृष्टि; विशु० = अत्यन्त विशुद्ध परिणामयुक्त जीव; सम्य० = सम्यग्दृष्टि; सा० मि० = सातिशय मिथ्यादृष्टि; सू० सा० = सूक्ष्मसाम्पराय का चरम समय।
नाम प्रकृति उत्कृष्ट अनुभाग जघन्य अनुभाग
ज्ञानावरणीय ५ तीव्र० चतु० मि० सू० सा०
दर्शनावरणीय ४ तीव्र. चतु. मि. सू.सा.
निद्रा, प्रचला तीव्र. चतु. मि. अपू.
निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला तीव्र. चतु. मि. सा.मि./चरम
स्त्यानगृद्धि तीव्र. चतु. मि. सा.मि./चरम
अन्तराय ५ तीव्र. चतु. मि. सू.सा.
मिथ्यात्व तीव्र. चतु. मि. सा.मि./चरम
अनन्तानुबन्धी चतु. तीव्र. चतु. मि. सा.मि./चरम
अप्रत्याख्यान चतु. तीव्र. चतु. मि. प्र. सन्मुख अवि.
प्रत्याख्यान चतु. तीव्र. चतु. मि. प्र. सन्मुख देश.
संज्वलन चतु. तीव्र. चतु. मि. अनि.
हास्य, रति तीव्र. चतु. मि. अपू.
अरति, शोक तीव्र. चतु. मि. अप्र. सन्मुख प्र.
भय, जुगुप्सा तीव्र. चतु. मि. अपू.
स्त्री, नपुंसक वेद तीव्र. चतु. मि. तीव्र. चतु. मि.
पुरुष वेद तीव्र. चतु. मि. अनि.
साता क्षपक. मध्य. मि. सम्य.
असाता तीव्र. चतु. मि. मध्य. मि. सम्य.
नरकायु मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
तिर्यंचायु मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
मनुष्यायु मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
देवायु अप्र. मि.मनु.ति.
नरक द्वि. मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
तिर्यक् द्वि. मि.देव.ना. सप्तम पू. ना.
मनुष्य द्वि. सम्य. देव. ना. मध्य. मि.
देव द्वि. क्षपक. मि.मनु.ति.
एकेन्द्रिय जाति मि. देव मध्य. मि. देव. मनु. ति.
२-४ इन्द्रिय जाति मि. मनु. ति. मि.मनु.ति.
पंचेन्द्रिय जाति क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
औदारिक द्वि. सम्य. देव. ना. मि. देव. ना.
वैक्रियक द्वि. क्षपक. मि. मनु. ति.
आहारक द्वि. क्षपक. प्र. सन्मुख अप्र.
तैजस शरीर क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
कार्मण शरीर क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
निर्माण क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
प्रशस्त वर्णादि ४ क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
अप्रशस्त वर्णादि ४ तीव्र.चतु.मि. अपू. मध्य. मि.
समचतुरस्रसंस्था. क्षपक मध्य.मि.
शेष पाँच संस्थान तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.
वज्र ऋषभ नाराच सम्य. देव. ना. मध्य.मि.
वज्र नाराच आदि ४ तीव्र. चतु. मि. मध्य.मि.
असंप्राप्त सृपाटिका मि.देव.ना. मध्य मि.
अगुरुलघु क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
उपघात तीव्र. चतु. मि. अपू.
परघात क्षपक तीव्र.चतु.मि.
आतप मि. देव तीव्र.मि. भवनत्रिक से ईशान.
उद्योत मि. देव मि. देव ना.
उच्छ्वास सू.सा. तीव्र. चतु. मि.
प्रशस्त विहायो. क्षपक. मध्य.मि.
अप्रश. विहायो. तीव्र. चतु. मि. मध्य. मि.
प्रत्येक क्षपक तीव्र.चतु.मि.
साधारण मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
त्रस क्षपक. तीव्र.चतु.मि.
स्थावर मि.देव मध्य.मि. देव मनु. ति.
सुभग क्षपक. मध्य.मि.
दुर्भग तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.
सुस्वर क्षपक. मध्य.मि.
दुस्स्वर तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.
शुभ क्षपक. मध्य.मि.सम्य.
अशुभ तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.सम्य.
सूक्ष्म मि. मनु. ति. मि. मनु. ति.
बादर क्षपक तीव्र.चतु.मि.
पर्याप्त क्षपक तीव्र.चतु.मि.
अपर्याप्त मि.मनु.ति. मि.मनु.ति.
स्थिर क्षपक. मध्य.मि.सम्य.
अस्थिर तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.सम्य.
आदेय क्षपक. मध्य.मि.
अनादेय तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.
यशःकीर्ति क्षपक. मध्य.मि.सम्य.
अयशःकीर्ति तीव्र.चतु.मि. मध्य.मि.सम्य.
तीर्थंकर क्षपक. ना. सन्मुख अवि.
उच्च गोत्र क्षपक. मध्य.मि.
नीच गोत्र तीव्र. चतु. मि. सप्तम पृ. ना. मि.
अन्तराय ५ - देखे दर्शनावरणीय के पश्चात्
५. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र
नाम प्रकृति विषय ज.उ.पद भुजगारादि पद ज.उ.वृद्धि षड्गुण वृद्धि
महाबंध पुस्तक संख्या $...पृ. महाबंध पुस्तक संख्या .../पृ. महाबंध पुस्तक संख्या $...पृ. महाबंध पुस्तक संख्या $...पृ.
१. मूल प्रकृति संनिकर्ष ४/१७२-१८१/७४-७९
भंगविचय ४/१८२-१८५/७९-८१ ४/२८५/१३१-१३२
अनुभाग अध्यवसाय स्थान सम्बन्धी सर्व प्ररूपणाएँ ४/३७१-३८६/१६८-१७६ ४/३६०-३६१/१६३-१६४
२. उत्तरप्रकृति संनिकर्ष ५/१-३०८/१-१२६
भंगविचय ५/३०९-३१३/१२६-१२९ ५/४९२-४९७/२७६-७८ ५/६१७/३६२
अध्यवसाय स्थान सम्बन्धी सर्व प्ररूपणाएँ ५/६२६-६५८/३७२-३९८
अनुभाषण –
शुद्ध प्रत्याख्यान - देखे प्रत्याख्यान १।