मार्गणा: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> मार्गणा का स्वरूप </span></strong> <span class="HindiText"><br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> मार्गणा का स्वरूप </span></strong> <span class="HindiText"><br /> | ||
देखें | देखें [[ ऊहा ]]ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये एकार्थवाचक नाम हैं।</span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/56 <span class="PrakritText">जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा। ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति।</span> = <span class="HindiText">जिन-प्रवचनदृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गण किये जाते हैं अर्थात् खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवों का अन्वेषण करने वाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में 14 कही गयी हैं। (ध.1/1,1,4/गा. 83/132); (गो.जी./मू./141/354)।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,2/131/3 <span class="SanskritText">चतुर्दशानां जीवस्थानानां चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थ:। तेषां मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ:। ... चतुर्दश जीवसमासा: सदादिविशिष्टा: मार्ग्यन्तेऽस्मिन्ननेन वेति मार्गणा।</span> = <span class="HindiText">चौदह जीवसमासों से यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित हैं। मार्गणा, गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं। (ध.7/2,1,3/7/8)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,50/282/8 <span class="SanskritText">गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा: मृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुति:।</span> = <span class="HindiText">गतियों में अर्थात् मार्गणास्थानों में (देखें [[ आगे मार्गणा के भेद ]]) चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति हैं।<br /> | ||
देखें [[ आदेश#1 | आदेश - 1 ]](आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना मार्गणा है)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> चौदह मार्गणास्थानों के नाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> चौदह मार्गणास्थानों के नाम</strong> </span><br /> | ||
ष.खं./ | ष.खं./1/1,1/सू.4/132 <span class="PrakritText">गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।2।</span> = <span class="HindiText">गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं। (ष.खं. 7/2,1/सू. 2/6); (बो.पा./मू./33); (मू.आ./1197); (पं.सं./प्रा./1/57); (रा.वा./9/7/11/603/26); (गो.जी./मू./142/355); (स.सा./आ./53); (नि.सा./ता.वृ./42); (द्र.सं./टी./13/37/1 पर उद्धृत गाथा )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> सान्तर मार्गणा निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> सान्तर मार्गणा निर्देश</strong> <br /> | ||
एक मार्गणा को छोड़ने के | एक मार्गणा को छोड़ने के पश्चात् पुन: उसी में लौटने के लिए कुछ काल का अन्तर पड़ता हो तब वह मार्गणा सान्तर कहलाती है। वे आठ हैं। </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/58<span class="PrakritText"> मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि। सुहमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतराअट्ठं</span> =<span class="HindiText"> अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियकमिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसाम्परायसंयम, सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशमसम्यक्त्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,4/133/4 <span class="SanskritText">अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते। तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति। नात्र ते सन्ति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलम्भात्; तद्यथा, मृगयिता भव्यपुण्डरीक: तत्त्वार्थश्रद्धालुर्जीवः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजीवा मृग्यं मृग्यस्याधारतामास्कन्दन्ति मृगयितु: करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकार से अन्वेषण देखा जाता है–मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य-पुण्डरीक मृगयिता है, चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव <strong>मृग्य</strong> हैं, जो इस मृग्य के आधारभूत हैं अर्थात् मृगयिता को अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक हैं ऐसी गति आदि <strong>मार्गणा</strong> हैं तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक <strong>मार्गणा</strong> <strong>के उपाय</strong> हैं। (गो.जी./जी.प्र./2/21/10)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,2/131/6 <span class="SanskritText">‘इमानि’ इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्ते। नार्थमार्गणास्थानानि। तेषां देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते:।</span> = <span class="HindiText">‘इमानि’ सूत्र में आये हुए इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। और भी देखें [[ गतिमार्गणा में भावगति इष्ट है ]]–देखें [[ गति#2.5 | गति - 2.5]]; इन्द्रिय मार्गणा में भावइन्द्रिय इष्ट है–देखें [[ इन्द्रिय#3.1 | इन्द्रिय - 3.1]]; वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है–देखें [[ वेद ]]; संयम मार्गणा में भावसंयम इष्ट है–देखें [[ चारित्र#3.8 | चारित्र - 3.8]]। संयतासंयत/2; लेश्यामार्गणा में भावलेश्या इष्ट है–देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]]।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,78/133/4 <span class="PrakritText">सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवलंभादो। जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्वं। तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्ता त्ति। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेन्द्रियों में आय का प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि त्रसराशि में सादिबन्धक जीव पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध.15/262/4 <span class="SanskritText">केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे। जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भुजगार व अल्पतर उदीरकों की समानता किस कारण से कही जाती है ? <strong>उत्तर</strong>–जितने जीव मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यकत्व को प्राप्त होते हैं ( इस कारण उनकी समानता है)।<br /> | ||
देखें [[ मोक्ष#2 | मोक्ष - 2 ]]जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही निगोद से निकलते हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,115/353/7<span class="SanskritText"> ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,144/395/5 <span class="SanskritText">आम्रवनान्तस्थनिम्बानामाम्रवनव्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्यायः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से ज्ञान के प्रतिपक्षभूत अज्ञान का ज्ञानमार्गणा में अन्तर्भाव कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्वसहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे–पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है। अथवा जिस प्रकार आम्रवन के भीतर रहने वाले नीम के वृक्षों को आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि को सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है। </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,4,138/287/10 <span class="PrakritText">जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण जुज्जदे। ण, अंब णिंबवणं व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणा में संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनों का ग्रहण होता है तो इस मार्गणा को संयमानुवाद का नाम देना युक्त नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ‘आम्रवन’ वा ‘निम्बवन’ इन नामों के समान प्राधान्यपद का आश्रय लेकर ‘संयमानुवाद से’ यह व्यवपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> | <li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> 20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अन्तर्भाव</strong> <br /> | ||
(ध. | (ध.2/1,1/414/2)।</span></li> | ||
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<strong>सं.</strong> </span></td> | <strong>सं.</strong> </span></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>अन्तर्मान्य प्ररूपणा</strong> </span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong> </span></p></td> | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong> </span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>हेतु </strong> </span></p></td> | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>हेतु </strong> </span></p></td> | ||
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<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>पर्याप्ति</strong></span></p></td> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>पर्याप्ति</strong></span></p></td> | ||
<td width="124" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">काय व इन्द्रिय </span></p></td> | <td width="124" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">काय व इन्द्रिय </span></p></td> | ||
<td width="313" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">एकेन्द्रिय आदि | <td width="313" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">एकेन्द्रिय आदि सूक्ष्म बादर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेदों का कथन दोनों में समान है। </span></p></td> | ||
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<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>जीव समास</strong></span></p></td> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>जीव समास</strong></span></p></td> | ||
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<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य है। </span></p></td> | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य है। </span></p></td> | ||
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<li><span class="HindiText"> मार्गणाएँ | <li><span class="HindiText"> मार्गणाएँ विशेष–देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> 20 प्ररूपणा निर्देश।–देखें [[ प्ररूपणा ]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> 14 मार्गणाओं में 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> 14 मार्गणाओं में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व ये 8 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मार्गणाओं में कर्मों का बन्ध, उदय, | <li><span class="HindiText"> मार्गणाओं में कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]। </span></li> | ||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
- मार्गणा का स्वरूप
देखें ऊहा ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये एकार्थवाचक नाम हैं।
पं.सं./प्रा./1/56 जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा। ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति। = जिन-प्रवचनदृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गण किये जाते हैं अर्थात् खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवों का अन्वेषण करने वाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में 14 कही गयी हैं। (ध.1/1,1,4/गा. 83/132); (गो.जी./मू./141/354)।
ध.1/1,1,2/131/3 चतुर्दशानां जीवस्थानानां चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थ:। तेषां मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ:। ... चतुर्दश जीवसमासा: सदादिविशिष्टा: मार्ग्यन्तेऽस्मिन्ननेन वेति मार्गणा। = चौदह जीवसमासों से यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित हैं। मार्गणा, गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं। (ध.7/2,1,3/7/8)।
ध.13/5,5,50/282/8 गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा: मृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुति:। = गतियों में अर्थात् मार्गणास्थानों में (देखें आगे मार्गणा के भेद ) चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति हैं।
देखें आदेश - 1 (आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना मार्गणा है)। - चौदह मार्गणास्थानों के नाम
ष.खं./1/1,1/सू.4/132 गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।2। = गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं। (ष.खं. 7/2,1/सू. 2/6); (बो.पा./मू./33); (मू.आ./1197); (पं.सं./प्रा./1/57); (रा.वा./9/7/11/603/26); (गो.जी./मू./142/355); (स.सा./आ./53); (नि.सा./ता.वृ./42); (द्र.सं./टी./13/37/1 पर उद्धृत गाथा )। - सान्तर मार्गणा निर्देश
एक मार्गणा को छोड़ने के पश्चात् पुन: उसी में लौटने के लिए कुछ काल का अन्तर पड़ता हो तब वह मार्गणा सान्तर कहलाती है। वे आठ हैं।
पं.सं./प्रा./1/58 मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि। सुहमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतराअट्ठं = अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियकमिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसाम्परायसंयम, सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशमसम्यक्त्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं। - मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार
ध.1/1,1,4/133/4 अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते। तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति। नात्र ते सन्ति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलम्भात्; तद्यथा, मृगयिता भव्यपुण्डरीक: तत्त्वार्थश्रद्धालुर्जीवः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजीवा मृग्यं मृग्यस्याधारतामास्कन्दन्ति मृगयितु: करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति। = प्रश्न–लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकार से अन्वेषण देखा जाता है–मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य-पुण्डरीक मृगयिता है, चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव मृग्य हैं, जो इस मृग्य के आधारभूत हैं अर्थात् मृगयिता को अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक हैं ऐसी गति आदि मार्गणा हैं तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक मार्गणा के उपाय हैं। (गो.जी./जी.प्र./2/21/10)। - मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं
ध.1/1,1,2/131/6 ‘इमानि’ इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्ते। नार्थमार्गणास्थानानि। तेषां देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते:। = ‘इमानि’ सूत्र में आये हुए इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। और भी देखें गतिमार्गणा में भावगति इष्ट है –देखें गति - 2.5; इन्द्रिय मार्गणा में भावइन्द्रिय इष्ट है–देखें इन्द्रिय - 3.1; वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है–देखें वेद ; संयम मार्गणा में भावसंयम इष्ट है–देखें चारित्र - 3.8। संयतासंयत/2; लेश्यामार्गणा में भावलेश्या इष्ट है–देखें लेश्या - 4। - सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है
ध.4/1,3,78/133/4 सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवलंभादो। जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्वं। तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्ता त्ति। = क्योंकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेन्द्रियों में आय का प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि त्रसराशि में सादिबन्धक जीव पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं।
ध.15/262/4 केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे। जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति। = प्रश्न–भुजगार व अल्पतर उदीरकों की समानता किस कारण से कही जाती है ? उत्तर–जितने जीव मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यकत्व को प्राप्त होते हैं ( इस कारण उनकी समानता है)।
देखें मोक्ष - 2 जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही निगोद से निकलते हैं। - मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?
ध.1/1,1,115/353/7 ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्।
ध.1/1,1,144/395/5 आम्रवनान्तस्थनिम्बानामाम्रवनव्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्यायः। = प्रश्न–ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से ज्ञान के प्रतिपक्षभूत अज्ञान का ज्ञानमार्गणा में अन्तर्भाव कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्वसहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे–पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है। अथवा जिस प्रकार आम्रवन के भीतर रहने वाले नीम के वृक्षों को आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि को सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है।
ध.4/1,4,138/287/10 जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण जुज्जदे। ण, अंब णिंबवणं व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए। = प्रश्न–यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणा में संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनों का ग्रहण होता है तो इस मार्गणा को संयमानुवाद का नाम देना युक्त नहीं है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ‘आम्रवन’ वा ‘निम्बवन’ इन नामों के समान प्राधान्यपद का आश्रय लेकर ‘संयमानुवाद से’ यह व्यवपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है। - 20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अन्तर्भाव
(ध.2/1,1/414/2)।
सं. |
अन्तर्मान्य प्ररूपणा |
मार्गणा |
हेतु |
1 |
पर्याप्ति |
काय व इन्द्रिय |
एकेन्द्रिय आदि सूक्ष्म बादर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेदों का कथन दोनों में समान है। |
2 |
जीव समास |
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3 |
प्राण― |
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उच्छ्वास, वचनबल, मनोबल |
काय व इन्द्रिय |
तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य है। |
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काय बल |
योग |
‘योग’ मन वचन काय के बलरूप हैं। |
|
आयु |
गति |
दोनों अविनाभावी हैं। |
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इन्द्रिय |
ज्ञान |
इन्द्रिय ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप है। |
4 |
संज्ञा― |
कषाय में |
संज्ञा में राग या द्वेष रूप हैं। |
|
आहार |
माया व लोभ में |
आहार संज्ञा रागरूप है। |
|
भय |
क्रोध व मान में |
भय संज्ञा द्वेषरूप है। |
|
मैथुन |
वेद मार्गणा |
संज्ञा त्री आदि वेद के तीव्रोदयरूप हैं। |
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परिग्रह |
लोभ |
परिग्रह लोभ का कार्य है। |
5 |
उपयोग― |
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साकार |
ज्ञान |
साकारोपयोग ज्ञानरूप है। |
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अनाकार |
दर्शन |
अनाकारोपयोग दर्शनरूप है। |
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