योग: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong></span><strong><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong></span><strong><br> | ||
</strong> | </strong> राजवार्तिक/7/13/4/540/3 <span class="SanskritText">योजनं योगः सम्बन्ध इति यावत् ।</span> = <span class="HindiText">सम्बन्ध करने का नाम योग है । </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 4/139/9 <span class="SanskritText">युज्यत इति योगः ।</span> = <span class="HindiText">जो सम्बन्ध अर्थात् संयोग को प्राप्त हो उसको योग कहते हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> जीव का वीर्य या शक्ति विशेष</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> जीव का वीर्य या शक्ति विशेष</strong> </span><br /> | ||
पं. सं./पा. /1/88 <span class="PrakritGatha">मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्य (जिह) प्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो ।</span> = <span class="HindiText">मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य - परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं ।88। ( | पं. सं./पा. /1/88 <span class="PrakritGatha">मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्य (जिह) प्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो ।</span> = <span class="HindiText">मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य - परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं ।88। ( धवला 1/1, 1, 4/ गा. 88/140); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/216/472 ) । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/9/7/11/603/33 <span class="SanskritText">वीर्यान्तरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यलब्धिर्योगः तद्वत् आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पन्दः उपयोगो योगः ।</span> =<span class="HindiText"> वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सार्म्थ्य वाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेश का परिस्पन्द योग है । <br /> | |||
देखें [[ योग#2.5 | योग - 2.5]](क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है वह योग है) । <br /> | देखें [[ योग#2.5 | योग - 2.5]](क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है वह योग है) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3"> आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द या संकोच विस्तार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3"> आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द या संकोच विस्तार</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/1 <span class="SanskritText"> योगो वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः ।</span> =<span class="HindiText"> वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलन को योग कहते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/5 ); ( राजवार्तिक/2/26/4/137/8 ); ( राजवार्तिक/6/1/10/505/15 ); ( धवला 1/1, 1, 60/299/7 ); ( धवला 7/2, 1, 2/6/9 ); ( धवला 7/2, 1, 15/17/10 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/148 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/6 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/18 ) । </span><br /> | |||
राजवार्तिक/9/7/11/603/34 <span class="SanskritText">आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पन्दः उपयोगो योगः । </span>=<span class="HindiText"> मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है । ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ मं. प्र./216/474/1) । </span><br /> | |||
धवला 1/1, 1, 4/140/2 <span class="SanskritText"> आत्मप्रदेशानां संकोचविकोचो योगः । </span>= <span class="HindiText">आत्मप्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं । ( धवला 7/2, 1, 2/6/10 )। </span><br /> | |||
धवला 10/4, 2, 4, 175/437/7 <span class="PrakritText">जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचब्भमणसरूवओ ।</span> = <span class="HindiText">जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग कहलाता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4"> समाधि के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4"> समाधि के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
नियमसार 139 <span class="PrakritGatha"> विवरीयाभिणिवेसं परिचत्त जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सोहवे जोगो ।139। </span>= <span class="HindiText">विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव वह योग है । </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/3 <span class="SanskritText"> योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः ।</span> = <span class="HindiText">योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं । ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/801/980/13 ); (वै. शे. दै./5/2/16/172) । </span><br /> | |||
राजवार्तिक/6/1/12/505/27 <span class="SanskritText">युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् ।</span> =<span class="HindiText"> योग का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है । </span><br /> | |||
राजवार्तिक/6/12/8/522/31 <span class="SanskritText"> निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः, सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । </span>= <span class="HindiText">निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची हैं । ( दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14)। <br /> | |||
देखें [[ सामायिक#1 | सामायिक - 1 ]]साम्य का लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व योग एकार्थवाची हैं ।) <br /> | देखें [[ सामायिक#1 | सामायिक - 1 ]]साम्य का लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व योग एकार्थवाची हैं ।) <br /> | ||
देखें [[ मौन#1 | मौन - 1]](बहिरन्तर जल्प को रोककर चित्त निरोध करना योग है ।) <br /> | देखें [[ मौन#1 | मौन - 1]](बहिरन्तर जल्प को रोककर चित्त निरोध करना योग है ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.5" id="1.1.5"> वर्षादि काल स्थिति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.5" id="1.1.5"> वर्षादि काल स्थिति</strong> </span><br /> | ||
दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14<span class="SanskritText"> योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । </span>= <span class="HindiText">वर्षादि ॠतुओं की काल स्थिति को योग कहते हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> मन वचन कायकी अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> मन वचन कायकी अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम 1/1, 1/ सू. 47, 48/278, 280 <span class="PrakritText">जोगाणुवादेण अत्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि ।47। अजोगि चेदि ।48।</span> = <span class="HindiText">योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं ।48। ( बारस अणुवेक्खा/49 ); ( तत्त्वार्थसूत्र/6/1 ); ( धवला 8/3, 6/215 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/9 ); ( द्रव्यसंग्रह/ टी0/13/37/7); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/6 ) । </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/1 <span class="SanskritText"> चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पञ्च काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः ।</span> = <span class="HindiText">चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योग के तेरह भेद हैं । ( राजवार्तिक/8/1/29/564/26 ); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/34 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका /30/89/7-13/37/7 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/217/475 ); (विशेष देखें [[ मन ]], वचन, काय) । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> शुभ व अशुभ योग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> शुभ व अशुभ योग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ब. आ./49-50....<span class="PrakritText">मणवचिकायेण पुणो जोगो.... ।49। असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कूं वण्णिदं हवे दुविहं ।.... ।50।</span> = <span class="HindiText">मन, वचन और कार्य ये तीनों योग शुभ और अशुभ के भेद से दो - दो प्रकार के होते हैं । ( | ब. आ./49-50....<span class="PrakritText">मणवचिकायेण पुणो जोगो.... ।49। असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कूं वण्णिदं हवे दुविहं ।.... ।50।</span> = <span class="HindiText">मन, वचन और कार्य ये तीनों योग शुभ और अशुभ के भेद से दो - दो प्रकार के होते हैं । ( नयचक्र बृहद्/308 ) । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/3/2/507/1 <span class="SanskritText"> तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्यः शुभयोग इत्युच्यते । </span>= <span class="HindiText">अशुभ योग के अनन्त विकल्प हैं, उससे विपरीत शुभ योग होता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> त्रिदण्ड के भेद - प्रभेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> त्रिदण्ड के भेद - प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
चारित्रसार/99/6 <span class="SanskritText">दण्डस्त्रिविधः, मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहविकल्पात्मा मानसी दण्डस्त्रिविधः । </span>= <span class="HindiText">मन, वचन, काय के भेद से दण्ड तीन प्रकार का है और उसमें भी राग-द्वेष, मोह के भेद से मानसिक दण्ड भी तीन प्रकार है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> द्रव्य भाव आदि योगों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> द्रव्य भाव आदि योगों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/5 <span class="SanskritText">कायवाङ्मनोवर्गणावलम्बिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः सा भाव योगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु यः किंचिच्चलनरूपपरिस्पन्दः स द्रव्य योगः । </span>= <span class="HindiText">जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं । और इसी प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पन्द है उसको द्रव्ययोग कहते हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निक्षेप रूप भेदों के लक्षण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निक्षेप रूप भेदों के लक्षण</strong> <br /> | ||
<strong>नोट−</strong>नाम, स्थापनादि योगों के लक्षण<strong>−</strong>देखें [[ निक्षेप ]]। </span><br /> | <strong>नोट−</strong>नाम, स्थापनादि योगों के लक्षण<strong>−</strong>देखें [[ निक्षेप ]]। </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 175/433-434/4 <span class="PrakritText">तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो । तं जहा-सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगोगह-णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ ।...णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सच्चित्तगुजोगो अच्चित्तगुणजोगो चेदि । तत्थ अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचविहो - ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि ।...इंदो मेरुं चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जोसो जुंजणजोगो सो तिविहो उववादजोगो एगंताणुवड्ढिजोगो परिणामजोगो चेदि ।</span> = <span class="HindiText">तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकार का है यथा<strong>−</strong>सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, चूर्णयोग व मन्त्रयोग इत्यादि ।....नोआगम भावयोग तीन प्रकार का है । गुणयोग, सम्भवयोग और योजनायोग । उनमें से गुणयोग दो प्रकार का है<strong>−</strong>सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग । उनमें से अचित्तगुणयोग - जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणों से पुद्गल द्रव्य का योग, अथवा आकाशदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग । उनमें से सचित्तगुण योग पाँच प्रकार का है<strong>−</strong>औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक (इनके लक्षण देखें [[ वह वह नाम ]]) इन्द्र मेरु पर्वत को चलाने के लिए समर्थ है, इस प्रकार का जो शक्ति का योग है वह सम्भवयोग कहा जाता है । जो योजना - (मन, वचन-काय का व्यापार) योग है वह तीन प्रकार का है<strong>−</strong>उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग<strong>−</strong>देखें [[ योग#5 | योग - 5 ]]। </span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
कर्मों के संयोग के कारण भूत जीव के प्रदेशों का परिस्पन्दन योग कहलाता है अथवा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के प्रति जीव का उपयोग या प्रयत्न विशेष योग कहलाता है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदि के निमित्त की अपेक्षा तीन या पन्द्रह प्रकार का है। ये सभी योग नियम से क्रमपूर्वक ही प्रवृत्त हो सकते हैं, युगपत् नहीं। जीव भाव की अपेक्षा परिणामिक है और शरीर की अपेक्षा क्षायोपशमिक या औदयिक है।
- [[ योग के भेद व लक्षण ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1 | योग सामान्य का लक्षण ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.1 | निरुक्ति अर्थ । ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.2 | जीव का वीर्य या शक्ति विशेष। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.3 | आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द या संकोच विस्तार।]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.4 | समाधि के अर्थ में योग। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.5 | वर्षादि काल स्थिति।]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1.1 | निरुक्ति अर्थ । ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.2 | योग के भेद ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.3 | त्रिदण्ड के भेद-प्रभेद। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.4 | द्रव्य भाव आदि योगों के लक्षण। ]]
- मनोयोग व वचनयोग के लक्षण−देखें वह वह नाम ।
- काययोग व उसके विशेष−देखें वह वह नाम ।
- आतापन योगादि तप ।−देखें कायक्लेश ।
- [[योग के भेद व लक्षण#1.5 | निक्षेप रूप भेदों के लक्षण।]]
- [[योग के भेद व लक्षण#1.1 | योग सामान्य का लक्षण ]]
- शुभ व अशुभ योगों के लक्षण−देखें वह वह नाम ।
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.1 | वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति । ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.2 | मेघादि के परिस्पन्द में व्यभिचार निवृत्ति ]]।
- योगद्वारों को आस्रव कहने का कारण।−देखें आस्रव - 2।
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.3 | परिस्पन्द व गति में अन्तर। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.4 | परिस्पन्द लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.5 | परिस्पन्द रहित होने से आठ मध्य प्रदेशों में बन्ध न हो सकेगा।]]
- अखण्ड जीव प्रदेशों में परिस्पन्द की सिद्धि। - देखें जीव - 4.7।
- जीव के चलिताचलित प्रदेश। - देखें जीव - 4।
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.6 | योग में शुभ अशुभपना क्या। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.7 | शुभ अशुभ योग में अनन्तपना कैसे है। ]]
- [[योग के भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क−वितर्क#2.1 | वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति । ]]
- योग व लेश्या में भेदाभेद तथा अन्य विषय।−देखें लेश्या ।
- योग सामान्य निर्देश
- [[योग सामान्य निर्देश#3.1 | योग मार्गणा में भाव योग इष्ट है। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.2 | योग वीर्यगुण की पर्याय है। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.3 | योग कथंचित् पारिणामिक भाव है। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.4 | योग कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.5 | योग कथंचित् औदयिक भाव है। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.6 | उत्कृष्ट योग दो समय से अधिक नहीं रहता। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.7 | तीनों योगों की प्रवृत्ति क्रम से ही होती है युगपत् नहीं। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.8 | तीनों योगों के निरोध का क्रम। ]]
- [[योग सामान्य निर्देश#3.1 | योग मार्गणा में भाव योग इष्ट है। ]]
- [[ योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.1 | योगों में सम्भव गुणस्थान निर्देश।]]
- केवली को योग होता है।−देखें केवली - 5।
- सयोग-अयोग केवली।−देखें केवली ।
- अन्य योग को प्राप्त हुए बिना गुणस्थान परिवर्तन नहीं होता।−देखें अन्तर - 2।
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.2 | गुणस्थानों में सम्भव योग। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.3 | योगों में सम्भव जीव समास ।]]
- योग में सम्भव गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणाएँ।−देखें सत् ।
- योगमार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प, बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम ।
- योग मार्गणा में कर्मों का बन्ध उदय व सत्त्व।−देखें वह वह नाम ।
- कौन योग से मरकर कहाँ उत्पन्न हो।−देखें जन्म - 6।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।−देखें मार्गणा ।
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.4 | पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचन योग सम्बन्धी शंका। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.5 | मनोयोगों में भाषा व शरीर पर्याप्ति की सिद्धि। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.6 | अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवों में असत्य मनोयोग कैसे। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.7 | समुद्घातगत जीवों में मन, वचन योग कैसे। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.8 | असंज्ञी जीवों में असत्य व अनुभय वचनयोग कैसे। ]]
- [[योग का स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ #4.1 | योगों में सम्भव गुणस्थान निर्देश।]]
- मारणान्तिक समुद्घात में उत्कृष्ट योग सम्भव नहीं।−देखें विशुद्ध - 8.4।
- [[योगस्थान निर्देश
]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.1 | योगस्थान सामान्य का लक्षण। ]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.2 | योगस्थानों के भेद।]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.3 | उपपाद योगस्थान का लक्षण। ]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.4 | एकान्तानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण।]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.5 | परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण। ]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.6 | परिणाम योगस्थानों की यबमध्य रचना।]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.7 | योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में सम्भव है। ]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.8 | योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी। ]]
- योगस्थानों के अवस्थान सम्बन्धी प्ररूपणा।−देखें काल - 6।
- [[योगस्थान निर्देश#5.9 | लब्ध्यपर्याप्तक के परिणाम योग होने सम्बन्धी दो मत। ]]
- [[योगस्थान निर्देश#5.10 | योगस्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबन्ध के साथ सम्बन्ध। ]]
- [[ योगवर्गणा निर्देश ]]
- [[योगवर्गणा निर्देश#6.1 | योग वर्गणा का लक्षण।]]
- [[योगवर्गणा निर्देश#6.2 | योग वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों की रचना। ]]
- [[योगवर्गणा निर्देश#6.3 | योगस्पर्धक का लक्षण। ]]
- [[योगवर्गणा निर्देश#6.1 | योग वर्गणा का लक्षण।]]
- योग के भेद व लक्षण
- योग सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/7/13/4/540/3 योजनं योगः सम्बन्ध इति यावत् । = सम्बन्ध करने का नाम योग है ।
धवला 1/1, 1, 4/139/9 युज्यत इति योगः । = जो सम्बन्ध अर्थात् संयोग को प्राप्त हो उसको योग कहते हैं ।
- जीव का वीर्य या शक्ति विशेष
पं. सं./पा. /1/88 मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्य (जिह) प्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो । = मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य - परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं ।88। ( धवला 1/1, 1, 4/ गा. 88/140); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/216/472 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/33 वीर्यान्तरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यलब्धिर्योगः तद्वत् आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पन्दः उपयोगो योगः । = वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सार्म्थ्य वाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेश का परिस्पन्द योग है ।
देखें योग - 2.5(क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है वह योग है) ।
- आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द या संकोच विस्तार
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/1 योगो वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः । = वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलन को योग कहते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/5 ); ( राजवार्तिक/2/26/4/137/8 ); ( राजवार्तिक/6/1/10/505/15 ); ( धवला 1/1, 1, 60/299/7 ); ( धवला 7/2, 1, 2/6/9 ); ( धवला 7/2, 1, 15/17/10 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/148 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/6 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/18 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/34 आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पन्दः उपयोगो योगः । = मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है । ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ मं. प्र./216/474/1) ।
धवला 1/1, 1, 4/140/2 आत्मप्रदेशानां संकोचविकोचो योगः । = आत्मप्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं । ( धवला 7/2, 1, 2/6/10 )।
धवला 10/4, 2, 4, 175/437/7 जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचब्भमणसरूवओ । = जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग कहलाता है ।
- समाधि के अर्थ में
नियमसार 139 विवरीयाभिणिवेसं परिचत्त जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सोहवे जोगो ।139। = विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव वह योग है ।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/3 योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । = योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं । ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/801/980/13 ); (वै. शे. दै./5/2/16/172) ।
राजवार्तिक/6/1/12/505/27 युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । = योग का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है ।
राजवार्तिक/6/12/8/522/31 निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः, सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । = निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची हैं । ( दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14)।
देखें सामायिक - 1 साम्य का लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व योग एकार्थवाची हैं ।)
देखें मौन - 1(बहिरन्तर जल्प को रोककर चित्त निरोध करना योग है ।)
- वर्षादि काल स्थिति
दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14 योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । = वर्षादि ॠतुओं की काल स्थिति को योग कहते हैं ।
- निरुक्ति अर्थ
- योग के भेद
- मन वचन कायकी अपेक्षा
षट्खण्डागम 1/1, 1/ सू. 47, 48/278, 280 जोगाणुवादेण अत्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि ।47। अजोगि चेदि ।48। = योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं ।48। ( बारस अणुवेक्खा/49 ); ( तत्त्वार्थसूत्र/6/1 ); ( धवला 8/3, 6/215 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/9 ); ( द्रव्यसंग्रह/ टी0/13/37/7); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/6 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/1 चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पञ्च काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः । = चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योग के तेरह भेद हैं । ( राजवार्तिक/8/1/29/564/26 ); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/34 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका /30/89/7-13/37/7 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/217/475 ); (विशेष देखें मन , वचन, काय) ।
- शुभ व अशुभ योग की अपेक्षा
ब. आ./49-50....मणवचिकायेण पुणो जोगो.... ।49। असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कूं वण्णिदं हवे दुविहं ।.... ।50। = मन, वचन और कार्य ये तीनों योग शुभ और अशुभ के भेद से दो - दो प्रकार के होते हैं । ( नयचक्र बृहद्/308 ) ।
राजवार्तिक/6/3/2/507/1 तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्यः शुभयोग इत्युच्यते । = अशुभ योग के अनन्त विकल्प हैं, उससे विपरीत शुभ योग होता है ।
- मन वचन कायकी अपेक्षा
- त्रिदण्ड के भेद - प्रभेद
चारित्रसार/99/6 दण्डस्त्रिविधः, मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहविकल्पात्मा मानसी दण्डस्त्रिविधः । = मन, वचन, काय के भेद से दण्ड तीन प्रकार का है और उसमें भी राग-द्वेष, मोह के भेद से मानसिक दण्ड भी तीन प्रकार है।
- द्रव्य भाव आदि योगों के लक्षण
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/5 कायवाङ्मनोवर्गणावलम्बिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः सा भाव योगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु यः किंचिच्चलनरूपपरिस्पन्दः स द्रव्य योगः । = जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं । और इसी प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पन्द है उसको द्रव्ययोग कहते हैं ।
- निक्षेप रूप भेदों के लक्षण
नोट−नाम, स्थापनादि योगों के लक्षण−देखें निक्षेप ।
धवला 10/4, 2, 4, 175/433-434/4 तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो । तं जहा-सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगोगह-णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ ।...णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सच्चित्तगुजोगो अच्चित्तगुणजोगो चेदि । तत्थ अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचविहो - ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि ।...इंदो मेरुं चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जोसो जुंजणजोगो सो तिविहो उववादजोगो एगंताणुवड्ढिजोगो परिणामजोगो चेदि । = तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकार का है यथा−सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, चूर्णयोग व मन्त्रयोग इत्यादि ।....नोआगम भावयोग तीन प्रकार का है । गुणयोग, सम्भवयोग और योजनायोग । उनमें से गुणयोग दो प्रकार का है−सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग । उनमें से अचित्तगुणयोग - जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणों से पुद्गल द्रव्य का योग, अथवा आकाशदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग । उनमें से सचित्तगुण योग पाँच प्रकार का है−औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक (इनके लक्षण देखें वह वह नाम ) इन्द्र मेरु पर्वत को चलाने के लिए समर्थ है, इस प्रकार का जो शक्ति का योग है वह सम्भवयोग कहा जाता है । जो योजना - (मन, वचन-काय का व्यापार) योग है वह तीन प्रकार का है−उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग−देखें योग - 5 ।
- योग सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
काय, वचन और मन के निमित्त से होनेवाली आत्मप्रदेशों की परिस्पन्दन किया । कर्मबन्ध के पांच कारणों में यह भी एक कारण है । जहाँ कषाय होती है वहाँ यह अवश्य होता है । यह एक होते हुए भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है । मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार का तथा मनोयोग और वचनयोग के चार-चार और काययोग के सात भेद होने से यह पन्द्रह प्रकार का होता है । इनके द्वारा जीव कर्मों के साथ बद्ध होते हैं और इनकी एकाग्रता से आन्तरिक एवं बाह्य विकार रोके जा सकते हैं । महापुराण 18.2, 21. 225, 47.311, 48.52, 54.151-152, 62. 310-311, 63.309, हरिवंशपुराण 58.57, पद्मपुराण 22. 70, 23. 31 वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 67