व्रत: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> व्रत सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> व्रत सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/1 <span class="SanskritText"> हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।1।</span> =<span class="HindiText"> हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से (यावज्जीवन देखें [[ भगवती आराधना ]]विजयोदया टीका तथा द्रव्यसंग्रह टीका ) निवृत्त होना व्रत है।1। ( धवला 8/3, 41/82/5 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1185/1171/ 16 ); (भा.आ./वि./421/614/19, 20); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/1 )। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/7/1/342/6 <span class="SanskritText"> व्रतमभिसंधिकृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा। </span>= <span class="HindiText">प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है। यथा ‘यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है’ इस प्रकार नियम करना व्रत है। ( राजवार्तिक/7/1/3 /531/15 ); ( चारित्रसार/8/3 )। </span><br /> | |||
परमात्मप्रकाश टीका/2/52/173/5 <span class="SanskritText">व्रतं कोऽर्थः। सर्वनिवृत्तिपरिणामः। </span>=<span class="HindiText"> सर्व निवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं। </span><br /> | |||
सागार धर्मामृत/2/80 <span class="SanskritGatha"> संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः। निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि।80।</span> = <span class="HindiText">किन्हीं पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभकर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मों में उसी प्रकार संकल्पर्पूवक प्रवृत्ति करना व्रत है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय से व्रत का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय से व्रत का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/35/100/13 <span class="SanskritText">निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्व-भावनोत्पन्नसुखसुधास्वादबलेन समस्त-शुभाशुभरागादि-विकल्पनिवृत्तिर्व्रतम्।</span> = <span class="HindiText">निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ व अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है। </span><br /> | |||
परमात्मप्रकाश/2/67/189/2 <span class="SanskritText">स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिर्वर्तनं इति निश्चयव्रतं। </span>= <span class="HindiText">शील अर्थात् अपने आत्मा से अपने आत्मा में प्रवृत्ति करना, ऐसा निश्चय व्रत। </span><br /> | |||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लो.<span class="SanskritGatha">सर्वतः सिद्धमेवैतद्व्रतं बाह्यं दयाङ्गिषु। व्रतमन्तः कषायाणां त्यागः सैषात्मनि कृपा।753। अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः। अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल।755। ततः शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयादृते। चारित्रापरनामैतद्व्रतं निश्चयतः परम्।758।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText">प्राणियों पर दया करना बहिरंग व्रत है, यह बात सब प्रकार सिद्ध है। कषायों का त्याग करना रूप स्वदया अन्तरंग व्रत है।753। </span></li> | <li> <span class="HindiText">प्राणियों पर दया करना बहिरंग व्रत है, यह बात सब प्रकार सिद्ध है। कषायों का त्याग करना रूप स्वदया अन्तरंग व्रत है।753। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> व्रत सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> व्रत सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/2 <span class="SanskritText">देशसर्वतोऽणुमहती।2। </span>= <span class="HindiText">देशत्यागरूप अणुव्रत और सर्वत्यागरूप महाव्रत ऐसे दो प्रकार व्रत हैं। ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार /50 )। </span><br /> | |||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/51 <span class="SanskritGatha">गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षाव्रतात्मकं चरणं। पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातं।51। </span>= <span class="HindiText">गृहस्थों का चारित्र पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षव्रत, इस प्रकार 12 भेदरूप कहा गया है। ( चारित्रसार/13/7 ); (पं.विं./6/24; 7/5); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/207 ); ( सागार धर्मामृत/2/16 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> व्रतों में सम्यक्त्व का स्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> व्रतों में सम्यक्त्व का स्थान</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/277/16 पर उद्धृत-<span class="PrakritText">पञ्चवदाणि जदीणं अणुव्वदाइं च देसविरदाणं। ण हु सम्मत्तेण विणा तौ सम्मत्तं पढमदाए। </span>= <span class="HindiText">मुनियों के अहिंसादि पञ्च महाव्रत और श्रावकों के पाँच अणुव्रत, ये सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होते हैं, इसलिए प्रथमतः आचार्यों ने सम्यक्त्व का वर्णन किया है। </span><br /> | |||
चारित्रसार/5/6 <span class="SanskritText">एवं विधाष्टाङ्गविशिष्टं सम्यक्त्वं तद्विकलयोरणुव्रतमहाव्रतयोर्नामापि न स्यात्। </span>= <span class="HindiText">इस प्रकार आठ अंगों से पूर्ण सम्यग्दर्शन होता है। यदि सम्यग्दर्शन न हो तो अणुव्रत तथा महाव्रतों का नाम तक नहीं होता है। </span><br /> | |||
अमितगति श्रावकाचार/2/27 <span class="SanskritGatha">दवीयः कुरुते स्थानं मिथ्यादृष्टिरभीप्सितम्। अन्यत्र गमकारीव घोरैर्युक्तो व्रतैरपि।27। </span>= <span class="HindiText">घोर व्रतों से सहित भी मिथ्यादृष्टि वांछित स्थान को, मार्ग से उलटा चलने वाले की भाँति, अति दूर करता है। <br /> | |||
देखें [[ धर्म#2.6 | धर्म - 2.6 ]](सम्यक्त्व रहित व्रतादि अकिंचित्कर हैं, बाल व्रत हैं)। <br /> | देखें [[ धर्म#2.6 | धर्म - 2.6 ]](सम्यक्त्व रहित व्रतादि अकिंचित्कर हैं, बाल व्रत हैं)। <br /> | ||
देखें [[ चारित्र#6.8. | चारित्र - 6.8. ]](मिथ्यादृष्टि के व्रतों को महाव्रत कहना उपचार है)। <br /> | देखें [[ चारित्र#6.8. | चारित्र - 6.8. ]](मिथ्यादृष्टि के व्रतों को महाव्रत कहना उपचार है)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> व्रतदान व ग्रहण विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> व्रतदान व ग्रहण विधि</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/614/11 <span class="SanskritText">ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठः स्थितिकल्पः। अचेलतायां स्थितः उद्देशिकरजपिण्डपरिहरणोद्यतः गुरुभक्तिकृतविनीतो व्रतारोपणार्हो भवति।...इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः श्रावकश्राविकावर्गाय व्रतं प्रयच्छेत् स्वयं स्थितः सूरिः स्ववामदेशे स्थिताय विरताय व्रतानि दद्यात्।....ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतं।</span> = <span class="HindiText">जिसको जीवों का स्वरूप मालूम हुआ है ऐसे मुनि को नियम से व्रत देना यह व्रतारोपण नाम का छठा स्थिति कल्प है। जिसने पूर्ण निग्रन्थ अवस्था धारण की है, उद्देशिकाहार और राजपिंड का त्याग किया है, जो गुरु भक्त और विनयी है, वह व्रतारोपण के लिए योग्य है। (यहाँ इसी अर्थ की द्योतक एक गाथा उद्धृत की है) व्रत देने का क्रम इस प्रकार है–जब गुरु बैठते हैं और आर्यिकाएँ सम्मुख होकर बैठती हैं, ऐसे समय में श्रावक और श्राविकाओं को व्रत दिये जाते हैं। व्रत ग्रहण करने वाला मुनि भी गुरु के बायीं तरफ बैठता है। तब गुरु उसको व्रत देते हैं। व्रतों का स्वरूप जानकर तथा श्रद्धा करके पापों से विरक्त होना व्रत है। [इसलिए गुरु उसे पहले व्रतों का उपदेश देते हैं–(देखें [[ इसी मूल टीका का अगला भाग ]])। व्रत दान सम्बन्धी कृतिकर्म के लिए–देखें [[ कृतिकर्म ]]। <br /> | |||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/351/17 व 352/7 जैन धर्मविषैं तौ यहू उपदेश है, पहलैं तौ तत्त्वज्ञानी होय, पीछे जाका त्याग करै, ताका दोष पहिचानै। त्याग किएं गुण होय, ताकौं जानैं। बहुरि अपने परिणामनि को ठीक करै। वर्तमान परिणामनि हीकै भरोसै प्रतिज्ञा न करि बैठैं। आगामी निर्वान होता जानैं तौ प्रतिज्ञा करै। बहुरि शरीर की शक्ति वा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिक का विचार करै। ऐसे विचारि पीछैं प्रतिज्ञा करनी, सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञातैं निरादरपना न होय, परिणाम चढ़ते रहैं। ऐसी जैनधर्म की आम्नाय है।....सम्यग्दृष्टि प्रतिज्ञा करै है, सो तत्त्वज्ञानादि पूर्वक ही करै है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> व्रत गुरु साक्षी में लिया जाता है</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> व्रत गुरु साक्षी में लिया जाता है</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> व्रत भंग का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> व्रत भंग का निषेध</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/1633/1480 <span class="PrakritGatha">अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स। पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं।1633।</span> = <span class="HindiText">पञ्चपरमेष्ठी, देवता और सर्व संघ की साक्षी में कृत आहार के प्रत्याख्यान का त्याग करने से अच्छा तो मर जाना है।1633। ( अमितगति श्रावकाचार/12/44 )। </span><br /> | |||
सागार धर्मामृत/7/52 <span class="SanskritGatha"> प्राणान्तेऽपि न भङ्क्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं। प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे भवे।52।</span> =<span class="HindiText"> प्राणान्त होने की सम्भावना होने पर भी गुरु साक्षी में लिये गये व्रत को भंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणों के नाश से तो तत्क्षण ही दुःख होता है, पर व्रत भंग से भव-भव में दुःख होता है। <br /> | |||
देखें [[ दिग्व्रत#3 | दिग्व्रत - 3 ]](मरण हो तो हो, पर व्रत भंग नहीं किया जाता)। <br /> | देखें [[ दिग्व्रत#3 | दिग्व्रत - 3 ]](मरण हो तो हो, पर व्रत भंग नहीं किया जाता)। <br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/ पृष्ठ/पंक्ति-प्रतिज्ञा भंग करने का महा पाप है। इसतैं तौ प्रतिज्ञा न लैंनी ही भली है। (351/14)।....मरण पर्यन्त कष्ट होय तौ होहु, परन्तु प्रतिज्ञा न छोड़नी। (352/5)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> व्रत भंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> व्रत भंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/2/79 <span class="SanskritGatha">समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः। छिन्नं दर्पात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा।79।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य क्षेत्रादि को देखकर व्रत लेना चाहिए, प्रयत्नपूर्वक उसे पालना चाहिए। फिर भी किसी मद के आवेश से या प्रमाद से व्रत छिन्न हो जाये तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर उसे पुनः धारण करना चाहिए। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतों के नाम निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतों के नाम निर्देश</strong> <br /> | ||
हरिवंशपुराण/34/ श्लो. नं.-सर्वतोभद्र (52), वसन्तभद्र (56), महासर्वतोभद्र (57), त्रिलोकसार (59), वज्रमध्य (62), मृदङ्गमध्य (64), मुरजमध्य (66), एकावली (67), द्विकावली (68), मुक्तावली (69), रत्नावली (71), रत्नमुक्तावली (72), कनकावली (74) ; द्वितीय रत्नावली (76), सिंहनिष्क्रीडित (78-80), नन्दीश्वरव्रत (84), मेरुपंक्तिव्रत (86), शातकुम्भव्रत (87), चान्द्रायण व्रत (90), सप्तसप्तमतपोव्रत (91), अष्ट अष्टम व नवनवम आदि व्रत (92), आचाम्ल वर्द्धमान व्रत (95), श्रुतव्रत (97), दर्शनशुद्धि व्रत (98), तपः शुद्धि व्रत (99), चारित्र शुद्धि व्रत (100), एक कल्याण व्रत (110), पंच कल्याण व्रत (111), शील कल्याण व्रत (112), भावना विधि व्रत (112), पंचविंशति कल्याण भावना विधि व्रत (114), दुःखहरण विधि व्रत (118), कर्मक्षय विधि व्रत (121), जिनेन्द्रगुण संपत्ति विधि व्रत (122), दिव्य लक्षण पंक्ति विधि व्रत (123), धर्मचक्र विधि व्रत, परस्पर कल्याणविधि व्रत (124)। ( चारित्रसार/151/1 पर उपर्युक्त में से केवल 10 व्रतों का निर्देश है। <br> वसुनन्दी श्रावकाचार/ श्लोक नं.–पञ्चमी व्रत (355), रोहिणीव्रत (363), अश्विनी व्रत (366), सौख्य सम्पत्ति व्रत (368), नन्दीश्वर पंक्ति व्रत (373), विमान पंक्ति व्रत (376)। <br /> | |||
<strong>व्रत विधान संग्रह–</strong>[उपर्युक्त सर्व के अतिरिक्त निम्न व्रतों का अधिक उल्लेख मिलता है।]–अक्षयनिधि, अनस्तमी, अष्टमी, गन्ध-अष्टमी, निःशल्य अष्टमी, मनचिन्ती अष्टमी, अष्टाह्निका, आचारवर्धन, एसोनव, एसोदश, कंजिक, कर्मचूर, कर्मनिर्जरा, श्रुतकल्याणक, क्षमावणी, ज्ञानपच्चीसी, चतुर्दशी, अनन्त चतुर्दशी, कली चतुर्दशी, चौंतीस अतिशय, तीन चौबीसी, आदिनाथ जयन्ती, आदिनाथ निर्वाण जयन्ती, आदिनाथ शासन जयन्ती, वीर जयन्ती, वीर शासन जयन्ती, जिन पूजा पुरन्धर, जिन मुखावलोकन, जिनरात्रि, ज्येष्ठ, णमोकार पैंतीसी, तपो विधि, तपो शुद्धि, त्रिलोक, तीज, रोट तीज, तीर्थंकर व्रत, तेला व्रत त्रिगुणसार, त्रेपन क्रिया, दश मिनियानी, दशलक्षण, अक्षयफलदशमी, उडंड दशमी, चमक दशमी, छहार दशमी, झावदशमी, तमोर दशमी, पान दशमी, फल दशमी, फूल दशमी, बारा दशमी, भण्डार दशमी, सुगन्ध दशमी, सौभाग्य दशमी, दीपमालिका, द्वादशीव्रत, कांजी बारस, श्रावण दशमी, धनकलश, नवविधि, नक्षत्रमाला, नवकार व्रत, पञ्चपोरिया, आकाश पञ्चमी, ऋषि पञ्चमी, कृष्ण पञ्चमी, कोकिल पञ्चमी, गारुड पञ्चमी, निर्जर पञ्चमी, श्रुत पञ्चमी, श्वेत पञ्चमी, लक्षण पंक्ति, परमेष्ठीगुण व्रत, पल्लव विधान, पुष्पांजली, बारह तप, बारह बिजोरा, बेला, तीर्थंकर बेला, शिवकुमार बेला, षष्ठम बेला, भावना व्रत, पञ्च-विंशति-भावना, भावना पच्चीसी, मुरजमध्य, मुष्टि-विधान, मेघमाला, मौन व्रत, रक्षा बन्धन, रत्नत्रय, रविवार, दुग्धरसी, नित्यरसी, षट्रसी, रुक्मणी, रुद्रवसंत, लब्धिविधान, वसन्तभद्र, शीलव्रत, श्रुतज्ञानव्रत, पञ्च-श्रुतज्ञान, श्रुतस्कन्ध षष्ठीव्रत, चन्दन षष्ठी, षोडशकारण, संकट हरण, कौमार सप्तमी, नन्दसप्तमी, निर्दोष सप्तमी, मुकुट सप्तमी, मोक्षसप्तमी, शीलसप्तमी, समकित चौबीसी, समवशरण, सर्वार्थसिद्धि, भाद्रवन-सिंह-निष्क्रीडित, सुखकारण, सुदर्शन, सौवीर भुक्ति। <br /> | <strong>व्रत विधान संग्रह–</strong>[उपर्युक्त सर्व के अतिरिक्त निम्न व्रतों का अधिक उल्लेख मिलता है।]–अक्षयनिधि, अनस्तमी, अष्टमी, गन्ध-अष्टमी, निःशल्य अष्टमी, मनचिन्ती अष्टमी, अष्टाह्निका, आचारवर्धन, एसोनव, एसोदश, कंजिक, कर्मचूर, कर्मनिर्जरा, श्रुतकल्याणक, क्षमावणी, ज्ञानपच्चीसी, चतुर्दशी, अनन्त चतुर्दशी, कली चतुर्दशी, चौंतीस अतिशय, तीन चौबीसी, आदिनाथ जयन्ती, आदिनाथ निर्वाण जयन्ती, आदिनाथ शासन जयन्ती, वीर जयन्ती, वीर शासन जयन्ती, जिन पूजा पुरन्धर, जिन मुखावलोकन, जिनरात्रि, ज्येष्ठ, णमोकार पैंतीसी, तपो विधि, तपो शुद्धि, त्रिलोक, तीज, रोट तीज, तीर्थंकर व्रत, तेला व्रत त्रिगुणसार, त्रेपन क्रिया, दश मिनियानी, दशलक्षण, अक्षयफलदशमी, उडंड दशमी, चमक दशमी, छहार दशमी, झावदशमी, तमोर दशमी, पान दशमी, फल दशमी, फूल दशमी, बारा दशमी, भण्डार दशमी, सुगन्ध दशमी, सौभाग्य दशमी, दीपमालिका, द्वादशीव्रत, कांजी बारस, श्रावण दशमी, धनकलश, नवविधि, नक्षत्रमाला, नवकार व्रत, पञ्चपोरिया, आकाश पञ्चमी, ऋषि पञ्चमी, कृष्ण पञ्चमी, कोकिल पञ्चमी, गारुड पञ्चमी, निर्जर पञ्चमी, श्रुत पञ्चमी, श्वेत पञ्चमी, लक्षण पंक्ति, परमेष्ठीगुण व्रत, पल्लव विधान, पुष्पांजली, बारह तप, बारह बिजोरा, बेला, तीर्थंकर बेला, शिवकुमार बेला, षष्ठम बेला, भावना व्रत, पञ्च-विंशति-भावना, भावना पच्चीसी, मुरजमध्य, मुष्टि-विधान, मेघमाला, मौन व्रत, रक्षा बन्धन, रत्नत्रय, रविवार, दुग्धरसी, नित्यरसी, षट्रसी, रुक्मणी, रुद्रवसंत, लब्धिविधान, वसन्तभद्र, शीलव्रत, श्रुतज्ञानव्रत, पञ्च-श्रुतज्ञान, श्रुतस्कन्ध षष्ठीव्रत, चन्दन षष्ठी, षोडशकारण, संकट हरण, कौमार सप्तमी, नन्दसप्तमी, निर्दोष सप्तमी, मुकुट सप्तमी, मोक्षसप्तमी, शीलसप्तमी, समकित चौबीसी, समवशरण, सर्वार्थसिद्धि, भाद्रवन-सिंह-निष्क्रीडित, सुखकारण, सुदर्शन, सौवीर भुक्ति। <br /> | ||
<strong>नोट–</strong>इनके अतिरिक्त और भी अनेकों व्रत-विधान प्रसिद्ध हैं तथा इनके भी अनेकों उत्तम-मध्यम आदि भेद हैं। उनका निर्देश–देखें [[ वह ]]वह नाम।] <br /> | <strong>नोट–</strong>इनके अतिरिक्त और भी अनेकों व्रत-विधान प्रसिद्ध हैं तथा इनके भी अनेकों उत्तम-मध्यम आदि भेद हैं। उनका निर्देश–देखें [[ वह ]]वह नाम।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/324 <span class="SanskritText">तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्च-पञ्च।3। व्रतशीलेषु पञ्च-पञ्च यथाक्रमम्।24। </span>= <span class="HindiText">उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ होती हैं।3। व्रतों और शीलों में पाँच-पाँच अतिचार हैं जो क्रम से इस प्रकार हैं।24। (विशेष देखो, उस-उस व्रत का नाम)। ( तत्त्वसार/4/62 )। </span><br /> | |||
तत्त्वसार/4/83 <span class="SanskritGatha">सम्यक्त्वव्रतशीलेषु तथा सल्लेखनाविधौ। अतीचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च-पञ्च यथाक्रमम्।83। </span>= <span class="HindiText">सम्यक्त्व व्रत शील तथा सल्लेखना की विधि में यथाक्रम पाँच-पाँच अतिचार कहते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> व्रत रक्षणार्थ कुछ भावनाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> व्रत रक्षणार्थ कुछ भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/9-12 <span class="SanskritText">हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्।9। दुःखमेव वा।10। मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु।11। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।12।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> हिंसादि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है।9। अथवा हिंसादि दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए।10। </li> | <li class="HindiText"> हिंसादि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है।9। अथवा हिंसादि दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए।10। </li> | ||
<li class="HindiText"> प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा वृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करनी चाहिए ।11। ( | <li class="HindiText"> प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा वृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करनी चाहिए ।11। ( ज्ञानार्णव/27/4 ); (सामायिक पाठ/अमितगति/1)। </li> | ||
<li class="HindiText"> संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।12।–(विशेष देखें [[ वैराग्य ]])। <br /> | <li class="HindiText"> संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।12।–(विशेष देखें [[ वैराग्य ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वसार/4/62 <span class="SanskritText"> भावनाः संप्रतीयन्ते मुनीनां भावितात्मनाम्।62।</span> = <span class="HindiText">ये पाँच-पाँच भावनाएँ मुनिजनों को होती हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> कथंचित् श्रावकों के लिए भी भाने का निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> कथंचित् श्रावकों के लिए भी भाने का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
लाटी संहिता/5/184-189 <span class="SanskritText"> सर्वसागारधर्मेषु देशशब्दोऽनुवर्तते। तेनानगारयोग्यायाः कर्त्तव्यास्ता अपि क्रियाः।184। यथा समितयः पञ्च सन्ति तिस्रश्च गुप्तयः। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्त्तव्या देशतोऽपि तैः।185।...न चाशङ्क्यमिमाः पञ्च भावना मुनिगोचराः। न पुनर्भावनीयास्ता देशतोव्रतधारिभिः।187। यतोऽत्र देशशब्दो हि सामान्यादनुवर्तते। ततोऽणुव्रतसंज्ञेषु व्रतत्वान्नाव्यापको भवेत्।188। अलं विकल्पसंकल्पैः कर्त्तव्या भावना इमाः। अहिंसाव्रतरक्षार्थं देशतोऽणुव्रतादिवत्।189।</span> =<span class="HindiText"> गृहस्थों के धर्म के साथ देश शब्द लगा हुआ है, इसलिए मुनियों के योग्य कर्त्तव्य भी एक देशरूप से उसे करने चाहिए।184। जैसे कि अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए श्रावक को भी साधु की भाँति समिति और गुप्ति का पालन करना चाहिए।185। यहाँ पर यह शंका करनी योग्य नहीं कि अहिंसाव्रत की ‘समिति, गुप्ति आदि रूप’ ये पाँच भावनाएँ तो मुनियों का कर्त्तव्य है, इसलिए देशव्रतियों को नहीं करनी चाहिए।187। क्योंकि यहाँ देश शब्द सामान्य रीति से चला आ रहा है जिससे कि यह व्रतों की भाँति समिति, गुप्ति आदि में भी एक देश रूप से व्यापकर रहता है।188। अधिक कहने से क्या, श्रावक को भी अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए ये भावनाएँ अणुव्रत की तरह ही अवश्य करनी योग्य हैं।189।–(और भी देखें [[ अगला शीर्षक ]])। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्रतों के अतिचार छोड़ने योग्य हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्रतों के अतिचार छोड़ने योग्य हैं</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/4/15 <span class="SanskritGatha">मुञ्चन् बन्धं बधच्छेदमतिभाराधिरोपणं। भुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत्।15।</span> =<span class="HindiText"> दुर्भाव से किये गये बध बन्धन आदि अहिंसा व्रत के पाँच अतिचारों को छोड़कर श्रावकों को उसकी पाँच भावनाओं रूप समिति गुप्ति आदि का भी पालन करना चाहिए। <br /> | |||
व्रत विधान संग्रह पृ.21 पर उद्धृत</span>-<span class="SanskritText">‘‘व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि। शस्यानि किं क्वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि । </span>= <span class="HindiText">जीव को व्रत पुण्य के कारण से होते हैं, इसलिए उन्हें अतिचार सहित नहीं पालना चाहिए, क्या लोक में कहीं मल लिप्त धान्य भी फल देते हैं। <br /> | व्रत विधान संग्रह पृ.21 पर उद्धृत</span>-<span class="SanskritText">‘‘व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि। शस्यानि किं क्वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि । </span>= <span class="HindiText">जीव को व्रत पुण्य के कारण से होते हैं, इसलिए उन्हें अतिचार सहित नहीं पालना चाहिए, क्या लोक में कहीं मल लिप्त धान्य भी फल देते हैं। <br /> | ||
देखें [[ व्रत#1.7 | व्रत - 1.7]], 8 (किसी प्रकार भी व्रत भंग करना योग्य नहीं। परिस्थिति वश भंग हो जाने अथवा दोष लग जाने पर तुरन्त प्रायश्चित्त लेकर उसकी स्थापना करनी चाहिए)। <br /> | देखें [[ व्रत#1.7 | व्रत - 1.7]], 8 (किसी प्रकार भी व्रत भंग करना योग्य नहीं। परिस्थिति वश भंग हो जाने अथवा दोष लग जाने पर तुरन्त प्रायश्चित्त लेकर उसकी स्थापना करनी चाहिए)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
चारित्तपाहुड़/ मू./24 <span class="PrakritGatha">थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्त थूले य। परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं।24। </span>= <span class="HindiText">स्थूल हिंसा, मृषा व अदत्तग्रहण का त्याग, पर-स्त्री तथा बहुत आरम्भ परिग्रह का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं।24। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/ 208 )। </span><br /> | |||
तत्त्वार्थसूत्र/7/2 <span class="SanskritText">देशसर्वतोऽणुमहती।2। </span>= <span class="HindiText">हिंसादिक से एक देश निवृत्त होना अणुव्रत और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है। </span><br /> | |||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/52, 72 <span class="SanskritGatha"> प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।52। पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचकायैः । कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतां।72।</span> = <span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील) और मूर्च्छा अर्थात् परिग्रह इन पाँच स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।52। हिंसादिक पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है।53। </span><br /> | |||
सागार धर्मामृत/4/5 <span class="SanskritGatha"> विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः। क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः।5। </span>= <span class="HindiText">स्थूल वध आदि पाँचों स्थूल पापों का मन, वचन, काय से तथा कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना अणुव्रत है। </span><br /> | |||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/720-721 <span class="SanskritGatha">तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात्। देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम्।720। सर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत्। नैतत्सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिङ्गमर्हताम्।721। </span>= <span class="HindiText">सागर व अनागार दोनों प्रकार के धर्मों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और सम्पूर्ण परिग्रह से एक देश विरक्त होना गृहस्थों का अणुव्रत कहा गया है।720। उन्हीं हिंसादिक पाँच पापों का सर्वदेश से त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिंग गृहस्थों के द्वारा नहीं पाला जा सकता।721। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> स्थूल व सूक्ष्म व्रत का तात्पर्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> स्थूल व सूक्ष्म व्रत का तात्पर्य</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/4/6 <span class="SanskritGatha">स्थूलहिंसाद्याश्रयत्वात्स्थूलानामपि दुर्दृशां। तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वाद्वधादि स्थूलमिष्यते।6। </span>= <span class="HindiText">हिंसा आदि के स्थूल आश्रयों के आधार पर होने वाले अथवा साधारण मिथ्यादृष्टि लोगों में प्रसिद्ध, अथवा स्थूलरूप से किये जाने वाले हिंसादि स्थूल कहलाते हैं। अर्थात् लोक प्रसिद्ध हिंसादि को स्थूल कहते हैं, उनका त्याग ही स्थूल व्रत है।–विशेष देखें [[ शीर्षक नं#6 | शीर्षक नं - 6]]। <br /> | |||
देखें [[ श्रावक#4.2 | श्रावक - 4.2 ]]मद्य मांस आदि त्याग रूप अष्ट मूल गुणों में व सप्त व्यसनों में ही पाक्षिक श्रावक के स्थूल अणुव्रत गर्भित हैं।] <br /> | देखें [[ श्रावक#4.2 | श्रावक - 4.2 ]]मद्य मांस आदि त्याग रूप अष्ट मूल गुणों में व सप्त व्यसनों में ही पाक्षिक श्रावक के स्थूल अणुव्रत गर्भित हैं।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> महाव्रत व अणुव्रतों के पाँच भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> महाव्रत व अणुव्रतों के पाँच भेद</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/2080/1799 <span class="PrakritText"> पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहिं। अपरिमिदिच्छादो वि य अणुव्वयाइं विरमणाइं। </span>= <span class="HindiText">प्राण वध, असत्य, चोरी, परस्त्री सेवन, परिग्रह में अमर्यादित इच्छा, इन पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।2080। </span><br /> | |||
चारित्तपाहुड़/ मू./30<span class="PrakritText"> हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य। तुरियं अबंभविरई पञ्चम संगम्मि विरई य।</span> =<span class="HindiText"> हिंसा से विरति सो अहिंसा और इसी प्रकार असत्य विरति, अदत्तविरति, अब्रह्मविरति और पाँचवीं परिग्रह विरति है।30। </span><br /> | |||
मू.आ./4 <span class="PrakritGatha">हिंसाविरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च। संगविमुत्ती य तहा महव्वया पञ्च पण्णत्ता।4। </span>=<span class="HindiText"> हिंसा का त्याग, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं।4। <br /> | मू.आ./4 <span class="PrakritGatha">हिंसाविरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च। संगविमुत्ती य तहा महव्वया पञ्च पण्णत्ता।4। </span>=<span class="HindiText"> हिंसा का त्याग, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं।4। <br /> | ||
देखें [[ शीर्षक नं#1 | शीर्षक नं - 1]]-अणुव्रत व महाव्रत दोनों ही हिंसादि पाँचों पापों के त्यागरूप से लक्षित हैं।] <br /> | देखें [[ शीर्षक नं#1 | शीर्षक नं - 1]]-अणुव्रत व महाव्रत दोनों ही हिंसादि पाँचों पापों के त्यागरूप से लक्षित हैं।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/1/343/11 <span class="SanskritText">ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम्। न; भावनास्वन्तर्भावात्। अहिंसाव्रतभावना हि वक्ष्यन्ते। तत्रालोकितपानभोजनभावनाः कायति।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न–</strong>रात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है, उसकी यहाँ परिगणना करनी थी? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि उसका भावनाओं में अन्तर्भाव हो जाता है। आगे अहिंसाव्रत की भावनाएँ कहेंगे। उनमें एक आलोकित पान-भोजन नाम की भावना है, उसमें उसका अन्तर्भाव होता है। ( राजवार्तिक/7/1/15/534/28 )। <br /> | |||
पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पाठ में प्रतिक्रमणभक्ति–</span><span class="PrakritText">‘आधावरे छट्ठे अणुव्वदे सवं भंते ! राईभोयणं पच्चक्खामि। </span>= <span class="HindiText">छठे अणुव्रत-रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। </span><br /> | पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पाठ में प्रतिक्रमणभक्ति–</span><span class="PrakritText">‘आधावरे छट्ठे अणुव्वदे सवं भंते ! राईभोयणं पच्चक्खामि। </span>= <span class="HindiText">छठे अणुव्रत-रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। </span><br /> | ||
चारित्रसार/13/3 <span class="SanskritText">पञ्चधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतं। </span>= <span class="HindiText">पाँच प्रकार का अणुव्रत है और ‘रात्रिभोजन त्याग’ यह छठा अणुव्रत है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.5" id="3.5"></a>अणुव्रती को स्थावर घात आदि की भी अनुमति नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.5" id="3.5"></a>अणुव्रती को स्थावर घात आदि की भी अनुमति नहीं है</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1, 1/ गा.55/105 <span class="SanskritGatha">संजदधम्मकहा वि य उवासमाणं सदारसंतोसो। तसवहविरईसिक्खा थावरघादो त्ति णाणुमदो।55।</span> = <span class="HindiText">संयतधर्म की जो कथा है उससे श्रावकों को (केवल) स्वदारसंतोष और त्रसवध विरति की शिक्षा दी गयी है। पर इससे उन्हें स्थावर घात की अनुमति नहीं दी गयी है। </span><br /> | |||
सागार धर्मामृत/4/11 <span class="SanskritGatha">यन्मुक्त्यङ्गमहिंसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः। एकाक्षवधमप्युज्झेद्यः स्यान्नावर्ज्यभोगकृत।11।</span> = <span class="HindiText">जो अहिंसा ही मोक्ष का साधन है उसका मुमुक्षु जनों को अवश्य सेवन करना चाहिए। भोगोपभोग में होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा को छोड़कर अर्थात् उससे बचे शेष एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> महाव्रत को महाव्रत व्यपदेश का कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> महाव्रत को महाव्रत व्यपदेश का कारण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/1184/1170 <span class="PrakritGatha"> साधेंति जं महत्थं आयरिइदा च जं महल्लेहिं। जं च महल्लाइं सयं हव्वदाइं हवे ताइं।1184। </span>=<span class="HindiText"> महान् मोक्षरूप अर्थ की सिद्धि करते हैं। महान् तीर्थंकरादि पुरुषों ने इनका पालन किया है, सब पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिए इनका नाम महाव्रत है।1184। (मू.आ./294); ( चारित्तपाहुड़/ मू./31)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.7" id="3.7"></a>अणुव्रत को अणुव्रत व्यपदेश का कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.7" id="3.7"></a>अणुव्रत को अणुव्रत व्यपदेश का कारण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/6 <span class="SanskritText">अणुशब्दोऽल्पवचनः। अणूनि व्रतान्यस्य अणुव्रतोऽगारीत्युच्यते। कथमस्य व्रतानामणुत्वम्। सर्वसावद्यनिवृत्त्यसंभवात्। कुतस्तर्ह्यसौ निवृत्तः। त्रसप्राणिव्यपरोपरोपणान्निवृत्तः अगारीत्याद्यमणुव्रतम्। स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम्। अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवशादवश्यं परित्यक्तमपि यददत्तं ततः प्रतिनिवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम्। उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनायाः सङ्गान्निवृत्तरतिर्गृहीति चतुर्थमणुव्रतम्। धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम्।</span> = <span class="HindiText">अणु शब्द अल्पवाची हैं । जिसके व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं, वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है। <strong>प्रश्न–</strong>अगारी के व्रत अल्प कैसे हैं? <strong>उत्तर–</strong>अगारी के पूरे हिंसादि दोषों का त्याग सम्भव नहीं है, इसलिए उसके व्रत अल्प हैं। <strong>प्रश्न–</strong>तो यह किसका त्यागी है? <strong>उत्तर–</strong>यह त्रसजीवों की हिंसा का त्यागी है, इसलिए इसके पहला अहिंसा अणुव्रत होता है । गृहस्थ स्नेह और मोहादि के वश से गृहविनाश और ग्रामविनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त है इसलिए उसे दूसरा सत्याणुव्रत होता है। श्रावक राजा के भय आदि के कारण दूसरे को पीड़ाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तु को लेने से उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग करने से रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नाम का चौथा अणुव्रत होता है तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवाँ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत होता है । ( राजवार्तिक/7/20/-/547/4 )। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> अणुव्रत में कथंचित् महाव्रतपना</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> अणुव्रत में कथंचित् महाव्रतपना</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> महाव्रत में कथंचित् देशव्रतपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> महाव्रत में कथंचित् देशव्रतपना</strong> </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/230/4 <span class="SanskritText">प्रसिद्धमहाव्रतानि कथमेकदेशरूपाणि, जातानि इति चेदुच्यते–जीवघातनिवृत्तौ सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति।तथैवासत्यवचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति। तथैव चादत्तादानपरिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्तीत्येकदेशप्रवृत्त्यपेक्षया देशव्रतानि तेषामेकदेशव्रतानां त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले त्यागः।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>प्रसिद्ध अहिंसादि महाव्रत एकदेशरूप कैसे हो गये? <strong>उत्तर–</strong>अहिंसा, सत्य और अचौर्य महाव्रतों में यद्यपि जीवघात की, असत्य बोलने की तथा अदत्त ग्रहण की निवृत्ति है, परन्तु जीवरक्षा की, सत्य बोलने और दत्तग्रहण की प्रवृत्ति है। इस एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा ये एक देशव्रत हैं। त्रिगुप्तिलक्षण निर्विकल्प समाधि काल में इन एक देशव्रतों का भी त्याग हो जाता है [अर्थात् उनका विकल्प नहीं रहता।–देखें [[ चारित्र#7.10 | चारित्र - 7.10]]) । ( परमात्मप्रकाश टीका/2/52/173/7 ); (देखें [[ संवर ]]/2/ 5)। <br /> | |||
देखें [[ धर्म#3.2 | धर्म - 3.2 ]][व्रत व अव्रत से अतीत तीसरी भूमिका ही यथार्थ व्रत है।] <br /> | देखें [[ धर्म#3.2 | धर्म - 3.2 ]][व्रत व अव्रत से अतीत तीसरी भूमिका ही यथार्थ व्रत है।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10"> अणु व महाव्रतों के फलों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10"> अणु व महाव्रतों के फलों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
चारित्रसार/5/6 <span class="SanskritText">सम्यग्दर्शनमणुव्रतयुक्तं स्वर्गाय महाव्रतयुक्तं मोक्षाय च।</span> = <span class="HindiText">अणुव्रत युक्त सम्यग्दर्शन स्वर्ग का और महाव्रत युक्त मोक्ष का कारण है। </span></li> | |||
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Revision as of 19:15, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
यावज्जीवन हिंसादि पापों की एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति को व्रत कहते हैं। वह दो प्रकार का है–श्रावकों के अणुव्रत या एकदेशव्रत तथा साधुओं के महाव्रत या सर्वदेशव्रत होते हैं। इन्हें भावनासहित निरतिचार पालने से साधक को साक्षात् या परम्परा मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः मोक्षमार्ग में इनका बहुत महत्त्व है।
- व्रत सामान्य निर्देश
- व्रत सामान्य का लक्षण।
- निश्चय से व्रत का लक्षण।
- व्यवहार निश्चय व्रतों में आस्रव संवरपना।–देखें संवर ।
- निश्चय व्यवहार व्रतों की मुख्यता गौणता।–देखें चारित्र - 4-7।
- व्रत निश्चय से एक है। व्यवहार से पाँच हैं ।–देखें छेदोपस्थापना ।
- व्रत सामान्य के भेद।
- गुण व शील व्रतों के भेद व लक्षण।–देखें वह वह नाम ।
- व्रतों में सम्यक्त्व का स्थान।
- निःशल्य व्रत ही यथार्थ है।–देखें व्रती ।
- संयम व व्रत में अन्तर।–देखें संयम - 2।
- व्रत के योग्य पात्र।–देखें अगला शीर्षक ।
- व्रत दान व ग्रहण विधि।
- व्रत ग्रहण में द्रव्य क्षेत्रादि का विचार।–देखें व्रत - 1.5., 8 तथा अपवाद/2।
- व्रत गुरु साक्षी में लिया जाता है।
- व्रतभंग का निषेध।
- कथंचित् व्रतभंग की आज्ञा–देखें धर्म - 6.4 व चारित्र/6/4।
- व्रतभंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण।
- अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतों के नाम-निर्देश।
- अक्षयनिधि आदि व्रतों के लक्षण।–देखें वह वह नाम ।
- व्रत धारण का कारण व प्रयोजन–देखें प्रव्रज्या - 1.7।
- व्रत सामान्य का लक्षण।
- व्रत की भावनाएँ व अतिचार
- प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार।
- भावनाओं का प्रयोजन व्रत की स्थिरता।–देखें व्रत - 2.1।
- पृथक्-पृथक् व्रतों के अतिचार।–देखें वह वह नाम ।
- व्रत रक्षर्थ कुछ भावनाएँ।
- ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं।
- कथंचित् श्रावकों को भी भाने का निर्देश।
- व्रतों के अतिचार छोड़ने योग्य हैं।
- प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार।
- महाव्रत व अणुव्रत निर्देश
- महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण।
- स्थूल व सूक्ष्मव्रत का तात्पर्य।
- महाव्रत व अणुव्रतों के पाँच भेद।
- रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है।
- श्रावक व साधु के योग्य व्रत।–देखें वह वह नाम ।
- स्त्री के महाव्रत कहना उपचार है।–देखें वेद - 7.5।
- मिथ्यादृष्टि को व्रत कहना उपचार है।–देखें चारित्र - 6.8।
- अणुव्रती को स्थावरघात आदि की आज्ञा नहीं।
- महाव्रत को महाव्रत व्यपदेश का कारण।
- अणुव्रत को अणुव्रत व्यपदेश का कारण।
- अणुव्रत में कथंचित् महाव्रतपना।
- अणुव्रत को महाव्रत नहीं कह सकते।–देखें सामायिक - 3।
- महाव्रत में कथंचित् एकदेश व्रतपना।
- अणुव्रत और महाव्रत के फलों में अन्तर।
- महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण।
- व्रत सामान्य निर्देश
- व्रत सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/1 हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।1। = हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से (यावज्जीवन देखें भगवती आराधना विजयोदया टीका तथा द्रव्यसंग्रह टीका ) निवृत्त होना व्रत है।1। ( धवला 8/3, 41/82/5 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1185/1171/ 16 ); (भा.आ./वि./421/614/19, 20); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/1 )।
सर्वार्थसिद्धि/7/1/342/6 व्रतमभिसंधिकृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा। = प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है। यथा ‘यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है’ इस प्रकार नियम करना व्रत है। ( राजवार्तिक/7/1/3 /531/15 ); ( चारित्रसार/8/3 )।
परमात्मप्रकाश टीका/2/52/173/5 व्रतं कोऽर्थः। सर्वनिवृत्तिपरिणामः। = सर्व निवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं।
सागार धर्मामृत/2/80 संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः। निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि।80। = किन्हीं पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभकर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मों में उसी प्रकार संकल्पर्पूवक प्रवृत्ति करना व्रत है।
- निश्चय से व्रत का लक्षण
द्रव्यसंग्रह टीका/35/100/13 निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्व-भावनोत्पन्नसुखसुधास्वादबलेन समस्त-शुभाशुभरागादि-विकल्पनिवृत्तिर्व्रतम्। = निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ व अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है।
परमात्मप्रकाश/2/67/189/2 स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिर्वर्तनं इति निश्चयव्रतं। = शील अर्थात् अपने आत्मा से अपने आत्मा में प्रवृत्ति करना, ऐसा निश्चय व्रत।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लो.सर्वतः सिद्धमेवैतद्व्रतं बाह्यं दयाङ्गिषु। व्रतमन्तः कषायाणां त्यागः सैषात्मनि कृपा।753। अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः। अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल।755। ततः शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयादृते। चारित्रापरनामैतद्व्रतं निश्चयतः परम्।758। =- प्राणियों पर दया करना बहिरंग व्रत है, यह बात सब प्रकार सिद्ध है। कषायों का त्याग करना रूप स्वदया अन्तरंग व्रत है।753।
- राग आदि का नाम ही हिंसा अधर्म और अव्रत है, तथा निश्चय से उसके त्याग का ही नाम अहिंसा व्रत और धर्म है।755। (और भी देखें अहिंसा - 2.1)।
- इसलिए जो मोहनीय कर्म के उदय के अभाव में शुद्धोपयोग होता है, यही निश्चयनय से, चारित्र है दूसरा नाम जिसका ऐसा उत्कृष्ट व्रत है।758।
- व्रत सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/7/2 देशसर्वतोऽणुमहती।2। = देशत्यागरूप अणुव्रत और सर्वत्यागरूप महाव्रत ऐसे दो प्रकार व्रत हैं। ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार /50 )।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/51 गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षाव्रतात्मकं चरणं। पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातं।51। = गृहस्थों का चारित्र पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षव्रत, इस प्रकार 12 भेदरूप कहा गया है। ( चारित्रसार/13/7 ); (पं.विं./6/24; 7/5); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/207 ); ( सागार धर्मामृत/2/16 )।
- व्रतों में सम्यक्त्व का स्थान
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/277/16 पर उद्धृत-पञ्चवदाणि जदीणं अणुव्वदाइं च देसविरदाणं। ण हु सम्मत्तेण विणा तौ सम्मत्तं पढमदाए। = मुनियों के अहिंसादि पञ्च महाव्रत और श्रावकों के पाँच अणुव्रत, ये सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होते हैं, इसलिए प्रथमतः आचार्यों ने सम्यक्त्व का वर्णन किया है।
चारित्रसार/5/6 एवं विधाष्टाङ्गविशिष्टं सम्यक्त्वं तद्विकलयोरणुव्रतमहाव्रतयोर्नामापि न स्यात्। = इस प्रकार आठ अंगों से पूर्ण सम्यग्दर्शन होता है। यदि सम्यग्दर्शन न हो तो अणुव्रत तथा महाव्रतों का नाम तक नहीं होता है।
अमितगति श्रावकाचार/2/27 दवीयः कुरुते स्थानं मिथ्यादृष्टिरभीप्सितम्। अन्यत्र गमकारीव घोरैर्युक्तो व्रतैरपि।27। = घोर व्रतों से सहित भी मिथ्यादृष्टि वांछित स्थान को, मार्ग से उलटा चलने वाले की भाँति, अति दूर करता है।
देखें धर्म - 2.6 (सम्यक्त्व रहित व्रतादि अकिंचित्कर हैं, बाल व्रत हैं)।
देखें चारित्र - 6.8. (मिथ्यादृष्टि के व्रतों को महाव्रत कहना उपचार है)।
देखें अगला शीर्षक (पहिले तत्त्वज्ञानी होता है, पीछे व्रत ग्रहण करता है)।
- व्रतदान व ग्रहण विधि
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/614/11 ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठः स्थितिकल्पः। अचेलतायां स्थितः उद्देशिकरजपिण्डपरिहरणोद्यतः गुरुभक्तिकृतविनीतो व्रतारोपणार्हो भवति।...इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः श्रावकश्राविकावर्गाय व्रतं प्रयच्छेत् स्वयं स्थितः सूरिः स्ववामदेशे स्थिताय विरताय व्रतानि दद्यात्।....ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतं। = जिसको जीवों का स्वरूप मालूम हुआ है ऐसे मुनि को नियम से व्रत देना यह व्रतारोपण नाम का छठा स्थिति कल्प है। जिसने पूर्ण निग्रन्थ अवस्था धारण की है, उद्देशिकाहार और राजपिंड का त्याग किया है, जो गुरु भक्त और विनयी है, वह व्रतारोपण के लिए योग्य है। (यहाँ इसी अर्थ की द्योतक एक गाथा उद्धृत की है) व्रत देने का क्रम इस प्रकार है–जब गुरु बैठते हैं और आर्यिकाएँ सम्मुख होकर बैठती हैं, ऐसे समय में श्रावक और श्राविकाओं को व्रत दिये जाते हैं। व्रत ग्रहण करने वाला मुनि भी गुरु के बायीं तरफ बैठता है। तब गुरु उसको व्रत देते हैं। व्रतों का स्वरूप जानकर तथा श्रद्धा करके पापों से विरक्त होना व्रत है। [इसलिए गुरु उसे पहले व्रतों का उपदेश देते हैं–(देखें इसी मूल टीका का अगला भाग )। व्रत दान सम्बन्धी कृतिकर्म के लिए–देखें कृतिकर्म ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/351/17 व 352/7 जैन धर्मविषैं तौ यहू उपदेश है, पहलैं तौ तत्त्वज्ञानी होय, पीछे जाका त्याग करै, ताका दोष पहिचानै। त्याग किएं गुण होय, ताकौं जानैं। बहुरि अपने परिणामनि को ठीक करै। वर्तमान परिणामनि हीकै भरोसै प्रतिज्ञा न करि बैठैं। आगामी निर्वान होता जानैं तौ प्रतिज्ञा करै। बहुरि शरीर की शक्ति वा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिक का विचार करै। ऐसे विचारि पीछैं प्रतिज्ञा करनी, सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञातैं निरादरपना न होय, परिणाम चढ़ते रहैं। ऐसी जैनधर्म की आम्नाय है।....सम्यग्दृष्टि प्रतिज्ञा करै है, सो तत्त्वज्ञानादि पूर्वक ही करै है।
- व्रत गुरु साक्षी में लिया जाता है
देखें व्रत - 1.5 (गुरु और आर्यिकाओं आदि के सम्मुख, गुरु की बायीं ओर बैठकर श्रावक व श्राविकाएँ व्रत लेते हैं)।
देखें व्रत - 1.7 (गुरु साक्षी में लिया गया व्रत भंग करना योग्य नहीं)।
देखें संस्कार - 2 (व्रतारोपण क्रिया गुरु की साक्षी में होती है)।
- व्रत भंग का निषेध
भगवती आराधना/1633/1480 अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स। पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं।1633। = पञ्चपरमेष्ठी, देवता और सर्व संघ की साक्षी में कृत आहार के प्रत्याख्यान का त्याग करने से अच्छा तो मर जाना है।1633। ( अमितगति श्रावकाचार/12/44 )।
सागार धर्मामृत/7/52 प्राणान्तेऽपि न भङ्क्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं। प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे भवे।52। = प्राणान्त होने की सम्भावना होने पर भी गुरु साक्षी में लिये गये व्रत को भंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणों के नाश से तो तत्क्षण ही दुःख होता है, पर व्रत भंग से भव-भव में दुःख होता है।
देखें दिग्व्रत - 3 (मरण हो तो हो, पर व्रत भंग नहीं किया जाता)।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/ पृष्ठ/पंक्ति-प्रतिज्ञा भंग करने का महा पाप है। इसतैं तौ प्रतिज्ञा न लैंनी ही भली है। (351/14)।....मरण पर्यन्त कष्ट होय तौ होहु, परन्तु प्रतिज्ञा न छोड़नी। (352/5)।
- व्रत भंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण
सागार धर्मामृत/2/79 समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः। छिन्नं दर्पात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा।79। = द्रव्य क्षेत्रादि को देखकर व्रत लेना चाहिए, प्रयत्नपूर्वक उसे पालना चाहिए। फिर भी किसी मद के आवेश से या प्रमाद से व्रत छिन्न हो जाये तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर उसे पुनः धारण करना चाहिए।
- अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतों के नाम निर्देश
हरिवंशपुराण/34/ श्लो. नं.-सर्वतोभद्र (52), वसन्तभद्र (56), महासर्वतोभद्र (57), त्रिलोकसार (59), वज्रमध्य (62), मृदङ्गमध्य (64), मुरजमध्य (66), एकावली (67), द्विकावली (68), मुक्तावली (69), रत्नावली (71), रत्नमुक्तावली (72), कनकावली (74) ; द्वितीय रत्नावली (76), सिंहनिष्क्रीडित (78-80), नन्दीश्वरव्रत (84), मेरुपंक्तिव्रत (86), शातकुम्भव्रत (87), चान्द्रायण व्रत (90), सप्तसप्तमतपोव्रत (91), अष्ट अष्टम व नवनवम आदि व्रत (92), आचाम्ल वर्द्धमान व्रत (95), श्रुतव्रत (97), दर्शनशुद्धि व्रत (98), तपः शुद्धि व्रत (99), चारित्र शुद्धि व्रत (100), एक कल्याण व्रत (110), पंच कल्याण व्रत (111), शील कल्याण व्रत (112), भावना विधि व्रत (112), पंचविंशति कल्याण भावना विधि व्रत (114), दुःखहरण विधि व्रत (118), कर्मक्षय विधि व्रत (121), जिनेन्द्रगुण संपत्ति विधि व्रत (122), दिव्य लक्षण पंक्ति विधि व्रत (123), धर्मचक्र विधि व्रत, परस्पर कल्याणविधि व्रत (124)। ( चारित्रसार/151/1 पर उपर्युक्त में से केवल 10 व्रतों का निर्देश है।
वसुनन्दी श्रावकाचार/ श्लोक नं.–पञ्चमी व्रत (355), रोहिणीव्रत (363), अश्विनी व्रत (366), सौख्य सम्पत्ति व्रत (368), नन्दीश्वर पंक्ति व्रत (373), विमान पंक्ति व्रत (376)।
व्रत विधान संग्रह–[उपर्युक्त सर्व के अतिरिक्त निम्न व्रतों का अधिक उल्लेख मिलता है।]–अक्षयनिधि, अनस्तमी, अष्टमी, गन्ध-अष्टमी, निःशल्य अष्टमी, मनचिन्ती अष्टमी, अष्टाह्निका, आचारवर्धन, एसोनव, एसोदश, कंजिक, कर्मचूर, कर्मनिर्जरा, श्रुतकल्याणक, क्षमावणी, ज्ञानपच्चीसी, चतुर्दशी, अनन्त चतुर्दशी, कली चतुर्दशी, चौंतीस अतिशय, तीन चौबीसी, आदिनाथ जयन्ती, आदिनाथ निर्वाण जयन्ती, आदिनाथ शासन जयन्ती, वीर जयन्ती, वीर शासन जयन्ती, जिन पूजा पुरन्धर, जिन मुखावलोकन, जिनरात्रि, ज्येष्ठ, णमोकार पैंतीसी, तपो विधि, तपो शुद्धि, त्रिलोक, तीज, रोट तीज, तीर्थंकर व्रत, तेला व्रत त्रिगुणसार, त्रेपन क्रिया, दश मिनियानी, दशलक्षण, अक्षयफलदशमी, उडंड दशमी, चमक दशमी, छहार दशमी, झावदशमी, तमोर दशमी, पान दशमी, फल दशमी, फूल दशमी, बारा दशमी, भण्डार दशमी, सुगन्ध दशमी, सौभाग्य दशमी, दीपमालिका, द्वादशीव्रत, कांजी बारस, श्रावण दशमी, धनकलश, नवविधि, नक्षत्रमाला, नवकार व्रत, पञ्चपोरिया, आकाश पञ्चमी, ऋषि पञ्चमी, कृष्ण पञ्चमी, कोकिल पञ्चमी, गारुड पञ्चमी, निर्जर पञ्चमी, श्रुत पञ्चमी, श्वेत पञ्चमी, लक्षण पंक्ति, परमेष्ठीगुण व्रत, पल्लव विधान, पुष्पांजली, बारह तप, बारह बिजोरा, बेला, तीर्थंकर बेला, शिवकुमार बेला, षष्ठम बेला, भावना व्रत, पञ्च-विंशति-भावना, भावना पच्चीसी, मुरजमध्य, मुष्टि-विधान, मेघमाला, मौन व्रत, रक्षा बन्धन, रत्नत्रय, रविवार, दुग्धरसी, नित्यरसी, षट्रसी, रुक्मणी, रुद्रवसंत, लब्धिविधान, वसन्तभद्र, शीलव्रत, श्रुतज्ञानव्रत, पञ्च-श्रुतज्ञान, श्रुतस्कन्ध षष्ठीव्रत, चन्दन षष्ठी, षोडशकारण, संकट हरण, कौमार सप्तमी, नन्दसप्तमी, निर्दोष सप्तमी, मुकुट सप्तमी, मोक्षसप्तमी, शीलसप्तमी, समकित चौबीसी, समवशरण, सर्वार्थसिद्धि, भाद्रवन-सिंह-निष्क्रीडित, सुखकारण, सुदर्शन, सौवीर भुक्ति।
नोट–इनके अतिरिक्त और भी अनेकों व्रत-विधान प्रसिद्ध हैं तथा इनके भी अनेकों उत्तम-मध्यम आदि भेद हैं। उनका निर्देश–देखें वह वह नाम।]
- व्रत सामान्य का लक्षण
- व्रत की भावनाएँ व अतिचार
- प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/324 तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्च-पञ्च।3। व्रतशीलेषु पञ्च-पञ्च यथाक्रमम्।24। = उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ होती हैं।3। व्रतों और शीलों में पाँच-पाँच अतिचार हैं जो क्रम से इस प्रकार हैं।24। (विशेष देखो, उस-उस व्रत का नाम)। ( तत्त्वसार/4/62 )।
तत्त्वसार/4/83 सम्यक्त्वव्रतशीलेषु तथा सल्लेखनाविधौ। अतीचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च-पञ्च यथाक्रमम्।83। = सम्यक्त्व व्रत शील तथा सल्लेखना की विधि में यथाक्रम पाँच-पाँच अतिचार कहते हैं।
- व्रत रक्षणार्थ कुछ भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र/7/9-12 हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्।9। दुःखमेव वा।10। मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु।11। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।12। =- हिंसादि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है।9। अथवा हिंसादि दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए।10।
- प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा वृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करनी चाहिए ।11। ( ज्ञानार्णव/27/4 ); (सामायिक पाठ/अमितगति/1)।
- संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।12।–(विशेष देखें वैराग्य )।
- ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं
तत्त्वसार/4/62 भावनाः संप्रतीयन्ते मुनीनां भावितात्मनाम्।62। = ये पाँच-पाँच भावनाएँ मुनिजनों को होती हैं।
- कथंचित् श्रावकों के लिए भी भाने का निर्देश
लाटी संहिता/5/184-189 सर्वसागारधर्मेषु देशशब्दोऽनुवर्तते। तेनानगारयोग्यायाः कर्त्तव्यास्ता अपि क्रियाः।184। यथा समितयः पञ्च सन्ति तिस्रश्च गुप्तयः। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्त्तव्या देशतोऽपि तैः।185।...न चाशङ्क्यमिमाः पञ्च भावना मुनिगोचराः। न पुनर्भावनीयास्ता देशतोव्रतधारिभिः।187। यतोऽत्र देशशब्दो हि सामान्यादनुवर्तते। ततोऽणुव्रतसंज्ञेषु व्रतत्वान्नाव्यापको भवेत्।188। अलं विकल्पसंकल्पैः कर्त्तव्या भावना इमाः। अहिंसाव्रतरक्षार्थं देशतोऽणुव्रतादिवत्।189। = गृहस्थों के धर्म के साथ देश शब्द लगा हुआ है, इसलिए मुनियों के योग्य कर्त्तव्य भी एक देशरूप से उसे करने चाहिए।184। जैसे कि अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए श्रावक को भी साधु की भाँति समिति और गुप्ति का पालन करना चाहिए।185। यहाँ पर यह शंका करनी योग्य नहीं कि अहिंसाव्रत की ‘समिति, गुप्ति आदि रूप’ ये पाँच भावनाएँ तो मुनियों का कर्त्तव्य है, इसलिए देशव्रतियों को नहीं करनी चाहिए।187। क्योंकि यहाँ देश शब्द सामान्य रीति से चला आ रहा है जिससे कि यह व्रतों की भाँति समिति, गुप्ति आदि में भी एक देश रूप से व्यापकर रहता है।188। अधिक कहने से क्या, श्रावक को भी अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए ये भावनाएँ अणुव्रत की तरह ही अवश्य करनी योग्य हैं।189।–(और भी देखें अगला शीर्षक )।
- व्रतों के अतिचार छोड़ने योग्य हैं
सागार धर्मामृत/4/15 मुञ्चन् बन्धं बधच्छेदमतिभाराधिरोपणं। भुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत्।15। = दुर्भाव से किये गये बध बन्धन आदि अहिंसा व्रत के पाँच अतिचारों को छोड़कर श्रावकों को उसकी पाँच भावनाओं रूप समिति गुप्ति आदि का भी पालन करना चाहिए।
व्रत विधान संग्रह पृ.21 पर उद्धृत-‘‘व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि। शस्यानि किं क्वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि । = जीव को व्रत पुण्य के कारण से होते हैं, इसलिए उन्हें अतिचार सहित नहीं पालना चाहिए, क्या लोक में कहीं मल लिप्त धान्य भी फल देते हैं।
देखें व्रत - 1.7, 8 (किसी प्रकार भी व्रत भंग करना योग्य नहीं। परिस्थिति वश भंग हो जाने अथवा दोष लग जाने पर तुरन्त प्रायश्चित्त लेकर उसकी स्थापना करनी चाहिए)।
- प्रत्येक व्रत में पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार
- महाव्रत व अणुव्रत निर्देश
- महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण
चारित्तपाहुड़/ मू./24 थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्त थूले य। परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं।24। = स्थूल हिंसा, मृषा व अदत्तग्रहण का त्याग, पर-स्त्री तथा बहुत आरम्भ परिग्रह का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं।24। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/ 208 )।
तत्त्वार्थसूत्र/7/2 देशसर्वतोऽणुमहती।2। = हिंसादिक से एक देश निवृत्त होना अणुव्रत और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/52, 72 प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।52। पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचकायैः । कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतां।72। = हिंसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील) और मूर्च्छा अर्थात् परिग्रह इन पाँच स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।52। हिंसादिक पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है।53।
सागार धर्मामृत/4/5 विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः। क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः।5। = स्थूल वध आदि पाँचों स्थूल पापों का मन, वचन, काय से तथा कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना अणुव्रत है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/720-721 तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात्। देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम्।720। सर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत्। नैतत्सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिङ्गमर्हताम्।721। = सागर व अनागार दोनों प्रकार के धर्मों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और सम्पूर्ण परिग्रह से एक देश विरक्त होना गृहस्थों का अणुव्रत कहा गया है।720। उन्हीं हिंसादिक पाँच पापों का सर्वदेश से त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिंग गृहस्थों के द्वारा नहीं पाला जा सकता।721।
- स्थूल व सूक्ष्म व्रत का तात्पर्य
सागार धर्मामृत/4/6 स्थूलहिंसाद्याश्रयत्वात्स्थूलानामपि दुर्दृशां। तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वाद्वधादि स्थूलमिष्यते।6। = हिंसा आदि के स्थूल आश्रयों के आधार पर होने वाले अथवा साधारण मिथ्यादृष्टि लोगों में प्रसिद्ध, अथवा स्थूलरूप से किये जाने वाले हिंसादि स्थूल कहलाते हैं। अर्थात् लोक प्रसिद्ध हिंसादि को स्थूल कहते हैं, उनका त्याग ही स्थूल व्रत है।–विशेष देखें शीर्षक नं - 6।
देखें श्रावक - 4.2 मद्य मांस आदि त्याग रूप अष्ट मूल गुणों में व सप्त व्यसनों में ही पाक्षिक श्रावक के स्थूल अणुव्रत गर्भित हैं।]
- महाव्रत व अणुव्रतों के पाँच भेद
भगवती आराधना/2080/1799 पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहिं। अपरिमिदिच्छादो वि य अणुव्वयाइं विरमणाइं। = प्राण वध, असत्य, चोरी, परस्त्री सेवन, परिग्रह में अमर्यादित इच्छा, इन पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।2080।
चारित्तपाहुड़/ मू./30 हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य। तुरियं अबंभविरई पञ्चम संगम्मि विरई य। = हिंसा से विरति सो अहिंसा और इसी प्रकार असत्य विरति, अदत्तविरति, अब्रह्मविरति और पाँचवीं परिग्रह विरति है।30।
मू.आ./4 हिंसाविरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च। संगविमुत्ती य तहा महव्वया पञ्च पण्णत्ता।4। = हिंसा का त्याग, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं।4।
देखें शीर्षक नं - 1-अणुव्रत व महाव्रत दोनों ही हिंसादि पाँचों पापों के त्यागरूप से लक्षित हैं।]
- रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है
सर्वार्थसिद्धि/7/1/343/11 ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम्। न; भावनास्वन्तर्भावात्। अहिंसाव्रतभावना हि वक्ष्यन्ते। तत्रालोकितपानभोजनभावनाः कायति। = प्रश्न–रात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है, उसकी यहाँ परिगणना करनी थी? उत्तर–नहीं, क्योंकि उसका भावनाओं में अन्तर्भाव हो जाता है। आगे अहिंसाव्रत की भावनाएँ कहेंगे। उनमें एक आलोकित पान-भोजन नाम की भावना है, उसमें उसका अन्तर्भाव होता है। ( राजवार्तिक/7/1/15/534/28 )।
पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पाठ में प्रतिक्रमणभक्ति–‘आधावरे छट्ठे अणुव्वदे सवं भंते ! राईभोयणं पच्चक्खामि। = छठे अणुव्रत-रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ।
चारित्रसार/13/3 पञ्चधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतं। = पाँच प्रकार का अणुव्रत है और ‘रात्रिभोजन त्याग’ यह छठा अणुव्रत है।
- <a name="3.5" id="3.5"></a>अणुव्रती को स्थावर घात आदि की भी अनुमति नहीं है
कषायपाहुड़/1/1, 1/ गा.55/105 संजदधम्मकहा वि य उवासमाणं सदारसंतोसो। तसवहविरईसिक्खा थावरघादो त्ति णाणुमदो।55। = संयतधर्म की जो कथा है उससे श्रावकों को (केवल) स्वदारसंतोष और त्रसवध विरति की शिक्षा दी गयी है। पर इससे उन्हें स्थावर घात की अनुमति नहीं दी गयी है।
सागार धर्मामृत/4/11 यन्मुक्त्यङ्गमहिंसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः। एकाक्षवधमप्युज्झेद्यः स्यान्नावर्ज्यभोगकृत।11। = जो अहिंसा ही मोक्ष का साधन है उसका मुमुक्षु जनों को अवश्य सेवन करना चाहिए। भोगोपभोग में होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा को छोड़कर अर्थात् उससे बचे शेष एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए।
- महाव्रत को महाव्रत व्यपदेश का कारण
भगवती आराधना/1184/1170 साधेंति जं महत्थं आयरिइदा च जं महल्लेहिं। जं च महल्लाइं सयं हव्वदाइं हवे ताइं।1184। = महान् मोक्षरूप अर्थ की सिद्धि करते हैं। महान् तीर्थंकरादि पुरुषों ने इनका पालन किया है, सब पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिए इनका नाम महाव्रत है।1184। (मू.आ./294); ( चारित्तपाहुड़/ मू./31)।
- <a name="3.7" id="3.7"></a>अणुव्रत को अणुव्रत व्यपदेश का कारण
सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/6 अणुशब्दोऽल्पवचनः। अणूनि व्रतान्यस्य अणुव्रतोऽगारीत्युच्यते। कथमस्य व्रतानामणुत्वम्। सर्वसावद्यनिवृत्त्यसंभवात्। कुतस्तर्ह्यसौ निवृत्तः। त्रसप्राणिव्यपरोपरोपणान्निवृत्तः अगारीत्याद्यमणुव्रतम्। स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम्। अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवशादवश्यं परित्यक्तमपि यददत्तं ततः प्रतिनिवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम्। उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनायाः सङ्गान्निवृत्तरतिर्गृहीति चतुर्थमणुव्रतम्। धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम्। = अणु शब्द अल्पवाची हैं । जिसके व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं, वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है। प्रश्न–अगारी के व्रत अल्प कैसे हैं? उत्तर–अगारी के पूरे हिंसादि दोषों का त्याग सम्भव नहीं है, इसलिए उसके व्रत अल्प हैं। प्रश्न–तो यह किसका त्यागी है? उत्तर–यह त्रसजीवों की हिंसा का त्यागी है, इसलिए इसके पहला अहिंसा अणुव्रत होता है । गृहस्थ स्नेह और मोहादि के वश से गृहविनाश और ग्रामविनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त है इसलिए उसे दूसरा सत्याणुव्रत होता है। श्रावक राजा के भय आदि के कारण दूसरे को पीड़ाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तु को लेने से उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग करने से रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नाम का चौथा अणुव्रत होता है तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवाँ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत होता है । ( राजवार्तिक/7/20/-/547/4 )।
- अणुव्रत में कथंचित् महाव्रतपना
देखें दिग्व्रत , देशव्रत–[की हुई मर्यादा से बाहर पूर्ण त्याग होने से श्रावक के अणुव्रत भी महाव्रतपने को प्राप्त होते हैं।]
देखें सामायिक - 3 [सामायिक काल में श्रावक साधु तुल्य है।]
- महाव्रत में कथंचित् देशव्रतपना
द्रव्यसंग्रह टीका/57/230/4 प्रसिद्धमहाव्रतानि कथमेकदेशरूपाणि, जातानि इति चेदुच्यते–जीवघातनिवृत्तौ सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति।तथैवासत्यवचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति। तथैव चादत्तादानपरिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्तीत्येकदेशप्रवृत्त्यपेक्षया देशव्रतानि तेषामेकदेशव्रतानां त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले त्यागः। = प्रश्न–प्रसिद्ध अहिंसादि महाव्रत एकदेशरूप कैसे हो गये? उत्तर–अहिंसा, सत्य और अचौर्य महाव्रतों में यद्यपि जीवघात की, असत्य बोलने की तथा अदत्त ग्रहण की निवृत्ति है, परन्तु जीवरक्षा की, सत्य बोलने और दत्तग्रहण की प्रवृत्ति है। इस एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा ये एक देशव्रत हैं। त्रिगुप्तिलक्षण निर्विकल्प समाधि काल में इन एक देशव्रतों का भी त्याग हो जाता है [अर्थात् उनका विकल्प नहीं रहता।–देखें चारित्र - 7.10) । ( परमात्मप्रकाश टीका/2/52/173/7 ); (देखें संवर /2/ 5)।
देखें धर्म - 3.2 [व्रत व अव्रत से अतीत तीसरी भूमिका ही यथार्थ व्रत है।]
- अणु व महाव्रतों के फलों में अन्तर
चारित्रसार/5/6 सम्यग्दर्शनमणुव्रतयुक्तं स्वर्गाय महाव्रतयुक्तं मोक्षाय च। = अणुव्रत युक्त सम्यग्दर्शन स्वर्ग का और महाव्रत युक्त मोक्ष का कारण है।
- महाव्रत व अणुव्रत के लक्षण
पुराणकोष से
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह इन पाँचों पापी से विरति । इसके दो भेद हैं― अणुव्रत और महाव्रत । इनमें उक्त पाँचों पापों से एक देश विरत होना अणुव्रत और सर्वदेश विरत होना महाव्रत है । प्रत्येक वन की पाँच-पाँच भावनाएँ होती है । इनमें सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, देखकर भोजन करना, ईर्या और आदाननिक्षेपण समिति ये पाँच अहिंसाव्रत की भावनाएं है । क्रोध लाभ, भय और हास्य का त्याग करना तथा प्रशस्तवचन बोलना सत्यव्रत की पाँच भावनाएं हैं । शून्य और विमोचित मकानों में रहना, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं । स्त्रीरागकथाश्रवण, स्त्रियों के अंगावयवों का दर्शन, शारीरिक प्रसाधन, गरिष्ठ-रस और पूर्व रति-स्मरण इनका त्याग ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की और पंच इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष का त्याग करना ये पांच अपरिग्रह की भावनाएँ हैं । पंचाणुव्रत, तीन गुणवत् और चार शिक्षाव्रतों को मिलाकर व्रत बारह प्रकार के होते हैं । ये स्वर्ग और मुक्ति-दायक होते हैं । महापुराण 10.162 39.3 ,76. 363-370, 378-380, पद्मपुराण 11.38, हरिवंशपुराण 34. 52-149 ,58. 116-122