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इस शब्दका साधारण अर्थ यद्यपि वस्तुओंका संस्थान होता है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रकरणमें इसका अर्थ चेतन प्रकाशमें प्रतिभासित होनेवाले पदार्थोंकी विशेष आकृतिमें लिया गया है और अध्यात्म प्रकरणमें देशकालवच्छिन्न सभी पदार्थ साकार कहे जाते हैं। | इस शब्दका साधारण अर्थ यद्यपि वस्तुओंका संस्थान होता है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रकरणमें इसका अर्थ चेतन प्रकाशमें प्रतिभासित होनेवाले पदार्थोंकी विशेष आकृतिमें लिया गया है और अध्यात्म प्रकरणमें देशकालवच्छिन्न सभी पदार्थ साकार कहे जाते हैं।<br> | ||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> भेद व लक्षण </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आकारका लक्षण - (ज्ञानज्ञेय विकल्प व भेद) </LI> </OL> | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/१२/१/५३/६ आकारो विकल्पः। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/१२/१/५३/६ आकारो विकल्पः। <br> | ||
= आकारः अर्थात विकल्प (ज्ञानमें भेद रूप प्रतिभास)। | <p class="HindiSentence">= आकारः अर्थात विकल्प (ज्ञानमें भेद रूप प्रतिभास)।</p> | ||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०१/३३१/१ पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो। | [[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०१/३३१/१ पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो।<br> | ||
= प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते है। अर्थात् प्रमाणमें (या ज्ञानमें) अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रभिभासमान होता है उसे आकार कहते हैं। | <p class="HindiSentence">= प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते है। अर्थात् प्रमाणमें (या ज्ञानमें) अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रभिभासमान होता है उसे आकार कहते हैं।</p> | ||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/३ आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगीयरमुवणीयं। | [[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/३ आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगीयरमुवणीयं।<br> | ||
= सकल पदार्थोंके समुदायसे अगल होकर बुद्धिके विषय भावको प्राप्त हुआ कर्मकारण आकार कहलाता है। | <p class="HindiSentence">= सकल पदार्थोंके समुदायसे अगल होकर बुद्धिके विषय भावको प्राप्त हुआ कर्मकारण आकार कहलाता है।</p> | ||
([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/७) | ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/७)<br> | ||
[[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०२ भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यवस्था... ।।१०२।। | [[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०२ भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यवस्था... ।।१०२।।<br> | ||
= घट पट आदिकी व्यवस्था लिए हुए किसी वस्तुके भेद ग्रहण करनेको आकार कहते हैं। | <p class="HindiSentence">= घट पट आदिकी व्यवस्था लिए हुए किसी वस्तुके भेद ग्रहण करनेको आकार कहते हैं।</p> | ||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४३/१८६/६ आकारं विकल्पं;...केन रूपेण। शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं, दीर्घोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि। | [[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४३/१८६/६ आकारं विकल्पं;...केन रूपेण। शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं, दीर्घोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि।<br> | ||
= विकल्प को आकार कहते हैं। वह भी किस रूपसे? `यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छोटा है, वह घट है, यह पट है' इत्यादि। - | <p class="HindiSentence">= विकल्प को आकार कहते हैं। वह भी किस रूपसे? `यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छोटा है, वह घट है, यह पट है' इत्यादि। - <b>देखे </b>[[आकार]] २/१,२,३ </p> | ||
(ज्ञेयरूपेण ग्राह्य)। | (ज्ञेयरूपेण ग्राह्य)।<br> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> उपयोगके साकार अनाकार दो भेद </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या २/९ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।।९।। | [[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या २/९ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।।९।।<br> | ||
= वह उपयोक क्रमसे दो प्रकार, आठ प्रकार व चार प्रकार है। | <p class="HindiSentence">= वह उपयोक क्रमसे दो प्रकार, आठ प्रकार व चार प्रकार है।</p> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/७ स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो, दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद...दर्शनोपयोगश्चतुर्भेदः। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/७ स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो, दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद...दर्शनोपयोगश्चतुर्भेदः।<br> | ||
= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है। | <p class="HindiSentence">= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है।</p> | ||
([[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या .१०), ([[पंचास्तिकाय]] / / मूल या टीका गाथा संख्या ४०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ११९); ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/४६); ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४)। | ([[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या .१०), ([[पंचास्तिकाय]] / / मूल या टीका गाथा संख्या ४०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ११९); ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/४६); ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४)।<br> | ||
पं.स./प्रा.१/१७८..। उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणागारो। | पं.स./प्रा.१/१७८..। उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणागारो।<br> | ||
= उपयोग दो प्रकारका है-साकार और अनाकार। | <p class="HindiSentence">= उपयोग दो प्रकारका है-साकार और अनाकार।</p> | ||
([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१०), ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१२३.३०), ([[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/४२०/१), ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/४), ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६७२), ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या १/३३२)। | ([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१०), ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१२३.३०), ([[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/४२०/१), ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/४), ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६७२), ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या १/३३२)।<br> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> साकोरोपयोगका लक्षण </LI> </OL> | |||
[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७९ मइसुओहिमणेहि य जं सयविसयं विसेसविण्णाणं। अंतोमुहुत्तकालो उवओगो सो हु सागारो ।।१७९।। | [[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७९ मइसुओहिमणेहि य जं सयविसयं विसेसविण्णाणं। अंतोमुहुत्तकालो उवओगो सो हु सागारो ।।१७९।।<br> | ||
= मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने-अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते हैं। यह अन्तर्मूहूर्तकाल तक होता है ।।१७९।। | <p class="HindiSentence">= मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने-अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते हैं। यह अन्तर्मूहूर्तकाल तक होता है ।।१७९।।</p> | ||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/४ तेण आयारेण सह वट्टम णं सायारं। | [[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/४ तेण आयारेण सह वट्टम णं सायारं।<br> | ||
= उस आकारके साथ जो पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है। | <p class="HindiSentence">= उस आकारके साथ जो पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है।</p> | ||
(घ.१३/५,५,१९/२०७/७) | (घ.१३/५,५,१९/२०७/७)<br> | ||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> अनाकार उपयोगका लक्षण </LI> </OL> | |||
[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१८० इन्द्रियमणोहिणा वा अत्थे अविसेसिऊण जं गहण। अंतोमुहुत्तकालो अवओगो सो अणागारो ।।१८०।। | [[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१८० इन्द्रियमणोहिणा वा अत्थे अविसेसिऊण जं गहण। अंतोमुहुत्तकालो अवओगो सो अणागारो ।।१८०।।<br> | ||
= इन्द्रिय, मन और अवधिके द्वारा पदार्थोंकी विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते हैं। यह भी अन्तर्मूहूर्त काल तक होता है ।।१८०।। | <p class="HindiSentence">= इन्द्रिय, मन और अवधिके द्वारा पदार्थोंकी विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते हैं। यह भी अन्तर्मूहूर्त काल तक होता है ।।१८०।।</p> | ||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/४ तव्विवरीयं अणायारं। | [[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/४ तव्विवरीयं अणायारं।<br> | ||
= उस साकारसे विपरीत अनाकार है। अर्थात् जो आकारके साथ नहीं वर्तता वह अनाकार है। | <p class="HindiSentence">= उस साकारसे विपरीत अनाकार है। अर्थात् जो आकारके साथ नहीं वर्तता वह अनाकार है।</p> | ||
([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६)। | ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६)।<br> | ||
[[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९४ यत्सामान्यमनाकारं साकारं तद्विशेषभाक्। | [[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९४ यत्सामान्यमनाकारं साकारं तद्विशेषभाक्।<br> | ||
= जो सामान्य धर्मसे युक्त होता है वह अनाकार है और जो विशेष धर्मसे युक्त होता है वह साकार है। | <p class="HindiSentence">= जो सामान्य धर्मसे युक्त होता है वह अनाकार है और जो विशेष धर्मसे युक्त होता है वह साकार है।</p> | ||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> ज्ञान साकारोपयोगी है </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१० साकारं ज्ञानम्। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१० साकारं ज्ञानम्।<br> | ||
= ज्ञान साकार है। | <p class="HindiSentence">= ज्ञान साकार है।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१३२/३१), ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,२९/२०७/५), ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/२०१) | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१३२/३१), ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,२९/२०७/५), ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/२०१)<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५३/१० जानानीति ज्ञानं साकारोपयोगः। | [[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५३/१० जानानीति ज्ञानं साकारोपयोगः।<br> | ||
= जो जानता है उसको ज्ञान कहते हैं, अर्थात् साकारोपयोगको ज्ञान कहते हैं। | <p class="HindiSentence">= जो जानता है उसको ज्ञान कहते हैं, अर्थात् साकारोपयोगको ज्ञान कहते हैं।</p> | ||
[[समयसार]] / [[ समयसार आत्मख्याति | आत्मख्याति]] परिशिष्ट /शक्ति नं.४ साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः। | [[समयसार]] / [[ समयसार आत्मख्याति | आत्मख्याति]] परिशिष्ट /शक्ति नं.४ साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः।<br> | ||
= साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्तिः। | <p class="HindiSentence">= साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्तिः।</p> | ||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> दर्शन अनाकारोपयोगी है </LI> </OL> | |||
[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदिभण्णदे समए ।।१३८।। | [[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदिभण्णदे समए ।।१३८।।<br> | ||
= सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके आकार विशेषको ग्रणह न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहा गया है। | <p class="HindiSentence">= सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके आकार विशेषको ग्रणह न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहा गया है।</p> | ||
([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४३) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ४८२/८८८) ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या १/२४९) ([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,४/९३/१४९) | ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४३) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ४८२/८८८) ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या १/२४९) ([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,४/९३/१४९)<br> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१० अनाकारं दर्शनमति। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/९/१६३/१० अनाकारं दर्शनमति।<br> | ||
= अनाकार दर्शनोपयोग है। | <p class="HindiSentence">= अनाकार दर्शनोपयोग है।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१२३/३१); ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६) ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०१) | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/९/१/१२३/३१); ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६) ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०१)<br> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> शंका समाधान </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> ज्ञानको साकार कहनेका कारण </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/११ कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः। साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः ।।११।। | [[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/११ कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः। साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः ।।११।।<br> | ||
= ज्ञानपदार्थोंको विशेष करके जानता है, इसलिए उसे साकार कहते हैं। यथार्थरूपसे ज्ञानका स्वरूप जाननेवालोंने ऐसा कहा है। | <p class="HindiSentence">= ज्ञानपदार्थोंको विशेष करके जानता है, इसलिए उसे साकार कहते हैं। यथार्थरूपसे ज्ञानका स्वरूप जाननेवालोंने ऐसा कहा है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> दर्शनको निराकार कहनेका कारण </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/१२ यद्विशेषमकृत्वैव गृह्णीते वस्तुमात्रकम्। निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ।।१२।। | [[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/१२ यद्विशेषमकृत्वैव गृह्णीते वस्तुमात्रकम्। निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ।।१२।।<br> | ||
= पदार्थोंकी विशेषता न समझकर जो केवल सामान्यका अथवा सत्ता-स्वभावका ग्रहण करता है, उसे दर्शन कहते हैं उसे निराकार कहनेका भी यही प्रयोजन है कि वह ज्ञेय वस्तुओंको आकृति विशेषको ग्रहण नहीं कर पाता। | <p class="HindiSentence">= पदार्थोंकी विशेषता न समझकर जो केवल सामान्यका अथवा सत्ता-स्वभावका ग्रहण करता है, उसे दर्शन कहते हैं उसे निराकार कहनेका भी यही प्रयोजन है कि वह ज्ञेय वस्तुओंको आकृति विशेषको ग्रहण नहीं कर पाता।</p> | ||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ४८२/८८८/१२ भावानां सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थानां आकारं-भेदग्रहणं अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं-स्वरूपमात्रावभासनं तत् दर्शनमिति परमागमे भण्यते। | [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ४८२/८८८/१२ भावानां सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थानां आकारं-भेदग्रहणं अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं-स्वरूपमात्रावभासनं तत् दर्शनमिति परमागमे भण्यते।<br> | ||
= भाव जे सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ तिनिका आकार कहिये भेदग्रहण ताहि न करकै जो सत्तामात्र स्वरूपका प्रतिभासना सोई दर्शन परमागम विषै कहा है। | <p class="HindiSentence">= भाव जे सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ तिनिका आकार कहिये भेदग्रहण ताहि न करकै जो सत्तामात्र स्वरूपका प्रतिभासना सोई दर्शन परमागम विषै कहा है।</p> | ||
[[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९२-३९५ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता। शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ।।३९२।। ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः। सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः ।।३९५।। | [[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९२-३९५ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता। शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ।।३९२।। ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः। सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः ।।३९५।।<br> | ||
= जो आकार न हो सो अनाकार है, इसलिए वास्तवमें ज्ञानके बिना शेष अनन्तों गुणोंमें निर्विकल्पता होती है। अतः ज्ञानने बिना शेष सब गुणोंका लक्षण अनाकार होता है ।।३९२।। ज्ञानके बिना शेष सब गुण केवल सत् रूप लक्षणसे ही लक्षित होते हैं इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षओंसे वास्तवमें वे अनाकाररूप ही होते हैं ।।३९५।। | <p class="HindiSentence">= जो आकार न हो सो अनाकार है, इसलिए वास्तवमें ज्ञानके बिना शेष अनन्तों गुणोंमें निर्विकल्पता होती है। अतः ज्ञानने बिना शेष सब गुणोंका लक्षण अनाकार होता है ।।३९२।। ज्ञानके बिना शेष सब गुण केवल सत् रूप लक्षणसे ही लक्षित होते हैं इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षओंसे वास्तवमें वे अनाकाररूप ही होते हैं ।।३९५।।</p> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> निराकार उपयोग क्या वस्तु है </LI> </OL> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/८ विसयाभावादो अणागारुवजोगो णत्थि त्ति सणिच्छयं णाणं सायारो, अणिच्छयमणागारो त्ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, संसय-विवज्जय-अणज्झवसायणमणायारत्तप्पसंगादो। एदं पि णत्थि, केवलिहि दंसणाभावप्पसंगादो। ण एस दोतो अंतरंगविस यस्स उवजोगस्स आणायारत्तब्भुगमादो। ण अंतरंग उवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दव्वादो पुह कम्माणुवलंभादो। ण च दोण्णं पि उवजोगाणमेयत्त, बहिरंगतरंगत्थविसयाणमेयत्तविरोहादो। ण च एदम्हि अत्थे अवलं बिज्जमाणे सायार अणायार उवजोगाणमसमाणत्तं, अणणोणभेदेहिं पुहाणमसमाणत्तविरोहादो। | [[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/८ विसयाभावादो अणागारुवजोगो णत्थि त्ति सणिच्छयं णाणं सायारो, अणिच्छयमणागारो त्ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, संसय-विवज्जय-अणज्झवसायणमणायारत्तप्पसंगादो। एदं पि णत्थि, केवलिहि दंसणाभावप्पसंगादो। ण एस दोतो अंतरंगविस यस्स उवजोगस्स आणायारत्तब्भुगमादो। ण अंतरंग उवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दव्वादो पुह कम्माणुवलंभादो। ण च दोण्णं पि उवजोगाणमेयत्त, बहिरंगतरंगत्थविसयाणमेयत्तविरोहादो। ण च एदम्हि अत्थे अवलं बिज्जमाणे सायार अणायार उवजोगाणमसमाणत्तं, अणणोणभेदेहिं पुहाणमसमाणत्तविरोहादो।<br> | ||
= प्रश्न - साकार उपयोगके द्वारा सब पदार्थ विषय कर लिये जाते हैं, (दर्शनोपयोगके लिए कोई विषय शेष नहीं रह जाता) अतः विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता; इसलिए निश्चय सहित ज्ञानका नाम साकार और निश्चियरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है। यदि ऐसा कोई कहे तो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर संशय विपर्यय और अनवध्यवसायकी अनाकारता प्राप्त होती है। यदि कोई कहे कि ऐसा हो ही जाओ, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दर्शनका अभाव प्राप्त होता है। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - साकार उपयोगके द्वारा सब पदार्थ विषय कर लिये जाते हैं, (दर्शनोपयोगके लिए कोई विषय शेष नहीं रह जाता) अतः विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता; इसलिए निश्चय सहित ज्ञानका नाम साकार और निश्चियरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है। यदि ऐसा कोई कहे तो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर संशय विपर्यय और अनवध्यवसायकी अनाकारता प्राप्त होती है। यदि कोई कहे कि ऐसा हो ही जाओ, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दर्शनका अभाव प्राप्त होता है।</p> | ||
([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०६/३३७/४); ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१-२२/$३२७/३५८/३) | ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०६/३३७/४); ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१-२२/$३२७/३५८/३)<br> | ||
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तरङ्गको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोगरूपसे स्वीकार किया है। अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक हैं; सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक (ज्ञान) बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा (दर्शन) अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए, इन दोनोंको एक माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस अर्थके स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उपयोगमें समानता न रहेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्परके भेदसे ये अलग हैं इसलिए इनमें असमानता माननेमें विरोध आता है। | <br> <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तरङ्गको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोगरूपसे स्वीकार किया है। अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक हैं; सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक (ज्ञान) बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा (दर्शन) अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए, इन दोनोंको एक माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस अर्थके स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उपयोगमें समानता न रहेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्परके भेदसे ये अलग हैं इसलिए इनमें असमानता माननेमें विरोध आता है।<br> | ||
([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१-२०/$३२७/३५८/७) | ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१-२०/$३२७/३५८/७)<br> | ||
<UL start=0 class="BulletedList"> <LI> देशकालावच्छिन्न सभी पदार्थ या भाव साकार है - <b>देखे </b>[[मूर्तीक <]] /LI> </UL> | |||
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Revision as of 01:56, 9 May 2009
इस शब्दका साधारण अर्थ यद्यपि वस्तुओंका संस्थान होता है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रकरणमें इसका अर्थ चेतन प्रकाशमें प्रतिभासित होनेवाले पदार्थोंकी विशेष आकृतिमें लिया गया है और अध्यात्म प्रकरणमें देशकालवच्छिन्न सभी पदार्थ साकार कहे जाते हैं।
- भेद व लक्षण
- आकारका लक्षण - (ज्ञानज्ञेय विकल्प व भेद)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१२/१/५३/६ आकारो विकल्पः।
= आकारः अर्थात विकल्प (ज्ञानमें भेद रूप प्रतिभास)।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०१/३३१/१ पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो।
= प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते है। अर्थात् प्रमाणमें (या ज्ञानमें) अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रभिभासमान होता है उसे आकार कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/३ आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगीयरमुवणीयं।
= सकल पदार्थोंके समुदायसे अगल होकर बुद्धिके विषय भावको प्राप्त हुआ कर्मकारण आकार कहलाता है।
(धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/७)
महापुराण सर्ग संख्या २४/१०२ भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यवस्था... ।।१०२।।
= घट पट आदिकी व्यवस्था लिए हुए किसी वस्तुके भेद ग्रहण करनेको आकार कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४३/१८६/६ आकारं विकल्पं;...केन रूपेण। शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं, दीर्घोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि।
= विकल्प को आकार कहते हैं। वह भी किस रूपसे? `यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छोटा है, वह घट है, यह पट है' इत्यादि। - देखे आकार २/१,२,३
(ज्ञेयरूपेण ग्राह्य)।
- उपयोगके साकार अनाकार दो भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या २/९ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।।९।।
= वह उपयोक क्रमसे दो प्रकार, आठ प्रकार व चार प्रकार है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/९/१६३/७ स उपयोगो द्विविधः-ज्ञानोपयोगो, दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद...दर्शनोपयोगश्चतुर्भेदः।
= वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है।
(नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या .१०), (पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा संख्या ४०), (नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ११९); (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/४६); (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४)।
पं.स./प्रा.१/१७८..। उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणागारो।
= उपयोग दो प्रकारका है-साकार और अनाकार।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/९/१६३/१०), ( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/९/१/१२३.३०), (धवला पुस्तक संख्या २/१,१/४२०/१), (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/४), (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ६७२), ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/३३२)।
- साकोरोपयोगका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७९ मइसुओहिमणेहि य जं सयविसयं विसेसविण्णाणं। अंतोमुहुत्तकालो उवओगो सो हु सागारो ।।१७९।।
= मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने-अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते हैं। यह अन्तर्मूहूर्तकाल तक होता है ।।१७९।।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/३३८/४ तेण आयारेण सह वट्टम णं सायारं।
= उस आकारके साथ जो पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है।
(घ.१३/५,५,१९/२०७/७)
- अनाकार उपयोगका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१८० इन्द्रियमणोहिणा वा अत्थे अविसेसिऊण जं गहण। अंतोमुहुत्तकालो अवओगो सो अणागारो ।।१८०।।
= इन्द्रिय, मन और अवधिके द्वारा पदार्थोंकी विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते हैं। यह भी अन्तर्मूहूर्त काल तक होता है ।।१८०।।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०७/४ तव्विवरीयं अणायारं।
= उस साकारसे विपरीत अनाकार है। अर्थात् जो आकारके साथ नहीं वर्तता वह अनाकार है।
(धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९४ यत्सामान्यमनाकारं साकारं तद्विशेषभाक्।
= जो सामान्य धर्मसे युक्त होता है वह अनाकार है और जो विशेष धर्मसे युक्त होता है वह साकार है।
- ज्ञान साकारोपयोगी है
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/९/१६३/१० साकारं ज्ञानम्।
= ज्ञान साकार है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/९/१/१३२/३१), (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२९/२०७/५), (महापुराण सर्ग संख्या २४/२०१)
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५३/१० जानानीति ज्ञानं साकारोपयोगः।
= जो जानता है उसको ज्ञान कहते हैं, अर्थात् साकारोपयोगको ज्ञान कहते हैं।
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट /शक्ति नं.४ साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः।
= साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्तिः।
- दर्शन अनाकारोपयोगी है
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदिभण्णदे समए ।।१३८।।
= सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके आकार विशेषको ग्रणह न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहा गया है।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४३) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४८२/८८८) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/२४९) (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,४/९३/१४९)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/९/१६३/१० अनाकारं दर्शनमति।
= अनाकार दर्शनोपयोग है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/९/१/१२३/३१); (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/६) (महापुराण सर्ग संख्या २४/१०१)
- शंका समाधान
- ज्ञानको साकार कहनेका कारण
तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/११ कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः। साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः ।।११।।
= ज्ञानपदार्थोंको विशेष करके जानता है, इसलिए उसे साकार कहते हैं। यथार्थरूपसे ज्ञानका स्वरूप जाननेवालोंने ऐसा कहा है।
- दर्शनको निराकार कहनेका कारण
तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/१२ यद्विशेषमकृत्वैव गृह्णीते वस्तुमात्रकम्। निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ।।१२।।
= पदार्थोंकी विशेषता न समझकर जो केवल सामान्यका अथवा सत्ता-स्वभावका ग्रहण करता है, उसे दर्शन कहते हैं उसे निराकार कहनेका भी यही प्रयोजन है कि वह ज्ञेय वस्तुओंको आकृति विशेषको ग्रहण नहीं कर पाता।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ४८२/८८८/१२ भावानां सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थानां आकारं-भेदग्रहणं अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं-स्वरूपमात्रावभासनं तत् दर्शनमिति परमागमे भण्यते।
= भाव जे सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ तिनिका आकार कहिये भेदग्रहण ताहि न करकै जो सत्तामात्र स्वरूपका प्रतिभासना सोई दर्शन परमागम विषै कहा है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३९२-३९५ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता। शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ।।३९२।। ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः। सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः ।।३९५।।
= जो आकार न हो सो अनाकार है, इसलिए वास्तवमें ज्ञानके बिना शेष अनन्तों गुणोंमें निर्विकल्पता होती है। अतः ज्ञानने बिना शेष सब गुणोंका लक्षण अनाकार होता है ।।३९२।। ज्ञानके बिना शेष सब गुण केवल सत् रूप लक्षणसे ही लक्षित होते हैं इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षओंसे वास्तवमें वे अनाकाररूप ही होते हैं ।।३९५।।
- निराकार उपयोग क्या वस्तु है
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१९/२०७/८ विसयाभावादो अणागारुवजोगो णत्थि त्ति सणिच्छयं णाणं सायारो, अणिच्छयमणागारो त्ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, संसय-विवज्जय-अणज्झवसायणमणायारत्तप्पसंगादो। एदं पि णत्थि, केवलिहि दंसणाभावप्पसंगादो। ण एस दोतो अंतरंगविस यस्स उवजोगस्स आणायारत्तब्भुगमादो। ण अंतरंग उवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दव्वादो पुह कम्माणुवलंभादो। ण च दोण्णं पि उवजोगाणमेयत्त, बहिरंगतरंगत्थविसयाणमेयत्तविरोहादो। ण च एदम्हि अत्थे अवलं बिज्जमाणे सायार अणायार उवजोगाणमसमाणत्तं, अणणोणभेदेहिं पुहाणमसमाणत्तविरोहादो।
=
प्रश्न - साकार उपयोगके द्वारा सब पदार्थ विषय कर लिये जाते हैं, (दर्शनोपयोगके लिए कोई विषय शेष नहीं रह जाता) अतः विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता; इसलिए निश्चय सहित ज्ञानका नाम साकार और निश्चियरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है। यदि ऐसा कोई कहे तो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर संशय विपर्यय और अनवध्यवसायकी अनाकारता प्राप्त होती है। यदि कोई कहे कि ऐसा हो ही जाओ, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दर्शनका अभाव प्राप्त होता है।
(कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१५/$३०६/३३७/४); (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१-२२/$३२७/३५८/३)
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तरङ्गको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोगरूपसे स्वीकार किया है। अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक हैं; सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक (ज्ञान) बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा (दर्शन) अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए, इन दोनोंको एक माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस अर्थके स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उपयोगमें समानता न रहेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्परके भेदसे ये अलग हैं इसलिए इनमें असमानता माननेमें विरोध आता है।
(कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१-२०/$३२७/३५८/७)
- देशकालावच्छिन्न सभी पदार्थ या भाव साकार है - देखे [[मूर्तीक <]] /LI>