योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 106: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- कर्मणा सह जीवस्य अनादौ सम्बन्धे अपि न जीव: कर्मत्वं याति न वा कर्म जीवत्वं (याति एतत्) स्फुट् (अस्ति) । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- कर्मणा सह जीवस्य अनादौ सम्बन्धे अपि न जीव: कर्मत्वं याति न वा कर्म जीवत्वं (याति एतत्) स्फुट् (अस्ति) । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- कर्म के साथ जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध होनेपर भी न तो कभी जीव कर्मपने को प्राप्त होता है न कर्म भी कभी जीवपने को प्राप्त होता है अर्थात् जीव कभी कर्मरूप परिणमित नहीं होता और कर्म भी कभी जीवरूप परिणमित नहीं होता है; यह स्पष्ट ही है । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- कर्म के साथ जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध होनेपर भी न तो कभी जीव कर्मपने को प्राप्त होता है न कर्म भी कभी जीवपने को प्राप्त होता है अर्थात् जीव कभी कर्मरूप परिणमित नहीं होता और कर्म भी कभी जीवरूप परिणमित नहीं होता है; यह स्पष्ट ही है । </p> | ||
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Latest revision as of 10:25, 15 May 2009
जीव, जीवरूप ही रहता है -
अनादावपि सम्बन्धे जीवस्य सह कर्मणा ।
न जीवो याति कर्मत्वं जीवत्वं कर्म वा स्फुट् ।।१०६।।
अन्वय :- कर्मणा सह जीवस्य अनादौ सम्बन्धे अपि न जीव: कर्मत्वं याति न वा कर्म जीवत्वं (याति एतत्) स्फुट् (अस्ति) ।
सरलार्थ :- कर्म के साथ जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध होनेपर भी न तो कभी जीव कर्मपने को प्राप्त होता है न कर्म भी कभी जीवपने को प्राप्त होता है अर्थात् जीव कभी कर्मरूप परिणमित नहीं होता और कर्म भी कभी जीवरूप परिणमित नहीं होता है; यह स्पष्ट ही है ।