उत्कर्षण: Difference between revisions
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[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५२/४ कम्मप्सदेसट्ठिदिवट्ठावणमुक्कड्डणा।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५२/४ कम्मप्सदेसट्ठिदिवट्ठावणमुक्कड्डणा।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= कर्मप्रदेशोंकी स्थिति (व अनुभाग) को बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है।</p> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ४३८/५९१/१४ स्थित्यनुभागयोर्वृद्धि उत्कर्षणं।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= स्थित और अनुभागकी वृद्धिको उत्कर्षण कहते हैं।</p> | |||
गो.जी./भाषा २५८/५६६/१७ नोचले निषेकनिका परमाणू ऊपरिके निषेकनिविषै मिलावना सो उत्कर्षण है।<br> | |||
([[लब्धिसार]] / भाषा ५५/८७/४)<br> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> उत्कर्षण योग्य प्रकृतियाँ </LI> </OL> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ४४४/५९५ बंधुक्कट्टकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= बन्धकरण और उत्कर्षकरणमें दोनों, जिस-जिस प्रकृतिकी जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई, तिस-तिस प्रकृतिका (बन्ध व उत्कर्षण भी) तहाँ ही पर्यंत नियमकरि जानने।</p> | |||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> उत्कर्षण सम्बन्धी कुछ नियम </LI> </OL> | |||
[[क्षपणासार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४०२ संकामेदुक्कट्टदि जे अंसेते अवट्टिदा होंति। आवलियं से काले तेण परं होंति भजियव्वं ।४०२। नियम नं.-१ संक्रमणविषै जे प्रकृतिके परमाणू उत्कर्षणरूप करिए है, ते अपने कालविषै आवलिकाल पर्यंत तौ अवस्थित ही रहैं। तातै परै भजनीय हो है, अवस्थित भी रहें और स्थिति आदिकी वृद्धि हानि आदि रूप भी होंइ।<br> | |||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ५/४-२२/$५७२, ३३६/३३९ उक्कडिदे अणुभागट्ठाणाविभागपडिच्छेदाणं बुड्ढीए अभावादो.....बंधेण विणा तदुक्कड्डणाणुवत्तीदो।३३६-१। परमाणूणं बहुत्तमप्पत्तं वा अणुभागवड्ढिहाणीणं ण कारणमिदि बहुसो परूविदत्तादी ।३३९-१२। नियम नं. २-उत्कर्षणके होनेपर अनुभागस्थानके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि बन्धके बिना उसका उत्कर्षण नहीं बन सकता। नियम नं. ३-परमाणुओंका बहुतपना या अल्पना, अनुभागकी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है, अर्थात् यदि परमाणु बहुत हों तो अनुभाग भी बहुत हो और यदि परमाणु कम हों तो अनुभाग भी कम हो, ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है।<br> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,११/४३/५ बंधाणुसारिणीए उक्कड्डणाएयुधपदेसविण्णासाणुववत्तीदो।<br> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,१४/४९/६ जस्स समयपबद्धस्स सत्तिट्ठिदी वट्टमाणबंधट्ठिदिसमाणा सो समयपबद्धो वट्टमाणबंधचरियट्ठिदि त्ति उक्कड्डिज्जदि।<br> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५२/५ उदयावलियट्ठिदिपदेसा ण उक्कड्डिज्जंति।......उदयावलियबाहिरट्ठिदीओ सव्वाओ [ण] उक्कड्डिज्जंति। किंतु चरिमट्ठिदी आवलियाए असंखेज्जदिभागमइच्छिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे उक्कड्डिज्जदि, उवरि ट्ठिदिबंधाभावादो। अइच्छा वणाणिक्खेवाभावा णत्थि उक्कड्डणा हेट्ठा।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= नियम नं. ४-उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करने वाला होता है, इसलिए उसमें दूसरे प्रकारसे प्रदेशोंकी रचना नहीं बन सकती। नियम नं.५-जिस समयप्रबद्ध की शक्तिस्थिति वर्तमानमें बाँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थितिके समान है उस समयप्रबद्धका वर्तमानमें बँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थिति तक उत्कर्षण किया जाता है। नियम नं. ६-उदयावलीकी स्थितिके प्रदेशोंका उत्कर्षण नहीं किया जाता है। नियम नं.७-उदयावलीके बाहरकी सभी स्थितियोंका (भी) उत्कर्षण (नहीं) किया जाता है। किन्तु चरम स्थितिके आवलीके असंख्यातवें भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलिके असंख्यात बहुभागका उत्कर्षण होता है। क्योंकि इससे ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है। अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे उत्कर्षण नहीं होता है।</p> | |||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४३१/२४४ विशेषार्थ "यह पहले बतला आये हैं कि उत्कर्षण सब कर्मपरमाणुओंका न होकर कुछका होता है और कुछका नहीं। जिनका नहीं होता उनका संक्षेपसे व्योरा इस प्रकार है - १. उदयावलीके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं होता। २. उदयावलीके बाहर भी सत्तामें स्थित जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति (स्थिति) उत्कर्षणके समय बँधनेवाले कर्मोंकी आबाधाके बराबर या उससे कम शेष रही है, उनका भी उत्कर्षण नहीं होता। ३. निर्व्याघात दशामें उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंकी अतिस्थापना कमसे कम एक आवली प्रमाण बतलायी है, इसलिए अतिस्थापनारूप द्रव्यमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता। ४. व्याघात दशामें कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अतिस्थापना और इतना ही निक्षेप प्राप्त होनेपर उत्कर्षण होता है। अन्यथा नहीं होता।<br> | |||
नोट-इस विषयका विस्तार - दे.<br> | |||
([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ६/२२/सूत्र ४-४७/पृ. २१४-२१९); ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४२६-४७४/पृ. २४२-२७३)<br> | |||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> व्याघात व अव्य घात उत्कर्षण निर्देश </LI> </OL> | |||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४३१/२४५/५ विशेषार्थ - "जहाँ अति स्थापना एक आवली और निक्षेप आवलीका - असंख्यातवाँ भाग आदि बन जाता है वहाँ निर्व्याघात् दशा होती है। और जहाँ अतिस्थापनाके एक आवली प्रमाण होनेमें बाधा आती है वहाँ व्याघात दशा होती है। जब प्राचीन सत्तामें स्थित कर्म परमाणुओंकी स्थितिसे नूतनबन्ध अधिक हो, पर इस अधिकका प्रमाण एक आवली और एक आवलिके असंख्यातवें भागके भीतर ही प्राप्त हो, तब यह व्याघात दशा होती है। इसके सिवा उत्कर्षणमें सर्वत्र निर्व्याघात दशा ही जानना।"<br> | |||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> स्थिति बन्धोत्सरण निर्देश </LI> </OL> | |||
[[लब्धिसार]] / भाषा ३१४/३९९/३ जैसे स्थिति बन्धापसरणकरि (<b>देखे </b>[[अपकर्षण]] /३) चढ़तै स्थितिबन्ध घटाइ एक-एक अन्तर्मुहूर्तविषै समान बन्ध करै था, तैसे इहाँ स्थितिबन्धोत्सरणकार स्थिति बन्ध बधाइ एक एक अन्तर्मुहूर्तविषै समान बन्ध करै है।<br> | |||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> उत्कर्षण विधान तथा जघन्य उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेप </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> दृष्टि नं. १ </LI> </OL> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[लब्धिसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ६१-६४ सत्तग्गाट्ठिदिबंधो अदिठिदुक्कट्टणे जहण्णेण। आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ।६१। तत्तोदित्थावणगं वड्ढदि जावावली तदुक्कस्सं। उवरीदो णिक्खेओ वरं तु बंधिय ठिदि जेट्ठं ।६२। बोलिय बंधावलियं उक्कट्ठिय उदयदो दु णिक्खिविय। उवरिमसमये विदियावलिपढमुक्कट्टणे जादो ।६३। तक्कालवज्जमाणे वारट्ठिदीए अदित्थियावाहं। समयजुदावलीयाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ।६४।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= मूल भाषाकार कृत विस्तार-अव्याघात विषै स्थितिका उत्कर्षण होतै विधान कहिए है। पूर्वै जे सत्ता रूप निषेक थे तिनिविषै जो अन्तका निषेक था ताका द्रव्यको उत्कर्षण करनेका समय विषै बन्ध्या जो समयप्रबद्ध, तीहिं विषै जो पूर्व सत्ताका अन्तनिषेक जिस समय उदय आवने योग्य है तिसविषै उदय आवनेयोग्य बन्ध्या समयप्रबद्धका निषेक, तिस निषेकके उपरिवर्ती आवलीका असंख्यात भागमात्र निषेकको अतिस्थापना रूप राखि तिनिके उपरिवर्ती जे तितने ही आवलीके असंख्यातभागमात्र निषेक तिनि विषै तिस सत्ताका अन्त निषेकका द्रव्यको निक्षेपण करिए है। यहु उत्कर्षण विषै जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप जानना। संदृष्टि-कल्पना करो कि पूर्व सत्ताका अन्तिम निषेक जिस समय उदय होगा उस समयमें वर्तमान समयप्रबद्धका ५० वाँ निषेक उदय होना है तहाँ तिस ५० वें से ऊपर ५१ आदि आ. ५०/असंनिषेक अर्थात् १६/४ = ४ निषेक अर्थात् ५१-५४ निषेकोंको अतिस्थापना रूप रखकर तिनके ऊपरवाले आवलीके असंख्यातभागमात्र (५४-५८) निषेकोंमें निक्षेपण करता है। तहाँ ५१-५४ तो आ./असं. मात्र निषेक अतिस्थापना रूप है और (५४-५८) आ./असं मात्र निषेक ही निक्षेप रूप हैं। यह जघन्य अतिस्थापना व जघन्य निक्षेप है। - <b>देखे </b>[[आगे यंत्र]] । तिस पूर्व सत्त्वके अन्त निषेकते लगाय ते नीचेके (सत्ताके उपात्तादि) निषेक तिनिका (पूर्वोक्त ही विधानके अनुसार) उत्कर्षण होते, निक्षेप तौ पूर्वोक्त प्रमाण ही रहै अर अतिस्थापना क्रमतै एक-एक समय बँधता होइ सो यावत् आवली मात्र उत्कृष्ट अतिस्थापना होइ तावत् यहू क्रम जानना। (यहाँ अतिस्थापना तो ३९-५४ और निक्षेप ५५-५८ हो जाती है यथा-संदृष्टि-अंक संदृष्टि करि सत्ताके अन्त निषेकको उपांत निषेक जिस समय विषै उदय होगा तिस समय हाल बन्ध्या समयप्रबद्धका ४९वाँ निषेक उदय होगा। सो तिस उपान्त निषेकका द्रव्य उत्कर्षण करि ताको ५०वाँ आदि (५०-५४) पाँच निषेकनिको अतिस्थापना रूप राखि ऊपरि ५५वाँ आदि (५५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण करिए। बहुरि ऐसे ही उपांत निषेकतै निचले निषेकनिका द्रव्य उत्कर्षण करते, बन्ध्या समय प्रबद्धका क्रमतै ४९वाँ, ४८वाँ आदितै लगाइ छः, सात, आठ आदि एक-एक बँधते निषेक अतिस्थापना रूप राखि ५५ वाँ आदि (पूर्वोक्त ही ५५-५८) निषेकनिविषै निक्षेपण करिए है। तहाँ हाल बन्ध्या समय प्रबद्धका ३८वाँ निषेक जिस समयविषै उदय होगा तिस समय विषै उदय आवने योग्य जो पूर्व सत्ताका निषेक ताका द्रव्यको उत्कर्षण करतै हालबन्ध्या समयप्रबद्धका ३९ वाँ आदि १६ निषेकनिकौ (अर्थात् आवली प्रमाण निषेकनिकौ) अतिस्थापनारूप राखे है। सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। इहाँ पर्यन्त (पूर्वोक्त ही) ५५ आदि (५५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण जानना।</p> | |||
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Revision as of 05:51, 26 May 2009
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५२/४ कम्मप्सदेसट्ठिदिवट्ठावणमुक्कड्डणा।
= कर्मप्रदेशोंकी स्थिति (व अनुभाग) को बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ४३८/५९१/१४ स्थित्यनुभागयोर्वृद्धि उत्कर्षणं।
= स्थित और अनुभागकी वृद्धिको उत्कर्षण कहते हैं।
गो.जी./भाषा २५८/५६६/१७ नोचले निषेकनिका परमाणू ऊपरिके निषेकनिविषै मिलावना सो उत्कर्षण है।
(लब्धिसार / भाषा ५५/८७/४)
- उत्कर्षण योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४४४/५९५ बंधुक्कट्टकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण।
= बन्धकरण और उत्कर्षकरणमें दोनों, जिस-जिस प्रकृतिकी जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई, तिस-तिस प्रकृतिका (बन्ध व उत्कर्षण भी) तहाँ ही पर्यंत नियमकरि जानने।
- उत्कर्षण सम्बन्धी कुछ नियम
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ४०२ संकामेदुक्कट्टदि जे अंसेते अवट्टिदा होंति। आवलियं से काले तेण परं होंति भजियव्वं ।४०२। नियम नं.-१ संक्रमणविषै जे प्रकृतिके परमाणू उत्कर्षणरूप करिए है, ते अपने कालविषै आवलिकाल पर्यंत तौ अवस्थित ही रहैं। तातै परै भजनीय हो है, अवस्थित भी रहें और स्थिति आदिकी वृद्धि हानि आदि रूप भी होंइ।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$५७२, ३३६/३३९ उक्कडिदे अणुभागट्ठाणाविभागपडिच्छेदाणं बुड्ढीए अभावादो.....बंधेण विणा तदुक्कड्डणाणुवत्तीदो।३३६-१। परमाणूणं बहुत्तमप्पत्तं वा अणुभागवड्ढिहाणीणं ण कारणमिदि बहुसो परूविदत्तादी ।३३९-१२। नियम नं. २-उत्कर्षणके होनेपर अनुभागस्थानके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि बन्धके बिना उसका उत्कर्षण नहीं बन सकता। नियम नं. ३-परमाणुओंका बहुतपना या अल्पना, अनुभागकी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है, अर्थात् यदि परमाणु बहुत हों तो अनुभाग भी बहुत हो और यदि परमाणु कम हों तो अनुभाग भी कम हो, ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है।
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,११/४३/५ बंधाणुसारिणीए उक्कड्डणाएयुधपदेसविण्णासाणुववत्तीदो।
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,१४/४९/६ जस्स समयपबद्धस्स सत्तिट्ठिदी वट्टमाणबंधट्ठिदिसमाणा सो समयपबद्धो वट्टमाणबंधचरियट्ठिदि त्ति उक्कड्डिज्जदि।
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५२/५ उदयावलियट्ठिदिपदेसा ण उक्कड्डिज्जंति।......उदयावलियबाहिरट्ठिदीओ सव्वाओ [ण] उक्कड्डिज्जंति। किंतु चरिमट्ठिदी आवलियाए असंखेज्जदिभागमइच्छिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे उक्कड्डिज्जदि, उवरि ट्ठिदिबंधाभावादो। अइच्छा वणाणिक्खेवाभावा णत्थि उक्कड्डणा हेट्ठा।
= नियम नं. ४-उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करने वाला होता है, इसलिए उसमें दूसरे प्रकारसे प्रदेशोंकी रचना नहीं बन सकती। नियम नं.५-जिस समयप्रबद्ध की शक्तिस्थिति वर्तमानमें बाँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थितिके समान है उस समयप्रबद्धका वर्तमानमें बँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थिति तक उत्कर्षण किया जाता है। नियम नं. ६-उदयावलीकी स्थितिके प्रदेशोंका उत्कर्षण नहीं किया जाता है। नियम नं.७-उदयावलीके बाहरकी सभी स्थितियोंका (भी) उत्कर्षण (नहीं) किया जाता है। किन्तु चरम स्थितिके आवलीके असंख्यातवें भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलिके असंख्यात बहुभागका उत्कर्षण होता है। क्योंकि इससे ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है। अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे उत्कर्षण नहीं होता है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४३१/२४४ विशेषार्थ "यह पहले बतला आये हैं कि उत्कर्षण सब कर्मपरमाणुओंका न होकर कुछका होता है और कुछका नहीं। जिनका नहीं होता उनका संक्षेपसे व्योरा इस प्रकार है - १. उदयावलीके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं होता। २. उदयावलीके बाहर भी सत्तामें स्थित जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति (स्थिति) उत्कर्षणके समय बँधनेवाले कर्मोंकी आबाधाके बराबर या उससे कम शेष रही है, उनका भी उत्कर्षण नहीं होता। ३. निर्व्याघात दशामें उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंकी अतिस्थापना कमसे कम एक आवली प्रमाण बतलायी है, इसलिए अतिस्थापनारूप द्रव्यमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता। ४. व्याघात दशामें कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अतिस्थापना और इतना ही निक्षेप प्राप्त होनेपर उत्कर्षण होता है। अन्यथा नहीं होता।
नोट-इस विषयका विस्तार - दे.
(कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ६/२२/सूत्र ४-४७/पृ. २१४-२१९); (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४२६-४७४/पृ. २४२-२७३)
- व्याघात व अव्य घात उत्कर्षण निर्देश
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ७/५-२२/$४३१/२४५/५ विशेषार्थ - "जहाँ अति स्थापना एक आवली और निक्षेप आवलीका - असंख्यातवाँ भाग आदि बन जाता है वहाँ निर्व्याघात् दशा होती है। और जहाँ अतिस्थापनाके एक आवली प्रमाण होनेमें बाधा आती है वहाँ व्याघात दशा होती है। जब प्राचीन सत्तामें स्थित कर्म परमाणुओंकी स्थितिसे नूतनबन्ध अधिक हो, पर इस अधिकका प्रमाण एक आवली और एक आवलिके असंख्यातवें भागके भीतर ही प्राप्त हो, तब यह व्याघात दशा होती है। इसके सिवा उत्कर्षणमें सर्वत्र निर्व्याघात दशा ही जानना।"
- स्थिति बन्धोत्सरण निर्देश
लब्धिसार / भाषा ३१४/३९९/३ जैसे स्थिति बन्धापसरणकरि (देखे अपकर्षण /३) चढ़तै स्थितिबन्ध घटाइ एक-एक अन्तर्मुहूर्तविषै समान बन्ध करै था, तैसे इहाँ स्थितिबन्धोत्सरणकार स्थिति बन्ध बधाइ एक एक अन्तर्मुहूर्तविषै समान बन्ध करै है।
- उत्कर्षण विधान तथा जघन्य उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेप
- दृष्टि नं. १
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ६१-६४ सत्तग्गाट्ठिदिबंधो अदिठिदुक्कट्टणे जहण्णेण। आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ।६१। तत्तोदित्थावणगं वड्ढदि जावावली तदुक्कस्सं। उवरीदो णिक्खेओ वरं तु बंधिय ठिदि जेट्ठं ।६२। बोलिय बंधावलियं उक्कट्ठिय उदयदो दु णिक्खिविय। उवरिमसमये विदियावलिपढमुक्कट्टणे जादो ।६३। तक्कालवज्जमाणे वारट्ठिदीए अदित्थियावाहं। समयजुदावलीयाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ।६४।
= मूल भाषाकार कृत विस्तार-अव्याघात विषै स्थितिका उत्कर्षण होतै विधान कहिए है। पूर्वै जे सत्ता रूप निषेक थे तिनिविषै जो अन्तका निषेक था ताका द्रव्यको उत्कर्षण करनेका समय विषै बन्ध्या जो समयप्रबद्ध, तीहिं विषै जो पूर्व सत्ताका अन्तनिषेक जिस समय उदय आवने योग्य है तिसविषै उदय आवनेयोग्य बन्ध्या समयप्रबद्धका निषेक, तिस निषेकके उपरिवर्ती आवलीका असंख्यात भागमात्र निषेकको अतिस्थापना रूप राखि तिनिके उपरिवर्ती जे तितने ही आवलीके असंख्यातभागमात्र निषेक तिनि विषै तिस सत्ताका अन्त निषेकका द्रव्यको निक्षेपण करिए है। यहु उत्कर्षण विषै जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप जानना। संदृष्टि-कल्पना करो कि पूर्व सत्ताका अन्तिम निषेक जिस समय उदय होगा उस समयमें वर्तमान समयप्रबद्धका ५० वाँ निषेक उदय होना है तहाँ तिस ५० वें से ऊपर ५१ आदि आ. ५०/असंनिषेक अर्थात् १६/४ = ४ निषेक अर्थात् ५१-५४ निषेकोंको अतिस्थापना रूप रखकर तिनके ऊपरवाले आवलीके असंख्यातभागमात्र (५४-५८) निषेकोंमें निक्षेपण करता है। तहाँ ५१-५४ तो आ./असं. मात्र निषेक अतिस्थापना रूप है और (५४-५८) आ./असं मात्र निषेक ही निक्षेप रूप हैं। यह जघन्य अतिस्थापना व जघन्य निक्षेप है। - देखे आगे यंत्र । तिस पूर्व सत्त्वके अन्त निषेकते लगाय ते नीचेके (सत्ताके उपात्तादि) निषेक तिनिका (पूर्वोक्त ही विधानके अनुसार) उत्कर्षण होते, निक्षेप तौ पूर्वोक्त प्रमाण ही रहै अर अतिस्थापना क्रमतै एक-एक समय बँधता होइ सो यावत् आवली मात्र उत्कृष्ट अतिस्थापना होइ तावत् यहू क्रम जानना। (यहाँ अतिस्थापना तो ३९-५४ और निक्षेप ५५-५८ हो जाती है यथा-संदृष्टि-अंक संदृष्टि करि सत्ताके अन्त निषेकको उपांत निषेक जिस समय विषै उदय होगा तिस समय हाल बन्ध्या समयप्रबद्धका ४९वाँ निषेक उदय होगा। सो तिस उपान्त निषेकका द्रव्य उत्कर्षण करि ताको ५०वाँ आदि (५०-५४) पाँच निषेकनिको अतिस्थापना रूप राखि ऊपरि ५५वाँ आदि (५५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण करिए। बहुरि ऐसे ही उपांत निषेकतै निचले निषेकनिका द्रव्य उत्कर्षण करते, बन्ध्या समय प्रबद्धका क्रमतै ४९वाँ, ४८वाँ आदितै लगाइ छः, सात, आठ आदि एक-एक बँधते निषेक अतिस्थापना रूप राखि ५५ वाँ आदि (पूर्वोक्त ही ५५-५८) निषेकनिविषै निक्षेपण करिए है। तहाँ हाल बन्ध्या समय प्रबद्धका ३८वाँ निषेक जिस समयविषै उदय होगा तिस समय विषै उदय आवने योग्य जो पूर्व सत्ताका निषेक ताका द्रव्यको उत्कर्षण करतै हालबन्ध्या समयप्रबद्धका ३९ वाँ आदि १६ निषेकनिकौ (अर्थात् आवली प्रमाण निषेकनिकौ) अतिस्थापनारूप राखे है। सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। इहाँ पर्यन्त (पूर्वोक्त ही) ५५ आदि (५५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण जानना।