पारिणामिक: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">पारिणामिक सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">पारिणामिक सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/1/149/9 </span><span class="SanskritText">द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः। [<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/2 </span>] पारिणामिकत्वम्.... कर्मोदयोपशमक्षय-क्षयोपशमानपेक्षित्वात्।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिसके होने में द्रव्य का स्वरूप लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 )। </li> | <li class="HindiText"> जिसके होने में द्रव्य का स्वरूप लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 </span>)। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होने से पारिणामिक हैं। ( राजवार्तिक/2/1/5/100/21 )। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होने से पारिणामिक हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/1/5/100/21 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/7/2/110/22 </span><span class="SanskritText"> तद्भावादनादिद्रव्यभवनसंबंधपरिणामनिमित्तत्वात् पारिणामिका इति। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/7/16/113/17 </span><span class="SanskritText">परिणामः स्वभावः प्रयोजनमस्येति पारिणामिकः इत्यन्वर्थसंज्ञा।</span> = <span class="HindiText">कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले द्रव्य की स्वभावभूत अनादि पारिणामिक शक्ति से ही आविर्भूत ये भाव परिणामिक हैं। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,8/161/3 </span>); (<span class="GRef"> धवला 5/1,7,3/196/11 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/815/988 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/8/29/15 </span>)। परिणाम अर्थात् स्वभाव ही है प्रयोजन जिसका वह पारिणामिक है, यह अन्वयर्थ संज्ञा है। (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/375 </span>); (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 5/1,7,1/185/3 </span><span class="PrakritText">जो चउहि भावेहिं पुव्वुत्तेहिं वदिरित्तो जीवाजीवगओ सो पारिणामिओ णाम।</span> = <span class="HindiText">जो क्षायिकादि चारों भावों से व्यतिरिक्त जीव-अजीवगत भाव है, वह पारिणामिक भाव है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/374 </span><span class="PrakritGatha"> कम्मज भावातीदं जाणगभावं विसेस आहारं। तं परिणामो जीवो अचेयणं भवदि इदराणं। 374। </span>= <span class="HindiText">जो कर्मजनित औदयिकादि भावों से अतीत है तथा मात्र ज्ञायक भाव ही जिसका विशेष आधार है, वह जीव का पारिणामिक भाव है, और अचेतन भाव शेष द्रव्यों का पारिणामिक भाव है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/971 </span><span class="SanskritGatha">कृत्स्नकर्मनिरपेक्षः प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात्। आत्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भावः स्यात्पारिणामिकः। 971।</span> = <span class="HindiText">कमो के उदय, उपशमादि चारों अपेक्षाओं से रहित केवल आत्मद्रव्यरूप ही जिसका स्वरूप है, वह पारिणामिक भाव कहलाता है। 971। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">साधारण असाधारण पारिणामिक भाव निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">साधारण असाधारण पारिणामिक भाव निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/7 </span><span class="SanskritText"> जीवभव्याभव्यत्वानि च। 7। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/7 </span><span class="SanskritText"> जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयो भावाः पारिणामिका अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्याः। ...ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशवत्त्वादयोऽपि भावाः पारिणामिकाः संति। ...अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति च शब्देन पृथग्गृह्यंते।</span> = <span class="HindiText">जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव के भेद हैं। 7। ये तीनों भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए आत्मा के (असाधारण भाव) जानने चाहिए। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/7/1/110/19 </span>); (<span class="GRef"> धवला 5/1,7,1/192/4 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/819/990 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/8 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 </span>)। अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी पारिणामिक भाव हैं। ...ये अस्तित्व आदिक तो जीव और अजीव दोनों में साधारण हैं इसलिए उनका ‘च’ शब्द के द्वारा अलग से ग्रहण किया है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/7/12/111/28 </span><span class="SanskritText">अस्तित्वान्यत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व-पर्यायवत्त्वासर्वगतत्वानादिसंततिबंधनबद्धत्व-प्रदेशवत्त्वारूपत्व-नित्यत्वादि-समुच्चयार्थश्चशब्दः। 12। </span>=<span class="HindiText"> अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्त्व, असर्वगतत्व, अनादिसंततिबंधनबद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में च शब्द दिया है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/11 </span><span class="SanskritText"> शुद्धपारिणामिकपरमभावरूपशुद्धनिश्चयेन गुणस्थानमार्गणास्थानरहिता जीवा इत्युक्तं पूर्वम्, इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपि पारिणामिकभावो भणितं इति पूर्वापर-विरोधः। अत्र परिहारमाह-पूर्वं शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेधः कृतः इदानीं पुनर्भव्याभव्यत्वद्वयमशुद्धपारिणामिकभावरूपं मार्गणामध्येऽपि घटते। ननु-शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किंतु शुद्ध एव, नैवं - यद्यपि सामान्य रूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्धपारिणामिकभावः कथ्यते तथाप्यपवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति। तथाहि - ‘‘जीवभव्याभव्यत्वानि च’’ इति तत्त्वार्थसूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणितः, तत्र - शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो भण्यते, यत्पुनः कर्मजनितदशप्राणरूपं जीवत्वं, भव्यत्वम्, अभव्यत्वं चेति त्रयं, तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिकसंज्ञस्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते। अशुद्धत्वं कथमिति चेत् - यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथा ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ इति वचनाच्छुद्धनिश्चयेन नास्ति त्रयं, मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति, इति हेतोरशुद्धत्वं भण्यते। तत्र शुद्धाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्ध-पारिणामिकभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात्, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वरः, इति भावार्थः।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानों से रहित हैं ऐसा पहले कहा गया है और अब यहाँ भव्य-अभव्य रूप से मार्गणाएँ भी आपने पारिणामिक भाव कहा, सो यह तो पूर्वापर विरोध है? <strong>उत्तर -</strong> पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा का निषेध किया है, और यहाँ पर अशुद्ध पारिणामिक भावरूप से भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी घटित होते हैं। <strong>प्रश्न -</strong> शुद्ध-अशुद्ध भेद से पारिणामिक भाव दो प्रकार का नहीं है किंतु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है? <strong>उत्तर -</strong> वह भी ठीक नहीं; क्योंकि, यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है ऐसा कहा जाता है तथापि अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी कारण ‘‘जीव भव्याभव्यत्वानि च’’ (<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/7 </span>) इस सूत्र में पारिणामिक भाव तीन प्रकार का कहा है। उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है। तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेद से तीन तरह का है और ये तीनों विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं। <strong>प्रश्न -</strong> इसकी अशुद्धता किस प्रकार से है? <strong>उत्तर -</strong> यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनय से संसारी जीव में हैं तथापि ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ (द्र.स./मू./13)। इस वचन से तीनों भाव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा नहीं है, और मुक्त जीवों में तो सर्वथा ही नहीं है; इस कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है। उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भावों में-से जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यान के समय ध्येय यानी - ध्यान करने योग्य होता है, ध्यान रूप नहीं होता। क्योंकि, ध्यान पर्याय विनश्वर है और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप होने के कारण अविनाशी है, यह सारांश है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/15 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/9 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">पारिणामिक भाव अनादि निरुपाधि व स्वाभाविक होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">पारिणामिक भाव अनादि निरुपाधि व स्वाभाविक होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/58 </span><span class="SanskritText">पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव।</span> =<span class="HindiText"> पारिणामिक भाव तो अनादि अनंत, निरुपाधि, स्वाभाविक है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह </span>टी./57/236/8 <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।</span> = <span class="HindiText">शुद्ध द्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, वह परम निश्चय मोक्ष अब होगा ऐसा नहीं है। <br /> | |||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
प्रत्येक पदार्थ के निरुपाधिक तथा त्रिकाली स्वभाव को उसका पारिणामिक भाव कहा जाता है। भले ही अन्य पदाथो के संयोग की उपाधिवश द्रव्य अशुद्ध प्रतिभासित होता हो, पर इस अचलित स्वभाव से वह कभी च्युत नहीं होता, अन्यथा जीव घट बन जाये और घट जीव।
- पारिणामिक सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/1/149/9 द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः। [ सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/2 ] पारिणामिकत्वम्.... कर्मोदयोपशमक्षय-क्षयोपशमानपेक्षित्वात्। =- जिसके होने में द्रव्य का स्वरूप लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 )।
- कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होने से पारिणामिक हैं। ( राजवार्तिक/2/1/5/100/21 )।
राजवार्तिक/2/7/2/110/22 तद्भावादनादिद्रव्यभवनसंबंधपरिणामनिमित्तत्वात् पारिणामिका इति।
राजवार्तिक/2/7/16/113/17 परिणामः स्वभावः प्रयोजनमस्येति पारिणामिकः इत्यन्वर्थसंज्ञा। = कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले द्रव्य की स्वभावभूत अनादि पारिणामिक शक्ति से ही आविर्भूत ये भाव परिणामिक हैं। ( धवला 1/1,1,8/161/3 ); ( धवला 5/1,7,3/196/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/815/988 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/8/29/15 )। परिणाम अर्थात् स्वभाव ही है प्रयोजन जिसका वह पारिणामिक है, यह अन्वयर्थ संज्ञा है। ( नयचक्र बृहद्/375 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 )।
धवला 5/1,7,1/185/3 जो चउहि भावेहिं पुव्वुत्तेहिं वदिरित्तो जीवाजीवगओ सो पारिणामिओ णाम। = जो क्षायिकादि चारों भावों से व्यतिरिक्त जीव-अजीवगत भाव है, वह पारिणामिक भाव है।
नयचक्र बृहद्/374 कम्मज भावातीदं जाणगभावं विसेस आहारं। तं परिणामो जीवो अचेयणं भवदि इदराणं। 374। = जो कर्मजनित औदयिकादि भावों से अतीत है तथा मात्र ज्ञायक भाव ही जिसका विशेष आधार है, वह जीव का पारिणामिक भाव है, और अचेतन भाव शेष द्रव्यों का पारिणामिक भाव है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/971 कृत्स्नकर्मनिरपेक्षः प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात्। आत्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भावः स्यात्पारिणामिकः। 971। = कमो के उदय, उपशमादि चारों अपेक्षाओं से रहित केवल आत्मद्रव्यरूप ही जिसका स्वरूप है, वह पारिणामिक भाव कहलाता है। 971।
- साधारण असाधारण पारिणामिक भाव निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/2/7 जीवभव्याभव्यत्वानि च। 7।
सर्वार्थसिद्धि/2/7 जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयो भावाः पारिणामिका अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्याः। ...ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशवत्त्वादयोऽपि भावाः पारिणामिकाः संति। ...अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति च शब्देन पृथग्गृह्यंते। = जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव के भेद हैं। 7। ये तीनों भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए आत्मा के (असाधारण भाव) जानने चाहिए। ( राजवार्तिक/2/7/1/110/19 ); ( धवला 5/1,7,1/192/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/819/990 ); ( तत्त्वसार/2/8 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 )। अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी पारिणामिक भाव हैं। ...ये अस्तित्व आदिक तो जीव और अजीव दोनों में साधारण हैं इसलिए उनका ‘च’ शब्द के द्वारा अलग से ग्रहण किया है।
राजवार्तिक/2/7/12/111/28 अस्तित्वान्यत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व-पर्यायवत्त्वासर्वगतत्वानादिसंततिबंधनबद्धत्व-प्रदेशवत्त्वारूपत्व-नित्यत्वादि-समुच्चयार्थश्चशब्दः। 12। = अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्त्व, असर्वगतत्व, अनादिसंततिबंधनबद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में च शब्द दिया है।
- शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव निर्देश
द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/11 शुद्धपारिणामिकपरमभावरूपशुद्धनिश्चयेन गुणस्थानमार्गणास्थानरहिता जीवा इत्युक्तं पूर्वम्, इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपि पारिणामिकभावो भणितं इति पूर्वापर-विरोधः। अत्र परिहारमाह-पूर्वं शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेधः कृतः इदानीं पुनर्भव्याभव्यत्वद्वयमशुद्धपारिणामिकभावरूपं मार्गणामध्येऽपि घटते। ननु-शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किंतु शुद्ध एव, नैवं - यद्यपि सामान्य रूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्धपारिणामिकभावः कथ्यते तथाप्यपवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति। तथाहि - ‘‘जीवभव्याभव्यत्वानि च’’ इति तत्त्वार्थसूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणितः, तत्र - शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो भण्यते, यत्पुनः कर्मजनितदशप्राणरूपं जीवत्वं, भव्यत्वम्, अभव्यत्वं चेति त्रयं, तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिकसंज्ञस्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते। अशुद्धत्वं कथमिति चेत् - यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथा ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ इति वचनाच्छुद्धनिश्चयेन नास्ति त्रयं, मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति, इति हेतोरशुद्धत्वं भण्यते। तत्र शुद्धाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्ध-पारिणामिकभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात्, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वरः, इति भावार्थः। = प्रश्न - शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानों से रहित हैं ऐसा पहले कहा गया है और अब यहाँ भव्य-अभव्य रूप से मार्गणाएँ भी आपने पारिणामिक भाव कहा, सो यह तो पूर्वापर विरोध है? उत्तर - पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा का निषेध किया है, और यहाँ पर अशुद्ध पारिणामिक भावरूप से भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी घटित होते हैं। प्रश्न - शुद्ध-अशुद्ध भेद से पारिणामिक भाव दो प्रकार का नहीं है किंतु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है? उत्तर - वह भी ठीक नहीं; क्योंकि, यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है ऐसा कहा जाता है तथापि अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी कारण ‘‘जीव भव्याभव्यत्वानि च’’ ( तत्त्वार्थसूत्र/2/7 ) इस सूत्र में पारिणामिक भाव तीन प्रकार का कहा है। उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है। तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेद से तीन तरह का है और ये तीनों विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं। प्रश्न - इसकी अशुद्धता किस प्रकार से है? उत्तर - यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनय से संसारी जीव में हैं तथापि ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ (द्र.स./मू./13)। इस वचन से तीनों भाव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा नहीं है, और मुक्त जीवों में तो सर्वथा ही नहीं है; इस कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है। उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भावों में-से जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यान के समय ध्येय यानी - ध्यान करने योग्य होता है, ध्यान रूप नहीं होता। क्योंकि, ध्यान पर्याय विनश्वर है और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप होने के कारण अविनाशी है, यह सारांश है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/15 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/9 )।
- पारिणामिक भाव अनादि निरुपाधि व स्वाभाविक होता है
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/58 पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव। = पारिणामिक भाव तो अनादि अनंत, निरुपाधि, स्वाभाविक है।
द्रव्यसंग्रह टी./57/236/8 यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। = शुद्ध द्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, वह परम निश्चय मोक्ष अब होगा ऐसा नहीं है।
- अन्य संबंधित विषय
- शुद्ध पारिणामिक भाव के निर्विकल्प समाधि आदि अनेकों नाम। - मोक्षमार्ग/2/5।
- जीव के सर्व सामान्य गुण पारिणामिक हैं। - देखें गुण - 2।
- जीवत्व व सिद्धत्व। - देखें वह वह नाम ।
- औदायिकादि भावों में भी कथंचित् पारिणामिक व जीव का स्वतत्त्वपन। - देखें भाव - 2।
- सासादन, भव्यत्व, अभव्यत्व, व जीवत्व में कथंचित् पारिणामिक व औदयिकपना। - देखें वह वह नाम ।
- सिद्धों में कुछ पारिणामिक भावों का अभाव। - देखें मोक्ष - 3।
- मोक्षमार्ग में पारिणामिक भाव की प्रधानता। - देखें मोक्षमार्ग - 5।
- ध्यान में पारिणामिक भाव की प्रधानता। - देखें ध्येय ।