धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी: Difference between revisions
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Latest revision as of 03:17, 16 February 2008
धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी,
बरसत भ्रमताप हरन ज्ञानघनझरी ।।टेक. ।।
जाके विन पाये भवविपति अति भरी ।
निज परहित अहित की कछू न सुधि परी।।१ ।।धन. ।।
जाके परभाव चित्त सुथिरता करी ।
संशय भ्रम मोहकी कु वासना टरी।।२ ।।धन. ।।
मिथ्या गुरुदेवसेव टेव परिहरी ।
वीतरागदेव सुगुरुसेव उरघरी।।३ ।।धन. ।।
चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी ।
शिवमगके लाह की सुचाह विस्तरी।।४ ।।धन. ।।
सम्यक् तरु धरनि येह करन करिहरी ।
भवजलको तरनि समर-भुजंग विषजरी।।५ ।।धन. ।।
पूरवभव या प्रसाद रमनि शिव वरी ।
सेवो अब `दौल' याहि बात यह खरी।।६ ।।धन. ।।