मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन: Difference between revisions
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Latest revision as of 06:50, 16 February 2008
मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन, दाव भला पाया ।
अवसर मिलै नहिं ऐसा, यौ सतगुरु गाया ।।
बस्यो अनादिनिगोद निकसि फिर, थावर देह धरी ।
काल असंख्य अकाज गमायो, नेक न समुझि परी ।।१ ।।
चिंतामनि दुर्लभ लहिये ज्यौं, त्रस परजाय लही ।
लट पिपिल अलि आदि जन्ममें, लह्यो न ज्ञान कहीं ।।२ ।।
पंचेन्द्रिय पशु भयो कष्टतैं, तहाँ न बोध लह्यो ।
स्वपर विवेकरहित बिन संयम, निशदिन भार वह्यो ।।३ ।।
चौपथ चलत रतन लहिये ज्यौं, मनुजदेह पाई ।
सुकुल जैनवृष सतसंगति यह, अतिदुर्लभ भाई ।।४ ।।
यौं दुर्लभ नरदेह कुधी जे, विषयन संग खोवैं ।
ते नर मूढ अजान सुधारस, पाय पाँव धोवैं ।।५ ।।
दुर्लभ नरभव पाय सुधी जे, जैन धर्म सेवैं ।
`दौलत' ते अनंत अविनाशी, सुख शिवका वेवैं ।।६ ।।