सुनो जिया ये सतगुरु की बातैं: Difference between revisions
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Latest revision as of 07:15, 16 February 2008
सुनो जिया ये सतगुरु की बातैं, हित कहत दयाल दया तैं ।।टेक ।।
यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यातैं ।
तदपि पिछान एक आतमको, तजत न हठ शठ-तातैं।।१ ।।सुनो. ।।
चहुँगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खातैं ।
तदपि न तजत न रजत अभागै, दृग व्रत बुद्धिसुधातैं।।२ ।।सुनो. ।।
मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ नातैं ।
तू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै।।३ ।।सुनो. ।।
तन धन भोग संजोग सुपन सम, वार न लगत विलातैं ।
ममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-ज्ञान कलातैं।।४ ।।सुनो. ।।
दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं ।
`दौल' तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशातैं।।५ ।।सुनो. ।।