संक्रमण: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" id="8.1"><strong>सर्व संक्रमण का लक्षण</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [अंत की फाली में शेष बचे सर्व प्रदेशों का अन्य प्रकृतिरूप होना सर्व संक्रमण है। क्योंकि इसका भागाहार एक है।]</p> | |||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/10 </span>चरमकांडकचरमफाले: सर्वप्रदेशाग्रस्य यत्संक्रमणं तत् सर्वसंक्रमणं णाम। | |||
</span> = <span class="HindiText">अंत के कांडक की अंत की फालि के सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप होना वह सर्व संक्रमण है।</span></p></li></ol></li> | |||
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Revision as of 07:33, 18 May 2021
जीव के परिणामों के वश से कर्म प्रकृति का बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है। इसके उद्वेलना आदि अनेकों भेद हैं। इनका नाम वास्तव में संक्रमण भागाहार है। उपचार से इनको संक्रमण कहने में आता है। अत: इनमें केवल परिणामों की उत्कृष्टता आदि ही के प्रति संकेत किया गया है। ऊँचे परिणामों से अधिक द्रव्य प्रतिसमय संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अल्प होना चाहिए। और नीचे परिणामों से कम द्रव्य संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अधिक होना चाहिए। यही बात इन सब भेदों के लक्षणों पर से जाननी चाहिए। उद्वेलना, विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन तीन भेदों में भागहानि क्रम से द्रव्य संक्रमाया जाता है, गुणश्रेणी संक्रमण में गुणश्रेणी रूप से और सर्वसंक्रमण में अंत का बचा हुआ सर्व द्रव्य युगपत् संक्रमा दिया जाता है।
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
- संक्रमण सामान्य का लक्षण।
- संक्रमण के भेद।
- पाँचों संक्रमणों का क्रम।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम।
- विसंयोजना। - देखें विसंयोजना ।
- संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल विघ्यात योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल अध:प्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल गुणसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ।
- केवल सर्व संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ।
- विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन दो के योग्य।
- अध:प्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य।
- अध:प्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य।
- विघ्यात अध:प्रवृत्त व गुण इन तीन के योग्य।
- अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीन के योग्य।
- विघ्यातगुण व सर्व इन तीन के योग्य।
- उद्वेलना के बिना चार के योग्य।
- विघ्यात के बिना चार के योग्य।
- पाँचों के योग्य।
- प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका
- दर्शन मोह में अबध्यमान का भी संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 3.1।
- स्वजाति उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 3.2।
- चारों आयुओं में परस्पर संक्रमण संभव नहीं।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- दर्शन चारित्र मोह में परस्पर संक्रमण संभव नहीं।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- कषाय नोकषाय में परस्पर संक्रमण संभव है।। - देखें संक्रमण - 3.3।
- उद्वेलना संक्रमण निर्देश
- उद्वेलना संक्रमण द्विचरम कांडक पर्यंत होता है। - देखें संक्रमण - 1.4।
- मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ।
- मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना योग्य काल।
- यह मिथ्यात्व अवस्था में होता है।
- सम्यक व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम। - देखें संक्रमण - 1.4।
- यह कांडक घात रूप से होता है। - देखें संक्रमण - 6.2।
- विघ्यात संक्रमण निर्देश
- बंध व्युच्छित्ति होने के पश्चात् उन प्रकृतियों का 4-7 गुणस्थानों में विघ्यात संक्रमण होता है। - देखें संक्रमण - 1।
- अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
- कांडकघात व अपवर्तनाघात में अंतर। - देखें अपकर्षण - 4.6।
- शेष प्रकृतियों का व्युच्छित्ति पर्यंत होता है। - देखें संक्रमण - 1/3।
- गुण संक्रमण निर्देश
- गुण संक्रमण का स्वामित्व।। - देखें संक्रमण - 1.3।
- मिथ्यात्व के त्रिधाकरण में गुण संक्रमण। - देखें उपशम - 2।
- गुणश्रेणी निर्देश
- गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश।
- गुणश्रेणी निर्जरा के आवश्यक अधिकार।
- गुणश्रेणी का लक्षण।
- गुणश्रेणी निर्जरा का लक्षण।
- गुणश्रेणि शीर्ष का लक्षण।
- गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम का लक्षण।
- गुणश्रेणि आयामों का यंत्र।
- अंतर स्थिति व द्वितीय स्थिति का लक्षण।
- गुणश्रेणि निक्षेपण विधान।
- गुणश्रेणि निर्जरा का 11 स्थानीय अल्पबहुत्व। - देखें अल्पबहुत्व - 3.10।
- सर्व संक्रमण निर्देश
- चरम फालि का सर्वसंक्रमण ही होता है। - देखें संक्रमण - 1.3।
- आनुपूर्वी व स्तिवुक संक्रमण निर्देश
- अनुदय प्रकृतियाँ स्तिवुक संक्रमण द्वारा उदय में आती हैं। - देखें संक्रमण - 3.6।
- संक्रमण सामान्य निर्देश
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1,18/315/3 अंतरकरणे कए जं णवुंसयवेयक्खणं तस्स 'संकमणं' ति सण्णा। = अंतकरण कर लेने पर जो नपुंसकवेद का (क्षपक के जो) क्षपण होता है यहाँ उसकी (उस काल की) संक्रमण संज्ञा है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/438/591/14 परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणम् । = जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/409/573/5 )।
- संक्रमण के भेद
- सामान्य संक्रमण के भेद
धवला 15/282-284
चार्ट
गोम्मटसार जीवकांड/504/903 संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदि। = संक्रमण दो प्रकार का है - स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण [ इसके अतिरिक्त आनुपूर्वी संक्रमण ( लब्धिसार/ मू./249 ), फालिसंक्रमण और कांडक संक्रमण ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575 ) का निर्देश भी आगम में पाया जाता है।]
- भागाहार संक्रमण के भेद
धवला 16/ गा.1/409 उव्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सव्वो य। (संकमणं)...।409। = उसके (भागाहार या संक्रमण के) उद्वेलन, विघ्यात, अध:प्रवृत्त, गुणसंक्रमण, और सर्वसंक्रमण के भेद से पाँच प्रकार हैं।409। ( गोम्मटसार कर्मकांड/409 )।
- सामान्य संक्रमण के भेद
- पाँचों संक्रमणों का क्रम
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./416 बंधे अधापवत्तो विज्झादं सत्तमोत्ति हु अबंधे। एत्तो गुणो अवंधे पयडीणं अप्पसंत्थाणं।416। प्रकृतीनां बंधेसति स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंतमध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य।...बंधव्युच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यंतं विघ्यातसंक्रमणं स्यात् । इत: अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशांतकषायपर्यंतं बंधरहिताप्रशस्तप्रकृतीनां गुणसंक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादंतर्मुहूर्तपर्यंतं पुन: मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्यो: पूरणकाले मिथ्यात्वक्षपणायामपूर्वकरणपरिणामांमिथ्यात्वचरमकांडकद्विकचरमफालिपर्यंतं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफालौ सर्वसंक्रमणं स्यात् ।=प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी बंध व्युच्छित्ति पर्यंत अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है परंतु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। और बंध की व्युच्छित्ति होने पर असंयत से लेकर अप्रमत्तपर्यंत विध्यात नामा संक्रमण होता है। तथा अप्रमत्त से आगे उपशांत कषाय पर्यंत बंध रहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व आदि अन्य जगह भी गुणसंक्रमण होता है ऐसा जानना। तथा मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के पूरण काल में और मिथ्यात्व के क्षय करने में अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व के अंतिम कांडक की उपांत्य फालिपर्यंत गुणसंक्रमण और अंतिम फालि में सर्व संक्रमण होता है।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम
गोम्मटसार कर्मकांड/412-413 मिच्छेसमिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडोत्ति णियमेण।412। उव्वेलणपयडीणं गुणं तु चरिमम्हि कंडये णियमा। चरिमे फालिम्मि पुणो सव्वं च य होदि संकमणं।413। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। और उद्वेलन नामा संक्रमण द्विचरम कांडक पर्यंत नियम से प्रवर्तता है।412। उद्वेलन प्रकृतियों का अंत के कांडक में नियम से गुण संक्रमण होता है। और अंत की फालि में सर्व संक्रमण होता है।413।
- संक्रमण सामान्य का लक्षण
- संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
पंचसंग्रह / प्राकृत/2/8 आहारय-वेउव्विय-णिर-णर-देवाण होंति जुगलाणि। सम्मत्तुच्चं मिस्सं एया उव्वेलणा-पयडी। = आहारक युगल (आहारक शरीर-आहारक अंगोपांग), वैक्रियक युगल (वैक्रियक शरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग), नरक युगल (नरकगति-नरक गत्यानुपूर्वी), नरयुगल (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी), देवयुगल (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी), सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति और उच्चगोत्र ये तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड/415/577 )।
- केवल विघ्यात योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/426 सम्मत्तूणुव्वेलणथीणतितीसं च दुक्खवीसं च। वज्जोरालदुतित्थं मिच्छं विज्झादसत्तट्ठी।426। = सम्यक्त्व मोहनीय के बिना उद्वेलना प्रकृतियाँ 12 (देखें संक्रमण - 2.1), स्त्यानगृद्धि तीन आदिक 30 प्रकृतियाँ (देखें संक्रमण - 2.1), असाता वेदनीय आदिक 20 प्रकृतियाँ (देखें संक्रमण - 2.9), वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिक युगल, तीर्थंकर प्रकृति और मिथ्यात्व प्रकृति ये (12+30+20+5=)67 प्रकृतियाँ विघ्यात संक्रमण वाली हैं।
- केवल अध:प्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड 419-420/580 सुहुमरस बंधघादी सादं संजलणलोहपंचिंदी। तेजदुसमवण्णचऊ अगुरुलहुपरघादउस्सासं।419। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु।...।420। =सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में बंधव्युच्छिन्न होने वाली घातिया कर्मों की 14 प्रकृतियाँ (देखें प्रकृतिबंध - 7.2) साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेंद्रिय जाति, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र, वर्णादि 4, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस आदि 10 (देखें उदय - 6.1) और निर्माण इन 39 प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
गोम्मटसार कर्मकांड/427/584 मिच्छूणिगिवीससयं अधापवत्तस्स होंति पयडीओ।...।427। = मिथ्यात्व प्रकृति के बिना 121 प्रकृतियाँ अध:प्रवृत्त संक्रमण की होती हैं।
- केवल गुण संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/427-428/584-585 ...सुहुमस्स बंधघादिप्पहुदी उगुदालुरालदुगतित्थं।427। वज्जं पंसंजलणति ऊणा गुणसंकमस्स पयडीओ। पणहत्तरिसंखाओ पयडीणियमं विजाणाहि।428। =सूक्ष्म सांपराय में बँधने वाली घातिया कर्मों की 14 प्रकृतियों को आदि लेकर (देखें संक्रमण - 2.3 में केवल अध:प्रवृत्त संक्रमण योग्य) 39 प्रकृतियाँ, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तीर्थंकर, वज्रर्षभनाराच, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधादि तीन, (39+8) 47 प्रकृतियों को कम करके (122 - 47) शेष 75 प्रकृतियाँ गुण संक्रमण की हैं।427-428।
- केवल सर्वसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/417/579 तिरियेयारुव्वेल्लणपयडी संजलणलोहसम्ममिस्सूणा। मोहा थीणतिगं च य बावण्णे सव्वसंकमणं।417। तिर्यगेकादश (देखें उदय - 6.1), उद्वेलन की 13 (देखें संक्रमण - 2.1), संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र, इन तीन के बिना मोहनीय की 25 और स्त्यानगृद्धि आदिक 3 (स्त्यानगृद्धि, प्रचला-प्रचला, निद्रानिद्रा) प्रकृतियाँ, ये (11+13+25+3) 52 प्रकृतियों में सर्वसंक्रमण होता है।417।
- विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/425/583 ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तो य।425। =औदारिक शरीर-अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन तीर्थंकर प्रकृति-इन चारों में विघ्यातसंक्रमण और अध:प्रवृत्त ये दो संक्रमण हैं।
- अध:प्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/421-422/581 ...णिद्दा पयला असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे।421। सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तो य।...।422। =निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात, इन सात प्रकृतियों के गुणसंक्रमण और अध:प्रवृत्त संक्रमण पाये जाते हैं।
- अध:प्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424। = संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद इन चारों में अध:प्रवृत्त और सर्व संक्रमण ये दो ही संक्रमण पाये जाते हैं।
- विघ्यात अध:प्रवृत्त व गुण इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/422-423 ...दुक्खमसुहगदी। संहदि संठाणदसं णीचापुण्णथिरछक्कं च।422। वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गुणो य।...।423। =असाता वेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, पहले के बिना पाँच संहनन व पाँच संस्थान ये 10, नीचगोत्र, अपर्याप्त और अस्थिरादि 6, इस प्रकार 20 प्रकृतियों के विघ्यातसंक्रमण, अध:प्रवृत्त संक्रमण, सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।
- अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/425/583 हस्सरदि भयजुगुप्छे अधापवत्तो गुणो सव्वो।425। =हास्य, रति, भय और जुगुप्सा - इन चार प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन संक्रमण पाये जाते हैं।425।
- विघ्यात गुण और सर्व इन तीन के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/423/582 विज्झादगुणे सव्वं सम्मे...।423। =मिथ्यात्व प्रकृति में विघ्यात, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।423।
- उद्वेलना के बिना चार के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/420-421/581 थीणतिबारकसाया संढित्थी अरइ सोगो य।420। तिरियेयारं तीसे उव्वेलणहीणचारि संकमणा।...।421। =स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, (संज्वलन के बिना) 12 कषाय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, और तिर्यक् एकादश की 11 (देखें उदय - 6.1) इन तीस (30) प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमण के बिना चार संक्रमण होते हैं।
- विघ्यात के बिना चार के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/423/582 सम्मे विज्झादपरिहीणा।423। = सम्यक्त्व मोहनीय में विघ्यात के बिना सर्व संक्रमण पाये जाते हैं।
- पाँचों के योग्य
गोम्मटसार कर्मकांड/424/583 संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।424। =सम्यक्त्व मोहनीय के बिना 12 उद्वेलन प्रकृतियों में (देखें संक्रमण - 2.1) पाँचों ही संक्रमण होते हैं।
- केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
- प्रकृतियों के संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका
- बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी
धवला 16/409/4 बंधे अधापमत्तो...'बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ तासिं पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि। एसो णियमो बंधपयडीणं, अबंधपयडीणं णत्थि। कुदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो।
धवला 16/420/5 तिण्णि संजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होंति। तं तहा - तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो। = 1. बंध के होने पर अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/416 ) 2. 'बंधे अधापवत्तो' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियों का बंध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बंध के होने पर और उसके न होने पर भी अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। यह नियम बंध प्रकृतियों के लिए है, अबंध प्रकृतियों के लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अबंध प्रकृतियों में भी अध:प्रवृत्तसंक्रमण पाया जाता है। 3. तीन संज्वलन और पुरुषवेद के अध:प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम ये दो संक्रम होते हैं। यथा - तीन संज्वलन कषायों और पुरुष वेद का मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्त संक्रम होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/424 )।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410 बंधे संकामिज्जदि णोबंधे।410। बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एवं संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्य:। = जिस प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहीं पर जिसका बंध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोह के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना।
- मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता
धवला 16/408/10 जं पदेसग्गं अण्णपयडिं संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि। उत्तरपयडिं संकमे पयदं। = जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पद के अनुसार मूलप्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410/574 णत्थि मूलपयडीणं।...संकमणं।410। मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।
- उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद
धवला 16/341/1 दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो। साभावियादो। = दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में संक्रांत नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रांत नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्म का संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/410/574 )।
कषायपाहुड़ 3/3,22/411-412/234/4 दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीयसंकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएसु णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाणं पच्चासत्ति अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिण्णजादित्तणेण तेसिं पच्चासत्तीए अभावादो। = दर्शनमोहनीय का चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है। प्रश्न - कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारण से होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अत: उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्पर में संक्रमण हो जाता है। प्रश्न - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूप से इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अत: इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि परस्पर में प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भिन्न जाति होने से उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अत: इनका परस्पर में संक्रमण नहीं होता है।
- दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता
गोम्मटसार कर्मकांड/411/575 सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि।...।411। = सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में और मिश्र में नहीं संक्रमण करती।
- प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश
कषायपाहुड़ 3/3,22/348/388/10 ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताण...। = सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का संक्रमण नहीं होता...।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./411/574 सासणमिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि।411।...सासादनमिश्रयोर्नियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति। असंयतादिचतुर्ष्वस्तीत्यर्थ:। = सासादन गुणस्थान में नियम से दर्शनमोह त्रिक का संक्रमण नहीं होता। असंयतादि (4-7) में होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/429 बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति।429।
गोम्मटसार कर्मकांड व टी./442/594 आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...।442। ...तत्रापि संक्रमकरणं विना षडेव सयोगपर्यंतं भवंति। = बंधरूप प्रदेशों का संक्रमण भी सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत है। क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथासूत्र के अभिप्राय से स्थितिबंध पर्यंत ही संक्रमण संभव है।429। उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत आदि के सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं।442।
- संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय
कषायपाहुड़ 3/3,22/430/244/9 उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए...। = जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के उपांत्य समय में पररूप से संक्रामित हो जाती है।
- अचलावली पर्यंत संक्रमण संभव नहीं
कषायपाहुड़ 3/3,22/411/233/4 अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो णियमो। साहावियादो। = बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के अनंतर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों? उत्तर - स्वभाव से ही यह नियम है।
- संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता
धवला 6/1,9-8,16/ गा.21/346 संकामेदुक्कउदि जे अंसे ते अवट्ठिदा होंति। आवलियं ते काले तेण परं होंति भजिदव्वा।21। = जिन कर्म प्रदेशों का संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियांतर परिणाम के बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भाव से रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओं से भजनीय हैं।21।
- बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी
- उद्वेलना संक्रमण निर्देश
- उद्वेलना संक्रमण का लक्षण
नोट - [करण परिणामों अर्थात् परिणामों की विशुद्धि व संक्लेश से निरपेक्ष कर्म परमाणुओं का अन्य प्रकृतिरूप परिणमन हो जाना, अर्थात् रस्सी का बट खोलनेवत् उसी प्रकृतिरूप हो जाना जिसमें कि संक्रम कर पहले कभी इस प्रकृतिरूप परिणमन किया था, सो उद्वेलना संक्रमण है। इसका भागाहार अंगुल/असं. है, अर्थात् सबसे अधिक है। अर्थात् प्रत्येक समय बहुत कम द्रव्य इसके द्वारा परिणमाया जाना संभव है। यह बात ठीक भी है, क्योंकि बिना परिणामों रूप प्रयत्न विशेष के धीरे-धीरे ही कार्य का होना संभव है।
जो प्रकृति उस समय नहीं बँधती है और न ही उसको बाँधने की उस जीव में योग्यता है उन्हीं प्रकृतियों की उद्वेलना होती है। मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है। यह कांडकरूप होती है अर्थात् प्रथम अंतर्मुहूर्तकाल द्वारा विशेष चयहीन क्रम से तथा द्वितीय अंतर्मुहूर्त में उससे दुगुने चयहीन क्रम से होती है। अध:प्रवृत्त पूर्वक ही होती है। उपांत्य कांडक पर्यंत ही होती है। यह प्रकृति के सर्वहीन निषेकों को परिणमाने पर होता है, थोड़े मात्र पर नहीं। प्रत्येक कांडक पल्य/असं.स्थिति वाला होता है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/349/503/2 वल्वजरज्जुभावविनाशवत् प्रकृतेरुद्वेल्लनं भागाहारेणापकृष्य परप्रकृतितां नीत्वा विनाशनमुद्वेल्लनं।349। = जैसे जेवड़ी (रस्सी) के बटने में जो बल दिया था पीछे उलटा घुमाने से वह बल निकाल दिया। इसी प्रकार जिस प्रकृति का बंध किया था, पीछे परिणाम विशेष से भागाहार के द्वारा अपकृष्ट करके, उसको अन्य प्रकृतिरूप परिणमा के उसका नाश कर दिया (फल-उदय में नहीं आने दिया, पहले ही नाश कर दिया।) उसे उद्वेलन संक्रमण कहते हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/8 करणपरिणामेन विना कर्मपरमाणूनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेल्लनसंक्रमणं नाम। = अध:प्रवृत्त आदि तीन करणरूप परिणामों के बिना ही कर्मप्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होना वह उद्वेलन संक्रमण है।
- मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/351,613,616 चदुगतिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पितिण्णि तेउदुगे।...।351। वेदगजोग्गे काले आहारं उवसमस्स सम्मत्तं। सम्मामिच्छं चेगे विगलेवेगुव्वछक्कं तु।614। तेउदुगे मणुवदुगं उच्चं उव्वेल्लदे जहण्णिदरं। पल्लासंखेज्जदिमं उव्वेल्लणकालपरिमाणं।616। = चारों गति वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के चार (आहारक द्विक, सम्यक्त्व, मिश्र) प्रकृतियाँ, पृ., अप., वन., तथा विकलेंद्रियों में देवद्वि., वै.द्वि., नरकद्वि ये छह प्रकृतियाँ, तेजकाय व वायुकाय इन दोनों के (उच्चगोत्र, मनुष्य द्विक) ये तीन प्रकृतियाँ उद्वेलन के योग्य हैं।351। वेदक सम्यक्त्व योग्य काल में आहारक द्विक की उद्वेलना, उपशम काल में सम्यक्त्व प्रकृति वा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना करता है। और एकेंद्रिय तथा विकलेंद्रिय पर्याय में वैक्रियक षट्क की उद्वेलना करता है।614। तेजकाय और वायुकाय के मनुष्यगति युगल और उच्चगोत्र - इन तीन की उद्वेलना होती है, उस उद्वेलना के काल का प्रमाण जघन्य अथवा उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।616।
- मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना योग्य काल
कषायपाहुड़ 2/2,22/123/105/1 एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती.जह.एगसमओ, उक्क.पलिदोवमस्स असंखे.भागो। = एकेंद्रियों में सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्ति का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है। [क्योंकि यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता नहीं है, इसलिए इस काल में वृद्धि संभव नहीं। यदि सम्यक्त्व प्राप्त करके पुन: नवीन प्रकृतियों की सत्ता कर ले तो क्रम न टूटने के कारण इस काल में वृद्धि होनी संभव है। यदि ऐसा न हो तो अवश्य इतने काल में उन प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है। जिन मार्गणाओं में इनका सत्त्व अधिक कहा है वहाँ नवीन सत्ता की अपेक्षा जानना। देखें अंतर - 2।]
धवला 5/1,6,7/10/8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो। = सम्यक्त्व और सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल के बिना सागरोपम, अथवा सागरोपम पृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/617/821 पल्लासंखेज्जदिमं ठिदिमुव्वेल्लदि मुहुत्तअंतेण। संखेज्जसायरठिदिं पल्लासंखेज्जकालेण। = पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति की अंतर्मुहूर्त काल में उद्वेलना करता है। अतएव एक संख्यात सागरप्रमाण मनुष्यद्विकादि की सत्तारूप स्थिति की उद्वेलना त्रैराशिक विधि से पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में ही कर सकता है, ऐसा सिद्ध है।
- यह मिथ्यात्व अवस्था में होता है
कषायपाहुड़ 2/2,22/237/126/2 पंचिंदियतिरि.अपज्ज.सव्वपयडीणं णत्थि अंतरं। एवं...सम्मादि. खइय. वेदग. उवसम. सासण.सम्मामि. मिच्छादि....अणाहारएत्ति वत्तव्वं। = पंचेंद्रिय तिर्यंच लब्धि अपर्याप्तकों के सभी प्रकृतियों का अंतरकाल नहीं है। इसी प्रकार...सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि...और अनाहारक जीवों के कहना चाहिए। [इस प्रकरण से यह जाना जाता है कि इन दो प्रकृतियों की उद्वेलना मिथ्यात्व में ही होती है, वेदक सम्यक्त्वावस्था में नहीं, और उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मिथ्यात्वावस्था में ही इनका पुन: सत्त्व नहीं होता। न ही इनका सत्त्व प्राप्त हो जाने पर उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मार्ग में से ही पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। और भी देखें अगला शीर्षक ]।
- सम्यक् व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना का क्रम
कषायपाहुड़ 2/2,22/248/111/6 अट्ठावीससंतकम्मिओ उव्वेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीसविहत्तिओ होदि। = अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव (पहले) सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है। [तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व की भी उद्वेलना करके 26 प्रकृति स्थान का स्वामी हो जाता है।] ( कषायपाहुड़ 3/373/205/9 )।
- उद्वेलना संक्रमण का लक्षण
- विघ्यात संक्रमण निर्देश
- विघ्यात संक्रमण का लक्षण
नोट - [अपकर्षण विधान में बताये गये स्थिति व अनुभाग कांडक व गुणश्रेणीरूप परिणामों में प्रवृत्त होना विघ्यात संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि अंगुल/असंख्यात भाग है, परंतु यह उद्वेलना के भागाहार से असंख्यात गुणहीन है, अत: इसके द्वारा प्रति समय उठाया गया द्रव्य बहुत अधिक है। मिथ्यात्व व मिश्र मोह इन दो प्रकृतियों को जब सम्यक्प्रकृतिरूप से परिणमाता है तब यह संक्रमण होता है। वेदक सम्यक्त्व वाले को तो सर्व ही अपनी स्थिति काल में वहाँ तक होता रहता है जब तक कि क्षपणा प्रारंभ करता हुआ अध:प्रवृत्त परिणाम का अंतिम समय प्राप्त होता नहीं। उपशम सम्यक्त्व के भी अपने सर्व काल में उसी प्रकार होता रहता है, परंतु यहाँ प्रथम अंतर्मुहूर्त में गुणसंक्रमण करता है पश्चात् उसका काल समाप्त होने के पश्चात् विघ्यात प्रारंभ होता है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/8 विघ्यातविशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकांडकगुणश्रेंयादिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद्विध्यातसंक्रमणं णाम। =मंद विशुद्धता वाले जीव की, स्थिति अनुभाग के घटाने रूप भूतकालीन स्थिति कांडक और अनुभाग कांडक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विघ्यात संक्रमण है।
- विघ्यात संक्रमण का लक्षण
- अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
- अध:प्रवृत्त संक्रमण का लक्षण
नोट - [सत्ताभूत प्रकृतियों का अपने-अपने बंध के साथ संभवती यथायोग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अध:प्रवृत्त है। इसका भागाहार पल्य/असंख्यात, जो स्पष्टत: ही विघ्यात से असंख्यातगुणा हीन है। अत: इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विघ्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।
बंधकाल में या उस प्रकृति की बंध की योग्यता रखने पर उस ही गुणस्थान में होता है जिसमें कि वह प्रकृति बंध से व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्य का होता है सर्व द्रव्य का नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विघ्यात संक्रमण प्रारंभ हो जाते हैं। क्रोध को प्रत्याख्यानादि स्व जाति भेदों में अथवा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियम से फालीरूप होता है। अंतर्मुहूर्त पर्यंत ही होता है। कांडकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमण में इतना भेद है कि फालिरूप में तो अंतर्मुहूर्त पर्यंत बराबर भागाहार हानि क्रम से उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और कांडक रूप में वर्तमान समय से लेकर एक-एक अंतर्मुहूर्त काल बीतने पर भागाहार क्रम से इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात् संक्रमण करने के लिए निश्चित करता है। एक अंतर्मुहूर्त तक संक्रमाने के लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे कांडक कहते हैं। उस द्रव्य को अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत विशेष चय हानि क्रम से खपाता है। उसके समाप्त हो जाने पर अगले अंतर्मुहूर्त के लिए अगला कांडक उठाता है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/9 बंधप्रकृतीनां स्वबंधसंभवविषये य: प्रदेशसंक्रम: तदध:प्रवृत्तसंक्रमणं नाम। = बंध हुई प्रकृतियों का अपने बंध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रम होना वह अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
- यह नियम से फालीरूप होता है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575/7 तत्राध:प्रवृत्तसंक्रम: फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रम: कांडकरूपेण वर्तते। = (मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक् व मिश्र का अंतर्मुहूर्त के पश्चात् उपांत कांडक पर्यंत) अध:प्रवृत्तसंक्रमण फालिरूप प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण कांडक रूप से प्रवर्तता है।
- मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/416/578/7 अध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य, 'सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात् ( गोम्मटसार कर्मकांड/411 ) = (प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यंत) अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है, परंतु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। क्योंकि 'सम्मं मिच्छं मिस्सं' इत्यादि गाथा के द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं (देखें संक्रमण - 3.4)।
- सम्यक् व मिश्र प्रकृति के अध:प्रवृत्त संक्रम योग्य काल
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575 मिच्छे सम्मिस्साणं अध:पवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है।
- अध:प्रवृत्त संक्रमण का लक्षण
- गुण संक्रमण निर्देश
- गुण संक्रमण का लक्षण
नोट - [प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परंतु अध:प्रवृत्त से असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपांत्य कांडक पर्यंत विशेष हानि क्रम से उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परंतु अंतिम कांडक की अंतिम फालि पर्यंत गुणश्रेणी रूप से उठाता है।
जिन प्रकृतियों का बंध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता; अबंधरूप प्रकृतियों का होता है और स्व जाति में ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुण संक्रम नहीं होता। अनंतानुबंधी का गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है।।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/9 प्रतिसमयसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद् गुणसंक्रमणं नाम। = जहाँ पर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीक्रम से परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमे सो गुणसंक्रमण है।
- बंधवाली प्रकृतियों का नहीं होता
लब्धिसार/जी.प्र./75/109/17 अप्रशस्तानां बंधोज्झितप्रकृतीनां द्रव्यं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं बध्यमानसजातीयप्रकृतिषु संक्रामति। पूर्वस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थ:। = बंध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियों का द्रव्य, समय-समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये जिनका बंध पाया जाता है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरूप को छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है।
लब्धिसार/जी.प्र./224/280/8 बंधवत्प्रकृतीनां गुणसंक्रमो नास्ति। = जिनका बंध पाया जाता है ऐसी प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता।
- गुण संक्रमण योग्य स्थान
लब्धिसार/जी.प्र./75-76/109/110/16 गुणसंक्रम: अपूर्वकरणप्रथमसमये नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यत: (75) एवंविधं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं संक्रमणं प्रथमकषायाणामनंतानुबंधिनां विसंयोजने वर्तते। मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्यो: क्षपणायां वर्तते। इतरासां प्रकृतीनामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां च वर्तते।76। = गुण संक्रमण अपूर्वकरण के पहले समय में नहीं होता है। अपने योग्यकाल में होता है।75। असंख्यतगुणा क्रम लिये जो हो उसको गुण संक्रमण कहते हैं। सो अनंतानुबंधी कषायों को गुणसंक्रमण उनकी विसंयोजना में होता है। मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृति का गुण संक्रमण उनकी क्षपणा में होता है, और अन्य प्रकृतियों का गुणसंक्रमण उपशम व क्षपक श्रेणी में होता है।
- गुण संक्रमण काल का लक्षण
लब्धिसार/ भाषा./128/169/9 मिश्र मोहनीय (या विवक्षित प्रकृति का) गुण संक्रमण कर यावत् सम्यक्त्व मोहनीयरूप (या यथा योग्य किसी अन्य विवक्षित प्रकृतिरूप) परिणमै तावत् गुणसंक्रमण काल कहिये।
- गुण संक्रमण का लक्षण
- गुणश्रेणी निर्देश
- गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश
लब्धिसार/मू./583/695 गुणसेढि अंतरट्ठिदि विदियट्ठिदि इदिहवंति पव्वतिया।...।583। = गुणश्रेणी में तीन पर्व होते हैं - गुणश्रेणी, अंतर स्थिति और द्वितीय स्थिति। अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य इन तीनों में विभक्त किया जाता है।
- गुणश्रेणी निर्जरा के आवश्यक अधिकार
नोट - [गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं।]
- गुणश्रेणी का लक्षण
धवला 12/4,2,7,175/80/6 गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुणसेडी णाम। दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदव्वं थोवं। विदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। तदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। एवं णेयव्वं जाव दंसणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति। एसा गुणागारपंत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं। गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारो त्ति भणिदं होदि। = गुण शब्द का अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव का प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामक के अंतिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणि का गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है।
क्षपणासार/ मू./583/695 सुहुमगुणादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसेढी।583। = यावत् अपकृष्ट किया द्रव्य सूक्ष्म से लेकर असंख्यातगुणा क्रम लिये अवस्थितादि आयाम में दिया जाता है उसका नाम गुणश्रेणी है।
- गुणश्रेणी निर्जरा का लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड/भाषा/67/174/11 उदयावलि काल के पीछे अंतर्मुहूर्त मात्र जो गुणश्रेणि का आयाम कहिए काल प्रमाण ताविषैं दिया हुआ द्रव्य सो तिस काल का प्रथमादि समयविषैं जे पूर्वे निषेक थे, तिनकी साथि क्रमतैं असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होइ निर्जरै है सो गुणश्रेणी निर्जरा है (है।)
- गुणश्रेणी शीर्ष का लक्षण
धवला 6/1,9-8,12/261/11 सम्मत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडगे पढमसमयआगाइदे ओवट्टियमाणसु ट्ठिदिसु जं पदेसग्गसमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं। ताव असंखेज्जगुणं जाव ट्ठिदिखंडयस्स जहण्णियाए वि ट्ठिदीए चरिमसमयं अपत्तं त्ति। सा चेव ट्ठिदि गुणसेडी सीसयं जादा। = सम्यक्त्व प्रकृति के अंतिम स्थिति कांडक के प्रथम समय में ग्रहण करने पर अवर्तन की गयी स्थितियों में से जो प्रदेशाग्र उदय में दिया जाता है, वह अल्प है, अनंतर समय में असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है। इस क्रम से तब तक असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है जब तक कि स्थितिकांडक की जघन्य भी स्थिति का अंतिम समय नहीं प्राप्त होता है। वह स्थिति ही गुणश्रेणिशीर्ष कहलाती है।
लब्धिसार/भाषा/135/186/5 गुणश्रेणि आयाम का अंत का निषेक ताकौ इहाँ गुणश्रेणि शीर्ष कहते हैं।
- गुणश्रेणी आयाम का लक्षण
क्षपणासार/398/ भाषा उदयावलि से बाह्य गलितावशेष रूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है ता विषै अपकर्ष किया द्रव्य का निक्षेपण हो है।
- गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम का लक्षण
लब्धिसार/भाषा/142/198/2 - उदयादि वर्तमान समय तै लगाय यहाँ गुणश्रेणी आयाम पाइये तातै उदयादि कहिये, अर एक एक समय व्यतीत होते एक-एक समय गुणश्रेणि आयाम विषै घटता जाय (उपरितन स्थिति का समय गुणश्रेणी आयाम में न मिले) तातै गलितावशेष कहा है। ऐसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम जानना।
लब्धिसार/वचनिका/22/4 गलितावशेष गुणश्रेणी का प्रारंभ करनेकौं प्रथम समय विषैं जो गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण था, तामैं एक-एक समय व्यतीत होतै ताकै द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रैणि आयाम क्रमतैं एक-एक निषैंक घटता होइ अवशेष रहै ताका नाम गलितावशेष है। ( धवला 6/1,8-8,6/230 पर विशेषार्थ)।
- अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का लक्षण
लब्धिसार/जी.प्र./130/171/9 सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्षस्थितिकरणसमयादूर्ध्वमपि न केवलमष्टवर्षमात्रस्थितिकरणसमय एवोदयाद्यवस्थितिगुणश्रेणिरित्यर्थ:। = सम्यक्त्व मोहनीय की अष्ट वर्ष स्थिति करने के समयतैं लगाय उपरि सर्व समयनिविषैं उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।
लब्धिसार/भाषा/128/169/18 ...इहां तै पहिले (सम्यक्त्व मोह की, क्षपणा विधान के द्वारा, अष्टवर्ष स्थिति रखने के समय तै पहिलै) तो उदयावलि तै बाह्य गुणश्रेणि आयाम था। अब इहां तै लगाइ उदयरूप वर्तमान समय तै लगाइ ही गुणश्रेणि आयाम भया तातै याको उदयादि कहिये। अर (उदयादि गुणश्रेणी आयाम तै) पूर्वे तो समय व्यतीत होतै गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था, अब (उदयावलि में से) एक समय (उदय विषै) व्यतीत होतै उपरितन स्थिति का एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण समय व्यतीत होतैं भी जेताका तैता रहै। तातै अवस्थित कहिये तातैं याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।
लब्धिसार/वचनिका/22/7 अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का प्रारंभ करने का प्रथम समय द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रेणि आयाम जेता का तेता रहै। ज्यूँ ज्यूँ एक एक समय व्यतीत होइ त्यूँ त्यूँ गुणश्रेणि आयाम के अनंतरिवर्ती ऐसा उपरितन स्थिति का एक एक निषेक गुणश्रेणि आयाम विषै मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणि आयाम कहिये है।
- गुणश्रेणी आयामों का यंत्र
- अंतरस्थिति व द्वितीय स्थिति का लक्षण
क्षपणासार/भाषा/583/695/16 ताके उपरिवर्ती (गुणश्रेणि के ऊपर) जिनि निषेकनिका पूर्वे अभाव किया था तिनका प्रमाण रूप अंतरस्थिति है। ताकै उपरिवर्ती अवशेष सर्वस्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है।
- गुणश्रेणि निक्षेपण विधान
क्षपणासार/586/698-700 का भावार्थ - प्रथम समय अपकर्षण किया द्रव्य तै द्वितीयादि समयनि विषै असंख्यात गुण द्रव्य लिये समय प्रतिसमय द्रव्य को अपकर्षण करै है और उदयावली विषै, गुणश्रेणि आयाम विषै और उपरितन (द्वितीय) स्थिति विषै निक्षेपण करिये है। अंतरायाम के प्रथम स्थिति के प्रथम निषेक पर्यंत गुणश्रेणि शीर्षपर्यंत तो असंख्यात गुणक्रम लिये द्रव्य दीजिये है, ताकै उपरि (अंतर स्थिति व द्वितीय स्थिति में) संख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिये है।
- गुणश्रेणी निर्जरा विधान
धवला 6/1,9-8,5/224-227/5 उदयपयडीणमुदयावलियबाहिर ट्ठिदट्ठिदीणं पदेसग्गमोकड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडं असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उदए बहुगं देदि। विदियसमए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ त्ति।...एस कमो उदयपयडीणं चेव, ण सेसाणं, तेसिमुदयावलियब्भंतरे पडमाणपदेसग्गाभावा। उदइल्लाणमणुदइल्लाणं च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियबाहिरट्ठिदीसु ट्ठिदमोकड्डणभागहारेण खंडिदेगखंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरट्ठिदिम्हि असंखेज्जसमयप्रबद्धे देदि। तदो उवरिमट्ठिदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि। तदियट्ठिदीए तत्तो असंखेज्ज गुणे देदि। एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव गुणसेडीचरिमसमओ त्ति। तदो उवरिमाणंतराए ट्ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि। तदुवरिमट्ठिदीए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं चेव पदेसग्गं णिरंतरं देदि जाव अप्पप्पणो उक्कीरिदट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तोत्ति। णवरि उदयावलियबाहिरट्ठिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंडं समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयाहियतिभागे णिक्खिवदि पुव्वं व विसेसहीणकमेण। तदो उवरिमट्ठिदीए एसो चेव णिक्खेवो। णवरि अइच्छावणा समउतरा होदि। एवं णेयव्वं जाव अइच्छावणा आवलियमेत्ता जादा त्ति। तदो उवरिमणिक्खेवो चेव वड्ढदि जाव उक्कस्सणिक्खेवं पत्तो त्ति। जासिं ट्ठिदीणं पदेसग्गस्स उदयावलियब्भंतरे चेव णिक्खेवो तासिं पदेसग्पस्स ओकड्डणभागाहारो असंखेज्जा लोगा। एवमुवरिमसव्वसमएसु कीरमाणगुणसेडीणमेसो चेव अत्थो वत्तव्वो। = उदय में आयी हुई प्रकृतियों की उदयावली से बाहर स्थित स्थितियों के प्रदेशाग्र को (निषेकों को) अपकर्षण भागाहार (पल्य/असं.) के द्वारा खंडित करके, एक खंड को असंख्यात लोक से भाजित करके एक भाग को ग्रहणकर उदय में बहुत प्रदेशाग्र को देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है। इस प्रकार उदयावली के अंतिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है।...यह क्रम उदय में आयी हुई प्रकृतियों का ही है, शेष (सत्तावाली) प्रकृतियों का नहीं, क्योंकि उनमें उदयावली के भीतर आने वाले प्रदेशाग्रों का अभाव है।
उदय में आयी हुई और उदय में नहीं आयी हुई प्रकृतियों के प्रदेशाग्रों को तथा उदयावली के बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रों को (पूर्वोक्त प्रकार) अपकर्षण भागाहार के द्वारा खंडित करके एक खंड को ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धों को उदयावली के बाहर की स्थिति में देता है। इससे ऊपर की स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धों को देता है। तृतीय स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित सयम प्रबद्धों को देता है। इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा गुणश्रेणी के अंतिम समय तक ले जाना चाहिए।
उससे ऊपर की अनंतर स्थिति में असंख्यात गुणित हीन द्रव्य को देता है। उससे ऊपर की स्थिति में विशेषहीन द्रव्य को देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्र को निरंतर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलि से बाहर की स्थिति के...एक समय कम 2/3 का अतिस्थापन करके (प्रारंभ का) एक समय अधिक आवलि के त्रिभाग में पूर्व के समान विशेषहीन क्रम से निक्षिप्त करता है। उससे ऊपर की स्थिति में (भी) यही (विशेष हीन क्रम वाला) निक्षेप है। केवल विशेषता यह है क अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिस्थापना पूर्णावली मात्र हो जाती है। उससे ऊपर उपरिम विशेष ही उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है।
जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावली के भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार से सर्व समयों में की जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। ( लब्धिसार/जी.प्र./68-74 ) विशेषता यह है कि प्रथम समय में अपकर्षण...देखें अपकर्षण ।
- गुणश्रेणी विधान विषयक यंत्र
- नोकर्म की गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती
धवला 9/4,1,71/352/1 णोकम्मस्स गुणसेडीए णिज्जराभावादो। = नोकर्म की गुणश्रेणी रूप से निर्जरा नहीं होती।
- गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश
- सर्व संक्रमण निर्देश
- सर्व संक्रमण का लक्षण
नोट - [अंत की फाली में शेष बचे सर्व प्रदेशों का अन्य प्रकृतिरूप होना सर्व संक्रमण है। क्योंकि इसका भागाहार एक है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/10 चरमकांडकचरमफाले: सर्वप्रदेशाग्रस्य यत्संक्रमणं तत् सर्वसंक्रमणं णाम। = अंत के कांडक की अंत की फालि के सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप होना वह सर्व संक्रमण है।
- सर्व संक्रमण का लक्षण