मोक्षमार्ग: Difference between revisions
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<p class="HindiText">सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र, इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। यह ही मोक्षमार्ग है। परंतु इन तीनों में से कोई एक या दो आदि पृथक्-पृथक् रहकर मोक्ष के कारण नहीं हैं, बल्कि समुदित रूप से एकरस होकर ही ये तीनों युगपत् मोक्षमार्ग हैं। क्योंकि किसी वस्तु को जानकर उसकी श्रद्धा या रुचि हो जाने पर उसे प्राप्त करने के प्रति आचरण होना भी स्वभाविक है। आचरण के बिना व ज्ञान, रुचि व श्रद्धा यथार्थ नहीं कहे जा सकते। भले ही व्यवहार से इन्हें तीन कह लो पर वास्तव में यह एक अखंड चेतन के ही सामान्य व विशेष अंश हैं। यहाँ भेद रत्नत्रयरूप व्यवहार मार्ग को अभेद रत्नत्रयरूप निश्चयमार्ग का साधन कहना भी ठीक ही है, क्योंकि कोई भी साधक अभ्यास दशा में पहले सविकल्प रहकर ही आगे जाकर निर्विकल्पता को प्राप्त करता है। <br /> | <p class="HindiText">सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र, इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। यह ही मोक्षमार्ग है। परंतु इन तीनों में से कोई एक या दो आदि पृथक्-पृथक् रहकर मोक्ष के कारण नहीं हैं, बल्कि समुदित रूप से एकरस होकर ही ये तीनों युगपत् मोक्षमार्ग हैं। क्योंकि किसी वस्तु को जानकर उसकी श्रद्धा या रुचि हो जाने पर उसे प्राप्त करने के प्रति आचरण होना भी स्वभाविक है। आचरण के बिना व ज्ञान, रुचि व श्रद्धा यथार्थ नहीं कहे जा सकते। भले ही व्यवहार से इन्हें तीन कह लो पर वास्तव में यह एक अखंड चेतन के ही सामान्य व विशेष अंश हैं। यहाँ भेद रत्नत्रयरूप व्यवहार मार्ग को अभेद रत्नत्रयरूप निश्चयमार्ग का साधन कहना भी ठीक ही है, क्योंकि कोई भी साधक अभ्यास दशा में पहले सविकल्प रहकर ही आगे जाकर निर्विकल्पता को प्राप्त करता है। <br /> | ||
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Revision as of 10:47, 2 May 2022
सिद्धांतकोष से
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र, इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। यह ही मोक्षमार्ग है। परंतु इन तीनों में से कोई एक या दो आदि पृथक्-पृथक् रहकर मोक्ष के कारण नहीं हैं, बल्कि समुदित रूप से एकरस होकर ही ये तीनों युगपत् मोक्षमार्ग हैं। क्योंकि किसी वस्तु को जानकर उसकी श्रद्धा या रुचि हो जाने पर उसे प्राप्त करने के प्रति आचरण होना भी स्वभाविक है। आचरण के बिना व ज्ञान, रुचि व श्रद्धा यथार्थ नहीं कहे जा सकते। भले ही व्यवहार से इन्हें तीन कह लो पर वास्तव में यह एक अखंड चेतन के ही सामान्य व विशेष अंश हैं। यहाँ भेद रत्नत्रयरूप व्यवहार मार्ग को अभेद रत्नत्रयरूप निश्चयमार्ग का साधन कहना भी ठीक ही है, क्योंकि कोई भी साधक अभ्यास दशा में पहले सविकल्प रहकर ही आगे जाकर निर्विकल्पता को प्राप्त करता है।
- मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
- मोक्षमार्ग का लक्षण।
- तीनों की युगपतता ही मोक्षमार्ग है।
- सामायिक संयम व ज्ञानमात्र से मुक्ति कहने पर भी तीनों का ग्रहण हो जाता है।
- [#1.4 | वास्तव में मार्ग तीन नहीं एक है। ]]
- युगपत् होते हुए भी तीनों का स्वरूप भिन्न है।
- तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती।
- सयोगी गुणस्थानों में रत्नत्रय की पूर्णता हो जाने पर भी मोक्ष क्यों नहीं होता ? − देखें केवली - 2.2।
- इन तीनों में सम्यग्दर्शन प्रधान है। −देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
- मोक्षमार्ग में योग्य गति, लिंग, चारित्र आदि का निर्देश।−देखें मोक्ष - 4।
- मोक्षमार्ग में अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं।−देखें ध्याता - 1।
- निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
- सविकल्प व निर्विकल्प निश्चय मोक्षमार्ग निर्देश।−देखें मोक्षमार्ग - 4.6।
- दर्शन ज्ञान चारित्र में कथंचित् एकत्व
- ज्ञानमात्र ही मोक्षमार्ग नहीं है। −देखें मोक्षमार्ग - 1.2।
- सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र में अंतर।−देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- ज्ञानमात्र ही मोक्षमार्ग नहीं है। −देखें मोक्षमार्ग - 1.2।
- निश्चय व्यवहार मार्ग की कथंचित् मुख्यता गौणता व समन्वय
- निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता।
- निश्चय ही एक मार्ग है, अन्य नहीं।
- केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकार से किया जाता है।
- व्यवहार मार्ग की कथंचित् गौणता।
- व्यवहारमार्ग निश्चय का साधन है।
- दोनों के साध्यसाधन भाव की सिद्धि।
- मोक्षमार्ग में अभ्यास का महत्त्व।−देखें अभ्यास ।
- मोक्षमार्ग में प्रयोजनीय पुरुषार्थ। −देखें पुरुषार्थ - 6।
- साधु व श्रावक के मोक्षमार्ग में अंतर।−देखें अनुभव - 5।
- परस्पर सापेक्ष ही मोक्षमार्ग कार्यकारी है।−देखें धर्म - 6।
- निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग में मोक्ष व संसार का कारणपना।−देखें धर्म - 7।
- शुभ व शुद्धोपयोग की अपेक्षा निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग।−देखें धर्म ।
- अंध पंगु के दृष्टांत से तीनों का समन्वय।−देखें मोक्षमार्ग - 1.2. राजवार्तिक ।
- मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
- मोक्षमार्ग का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/1/1 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।1। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है।
- तीनों की युगपतता ही मोक्षमार्ग है
प्रवचनसार/237 ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वदि।237। = आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।
मोक्षपाहुड़/59 तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं। = जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनों ही अकार्यकारी हैं। अतः ज्ञान व तप दोनों संयुक्त होने से ही निर्वाण प्राप्त होता है।
दर्शनपाहुड़/मूल/30 णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।30। = सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों के मेल से ही संयम होता है। उससे जीव मोक्ष प्राप्त करता है। ( दर्शनपाहुड़/मूल/32 )।
मू. आ./898-899 णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।898। णाणं पयासओ तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।899। = जहा़ज चलाने वाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहा़ज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं।898। ज्ञान तो प्रकाशक है, तप-कर्म-विनाशक है और चारित्र रक्षक। इन तीनों के संयोग से मोक्ष होता है।899।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5 मार्गः इति च एकवचन-निर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः। तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति। अतः सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं मुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः। = सूत्र में ‘मार्गः’ ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है’, यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र में पृथक्-पृथक् रहते हुए मार्गपने का निषेध हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष का साक्षत् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। ( महापुराण/24/120-122 ), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/236-237 ); ( न्यायदीपिका/3/73/113 )।
राजवार्तिक/1/1/49/14/1 अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसंबंध इति निःप्रतिद्वंद्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षेणाभिसंबंधो; दर्शनचारित्राभावात्। न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात्। न च क्रियामात्रादेव; ज्ञानश्रद्धानाभावात्। यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति।..... यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति।...उक्तंच−हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलांध को दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।1। संयोगमेवेह वदंति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति। अंधश्च पंगुश्च वने प्रविष्टो तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।2। = औषधि के पूर्णफल की प्राप्ति के लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनों के मेल से उनके फल की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र का अभाव होने के कारण ज्ञानमात्र से, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठान के अभाव के कारण श्रद्धानमात्र से और ज्ञान तथा श्रद्धान के अभाव के कारण क्रियामात्र से मोक्ष नहीं होता, क्योंकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्ग के तीनपने की कल्पना जागृत होती है। कहा भी है− ‘क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों के क्रिया निष्फल है। एक चक्र से रथ नहीं चलता, अतः ज्ञानक्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानल से व्याप्त वन में अंधा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगड़ा देखता-देखता जल जाता है। यदि अंधा और लंगड़ा दोनों मिल जायें और अंधे के कंधों पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का उद्धार हो जायेगा तब लंगड़ा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य करेगा तथा अंधा चलता हुआ चारित्र का कार्य करेगा। इस प्रकार दोनों ही वन से बचकर नगर में आ सकते हैं। (पद्मनन्दी पंचविंशतिका/1/75 ), ( विज्ञानवाद - 2)।
- सामायिक संयम या ज्ञानमात्र कहने से ही तीनों का ग्रहण हो जाता है
राजवार्तिक/1/1/49/14/14 ‘अनंताः सामायिकसिद्धाः’ इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति। कथम्। ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य सामायिकचारित्रोपपत्तेः। समय एकत्वमभेद इत्यनर्थांतरम्, समय एव सामायिकं चारित्रं सर्वसावद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन संग्रहादिति। = ‘अनंत जीव सामायिक चारित्र से सिद्ध हो गये’ यह वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और अभेद ये एकार्थवाची शब्द हैं। समय ही सामायिक चारित्र है। अर्थात् समस्त पाप योगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतराग में प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/72/194/10 अत्राह प्रभाकरभट्टः। हे भगवन्, यदि विज्ञानमात्रेण मोक्षो भवति तर्हि सांख्यादयो वदंति ज्ञानमात्रादेव मोक्षः तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह। अत्र वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन वीतरागविशेषणेन चारित्रं लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते, पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति। तेषां मते तु वीतरागविशेषणं नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव। तेन दूषणं भवतीति भावार्थः। = प्रश्न−हे भगवन् ! यदि विज्ञानमात्र से ही मोक्ष होता है(देखें आगे मोक्षमार्ग - 3) तो सांख्य, बौद्ध आदि लोग ज्ञान मात्र से ही मोक्ष कहते हैं; उन्हें दूषण क्यों देते हो ? उत्तर−हमारे यहाँ ‘वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान’ ऐसा कहा गया है। वहाँ ‘वीतराग’ विशेषण से तो चारित्र का ग्रहण हो जाता है और ‘सम्यक् विशेषण से सम्यग्दर्शन का ग्रहण हो जाता है। पानकवत् एक को ही यहाँ तीनपना प्राप्त है। परंतु उनके मत में न वीतराग विशेषण है और न सम्यक् विशेषण। ज्ञान मात्र कहते हैं। इसलिए उनको दूषण दिया जाता है, ऐसा भावार्थ है।
द्रव्यसंग्रह टीका/36/152/8 (क्रमशः) कश्चिदाह-सद्दृष्टीना वीतरागविशेषणं किमर्थं। रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहारः। अंधकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति। स च कूपे पतनं सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति। यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति। यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति। तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत्। अन्यः कोऽपि रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम्। = प्रश्न−सम्यग्दृष्टियों को वीतराग विशेषण किसलिए दिया जाता है। ‘रागादिक हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं’ इतना मात्र भेद विज्ञान हो जाने पर राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। उत्तर− अंधकार में दीपक रहित कोई पुरुष कुएँ में गिरता है तो कोई दोष नहीं, परंतु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो उसे दीपक का कोई फल नहीं है, कुएँ में गिरने आदि का त्याग करना ही दीपक का फल है। इसी प्रकार भेदविज्ञान रहित व्यक्ति को तो कर्म बंधते ही हैं, परंतु भेदविज्ञान हो जाने पर भी जितने अंश में रागादि का अनुभव होता है, उतने अंश में बंधता ही है और उसको भी उतने अंश में भेदविज्ञान का फल नहीं है। जो भेदविज्ञान हो जाने पर रागादिक का त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञान का फल हुआ जानना चाहिए।
- वास्तव में मार्ग तीन नहीं एक है
न्यायदीपिका/3/73/113 सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्गः उपायः न तु मार्गाः।...इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्धः। = सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का अर्थात् सकलकर्म के क्षय का एक मार्ग है, अनेक मार्ग नहीं हैं। सूत्र में एकवचन के प्रयोग से यह बात सिद्ध होती है।
- युगपत् होते हुए भी तीनों का स्वरूप भिन्न है
राजवार्तिक/1/1/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्; न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशवत्। (60/16/3) । ज्ञानचारित्रयोरेकभेदादेकत्वम् अगम्याववोधवदिति चेत्; न; आशूत्पत्तौ सूक्ष्मकालाप्रतिपत्तेः उत्पलपत्रशतव्यधनवत् (63/16/23)। अर्थभेदाच्च। (64/17/1)। कालभेदाभावो नार्थभेदहेतुः गतिजात्यादिवत्। (65/17/3)। = यद्यपि अग्नि के ताप व प्रकाशवत् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं परंतु तत्त्वों का ज्ञान व उनका श्रद्धान रूप से इनके स्वरूप में भेद है। जैसे अंधकार में ग्रहण की गयी माता को बिजली की चमक का प्रकाश होने पर अगम्य जानकर छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञान व चारित्र यद्यपि युगपत् होते प्रतीत होते हैं परंतु वास्तव में उनमें कालभेद है, जो कि अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता । जैसे कि सौ कमलपत्रों को एक सुई से बींधने पर प्रत्येक पत्र के बिंधने का काल पृथक्-पृथक् प्रतीति में नहीं आता है। अतः काल की एकता का हेतु देकर ज्ञान व चारित्र में एकता नहीं की जा सकती। दूसरे काल का अभेद हो जाने से अर्थ का भी अभेद हो जाता हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जैसे कि मनुष्य गति और उसकी पंचेंद्रिय जाति का काल अभिन्न होने पर भी वे दोनों भिन्न हैं।
- तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती
राजवार्तिक/1/1/ वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्। (69/17/24)। उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभ। (70/17/26)। तदनुपपत्तिः, अज्ञानपूर्वकश्रद्धानप्रसंगात्। (71/17/30)। न वा; यावति ज्ञानमित्येतत् परिसमाप्यते तावतोऽसंभवात्तयापेक्षं वचनम्।.....तदपेक्ष्य संपूर्णद्वादशांगचतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतं केवलं च भजनीयमुक्तम्। तथा पूर्वं सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं संयतासंयतस्य सर्वचारित्रं च प्रमत्तदारभ्य सूक्ष्मसांपरायांतानां यच्च यावच्च नियमादस्ति, संपूर्णं यथाख्यातचारित्रं तु भजनीयम्। (74/18/7)। अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य लाभे क्षायिकं सम्यग्ज्ञानं भजनीयम्।...सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम्। (75/18/20)। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी और न भी हो। परंतु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है। जैसे−जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होंगे ही, पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो। प्रश्न−ऐसा मानने से अज्ञानपूर्वक श्रद्धान का प्रसंग आता है। उत्तर−पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि ज्ञानसामान्य को। ज्ञान की पूर्णता श्रुतकेवली और केवली के होती है। सम्यग्दर्शन के होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जायेगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी समझ लेना चाहिए। सम्यग्दर्शन के होने पर देश, सकल या यथाख्यात चारित्र, संयतासंयत को सकल व यथाख्यात चारित्र, 6-10 गुणस्थानवर्ती साधु को यथाख्यात चारित्र भजनीय हैं। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाने पर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भजनीय है। अथवा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में से किसी एक या दोनों के प्राप्त हो जाने पर पूर्ण चारित्र (अयोगी गुणस्थान का यथाख्यात चारित्र) भजनीय है।
- मोक्ष के अन्य कारणों का निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/1/4/15/6 मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च। = मोक्ष के प्रधान हेतु संवर निर्जरा हैं। ( राजवार्तिक/1/4/3/25/9 )।
धवला 7/2, 1, 7/ गाथा 3/9 ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ....।3। = औदयिक भाव बंध करने वाले हैं तथा औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं।
धवला 7/2, 1, 7/ पृष्ठ/पंक्ति सम्मद्दंसण-संजमाकसायाजोगा मोक्खकरणाणि। (9/6)। एदेसिं पडिवक्खा सम्मत्तुपत्ती देससंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंयोजण-दंसणमोहक्खवणचरित्तमोहुवसामणुवसंत-कसाय-चरित्तमोहक्खवण-खीणकसाय-सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्खपच्चया, एदेहिंतो समयं पडि असंखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलंभादो। (13/10)। = बंध के मिथ्यात्वादि प्रत्ययों से विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय, अयोग अथवा (गुणस्थानक्रम से) सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशसंयम, संयम, अनंतानुबंधीविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशांतकषाय, चारित्रमोह क्षपण, क्षीणकषाय व सयोगकेवली के परिणाम भी मोक्ष के प्रत्यय हैं, क्योंकि इनके द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा पायी जाती है।
- मोक्षमार्ग का लक्षण
- निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
- मोक्षमार्ग के दो भेद-निश्चय व व्यवहार
तत्त्वसार/9/2 निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। = निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। ( नयचक्र बृहद्/284 ); ( तत्त्वानुशासन/28 )।
- व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण भेदरत्नत्रय
पंचास्तिकाय/160 धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चेट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।160। = धर्मास्तिकाय आदि का अर्थात् षट्द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व व नव पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व संबंधी आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग है। ( समयसार/276 ); ( तत्त्वानुशासन/30 )।
समयसार/155 जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।155। जीवादि (नव पदार्थों का) श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन ही पदार्थों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादि का परिहार सम्यक्चारित्र है। यही मोक्ष का मार्ग है। ( नयचक्र बृहद्/321 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/39/162/8 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/14/128/12 )।
तत्त्वसार/9/4 श्रद्धानाधिगमोपेक्षा या पुनः स्युः परात्मना। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः। = (निश्चय मोक्षमार्ग रूप से कथित अभेद) आत्मा में सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र यदि भेद अर्थात् विकल्प की मुख्यता से प्रगट हो रहा हो तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय को व्यवहार मोक्षमार्ग समझना चाहिए।
परमात्मप्रकाश टीका/2/31/150/14 व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषट्द्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानज्ञानाहिंसादिव्रतशीलपरिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य। = व्यवहार से सर्वज्ञप्रणीत शुद्धात्मतत्त्व को आदि देकर जो षट्द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ इनके विषय में सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान करना तथा अहिंसादि व्रत शील आदि का पालन करना (चारित्र) ऐसा भेदरत्नत्रय का स्वरूप है।
- निश्चय मोक्षमार्ग का लक्षण अभेद रत्नत्रय
पंचास्तिकाय/161 णिच्छयणयेण भणिदो तिहि समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि किं चि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।161। = जो आत्मा इन तीनों (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र) द्वारा समाहित होता हुआ (अर्थात् निजात्मा में एकाग्र होता हुआ) अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता है (अर्थात् करने व छोड़ने के विकल्पों से अतीत हो जाता है, वह आत्मा ही निश्चय नय से मोक्षमार्ग कहा गया है। ( तत्त्वसार/9/3 ); ( तत्त्वानुशासन/31 )।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/13 पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पि अप्पउ जो जि। दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि। = जो आत्मा अपने से आपको देखता है, जानता है व आचरण करता है वही विवेकी दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप परिणत जीव मोक्ष का कारण है। ( नयचक्र बृहद्/323 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/2 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/14/128/13 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/161/233/8 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/39/ 162/10 )।
परमात्मप्रकाश टीका/2/31/151/1 निश्चयेन वीतरागसदानंदैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य......। = निश्चय से वीतराग सुखरूप परिणत जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसी के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुचरण रूप अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है। ( नियमसार/ता./ वृ./2); ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/2/8/10 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/87/206/15 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/अधि. 2 की चूलिका/82/7 )।
- निश्चय मोक्षमार्ग का लक्षण शुद्धात्मानुभूति
योगसार/योगेंदुदेव/16 अप्पादंसणु एक्कु परु अण्णु ण किं पि वियाणि। मोक्खहँ कारण जोइया णिच्छइँ एहउ जाणि।16। = हे योगिन् ! एक परम आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ भी मोक्ष का कारण नहीं। यह तू निश्चय समझ।
नयचक्र बृहद्/342 की उत्थानिका में उद्धृत− ‘‘णिच्छयदो खलु मोक्खो तस्स य हेऊ हवेइ सब्भावो।’’ (सब्भावणयचक्क/379)। निश्चय से मोक्ष का हेतु स्वभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242 एकाग्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगंतव्यः। = एकाग्रता लक्षण श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है, ऐसा मोक्षमार्ग ही है, ऐसा समझना चाहिए।
ज्ञानार्णव/18/32 अपास्य कल्पनाजालं चिदानंदमये स्वयम्। यः स्वरूपे लयं प्राप्तः स स्याद्रत्नत्रयास्पदम्।32। = जो मुनि कल्पना के जाल को दूर करके अपने चैतन्य और आनंदमय स्वरूप में लय को प्राप्त होता है, वही निश्चयरत्नत्रय का स्थान होता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/158/229/12 ततः स्थितं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे जीवस्वभावे निश्चालावस्थानं मोक्षमार्ग इति। = अतः यह बात सिद्ध होती है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षण वाले जीव स्वभाव में निश्चल अवस्थान करना ही मोक्षमार्ग है।
- निश्चय मोक्षमार्ग के अपर नाम
द्रव्यसंग्रह टीका/56/225/13 तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम्। तच्चपर्यायनामांतरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते। (इन नामों का केवल भाषानुवाद ही लिख दिया है संस्कृत नहीं).......इत्यादि समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितमाह्लादैकसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्ष-मार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञेयानि भवंति परमात्मतत्त्वविद्भिरिति। = वह (वीतराग परमानंद सुख का प्रतिभास) ही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। उसको पर्यायांतर शब्दों द्वारा क्या-क्या कहते हैं, सो बताते हैं।−- शुद्धात्मस्वरूप,
- परमात्मस्वरूप,
- परमहंसस्वरूप,
- परमब्रह्मस्वरूप,
- परमविष्णुस्वरूप,
- परमनिजस्वरूप,
- सिद्ध,
- निरंजनरूप,
- निर्मलस्वरूप,
- स्वसंवेदनज्ञान,
- परमतत्त्वज्ञान,
- शुद्धात्मदर्शन,
- परमावस्थास्वरूप,
- परमात्मदर्शन,
- परम तत्त्वज्ञान,
- शुद्धात्मज्ञान,
- ध्येय स्वरूप शुद्धपारिणामिक भाव,
- ध्यानभावनारूप,
- शुद्धचारित्र,
- अंतरंग तत्त्व,
- परमतत्त्व,
- शुद्धात्मद्रव्य,
- परमज्योति,
- शुद्धात्मानुभूति,
- आत्मद्रव्य,
- आत्मप्रतीति,
- आत्मसंवित्ति,
- आत्मस्वरूप की प्राप्ति,
- नित्यपदार्थ की प्राप्ति,
- परमसमाधि,
- परमानंद,
- नित्यानंद,
- स्वाभाविक आनंद,
- सदानंद,
- शुद्धात्मपठन,
- परमस्वाध्याय,
- निश्चय मोक्ष का उपाय,
- एकाग्रचिंता निरोध,
- परमज्ञान,
- शुद्धोपयोग,
- भूतार्थ,
- परमार्थ,
- पंचाचारस्वरूप,
- समयसार,
- निश्चय षडावश्यक स्वरूप,
- केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण,
- समस्त कर्मों के क्षय का कारण,
- निश्चय चार आराधना स्वरूप,
- परमात्मभावनारूप,
- सुखानुभूतिरूप परमकला,
- दिव्यकला,
- परम अद्वैत,
- परमधर्मध्यान,
- शुक्लध्यान,
- निर्विकल्पध्यान,
- निष्कलध्यान,
- परमस्वास्थ्य,
- परमवीतरागता,
- परम समता,
- परम एकत्व,
- परम भेदज्ञान,
- परम समरसी भाव
−इत्यादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमाह्लादक सुख लक्षण वाले ध्यानस्वरूप - ऐसे निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले अन्य भी बहुत से पर्याय नाम जान लेने चाहिए।
- निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग के लक्षणों का समन्वय
परमात्मप्रकाश/मूल/2/40 दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सपभाउ करेइ। एयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।40। = दर्शन ज्ञान चारित्र वास्तव में उसी के होते हैं, जो समभाव करता है। अन्य किसी के इन तीनों में से एक भी नहीं होता, इस प्रकार जिनेंद्र देव कहते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/240 यः खलु....सकलपदार्थज्ञेयाकारकरंबितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चलां वृत्तिमिच्छन्...‘यमसाधनीकृतशरीरपात्र:....समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चित्तवृत्तेः......निष्पीडय निष्पीडय कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धदृशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात् संयत एवं स्यात्। तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यं सिद्ध्यति। = जो पुरुष सकल ज्ञेयाकारों से प्रतिबिंबित विशद एक ज्ञानाकार रूप आत्मा का श्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ, आत्मा में ही नित्य निश्चल वृत्ति को (निश्चय चारित्र को) इच्छता हुआ, संयम के साधनीभूत शरीर मात्र को पंच समिति आदि (व्यवहार चारित्र) के द्वारा तथा पंचेंद्रियों के निरोध द्वारा मनवचनकाय के व्यापार को रोकता है। तथा ऐसा होकर चित्तवृत्ति में से कषायसमूह को अत्यंत मर्दन कर-कर के अक्रम से मार डालता है, वह व्यक्ति वास्तव में सकल परद्रव्य से शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्र स्वभावरूप से रहने वाले आत्मतत्त्व में नित्य निश्चय परिणति (अभेद रत्नत्रय) उत्पन्न होने से साक्षात् संयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व (भेदरत्नत्रय) की युगपतता के साथ आत्मज्ञान (निश्चय मोक्षमार्ग) की युगपतता सिद्ध होती है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242 ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण श्रेयज्ञातृक्रिडयांतरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन....परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावृत्तत्वादभिव्यक्तैकाग्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगंतव्यः। तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेनैकाग्रयं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वाद्द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः। = ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की (अर्थात् स्व व पर की) यथावस्थित प्रतीतिरूप तो सम्यग्दर्शन पर्याय तथा उसी स्व पर तत्त्व की यथावस्थिति अनुभूति रूप ज्ञानपर्याय तथा उसी की क्रियांतर से निवृत्ति के द्वारा (अर्थात् ज्ञेयों का आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जानने की निवृत्ति के द्वारा (अर्थात् ज्ञेयों का आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जानने की निवृत्ति करके) एक दृष्टिज्ञातृतत्त्व (निजात्मा) में परिणतिरूप चारित्र पर्याय है। इन तीनों पर्यायों रूप युगपत् परिणत आत्मा के आत्मनिष्ठता होने पर संयतत्व होता है। वह संयतत्व ही एकाग्रयलक्षण वाला श्रामण्य या मोक्षमार्ग है। क्योंकि वहाँ पानकवत् अनेकात्मक एक (विशद ज्ञानाकार) का अनुभव होने पर भी समस्त परद्रव्यों से निवृत्ति होने के कारण एकाग्र्यता अभिव्यक्त है। वह संयतत्त्व भेदात्मक है, इसलिए उसे ही पर्याय प्रधान व्यवहारनय से ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा कहते हैं। वह अभेदात्मक भी है, इसलिए द्रव्य प्रधान निश्चयनय से ‘एकाग्रता मोक्षमार्ग है’ ऐसा कहते हैं। समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक हैं, इसलिए उभयग्राही प्रमाण से ‘वे दोनों अर्थात् रत्नत्रय व एकाग्रता) मोक्षमार्ग हैं, ऐसा कहते हैं। ( तत्त्वसार/9/21 )।
परमात्मप्रकाश/टीका/96/91/4 यथा द्राक्षाकर्पूरश्रीखंडादिबहुद्रव्यैर्निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैकं भण्यते, तथा शुद्धात्मानुभूतिलक्षणैकनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मा त्वभेदविवक्षया एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः। = जिस प्रकार द्राक्षा कपूर व खांड आदि बहुत से द्रव्यों से बना हुआ भी पानक अभेद विवक्षा से एक कहा जाता है, उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति लक्षण वाले निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों के द्वारा परिणत अनेक रूप वाला भी आत्मा अभेद विवक्षा से एक भी कहा जाता है, ऐसा भावार्थ है।
पंचाध्यायी/ उत्तरार्ध/766 सत्यं सद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रांतर्गतं मिथः। त्रयाणामविनाभावदिदं त्रयमखंडितं।766। = सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चारित्र में अंतर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि तीनों अविनाभावी हैं। इसलिए ये तीनों अखंडित रूप से एक ही हैं।
- अभेद मार्ग में भेद करने का कारण
समयसार/17-18 जह णामको वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तोतुं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पणत्तेण।17। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।18। = जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, इसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुष को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए और अनुभव द्वारा उसमें लय हो जाना चाहिए।
- मोक्षमार्ग के दो भेद-निश्चय व व्यवहार
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों से समन्वित मुक्ति मार्ग । महापुराण 24.116, 120, पद्मपुराण 105.210, हरिवंशपुराण 47.10-11