आहारक: Difference between revisions
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Revision as of 15:48, 31 August 2022
सिद्धांतकोष से
जीव हर अवस्था में निरंतर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले ही कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारणा के प्रथण क्षण से ही वह आहारक हो जाता है। परंतु विग्रहगति व केवली समुद्घात में वह उस आहार को ग्रहण न करने के कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं बड़े ऋषियों को एक ऋद्धि प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इंद्रियागोचर एक विशेष प्रकार का शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीर से बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कहीं भी अर्हंत भगवान् स्थित हो वहाँ तक शीघ्रता से जाकर उनका स्पर्श कर शीघ्र लौट आते हैं, पुनः पूर्ववत् शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, ऐसे शरीर को आहारक शरीर कहते हैं। यद्यपि इंद्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियों को ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है। इस प्रकार आहारक शरीर धारक का शरीर से बाहर निकलना आहारक समुद्घात कहलाता है। नोकर्माहार के ग्रहण करते रहने के कारण इसकी आहारक संज्ञा है।
- आहारक मार्गणा निर्देश
- आहारक मार्गणा के भेद
- आहारक जीव का लक्षण
- अनाहारक जीव का लक्षण
- आहारक जीव निर्देश
- अनाहारक जीव निर्देश
- आहारक मार्गणा में नोकर्म का ग्रहण है, कवलाहारका नहीं
- पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं
- कार्माण कर्मयोगी को अनाहारक कैसे कहते हो
- आहारक शरीर निर्देश
- आहारक शरीर का लक्षण
- आहारक शरीर का वर्ण धवल ही होता है
- मस्तक से उत्पन्न होता है
- कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करने में समर्थ
- आहारक शरीर में निगोद राशि नहीं होती
- आहारक शरीर की स्थिति
- आहारक शरीर का स्वामित्व
- आहारक शरीर का कारण व प्रयोजन
- आहारक समुद्घात निर्देश
- आहारक ऋद्धि का लक्षण
- आहारक समुद्घात का लक्षण
- आहारक समुद्घात का स्वामित्व
- इष्टस्थान पर्यंत संख्यात योजन लंबे सूच्यंगुल योजन चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार है
- समुद्घात गत आत्म प्रदेशों का पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो
- आहारक व मिश्र काययोग निर्देश
- आहारक व आहारक मिश्र काययोग का लक्षण
- आहारक काययोग का स्वामित्व
- आहारक योग का स्त्री व नपुंसक वेद के साथ विरोध तथा तत्संबंधी शंका समाधान आदि<
- आहारक काययोगी को अपर्याप्तपना कैसे
- आहारक काय योग में कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना
- आहारक मिश्रयोगी में अपर्याप्तपना कैसे संभव है
- यदि है तो वहां अपर्याप्तावस्था में भी संयम कैसे संभव है
• आहारक व अनाहारक मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व - देखें आहारक - 1.4-5
• आहारक व अनाहारक के स्वामित्व संबंधी जीव-समास, मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ - देखें सत्
• आहारक व अनाहारक के सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - क्षेत्र आहारक , अल्पबहुत्व 2.6.5 , भाव , अंतर 4.2 , दे वह वह नाम
• आहारक मार्गणा में कर्मों का बंध उदय व सत्त्व - दे वह वह नाम
• भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम - दे मार्गणा
• पाँचो शरीरोंका उत्तरोत्तर सूक्ष्मत्व व उनका स्वामित्व - देखें शरीर I.5,2
• आहारक शरीर सर्वथा अप्रतिघाती नहीं है - देखें वैक्रियक
• आहारक शरीर नामकर्म का बंध उदय सत्त्व - देखें वह वह नाम
• आहारक शरीर की संघातन परिशातन कृति - देखें धवला पुस्तक संख्या - 9.पृ.355-451
• आहारक शरीर के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संचय का स्वामित्व - देखें षट्खंडागम पुस्तक - 14.5,6/सू.445-490/414
• केवल एक ही दिशा में गमन करता है तथा स्थिति संख्यात समय है - देखें समुद्घात
• सातों समुद्घात के स्वामित्व की ओघ आदेश प्ररूपणा - देखें समुद्घात
• आहारक समुद्घात में वर्ण शक्ति आदि - देखें आहारक शरीरवत्
• आहारक शरीर व योग का मनःपर्ययज्ञान, प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिहार विशुद्धि संयम से विरोध है - देखें परिहार विशुद्धि
• आहारक काययोग और वैक्रियक काययोग की युगपत् प्रवृत्ति संभव नहीं - देखें ऋद्धि - 10
• पर्याप्तावस्था में भी कार्माण शरीर तो होता है, फिर तहाँ मिश्र योग क्यों नहीं कहते? - देखें काय - 3
• आहारक व मिश्र योग में मरण संबंधी - देखें मरण - 3
1. आहारक मार्गणा निर्देश
1. आहारक मार्गणा के भेद
षट्खंडागम पुस्तक 1/1,1/सू.175/409 आहाराणुवादेण अत्थि आहारा अणाहारा ॥175॥
= आहारक मार्गणा के अनुवाद से आहारक और अनाहारक जीव होते हैं ॥175॥
द्रव्यसंग्रह वृ./टीका 13/40 आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा।
= आहारक अनाहारक जीव के भेद से आहारक मार्गणा भी दो प्रकार की है।
2. आहारक जीव का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/176 आहारइ जीवाणं तिण्हं एक्कदरवग्गाणाओ य। भासा मणस्स णियमं तम्हा आहारओ भणिओ ॥176॥
= जो जीव औदारिक वेक्रियक और आहारक इन शरीरों मे-से उदय को प्राप्त हुए किसी एक शरीर के योग्य शरीर वर्गणा को तथा भाषा वर्गणा और मनोवर्गणा को नियम से ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है ॥176॥
(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/177), ( धवला पुस्तक 1/1,1,5/97-98/153), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/240), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 664-666)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/30/186/9 त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः।
= तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को आहार कहते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 2/30/4/140), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/94)
राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/604/19 उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावत् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति।
= उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का आहार है। उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामकर्म के उदयाभाव से आहार होता है। शरीर नामकर्म के उदयाभाव और विग्रहगति नामकर्म के उदय से अनाहार होता है।
3. अनाहारक जीव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/30/186/10 तदभावनाहारकः ॥30॥
= तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों रूप आहार जिनके नहीं होता, वह अनाहारक कहलाते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 2/30/4/140), (राजवार्तिक अध्याय 9/7/11-604/19), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/94)
4. आहारक जीव निर्देश
पं.सा./प्रा.1/177 विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥177॥
= विग्रहगत जीव, प्रतर व लोक-पूरण प्राप्त सयोग केवली और अयोग केवली, तथा सिद्ध भगवान् के अतिरिक्त शेष जीव आहारक होते हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,4/99/153), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 666)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/30/186/11 उपपादक्षेत्रं ऋजव्यां गतौ आहारकः।
= जब यह जीव उपपाद क्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब आहारक होता है। (क्योंकि शरीर छोड़ने व शरीर ग्रहण के बीच एक समय का भी अंतर पड़ने नहीं पाता।)
5. अनाहारक जीव निर्देश
षट्खंडागम पुस्तक 1/1,1/सू.177/410 अणाहारा चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥177॥
= विग्रहगति को प्राप्त मिथ्यात्व सासादन और अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान गत जीव तथा समुद्घातगत सयोगि केवलि, इन चार गुणस्थानों में रहनेवाले जीव और अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/33/9), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/95)
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/30 एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ।
= विग्रहगति में एक, दो तथा तीन समय के लिए जीव अनाहारक होता है।
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/177 विग्गहगइमावण्णा केवलिदो समुहदो अजोगी य। सिद्धाय अणाहार...जीवा ॥177॥
= विग्रहगति को प्राप्त हुए चारों गति के जीव, प्रतर और लोक-समुद्घात को प्राप्त सयोगि केवली और अयोगि केवली तथा सिद्ध ये सब अनाहारक होते हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,4/99/153), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 666)
राजवार्तिक अध्याय 2/30/6/140/12 विग्रहगतौ शेषस्याहारस्याभावः।
= विग्रहगति में नोकर्म से अतिरिक्त बाकी के कवलाहार, लेपाहार आदि कोई भी आहार नहीं होते।
गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 698...। कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धेऽवि णायव्वो।
= मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत व सयोगी इनकै कर्मण अवस्था विषै और अयोगी जिन व सिद्ध भगवान् इन विषै अनाहार है।
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 619/730 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ॥619॥
= इतना विशेष जो केवली समुद्घात को प्राप्त केवली विषै दो तो प्रतर समुद्घात के समय (आरोहण व अवरोहण) और एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनिविषै नोकर्म का आहार नियम से नहीं होता।
6. आहारक मार्गणा में नोकर्माहार का ग्रहण है कवलाहार का नहीं
धवला पुस्तक 1/1,1,176/409/10 अत्र कवललेपोष्ममनः कर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात्।
= यहाँ पर आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार, उष्माहार, मानसिकाहार, कर्माहार को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।
7. पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं
धवला पुस्तक 1/1,1/530/1 अजोगिभगवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणूणामभावं पेक्खिऊण पज्जत्ताणमणाहरित्तं लब्भदि।
= प्रश्न - मनुष्यों में पर्याप्त अवस्था में भी अनाहारक होने का कारण क्या है? उत्तर - मनुष्यों में पर्याप्त अवस्था में अनाहारक होनेका कारण यह है कि अयोगिकेवली भगवान् के शरीर के निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओं के अभाव देखकर पर्याप्तक मनुष्य को भी अनाहारकपना बन जाता है।
8. कार्माण काययोगी को अनाहारक कैसे कहते हो
धवला पुस्तक 2/1,1/669/5 कम्ममग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि, आहारस्स तिण्णि-समय-विरहकालोवलद्धादो।
= प्रश्न - कार्माण काययोग की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है। इस अपेक्षा से कार्माण योगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता? उत्तर - उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्म वर्गणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता है। (आहारक मार्गणा में नोकर्माहार ग्रहण किया गया है कवलाहार नहीं। देखें आहार - 1.6)
2. आहारक शरीर निर्देश
1. आहारक शरीर का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/36/191/7 सूक्ष्मपदार्थ निर्ज्ञानार्थम संयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वर्त्यते तदित्याहारकम्।
= सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्त संयत जिस शरीर की रचना करता है वह आहारक शरीर है।
(राजवार्तिक अध्याय 2/36/7/146/9)
राजवार्तिक अध्याय 2/49/3/152/29 न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातो नाप्यन्येनाहारकस्येत्युभयतो व्याघाताभावादव्याघातीति व्यपदिश्यते।
राजवार्तिक अध्याय 2/49/8/153/14 दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थ निर्णयलक्षणमाहारकम्।
= न तो आहारक शरीर किसी का व्याघात करता है, न किसी से व्याघातित ही होता है, इसलिए अव्याघाती है। सूक्ष्म पदार्थ के निर्णय के लिए आहारक शरीर होता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,56/164/294 आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलि-पांस... ॥164॥
= छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को संदेह होने पर जिस शरीर के द्वारा केवली के पास जाकर सूक्ष्म पदार्थों का आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं।
धवला पुस्तक 1,1,56/292/3 आहरति आत्मासात्करोति सूक्ष्मानर्थानेनेति आहारः।
= जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों का ग्रहण करता है, उसको आहारक शरीर कहते हैं।
षट्खंडागम पुस्तक 14/5,6/सू.239/326 णिवुणाणं वा णिण्णाणं सुहुवाणं वा आहारदव्वाणं सुहुमदरमिदि आहारयं ॥239॥
धवला पुस्तक 14/5,6,240/127/4 णिउणा, अण्हा, मउआ..णिण्हां धवला सुअंधा सुट्ठ सुंदरा त्ति... अप्पडिहया सुहुमा णाम। आहरदव्वाणं मज्झे णिउणदरं णिण्णदरंखंधं आहारसरीरणिप्पायणट्ठं आहारदि गेण्हदि त्ति आहारयं।
= निपुण, स्निग्ध और सूक्ष्म आहारक द्रव्यों में सूक्ष्मतर है, इसलिए आहारक है ॥239॥ निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगंध, सुष्ठु और सुंदर... अप्रतिहत का नाम सूक्ष्म है। आहार द्रव्यों में-से आहारक शरीर को उत्पन्न करनेके लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कंध को आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहलाता है।
गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 237 उत्तमअंगम्हि हवे धादुविहीणं सुहं असंहणणं। सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्थुदयं ॥237॥
= सो आहारक शरीर कैसा हो रसादिक सप्तधातु करि रहित हो है। बहुरि शुभ नामकर्म के उदय तै प्रशस्त अवयव का धारी प्रशस्त हो है, बहुरि संहनन करि रहित हो है। बहुरि शुभ जो समचतुरस्र संस्थान वा अंगोपांग का आकार ताका धारक हो है। बहुरि चंद्रमणि समान श्वेत वर्ण, हस्त प्रमाण हो है। प्रशस्त आहारक शरीर बन्धनादिक पुण्यरूप प्रकृति तिनिका उदय जाका ऐसा हो है। ऐसा आहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनि का मस्तक तहाँ उत्पन्न हो है।
2. आहारक शरीर का वर्ण धवल ही होता है
धवला पुस्तक 4/1,3,2/28/6 तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वगसुंदरं।
= एक हाथ ऊँचा, हंस के समान धवल वर्ण वाला तथा सर्वांग सुंदर होता है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 237)
3. मस्तक से उत्पन्न होता है
धवला पुस्तक 4/1,3,2/28/7 उत्तमंगसंभवं।
= उत्तमांग अर्थात् मस्तक से उत्पन्न होने वाला है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 237)
4. कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करने में समर्थ
धवला पुस्तक 4/1,3,2/28/6 अणेयजोजणलक्खगमणक्खमं अपडिहयगमणं।
= क्षणमात्र में कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, ऐसा अप्रतिहत गमन वाला।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 238)
5. आहारक शरीर में निगोद राशि नहीं होती
धवला पुस्तक 14/5,6,91/81/8... आहारसरीरा पमत्तसंजदा...पत्तेयसरीरा वुच्चंति, एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।
= आहारक शरीरी, प्रमत्तसंयत...ये जीव प्रत्येक शरीर वाले होते है। क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता।
6. आहारक शरीर की स्थिति
गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 238 अंतोमुहुत्तकालट्ठिदो जहण्णिदरे... ॥238॥
= बहुरि जाको (आहारक शरीर की) जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मूहूर्त काल प्रमाण है।
7. आहारक शरीर का स्वामित्व
राजवार्तिक अध्याय 2/49/6/153/6 यदा आहारकशरीरं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमतो भवतीति प्रमत्तसंयतस्येत्युच्यते।
= जिस समय मुनि आहारक शरीर की रचना करता है, उस समय प्रमत्तसंयत ही होता है।
(विशेष देखें आहारक - 3.3)
8. आहारक शरीर का कारण व प्रयोजन
राजवार्तिक अध्याय 2/49/4/153/1 कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावाज्ञानार्थं कदाचित्सूक्ष्मपदार्थ निर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च भरतैरावतेषु केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु केवलिसकाशं जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निर्वर्तयति।
= कदाचित् ऋद्धि का सद्भाव जानने के लिए, कदाचित सूक्ष्म पदार्थों का निर्णय करने के लिए, संयम के परिपालन के अर्थ, भरत ऐरावत क्षेत्र में केवली का अभाव होने से, तत्त्वों में, संशय को दूर करने के लिए महा विदेह क्षेत्र में और शरीर से जाना तो शक्य नहीं है, और इससे मुझे असंयम भी बहुत होगा, इसलिए विद्वान् मुनि आहारक शरीर की रचना करता है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 235-236,239)
धवला पुस्तक 4/1,3,2/28/7 आणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं।
= जो आज्ञा की अर्थात् श्रुतज्ञान की कनिष्टता अर्थात् हीनता के होने पर और असंयम की बहुलता होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है ऐसा है।
धवला पुस्तक 14/5,6,239/326/3 असंजमबहुलदा आणाकणिट्ठदा सगखेत्ते केवलि विरहो त्ति एदेहि तीहि कारणेहिं साहू आहारशरीरं पडिवज्जंति। जल-थल-आगासेसु अक्कमेण सुहुमजीवेहि दुप्परिहणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि। तप्परिणट्ठं..आहारशरीरं साहू पडिवज्जंति। तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदबहुलदाणिमित्तमिदि भण्णदि।..तिस्से कणिट्ठदा सगखेत्ते थोवत्तं आणाकणिट्ठदा णाम। एदं विदियं कारणं। आगमं मोत्तुण अण्णपमाणं गोयरमइक्कमिदूण ट्ठिदेसुव्वपज्जाएसु संदेहे समुप्पण्णो सगसंदेहे विणासणट्ठं परखेत्तट्ठिय सुदकेवलि-केवलीणं वा पादमूलं गच्छामि त्ति चिंतविदूण आहारसरीरेण परिणमिय गिरि-सरि-सायर-मेरु-कुलसेलपायालाणं गंतूण विणएण पुच्छिय विणट्टसंदेहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छंति त्ति भणिदं होई। परखेत्तम्हि महामुणीणं केवलाणाणुप्पत्ती। परिणिव्वाणगमणं परिणिक्खमणं वा तित्थयराणं तदियं कारणं विडव्वणरिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साहू ओहिणाणेण सुदणाणेण वा देवागमचिंतेण वा केवलणाणुप्पत्तिमवगतूण वंदणाभत्तीए गच्छामि त्ति चिंतिदूण आहारसरीरेण परिणमिय तप्पदेसं गंतूण तेसिं केवलीणण्णेसिं च जिण-जिणहराणं वदणं काऊण आगच्छंति।
= असंयम बहुलता, आज्ञा कनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवली विरह इस प्रकार इन तीन कारणों से साधु आहारक शरीर को प्राप्त होते हैं। जल, स्थल और आकाश के एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवों से आपूरित होनेपर असंयम बहुलता होती है। उसका परिहार करने के लिए साधु आहारक शरीर को प्राप्त होते हैं। इसलिए आहारक शरीर का प्राप्त करना असंयम बहुलता निमिक्तक कहा जाता है। आज्ञा..उसकी कनिष्ठता अर्थात् उसका अपने क्षेत्र में थोड़ा होना आज्ञाकनिष्ठता कहलाती है। वह द्वितीय कारण है। आगम को छोड़कर द्रव्य और पर्यायों के अन्य प्रमाणों के विषय न होने पर अपने संदेह को दूर करने के लिए परक्षेत्र में श्रुतकेवली और केवली के पादमूल में जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिणमन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पाताल में केवली और श्रुतकेवलीके पास जाकर तथा विनय से पूछकर संदेह से रहित होकर लौट जाते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परक्षेत्र में महामुनियों के केवलज्ञान की उत्पत्ति और परिनिर्माण गमन तथा तीर्थंकरों के परिनिष्क्रमण कल्याणक यह तीसरा कारण है। विक्रिया ऋद्धि से रहित और आहारक लब्ध से युक्त साधु अवधिज्ञान से या श्रुतज्ञान से देवों के आगमन के विचार से केवलज्ञान की उत्पत्ति जानकर वंदना भक्ति से जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिणमन कर उस प्रदेश में जाकर उन केवलियों की और दूसरे जिनों की व जिनालयों की वंदना करके वापिस आते हैं।
3. आहारक समुद्घात निर्देश
1. आहारक ऋद्धि का लक्षण
धवला पुस्तक 1/1,1,60/298/4 संयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादनशक्तिराहारर्द्धिरिति।
= संयम विशेष से उत्पन्न हुई आहारक शरीर के उत्पादन रूप शक्ति को आहारक ऋद्धि कहते हैं।
2. आहारक समुद्घात का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/20/12/77/18 अल्पसावद्यसूक्ष्मार्थ ग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वत्त्यर्थं आहारकसमुद्घातः।..आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात्... आत्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरम्...निर्वर्तयति।
= अल्प हिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीर की रचना के निमित्त आहारक समुद्घात होता है।... आहारक शरीर की रचना के समय श्रेणी गति होने के कारण... असंख्य आत्माप्रदेश निकल कर एक अरत्नि प्रमाण आहारक शरीर को बनाते हैं।
धवला पुस्तक 7/2,6,1/300/6 आहारसमुग्घादो णाम हत्थपमाणेण सव्वंगसुंदरेणसमचउरससंठालेण हंसधवखेण सररुधिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्कसत्तधा उवज्जिएण विसग्गि सत्थादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिला-थंभ-जल पव्वयगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं।
= हस्त प्रमाण सर्वांग सुंदर, समचतुरस्र-संस्थान से युक्त, हंस के समान, रस, रूधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओं से रहित, विष अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओं से मुक्त, वज्र, शिला, स्तंभ, जल व पर्वतों में-से गमन करने मे दक्ष, तथा मस्तक से उत्पन्न हुए शरीर से तीर्थंकर के पादमूल में जाने का नाम आहारक समुद्घात है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 10/26 समुत्पन्नपदार्थ भ्रांतेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरं परित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गम्य यत्र कुत्रचिदंतर्मुहूर्त मध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तद्दर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थ निश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारकसमुद्घातः।
= पद और पदार्थ में जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋषि के मस्तक में-से मूल शरीर को न छोड़कर निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकल कर अंतर्मुहूर्त में जहाँ कहीं भी केवली को देखता है तब उन केवली के दर्शन से अपने आश्रय मुनि को पद और पदार्थ का निश्चय उत्पन्न कराकर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जावे सो आहारक समुद्घात है।
3. आहारक समुद्घात का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/49 शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥49॥
= आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/376/2 आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते संभवात्।
= प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारक काय योग और आहारक मिश्र योग भी संभव है।
राजवार्तिक अध्याय 2/49/7/153/8 प्रमत्तसंयतस्यैवाहरकं नान्यस्य।
= प्रमत्तसंयत के ही आहारक शरीर होता है।
धवला पुस्तक 4/1,3,2/28/5 आहारसमुग्घादो णाम पत्तिड्ढीणं महारिसीणं होदि।
धवला पुस्तक 4/1,3,2/38/9 मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो।
धवला पुस्तक 4/1,3,61/123/7 णवरि पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि।
धवला पुस्तक 4/1,3,82/135/6 णवरिपरिहारविसुद्धो पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहार णत्थि।
1. जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियों के होता है। 2. मिथ्यादृष्टि जीव राशिके (आहारक समुद्घात) संभव नहीं, क्योंकि इसके कारणभूत गुणों का मिथ्यादृष्टि और असंयत व संयतासंयतों के अभाव हैं। 3. (प्रमत्त संयतमें भी) परिहार विशुद्धि संयत के आहारक व तैजस समुद्घात नहीं होता। 4. प्रमत्तसंयत के उपशम सम्यकत्व के साथ आहारक समुद्घात नहीं होता है।
( धवला पुस्तक 4/1,4,135/286/11)
4. इष्टस्थान पर्यंत संख्यात योजन लंबे सूच्यंगुल योजत चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार हैं
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा 543/949/9 आहारक समुद्घात विषैं एक जीवकैं शरीर तै बाह्य निकसै प्रदेश तै संख्यात योजन प्रमाण लंबा अर सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ा ऊँचा क्षेत्र कौं रोकैं। याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात् घनांगुल प्रमाण भया। इस करि आहारक समुद्घात वाले जीवनिका संख्यात् प्रमाण है ताकौं गुणैं जो प्रमाण होई तितना आहारक समुद्घात विषैं क्षेत्र जानना। मूल शरीर तैं निकसि आहारक शरीर जहाँ जाई तहाँ पर्यंत लंबी आत्मा के प्रदेशनिकी श्रेणी सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ी अर ऊँची आकाश विषै है।
5. समुद्घात गत आत्म प्रदेशों का पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो
धवला पुस्तक 1/1,1,56/292/8 न च गलितायुषस्तमिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिर्विरोधात्। ततो न तस्यौदारिकशरीरेण पुनः संघटनमिति।
धवला पुस्तक 1/1,1,56/293/3 सर्वात्मना तयोर्वियोगो मरणं नेकदेशेन आगलादप्युपसंहृतजोवावयवानां मरणामनुपलम्भात् जीविताछिन्नहस्तेन व्यभिचाराच्च। न पुनरस्यार्थः सर्वावयवैः पूर्वशरीरपरित्यागः समस्ति येनास्य मरणं जायेत।
= प्रश्न - जिसकी आयु नष्ट हो गयी है ऐसे जीव की पुनः उस शरीर में उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। अतः जीव का औदारिक शरीर के साथ पुनः संघटन नहीं बन सकता अर्थात् एक बार जीव प्रदेशों का आहारक शरीर के साथ संबंध हो जानेपर पुनः उन प्रदेशों का पूर्व औदारिक शरीर के साथ संबंध नहीं हो सकता? उत्तर - ऐसा नहीं है, तो भी जीव और शरीर का संपूर्ण रूप से वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेश रूप से वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि जिनके कंठ पर्यंत जीव प्रदेश संकुचित हो गये हैं, ऐसे जीवों का मरण भी नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोग को भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीर से छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार आयेगा। इसी प्रकार आहारक शरीर को धारण करना इसका अर्थ संपूर्ण रूप से पूर्व (औदारिक) शरीर का त्याग करना नहीं है, जिससे कि आहारक शरीर के धारण करने वाले का मरण माना जावे।
4. आहारक व मिश्र काययोग निर्देश
1. आहारक व आहारक मिश्र काय योग का लक्षण
पं./सं./प्रा.1/97-98 आहरइ अणेण मुणि सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकाय जोगो सो ॥97॥ अंतोमुहूत्तमज्झं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णा ति। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ॥98॥
= स्वयं सूक्ष्म अर्थ में संदेह उत्पन्न होने पर मुनि जिसके द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने संदेह को दूर करता है, उसे आहारक काय कहते हैं। उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले योग को आहारक काय योग कहते हैं ॥97॥ आहारक शरीर की उत्पत्ति प्रारंभ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अंतर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को आहारक मिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 239)
धवला पुस्तक 1/1,1/164-165/294...। तम्हा आहारको जोगो ॥164॥ आहारयमुत्तत्थं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णंयात। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सको जोगो ॥165॥
= आहारक शरीर के द्वारा होने वाले योग को आहारक काययोग कहते हैं ॥164॥ आहारक का अर्थ कह आये हैं। वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक उसको आहारक मिश्र कहते हैं। और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययोग कहते हैं ॥165॥
(गो.जी/मू.240)
धवला पुस्तक 1/1,1,56/293/6 आहारकार्मणस्कंधतः समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकाययोगः।
= आहारक और कार्माण की वर्गणाओं से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग हैं।
2. आहारक काययोग का स्वामित्व
षट्खंडागम पुस्तक 1/1,1,51/सू.59,63/297,306 आहारकायजोगो आहारकमिस्सकायजोगो संजदाणमिड्ढि पत्ताणं ॥59॥ आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्तसंजद-ट्ठाणे ॥63॥
= आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग ऋद्धि प्राप्त छठें गुणस्थानवर्ती संयतों के होता है ॥59॥ आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग एक प्रमत्त गुणस्थान में ही होते हैं ॥63॥
(सि.सि.8/2/376/3)
3. आहारक योग का स्त्री व नपुंसक वेद के साथ विरोध तथा तत्संबंधी शंका समाधान
धवला पुस्तक 2/1,1,513/1 मणुसिणीणं भण्णमाणे....आहारआहारमिस्सकाय जोगा णत्थि। किं कारणं। जेसि भावो इत्थिवेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते जीवा संजम पडिवज्जंति। दव्वित्थिवेदा संजमं ण पडिवज्जंति, सचेलत्तादो। भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धीसमुप्पज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पज्जदि तेणित्थिवेदे पि णिरुद्धे आहारदुगं णत्थि।
= मनुष्यनी स्त्रियों के आलाप कहने पर...आहारक मिश्र काय योग नहीं होता। प्रश्न - मनुष्य-स्त्रियों के आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग नहीं होने का कारण क्या है? उत्तर - यद्यपि जिनके भाव की अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्य की अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भाव स्त्री) जीव भी संयम को प्राप्त होते हैं। किंतु द्रव्य की अपेक्षा स्त्री वेद वाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि, वे सचेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भाव की अपेक्षा स्त्री-वेदी और द्रव्य की अपेक्षा पुरुष-वेदी संयमधारी जीवों के आहारक ऋद्धि नहीं होती। किंतु द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदों की अपेक्षा से पुरुष वेद वाले के आहारक ऋद्धि होती है।
(और भी देखें वेद - 6.3)
धवला पुस्तक 2/1,1/667/3 अप्पसत्थवेदेहि साहारिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति।
= अप्रशस्त वेदों के साथ आहारक ऋद्धि नहीं उत्पन्न होते हैं
( कषायपाहुड़ पुस्तक 3/22/$426/241/13)
धवला पुस्तक 2/1,1/681/6 आहारदुगं...वेददुगोदयस्स विरोहादो।
= आहारकद्विक....के साथ स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के उदय होने का अभाव है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 715)
4. आहारक काययोगी को अपर्याप्तपना कैसे
धवला पुस्तक 2/1,1/441/4 संजदा-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।..आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं त्ति...अणवगासत्तादो।....अणेयतियादो...किमेदेण जाणाविज्जदि।..एदं सुत्तमणिच्चमिदि।
= प्रश्न - (ऐसा मानने से) संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्त होते हैं। (यह सूत्र कि) “आहारक मिश्र काय योग अपर्याप्तकों के होता है बाधा जाता है। उत्तर - इस सूत्र में अनेकांत दोष आ जाता है (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधित हो जाता है।) प्रश्न - (सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। उत्तर - इससे ज्ञापित होता है कि...यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं प्रवृत्ति न हो इसका नाम अनित्यता है।
5. आहारक काययोग में कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना
धवला पुस्तक 1/1,1,90/330/6 पूर्वाभ्यस्तवस्तुविस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुःखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थायां पर्याप्त इत्युपचर्यते। निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्तः।
= पहले अभ्यास की हुई वस्तु के विस्मरण के बिना ही आहारक शरीर का ग्रहण होता है, या दुःख के बिना ही पूर्व शरीर (औदारिक) का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्त संयत अपर्याप्त अवस्था में भी पर्याप्त है, इस प्रकार का उपचार किया जाता है। निश्चय नय का आश्रय करने पर तो वह अपर्याप्त ही है।
6. आहारक मिश्रयोगी में अपर्याप्तपना कैसे संभव है
धवला पुस्तक 1/1,1,78/317/10 आहारकशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः। तथा चाहारमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तकस्येति न घटामटेदिति चेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायत्वात्। तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तकः औदारिकशरीरगतष्टपर्याप्त्यपेक्षया, आहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावापेक्षया त्वपर्याप्तकोऽसौ। पर्याप्तापर्याप्तत्वयोंर्नैकत्राक्रमेण संभवो विरोधादिति चेन्न....इतीष्टत्वात्। कथं न पूर्वोऽभ्युपगम इति विरोध इति चेन्न, भूतपूर्वगतन्यायापेक्षया विरोधासिद्धेः।
= प्रश्न - आहारक शरीर को उत्पन्न करने वाला साधु पर्याप्तक ही होता है। अन्यथा उसके संयतपना नहीं बन सकता। ऐसी हालत में आहारक मिश्र काययोग अपर्याप्त के होता है, यह कथन नहीं बन सकता? उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा कहने वाला आगम के अभिप्राय को नहीं समझा है। आगम का अभिप्राय तो इस प्रकार है कि आहारक शरीर को उत्पन्न करने वाला साधु औदारिक शरीरगत छह पर्याप्तियों की अपेक्षा पर्याप्तक भले ही रहा आवे, किंतु आहारक शरीर संबंधी पर्याप्ति के पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह अपर्याप्तक है। प्रश्न - पर्याप्त और अपर्याप्तना एक साथ एक जीव में संभव नहीं, क्योंकि एक साथ एक जीव में इन दोनों के रहने में विरोध है? उत्तर - नहीं, क्योंकि... यह तो हमें इष्ट ही है? प्रश्न - तो फिर हमारा पूर्व कथन क्यों न मान लिया जाये, अतः आपके कथन में विरोध आता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा विरोध असिद्ध है। अर्थात् औदारिक शरीर संबंधी पर्याप्तपने की अपेक्षा आहारक मिश्र अवस्था में भी पर्याप्तपने का व्यवहार किया जा सकता है।
7. यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्था में भी संयम कैसे संभव है
धवला पुस्तक 1/1,1,78/318/5 विनष्टौदारिकशरीरसंबंधषट्पर्याप्तेरपरिनिष्ठिताहारशरीरगतपर्याप्तेरपर्याप्तस्य कथं संयम इति चेन्न, संयमस्यास्रवनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासिद्धेः। विरोधे वा न केवलिनोऽपि समुद्धातगतस्य संयमः तत्राप्यपर्याप्तकयोगास्तित्वं प्रत्यविशेषात्। `संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरानिष्पत्त्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्।
प्रश्न - जिसके औदारिक शरीर संबंधी छह पर्याप्तियाँ नष्ट हो चुकी हैं, और आहारक शरीर संबंधी पर्याप्तियाँ अभी पूर्ण नहीं हूई है, ऐसे अपर्याप्त साधु के संयम कैसे हो सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, ऐसे संयम का मंद योग (आहारक मिश्र) के साथ होने में कोई विरोध नहीं आता है। यदि इस मंद योग के साथ संयम के होने में कोई विरोध आता ही है ऐसा माना जावे, तो समुद्घात को प्राप्त हुए केवली के भी संयम नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी अपर्याप्त संबंधी योग का सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न - `संयतासंयत से लेकर सभी गुणस्थानो में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं' इस आर्ष वचन के साथ उपर्युक्त कथन का विरोध क्यों नहीं आता? उत्तर - नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से प्रवृत्त हुए इस सूत्र के अभिप्राय से आहारक शरीर की अपर्याप्त अवस्था में भी औदारिक शरीर संबंधी छह पर्याप्तियों के हो नेमें कोई विरोध नहीं आता है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,90/329/9)।
पुराणकोष से
आहारक ऋद्धि से उत्पन्न तेजस्वी शरीर । महापुराण 11.158, पद्मपुराण 105.153