ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 25 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहियं तु सा वि खलु मत्ता । (25)
पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो ॥26॥
अर्थ:
[चिरं वा क्षिप्रं] 'चिर' अथवा 'क्षिप्र' ऐसा ज्ञान (अधिक काल अथवा अल्पकाल ऐसा ज्ञान) [मात्रारहितं तु] परिमाण बिना (काल के माप बिना) [न अस्ति] नहीं होता;
[सा मात्रा अपि] और वह परिमाण [खलु] वास्तव में [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्य के बिना नहीं होता; [तस्मात्] इसलिये [कालः प्रतीत्यभवः] काल आश्रितरूप से उपजनेवाला है (अर्थात् व्यवहारकाल पर का आश्रय करके उत्पन्न होता है) ।
समय-व्याख्या:
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित् परायत्तत्वे सदुपपत्तिरुक्ता । इह हि व्यवहारकाले निमिषसमयादौ अस्ति तावत् चिरं इति क्षिप्रं इति संप्रत्यय: । स खलु दीर्घह्रस्वकालनिबंधनं प्रमाणमंतरेण न संभाव्यते । तदपि प्रमाणं पुद्गलद्रव्यपरिणाममन्तरेण नावधार्यते । तत: परपरिणामद्योतमानत्वाद् व्यवहारकालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभिधीयते । तदस्त्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वाभावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि जीवपुद्गलपरिणामान्यथानुपपत्त्या निश्चयरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूप: कालोऽस्तिकायपंचकवल्लोकरूपेण परिणत इति खरतरदृष्ट्याभ्युपगम्यत इति ॥२५॥
—इति समयव्याख्यायामन्तर्नीतषड᳭द्रव्यपंचास्तिकायसामान्यव्याख्यानरूप: पीठबंध: समाप्त: ॥
अथामीषामेव विशेषव्याख्यानम् । तत्र तावत् जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम् ।
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ व्यवहार-काल के कथंचित पराश्रितपने के विषय में सत्य युक्ति कही गई है ।
प्रथम तो, निमेष-समयादी व्यवहार-काल में 'चिर' और 'क्षिप्र' ऐसा ज्ञान (अधिक काल और अल्प काल ऐसा ज्ञान) होता है । वह ज्ञान वास्तव में अधिक और अल्प काल साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रमाण (काल-परिमाण) बिना संभवित नहीं होता, और वह प्रमाण पुद्गल-द्रव्य के परिणाम बिना निश्चित नहीं होता । इसलिए, व्यवहार-काल पर के परिणाम द्वारा ज्ञात होने के कारण -- यद्यपि निश्चय से वह अन्य के आश्रित नहीं है तथापि -- आश्रित-रूप से उत्पन्न होने वाला (पर के अवलंबन से उपजने वाला) कहा जाता है ।
इसलिए यद्यपि काल को अस्तिकायपने के आभाव के कारण यहाँ अस्तिकाय की सामान्य प्ररूपणा में उसका साक्षात कथन नहीं है तथापि, जीव-पुद्गल के परिणाम की अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा सिद्ध होने वाला निश्चय-रूप काल और उनके परिणाम के आश्रित निश्चित होने वाला व्यवहार-काल पन्चास्तिकाय की भाँती लोक-रूप से परिणत है - ऐसा, अत्यंत तीक्ष्ण दृष्टी से जाना जा सकता है ॥२५॥