ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 26 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता । (26)
भोत्ता सदेहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥27॥
अर्थ:
[जीवः] (संसारस्थित) जीव [चेतयिता] चेतयिता [चेतनेवाला] है, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित है, [प्रभुः] प्रभु है, [कर्ता] कर्ता है, [भोक्ता] भोक्ता है, [देहमात्रः] देहप्रमाण है, [न हि मूर्तः] अमूर्त है [च] और [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त [इति भवति] ऐसा होता है ।
समय-व्याख्या:
अत्र संसारावस्थस्यात्मन: सोपाधि निरुपाधि च स्वरूपमुक्तम् । आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीव: । निश्चयेन चिदात्मकत्वात्, व्यवहारेण चिच्छक्तियुक्तत्वाच्चेतयिता । निश्चयेनापृथग्भूतेन, व्यवहारेण पृथग्भूतेन चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषित: । निश्चयेन भावकर्मणां, व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभु: । निश्चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां, व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता । निश्चयेन शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदु:खपरिणामानां, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादितेष्टानिष्ठविषयाणां भोक्तृत्वाद्भोक्ता । निश्चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्तत्वान्नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्र: । व्यवहारेण कर्मभि: सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन निरूपस्वभावत्वान्न हि मूर्त: । निश्चयेन पुद्गलपरिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्मभि:, व्यवहारेण चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभि: कर्मभि: संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति ॥२६॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ (इस गाथा में) संसार-दशा वाले आत्मा का सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप कहा है ।
आत्मा
- निश्चय से भाव-प्राण को धारण करता है इसलिए जीव है, व्यवहार से (असदभुत व्यवहार-नय से) द्रव्य-प्राण को धारण करता है इसलिए 'जीव' है;
- निश्चय से चित-स्वरूप होने के कारण चेतायिता (चेतने-वाला) है, व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) चित-शक्ति-युक्त होने से 'चेतायिता' है;
- निश्चय से अपृथग्भूत ऐसे चैतन्य-परिणाम-स्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होने से उपयोग-लक्षित है, व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) पृथग्भूत ऐसे चैतन्य-परिणाम-स्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होने से 'उपयोग-लक्षित' है;
- निश्चय से भाव-कर्मों के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में स्वयं ईश (समर्थ) होने से पभु है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) द्रव्य-कर्मों के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में स्वयं ईश होने से 'पभु' है;
- निश्चय से पौदगलिक-कर्म जिनका निमित्त है ऐसे आत्म-परिणामों का कर्तत्व होने से कर्ता है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) आत्म-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पौदगलिक कर्मों का कर्तत्व होने से 'कर्ता' है;
- निश्चय से शुभाशुभ कर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुख-दुःख-परिणामों का भोक्तृत्व होने से भोक्ता है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) शुभाशुभ कर्मों से संपादित (प्राप्त) इश्टानिष्ट विषयों का भोक्तृत्व होने से 'भोक्ता' है;
- निश्चय से लोक-प्रमाण होने पर भी, विशिष्ट अवगाह-परिणाम की शक्ति-वाला होने से नाम-कर्म से रचित छोटे-बड़े शरीर में रहता हुआ व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) 'देह-प्रमाण' है;
- व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) कर्मों के साथ एकत्व-परिणाम के कारण मूर्त होने पर भी, निश्चय से अरुपी-स्वभाव-वाला होने के कारण अमूर्त है;
- निश्चय से पुद्गल-परिणाम को अनुरूप चैतन्य-परिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से कर्म-संयुक्त है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) चैतन्य-परिणाम को अनुरूप पुद्गल-परिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से 'कर्म-संयुक्त' है ॥२६॥
१सोपाधि = उपाधि सहित; जिसमें पर की अपेक्षा आती हो ऐसा ।
२निश्चय से चित-शक्ति को आत्मा के साथ अभेद है और व्यवहार से भेद है; इसलिए निश्चय से आत्मा चित-शक्ति-स्वरूप है और व्यवहार से चित-शक्ति-वान है ।