परिग्रह
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
परिग्रह दो प्रकार का है - अंतरंग व बाह्य। जीवों का राग अंतरंग परिग्रह है और रागी जीवों को नित्य ही जो बाह्य पदार्थों का ग्रहण व संग्रह होता है, वह सब बाह्य परिग्रह कहलाता है। इसका मूल कारण होने से वास्तव में अंतरंग परिग्रह ही प्रधान है। उसके न होने पर ये बाह्य पदार्थ परिग्रह संज्ञा को प्राप्त नहीं होते क्योंकि ये साधक को जबरदस्ती राग बुद्धि उत्पन्न कराने को समर्थ नहीं हैं। फिर भी अंतरंग परिग्रह का निमित्त होने के कारण श्रेयोमार्ग में इनका त्याग करना इष्ट है।
- परिग्रह सामान्य निर्देश
- परिग्रह के भेद- देखें ग्रंथ ।
- निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं।
- वातादिक विकाररूप (शारीरिक) मूर्च्छा परिग्रह नहीं।
- परिग्रह की अत्यंत निंदा।
-
परिग्रह का हिंसा में अंतर्भाव- देखें हिंसा - 1.4।
कर्मों का उदय परिग्रह आदि की अपेक्षा होता है।- देखें उदय - 2।
गृहस्थ के ग्रहण योग्य परिग्रह।- देखें परिग्रह - 2।
- निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं।
- परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण।
- परिग्रह त्याग महाव्रत का लक्षण।
- परिग्रह त्याग प्रतिमा का लक्षण।
- परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ।
-
व्रत की भावनाओं संबंधी विशेष विचार - देखें व्रत - 2।
- परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार।
- परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमा में अंतर।
- परिग्रह त्याग की महिमा।
-
परिग्रह त्याग व व्युत्सर्ग तप में अंतर - देखें व्युत्सर्ग - 2।
परिग्रह परिमाण व क्षेत्र वृद्धि अतिचार में अंतर- देखें दिग्व्रत ।
परिग्रह व्रत में कदाचित् किंचित् अपवाद का ग्रहण व समन्वय- देखें अपवाद ।
दानार्थ भी धन संग्रह की इच्छा का विधिनिषेध- देखें दान - 6।
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण।
- अंतरंग परिग्रह की प्रधानता
- बाह्य परिग्रह की कथंचित् मुख्यता व गौणता
- बाह्याभ्यंतर परिग्रह समन्वय
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना ।
- बाह्य परिग्रह के ग्रहण में इच्छा का सद्भाव सिद्ध है ।
- बाह्य परिग्रह दुःख व इच्छा का कारण है ।
- इच्छा ही परिग्रह ग्रहण का कारण है ।
- आकिंचन्य भावना से परिग्रह का त्याग होता है ।
- अभ्यंतर त्याग में सर्वबाह्य त्याग अंतर्भूत है ।
- परिग्रह त्याग व्रत का प्रयोजन ।
- निश्चय-व्यवहार परिग्रह का नयार्थ ।
-
अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन- देखें अचेलकत्व ।
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना ।
- परिग्रह सामान्य निर्देश
- परिग्रह के लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/17 मूर्च्छा परिग्रहः। 17। = मूर्च्छा परिग्रह है। 7।
सर्वार्थसिद्धि/4/21/252/5 लोभकषायोदयाद्विषयेषु संगः परिग्रहः।
सर्वार्थसिद्धि/6/15/333/10 ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः।
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 रागादयः पुनः कर्मोदयतंत्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः। ततस्तेषु संकल्पः परिग्रह इति युज्यते। =- लोभ कषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/21/3/236/7 );
- ‘यह वस्तु मेरी है’, इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। (सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6); (राजवार्तिक/6/15/3/525/27); (तत्त्वसार/4/77); (सागार धर्मामृत/4/59)
- रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वह आत्मा का स्वभाव न होने से हेय है। इसलिए उनमें होने वाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। (राजवार्तिक/7/17/5/545/18)
राजवार्तिक/6/15/3/525/27 ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते। = ‘यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ’ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है।
धवला 12/4,2,8,6/282/9 परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः। = ‘परिगृह्यते इति परिग्रहः’ अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है। इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा ‘परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः’ जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य-पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
समयसार / आत्मख्याति/210 इच्छा परिग्रहः। - इच्छा है, वही परिग्रह है।
- निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6 यदि ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः; संज्ञानाद्यपि परिग्रहःप्राप्नोति तदपि हि ममेदमिति संकल्प्यते रागादिपरिणामवत्। नैष दोषः; ‘प्रमत्तयोगात्’ इत्यनुवर्तते। ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमत्तस्य मोहाभावन्न मूर्च्छाऽस्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धं। किंच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावत्वादपरिग्रहत्वम्। = प्रश्न - ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं क्योंकि रागादि परिणामों के समान ज्ञानादिक में भी ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि ‘प्रमत्तयोगात्’ इस पद की अनुवृत्ति होती है इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमाद रहित है, उसके मोह का अभाव होने से मूर्च्छा नहीं है, अतएव परिग्रह रहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। (राजवार्तिक/7/17/5/545/14)
- वातादि विकाररूप मूर्च्छा परिग्रह नहीं
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/1 लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्च्छेति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति। सत्यमेवमेतत्। मूर्च्छिरयं मोह सामान्ये वर्तते। ‘‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंते’’ इत्युक्ते विशेष व्यवस्थितः परिगृह्यते। = प्रश्न - लोक में वातादि प्रकोप विशेष का नाम मूर्च्छा है ऐसी प्रसिद्धि है इसलिए यहाँ इस मूर्च्छा का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता? उत्तर - यह कहना सत्य है तथापि मूर्च्छि धातु का सामान्य मोह अर्थ है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं, ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्च्छा का विशेष अर्थ ही लिया गया है क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है। (राजवार्तिक/7/17/2/545/3)
- परिग्रह की अत्यंत निंदा
सूत्रपाहुड़/19 जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो। 19। = जिसके मत में लिंगधारी के परिग्रह का अल्प वा बहुत ग्रहणपना कहा है सो मत, तथा उस मत का श्रद्धावान् पुरुष निंदा योग्य है, जातै जिनमत विषैं परिग्रहण रहित है सो निरागार है निर्दोष है।
मोक्षपाहुड़/ सू./79 जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि। 79। = जो पाँच प्रकार के (अंडज, कर्पासज, वल्कल, रोमज, चर्मज) वस्त्र में आसक्त है, माँगने का जिनका स्वभाव है, बहुरि अधःकर्म अर्थात् पापकर्म विषै रत है और सदोष आहार करते हैं ते मोक्षमार्गतैं च्युत हैं। 79।
लिंगपाहुड/मूल/5 सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमोहिदमदो तिरिक्खजोणी ण सो समणो। 5। = जो निर्ग्रंथ लिंगधारी परिग्रह कूं संग्रह करै है अथवा ताका चिंतवन करे है, बहुत प्रयत्न से उसकी रक्षा करै है, वह मुनि पाप से मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नहीं। 5। (भगवती आराधना/1126-1173)
रयणसार/मूल/109 धणधण्ण पडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ। 109। = जो मुनि धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है, वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करनेवाला होता है।
मू.आ./918 मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगो सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति। 918। = जो साधु अहिंसादि मूलगुणों को छेद वृक्षमूलादि योगों को ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है। उस साधु के सब बाहर के योग क्या कर सकते हैं, उनसे कर्मों का क्षय नहीं हो सकता। 918।
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/11 तन्मूलाः सर्वे दोषाः संरक्षणादयः संजायंते। तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जल्पति। चौय वा आचरति मैथुने च कर्मणि प्रयतते। तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः। = सब दोष परिग्रह मूलक ही होते हैं। ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के संकल्प होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में रत होता है। नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/88-90 चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिं तूसइ मूढु णिभंतु। एयहिं लज्जइ णाणियउ बंधहं हेउ मुणंतु। 88। चट्टहिं पट्टहिं कुंडियहिं चेल्ला-चेल्लियएहिं। मोहु जणेविणु मुणिवरहं उप्पहि पाडिय तेहिं। 89। केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लंचिबि छारेण। सयल वि संग ण परिहरिय जिणवरलिंगधरेण। 90। = अज्ञानी जन चेला,चेली,पुस्तकादिक से हर्षित होता है इसमें कुछ संदेह नहीं है और ज्ञानीजन इन बाह्य पदार्थों से शरमाता है क्योंकि इन सबों को बंध का कारण जानता है। 88। पीछी, कमंडलु, पुस्तक और मुनि-श्रावक रूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली - ये संघ मुनिवरों को मोह उत्पन्न कराके वे उन्मार्ग में डाल देते हैं। 89। जिस किसी ने जिनवर का भेष धारण करके भस्म से सिर के केश लौंच किये हैं लेकिन सब परिग्रह नहीं छोड़े, उसने अपनी आत्मा को ठग लिया। 90।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/213, 219 सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबंधा उपयोगोपरंजकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाच्छिन्नश्रामण्यम्। उपधेः... छेदत्वमैकांतिकमेव। = वास्तव में सर्व ही परद्रव्य प्रतिबंधक उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोग रूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अच्छिन्न श्रामण्य होता है। 213। उपधि में एकांत से सर्वथा श्रामण्य का छेद ही है। (और छेद हिंसा है)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/119 हिंसापर्य्यात्वात्सिद्धा हिंसांतरंगसंगेषु। बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छेव हिंसात्वम्। 119। = हिंसा के पर्याय रूप होने के कारण अंतरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं। 119।
ज्ञानार्णव/16/12/178 संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम्। तेन श्वाभ्री गतिसतस्यां दुःखं वाचामगोचरम्। 12। = परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप, और पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है। 12।
पं.विं./1/53 दुर्ध्यानार्थमवद्यकारणमहो निर्ग्रंथताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिनां लज्जाकरं स्वीकृतम्। यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं सांप्रतं, निर्ग्रंथेष्वपि चेत्तदस्ति नितरां प्रायः प्रविष्टः कलिः। 53। = जब कि शय्या के निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियों के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुर्ध्यान एवं पाप के कारण होकर उनकी निर्ग्रंथता को नष्ट करते हैं, तब फिर वे गृहस्थ के योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रंथता के घातक न होंगे? अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमान में निर्ग्रंथ मुनि सुवर्णादि रखता है, तो समझना चाहिए कि कलिकाल का प्रवेश हो चुका है। 53।
- साधु के ग्रहण योग्य परिग्रह
प्रवचनसार/222-225 छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता। 222। अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं। 223। उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ठं। 225। = जिस उपधि के (आहार-विहारादिक के) ग्रहण-विसर्जन में, सेवन करने में जिससे सेवन करने वाले के छेद नहीं होता, उस उपधि युक्त काल क्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण भले वर्ते। 222। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिंदित हो, असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो और जो मूर्च्छादि को जनन रहित हो, ऐसा ही उपधि श्रमण ग्रहण करो। 223। यथाजात रूप (जन्मजात-नग्न) लिंग जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है, गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन, और विनय भी उपकरण कही गयी है। 225। (विशेष देखो उपरोक्त गाथाओं की टीका)।
- परिग्रह के लक्षण
- परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार/61 धनधांयादिग्रंथं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता। परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि। 61। = धन धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् उसका परिमाण करके कि ‘इतना रखेंगे’ उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाण व्रत है। तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है। 61। ( सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/11 ), ( सर्वार्थसिद्धि/7/29/368/11 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/339-340 जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण संतुट्ठो। णिहणदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं। 339। जो परिमाणं कुव्वदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं। उवओगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स। 340। = जो लोभ कषाय को कम करके, संतोष रूपी रसायन से संतुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णा का घात करता है। और अपनी आवश्यकता को जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है उसके पाँचवाँ अणुव्रत होता है। 339-340।
- परिग्रह त्याग महाव्रत का लक्षण
मूलाचार/आचारवृत्ति/9, 293 जीव णिबद्धा बद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव। तेसिं सक्क्च्चाओ इयरम्हि य णिम्मओऽसंगो। 9। गामं णगरं रण्णं थूलं सच्च्ति बहु सपडिवक्खं। अव्यत्थं बाहिरत्थं तिविहेण परिग्गहं बज्जे। 293। = जीव के आश्रित अंतरंग परिग्रह तथा चेतन परिग्रह, व अचेतन परिग्रह इत्यादि का शक्ति प्रगट करके त्याग, तथा इनसे इतर जो संयम, ज्ञान, शौच के उपकरण इनमें ममत्व का न होना परिग्रह त्याग महाव्रत है। 9। ग्राम, नगर, वन, क्षेत्र इत्यादि बहुत प्रकार के अथवा सूक्ष्म अचेतन एकरूप वस्त्र सुवर्ण आदि बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्वादि अंतरंग परिग्रह - इन सब का मन, वचन, काय कृत-कारित-अनुमोदना से मुनि को त्याग करना चाहिए। यह परिग्रह त्याग व्रत है। 293।
नियमसार/60 सव्वेसिं गंथाणं तागोणिखेक्खं भावणापुव्वं। पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स। 60। = निरपेक्ष भावनापूर्वक सर्व परिग्रहों का त्याग उस चारित्र भार वहन करनेवालों को पाँचवाँ व्रत कहा है। 60।
- परिग्रह त्याग प्रतिमा का लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार/145 बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निममत्वरतः। स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः। 145। = जो बाह्य के दश प्रकार के परिग्रहों में ममता को छोड़कर निर्ममता में रत होता हुआ मायादि रहित स्थिर और संतोषं वृत्ति धारण करने में तत्पर है वह संचित परिग्रह से विरक्त अर्थात् परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारक है। 145। ( चारित्रसार/38/6 )
वसुनंदी श्रावकाचार/299 मोत्तूणं वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं। तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो। 299। = जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रह में भी मूर्च्छा नहीं करता, उसे नवमां श्रावक जानो। 299। (गुण श्रा./181) ( द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/9)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/386 जो परिवज्जइ गंथं अब्भंतर-बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी। 386। = जो ज्ञानी पुरुष पाप मानकर अभ्यंतर और बाह्य परिग्रह को आनंदपूर्वक छोड़ देता है, उसे निर्ग्रंथ (परिग्रह त्यागी) कहते हैं। 386।
सागार धर्मामृत/4/23-29 सग्रंथविरतो यः, प्राग्व्रतव्रातस्फुरद्धृतिः। नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान्। 23। एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं, मोहाभिभवहानये। किंचित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन्सुधीः। 29। = पूर्वोक्त आठ प्रतिमा विषयक व्रतों के समूह से स्फुरायमान है संतोष जिसके ऐसा जो श्रावक ‘ये वास्तु क्षेत्रादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, और मैं इनका नहीं हूँ’ - ऐसा संकल्प करके वास्तु और क्षेत्र आदि दश प्रकार के परिग्रहों को छोड़ देता है वह श्रावक परिग्रह त्याग प्रतिमावान कहलाता है। 23। तत्त्वज्ञानी श्रावक इस प्रकार संपूर्ण परिग्रह को छोड़कर मोह के द्वारा होनेवाले आक्रमण को नष्ट करने के लिए उपेक्षा को विचारता हुआ कुछ काल तक घर में रहे। 29।
लाटी संहिता/7/39-42 ‘नवमप्रतिमास्थानं व्रतं चास्ति गृहाश्रये। यत्र स्वर्णादिद्रव्यस्य सर्वतस्त्यजनं स्मृतम्। 39। अस्त्यात्मैकशरीरार्थं वस्त्रवेश्मादि स्वीकृतम्। धर्मसाधनमात्रं वा शेषं निःशेषणीयताम्। 41। स्यात्पुरस्तादितो यावत्स्वामित्व सद्मयोषिताम्। तत्सर्वं सर्वस्त्याज्यं निःशल्यो जीवनावधि। 42। = व्रती श्रावक की नवम प्रतिमा का नाम परिग्रह त्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक सोना-चाँदी आदि समस्त द्रव्यमात्र का त्याग कर देता है। 39। तथा केवल अपने शरीर के लिए वस्त्र घर आदि आवश्यक पदार्थों को स्वीकार करता है अथवा धर्म साधन के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है, उनका ग्रहण करता है। शेष सबका त्याग कर देता है। भावार्थ - अपनी रक्षा के लिए वस्त्र, घर वा स्थान, अथवा अभिषेक पूजादि के वर्तन, स्वाध्याय आदि के लिए ग्रंथ वा दान देने के साधन रखता है। शेष का त्याग कर देता है। 41। इस प्रतिमा को धारण करने से पूर्व वह घर व स्त्री आदि का स्वामी गिना जाता था परंतु अब सबका जंमपर्यंत के लिए त्याग करके निःशल्य हो जाना पड़ता है। 42।
- परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र/7/8 मनोज्ञामनोज्ञेंद्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच। 8। = मनोज्ञ और अमनोज्ञ इंद्रियों के विषयों में क्रम से राग और द्वेष का त्याग करना ये अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। 8। ( भगवती आराधना/1211 ) ( चारित्तपाहुड़/मूल/36 )।
मूलाचार/आचारवृत्ति/341 अपरिग्गहस्स मुणिणो सद्दप्फरिसरसरूवगंधेसु। रागद्दोसादीणं परिहारो भावणा पंच। 341। = परिग्रहरहित मुनि के शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, इन पाँच विषयों में राग-द्वेष न होना - ये पाँच भावना परिग्रह त्याग महाव्रत की हैं। 341।
सर्वार्थसिद्धि/7/9/349/4 परिग्रहवान् शकुनिरिव गृहीतमांसखंडोऽन्येषां तदर्थिनां पतत्त्रिणामिहैव तस्करादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयाकृतांश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिर्भवति इंधनैरिवाग्नेः लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभां गतिमास्कंदते लुब्धोऽमिति गर्हितश्च भवतीति तद्विरमणश्रेयः। एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्।’’ = जिस प्रकार पक्षी मांस के टुकड़े को प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियों के द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी लोक में उसको चाहनेवाले चोर आदि के द्वारा पराभूत होता है। तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाश से होनेवाले अनेक दोषों को प्राप्त होता है, जैसे ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेक के कारण कार्य और अकार्य का विवेक नहीं करता, परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है। तथा ‘यह लोभी है’ इस प्रकार से इसका तिरस्कार भी होता है इसलिए परिग्रह का त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।
- परिग्रह प्रमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/29 क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः। 29। = क्षेत्र और वास्तु के; हिरण्य और सुवर्ण के, धन और धान्य के, दासी और दास के, तथा कुप्य के प्रमाण का अतिक्रम ये परिग्रह प्रमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। 29। ( सागार धर्मामृत/4/64 में उद्धृत श्री सोमदेवकृत श्लोक)।
रत्नकरंड श्रावकाचार/62 अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच लक्ष्यंते। 62। = प्रयोजन से अधिक सवारी रखना, आवश्यकीय वस्तुओं का अतिशय संग्रह करना, पर का विभव देखकर आश्चर्य करना, बहुत लोभ करना, और किसी पर बहुत भार लादना ये पाँच परिग्रहव्रत के अतिचार कहे जाते हैं। 62।
सागार धर्मामृत/4/64 वास्तुक्षेत्रे योगाद् धनधान्ये बंधनात् कनकरूप्ये। दानात्कुप्ये भावान् - न गवादौ गर्भतो मितीमतीयात्। 64। = परिग्रह-परिमाणाणुव्रत का पालक श्रावक मकान और खेत के विषय में अन्य मकान और अन्य खेत के संबंध से, धन और धान्य के विषय में व्याना बाँधने से, स्वर्ण और चाँदी के विषय में भिन्नधातु वगैरह के विषय में मिश्रण या परिवर्तन से तथा गाय बैल आदि के विषय में गर्भ से मर्यादा को उल्लंघन नहीं करे। 64।
- परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमा में अंतर
लाटी संहिता/7/40-42 इतः पूर्व सुवर्णादि संख्यामात्रापकर्षणः। इतः प्रवृत्तिवित्तस्य मूलादुन्मूलनं व्रतम्। 40। = परिग्रह त्याग प्रतिमा को स्वीकार करनेवाले के पहले सोना चाँदी आदि द्रव्यों का परिमाण कर रखा था, परंतु अब इस प्रतिमा को धारण कर लेने पर श्रावक सोना चाँदी आदि धन का त्याग कर देता है। 40।
- परिग्रह त्याग की महिमा
भगवती आराधना/1183 रागविवागसतण्णादिगिद्धि अवतित्ति चक्कवट्ठिसुहं। णिस्संग णिव्वुइसुहस्स कहं अवघइ अणंतभागं पि। 1183। = चक्रवर्तिका सुख राग भाव को बढ़ानेवाला तथा तृष्णा को बढ़ानेवाला है। इसलिए परिग्रह का त्याग करने पर रागद्वेषरहित मुनि को जो सुख होता है, चक्रवर्ती का सुख उसके अनंत भाग की बराबरी नहीं कर सकता। 1183। ( भगवती आराधना/1174-1182 )।
ज्ञानार्णव/16/33/181 सर्वसंगविर्निर्मुक्तः संवृताक्षः स्थिराशयः। धत्ते ध्यान-धुरां धीरः संयमी वीरवर्णितां। 33। = समस्त परिग्रहों से जो रहित हो और इंद्रियों को संवररूप करनेवाला हो ऐसा स्थिरचित्त संयमी मुनि ही वर्धमान भगवान् की कही हुई धुरा को धारण कर सकता है। 33।
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण
- अंतरंग परिग्रह की प्रधानता
- बाह्य परिग्रह, परिग्रह नहीं अंतरंग ही है
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/3 बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति; आध्यात्मिकस्य संग्रहात्। सत्यमेवमेतत्; प्रधानत्वादभ्यंतर एव संगृहीतः असत्यपि बाह्ये ममेदमिति संकल्पवान् सपरिग्रह एव भवति। = प्रश्न - बाह्य वस्तु को परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता क्योंकि ‘मूर्च्छा’ इस शब्द से अभ्यंतर का संग्रह होता है? उत्तर - यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से अभ्यंतर का ही संग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह के न रहने पर भी ‘यह मेरा है’ ऐसा संकल्पवाला पुरुष परिग्रह सहित ही होता है। ( राजवार्तिक/7/17/3,545/6 )।
समयसार / आत्मख्याति/214/ कलश 146 पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः। तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिगह-भावम्। 146।
समयसार / आत्मख्याति/215 वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात्। = पूर्व बद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, परंतु राग के वियोग के कारण वास्तव में उपभोग परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता। 146। केवल वियोगबुद्धि से (हेय बुद्धि से) ही प्रवर्तमान वह (उपभोग) वास्तव में परिग्रह नहीं है।
योगसार (अमितगति)/5/57 द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निर्वृतिरेनसां। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृतिः पुनः। 57। = जो मनुष्य केवल द्रव्यरूप से विषयों से विरक्त हैं, उनके पापों की निवृत्ति नहीं, किंतु जो भावरूप से निवृत्त हैं, उन्हीं के वास्तविकरूप से कर्मों का संवर होता है।
- तीनों काल संबंधी परिग्रह में इच्छा की प्रधानता
समयसार / आत्मख्याति/215 अतीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं विभर्ति। अनागतस्तु आकांक्ष्याण एव परिग्रहभावं विभृयात् प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्धया प्रवर्तमानो दृष्टः। = अतीत उपभोग है वह अतीत के कारण ही परिग्रह भाव को धारण नहीं करता। भविष्य का उपभोग यदि वांछा में आता हो तो वह परिग्रह भाव को धारण करता है, और वर्तमान का उपभोग है वह यदि रागबुद्धि से हो रहा हो तो ही परिग्रह भाव को धारण करता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/220/296/20 विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरंगपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धिं कर्त्तुं नायाति। = विद्यमान वा अविद्यमान बहिरंग परिग्रह की अभिलाषा रहने पर निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप चित्त की शुद्धि करने में नहीं आती।
- अभ्यंतर के कारण बाह्य है, बाह्य के कारण अभ्यंतर नहीं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/218/292/20 अध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादि-परिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण। = अंतरंग मूर्च्छारूप रागादिपरिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बहिरंग परिग्रह के अनुसार नहीं।
राजवार्तिक/हिंन्दी/9/46/767 विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है... जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा। बहुरि जो विषय ग्रहण कू तो कारण कहे अर मूर्च्छा कूं कारण न कहे, तिनके मत में विषय रूप जो परिग्रह तिनकैं न होते मूर्च्छा का उदय नाहीं सिद्ध होय है। (तातैं नग्नलिंगी भेषी को नग्नपने का प्रसंग आता है।)
- अंतरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है
देखें परिग्रह - 2.2 में नियमसार/60 निरपेक्ष भाव से किया गया त्याग ही महाव्रत है।
देखें परिग्रह - 1.2 प्रमाद ही वास्तव में परिग्रह है, उसके अभाव में निज गुणों में मूर्च्छा का भी अभाव होता है।
- अंतरंग त्याग के बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है
भावपाहुड़/ मूल/3,5,89 बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स। 3। परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेइ बाहरे य जई। बाहिरगंधच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ। 5। बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं। 89। = जो अंतरंग परिग्रह अर्थात् रागादि से युक्त है उसके बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। 3। जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होतैं बाह्य ग्रंथ कूँ छोडै़ं तौ बाह्य परिग्रह का त्याग है सो भाव रहित मुनि कै कहा करै? कछु भी नहीं करै। 5। जो पुरुष भावनारहित है, तिनिका बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरि, कंदराओं आदि में आवास तथा ध्यान अध्ययन आदि सब निरर्थक है। 89। ( भावपाहुड़/ मूल/48-54)।
नियमसार/75 चागो वैरग्ग विणा एदंदो वारिया भणिया। 75। = वैराग्य के बिना त्याग विडंबना मात्र है। 75।
- बाह्य त्याग में अंतरंग की ही प्रधानता है
समयसार/207 को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं। अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो। 207। = अपने आत्मा को ही नियम से पर द्रव्य जानता हुआ कौन सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है। 207। ( समयसार/34 )।
समयसार / आत्मख्याति/207-213 कुतो ज्ञानी परद्रव्यं न गृह्णातीति चेत्।... आत्मानमात्मनः परिग्रहं नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णति। 207। इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति।... ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म (अधर्म, अशनं, पानम् 2-11-213) नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्म (आदि) परिग्रहो नास्ति।
समयसार / आत्मख्याति 285-286 यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति च यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकर्तैव स्यात्। 285। समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं।
समयसार आत्मख्याति टीका/265 किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः। अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। भावं प्रत्याचष्टै। 286। =- प्रश्न - ज्ञानी पर को क्यों ग्रहण नहीं करता? उत्तर - आत्मा को ही नियम से आत्मा का परिग्रह जानता है, इसलिए ‘यह मेरा’ ‘स्व’ नहीं है, ‘मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा जानता हुआ परद्रव्य का परिग्रह नहीं करता। 207।
- इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है - जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है, और अज्ञानमयभाव ज्ञानी के नहीं होता है।... इसलिए अज्ञानमय भावरूप इच्छा के अभाव होने से ज्ञानी धर्म को, (अधर्म को, अशन को, पान को) नहीं चाहता; इसलिए ज्ञानी के धर्मादि का परिग्रह नहीं है। 210-213।
- जब निमित्तरूप परद्रव्य का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करता है, तब उसके नैमित्तिक रागादि भावों का भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान हो जाता है, तब वह साक्षात् अकर्ता ही है। 285। समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। 286।
- अध्यवसान के प्रतिषेधार्थ ही बाह्यवस्तु का प्रतिषेध है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/220 उपधेर्विधीयमानः प्रतिषेधोऽंतरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्। = किया जानेवाला उपधि का निषेध अंतरंग छेद का ही निषेध है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/387 बाहिरंगथविहीणा दलिद्द-मणुवा सहावदो होंति। अव्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदेको विछंडेदु। 387। = बाह्य परिग्रह से रहित द्ररिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किंतु अंतरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता। 387।
- बाह्य परिग्रह, परिग्रह नहीं अंतरंग ही है
- बाह्य परिग्रह की कथंचित् मुख्यता व गौणता
- बाह्य परिग्रह को ग्रंथ कहना उपचार है
धवला 9/4,1,67/323/6 कथं खेत्तादोणं भावगंथसण्णा। कारणे कज्जोवयारादो। व्यवहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथी, अब्भंतरगंथकारणत्तादो एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। = प्रश्न - क्षेत्रादि को भावग्रंथ संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर - कारण में कार्य का उपचार करने से क्षेत्रादिकों की भावग्रंथ संज्ञा बन जाती है। व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रंथ हैं, क्योंकि वे अभ्यंतर ग्रंथ के कारण हैं, और इनका त्याग करने से निर्ग्रंथता है।
- बाह्य त्याग के बिना अंतरंग त्याग अशक्य है
भगवती आराधना/1120 जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स। तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स। 1120। = ऊपर का छिलका निकाले बिना चावल का अंतरंग मल नष्ट नहीं होता। वैसे बाह्य परिग्रह रूप मल जिसके आत्मा में उत्पन्न हुआ है, ऐसे आत्मा का कर्ममल नष्ट होना अशक्य है। 1120। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/220 ) ( अनगारधर्मामृत/4/105 )।
प्रवचनसार मू./220 णहि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिवखुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ। 22॥ = यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती; और जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है। 220।
भावपाहुड़ मू./3 भावविसुद्धि णिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। = बाह्य परिग्रह का त्याग भाव विशुद्धि के अर्थ किया जाता है।
कषायपाहुड़/1/1,1/ शा.50/104 सक्कं परिहरियव्वं असक्कगिज्जम्मि णिम्ममा समणा। तम्हा हिंसायदणे अपरिहरंते कथमहिंसा। 50। = साधुजन जो त्याग करने के लिए शक्य होता है उसके त्याग करने का प्रयत्न करते हैं, और जो त्याग करने के लिए अशक्य होता है उससे निर्मम होकर रहते हैं, इसलिए त्याग करने के लिए शक्य भी हिंसायतन के परिहार नहीं करने पर अहिंसा कैसे हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती। 50।
समयसार / आत्मख्याति/284-287 यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामतिं न प्रत्याचष्टे तावत्कर्तैव स्यात्। 284-285। समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्यचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे। 286-287। = 1. जब तक उसके (आत्मा के) निमित्तभूत परद्रव्य के अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तब तक उसके रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जब तक रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, तब तक रागादि भावों का कर्ता ही है। 284-285। समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव को नहीं त्यागता। 286-287।
ज्ञानार्णव/16/26-27/180 अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम् स्थिरत्वं वा सुराचलः। न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संवृतेंद्रियः। 26। बाह्यानपि च यः संगान्परित्यक्तुमनीश्वरः। स क्लीवः कर्मणां सैन्यं कथमग्रेहनिष्यति। 27। = कदाचित् सूर्य अपना स्थान छोड़ दे और सुमेरु पर्वत स्थिरता छोड़ दे तो संभव है, परंतु परिग्रह सहित मुनि कदापि जितेंद्रिय नहीं हो सकता। 26। जो पुरुष बाह्य के भी परिग्रह को छोड़ने में असमर्थ है वह नपुंसक आगे कर्मों की सेना को कैसे हनेगा?। 27।
राजवार्तिक/ हिं./9/46/766 बाह्य परिग्रह का सद्भाव होय तो अभ्यंतर के ग्रंथ का अभाव होय नहीं।... जातैं विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है। जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करै है सो मूर्च्छा तो करै है। सो जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा।
- बाह्य पदार्थों का आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते हैं
समयसार/265 वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि। 265। = जीवों के जो अध्यवसान होता है, वह वस्तु को अवलंबन कर होता है तथापि वस्तु से बंध नहीं होता, अध्यवसान से ही बंध होता है। 265। ( कषायपाहुड़ 1,/ गा. 51। 105) (देखें राग - 5.3)।
प्रवचनसार/ मू/221 किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि। = उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा, आरंभ या असंयम न हो, यह कैसे हो सकता है? (कदापि नहीं हो सकता) तथा जो पर द्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है?
- बाह्य परिग्रह सर्वदा बंध का कारण है
प्रवचनसार/219 हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध काय चेटम्हि। बंधी धुवमुवधीदो इदिसमणा छड्ढिया सव्वं। 219। = (साधु के) काय चेष्टा पूर्वक जीव के मरने पर बंध होता है अथवा नहीं होता, (किंतु) उपधि से-परिग्रह से निश्चय ही बंध होता है। इसलिए श्रमणों ने (सर्वज्ञदेव ने) सर्व परिग्रह को छोड़ा है। 219।
- बाह्य परिग्रह को ग्रंथ कहना उपचार है
- बाह्याभ्यंतर परिग्रह समन्वय
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना
भगवती आराधना/1915-1916 अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे च यदि। अब्भंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे। 1915। अब्भंतर सोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे। 1916। = अंतरंगशुद्धि से बाह्य परिग्रह का नियम से त्याग होता है। अभ्यंतर अशुद्ध परिणामों से ही वचन और शरीर से दोषों की उत्पत्ति होती है। अंतरंगशुद्धि होने से बहिरंगशुद्धि भी नियमपूर्वक होती है। यदि अंतरंगपरिणाम मलिन होंगे तो मनुष्य शरीर और वचनों से अवश्य दोष उत्पन्न करेगा। 1915-1916।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/219 उपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्धयदैकांतिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकांतिकबंधत्वेन छेदत्वमैकांतिकमेव... अतएव चापरैरप्यंतरंगच्छेदवत्तदनंतरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपाधिः प्रतिषेध्यः। 2। = परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होनेवाले एकांतिक अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकांतिक बंध रूप है, इसलिए उसे छेद ऐकांतिक ही है।... इसलिए दूसरों को भी, अंतरंगछेद की भाँति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह अंतरंग छेद के बिना नहीं होता। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/221 ), (देखें परिग्रह - 4.3,4)
- बाह्य परिगह के ग्रहण में इच्छा का सद्भाव सिद्ध होता है
समयसार / आत्मख्याति/220-223/ क,151 ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते, मंक्षे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बंधः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते, ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध्रुवम्। = हे ज्ञानी! तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है तथापि यदि तू यह कहे कि ‘‘परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँ’’ तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकार से भोगने वाला है, जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है, यह महा खेद की बात है! यदि तू कहे कि ‘‘सिद्धांत में यह कहा है कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है? तू ज्ञानरूप होकर निवास कर, अन्यथा (यदि भोगने की इच्छा करेगा) तू निश्चयतः अपराध से बंध को प्राप्त होगा।
- बाह्यपरिग्रह दुःख व इच्छा का कारण है
भगवती आराधना/1914 जह पत्थरो पडंतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंकं। खोभेइ पसंतंपि कसायं जीवस्स तह गंथो। 1914। = जैसे ह्रद में पाषाण पड़ने से तलभाग में दबा हुआ भी कीचड़ क्षुब्ध होकर ऊपर आता है वैसे परिग्रह जीव के प्रशांत कषायों को भी प्रगट करते हैं। 1914। ( भगवती आराधना/1912-1913 )।
कुरल/35/1 मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत्किंचित् परिमुंचति। तदुत्पन्नमहादुःखान्निजात्मा तेन रक्षितः। 1। = मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होनेवाले दुःख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है। 1।
परमात्मप्रकाश/ मू./108 परु जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति। परसंगइँ परमप्पयहं लक्खहं जेण चलंति। 108। = परम मुनि उत्कृष्ट आत्म द्रव्य को जानते हुए भी परद्रव्य को छोड़ देते हैं, क्योंकि परद्रव्य के संसर्ग से ध्यान करने योग्य जो परमपद उससे चलायमान हो जाते हैं। 108।
ज्ञानार्णव/16/20 अणुमात्रादपि ग्रंथांमोहग्रंथिर्दृढीभवेत्। विसर्पति ततस्तृष्णा यस्यां विश्वं न शांतये। 20। = अणुमात्र परिग्रह के रखने से मोहकर्म की ग्रंथि दृढ़ होती है और इससे तृष्णा की ऐसी वृद्धि हो जाती है कि उसकी शांति के लिए समस्त लोक की संपत्ति से भी पूरा नहीं पड़ता है। 20।
- इच्छा ही परिग्रह ग्रहण का कारण है
भगवती आराधना/1121 रागी लोभी मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा। तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णरो कुणइ। 1121। = राग, लोभ और मोह जब मन में उत्पन्न होते हैं तब इस आत्मा में बाह्यपरिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि होती है। ( भगवती आराधना/1912 )।
- आकिंचन्य भावना से परिग्रह का त्याग होता है
समयसार / आत्मख्याति/286-287 अधः कर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात्, इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे। = अधःकर्म आदि पुद्गलद्रव्य के दोषों को आत्मा वास्तव में नहीं करता, क्योंकि वे परद्रव्य के परिणाम हैं इसलिए उन्हें आत्मा के कार्यत्व का अभाव है; इसीलिए अधःकर्म और औद्देशिक पुद्गलकर्म मेरा कार्य नहीं है क्योंकि वह नित्य अचेतन है इसलिए उसको मेरे कार्यत्व का अभाव है, इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा जैसे नैमित्तिकभूत बंधसाधक भाव का प्रत्याख्यान करता है।
योगसार (अमितगति)/6/30 स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्यजिहासया। न जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावक। 30। = विद्वानों को चाहिए कि पर-पदार्थों के त्याग की इच्छा से आत्मा के स्वरूप की भावना करैं, क्योंकि जो पुरुष आत्मा के स्वरूप की पर्वाह नहीं करते वे परद्रव्य का त्याग कहीं कर सकते हैं। 30।
सामायिक पाठ अमितगति/24 न संति बाह्याः मम किंचनार्थाः, भवामि तेषां न कदाचनाहं। इत्थं विनिश्चिंत्य विमुच्य बाह्यं स्वस्थं सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै। 24। = ‘किंचित् भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है, और न मैं कभी इनका हो सकता हूँ’, ऐसा विचार कर हे भद्र! बाह्य को छोड़ और मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा। 24।
अनगारधर्मामृत/4/106 परिमुच्च करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारंभः। त्याज्यं ग्रंथमशेषं त्यक्त्वापरनिर्ममः स्वशर्म भजेत्। 106। = इंद्रिय विषय रूपी मरीचिका को छोड़कर, समस्त आरंभिका को छोड़कर,समस्त गृहिणी आदि बाह्य परिग्रह को छोड़कर तथा शरीरादिक परिग्रहों के विषय में निर्मम होकर - ‘ये मेरे हैं’ इस संकल्प को छोड़कर साधुओं को निजात्मस्वरूप से उत्पन्न सुख का सेवन करना चाहिए। 106।
- अभ्यंतर त्याग में सर्व बाह्य त्याग अंतर्भूत है
समयसार / आत्मख्याति/404/ क 236 उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्, तथात्तमादेयमशेषतस्तत्। यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः, पूर्णस्य संधारणमात्मनीह। 236। = जिसने सर्वशक्तियों को समेट लिया है (अपने में लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्मा का आत्मा में धारण करना सो ही सब छोड़ने योग्य सब छोड़ा है, और ग्रहण करने योग्य ग्रहण किया है। 236।
- परिग्रह त्याग व्रत का प्रयोजन
राजवार्तिक/9/26/10/625/14 निःसंगत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्युदास दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्येवमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। = निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग दोषाच्छेद और मोक्षमार्ग भावनातत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है।
- निश्चय व्यवहार परिग्रह का नयार्थ
धवला 9/4,1,67/323/7 ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथी, अब्भंतरगंथंकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गं थत्तं। णइगमएण तिरयणाणुवजोगी बज्झब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गंथत्तं। = व्यवहार नय की अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रंथ हैं, क्योंकि वे अभ्यंतर ग्रंथ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रंथता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रंथ हैं, क्योंकि वे कर्मबंध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रंथता है। नैगमनय की अपेक्षा तो रत्नत्रय में उपयोगी पड़नेवाला जो भी बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग है, उसे निर्ग्रंथता समझना चाहिए।
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना
पुराणकोष से
चेतन और अचेतन रूप बाह्य संपत्ति में तथा रागादि रूप अंतरंग विकार में ममताभाव रखना । यह बाह्य और आभ्यंतर के भेद से दो प्रकार का होता है । इसकी बहुलता नरक का कारण है । इससे चारों प्रकार का बंध होता है । परिग्रही मनुष्यों के चित्तविशुद्धि नहीं होती, जिससे धर्म की स्थिति उनमें नहीं हो पाती । इसकी आसक्ति से जीववध सुनिश्चित रूप से होता है और राग-द्वेष जन्मते हैं जिससे जीव सदैव संसार के दुःख पाता रहता है । महापुराण 5.232, 10. 21-23, 17.196, 59.35, पद्मपुराण 2.180-182, हरिवंशपुराण 58.133