शरीर
From जैनकोष
जीव के शरीर पाँच प्रकार के माने गये है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्माण ये पाँचों उतृतरोतृतर सूक्ष्म हैं।
- मनुष्य तिर्यंच का शरीर औदारिक होने के कारण स्थूल व दृष्टिगत है।
- देव नारकियों का वैक्रियिक शरीर होता है।
- तैजस व कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं।
- आहारक शरीर किन्हीं तपस्वी जनों के ही सम्भव हैं।
शरीर यद्यपि जीव के लिए अपकारी है पर मुमुक्षुजन इसे मोक्षमार्ग में लगाकर उपकारी बना लेते हैं।
- शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश
- शरीरों की उत्पति कर्माधीन है।-देखें - कर्म।
- औदारिकादि शरीर-दे.वह वह नाम।
- प्रत्येक व साधारण शरीर।-देखें - वनस्पति।
- ज्ञायक व च्युत, च्यावित तथा त्यक्त शरीर।- देखें - निक्षेप / ५ ।
- शरीर नामकर्म की बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान।-दे.वह वह नाम।
- जीव का शरीर के साथ बन्ध विषयक।-देखें - बन्ध।
- जीव व शरीर की कथंचित् पृथक्ता।- देखें - कारक / २ ।
- जीव का शरीर प्रमाण अवस्थान।- देखें - जीव / ३ ।
- शरीरों में प्रदेशों की उत्तरोत्तर तरतमता।
- शरीरों में परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान।
- शरीरों के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान।
- शरीरों की अवगाहना व स्थिति।-दे.वह वह नाम।
- शरीरों का वर्ण व द्रव्य लेश्या।- देखें - लेश्या / ३ ।
- शरीर की धातु उपधातु।-देखें - औदारिक।
- जीव को शरीर कहने की विवक्षा।- देखें - जीव / १ / ३ ।
- द्विचरम शरीर।-देखें - चरम।
- शरीरों का स्वामित्व
- तीर्थंकरों व शलाका पुरुषों के शरीर की विशेषता।-दे.वह वह नाम।
- मुक्त जीवों के चरम शरीर सम्बन्धी।- देखें - मोक्ष / ५ ।
- साधुओं के मृत शरीर की क्षेपण विधि।- देखें - सल्लेखना / ६ / १ ।
- महामत्स्य का विशाल शरीर।-देखें - संमूर्च्छन।
- शरीरों की संघातन परिशातन कृति। (ध.९/३५५-४५१)
- पाँचों शरीरों के स्वामियों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ।-दे.वह वह नाम।
- शरीर के अंगोपांग का नाम निर्देश।-देखें - अंगोपांग।
- शरीर का कथंचित् इष्टानिष्टपना
- शरीर की कथंचित् इष्टता अनिष्टता।- देखें - आहार / II / ६ / २ ।
- शरीर दुख का कारण है।
- शरीर वास्तव में अपकारी है।
- धर्मार्थी के लिए शरीर उपकारी है।
- शरीर ग्रहण का प्रयोजन।
- शरीर बन्ध बताने का प्रयोजन।
- योनि स्थान में शरीरोत्पत्तिक्रम।- देखें - जन्म / १ ।
- शरीर का अशुचिपना।- देखें - अनुप्रेक्षा / १ / ६ ।