मोहनीय
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
आठों कर्मों में मोहनीय ही सर्व प्रधान है, क्योंकि जीव के संसार का यही मूल कारण है। यह दो प्रकार का है−दर्शन मोह व चारित्र मोह। दर्शनमोह सम्यक्त्व को और चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्र को घातता है। इन दोनों के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि व रागी - द्वेषी हो जाता है। दर्शनमोह के 3 भेद हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोह के दो भेद हैं−कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय। क्रोधादि चार कषाय हैं और हास्यादि 9 अकषाय हैं।
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.1 | मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.2 | मोहनीय कर्म के भेद। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.3 | मोहनीय के लक्षण सम्बन्धी शंका। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.4 | मोहनीय व ज्ञानावरणीय कर्मों में अन्तर। ]]
- दर्शन व चारित्र मोहनीय में कथंचित् जातिभेद।−देखें संक्रमण - 3।
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.5 | सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.6 | मोह प्रकृति में दशों करणों की सम्भावना।−देखें करण - 2। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.7 | मोह प्रकृतियों की बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम ।]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.8 | मोहोदय की उपेक्षा की जानी सम्भव है। - देखें विभाव - 4.2। ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.9 | मोहनीय का उपशमन विधान।−देखें उपशम । ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.10 | मोहनीय का क्षपण विधान।−देखें क्षय । ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.11 | मोह प्रकृतियों के सत्कर्मिकों सम्बन्धी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम । ]]
- [[मोहनीय सामान्य निर्देश#1.1 | मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण। ]]
- [[ दर्शनमोहनीय निर्देश ]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.1 | दर्शनमोह सामान्य का लक्षण।]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.2 | दर्शनमोहनीय के भेद। ]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.3 | दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण। ]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.4| तीनों प्रकृतियों में अन्तर। ]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.5 | एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?]]
- मिथ्यात्व प्रकृति का त्रिधाकरण।−देखें उपशम /2।
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.6 | मिथ्यात्व प्रकृति में से मिथ्यात्वकरण कैसा ?]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.7 | सम्यक् प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.8 | सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?]]
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना सम्बन्धी।−देखें संक्रमण - 4।
- सम्यक्त्व प्रकृति देश घाती कैसे ?–देखें अनुभाग - 4.6.3।
- मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व में से पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है।−देखें क्षय - 2।
- मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। - देखें मरण - 3।
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.9 | दर्शनमोहनीय के बन्ध योग्य परिणाम।]]
- [[दर्शनमोहनीय निर्देश#2.1 | दर्शनमोह सामान्य का लक्षण।]]
- दर्शनमोह के उपशमादि के निमित्त।−देखें सम्यग्दर्शन - III.1।
- [[ चारित्रमोहनीय निर्देश ]]
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.1 | चारित्रमोहनीय सामान्य का लक्षण। ]]
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.2 | चारित्रमोहनीय के भेद - प्रभेद। ]]
- हास्यादि की भाँति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं है ? −देखें करुणा - 2।
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.3 | कषाय व अकषाय वेदनीय के लक्षण। ]]
- कषाय व अकषाय वेदनीय में कथंचित् समानता।−देखें संक्रमण - 3।
- अनन्तानुबन्धी आदि भेदों सम्बन्धी।−देखें वह वह नाम ।
- क्रोध आदि प्रकृतियों सम्बन्धी।−देखें कषाय ।
- हास्य आदि प्रकृतियों सम्बन्धी।−देखें वह वह नाम ।
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.4 | चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण के विच्छेद में नहीं। ]]
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.5 | कषायवेदनीय के बन्धयोग्य परिणाम। ]]
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.6 | अकषायवेदनीय के बन्ध योग्य परिणाम। ]]
- [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.1 | चारित्रमोहनीय सामान्य का लक्षण। ]]
पुराणकोष से
आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियों होती हैं । मूलत: इसके दो भेद हैं― दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियां है― मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं― नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देनी इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है । हरिवंशपुराण 58.216-221, 231-241, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.157, 160