काल
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- असुरकुमार नाम व्यंतर जातीय देवों का एक भेद–देखें असुर ।
- पिशाच जातीय व्यंतर देवों का एक भेद–देखें पिशाच ।
- उत्तर कालोद समुद्र का रक्षक व्यंतर देव–देखें व्यंतर - 4।
- एक ग्रह–देखें ग्रह ।
- पंचम नारद विशेष परिचय–देखें शलाका पुरुष - 6।
- चक्रवर्ती की नवनिधियों में से एक–देखें शलाका पुरुष - 2.9।
यद्यपि लोक में घंटा, दिन, वर्ष आदि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है। परमाणु अथवा सूर्य आदि की गति के कारण या किसी भी द्रव्य की भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओं में आरोपित किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित काल का व्यवहार भी न हो। यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सैकेंड से वर्ष अथवा शताब्दी तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है। परंतु आगम में उसकी जघन्य सीमा ‘समय’ है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समय से छोटा काल संभव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समय से जल्दी नहीं बदलती। एक युग में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, और एक कल्प में दुःख से सुख की वृद्धि अथवा सुख से दुःख की ओर हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छ: छ: काल कल्पित किये गये हैं। इन कालों या कल्पों का प्रमाण कोड़ाकोड़ी सागरों में मापा जाता है।
- काल सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद।
- दीक्षा-शिक्षादि काल की अपेक्षा भेद।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद|
- स्वपर काल के लक्षण।
- स्वपर काल की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें सप्तभंगी - 5.8
- स्थितिबंधापसरण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- स्थितिकांडकोत्करण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- अवहार काल का लक्षण।
- निक्षेप रूप कालों के लक्षण।
- सम्यग्ज्ञान का काल नाम अंग।
- पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे संभव है।
- दीक्षा-शिक्षादि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं।
- काल की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद–देखें सप्तभंगी - 5.8
- आबाधाकाल–देखें आबाधा
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण।
- काल द्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है।
- काल द्रव्य गति में भी सहकारी है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य-विशेष स्वभाव।
- काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं।
- कालद्रव्य व अनस्तिकायपना–देखें अस्तिकाय
- काल द्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक् पृथक् अवस्थित है।
- काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं।
- समयादि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्मादि द्रव्य निमित्त हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- काल द्रव्य न मानें तो क्या दोष है।
- अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या ?
- स्वयंकाल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या ?
- काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखंड द्रव्य मानिए।
- काल द्रव्य क्रियावान् नहीं है।–देखें द्रव्य - 3।
- निश्चय काल का लक्षण।
- कालद्रव्य का उदासीन कारणपना।–देखें कारण - III.2।
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान
- समय निमिषादि काल प्रमाणों की सारणी–देखें गणित - I.1.4।
- समय निमिषादि काल प्रमाणों की सारणी–देखें गणित - I.1.4।
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त।
- परमाणु की तीव्र गति से समय का विभाग नहीं हो जाता।
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है।
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है।
- जब सब द्रव्यों का परिणमन काल है तो मनुष्य क्षेत्र में ही इसका व्यवहार क्यों ?
- भूत वर्तमान व भविष्यत् काल का प्रमाण।
- अर्ध पुद्गल परावर्तन काल की अनंतता। देखें - अनंत - 2.3।
- वर्तमान काल का प्रमाण । देखें - वर्तमान ।
- भवस्थिति व कायस्थिति में अंतर–देखें स्थिति - 2।
- उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
- कल्प काल निर्देश।
- कल्प काल निर्देश।
- काल के उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद।
- दोनों के सुषमादि छह-छह भेद।
- सुषमा दुषमा सामान्य का लक्षण।
- अवसर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- उत्सर्पिणी काल का लक्षण व काल प्रमाण।
- उत्सर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- छह कालों का पृथक् पृथक् प्रमाण।
- अवसर्पिणी के छह भेदों में क्रम से जीवों की वृद्धि होती है।
- उत्सर्पिणी के छह कालों में जीवों की क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि।
- युग का प्रारंभ व उसका क्रम।
- कृतयुग या कर्मभूमि का प्रारंभ–देखें भूमि - 4।
- हुंडावसर्पिणी काल की विशेषताएँ।
- ये उत्सर्पिणी आदि षट्काल भरत व ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं।
- मध्यलोक में सुषमादुषमा आदि काल विभाग।
- छहों कालों में सुख-दुःख आदि का सामान्य कथन।
- चतुर्थ काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल में भी ध्यान व मोक्षमार्ग–देखें धर्मध्यान - 5।
- षट्कालों में आयु आहारादि की वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी।
- कालानुयोग द्वार तथा तत्संबंधी कुछ नियम
- कालानुयोग द्वार का लक्षण
- काल व अंतरानुयोग द्वार में अंतर
- काल प्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
- ओघ प्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि
- ओघ प्ररूपणा में एक जीव की जघन्य काल प्राप्ति विधि
- गुणस्थानों में विशेष संबंधी नियम।–देखें सम्यक्त्व व संयम मार्गणा ।
- देव गति में मिथ्यात्व के उत्कृष्ट काल संबंधी नियम
- इंद्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
- काय मार्गणा में त्रसों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि
- वेद मार्गणा में स्त्री वेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
- वेद मार्गणा में पुरुष वेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
- कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि
- मति, श्रुत ज्ञान का उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।–देखें वेदक सम्यक्त्ववत् ।
- कालानुयोग द्वार का लक्षण
- सासादन के काल संबंधी–देखें सासादन ।
- कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ
- जीवों की काल विषयक ओघ प्ररूपणा
- जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा
- सम्यक्त्व प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा
- पाँच शरीरबद्ध निषेकों का सत्ताकाल
- पाँच शरीरों की संघातन परिशातन कृति
- योग स्थानों का अवस्थान काल
- अष्टकर्म के चतुर्बंध संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- अष्टकर्म के उदीरणा संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- अष्टकर्म के उदय संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- अष्टकर्म के अप्रशस्तोपशमना संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- अष्टकर्म के संक्रमण संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- अष्टकर्म के स्वामित्व (सत्त्व) संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
- मोहनीय के चतु:बंध विषयक ओघ-आदेश प्ररूपणा
- काल-सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)
धवला 4/1,5,1/322/6 अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा परिणामाणं च आणंतिओवलंभा।=परिणामों से पृथक् भूतकाल का अभाव है, तथा परिणाम अनंत पाये जाते हैं।
धवला 9/4,1,2/27/11 तीदाणागयपज्जायाणं...कालत्तब्भुवगमादो।=अतीत व अनागत पर्यायों को काल स्वीकार किया गया है।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/277 तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्यंत। अस्ति विवक्षितत्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।=सत् सामान्य रूप परिणमन की विवक्षा से काल, सामान्य काल कहलाता है। तथा सत् के विवक्षित द्रव्य गुण वा पर्याय रूप अंशों के परिणमन की अपेक्षा से जब काल की विवक्षा होती है वह विशेष काल है।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 कालो हि द्विविध: परमार्थकालो व्यवहारकालश्च।=काल दो प्रकार का है–परमार्थकाल और व्यवहारकाल। ( सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ); ( सर्वार्थसिद्धि/4/14/246/4 ); ( राजवार्तिक/4/14/2/222/1 ); ( राजवार्तिक/5/22/24/482/1 )
तिलोयपण्णत्ति/4/279 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पयट्टेदि।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।
- दीक्षा-शिक्षा आदि काल की अपेक्षा भेद
गोम्मटसार कर्मकांड/583 विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते। आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला।583।=ते नामकर्म के उदय स्थान जिस-तिस काल विषैं उदय योग्य हैं तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। ते काल विग्रहगति, वा कार्मण शरीरविषैं, मिश्रशरीरविषैं, शरीर पर्याप्ति विषैं, आनपान पर्याप्ति विषैं, भाषा-पर्याप्ति विषैं अनुक्रमतैं पाँच जानने।
गोम्मटसार कर्मकांड/615 (इस गाथा) वेदक काल व उपशम काल ऐसे दो कालों का निर्देश है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/11 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थभेदेन षट्काला भवंति।=दीक्षा काल, शिक्षा काल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल के भेद से काल के छह भेद हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 तत्स्थिते: सोपक्रमकाल: अनुपक्रमकालश्चेति द्वौ भंगौ भवत:।=उनकी स्थिति (काल) के दोय भाग हैं—एक सोपक्रम काल, एक अनुपक्रम काल।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद
धवला 4/1,5,1/ पृष्ठ/पंक्ति णामकालो ठवणकालो दव्वकालो भावकालो चेदिकालो चउव्विहो (313/11) सा दुविहा, सब्भावासब्भावभेदेण।...दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य।...णो आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेदेण तिविहो। तत्थ जाणुगसरीरणोआगमदव्वकालो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेदेण तिविहो। (314/1)। भावकालो दुविहो, आगम-णोआगमभेदा।=नाम काल, स्थापना काल, द्रव्य काल और भाव काल इस प्रकार से काल चार प्रकार का है (313/11)। स्थापना, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार की है।...आगम और नोआगम के भेद से द्रव्य काल दो प्रकार का है।...ज्ञायक शरीर, भव्य और तद्वयतिरिक्त के भेद से नोआगम द्रव्यकाल तीन प्रकार का है, उनमें ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्य काल भावी, वर्तमान और व्यक्त के भेद से तीन प्रकार का है (314/1)। आगम और नोआगम के भेद से भाव काल दो प्रकार का है।
धवला 4/1,5,1/322/4 सामण्णेण एयविहो। तीदो अणागदो वट्टमाणो त्ति तिविहो। अथवा गुणट्ठिदिकालो भवट्ठिदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भवटि्ठदिकालो त्ति छव्विहो। अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूतकालाभावा, परिणामाणां च आणंतिओवलंभा।=सामान्य से एक प्रकार का काल होता है। अतीतानागत वर्तमान की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। अथवा गुणस्थिति काल, भवस्थिति काल, कर्मस्थिति काल, कायस्थिति काल, उपपाद काल और भावस्थिति काल, इस प्रकार काल के छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकार का है, क्योंकि परिणामों से पृथग्भूत काल का अभाव है, तथा परिणाम अनंत पाये जाये।
धवला 11/4,2,6,1/75-77/4
चार्ट - स्वपर काल के लक्षण
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमय: कालो भण्यते।=वर्तमान शुद्ध पर्याय से परिणत आत्मद्रव्य की वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है।
पंचाध्यायी x`/5/274,471 कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुन: स्वभावेन।...।274। काल: समयो यदि वा तद्देशे वर्तमानकृतिश्चार्थात् ।...।471।=वर्तना को अथवा वस्तु के प्रतिसमय होने वाले स्वाभाविक परिणमन को काल कहते हैं।...।274। काल नाम समय का है अथवा परमार्थ से द्रव्य के देश में वर्तना के आकार का नाम भी काल है।...।471। राजवार्तिक/ हिंदी /1/6/49 गर्भ से लेकर मरण पर्यंत (पर्याय) याका काल है।
राजवार्तिक/ हिंदी /9/7/672 निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रिया रूप तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप परिणाम (पर्याय) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। राजवार्तिक/ हिंदी./9/7/672 अतीत अनागत वर्तमान रूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल (परकाल) निमित्त संसार है। - दीक्षा शिक्षादि कालों के लक्षण
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11 यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यंतरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानंतरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानंतरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानंतरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवांतरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्म आराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षा काल है। दीक्षा के अनंतर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्य प्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषण काल है। गणपोषण के अनंतर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्म संस्कार काल है। तदनंतर उसी के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखना काल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरम देही, अथवा उससे विपरीत जो भवांतर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थ काल कहलाता है। - दीक्षादि कालों के आगम की अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/8 यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुख: सन् पंचाचारोपेतमाचार्यं प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रंथशिक्षां गृह्णाति तदा शिक्षाकाल:, शिक्षानंतरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पंचभावनासहित: सन् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल:।...गणपोषणानंतरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखनां करोति तदा सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनांतरं चतुर्विधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति।=जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधना के अभिमुख हुआ, पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके उभय परिग्रह से रहित होकर जिन दीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनंतर चतुर्विध आराधना के ज्ञान के परिज्ञान के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग के ग्रंथों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावना सहित होता हुआ जब शिष्यगण को पोषण करता है तब गणपोषण काल है।...गणपोषण के पश्चात् अपने गण अर्थात् संघ को छोड़कर आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ को जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कार के अनंतर आचाराराधना में कथित क्रम से द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के उपरांत चार प्रकार की आराधना की भावनारूप समाधि को धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है। - सोपक्रमादि कालों के लक्षण
धवला 14/4,2,7,42/32/1 पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेण कालो जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा।=प्रारंभ किये गये प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभाग कांडक घात है। परंतु उत्कीरणकाल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। विशेषार्थ—कांडक पोर को कहते हैं। कुल अनुभाग के हिस्से करके एक एक हिस्से का फालिक्रम से अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा अभाव करना अनुभाग कांडकघात कहलाता है। (उपरोक्त कथन पर से उत्कीरणकाल का यह लक्षण फलितार्थ होता है कि कुल अनुभाग के पोर कांडक करके उन्हें घातार्थ जिस अंतर्मुहूर्तकाल में स्थापित किया जाता है, उसे उत्कीरण काल कहते हैं।
धवला 14/5,6,631/485/12 प्रबध्नंति एकत्वं गच्छंति अस्मिन्निति प्रबंधन:। प्रबंधनश्चासौ कालश्च प्रबंधकाल:। बँधते अर्थात् एकत्व को प्राप्त होते हैं, जिसमें उसे प्रबंधन कहते हैं। तथा प्रबंधन रूप जो काल वह प्रबंधन काल कहलाता है। गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/615/820/5 सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्या: स्थितिसत्त्वं यावत्त्रसे उदधिपृथक्त्व एकाक्षे च पल्यासंख्यातैकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते। तत उपर्युपशमकाल इति।=सम्यक्त्व मोहिनी अर मिश्र मोहनी इनकी जो पूर्वे स्थितिबंधी थी सो वह सत्तारूप स्थिति त्रसकैं तौ पृथक्त्व सागर प्रमाण अवशेष रहैं अर एकेंद्रीकैं पल्य का असंख्यातवाँ भाग करि हीन एक सागर प्रमाण अवशेष रहै तावत्काल तौ वेदक योग्य काल कहिए। बहुरि ताकै उपरि जो तिसतैं भी सत्तारूप स्थिति घाटि होइ तहाँ उपशम योग्य काल कहिए।
गोम्मटसार कर्मकांड./भाषा/583/789 ते नामकर्म के उदय स्थान जिस जिस काल विषैं उदय योग्य है तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। (इसको उदय काल कहते हैं)...कार्मण शरीर जहाँ पाइए सो कार्मण काल यावत् शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीर मिश्रकाल, शरीर पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीरपर्याप्ति काल, सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् भाषा पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् आनपान पर्याप्तिकाल, भाषा पर्याप्ति पूर्ण भएँ पीछैं सर्व अवशेष आयु प्रमाण भाषापर्याप्ति कहिए। गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 उपक्रम: तत्सहित: काल: सोपक्रमकाल: निरंतरोत्पत्तिकाल इत्यर्थ:।...अनुपक्रमकाल: उत्पत्तिरहित: काल:।=उपक्रम कहिए उत्पत्ति तोंहि सहित जो काल सो सोपक्रम काल कहिए सो आवली के असंख्यातवें भाग मात्र है।...बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ सो अनुपक्रम काल कहिए।
लब्धिसार/ भाषा/53/85 अपूर्वकरण के प्रथम समय तैं लगाय यावत् सम्यक्त्व मोहनी, मिश्रमोहनी का पूरणकाल जो जिस कालविषैं गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमावै है।
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
- ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/46/47/10 उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल:।=उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनि का संस्कार जितने काल तक रहे ताका नाम वासनाकाल है। भगवती आराधना/ भाषा/211/426 दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है, तथा व्रतादिकों में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता है उसको प्रतिसेवना काल कहते हैं। - अवहार काल का लक्षण
धवला 3/1,2,56/269/11 का सारार्थ भागाहार रूप काल का प्रमाण। - निक्षेपरूप कालों के लक्षण
धवला 4/1,5,1/313-316/10 तत्थ णामकालो णाम कालसद्दो।...सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम।...पल्लवियं...वणसंडुज्जोइयचित्तालिहियवसंतो। अब्भवट्ठवणकालो णाम मणिभेद-गेरुअ-मट्टी-ठिक्करादिसु वसंतो ति बुद्धिबलेण ठविदो।...आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो।...भवियणोआगमदव्वकालोभवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो। ववगददोगंध-पंचरसट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो...अत्थो तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो णाम।...जीवाजीवादिअट्ठभंगदव्वं वा णोआगमदव्वकालो। ...कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो जीवो आगमभावकालो। दव्वकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णदि।...तस्स समय-आवलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख–मांस-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व–पलिदोवम-सागरोवमादि-रुवत्तादो। =’काल’ इस प्रकार का शब्द नाम काल कहलाता है।...’वह यही है’ इस प्रकार से अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है।...उनमें से पल्लवित...आदि वनखंड से उद्योतित, चित्रलिखित वसंत काल को सद्भावस्थापना काल निक्षेप कहते हैं। मणि विशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादि में यह वसंत है’ इस प्रकार बुद्धि के बल से स्थापना करने को असद्भावस्थापना काल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्य काल है।...भविष्यकाल में जो जीव कालप्राभृत का ज्ञायक होगा, उसे भावी नोआगम द्रव्य काल कहते हैं। जो दो प्रकार के गंध, पाँच प्रकार के रस, आठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है...वर्तना ही जिसका लक्षण है...ऐसे पदार्थ को तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य काल कहते हैं।...अथवा जीव और अजीवादिक के योग से बने हुए आठ भंग रूप द्रव्य को नोआगम द्रव्य काल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक और वर्तमान में उपयुक्त जीव आगम भाव काल है। द्रव्यकाल से जनित परिणाम या परिणमन नोआगम भाव काल कहा जाता है।...वह काल समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।
धवला 11/4,2,6,1/76/7 तत्थ सच्चितो-जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहा णादो। अचित्तकालोजहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि। मिस्सकालो-तहा सदंस-सीदकालो इच्चेवमादि।...तत्थ लोउत्तरीओ समाचारकालो-जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि। लोगिय-समाचारकालो-जहा कसणकालो लुणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि। =उनमें दंश काल, मशक काल इत्यादिक सचित्त काल है, क्योंकि इनमें दंश और मशक के ही उपचार से काल का विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्त काल है। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है।...वंदनाकाल, नियमकाल, स्वाध्याय काल व ध्यानकाल आदि लोकोत्तरीय समाचार काल हैं। कर्षण काल, लुनन काल व वपनकाल इत्यादि लौकिक समाचार काल हैं। - सम्यग्ज्ञान का कालनामा अंग
मूलाचार/270-275 पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता। उभये कालम्हि पुणो सज्झाओ होदि कायव्वो।270। सज्झाये पट्ठवणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं। पव्वण्हे अवरण्हे तावदियं चेव णिट्ठवणे।271। आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा। वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला।272। णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए। पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए।273। दिसहाह उक्कपडणं विज्जु चडुक्कासणिंदधणुगं च। दुग्गंधसज्झदुद्दिणचंदग्गहसूरराहुजुज्झं च।274। कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्चं च। इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा।275।=प्रादोषिककाल, वैरात्रिक, गोसर्गकाल—इन चारों कालों में से दिनरात के पूर्वकाल अपरकाल इन दो कालों में स्वाध्याय करनी चाहिए।270। स्वाध्याय के आरंभ करने में सूर्य के उदय होने पर दोनों जाँघों की छाया सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए।271। आषाढ महीने के अंत दिवस में पूर्वाह्ण के समय दो पहर पहले जंघा छाया दो विलस्त अर्थात् बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमास में अंत के दिन में चौबीस अंगुल प्रमाण जंघाछाया होती है। और फिर महीने-महीने में दो-दो अंगुल बढ़ती घटती है। सब संध्याओं में आदि अंत की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है।272। दिशाओं के पूर्व आदि भेदों की शुद्धि के लिए प्रात:काल में नौ गाथाओं का, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकाल के समय पाँच गाथाओं का स्वाध्याय (पाठ व जाप) करे।273। उत्पात से दिशा का चमकना, मेघों के संघट्ट से उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुष के आकार पंचवर्ण पुद्गलों का दिखना, दुर्गंध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझ का समय, बादलों से आच्छादित दिन, चंद्रमा, ग्रह, सूर्य, राहु के विमानों का आपस में टकराना।274। लड़ाई के वचन, लकड़ी आदि से झगड़ना, आकाश में धुआँ रेखा का दीखना, धरतीकंप, बादलों का गर्जना, महापवन का चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषों के होने पर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए।275। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/260 ) - पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे संभव है
धवला/4/1,5,1/317/9 पोग्गलादिपरिणामस्स कधं कालववएसो। ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो।=प्रश्न—पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणाम के ‘काल’ यह संज्ञा कैसे संभव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण के उपचार के निबंधन से पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम के भी ‘काल’ संज्ञा का व्यवहार हो सकता है। - दीक्षा शिक्षा आदि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/22 अत्र कालषट्कमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयकाले केचन तृतीयकालादौ केवलज्ञानमुत्पादयंतीति कालषट्कनियमो नास्ति।=यहाँ दीक्षादि छ: कालों में से कोई तो प्रथम काल में, कोई द्वितीय काल में, कोई तृतीय आदि काल में केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छ: कालों का नियम नहीं है।
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)
- निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण
पंचास्तिकाय/24 ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।24।=काल (निश्चय काल) पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, दो गंध और आठ स्पर्श रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/278 )
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/5 स्वात्मनै व वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वृत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षित: काल:। =(यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है।
सर्वार्थसिद्धि/5/39/312/11 कालस्य पुनर्द्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम् ।...तस्मात्पृथगिह कालोद्देश: क्रियते। अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावंत: प्रदेशास्तावंत: कालाणवो निष्क्रिया एकैकाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थित्ता:।...रूपादिगुणविरहादमूर्ता:।=(निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकार के काल में प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है।...काल द्रव्य का पृथक् से कथन किया गया है। शंका—काल अनेक द्रव्य हैं इसका क्या प्रमाण है? उत्तर—लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है। और वह काल रूपादि गुणों से रहित तथा अमूर्तीक है। ( राजवार्तिक/5/22/24/482/2 )
राजवार्तिक/4/14/222/12 कल्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रियावद्द्रव्यं स काल:।=जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य ‘कल्यते, क्षिप्यते, प्रेर्यते’ अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है।
धवला 4/1,5,1/3/315 ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो।3।=वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्य को अन्यरूप से परिणमाता है। किंतु स्वत: नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले पदार्थों का काल स्वयं सुहेतु होता है।3। ( धवला 11/4,2,6,1/2/76 )
धवला 4/1,5,1/7/317 सब्भावसहावाणं जीवाणं तह ये पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो।7।=सत्ता स्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और ‘च’ शब्द से धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियम से कालद्रव्य कहा गया है।
महापुराण/3/4 यथा कुलालचक्रस्य भ्रांतेर्हेतुरधश्शिला। तथा काल: पदार्थानां वर्त्तनोपग्रहे मत:।4।=जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है।
नयचक्र बृहद्/137 परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवेइ परिणामो।=जो निश्चय काल है वही परिणमन करने में कारण होता है।
गोम्मटसार जीवकांड/568 वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेषु। कालाधारेणेव य वट्टंति हु सव्वदव्वाणि।568।=णिच् प्रत्यय संयुक्त धातु का कर्मविषैं वा भावविषैं वर्तना शब्द निपजै है सो याका यहु जो वर्तेवा वर्तना मात्र होइ ताकों वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि को निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाहीं, तातैं तिनकैं तिस प्रवृत्ति करावने कूं कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना काल का उपकार है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9/24/4 पंचानां वर्तमानहेतु: काल:।=पाँच द्रव्यों का वर्तना का निमित्त वह काल है।
द्रव्यसंग्रह वृहद/मूल/21 परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।=वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है।
द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/21/61 वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल:।=वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप ‘निश्चयकाल’ है।
- कालद्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है
तत्त्वार्थसूत्र/5/22,40 वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य।22। सोऽनंतसमय:।40।=वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।22। वह अनंत समयवाला है।
तिलोयपण्णत्ति/4/279-282 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेण अमुक्खकालो पयट्टेदि।279। जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं। एदाणं पज्जाया वट्टंते मुक्खकाल आधारे।280। सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। वाहिरहेदुं कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वदरिसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।279। जीव और पुद्गल के विविध प्रकार के परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य काल के आश्रय से वर्तती हैं।280। सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यंतर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त निश्चय काल कहा है। अभ्यंतर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।
राजवार्तिक/5/39/2/501/31 गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा: संति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलघुत्वादय: पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्या:।=काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारणगुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं।
आलापपद्धति/2/99 कालद्रव्ये वर्त्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा:।=कालद्रव्य में वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं। ( धवला 5/33/7 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/133-134 अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य।=(काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रतिपर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है।
- काल द्रव्यगति में भी सहकारी है
तत्त्वार्थसूत्र/5/22 ...क्रिया...च कालस्य।22।=क्रिया में कारण होना, यह काल द्रव्य का उपकार है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य विशेष स्वभाव
नयचक्र बृहद्/70 पंचदसा पुण काले दव्वसहावा य णायव्वा।70।=काल द्रव्य के 15 सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। ( आलापपद्धति/4 ) (वे स्वभाव निम्न हैं—सद्, असद्, नित्य, अनित्य, अनेक, भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकांत, अनेकांत स्वभाव)
- काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है
नियमसार/36 कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा।36।=काल द्रव्य को कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/4 ) ( द्रव्यसंग्रह वृहद/मू./25 )
प्रवचनसार/ तत्त्वप्रदीपिका/135 कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। तत: कालद्रव्यमप्रदेशं।=कालाणु तो द्रव्यत: प्रदेश मात्र होने से और पर्यायत: परस्पर संपर्क न होने से अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/138 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरंजनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति।136।=काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं, और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के अनुसार समस्त लोक में ही है। (अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से कालद्रव्य असंख्यात हैं।)
गोम्मटसार जीवकांड/585 एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि।585।=बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुव रूप है, भिन्न–भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है।
- कालद्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् अवस्थित है
धवला/4/1,51/4/315 लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा।4।=लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक एक रूप से स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए। ( गोम्मटसार जीवकांड/ सूत्र/589) ( द्रव्यसंग्रह वृहद/मूल/22)
तिलोयपण्णत्ति/4/283 कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठंते संचएण विणा।283।=अन्योन्य प्रवेश से रहित काल के भिन्न-भिन्न अणु संचय के बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाश में स्थित है। ( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/21) ( राजवार्तिक/5/22/24/482/3 ) ( नयचक्र बृहद्/136 )
- काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये
सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/1 स कथं काल इत्यवसीयते। समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिर्निर्वर्त्यमानानां च पाकादीनां समय: पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय: काल: ओदनपाक: काल इति अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेश: तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:। गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।=प्रश्न—कालद्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है? उत्तर—समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढिक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है। ( राजवार्तिक/5/22/6/477/16 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/14 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/134 अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुत्वं कारणांतरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते: स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति। प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात् । प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/142 तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव किं यौगपद्येन किं क्रमेण, यौगपद्येन चेत् नास्ति यौगपद्यं सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रम:, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्य:, स च समयपदार्थ एव। प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/143 विशेषास्तित्वस्य सामांयास्तित्वमंतरेणानुपपत्ते:। अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव:।=1. (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणांतर से साध्य होने से (अर्थात् उनके समय से विशिष्ट-परिणति अन्य कारण से होते हैं, इसलिए) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुत्व। संभवित नहीं है। (134) (पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका ता.वृ./33)। 2. जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (136) (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139)। 3. यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के (काल रूप पर्याय) ही मानें जायें तो, (प्रश्न होता है कि:–) (1) वे युगपद् हैं या (2) क्रमश: ? (1) यदि ‘युगपत्’ कहा जाय तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के प्रकाश और अंधकार की भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते।) (2) यदि ‘क्रमश:’ कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है। इसलिए (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान अवश्य ढूँढना चाहिए। और वह (वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है। (142)। 4. सामान्य अस्तित्व के बिना विशेष अस्तित्व की उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भाव की सिद्धि करता है।
तत्त्वसार/ परिशिष्ठ/1/पृष्ठ 172 पर शोलापुर वाले पं. वंशीधरजी ने काफी विस्तार से युक्तियों द्वारा छहों द्रव्यों की सिद्धि की है।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं—
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/144 न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेर्हि वृत्तिमंतमंतरेणानुपपत्ते:। =मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/8 समयरूप एव परमार्थकालो न चान्य: कालाणुद्रव्यरूप इति। परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप: प्रसिद्ध: स एव पर्याय: न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वात्पर्यायस्य ‘‘समओ उप्पण्णपद्धंसी’’ ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि। तदपि कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य...। =प्रश्न–समय रूप ही निश्चय काल है, उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है? उत्तर—समय तो कालद्रव्य की सूक्ष्म पर्याय है स्वयंद्रव्य नहीं है। प्रश्न—समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है? उत्तर—पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है ‘‘समय उत्पन्न प्रध्वंसी है’’ इस वचन से समय को पर्यायपना प्राप्त होता है। और वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चय से अविनश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्याय का उपादान कारणभूत कालाणुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/23/49/8 ) (परमात्म प्रकाश/हिन्दी/2/21/136/10) ( द्रव्यसंग्रह वृहद टीका/21/61/9)।
- समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्य से क्या प्रयोजन—
राजवार्तिक/5/22/7/477/20 आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्न; किं, कारणम् । तद्गतावपि तत्सद्भावात् । सवितुरपि व्रज्यायां भूतादिव्यवहारविषयभूतायां क्रियेत्येवं रूढायां वर्तनादर्शनात् तद्धेतुना अन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न–आदित्य—सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना हो जावे? उत्तर—ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गति में भी ‘भूत वर्तमान भविष्यत’ आदि अनेक कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए। वही काल है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/16 )।
द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/21/62/2 अथ मतं-समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किंतु समयोतपत्तौ मंदगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिंबमुपादानकारणमिति। ‘‘नैवम् । यथा तंदुलोपादानकारणोत्पंनस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगंध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यंते। तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिंबरूपै: पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतै: समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणा: प्राप्नुवंति, न च तथा। =प्रश्न—समय, घड़ी आदि कालपर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किंतु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिंब उपादान कारण है। उत्तर—ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गंध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का बिंब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो काल पर्याय हैं उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए; परंतु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं। ( राजवार्तिक/5/22/26-27/482-484 में सविस्तार तर्कादि)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/54/16 यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते।=यद्यपि निश्चय से (समय) द्रव्य काल की पर्याय है, तथापि व्यवहार से परमाणु, जलादि पुद्गलद्रव्य के आश्रय से अर्थात् पुद्गल द्रव्य को निमित्त करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। ( द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/35/134)।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित्त है, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
राजवार्तिक/5/22/8/477/24 आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतु: कालोऽस्तीति; तन्न; किं कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवत् । यथा भाजनं तंडुलानामधिकरणं न तु तदेव पचति, तेजसो हि स व्यापार:, तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति। कालस्य हि स व्यापार:।=प्रश्न–आकाश प्रदेश के निमित्त से (द्रव्यों में) वर्तना होती है। अन्य कोई ‘काल’ नामक उसका हेतु नहीं है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए तो अग्नि का व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, पर वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/3 आदित्यगत्यादिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं। गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवंति यत् कारणात् घटोत्पत्तौ कुंभकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत्...इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं। कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् ‘‘पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणेहिं’’ क्रियावंतो भवंतीति कथयत्यग्रे। =प्रश्न—सूर्य की गति आदि परिणति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्य की क्या आवश्यकता है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणत के धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्हार चक्र चीवरादि के समान, मत्स्यों की गति में जलादि के समान, मनुष्यों की गति में गाड़ी पर बैठना आदि के समान,...इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गति में कारण है।=प्रश्न—ऐसा कहाँ है? उत्तर—धर्म द्रव्य के विद्यमान होने पर भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कंध इन दो भेदों वाले पुद्गलों के गमन में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। ( पंचास्तिकाय/98 ) ऐसा आगे कहेंगे।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
राजवार्तिक/5/22/9/477/27 सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धेतुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहात् । कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न—सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अत: वर्तना सत्ताहेतुक है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अत: काल पृथक् ही होना चाहिए।
द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/22/65/4 अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते: सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि, कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति। नैवम्; यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै: प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्यं प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते; ततसतेषामपि कालद्रव्यस्येवाभाव: प्राप्नोति। ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोध:।=प्रश्न—(काल की भाँति) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपने-अपने परिणमन सहकारी कारण रहें। उन द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है? उत्तर—ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण, गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष—काल का कार्य तो घड़ी, दिन, आदि प्रत्यक्ष से दीख पड़ता है; किंतु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम के कथन से ही जाना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्य का अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/51 )।
- काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/32 में मार्ग प्रकाश से उद्धृत-कालाभावे न भावानां परिणामस्तदंतरात् । न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते। =काल के अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी; इस प्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/12 धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्तिं प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तद्वृत्त्यसंभवात् ।=धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनि की निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान हैं, तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवै नाहीं। - अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/13 लोकाकाशाद्बहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह—यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लंबायमानमहावरत्रायां महावेणुदंडे वा–सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेंद्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेंद्रियविषये च सर्वांगेन सुखानुभवो भवति...तथा लोकमध्ये स्थितेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखंडैकद्रव्यत्वात् ।=प्रश्न–लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव में अलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है? उत्तर—जिस प्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इंद्रिय के विषय का, या रसना इंद्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखंड द्रव्य है। ( द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/22/64)।
- स्वयं काल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या है
धवला 4/1,5,1/321/5 कालस्स कालो किं तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा।...अणब्भुवगमा।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण ववहारो जुज्जदे।=प्रश्न–काल का परिणमन कराने वाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य? उत्तर—हम काल के काल को काल से भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँ पर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूप से व्यवहार बन जाता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/19 कालस्य किं परिणतिसहकारिकारणमिति। आकाशस्याकाशाधारवत् ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते: काल एव सहकारिकारणं भवति। =प्रश्न—काल द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है? उत्तर—जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण स्वयं काल ही है। (द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/22/65)
- काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखंड द्रव्य मानिए
श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार 1/4/44-45/148/17
=प्रश्न—काल द्रव्य को असंख्यात मानने का क्या कारण है? उत्तर—काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्पर में विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओं की उत्पत्ति में निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थात् कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है।
- काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/7 वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता काल:। यद्येव कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैष दोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता।=द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे—कंडे की अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कंडे की अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
- कालाणु को अनंत कैसे कहते हैं
सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/6 अनंतपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनंत इत्युपचर्यते।=प्रश्न–[एक कालाणु को भी अनंत संज्ञा कैसे देते हैं?] उत्तर—अनंत पर्याय वर्तना गुण के निमित्त से होती हैं, इसलिए एक कालाणु को भी उपचार से अनंत कहा है।
हरिवंशपुराण/7/10 अनंतसमयोत्पादादनंतव्यपदेशिन:।10। =ये कालाणु अनंत समयों के उत्पादक होने से अनंत भी कहे जाते हैं।10।
- कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/139/197/7 एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानंतकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत: कारणात्तदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं...ज्ञातव्यम् ...ध्येयमिति तात्पर्य्यम् ।=उपरोक्त लक्षणवाले काल के जानने पर भी इस जीव ने परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनंत काल तक भ्रमण किया है इसलिए निज परमात्मतत्त्व सर्व प्रकार उपादेय रूप से श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है। यह तात्पर्य है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/20 अत्र व्याख्यानेऽतीतानंतकाले दुर्लभो योऽसौ शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानंदैककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं रागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं...विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिरचित्तं च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ:। पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/100/160/12 अत्र यद्यपि काललब्धिवशेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणं मोक्षमार्गं प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानंदैकस्वभावमुपादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न च काल इत्यभिप्राय:।=1. इस व्याख्यान में तात्पर्यार्थ यह है कि अतीत अनंत काल में दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी चिदानंदैककालस्वभाव में सम्यक्श्रद्धान, तथा रागादि से भिन्न रूप से भेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसी में स्थिरचित्त करना चाहिए। 2. यद्यपि जीव काललब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करके रागादि से रहित नित्यानंद एक स्वभाव तथा उपादेयभूत पारमार्थिक सुख को साधता है, परंतु जीव ही उसका उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है।
द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/21/63 यद्यपि काललब्धिवशेनानंतसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान...तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति।=यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनंत सुख का भाजन होता है, तथापि...निज परमात्म तत्त्व का सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनंत सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए काल हेय है।
- निश्चय काल का लक्षण
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश
पंचास्तिकाय/25 समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।25।=समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसा जो काल (व्यवहार काल) वह पराश्रित है।25।
नियमसार/31 समयावलिभेदेन दु वियप्पं अहव होइ तिवियप्पं/तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31। समय और आवलि के भेद से व्यवहारकाल के दो भेद हैं, अथवा (भूत, वर्तमान और भविष्यत के भेद से) तीन भेद हैं। अतीत काल संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणकार जितना है।
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/3 परिणामादिलक्षणो व्यवहारकाल:। अन्येन परिच्छिन्न: अन्यस्य परिच्छेदहेतु: क्रियाविशेष: काल इति व्यवह्नियते। स त्रिधा व्यवतिष्ठते भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति...व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्य:। कालव्यपदेशो गौण:, क्रियावद्द्रव्यापेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च।
सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/4 सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च समया अनंता इति कृत्वा ‘‘अनंतसमय:’’ इत्युच्यते।=1. परिणामादि लक्षणवाला व्यवहार काल है। तात्पर्य यह है कि जो क्रियाविशेष अन्य से परिच्छिन्न होकर अन्य के परिच्छेद का हेतु है उसमें काल इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है। वह काल तीन प्रकार का है-भूत, वर्तमान और भविष्यत।... व्यवहार काल में भूतादिक रूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है; क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रियावाले द्रव्य की अपेक्षा से होता है तथा काल का कार्य है। 2. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और अनागत अनंत समय है ऐसा मानकर काल को अनंत समयवाला कहा है। ( राजवार्तिक/5/22/24/482/9 )
धवला 11/4,2,6,1/1/75 कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो। दोण्णं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो।1।=समयादि रूप व्यवहार काल चूँकि जीव व पुद्गल के परिणमन से जाना जाता है, अत: वह उससे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। ....व्यवहारकाल क्षणस्थायी है।
धवला 4/1,5,1/317/11 कल्यंते संख्यायंते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्ते:। काल: समय अद्धा इत्येकोऽर्थ:।=जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयु की स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं, इस प्रकार की काल शब्द की व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम हैं। ( राजवार्तिक/5/22/25/482/21 )
नयचक्र बृहद्/137 ... परिणामो। पज्जयठिदि उवचरिदो ववहारादो य णायव्वो।137।=परिणाम अथवा पर्याय की स्थिति को उपचार से वा व्यवहार से काल जानना चाहिए।
गोम्मटसार जीवकांड/572/1017 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। ववहारअवठ्ठाणट्ठिदी हु ववहारकालो दु।=व्यवहार अर विकल्प अर भेद अर पर्याय ऐ सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनि का एक अर्थ है तहाँ व्यंजन पर्याय का अवस्थान जो वर्तमानपना ताकरि स्थिति जो काल का परिणाम सोई व्यवहार काल है।
द्रव्यसंग्रह व टीका/21/60 दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।...।21। पर्यायस्य संबंधिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थिति: सा व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय:।=जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षणवाला है, सो व्यवहारकाल है।21। द्रव्य की पर्याय से संबंध रखनेवाली यह समय, घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही ‘व्यवहार काल’ है; वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/21/61 )
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/277 तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्येत। अस्ति विवक्षित्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।=अब उसका उदाहरण यह है कि सत् सामान्यरूप परिणमन की विवक्षा से काल सामान्य काल कहलाता है। और सत् के विवक्षित द्रव्य, गुण व पर्याय रूप विशेष अंशों के परिणमन की अपेक्षा से काल विशेष काल कहलाता है।
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त
तत्त्वार्थसूत्र/4/13,14 (ज्योतिषदेवा:) मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।13। तत्कृत: कालविभाग:।14। =ज्योतिषदेव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरंतर गतिशील हैं।13। उन गमन करने वाले ज्योतिषयों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।14।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेशं मंदगत्यातिक्रमत: परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो य: कालपदार्थसूक्ष्मवृत्तिरूपसमय: स तस्य कालपदार्थस्य पर्याय:।=किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेश को जब परमाणु मंदगति से उल्लंघन करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमण के परिमाण के बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति रूप ‘समय’ है, वह उस काल पदार्थ की पर्याय है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/31 )
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/25 परमाणुप्रचलनायत्त: समय:। नयनपुटघटनायत्तो निमिष:। तत्संख्याविशेषत: काष्ठा कला नाली च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्र:। तत्संख्याविशेषत: मास:, ऋतु:, अयनं, संवत्सरमिति।=परमाणु के गमन के आश्रित समय है; आँख मिचने के आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्या से काष्ठा, कला, और घड़ी होती है; सूर्य के गमन के आश्रित अहोरात्र होता है; और उसकी (अहोरात्र की) अमुक संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। ( द्रव्यसंग्रह वृहद/टी./35/134 )
द्रव्यसंग्रह वृहद/टीका/21/62 समयोत्पत्तौ मंदगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं, तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिंबमुपादानकारणमिति।=समय रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणत पुद्गल परमाणु निमेषरूप काल को उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन, घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार दिनरूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिंब उपादान कारण है।
- परमाणु की तीव्रगति से समय का विभाग नहीं हो जाता
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 तथाहि—यथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनंतपरमाणुस्कंध: परमाणोरनंशत्वात् पुनरप्यनंतांशत्वं न साधयति तथा विशिष्टगतिपरिणामादेककालाणुव्याप्तैकाकाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिंनेनैकसमयेनैकस्माल्लोकांताद् द्वितीयं लोकांतमाक्रमत: परमाणोरसंख्येया: कालाणव: समयस्यानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयंति।=जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनंत परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनंत अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसी प्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाशप्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक ‘समय’ में परमाणु विशिष्टगति परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु ‘समय’ के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि ‘समय’ निरंश है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/8 ननु यावता कालेनैकप्रदेशातिक्रमं करोति पुद्गलपरमाणुस्तत्प्रमाणेन समयव्याख्यानं कृतं स एकसमये चतुर्दशरज्जु-गमनकाले यावंत: प्रदेशास्तावंत: समया भवंतीति। नैवं। एकप्रदेशातिक्रमेण या समयोत्पत्तिर्भणिता सा मंदगतिगमनेन, चतुर्दशरज्जुगमनं यदेकसमये भणितं तदक्रमेण शीघ्रगत्या कथितमिति नास्ति दोष:। अत्र दृष्टांतमाह—यथा कोऽपि देवदत्तो योजनशतं दिनशतेन गच्छति स एव विद्याप्रभावेण दिनेनैकेन गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति नैवैकदिनमेव तथा शीघ्रगतिगमने सति चतुर्दशरज्जुगमनेप्येकसमय एव नास्ति दोष: इति।=प्रश्न—जितने काल में ‘‘आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है’’ ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? उत्तर—आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश के साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है, सो तो मंदगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है। इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है। इसमें दृष्टांत यह है कि –जैसे देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किंतु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगेगा। ( द्रव्यसंग्रह टीका/22/66/1 )
श्लोकवार्तिक/2/ भाषाकार 1/5/66-68/278/2 लोक संबंधी नीचे के वातवलय से ऊपर के वातवलय में जानेवाला वायुकाय का जीव या परमाणु एक समय में चौदह राजू जाता है। अत: एक समय के भी असंख्यात अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। संसार का कोई भी छोटे से छोटा पूरा कार्य एक समय में न्यून काल में नहीं होता है। )
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है
राजवार्तिक/5/22/25/482/20 व्यवहारकालो मनुष्यक्षेत्रे संभवति इत्युच्यते। तत्र ज्योतिषाणां गतिपरिणामात्, न बहि:निवृत्तगतिव्यापारत्वात् ज्योतिषानाम् ।=सूर्यगति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है, क्योंकि मनुष्य लोक के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/577 )
धवला 4/1,5,1,320/5 माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलेतियालगोयराणंतपज्जाएहि आवूरिदे।=त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से परिपूरित एक मात्र मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल में ही काल है; अर्थात् काल का आधार मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल है।
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है
राजवार्तिक/5/22/25/482/21 मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्राणिनां संख्येयासंख्येयानंतानंतकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद:।=मनुष्य क्षेत्र से उत्पन्न आवलिका आदि से तीनों लोकों के प्राणियों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, और कायस्थिति आदि का परिच्छेद होता है। इसी से संख्येय असंख्येय और अनंत आदि की गिनती की जाती है।
धवला/4/320/9 इहत्थेणेव कालेण तेसिं ववहारादो।=यहाँ के काल से ही देवलोक में काल का व्यवहार होता है।
- जब सब द्रव्यों का परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्र में इसका व्यवहार क्यों
धवला/4/1,5,1321/1 जीव-पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सव्वेसु जीव-पोग्गलेसु संठिएण कालेण होदव्वं; तदो माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, निखज्जत्तादो। किंतु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अत्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडल किरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्ठो। तम्हा एदस्सेव गहणं कायव्वं।=प्रश्न—यदि जीव और पुद्गलों का परिणाम ही काल है; तो सभी जीव और पुद्गलों में काल को संस्थित होना चाहिए। तब ऐसी दशा में ‘मनुष्य क्षेत्र के एक सूर्य मंडल में ही काल स्थित है’ यह बात घटित नहीं होती? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उक्त कथन निर्दोष है। किंतु लोक में या शास्त्र में उस प्रकार से संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधन स्वरूप से सूर्यमंडल की क्रिया—परिणामों में ही काल का संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए।
- भूत वर्तमान व भविष्यत काल का प्रमाण
नियमसार व टीका/31,32 तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31। अतीतकालप्रपंचोऽयमुच्यते—अतीतसिद्धानां सिद्धपर्य्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकाल: स कालस्यैषां संसारावस्थानां यानि संस्थानानि गतानि तै: सदृशत्वादनंत:। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तै: सदृशत्या: (?) मुक्ते: सकाशादित्यर्थ:।।टी.।। जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा चावि संपदा समया:।=अतीतकाल (अतीत) संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणाकार जितना है।31। अतीतकाल का विस्तार कहा जाता है; अतीत सिद्धों को सिद्धपर्याय के प्रादुर्भाव समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहार काल वह उन्हें संसार दशा में जितने संस्थान बीत गये हैं उनके जितना होने से अनंत है। (अनागत सिद्धों को मुक्ति होने तक का) अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जो मुक्ति पर्यंत अनागत शरीर उनके बराबर है। अब, जीव से तथा पुद्गल से भी अनंतगुने समय हैं।
धवला 4/1,5,1/321/5 केवचिरंकालो। अणादिओ अपज्जवसिदो। =प्रश्न—काल कितने समय तक रहता है? उत्तर—काल अनादि और अपर्यवसित है, अर्थात् काल का न आदि है न अंत है।
धवला 4/ > सर्वदा अतीत काल सर्वजीव राशि के अनंतवें भाग प्रमाण रहता है, अन्यथा सर्व जीवों के अभाव होने का प्रसंग आता है।
गोम्मटसार जीवकांड/578,579 > ववहारो पुण तिविहो तीदो वट्टंतगो भविस्सो दु। तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु।578। समयो हु वट्टाणो जीवादो सव्वपुग्गलादो वि। भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो।579।=व्यवहार काल तीन प्रकार है—अतीत, अनागत और वर्तमान। तहाँ अतीतकाल सिद्ध राशिकौं संख्यात आवलीकरि गुणैं जो प्रमाण होइ तितना जानना।578। वर्तमान काल एक समयमात्र जानना। बहुरि भावी जो अनागतकाल सो सर्व जीवराशितैं वा सर्व पुद्गलराशितैं भी अनंतगुणा जानना। ऐसे व्यवहार काल तीन प्रकार कहा।579।
- काल प्रमाण स्थित कर देने पर अनादि भी सादि बन जायेगा
धवला 3/1,2,3/30/5 अणाइस्स अदीदकालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि। ण, अण्णहाँ तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा।=प्रश्न—अतीतकाल अनादि है, इसलिए उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परंतु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।
- निश्चय व व्यवहार काल में अंतर
राजवार्तिक/1/8/20/43/20 मुख्यकालास्तित्वसंप्रत्ययार्थं पुन: कालग्रहणम् । द्विविधो हि कालो मुख्यो व्यावहारिकश्चेति। तत्र मुख्यो निश्चयकाल:। पर्यायियपर्यायावधिपरिच्छेदो व्यावहारिक:। =मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिए स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया है।...व्यवहार काल पर्याय और पर्यायी की अवधि का परिच्छेद करता है।
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश
- कालानुयोग द्वार तथा तत्संबंधी कुछ नियम
- कालानुयोग द्वार का लक्षण
राजवार्तिक/1/8/6/42/3 स्थितिमतोऽर्थस्यावधि: परिच्छेत्तव्य:। इति कालोपादानं क्रियते।=किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चय करना काल है।
धवला 1/1,1,7/103/159 कालो ट्ठिदिअवधारणं...।...।103। धवला 1/1,1,7/158/6 तेहिंतो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदिंपरूवेदि कालाणियोगो।=1. जिसमें पदार्थों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन हो उसे काल प्ररूपणा कहते हैं।103। 2. पूर्वोक्त चारों (सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन) अनुयोगों के द्वारा जाने गये सत्-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्यों की स्थिति का वर्णन कालानुयोग करता है।
- काल व अंतरानुयोगद्वार में अंतर
धवला 1/1,1,7/158/6 तेहिंतो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदिंपरूवेदि कालाणियोगो। तेसिं चेव विरहं परूवेदि अंतराणियोगो। =चारों (सत्, संख्या, क्षेत्र व स्पर्शन) अनुयोगों के द्वारा जाने गये सत्-संख्या–क्षेत्र और स्पर्शरूप द्रव्यों की स्थिति का वर्णन कालानुयोग द्वार करता है। जिन पदार्थों के अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श और स्थिति का ज्ञान हो गया है उनके अंतरकाल का वर्णन अंतरानुयोग करता है।
- काल प्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
धवला 7/2,8,17/469/2 किंतु जस्स गुणट्ठाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवावट्ठाणकालोदोपवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो। जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो। जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्सण संताणस्स वोच्छेदो ति घेत्तत्वं।=जिस गुणस्थान अथवा मार्गणा स्थान के एक जीव के अवस्थान काल से प्रवेशांतर काल बहुत होता है, उसको संतान का व्युच्छेद होता है। जिसका वह काल कदापि बहुत नहीं है, उसकी संतान का व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
- ओघ प्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
धवला 3/1,2,8/90/3 अपमत्ताद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणत्तादो। =अप्रमत्त संयत के काल से प्रमत्त संयत का काल दुगुणा है।
धवला 5/1,6,250/125/4 उवसमसेढि सव्वद्धाहिंतो पमत्तद्धा एक्का चेव संखेज्जगुणा त्ति गुरूवदेसादो। धवला 5/1,6,14/18/8 एक्को अपुव्वकरणो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो उवसंत-कसाओ होदूण पुणो वि सुहुमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुव्वउवसामगो जादो। एदाओ पंच वि अद्धाओ एक्कट्ठं कदे वि अंतोमुहुत्तमेव होदि त्ति जहण्णंतरमंतोमुहुत्तं होदि।=1. उपशम श्रेणी संबंधी सभी (अर्थात् चारों आरोहक व तीन अवरोहक) गुणस्थानों संबंधी कालों से अकेले प्रमत्तसंयत का काल ही संख्यात गुणा होता है। 2. एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसांपरायिक उपशामक और उपशांतकषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्म सांपरायिक उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक हो गया। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त्तकाल प्रमाण जघन्य अंतर उपलब्ध हुआ। ये अनिवृत्तिकरण से लगाकर पुन: अपूर्वकरण उपशामक होने के पूर्व तक के पाँचों ही गुणस्थानों के कालों को एकत्र करने पर भी वह काल अंतर्मुहूर्त्त ही होता है, इसलिए जघन्य अंतर भी अंतर्मुहूर्त्त ही होता है। - ओघ प्ररूपणा में नानाजीवों की जघन्यकाल प्राप्ति विधि
धवला 4/1,5,5/339/9 दो वा तिण्णि वा एगुत्तरवढ्ढीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो उवसमसमत्तद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति सासणं पडिवण्णा एगसमयं दिट्ठा। विदिएसमये सव्वं वि मिच्छत्तं गदा, तिसु वि लोएसु सासणमभावो जादो त्ति लद्धो एगसमओ।=दो अथवा तीन, इस प्रकार एक अधिक वृद्धि से बढ़ते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उवसम सम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में एक समय मात्र (जघन्य) काल अवशिष्ट रह जाने पर एक साथ सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए एक समय में दिखाई दिये। दूसरे समय में सबके सब (युगपत्) मिथ्यात्व को प्राप्त हो गये। उस समय तीनों ही लोकों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव हो गया। इस प्रकार एक समय प्रमाण सासादन गुणस्थान का नाना जीवों की अपेक्षा (जघन्य) काल प्राप्त हुआ। नोट—इसी प्रकार यथायोग्य रूप से अन्य गुणस्थानों पर भी लागू कर लेना चाहिए। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थान का एक जीवापेक्षा जो जघन्य काल है उस सहित ही प्रवेश करना।
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि
धवला/4/1,5,6/340/2 दोण्णि वा, तिण्णि वा एवं एगुत्तरवड्ढीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छआवलिओ उवसमताद्धाए अत्थि त्ति सासणत्तं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छंति ताव अण्णे वि अण्णे वि उवसमसम्मदिट्ठिणो सासणत्तं पडिवज्जंति। एवं गिम्हकालरुक्खछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं जीवेहि असुण्णं होदूण सासाणगुणट्ठाणं लब्भदि।=दो, अथवा तीन, अथवा चार, इस प्रकार एक-एक अधिक वृद्धि द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र तक उपशम सम्यग्दृष्टि जीव एक समय को आदि करके उत्कर्ष से छह आवलियाँ उपशम सम्यक्त्व के काल में अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। वे जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होते हैं, तब तक अन्य-अन्य भी उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार से ग्रीष्मकाल के वृक्ष की छाया के समान उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक जीवों से अशून्य (परिपूर्ण) होकर, सासादन गुणस्थान पाया जाता है। (पश्चात् वे सर्वजीव अवश्य ही मिथ्यात्व को प्राप्त होकर उस गुणस्थान को जीवों से शून्य कर देते हैं) नोट—इसी प्रकार यथायोग्य रूप से अन्य गुणस्थानों पर भी लागू कर लेना। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थान तक का एक जीवापेक्षया जो भी जघन्य या उत्कृष्ट काल के विकल्प हैं उन सबके साथ वाले सर्व ही जीवों का प्रवेश कराना।
- ओघ प्ररूपणा में एक जीव की जघन्यकाल प्राप्ति विधि
धवला/4/1,5,7/341-342 एक्को उवसमसम्मादिट्ठि उवसमसमत्तद्धाए एगसमओ अत्थित्ति सासणं गदो।...एगसमयं सासाणगुणेण सह ट्ठिदो, विदिए समए मिच्छत्तं गदो। एवं सासाणस्स लद्धो एगसमओ।... धवला/4/1,5,10/344-345 एक्को मिच्छदि विसुज्झमाणे सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो। सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण विसुज्झमाणे चेव सासंजमं सम्मत्तं पडिवण्णो।...अधवा वेदगसम्मादिट्ठी संकलिस्समाणगोसम्मामिच्छत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण अविणट्ठसंकिलेसो मिच्छदं गदो।...एवं दोहि पयारेहि सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणा गदा। धवला/4/1,5,24/353 एक्को अणियट्ठि उवसामगो एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अपुव्व उवसामगो जादो एवासमयं दिट्ठो, विदियसमए मदो लयसत्तमोदेवोजादो।=1 एक उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुआ।...एकसमय मात्र सासादन गुणस्थान के साथ दिखाई दिया। (क्योंकि जितना काल उपशम का शेष रहे उतना ही सासादन का काल है), दूसरे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। 2. एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। पुन: सर्व लघु अंतर्मुहूर्त काल रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयत सहित सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ।...अथवा संक्लेश को प्राप्त होने वाला वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्व लघु अंतर्मुहूर्त काल रह करके अविनष्ट संक्लेशी हुआ ही मिथ्यात्व को चला गया।....इस तरह दो प्रकारों से सम्यग् मिथ्यात्व के जघन्य काल की प्ररूपणा समाप्त हुई। 3. एक अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एकसमय जीवन शेष रहने पर अपूर्वकरण उपशामक हुआ, एक समय दिखा, और द्वितीय समय में मरण को प्राप्त हुआ। तथा उत्तम जाति का विमानवासी देव हो गया। नोट—इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों में भी यथायोग्य रूप से लागू कर लेना चाहिए।
- देवगति में मिथ्यात्व के उत्कृष्टकाल संबंधी नियम
धवला/4/1,5,293/463/6 ‘मिच्छादिट्ठी जदि सुह महंतं करेदि। तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणब्भधियवेसागरोवमाणि करेदि। सोहम्मे उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठीणं एदम्हादो अहियाउट्ठवणे सत्तीए अभावा।...अंतोमुहुत्तूणड्ढाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावो...भवणादिसहस्सारंतदेवेसु मिच्छाइट्ठिस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवण्णा हाणुववत्तीदो।=मिथ्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे, तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योंकि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के इस उत्कृष्ट स्थिति से अधिक आयु की स्थिति स्थापन करने की शक्ति का अभाव है।...अंतर्मुहूर्त्त कम ढाई सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टि देव के मिथ्यात्व में जाने की संभावना का अभाव है।...अन्यथा भवनवासियों से लेकर सहस्रार तक के देवों में मिथ्यादृष्टि जीवों के दो प्रकार की आयु स्थिति की प्ररूपणा हो नहीं सकती थी।
- इंद्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि
धवला 9/4,1,66/126-127/295 व इनकी टीका का भावार्थ− ‘‘सौधम्मे माहिंदे पढमपुढवीए होदि चदुगुणिदं। बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि पंचगुणं।126। पढमपुढवीए चदुरोपण (पण) सेसासु होंति पुढवीसु। चदु चदु देवेसु भवा वावीसं तिं सदपुधत्तं।127।’’=प्रथम पृथिवी में 4 बार=1×4=4 सागर; 2 से 7 वीं पृथिवी में पाँच-पाँच बार=5×3, 5×7, 5×10, 5×17, 5×22, 5×33=15+35 50+85+110+165=460 सागर; सौधर्म व माहेंद्र युगलों में चार-चार बार=4×2, 4×7=8+28=36 सागर; ब्रह्म से अच्युत तक के स्वर्गों में पाँच-पाँच बार=5×10+5×14+5×16+5×18+5×20+5×22=50+70+80+90+100+110=500 सागर। इन सर्व के 71 अंतरालों में पंचेंद्रिय भवों की कुल स्थिति=पूर्व पृथक्त्व है। अत: पंचेंद्रियों में यह सब मिलकर कुल परिभ्रमण काल पूर्वकोडि पृथक्त्व अधिक 1000 सागर प्रमाण है।126। अन्य प्रकार प्रथम पृथिवी चार बार=उपरोक्त प्रकार 4 सागर; 2−7 पृथिवी में पाँच-पाँच बार होने से उपरोक्त प्रकार 460 सागर और सौधर्म से अच्युत युगल पर्यंत चार-चार बार=उपरोक्तवत् 436 सागर अंतरालों के 71 भवों की कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्त्व। इस प्रकार कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्त्व अधिक 900 सागर भी है।127।
- काय मार्गणा में त्रसों की उत्कृष्ट भ्रमण प्राप्ति विधि
धवला 9/4,1,66/128−129/298 व इनकी टीका का भावार्थ- सोहम्मे माहिंदे पढमपुढवीसु होदि चदुगुणिदं। बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि अट्ठगुणं।128। गेवज्जेसु च विगुणं उवरिम गेवज्ज एगवज्जेमु। दोण्णि सहस्साणि भवे कोडिपुधत्तेण अहियाणि।129।’’=कल्पों में सौधर्म माहेंद्र युगलों में चार-चार बार=(4×2)+(4×7)=8+28=36 सागर, ब्रह्म से अच्युत तक के युगलों में आठ-आठ-बार=8×10+8×14+8×16+8×18+8×20+8×22=80 +112+128+144+160+176 = 800 सागर। उपरिम रहित 8 ग्रैवेयकों में दो-दो बार=2×212 (23+24+25+26+27+28+29+30 = 424 सागर। प्रथम पृथिवी में चार बार=4×1=4 सागर। 2−7 पृथिवियों में आठ-आठ बार = 8×3+8×7+8×10+8×17+8×22+8×33 = 24+56+80+136+176+264 = 736 सागर। अंतराल के त्रस भवों की कुल स्थिति=पूर्व कोडि पृथक्त्व। कुल काल=2000 सागर+पूर्वकोडि पृथक्त्व।
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि
धवला 4/1,5,163/409/10 ‘‘गुणट्ठाणाणि अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कीरदे। एत्थ ताव जोगपरावत्ति-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि मिच्छत्तगुणट्ठाणस्स एगसमओ परूविज्जदे।’’ तं जघा–1. एक्को सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदा संजदो पमत्तसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो। एगसमओ मणजोगद्धाए अत्थित्ति मिच्छत्तं गदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए मिच्छादिट्ठी चेव, किंतु वचिजोगी कायजोगी व जादो। एवं जोगपरिवत्तीए पंचविहा एगसमयरूवणा कदा। (5 भंग) 2. गुणपरावत्तीए एगसमओ वुच्चदे। तं जहा-एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तस्स वचिजोगद्धासु कायजोगद्धासु खीणासुहुमणजोगो आगदो। मणजोगेण सह एगसमयं मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए वि मणजोगी चेव। किंतु सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं वा अपमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा। (4 भंग)। 3. एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तेसिं खएण मणजोगो आगदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए मदो। जदि तिरिक्खेसु वा मणुसेसु वा उप्पण्णो, तो कम्मइकायजोगी वा जादो। एवं मरणेण लद्ध एग भंगे...। 4. वाघादेण एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तेसिं वचि-कायजोगाणं खएण तस्स मणजोगो आगदो। एगसमयं मणजोगेण मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए वाघादिदो कायजोगी जादो। लद्धो एगसमओ। एत्थ उववुज्जंती गाहा-गुण-जोग परावत्ती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि। जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लदुगुणका जोगे।39। नोट—एदम्हि गुणट्ठाणे ट्ठिदजीवा इमं गुणट्ठाणं पडिवज्जंति, ण पडिवज्जंति त्ति णादूण गुणपडिवण्णा वि इमं गुणट्ठाणं गच्छंति, ण गच्छंति त्ति चिंतिय असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्तसंजदाणं च चउव्विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा। एवमप्पमत्तसंजदाणं। णवरि वाघादेण विणा तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा।=मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान को आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा की जाती है—उनमें से पहले योग परिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारों के द्वारा मिथ्यात्व गुणस्थान का एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है–1. योग परिवर्तन के पाँच भंग—सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्त संयत (इन पाँचों) गुणस्थानवर्ती कोई एक जीव मनोयोग के साथ विद्यमान था। मनोयोग के काल में एक-एक समय अवशिष्ट रहने पर वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। वहाँ पर एक समय मात्र मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया। द्वितीय समय में वही जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किंतु मनोयोगी से वचनयोगी हो गया अथवा काययोगी हो गया। इस प्रकार योग परिवर्तन के साथ पाँच प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गयी। (योग परिवर्तन किये बिना गुणस्थान परिवर्तन संभव नहीं है—देखें अंतर - 2)। 2. गुणस्थान परिवर्तन के चार भंग—अब गुणस्थान परिवर्तन द्वारा एक समय की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। उसके वचनयोग अथवा काययोग का काल क्षीण होने पर मनोयोग आ गया और मनोयोग के साथ एक समय में मिथ्यादृष्टि गोचर हुआ। पश्चात् द्वितीय समय में भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किंतु सम्यग्मिथ्यात्व को अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्त संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार गुणस्थान परिवर्तन के द्वारा चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गयी। (एक विवक्षित गुणस्थान से अविवक्षित चार गुणस्थानों में जाने से चार भंग)। 3. मरण का एक भंग—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचन योग से अथवा काययोग से विद्यमान था पुन: योग संबंधी काल के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और दूसरे समय में मरा। सो यदि वह तिर्यंचों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा औदारिक मिश्र काययोगी हो गया। अथवा यदि देव और नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा वैक्रियक मिश्र काययोगी हो गया। इस प्रकार मरण से प्राप्त एक भंग हुआ। 4. व्याघात का एक भंग—अब व्याघात से लब्ध होने वाले एक भंग की प्ररूपणा करते हैं—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। सो उन वचन अथवा काययोग के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और दूसरे समय वह व्याघात को प्राप्त हुआ काययोगी हो गया, इस प्रकार से एक समय लब्ध हुआ। भंगों को यथायोग्य रूप से लागू करना—इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है--‘‘गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीन योगों के होने पर हैं। किंतु सयोग केवली के पिछले दो अर्थात् मरण और व्याघात तथा गुणस्थान परिवर्तन नहीं होते।139।’’ इस विवक्षित गुणस्थान में विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थान को प्राप्त होते हैं या नहीं, ऐसा जान करके तथा गुणस्थानों को प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थान को जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चिंतवन करके असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संयतों की चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकार से अप्रमत्त संयतों की भी प्ररूपणा होती है, किंतु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के बिना तीन प्रकार से एक समय ही प्ररूपणा करनी चाहिए। क्योंकि अप्रमाद और व्याघात इन दोनों का सहानवस्था लक्षण विरोध है। (अत: चारों उपशामकों में भी अप्रमत्तवत् ही तीन प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए तथा क्षपकों में मरण रहित केवल दो प्रकार से ही।) 5. भंगों का संक्षेप–(अविवक्षित मिथ्यादृष्टि योग परिवर्तन कर एक समय तक उस योग के साथ रहकर अविवक्षित सम्यग्मिथ्यात्वी, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या अप्रमत्त संयत हो गया। विवक्षित सासादन, या सम्यग्मिथ्यात्व, या असंयत सम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या प्रमत्तसंयत विवक्षित योग एक समय अवशिष्ट रहने पर अविवक्षित मिथ्यादृष्टि होकर योग परिवर्तन कर गया। विवक्षित स्थानवर्ती योग परिवर्तन कर एक समय रहा, पीछे मरण या व्याघात पूर्वक योग परिवर्तन कर गया।)
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि
धवला 7/2,2,98/152/2 अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण तत्थ अंतोमुहुत्तावट्ठाणं पडि विरोहाभावादो। धवला 7/2,2,104/153/7 बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालियमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिगदापढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तूणबावीसवाससहस्साणि ताव ओरालियकायजोगुवलंभादो। धवला 7/2,2,107/154/9 मणजोगादो वचिजोगादो वा वेउव्विय-आहार-कायजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सं अंतोमुहुत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोगं गदस्स ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेतुक्कस्सकालुवलंभादो।=1. (मनोयोगी तथा वचनयोगी) अविवक्षित योग से विवक्षित योग को प्राप्त होकर उत्कर्ष से वहाँ अंतर्मुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है। 2. (अधिक से अधिक बाईस हज़ार वर्ष तक जीव औदारिक काययोगी रहता है। (ष.ख./7/2,2/सू. 105/153) क्योंकि, बाईस हज़ार वर्ष की आयु वाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य काल से औदारिक मिश्र काल को बिताकर पर्याप्ति को प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्तकम बाईस हज़ार वर्ष तक औदारिक काययोग पाया जाता है। 3. मनोयोग अथवा वचनयोग से वैक्रियक या आहारक काययोग को प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल तक रह कर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के अंतर्मुहूर्त मात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योग से औदारिकमिश्र योग को प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के औदारिकमिश्र का अंतर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है।
- वेद मार्गणा में स्त्रीवेदियों की उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि
ध9/4,1,66/130−131/300 सोहम्मे सत्तगुणं तिगुणं जाव दु ससुक्ककप्पो त्ति। सेसेसु भवे विगुणं जाव दु आरणच्चुदो कप्पो।130। पणगादी दोही जुदा सत्तावीसा ति पल्लदेवीणं। तत्तो सत्तुतरियं जाव दु आरणच्चुओ कप्पो।131।=सौधर्म में सात बार=7×5 पल्य। ईशान से महाशुक्र तक तीन तीन बार=3 (7+9+11+13+15+17+19+21+23) =21+27+33+39+45+51+57+63+69=405 पल्य। शतार से अच्युत तक दो दो बार=2 (25+27+34+41+48+55) =50+54+68+82+96+110=460 पल्य। अंतरालों के स्त्री भवों की स्थिति=? कुल काल 900 पल्य+?
- वेद मार्गणा में पुरुषवेदियों की उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
धवला 9/4,1,66/132/300 पुरिसेसु सदपुधत्तं असुरकुमारेसु होदि तिगुणेण। तिगुणे णवगेवज्जे सग्गठिदी छग्गुणं होदि।132।=असुरकुमार में 3 बार=3×1=3 सागर। नव ग्रैवेयकों में तीन बार=3 (24+27+30) =72+81+90=243 सागर। आठ कल्प युगलों अर्थात् 16 स्वर्गों में छ: छ: बार=6 (2+7+10+14+16+18+20+22) =12+42+60+84+96+108+120+132=654 सागर। अंतरालों के भवों की कुल स्थिति=?। कुल काल=900 सागर+?।
- कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि
षट्खंडागम/7/2,2/सू.129/160 जहण्णेण एयसमओ।129। धवला 7/2,2,119/160/10 कोधस्स बाघादेण एगसमओ णत्थि, बाघादिदे वि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिण्हं कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा। णवरि एदेसिं तिण्हं कसायाणं वाघादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा।=कम से कम एक समय तक जीव क्रोध कषायी आदि रहता है (योगमार्गणावत् यहाँ भी योग परिवर्तन के पाँच, गुणस्थान परिवर्तन के चार मरण का एक तथा व्याघात का एक इस प्रकार चारों के, 11 भंग यथा योग्य रूप से लागू करना। विशेष इतना कि क्रोध के व्याघात से एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघात को प्राप्त होने पर भी पुन: क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार शेष तीन कषायों के भी एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए (विशेष इतना है कि इन तीन कषायों के व्याघात से भी एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए।
कषायपाहुड़ 1/368/चूर्ण सू./385 दोसो केवचिरं कालादो होदि। जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। क पा.1/369−385/10 कुदो। मुदे वाघादिदे वि कोहमाणाणं अंतोमुहुत्तं मोतूण एग-दोसमयादीणमणुवलंभादो। जीवट्ठाणे एगसमओ कालम्मि परूविदो, सोकधमेदेण सह ण विरुज्झदे; ण; तस्स अण्णाइरियउवएसत्तादो। कोहमाणाणमेगसमयमुदओ होदूण विदियसमयकिण्ण फिट्टदे। ण; साहावियादो।=प्रश्न—दोष कितने काल तक रहता है? उत्तर—जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दोष अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है। प्रश्न—जघन्य और उत्कृष्टरूप से भी दोष अंतर्मुहूर्त काल तक ही क्यों रहता है? उत्तर—क्योंकि जीव के मर जाने पर या बीच में किसी प्रकार रुकावट के आ जाने पर भी क्रोध और मान का काल अंतर्मुहूर्त छोड़कर एक समय, दो समय, आदि रूप नहीं पाया जाता है। अर्थात् किसी भी अवस्था में दोष अंतर्मुहूर्त से कम समय तक नहीं रह सकता। प्रश्न—जीवस्थान में कालानुयोगद्वार का वर्णन करते समय क्रोधादिक का काल एक समय भी कहा है, अत: वह कथन इस कथन के साथ विरोध को क्यों प्राप्त नहीं होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि जीवस्थान में क्रोधादिक का काल जो एक समय कहा है वह अन्य आचार्य के उपदेशानुसार कहा है। प्रश्न—क्रोध और मान का उदय एक समय तक रहकर दूसरे समय में नष्ट क्यों नहीं हो जाता? उत्तर—नहीं, क्योंकि अंतर्मुहूर्त तक रहना उसका स्वभाव है।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा एक समय जघन्यकाल प्राप्ति विधि
धवला 4/1,5,296/466−475 का भावार्थ - (योग मार्गणावत् यहाँ भी लेश्या परिवर्तन के पाँच, गुणस्थान परिवर्तन के चार, मरण का एक और व्याघात का एक इस प्रकार चारों के 11 भंग यथायोग्य रूप से लागू करना। विशेष इतना कि वृद्धिगत गुणस्थान लेश्या को भी वृद्धिगत और हीयमान गुणस्थानों के साथ लेश्या को भी हीयमान रूप परिवर्तन कराना चाहिए। परंतु यह सब केवल शुभ लेश्याओं के साथ लागू होता है, क्योंकि अशुभ लेश्याओं का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त है।
धवला 4/1,5,297/467/3 एगो मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा वड्ढमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो। विदिएसमए संजमासंजमेण सह सुक्कलेस्सं गदो। एसा लेस्सापरावत्ती (3)। अधवा वड्ढमाणतेउलेस्सिओ संजदासंजदो तेउलेस्सद्धाए खएण पम्मलेस्सिओ जादो। एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिट्ठं, विदियसमए अप्पमत्तो जादो। एसा गुणपरावत्ती। अधवा संजदासंजदो हीयमाणसुक्कलेस्सिओ सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिओ जादो। विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो। एसा गुणपरावत्ती (4)।
धवला 4/1,5,307/475/1 (एक्को) अप्पमत्तो हीयमाणसुक्कलेस्सिगो सुक्कलेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो। विदियसमये मदो देवत्तं गदो (3)। =1. वर्धमान पद्मलेश्या वाला कोई एक मिथ्यादृष्टि अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्या के काल में एक समय अवशेष रहने पर संयमासंयम को प्राप्त हुआ। द्वितीय समय में संयमासंयम के साथ ही शुक्ललेश्या को प्राप्त हुआ। यह लेश्या परिवर्तन संबंधी एक समय की प्ररूपणा हुई। अथवा, वर्धमान तेजो लेश्या वाला कोई संयतासंयत तेजो लेश्या के काल के क्षय हो जाने से पद्मलेश्या वाला हो गया। एक समय पद्मलेश्या के साथ संयमासंयम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समय में अप्रमत्त संयत हो गया। वह गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई। अथवा, हीयमान शुक्ललेश्या वाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्या के काल पूरे हो जाने पर पद्मलेश्या वाला हो गया। द्वितीय समय में वह पद्मलेश्या वाला ही है, किंतु असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादन सम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई (4)। 2. हीयमान शुक्ललेश्या वाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्या के ही काल के साथ प्रमत्तसंयत हो गया, पुन: दूसरे समय में मरा और देवत्व को प्राप्त हुआ। (यह मरण की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई।) नोट—इस प्रकार यथायोग्य से सर्वत्र लागू कर लेना।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा अंतर्मुहूर्त जघन्यकाल भी है
यह काल अशुभलेश्या की अपेक्षा है क्योंकि—
धवला 4/1,5,284/456/12 एत्थ (असुहलेस्साए) जोगस्सेव एगसमओ जहण्णकालो किण्ण लब्भदे। ण, जोगकसायाणं व लेस्साए तिस्सा परावत्तीए गुणापरावत्तीए मरणेण वाघादेण वा एगसमयकालस्सासंभवा। ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विणासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदियसमए लेस्संतरगमणाभावादो च। ण गुणपरावत्तीए, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा। ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा। ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा।=प्रश्न—यहाँ पर (तीनों अशुभ लेश्याओं के प्रकरण में) योगपरावर्तन के समान एक समय रूप जघन्यकाल क्यों नहीं पाया जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, योग और कषायों के समान लेश्या में—लेश्या परिवर्तन, अथवा गुणस्थान का परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघात से एक समयकाल का पाया जाना असंभव है। इसका कारण यह कि न तो लेश्या परिवर्तन के द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाश का अभाव है। तथा इसी प्रकार से अन्य गुणस्थान को गये हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य लेश्याओं में जाने का अभाव है। न गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय संभव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य गुणस्थान के गमन का अभाव है। न व्याघात की अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, वर्तमान लेश्या के व्याघात का अभाव है। और न मरण की अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में मरण का अभाव है। ( धवला 4/1,5,296/468/9 ) - लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम
धवला 4/1,5,284/456/3 किण्हलेस्साए परिणदस्स जीवस्स अणंतरमेव काउलेस्सापरिणमणसत्तीए असंभवा। धवला 8/3,2,58/322/7 सुक्कलेस्साए ट्ठिदो पम्म-तेउ-काडणीललेस्सासु परिणमीय पच्छा किण्णलेस्सापज्जाएण परिणमणव्भुवगमादो।=कृष्ण लेश्या परिणत जीव के तदनंतर ही कापोत लेश्या रूप परिणमन शक्ति का होना असंभव है। शुक्ललेश्या से क्रमश: पद्म, पीत, कापोत और नील लेश्याओं में परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या पर्याय से परिणमन स्वीकार किया गया है। - वेदक सम्यक्त्व का 66 सागर उत्कृष्टकाल प्राप्ति विधि
धवला 7/2,2,141/164-165/11 देवस्स णेरइयस्स वा पडिवण्णउवसमसम्मत्तेण सह समुप्पण्णमदि-सुद-ओट्ठि-णाणस्स वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अविणट्ठतिणाणेहि अंतोमुहुत्तमच्छिय एदेणंतोमुहुत्तेणूणपुव्वकोडाउ अमणुस्सेसुववज्जिय पुणो वीससागरोवमिएसु देवेसुववज्जिय पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय बावीससागरोवमट्ठिदीएसु देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय खइयं पट्ठविय चउबीससागरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होदूण अबंधगत्तं गदस्स चदुहि पुव्वकोडीहि सादिरेयछावट्ठिसागरोवमाणमुवलंभादो।=देव अथवा नारकी के प्राप्त हुए उपशम सम्यक्त्व के साथ मति, श्रुत व अवधि ज्ञान को उत्पन्न करके, वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त कर, अविनष्ट तीनों ज्ञानों के साथ अंतर्मुहूर्त काल तक रहकर, इस अंतर्मुहूर्त से हीन पूर्व कोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, पुन: बीस सागरोपम प्रमाण आयु वाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: पूर्व कोटि आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, पुन: बाईस सागरोपम आयु वाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: पूर्वकोटि आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ करके, चौबीस सागरोपम आयु वाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: पूर्वकोटि आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, जीवन के थोड़ा शेष रहने पर केवलज्ञानी होकर अबंधक अवस्था को प्राप्त होने पर चार पूर्व कोटियों से अधिक छियासठ सागरोपम पाये जाते हैं।
- कालानुयोग द्वार का लक्षण
- कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय
अप॰ |
लब्ध्यपर्याप्त |
अव॰ |
अवसर्पिणी |
असं॰ |
असंख्यात |
उत॰ |
उत्सर्पिणी |
उप॰ |
उपशम |
तिर्य॰ |
तिर्यंच |
प॰ |
पर्याप्त |
पल्य/असं॰ |
पल्य का असंख्यातवाँ भाग |
पृ॰ |
पृथिवी |
मनु॰ |
मनुष्य |
मिथ्या॰ |
मिथ्यात्व |
सम्य॰ |
सम्यक्त्व |
सा॰ |
सागर |
को॰पू॰ |
क्रोड़ पूर्व |
पू॰को॰ |
पूर्व क्रोड़ |
1,2,3,4 |
वह-वह गुणस्थान |
28 ज॰ |
28 प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई मिथ्यादृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य |
पूर्व |
70560000000000 वर्ष |
अंतर्मु॰ |
अंतर्मुहूत |
को॰को॰सा॰ |
कोड़ाकोड़ी सागर |
ज॰ |
जघन्य |
उ॰ |
उत्कृष्ट |
- सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा प्रमाण: 1.(कषायपाहुड़/2,22/2/289-294/253-256); 2. (कषायपाहुड़/2,22/2/123/205)
विशेषों के प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं।
नं |
विषय |
प्रमाण नं. |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
||
काल |
विशेष |
काल |
विशेष |
|||
1 |
26 प्रकृति स्थान |
1 |
1 समय |
|
अर्ध पु.परि. |
|
2 |
27 प्रकृति स्थान |
1 |
अंतर्मु. |
|
पल्य/असं. |
|
3 |
28 प्रकृति स्थान |
1 |
अंतर्मु. |
|
साधिक 132 सागर |
(कषायपाहुड़ 2/2,22/118व 123/100 व 108) मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त पल्य/असं समय पश्चात् पुन: उपशम सम्यक्त्वी हुआ। 28 की सत्ता बनायी पश्चात् मिथ्यात्व में जा वेदक सम्यक्त्व धारा। 66 सागर रहा। फिर मिथ्यात्व में पल्य/असं.रहकर पुन: उपशम पूर्वक वेदक में 66 सागर रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और पल्य/असं. काल में उद्वेलना द्वारा 26 प्रकृति स्थान को प्राप्त। |
4 |
अवस्थित विभक्ति स्थान |
1 |
1 समय |
(कषायपाहुड़ 2/2,22/427/390) |
|
|
|
एकेंद्रियों में सम्यक्प्रकृति 28 प्रकृति स्थान |
2 |
1 समय |
(कषायपाहुड़ 2/2/22/121/104) उद्वेलना के काल में एक समय शेष रहने पर अविवक्षित से विवक्षित मार्गणा में प्रवेश करके उद्वेलना करे |
पल्य/असं. |
(कषायपाहुड़ 2/2,22/123/205) क्योंकि यहाँ उपशम प्राप्ति की योग्यता नहीं है इसलिए इस काल में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्य.प्राप्त करके पुन: इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता बना ले तो क्रम न टूटने से इस काल में वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट 132 सागर काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है |
|
सम्यग्मिथ्यात्व (27 प्रकृति स्थान) |
2 |
1 समय |
|
पल्य/असं. |
|
2 |
अन्य कर्मों का उदय काल |
|
|
|
||
1 |
शोक (धवला 14/57/8) |
|
|
|
छ: मास |
|
- पाँच शरीरबद्ध निषेकों का सत्ता काल
प्रमाण धवला/14/246-248 |
विषय |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
|||
काल |
विशेष |
काल |
विशेष |
|||
246 |
औदारिक |
1 समय |
आबाधा काल नहीं है |
3 पल्य |
स्व भुज्यमान आयु |
|
246 |
वैक्रियक |
1 समय |
आबाधा काल नहीं है |
33 सागर |
स्व भुज्यमान आयु |
|
246 |
आहारक |
1 समय |
आबाधा काल नहीं है |
अंतर्मुहूर्त |
स्व भुज्यमान आयु |
|
247 |
तैजस |
1 समय |
आबाधा काल नहीं है |
66 सागर |
— |
|
248 |
कार्माण |
1 समय + 1 आवली |
आबाधा काल सहित |
70 को.को. सागर |
|
- पाँच शरीरों की संघातन परिशातन कृति
(धवला 9/4,1,71/380-401)
नोट—(देखो वहाँ ही)
- योगस्थानों का अवस्थान काल
प्रमाण: धवला/14 |
विषय |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
|||
काल |
विशेष |
काल |
विशेष |
|||
(गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/242/233/1) |
||||||
|
उपपाद स्थान |
1 समय |
|
1 समय |
|
|
|
एकांतानुवृद्धि |
1 समय |
|
1 समय |
|
|
|
परिणाम योग |
2 समय |
विग्रह गति |
8 समय |
केवलि समुद्घात |
- अष्टकर्म के चतुर्बंध संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणा
नं. |
विषय |
नानाजीवापेक्षया |
एकजीवापेक्षया |
|||
विषय |
पद विशेष |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
|
(महाबंध/पु.न..../.../पृष्ठ नं....) |
||||||
1. |
प्रकृति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
1/332-364/236-249 |
1/41-83/45-68 |
|
|
|
भुजगारादि |
|
|
|
|
|
|
हानि-वृद्धि |
|
|
|
|
2. |
स्थिति |
ज.उ.पद |
2/187-203/110-118 |
3/522-554/243-256 |
2/67-96/47-58 |
2/146-216/314-365 |
|
|
भुजगारादि |
2/319-325/166-169 |
3/795 /379-380 |
2/275-280/148-151 |
3/720-732/333-339 |
|
|
हानि-वृद्धि |
2/401-402/201-202 |
3/...(ताड़पत्र नष्ट) |
2/367-369/187-188 |
3/879-881/417-418 |
3. |
अनुभाग |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
4/240-253/109-116 |
5/405-409/211-216 |
4/80-117/26-43 |
4/477-554/238-314 |
|
|
भुजगारादि |
4/298-299/137-138 |
5/538-541/309-312 |
4/172- /126-127 |
5/457- /244 |
|
|
हानि-वृद्धि |
4/365 /166 |
5/622 /367-368 |
4/357-358/162-163 |
5/315 /361 |
4. |
प्रदेश |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
6/94 /48-50 |
|
6/60-89/28-45 |
6/225-247/134-154 |
|
|
भुजगारादि |
6/137-139/73-76 |
|
6/104-106/55-57 |
|
|
|
हानि-वृद्धि |
|
|
|
|
- अष्टकर्म के चतु:उदीरणा संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणा
नं. |
विषय |
नानाजीवापेक्षया |
एकजीवापेक्षया |
|||
विषय |
पद विशेष |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
|
1 |
प्रकृति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/47 |
धवला 15/73 |
धवला 15/44 |
धवला 15/61 |
|
|
भुजगारादि |
धवला 15/52 |
धवला 15/97 |
धवला 15/51 |
धवला 15/87 |
|
|
हानि-वृद्धि |
|
धवला 15/97 |
|
धवला 15/97 |
|
|
भंगापेक्षा जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/50 |
धवला 15/85 |
धवला 15/49 |
धवला 15/83 |
2 |
स्थिति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/141 |
धवला 15/141 |
धवला 15/119-130 |
धवला 15/119-130 |
|
|
भुजगारादि |
|
|
धवला 15/157-161 |
धवला 15/157-161 |
|
|
हानि-वृद्धि |
|
|
|
|
|
|
भंगापेक्षा जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
धवला 15/205-208 |
|
धवला 15/190-199 |
3 |
अनुभाग |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
धवला 15/235 |
|
धवला 15/232-233 |
|
|
भुजगारादि |
|
|
|
|
|
|
हानि-वृद्धि |
|
|
|
|
|
|
भंगापेक्षा जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
धवला 15/261 |
|
धवला 15/261 |
4 |
प्रदेश |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
धवला 15/261 |
|
धवला 15/261 |
|
|
भुजगारादि |
|
|
|
धवला 15/273-274 |
|
|
हानि-वृद्धि |
|
|
|
|
|
|
भंगापेक्षा जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
|
|
|
10. अष्टकर्म के चतु: उदय संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणा
नं. |
विषय |
नानाजीवापेक्षया |
एकजीवापेक्षया |
|||
विषय |
पद विशेष |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
|
1. |
प्रकृति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/285 |
धवला 15/288 |
धवला 15/285 |
धवला 15/288 |
|
|
भुजगारादि पद |
|
|
|
|
|
|
हानि वृद्धि पद |
|
|
|
|
|
|
वृद्धि पद |
|
|
|
|
2 |
स्थिति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/292 |
धवला 15/295 |
धवला 15/291 |
धवला 15/295 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
|
|
हानि वृद्धि पद |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
|
|
वृद्धि पद |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
धवला 15/294 |
धवला 15/295 |
3 |
अनुभाग |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
|
|
हानि वृद्धि पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
|
|
वृद्धि पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
धवला 15/296 |
4 |
प्रदेश |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/309 |
धवला 15/296 |
धवला 15/309 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/296 |
धवला 15/329 |
धवला 15/296 |
धवला 15/325-329 |
|
|
हानि वृद्धि पद |
धवला 15/296 |
|
धवला 15/296 |
|
|
|
वृद्धि पद |
धवला 15/296 |
|
धवला 15/296 |
|
11.अष्ट कर्म के चतु:अप्रशस्तोपशमना संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
नं. |
विषय |
नानाजीवापेक्षया |
एकजीवापेक्षया |
|||
विषय |
पद विशेष |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
|
1 |
प्रकृति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
|
|
वृद्धि हानि पद |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
धवला 15/277 |
धवला 15/278-280 |
2 |
स्थिति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
|
|
वृद्धि हानि पद |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
धवला 15/281 |
3 |
अनुभाग |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
|
|
वृद्धि हानि पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
4 |
प्रदेश |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
|
|
भुजगारादि पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
|
|
वृद्धि हानि पद |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
धवला 15/282 |
12. अष्टकर्म के चतु:संक्रमण संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
|
||
चारों भेद |
( धवला 15/283-284 ) |
(देखो वहाँ ही) |
13. अष्ट कर्म के चतु:स्वामित्व (सत्त्व) संबंधी ओघ-आदेश प्ररूपणा
|
||
चारों भेद |
सर्व विकल्प |
( देखो स्वामित्व ) |
14.मोहनीय के चतु: सत्त्व विषयक ओघ-आदेश प्ररूपणा
नं. |
विषय |
नानाजीवापेक्षया |
एकजीवापेक्षया |
|||||
विषय |
पद विशेष |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
|||
( कषायपाहुड़/ पुस्तक/पृष्ठ नं....) |
||||||||
1 |
प्रकृति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
|
|
|||
|
1 |
पेज्ज दोष अपेक्षा |
1/390 /405-406 |
|
1/369-372/385-386 |
|
||
|
2 |
प्रकृति अपेक्षा |
2/81-98/71-73 |
2/183- /171-173 |
2/48-63/27-44 |
2/118-137/91-123 |
||
|
3 |
24-28 प्रकृति स्थानापेक्षा |
2/370-377/334-344 |
2/370-377/334-344 |
2/268-307/233-281 |
2/268-307/233-281 |
||
|
|
भुजगारादि पद प्रकृति की अपेक्षा |
2/460-463/414-419 |
2/460-463/414-419 |
2/422-437/387-397 |
2/422-437/387-397 |
||
|
|
हानि वृद्धि पद प्रकृति की अपेक्षा |
2/525-528/470-475 |
2/525-528/470-475 |
2/489-497/442-448 |
2/489-497/422-448 |
||
2 |
स्थिति |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
|
|
|||
|
1 |
पेज्ज दोष अपेक्षा |
|
|
|
|
||
|
2 |
प्रकृति अपेक्षा |
3/142-154/180-187 |
3/647-672/387-406 |
3/44-82/25-47 |
3/477-537/266-316 |
||
|
3 |
24-24 प्रकृति स्थानापेक्षा |
|
|
|
|
||
|
|
भुजगारादि पद प्रकृति अपेक्षा |
3/213-217/121-123 |
4/126-142/67-74 |
3/174-187/98-108 |
4/25-70/14-42 |
||
|
|
हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा |
3/319-327/175-180 |
4/ /251-260 |
3/259-272/141-149 |
4/274-314/164-191 |
||
3 |
अनुभाग |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
|
|
|
||
|
1 |
पेज्ज दोष अपेक्षा |
|
|
|
|
||
|
2 |
प्रकृति अपेक्षा |
5/121-130/77-85 |
5/368-390/233-240 |
5/29-59/20-43 |
5/277-320/185-201 |
||
|
3 |
24-28 प्रकृति स्थानापेक्षा |
|
|
|
|
||
|
|
भुजगारादि पद |
5/157-158/104-105 |
5/501-504/293-295 |
5/143-146/93-96 |
5/476-480/276-280 |
||
|
|
हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा |
5/182- /122-123 |
5/558-561/324-326 |
5/172-173/114-116 |
5/536-539/301-312 |
||
4 |
प्रदेश |
जघन्य उत्कृष्ट पद |
|
|
|
|
||
|
1 |
पेज्ज दोष अपेक्षा |
|
|
|
|
||
|
2 |
प्रकृति अपेक्षा |
|
|
|
|
||
|
3 |
24-28 प्रकृति स्थानापेक्षा |
|
|
|
|
||
|
|
भुजगारादि पद प्रकृति अपेक्षा |
|
|
|
|
||
|
|
हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा |
|
|
|
|
पुराणकोष से
शास्त्रों की तथा इंद्रियों के मनोज्ञ विषयों वीणा, बांसुरी आदि संगीत की यथासमय उपलब्धि होती रहती थी । महापुराण 37.73-76,
हरिवंशपुराण 11. 110-114
(2) गंधमादन पर्वत से उद्भूत महागंधवती नदी
के
समीप भल्लंकी नाम की पल्ली का एक भील । इसने वरधर्म मुनिराज के पास मद्य, मांस और मधु का त्याग किया था । इसके फलस्वरूप यह मरकर विजया पर्वत पर अलका नगरी के राजा पुरबल और उनकी रानी ज्योतिर्माला का हरिबल नाम का पुत्र हुआ था । महापुराण 71. 309-311
(3) भरत खंड के दक्षिण का एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पद्मपुराण 101.84-86
(4) विभीषण के साथ राम के आश्रय में आगत विभीषण का शूर सामंत । यह राम का योद्धा हुआ और इसने रावण के योद्धा चंद्रनख के साथ युद्ध किया था । पद्मपुराण 55.40-41, 58.12-17 62.26
(5) व्यंतर देवों के सोलह इंद्रों में पंद्रहवाँ इंद्र । वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-61
(6) पंचम नारद । यह पुरुष सिंह नारायण के समय में हुआ था । इसकी आयु दस लाख वर्ष की थी । अन्य नारदों के समान यह भी कलह का प्रेमी, धर्म-स्नेही, महाभव्य और जिनेंद्र का भक्त था । हरिवंशपुराण 60.548-550
(7) सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक इंद्रक की पूर्व दिशा में स्थित महानरक । हरिवंशपुराण 4.158
(8) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । हरिवंशपुराण 5.638
(9) दिति देवी द्वारा नीम और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । हरिवंशपुराण 22. 59-60
(10) छ: द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गंध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है । वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यंत सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है । महापुराण 3. 2-4, 24.139-140, हरिवंशपुराण 7.1, 58.56 इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पांचों द्रव्य― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय हैं । यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं― मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि इसके अनेक भेद है । महापुराण 3.7-12, 24.139-144 परमाणु जितने समय में अपने प्रदेश का उल्लंघन करता है, उतने समय का एक समय होता है । यह अविभागी होता है । इसके आधार से होने वाला व्यवहार निम्न प्रकार है―
असंख्यात समय = एक आवलि
संख्यात आवीरू = एक उच्छ्वास-नि:श्वास
दो उच्छ्वास-निःश्वास = एक प्राण
सात प्राण = एक स्तोक
सात स्तोक = एक लव
सतहत्तर लव = एक मुहूर्त
तीस मुहूर्त = एक अहोरात्र
पंद्रह अहोरात्र = एक पक्ष
दा पक्ष = एक मास
दो मास = एक ऋतु
तीन ऋतु = एक अयन
दो अयन = एक वर्ष
पांच वर्ष = एक युग
दो युग = दस वर्ष
दस वर्ष × 10 = सौ वर्ष
100 वर्ष × 10 = हजार वर्ष
1000 वर्ष × 10 = दस हजार वर्ष
दस हजार वर्ष × 10 = एक लाख वर्ष
एक लाख वर्ष × 84 = एक पूर्वांग
84 लाख पूर्वांग = एक पूर्व
84 लाख पूर्व = एक नियुतांग
84 लाख नियुतांग = एक नियुत
84 लाख नियुत = एक कुमुदांग
84 लाख कुमुदांग = एक कुमुद
84 लाख कुमुद = एक पद्मांग
84 लाख पद्मांग = एक पद्म
84 लाख पद्म = एक नलिनांग
84 नलिनांग = एक नलिन
84 लाख नलिन = एक कमलांग
84 लाख कमलांग = एक कमल
84 लाख कमल = एक तुट्यांग
84 लाख तुट्यांग = एक तुट्य
84 लाख तुट्य = एक अंट्टांग
84 लाख अटटांग = एक अटट
84 लाख अटट = एक अममांग
84 लाख अममांग = एक अमम
84 लाख = एक ऊहांग
84 लाख ऊहांग = एक ऊह
84 लाख ऊह = एक लतांग
84 लाख लतांग = एक लता
84 लाख लता = एक महालतांग
84 लाख महालतांग = एक महालता
84 लाख महालता = एक शिर: प्रकंपित
84 लाख शिर: प्रकंपित = एक हस्त प्रहेलिका
84 लाख हस्त प्रहेलिका = चर्चिका
यह चर्चिका आदि रूप में परिभाषित काल संख्यात है तथा संख्यात वर्ष से अतिक्रांत काल असंख्येय काल होता है । इससे पल्य, सागर, कल्प तथा अनंत आदि अनेक काल-परिणाम बनते हैं । 7.17-31 इस व्यवहार काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद भी है । दोनों मे प्रत्येक का काल-प्रमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर होता है । दोनों का काल बीस कोड़ाकोड़ी होता है जिसे एक कल्प कहते हैं ।
महापुराण 3. 14-15