अपूर्वकरण
From जैनकोष
जीवोंके परिणामोंमें क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें १४ गुणस्थानोंका निर्देश किया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है।
• इस गुणस्थाके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ। - दे. सत्।
• इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम।
• इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय व सत्त्व।-दे. वह वह नाम।
• इस गुणस्थानमें कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव तथा तत्सम्बन्धी शंकाएँ।-दे. वह वह नाम।
• इस गुणस्थानकी पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा।-दे. संयम २
• इस गुणस्थानमें मृत्युका विधि-निषेध।-दे. मरण ३।
• सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम।-दे. मार्गणा।
१. अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७-१९ भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ।।१७।। एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ।।१८।। तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ।।१९।।
= इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किन्तु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ।।१४।। इस गुणस्थानमें यतः विभिन्न समयस्थित जीवोंके पूर्वमें अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ।।१८।। इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामोंमें स्थित जीव मोहकर्मके क्षपण या उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनोंने कहा है ।।१७-१९।।
(धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१७/११६-११८/१८३), (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ५१,५२,५४/१४०), ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/३५-३७)।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१६/१८०/१ करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यान्तर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।
= करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवोंको छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवोंके परिणामोंसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले अपूर्व परिणामोंको अपूर्वकरण कहते हैं।
अभिधान राजेन्द्रकोश/अपुव्वकरण "अपूर्वमपूर्वां क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम्। तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबन्धः इत्येते पञ्चाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तन्ते इत्यपूर्वकरणम्।
= अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही-स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबन्धापसरण ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्त्तते हैं। क्योंकि ये इससे पहिले नहीं प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १३/१४ स एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्त्ती भवति
= वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका मन्द उदय होनेपर अपूर्व, परम आह्लाद सुखके अनुभवरूप अपूर्वकरणमें उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है।
• अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनिवृत्तिकरणके साथ इसका भेद।-दे. कारण ५।
• अपूर्वकरण लब्धि। दे. करण ५।
२. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक दो ही भाव सम्भव है
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१६/१८२/४ पञ्चसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः उपशमकस्यौपशमिकः।.....सम्यक्त्वापेक्षया तुक्षपकस्य क्षायिको भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपत्तेः। उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भात्।
= प्रश्न-पाँच प्रकारके भावोंमें-से इस गुणस्थानमें कौन-सा भाव पाया जाता है? उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है।....सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है।
३. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१/१९/५९०/११ तत्र कर्मप्रकृतीनां नोपशमो नापि क्षयः।
= तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोंका न उपशम है और न क्षय।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२७/२११/३ अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयणंतगुण-विसोहीए वढ्ढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंट्ठिदिखंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबंधोसरणाणि करेदि।
= अपूर्वकरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नहीं होता है। किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें एक एक स्थितिखण्डोंका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखण्डोंका घात करता है। उतने ही स्थिति बन्धापसरणोंको करता है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२७/२१६/९ सो ण एक्कं वि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्जगुणसरूवेण पदेस णिज्जरं करेदि। अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकंडयवादे करदि।
= वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें एक स्थिति काण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थिति काण्डकोंका घात करता है। और उतने ही स्थिति बन्धापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजारगुणे अनुभागकाण्डकोंका घात करता है।
४. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे सम्भव हैं
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१/१९/५९०/१२ पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते।
= आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घीके घड़ेकी तरह हो जाता है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१६/१८१/४ अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसङ्गः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात्।
= प्रश्न-आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि, भावी अर्थमें भूतकालीन अर्थके समान उपचार कर लेनेसे आठवें गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबन्धक मरणके अभावमें नियमसे चारित्र-मोहका उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोहका क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपणके सन्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक संज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवें गुणस्थानमें भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है
(धवला पुस्तक संख्या ५/१,७,९/२०५/४)
धवला पुस्तक संख्या ५/१,७,९/२०५/२ उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।
= उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है।
धवला पुस्तक संख्या ५/१,७,९/२०६/१ अपुव्वकरणस्स अविट्ठकम्मस्स कंध खइयो भावो। ण तस्स वि कम्मक्खयणिमित्तपरिणामुवलंभादो।....उवयारेण वा अपुव्वकरणस्स खइओ भावो। उवयारे आसयिज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो।
= प्रश्न किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं।....अथवा उपचारसे अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसंग दोष क्यों न आयेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबंध हो जाता है।
धवला पुस्तक संख्या ७/२,१,४९/९३/५ खवगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि थोवथोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदंसणादो। पडिसमयं कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलंभादो च।
= क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अन्तिम सयमें भी कार्य पूरा होता नहीं पाया जा सकता।
दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/१० दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता।
अपूर्व कृष्टि-
-दे. कृष्टि।
अपूर्वस्पर्धक-
-दे. स्पर्धक।
अपूर्वार्थ-
(परीक्षामुख परिच्छेद संख्या १/४-५)-अनिश्चितोऽपूर्वार्थ ।।४।। दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ।।५।।
= जो पदार्थ पूर्वमें किसी भी प्रमाण द्वारा निश्चित न हुआ हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं ।।४।। तथथा यदि किसी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात् पुनः उसमें संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय हो जाये तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ।।५।।
अपेक्षा-
- दे. स्याद्वाद/२।
अपोह-
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १३/५,५,३८/सू.३८/२४२ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणागवेसणा मीमांसा ।।३८।।
= ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा, और मीमांसा ये ईहाके पर्याय नाम हैं।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,३८/२४२/९ अपोह्यते संशयनिबन्धनविकल्पः अनया इति अपोहा।
= जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्पका निराकरण किया जाता है वह अपोह है।
अपोही-
न.वि.वृ./२/२५/५० अपोहिनाम् विजातीयविशेषवतां खण्डादीनाम्।
= विजातीयविशेषवानके खण्डादि।
अपौरुषेय-
आगमका पौरुषेय व अपौरुषेयपना।-दे. आगम/६
अप्रणीतवाक्-
दे वचन।
अप्रतिकर्म-
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २०५ परमोपेक्षासंयमबलेन देहप्रतिकाररहितत्वादिप्रतिकर्म भवति।
= परमोपेक्षा संयमके बलसे देहके प्रतिकार रहित होनेसे अप्रतिकर्म होता है।
अप्रतिकर्मण-
- दे. प्रतिक्रमण।
अप्रतिघातऋद्धि-
-दे. ऋद्धि/३।
अप्रतिघाती-
सूक्ष्म पदार्थोंका अप्रतिघातीपना।-दे. सूक्ष्म/१।
अप्रतिचक्रेश्वरी-
पद्मप्रभुकी शासक यक्षिणी। -दे. तीर्थंकर ५/३।
अप्रतिपक्षी प्रकृतियाँ-
-दे. प्रकृति बन्ध/२।
अप्रतिपत्ति-
श्लो./वा./४/न्या.४५९/५५१/२० अनुपलम्भोऽप्रतिपत्तिः।
= अनुपलब्धिको अप्रतिपत्ति कहते हैं। जिसकी अप्रतिपत्ति है उसका अभाव मान लिया जाता है।
अप्रतिपाती-
१. अप्रतिपाती अवधिज्ञान-दे. अवधिज्ञान/६। २. अप्रतिपाती मनःपर्यय ज्ञान-दे. मनःपर्ययज्ञान/२।
अप्रतिबुद्ध-
समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या १९ कम्मे णोकम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं। जा एसा खलु बुद्धी अपडिबुद्धी हवदि ताव ।।१९।।
= जब तक इस आत्माकी ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म और शरीरादि नामकर्ममें `यह मैं हूँ' और `मुझमें यह कर्म नोकर्म हैं' ऐसी बुद्धि है, तब तक यह आत्मा अप्रतिबुद्ध है।
अप्रतिभा-
न्या./सू./मू./५२/२/१८ उत्तरस्थाप्रतिपत्तिप्रतिभा ।।१८।।
= परपक्षका खण्डन करना उत्तर है। सो यदि किसी कारणसे वादी समयपर उत्तर नहीं देता तो यह उसका अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान है।
(श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.२४५/४१४/१४)
अप्रतियोगी-
जिस धर्ममें जिस किसी धर्मका अभाव नहीं होता है, वह धर्म उस अभावका अप्रतियोगी है। जैसे घटमें घटत्व।
अप्रतिष्ठान-
सप्तम नरकका इन्द्रक बिल-दे. नरक/५।
अप्रतिष्ठित-
अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति-दे. वनस्पति।
अप्रत्यवेक्षित-
निक्षेपाधिकरण-दे. अधिकरण।
अप्रत्यवेक्षितोत्सर्ग-
- दे. उत्सर्ग।
अप्रत्याख्यान-
१. संयमासंयमके अर्थमें-
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२३/४३/३ प्रत्याख्यानं संयमः, न प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानमिति देशसंयमः
= प्रत्याख्यान संयमको कहते हैं। जो प्रत्याख्यान रूप नहीं है वह अप्रत्याख्यान है। इस प्रकार `अप्रत्याख्यान' यह शब्द देशसंयमका वाचक है।
(धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-२३/४४/३)
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,९५/३६०/१० ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यामिति व्युत्पत्तेः अणुव्रतानामप्रत्याख्यानसंज्ञा।
= `ईषत् प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार अणुव्रतोंकी अप्रत्याख्यान संज्ञा है।
(गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या २८३/६०८/१४)
२. विषयाकांक्षाके अर्थमें
समयसार / समयसार तात्पर्यवृत्ति। तात्पर्यवृत्ति गाथा संख्या २८३ रागादि विषयाकाङ्क्षारूपमप्रत्याख्यानमपि तथैव द्विविधं विज्ञेयं......द्रव्यभावरूपेण।
= रागादि विषयोंकी आकांक्षारूप अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका जानना चाहिए-द्रव्य अप्रत्याख्यान व भाव अप्रत्याख्यान।
अप्रत्याख्यान क्रिया-
- दे क्रिया/३/२।
अप्रत्याख्यानवरण-
१. अप्रत्याख्यानावरण कर्मका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ८/९/३८६/७ यदुदयाद्देशविरतिं संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावरणवन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः।
= जिनके उदयसे संयमासंयम नामवाले देशविरतिको यह जीव स्वल्प भी करनेमें समर्थ नहीं होता है वे देशप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ८/९/५/५७५/१) (धवला पुस्तक संख्या ६/१-९,१,२३/४,४/४) (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,९५/३६०/१०) (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ४५/४६/१२) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ३३/२८/४) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या २८३/६०८/१४)
• अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान।-दे. वह वह नाम।
• अप्रत्याख्यानावरणका सर्वघातीपना-दे. अनुभाग ४।
• अप्रत्याख्यानावरणमें दशों करणोंकी संभावना।-दे. करण २।
२. अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशव्रतको घातती है
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/११५ पढमो दंसणघाई बिदिओ तह घाइ देसविरइ त्ति।
= प्रथम अनन्तानुबन्धी तो सम्यग्दर्शनका घात करती है, और द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरतिकी घातक है।
(गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४५/४६) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २८३/६०८) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/२०५)
३. अप्रत्याख्यानावरण कषायका वासना काल
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४६/४७ अन्तर्मुहूर्तः पक्षः षण्मासाः संख्यासंख्यायानन्तभवाः। संज्वलनाद्यानां वासनाकालः तू नियमेन। अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासाः।
= संज्वलनादि कषायोंका वासनाकाल नियमसे अन्तर्मुहूर्त, एक पक्ष, छः मास तथा संख्यात असंख्यात व अनन्त भव है। अप्रत्याख्यानावरणका छः मास है।
• कषायोंकी तीव्रता मन्दतामें अप्रत्याख्यानावरण नहीं बल्कि लेश्या कारण है।-दे. कषाय/३।
अप्रदेशासंख्यात-
- दे.असंख्यात।
अप्रदेशी-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१/२६६ यथाणोः प्रदेशमात्रत्वाद् द्वितीयादयोऽस्य प्रदेशा न सन्तीत्यप्रदेशोऽणुः तथाकालपरमाणुरप्येकप्रदेशत्वादप्रदेश इति।
= जिस प्रकार अणु एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसके द्वितीयादि प्रदेश नहीं होते, इसलिए अणुको सप्रदेशी कहते हैं, उसी प्रकार काल परमाणु भी एक अदेशरूप होनेके कारण अप्रदेशी है।
अप्रमत्तसंयत-
दे. संयत।
अप्रमार्जितोत्सर्ग-
दे. उत्सर्ग।
अप्रशस्त-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/१४/३५२/७ प्राणिपीडाकर यत्तदप्रशस्तम्।
= जिससे प्राणियोंको पीड़ा होती है, उसे (ऐसे कार्यको) अप्रशस्त कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/२८/४४५ अप्रशस्तमपुण्यास्रवकारणत्वात्।
= जो पापास्रवका कारण है, वह (ध्यान) अप्रशस्त है।
अप्रशस्तोपशम-
दे. उपशम/१।
अप्राप्तकाल-
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/११ अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ।।११।।
= प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका जैसा लक्षण कहा गया है, उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात् जिस अवयवके पहिले या पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान कहते हैं। क्योंकि क्रमसे विपरीत अवयवोंके कहनेसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती।
(श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या पु.४/न्या.२११/३९१/१)
अप्राप्तिसमा-
दे. प्राप्तिसमा।
अप्राप्यकारी-
अप्राप्यकारी इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय/२।
अप्रियवाक्-
दे. वचन।
अबंध-
१. अबन्धका लक्षण-दे. बंध/१। २. अबन्ध प्रकृतियाँ-दे. प्रकृतिबंध/२।
अबद्ध-
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ९६ मोहकर्मावृतो बद्धः स्यादबद्धस्तदत्ययात्।
= मोहकर्मसे युक्त ज्ञानको बद्ध तथा मोहकर्मके अभावसे ज्ञानको अबद्ध कहते हैं।
अबुद्धि-
दे. बुद्धि।
अब्बहुल-
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या २/१९ अब्बहुलो वि भागं सलिलसरूवसव्वो होदि ।।१९।।
= अब्बहुल भाग (अधोलोकमें प्रथम पृथिवी) जलस्वरूपके आश्रयसे है।
• लोकमें इसका अवस्थान-दे. रत्नप्रभा।
अब्भोब्भव-
१. आहारका एक दोष-दे. आहार/II/४। २. वसतिका एक दोष -दे. वसति।
अब्रह्म-
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ७/१६ मैथुनब्रह्म।
= मैथुन करना अब्रह्म है। (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ४/७७)।
अब्रह्मनिषेध आदि-
दे. ब्रह्मचर्य/३,४।
अभक्ष्य-
दे. भक्ष्याभक्ष्य।
अभयंकर-
एक ग्रह-दे. ग्रह।
अभय-
१. भगवान् वीरके तीर्थमें हुए अनुत्तरोपपादकोंमें-से एक-दे. अनुत्तरोपपादक। २. श्रुतावतारके अनुसार आप एक आचार्य थे जिनका अपर नाम यशोभद्र व भद्र था-दे. `यशोभद्र'।
अभयकुमार-
(महापुराण सर्ग संख्या ७४/श्लो.सं.) पूर्व भव सं. ३ ब्राह्मका पुत्र तथा महामिथ्यात्वी था। एक श्रावकके उपदेशसे मूढताओंका त्याग करके फिर पूर्वके दूसरे भवमें सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। वर्तमान भवमें राजा श्रेणिककी ब्राह्मणी रानीसे पुत्र उत्पन्न हुआ ।।४२९।।
अभयचन्द्र-
(सिद्धिविनिश्चय / प्रस्तावना ४३ पं. महेन्द्रकुमार) आप ई. श. १३ के आचार्य हैं। आपने `लघीयस्त्रय' पर स्याद्वादभूषण नामकी तात्पर्यवृत्ति लिखी है। २. बालचन्द तथा श्रुतमुनि (ई. १३११) के गुरु, गोमट्टसारकी मन्दप्रबोधिनी टीकाके रचयिता। समय ई. श. १४ का पूर्वार्ध। ए. एन. उपाध्येके अनुसार ई. १२७९ में मृत्यु। पं. कैलाशचन्दको मान्य नहीं।
४६९/(जै./१/४७०); (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, पृष्ठ संख्या ३/३३१९)
अभयदत्ति-
दे. दान।
अभयदान-
दे. दान।
अभयदेव-
१. वाद महार्णव तथा समन्तितर्क टीकाके रचयिता श्वेताम्बराचार्य। समय-ई. श. १० (सिद्धिविनिश्चय / प्रस्तावना ४०/पं. महेन्द्र)। २. नवांगवृत्तिके रचयिता श्वेताम्बराचार्य। समय-ई. १०३१-१०७८।
(जै./१/३६६)
अभयनंदि-
नन्दिसंघ देशीयगण (दे.इति/७/५) के अनुसार आप इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (ई.श. १०-११) के समवयस्क दीक्षागुरु और वीर नन्दिके शिक्षागुरु थे। आपको क्योंकि सिद्धान्तचक्रवर्तीकी उपाधि प्राप्त थी इसलिए इन तीनों शिष्योंको भी वह सहज मिल गई। इन तीनोंमें आचार्य वीरनन्दि पहिले आ. मेघचन्द्रके शिष्य थे, पीछे विशेष ज्ञान प्राप्तिके अर्थ आपकी शरणमें चले गये थे। कृतियें-१. बिना संदृष्टिकी गोमट्टसार टीका; २. कर्मप्रकृति रहस्य; ३. तत्त्वार्थ सूत्रकी तात्पर्य वृत्ति टीका, ४. श्रेयोविधा; ५. पूजाकल्प; ६. पं. कैलाशचन्दजी के अनुसार सम्भवतः जैनेन्द्र व्याकरणकी महावृत्ति टीका भी। समय-व्याकरण महावृत्तिके अनुसार वि. श. ११ का प्रथम चरण आता है। देशीयगणकी गुर्वावलीमें वह ई. ९३०-९५० दर्शाया गया है।
(जै./१/३८७); (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, पृष्ठ संख्या २/४१९); (इतिहास ७/५) (जैन साहित्य इतिहास/२७०/नाथूरामजी प्रेमी)।
अभयसेन-
पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आ. सिद्धसेनके शिष्य तथा आ. भीमसेनके गुरु थे। दे. इतिहास ७/८।
अभव्य-
दे. भव्य।
अभाव-
यह वैशेषिकों द्वारा मान्य एक पदार्थ है। जैन न्याय शास्त्रमें भी इसे स्वीकार किया है, परन्तु वैशेषिकोंवत् सर्वथा निषेधकारी रूपसे नहीं, बल्कि एक कथंचित् रूपसे।
१. भेद व लक्षण
१. अभाव सामान्यका लक्षण
न्या.सू./भा.२-२/१०/११० यत्र भूत्वा किंचिन्न भवति तत्र तस्याभाव उपपद्यते।
= जहाँ पहिले होकर फिर पीछे न हो वहाँ उसका अभाव कहा जाता है। जैसे किसी स्थानमें पहिले घट रक्खा था और फिर वहाँसे वह हटा लिया गया तो वहाँके धड़ेका अभाव हो गया।
श्ली.वा.४/न्या.४५९/५५१/२० सद्भावे दोषप्रसक्तेः सिद्धिविरहान्नान्तित्वापादनमभावः।
= सद्भावमें दोषका प्रसंग आ जानेपर, सिद्धि न होनेके कारण जिसकी नास्ति या अप्रतिपत्ति है उसका अभावमान लिया जाता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या १०० भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति वचनात्।
= भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव होता है, न कि सर्वथा अभाव रूप जैसे कि मिथ्यात्व पर्यायके भंगका सम्यक्त्वपर्याय रूपसे प्रतिभास होता है।
न्याय भाषामें प्रयोग-जिस धर्मीमें जो धर्म नहीं रहता उस धर्मीमें उस धर्मका अभाव है।
२. अभावके भेद
न्या.सू./२-२/१२ प्रागुपपत्तेरभावोपपत्तेश्च।
= अभाव दो प्रकारका - एक जो उत्पत्ति होनेके पहिले (प्रागभाव); ओर दूसरा जब कोई वस्तु नष्ट हो जाती है (प्रध्वंसाभाव)।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८१ अभाव चार हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव।
३. अभावके भेद
धवला पुस्तक संख्या ७/२,९,४/४७९/२४ विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है-पर्युदास और प्रसज्या।
४. प्रागभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय संख्या /९/१/१ क्रियागुणव्यपदेशाभावात् प्रागसत्।
= क्रिया व गुणके व्यपदेशका अभाव होनेके कारण प्रागसत् होता है। अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्तिसे पहिले नहीं होता।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/१० प्रागभाव कहिए कार्यके पहिले न होना।
जैन सिद्धान्तप्रवेशिका/१८२ वर्तमान पर्यायका पूर्व पर्यायमें जो अभाव है उसे प्रागभाव कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१३-१४/$२०५/गा.१०४/२०५ विशेषार्थ-कार्यके स्वरूपलाभ करनेके पहिले उसका जो अभाव रहता है वह प्रागभाव है।
५. प्रध्वंसाभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय संख्या /९-१/२ सदसत् ।।२।।
= कार्यकी उत्पत्तिके नाश होनेके पश्चातके अभावका नाम प्रध्वंसाभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/१० प्रध्वंस कहिए कार्यका विघटननामा धर्म।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८३ आगामी पर्यायमें वर्तमा पर्यायके अभावको प्रध्वंसाभाव कहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१३-१४/$२०५/गा.१०४/२५० भाषार्थ-कार्यका स्वरूपलाभके पश्चात् जो अभाव होता है वह प्रध्वंसाभाव है।
६. अन्योन्यभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय संख्या /९-१/४ सच्चासत् ।।४।।
= जहां घड़ेकी उपस्थितिमें उसका वर्णन किया जाता है कि गौ ऊंट नहीं और ऊंट गौ नहीं। उनमें तादात्म्याभाव अर्थात् उसमें उसका अभाव और उसमें उसका अभाव है।.... उसका नाम अन्योन्याभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द्र/११ अन्य स्वभावरूप वस्तुतैं अपने स्वभावका भिन्नपना याकूं इतरेतराभाव कहिये।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८४ पुद्गलकी एक वर्तमान पर्यायमें दूसरे पुद्गलकी वर्तमान पर्यायके अभावको अन्योन्याभाव कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१३-१४/$२०५/गा.१०५/२५१ विशेषार्थ-एक द्रव्यकी एक पर्यायका उसकी दूसरी पर्यायमें जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते हैं। (जैसे घटका पटमें अभाव)।
७. अत्यन्ताभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय संख्या /९-१/५ यच्चान्यसदतस्तदसत् ।।५।।
= उन तीनों प्रकारके अभावोंके अतिरिक्त जो अभाव है वह अत्यन्ताभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/११ अत्यन्ताभाव है सो द्रव्यार्थिकनयका प्रधानपनाकरि है। अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यविषैं अत्यन्ताभाव है।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८५ एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यके अभावको अत्यन्ताभाव कहते है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१,१३-१४/$२०५/गा.१०५/२५१/भाषार्थ-रूगादिककास्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है, अर्थात् अत्यन्ताभाव का अभाव माना जाता है तो पदार्थका किसी भी असाधारणरूपमें कथन नहीं किया जा सकता है।
८. पर्युदास अभाव
धवला पुस्तक संख्या ७/२,९,४,/४७९/२४ विशेषार्थ-पर्युदासके द्वारा एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या २/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षादन्योऽप्रत्यक्ष इति पर्युदासः।
= प्रत्यक्षसे अन्य सो अप्रत्यक्ष-ऐसा पर्युदास हुआ।
९. प्रसज्य अभाव
राजवार्तिक अध्याय संख्या २/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षो न भवतीत्यप्रत्यक्ष इति प्रसज्यप्रतिषेधो....
= जो प्रत्यक्ष न हो सो अप्रत्यक्ष ऐसा प्रसज्य अभाव है।
धवला पुस्तक संख्या ७/२,९,४/४७९/२४ विशेषार्थ-प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा जाता है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१३-१४/$१९०/२२७/१ कारकप्रतिषेधव्यापृतात्।
= क्रियाके साथ निषेधवाचक `नञ्' का सम्बन्ध।
१०. स्वरूपाभाव या अतद्भाव
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या १०६,१०८ पविभत्तपदेसत्त पुधुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतव्भावो ण तब्भयं होदि कधमेगं। जं दव्वं तण्ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ।।१०६।। एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ।।१०८।।
= विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है-ऐसा वीरका उपदेश है। अतद्भाव अन्यत्व है। जो उस रूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ।।१०६।। स्वरूपपेशासे जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १०६-१०७ अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ता द्रव्ययोर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव ।।१०६।। यथा-एकस्मिन्मुक्ताफलखग्दाम्नि यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्याभावः स तदभावालक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः। तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वास न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः ।।१०७।।
= अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्तागुण और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणीके तद्भावका अभाव होता है-शुक्लत्व और वस्त्र (या हार) की भाँति ।।१०६।। जैले एक मोतियोंकी मालामें जो शुक्लगुण है, वह हार नहीं है, धागा नहीं है, या मोती नहीं है; और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है-इस प्रकार एक-दूसरेमें जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होनेका अभाव है' सो वह `तदभाव' लक्षणवाला `अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्वका कारण है। इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है; वह सत्तागुण है - इस प्रकार एक दूसरेमें जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होनेका अभाव' है वह `तदभाव' लक्षण `अतद्भाव' है, जो किं अन्यत्वका कारण है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या १०७/१४९/२ परस्परं प्रदेशाभेषेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते।....अतद्भावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इति।
= परस्पर प्रदेशोंमें अभेद होनेपर भी जो यह संज्ञादिका भेद है वही उस पूर्वोक्त लक्षण रूप तद्भावका अभाव या तदभाव कहा जाता है। उसीको अतद्भाव भी कहते हैं-संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिसे भेद होना, ऐसा अर्थ है।
११. अभाववादका लक्षण
यु. अनु./२५ अभावमात्रं परमार्थवृत्ते, ता संवृतिः सर्व-विशेष-शून्या। तस्या विशेषौ किल बन्धमोक्षो हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ।।२५।।
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