लोकसामान्य निर्देश
From जैनकोष
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
देखें - आकाश / १ / ३ (१. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनन्त आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। २. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )
देखें - लौकान्तिक / १ । (३.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)
रा. वा./५/१२/१०-१३/४५५/२० यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।१०।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।११।... सर्वज्ञेनानन्ताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।१३।= जहाँ पुण्य व पापका फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्तिके अनुसार लोकका अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्तिसे भी लोकका अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूपका लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनन्त व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
- लोक का आकार
ति.प./१/१३७-१३८ हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।१३७। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।१३८।= इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खड़े किये हुए मृदंगके सदृश है।१३८। (ध.४/१,३.२/गा. ६/११) (त्रि.सा./६); (ज.प./४/४-९) (द्र.सं./टी./३५/११२/११)।
ध.४/१,३,२/गा. ७/११ तलरुक्खसंठाणो।७।= यह लोक तालवृक्षके आकारवाला है।
ज.प./प्र.२४ प्रो. लक्षमीचन्द- मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोकाकाशका आकार किंचिंत् समानता रखता प्रतीत होता है।
- लोक का विस्तार
ति. प./१/१४९-१६३ सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।१४९। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।१५०। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।१५१। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।१५२।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।१५३।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।१५४। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।१५५। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।१५६। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।१५७। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।१५८। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।१५९। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।१६०। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।१६१। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।१६२। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।१६९। =- दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि और मुख का व्यास क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अन्त में एक राजू है।१४९।
- सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है। अर्धमृदंग की ऊँचाई सम्पूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्धमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग के सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊँचा है।१५०। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई १,००,००० योजन, और ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है।१५१। (ध. ४/१,३,२/गा.८/११); (त्रि.सा./११३); (ज.प./४/११,१६-१७)।
- तहाँ भी - तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजू के अन्तराल से हैं।१५२। धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियों के अपरनाम हैं।१५३। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारम्भ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है।१५४। इसके आगे दूसरा राजू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में।१५५। चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में।१५६। और छठा राजू महातमःप्रभा के अन्त में समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।१५७। (इस प्रकार अधोलोक की ७ राजू ऊँचाई का विभाग है।)
- रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भागों में खरभाग १६००० यो., पंक भाग ८४००० यो. और अब्बहुल भाग ८०,००० योजन मोटे हैं। देखें - रत्नप्रभा / २ ।
- लोक में मेरू के तलभाग से उसकी चोटी पर्यन्त १,००,००० योजन ऊँचा व १ राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। - देखें - तिर्यंच / ३ / १ )। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवी के ऊपर से मेरु की चोटी तक ९९,००० योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण ४५,००,००० योजन विस्तार युक्त है। - देखें - मनुष्य / ४ / १ ।
- चित्रा पृथिवी के नीचे खर व पंक भाग में १,००,००० यो. तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरु की चोटी तक ९९,००० योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। - देखें - भावन लोक / ४ / १५ । इसी प्रकार व्यन्तरलोक भी जानना। - देखें - व्यंतर / ४ / १ -५। चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर जाकर ११० योजन बाहल्य व १ राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है। - देखें - ज्योतिषि लोक / १ / २ / ६
- मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदण्ड १,००,००० योजन कम १½राजू प्रमाण ऊँचा है।१५८। इसके आगे १½ राजू प्रमाण ऊँचा है। १५८। इसके आगे १½ राजू माहेन्द्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, १/२ राजू ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में।१५९। १/२ राजू कापिष्ठ के ऊपीर भाग में, १/२ राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, १/२ राजु सहस्रार के ऊपरी भाग में।१६०। १/२ राजू आनत के ऊपरी भाग में और १/२ राजू आरण-अच्युत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है।१६१। उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवग्रैवेयक, नव अनुदिश, और ५ अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में ७ राजू का विभाग कहा गया।१६२। अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक -विमान समन्बधी ध्वजदण्ड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अन्त समझना चाहिए। और कल्पातीत भूमि का जो अन्त है वही लोक का भी अन्त है।१६३।
- (लोक शिखर के नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक स्थित है। ( देखें - स्वर्ग / ५ / १ ) सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक के ध्वजदण्ड से १२ योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह ८ योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्राग्भार क्षेत्र है। वह ४५,००,००० योजन विस्तार युक्त है। मध्य में ८ योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस अष्टम पृथिवी के ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धिलोक है। ( देखें - मोक्ष / १ / ७ )।
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
ति.प./१/२६८ गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।२६८। = गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।२६८। (रा.वा./३/१/८/१६०/१६); (त्रि. सा./१२३); (देखें - चित्र सं . ९ पृ. ४३९)।
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
ति.प./१/२६९ पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।२६९। = इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।२६९। (स.सि./३/१/२०४/३); (रा.वा./३/१/८/१६०/१४); (तत्त्वार्थ वृत्ति/३/१/श्लो. १-२/११२)।
तत्त्वार्थ वृत्ति /३/१/१११/१९ सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तन्ते। स च घनवातः अम्बुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चाम्बुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालम्बनं किमपि नास्ति। = दृष्टि नं. २- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अम्बु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अम्बुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलम्बन नहीं है।
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
ति.प./२/२४ सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।२४।
ति.प.८/२०६-२०७ सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।२०६। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।२०७। = सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परन्तु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। २४। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेन्द्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।२०६। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।२०७।
- वातवलयों का विस्तार
ति.प./१/२७०-२८१ जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।२७०। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।२७१। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।२७२। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।२७३। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।२८०। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।२८१। =दृष्टि नं. १- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमण्डलों में से प्रत्येक की मोटाई २०,००० योजन प्रमाण है।२७०। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई ७,५ और ४ तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में ५,४ और ३ योजन प्रमाण है।२७१। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से ७,५ और ४ योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अन्त में (पार्श्व भाग में) ५, ४ और ३ योजन प्रमाण है।२७२। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः २ कोस, १ कोस और कुछ कम १ कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण २४२५ धनुष समझना चाहिए।२७३। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई २०,००० योजन है - देखें - मोक्ष / १ / ७ ) (त्रि.सा./१२४-१२६)। दृष्टि नं. २- सातवीं पृथिवी और ब्रह्म युगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओं की मोटाई क्रम से ३०, ४१/२ और ४९/३ कोस हैं।२८०। लोक शिखर पर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रम से १(१/३), १(१/२) और १ (१/१२) कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।२८१। - विशेष देखें - चित्र सं . ९ पृ. ४३९.
- वातवलय सामान्य परिचय
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
रा.वा./१/२०/१२/७६/१३ मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलान्तररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। = मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं।
- लोक विभाग निर्देश
ति.प./१/१३६ सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।१३६। = श्रेणी वृन्द्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह सम्पूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।१३६। (बा.अ./३९); (ध. १३/५,५,५०/२८८/४)।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अन्त पर्यन्त १३ राजू लम्बी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। ( देखें - त्रस / २ / ३ ,४)। परन्तु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। ( देखें - स्थावर / ९ ) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं ( देखें - सूक्ष्म / ३ / ७ ) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें - काय / २ / ५ । विशेष देखें - चित्र सं . ९ पृ. ४३९।
- अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें - लोक / २ / २ ,३ मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। ७ राजू ऊँचा व ७ राजू मोटा है। नीचे ७ राजू व ऊपर १ राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी ७ पृथिवियाँ लगभग एक राजू अन्तराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य १३,११ आदि पटल १००० योजन अन्तराल से अवस्थित हैं। कुल पटल ४९ हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इन्द्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। ( देखें - नरक / ५ / १ -३)। सातों पृथिवियों के नीचे अन्त में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें - चित्र सं . १० पृ. ४४१।
- रत्नप्रभा पृथिवी के खर व पंक भाग का चित्र - देखें - भवन / ४ ।
- रत्नप्रभा पृथिवी के अब्बहुल भाग का चित्र - देखें - रत्नप्रभा।
- रत्नप्रभा पृथिवी के खर व पंक भाग का चित्र - देखें - भवन / ४ ।
- भावनलोक निर्देश
(उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि १६ प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर १००० योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। ( देखें - रत्नप्रभा / २ )। तहाँ खर व पंकभाग में भावनवासी देवों के भवन हैं और अब्बहुल भाग में नरक पटल है। ( देखें - भवन / ४ / १ चित्र)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोक में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास हैं। ( देखें - व्यंतर / ४ / १ -५)। (विशेष देखें - भवन / ४ )।
- व्यन्तरलोक निर्देश
(चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यन्तरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें - व्यन्तर / ४ / १ -५)।
- मध्यलोक निर्देश
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
ति.प./५/८-१०,२७ सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।८। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।९। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।१०। जम्बूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।२८। =- सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अन्तिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।८। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। ९। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खण्डित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।१०। (मू.आ./१०७६); (त.सू./३/७-८); (ह.पु./५/२,६२६-६२७); (ज.प./१/१९)।
- जम्बूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखण्ड में कालोद नामक समुद्र है। शेष समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिए।२८। (मू.आ./१०७७); (रा.वा./३/३८/७/२०८/१७); (ज.प./११/१८३)।
त्रि.सा./८८६ वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।८८६। = सभी द्वीप व समुद्रों के अन्त में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें - लोक / ३ / २ तथा ४/१)।
नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें - लोक / ५ / १ ,२)।
- तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग
ध. ४/१, ३,१/९/३ देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति। = देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मन्दराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
ह.पु./५/१ तनुवातान्तपर्यन्तस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।१। =- तनुवातवलय के अन्तभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन वाला विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित हैं।१। (इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्रएक दूसरे को वेष्ठित करके स्थित हैं देखें - लोक / २ / ११ । यह सारा का सारा तिर्यक्लोक कहलाता है, क्योंकि तिर्यंच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं।
- उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती, जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध ४५,००,००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना सम्भव नहीं है। (- देखें - मनुष्य / ४ / १ )।
- मनुष्य लोक के इन अढाई द्वीपों में से जम्बूद्वीप में १ और घातकी व पुष्करार्ध में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ६ कुलधर पर्वत होते हैं, जिनसे वह द्वीप ७ क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है। मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं। प्रत्येक में ८ वक्षार पर्वत, ६ विभंगा नदियाँ तथा १६ क्षेत्र हैं। उपरोक्त ७ व इन ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियाँ हैं। ७ क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा ३२ विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं, जिनपर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं। ( देखें - लोक / ३ / ५ )।
- इस अढाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप व सागर में ही कर्मभूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म सम्बन्धी अनुष्ठान जहाँ पाये जायें वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोगभोगते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करें वह भोगभूमि है। अढाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन होता है। तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरुओं में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है ( देखें - भूमि / ३ ) भोगभूमि में जीव की आयु, शरीरोत्सेध, बल व सुख क्रम से वृद्धिंगत होता है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। - देखें - काल / ४ / १८ । ५. मनुष्यलोक व अन्तिम स्वयंप्रभ द्वीप व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप, सागरों में विकलेन्द्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इसी प्रकार सर्व ही भोगभूमियों में भी वे नहीं होते हैं। वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र सम्भव हैं। - देखें - तिर्यंच / ३ / ७ ।
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
(पूर्वोक्त चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर जाकर ११० योजन पर्यन्त आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार-क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र। १ सूर्य, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र व ६६,९७५ तारे, ये एक चन्द्रमा का परिवार है। जम्बूद्वीप में दो, लवणसागर में ४, धातकी खण्ड में १२, कालोद में ४२ और पुष्करार्ध में ७२ चन्द्र हैं। ये सब तो चर अर्थात् चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्कर के परार्ध में ८, पुष्करोद में ३२, वारुणीवर द्वीप में ६४ और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चन्द्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं - देखें - ज्योतिष लोक / ५ ।
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
(सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अन्तर से ऊर्ध्वलोक प्रारम्भ होकर लोक-शिखर पर्यन्त १००४०० योजनकम ७ राजू प्रमाणऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से २१ योजन ४२५ धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्धलोक है। स्वर्गलोक में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग हैं - कल्प व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि १० कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओं से रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवासी हैं। आठ युगलोंरूप से अवस्थित कल्प पटल १६ हैं - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इनसे ऊपर ग्रैवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अन्तराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। प्रत्येक पटल में असंख्यात योजनों के अन्तराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर ६३ हैं। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इन्द्रक श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्रपटल में एक - एक इन्द्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक। प्रथम महापटल में ३३ और अंतिम में केवल एक सर्वार्थसिद्धि नाम का इन्द्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है। (नोट— चित्र सहित विस्तार के लिए देखें - स्वर्ग / ५ ) सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से २९ योजन ४२५ धनुषय ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोक का अन्त हो जाता है ( देखें - मोक्ष / १ / ७ )।
- लोक का लक्षण