स्पर्धक
From जैनकोष
कर्म स्कन्ध में उसके, अनुभाग में, जीव के कषाय व योग में तथा इसी प्रकार अन्यत्र भी स्पर्धक संज्ञा का ग्रहण किया जाता है। किसी भी द्रव्य के प्रदेशों में अथवा उसकी शक्ति के अंशों में जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है उसी से यह स्पर्धक उत्पन्न होते हैं। जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त समान अविभाग प्रतिच्छेदों के समूह से एक वर्ग बनता है। (देखें - वर्ग ) समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले वर्गों के समूह से एक वर्गणा बनती है (देखें - वर्ग णा) इस प्रकार जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तर से वर्गणाएँ प्राप्त होती हैं, इनके समूह को स्पर्धक कहते हैं। तहाँ भी विशेषता यह है कि जहाँ तक एक एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तर से वे प्राप्त होती चली जायें तहाँ तक प्रथम स्पर्धक है। प्रथम स्पर्धक से दुगुने अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने पर द्वितीय स्पर्धक और तृतीय आदि प्राप्त होने पर तृतीय आदि स्पर्धक बनते हैं। इसी का विशेष रूप से स्पष्टीकरण यहाँ किया गया है।
१. स्पर्धक सामान्य का लक्षण
रा.वा./२/५/४/१०७/११ पङ्क्त्य: कृता यावदेकाविभागप्रतिच्छेदाधिकलाभम् । तदलाभे अन्तरं भवति। एवमेतासां पङ्क्तीनां विशेषहीनानां क्रमवृद्धिक्रमहानियुक्तानां समुदय: स्पर्धकमित्युच्यते। तत उपरि द्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयगुणरसा न लभ्यन्ते अनन्तगुणरसा एव। तत्रैकप्रदेशो जघन्यगुण: परिगृहीत:, तस्य चानुभागाविभागप्रतिच्छेदा: पूर्ववत्कृता:। एवं समगुणा वर्गा: समुदिता वर्गणा भवति। एकाविभागप्रतिच्छेदाधिका: पूर्ववद्विरलीकृता वर्गा वर्गणाश्च भवन्ति यावदन्तरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति। एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति। = (पहले देखें - वर्ग व देखें - वर्ग णा) इस तरह एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ा कर वर्ग और वर्गणा समूह रूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जब तक १-१ अधिक अविभाग प्रतिच्छेद मिलता जाये। इन क्रम हानि और क्रम वृद्धि वाली वर्गणाओं के समुदाय को स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो तीन चार संख्यात और असंख्यात गुण अधिक अविभाग प्रतिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिक वाले ही मिलते हैं। फिर उनमें से पूर्वोक्त क्रम से समगुण वाले वर्गों के समुदाय रूप वर्गणा बनाना चाहिए। इस तरह जहाँ तक ११ अधिक अविभाग प्रतिच्छेद का लाभ हो वहाँ तक की वर्गणाओं के समूह का दूसरा स्पर्धक बनता है। इसके आगे दो, तीन, चार, संख्यात असंख्यात गुण अधिक अविभाग प्रतिच्छेद नहीं मिलते हैं। इस तरह समगुण वाले वर्गों के समुदाय रूप वर्गणाओं के समूह रूप स्पर्धक एक उदय स्थान में अभव्यों से अनन्तगुणे तथा सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण होते हैं। (ध.१२/४,२,७,२०४/१४५/९);(ध.१४/५,६,५०९/४३३/६); (गो.जी./भाषा./५९/१५५/६); (गो.क./भाषा/२२९/३१२)
क.पा.५/४-२२/५७३-५७४/३४४-३४५/१५ एवं दोअविभागपडिच्छेदुत्तरतिण्ण.चातारि.पंच.छ.सत्तादि अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण अवट्ठिदअणंतपरमाणू घेत्तूण तदणुभागस्स पण्णच्छेदणयं काऊण अभवसिद्धिएहिं अणंतागुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ उप्पाइय उवरि उवरि रचेदव्वाओ। एवमेत्तियाहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि अविभागपडिच्छेदे हि कमवड्ढीए एगेगपंतिं पडुच्च अवट्ठिदत्तादो। उवरिमपरमाणू अविभागपडिच्छेदसंखं पेक्खिदूण कमहाणीए अभावेण विरुद्धाविभागपडिच्छेदसंखत्तादो वा।५७३। पुणो पढमफद्दयचरिमवग्गणाए एगवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगविभागपडिच्छेदेहिंतो एगविभागपडिच्छेदेणुत्तरपरमाणू णत्थि, किंतु सव्व जीवेहि अणंतगुणाविभागपडिच्छेदेहि अहिययरपरमाणु तत्थ चिरंतणपुज्जे अत्थि। ते घेत्तूण पढमफद्दयउप्पाइदकमेण विदियफद्दयमुप्पाएयव्वं। एवं तदियादिकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धागमणंतभागमेत्ताणि फद्दयाणि उप्पाएदव्वाणि। एवमेत्तियफद्दयसमूहेण सुहुमणिगोदजहण्णाणुभागट्ठाणं होदि। = (पहले देखो वर्ग व वर्गणा) इस प्रकार दो अविभाग प्रतिच्छेद अधिक तीन, चार, पाँच, छह और सात आदि अविभाग प्रतिच्छेद अधिक के क्रम से अवस्थित अनन्त परमाणुओं को लेकर उनके अनुभाग का बुद्धि के द्वारा छेदन करके अभव्य राशि से अनन्तगुणी और सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणाओं को उत्पन्न करके उन्हें ऊपर-ऊपर स्थापित करो। इस प्रकार इतनी वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है, क्योंकि वहाँ अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा एक-एक पंक्ति के प्रति क्रमवृद्धि अवस्थित रूप से पायी जाती है, अथवा ऊपर के परमाणुओं में अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या को देखते हुए वहाँ क्रम हानि का अभाव होने से इसके विरुद्ध अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या पायी जाती है। पुन: प्रथम स्पर्धक अन्तिम वर्गणा के एक वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेदों से एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक वाला परमाणु आगे नहीं है, किन्तु सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद अधिक वाले परमाणु उस चिरंतन परमाणु पुंज में मौजूद हैं। उन्हें लेकर जिस क्रम से प्रथम स्पर्धक की रचना की थी उसी क्रम से दूसरा स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरे आदि स्पर्धकों के क्रम से अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक उत्पन्न करने चाहिए। इस प्रकार इतने स्पर्धकसमूह से सूक्ष्म निगोदिया जीव का जघन्य अनुभाग स्थान बनता है।
क.पा./५/४-२२/५७४/३४५ पर विशेषार्थ-एक परमाणु में रहने वाले उन अविभाग प्रतिच्छेदों को वर्ग कहते हैं अर्थात् प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है। उसमें पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण संदृष्टि के लिए ८ कल्पना करना चाहिए। पुन: पुन: उन परमाणुओं में से प्रथम परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले दूसरे परमाणु को लो और पूर्वोक्त वर्ग के दक्षिण भाग में उसकी स्थापना कर देनी चाहिए।८८। ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक जघन्य गुणवाले सब परमाणु समाप्त न हों। ऐसा करने पर भी अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं। उनका प्रमाण संदृष्टि रूप में इस प्रकार है-८८८८। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा इन सभी वर्गों की वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। तत्पश्चात् फिर एक परमाणु लो जिसमें एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद पाया जाता है उसका प्रमाण संदृष्टि में ९ है। इस क्रम से उस परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले जितने परमाणु पाये जायें, उनका प्रमाण इस प्रकार है-९९९। यह दूसरी वर्गणा है। इसको प्रथम वर्गणा के आगे स्थापित करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवी आदि वर्गणाएँ, जो कि एक-एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद को लिये हुए हैं उत्पन्न करनी चाहिए। इन वर्गणाओं का प्रमाण अभव्य राशि से अनन्तगुणा और सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग प्रमाण है। इन सब वर्गणाओं का एक जघन्य स्पर्धक होता है, क्योंकि परमाणुओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं। इस प्रथम स्पर्धक को पृथक् स्थापित करके पूर्वोक्त परमाणु पुंज में से एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा उसका छेदन करने पर द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है। इस वर्ग में पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण संदृष्टि रूप से १६ है। इस क्रम से अभव्य राशि से अनन्त गुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भागमात्र समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणुओं को लेकर उतने ही वर्ग उत्पन्न होते हैं। इन वर्गों का समुदाय दूसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा कहलाता है, इस प्रथम वर्गणा को प्रथम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिए। इस क्रम से वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक को जानकर तब उनकी उत्पत्ति करनी चाहिए जब तक पूर्वोक्त परमाणुओं का प्रमाण समाप्त नहीं होता है। इस प्रकार स्पर्धकों की रचना करने पर अभव्यराशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक और वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं। इनमें से अन्तिम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के एक परमाणु में जो अनुभाग पाया जाता है उसे ही जघन्य स्थान कहते हैं। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है-
प्रथम स्प. | द्वि.स्प. | तृ.स्प. | चतु.स्प. | पं.स्प. | ष.स्प. | |
प्रथम वर्गणा | ८ | १६ | २४ | ३२ | ४० | ४८ |
द्वितीय वर्गणा | ९ | १७ | २५ | ३३ | ४१ | ४९ |
तृतीय वर्गणा | १० | १८ | २६ | ३४ | ४२ | ५० |
चतुर्थ वर्गणा | ११ | १९ | २७ | ३५ | ४३ | ५१ |
२. स्पर्धक के भेद-
रा.वा./२/५/३/१०६/३० द्विविधं स्पर्धकम्-देशघातिस्पर्धकं सर्वघातिस्पर्धकं चेति। = स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं-देशघाती स्पर्धक और सर्वघाति स्पर्धक। (इसके अतिरिक्त जघन्य स्पर्धक व द्वितीय स्पर्धक (गो.जी./भाषा/५९/१५५/६) पूर्वस्पर्धक तथा अपूर्व स्पर्धक का निर्देश आगम में यत्र तत्र पाया जाता है।)
३. देशघाति व सर्वघाति स्पर्धक का लक्षण
द्र.सं./टी./३४/९९/४ सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिका: कर्मशक्तय: सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिका: शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यते। = सर्व प्रकार से आत्मा के गुणों को आच्छादन करने वाली जो कर्मों की शक्तियाँ हैं उनको सर्वघाति स्पर्द्धक कहते हैं। और विवक्षित एक देश से जो आत्मा के गुणों का आच्छादन करने वाली कर्मशक्तियाँ हैं वे देशघातिस्पर्द्धक कहलाती हैं।
४. पूर्व व अपूर्व स्पर्धक के लक्षण
क्ष.सा./भाषा./४६५/५४०/१६ संसार अवस्था में देशघाति व सर्वघाति प्रकृतियों का जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जो अनुभाग रहता है, उससे युक्त स्पर्द्धक पूर्वस्पर्धक कहलाते हैं।-जैसे मोहनीय में सम्यक् प्रकृति का अनुभाग केवल देशघाति होने के कारण जघन्य लता भाग से दारु भाग के असंख्यात पर्यन्त ही है। तातै ऊपर मिश्र मोहनीय का अनुभाग जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त मध्यम दारु भावरूप ही रहता है। और इससे भी ऊपर मिथ्यात्व का अनुभाग अपर दारु से लेकर उत्कृष्ट शैल भाग तक रहता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय की केवल ३ व ४ से रहित संज्वलन चतुष्क, नव नोकषाय, पाँच अन्तराय, इन २५ प्रकृतियों का अनुभाग जघन्य से लेकर उत्कृष्ट देशघाती पर्यन्त तो लता भाग से दारु के असंख्यात भाग पर्यन्त और जघन्य सर्वघाती से लेकर उत्कृष्ट सर्वघाती पर्यन्त दारु के असंख्यात भाग से उत्कृष्ट शैल भाग पर्यन्त वर्तै है। केवल ज्ञानावरण, केवल दर्शनावरण, पाँच निद्रा और प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, अनन्तानुबन्धी की १२ इन १९ सर्वघाती प्रकृतियों का अनुभाग जघन्य सर्वघाती से उत्कृष्ट सर्वघाती पर्यन्त दारु के असं.भाग से उत्कृष्ट शैल भागपर्यन्त है। वेदनीय, आयु, नाम व गोत्र इन चार अघातिया का अनुभाग जघन्य देशघाती से उत्कृष्ट सर्वघाती पर्यन्त जघन्य लता भाग से उत्कृष्ट शैल भाग पर्यन्त रहता है।
क्ष.सा./४६६/५४२ चारित्रमोह की क्षपणा विधि में सभी प्रकृतियों के द्रव्य में से कुछ निषेकों के अनुभाग को अपकर्षण द्वारा घटाकर अनन्त गुणा घटता करै है। अर्थात् उन उनके योग्य पूर्व स्पर्धकों में जो सर्व जघन्य अनुभाग के स्पर्धक संसार अवस्था विषै पहिले थे। उनसे भी अनन्तगुणा घटता (अनुभाग जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था) सहित अपूर्व स्पर्धक की रचना करै है। तहाँ पूर्व स्पर्धकनि की जघन्य वर्गणा से भी अपूर्व स्पर्धक की उत्कृष्ट वर्गणा विषै अनुभाग अनन्त भाग मात्र है। ऐसे अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण अनन्त होता है। तहाँ अपूर्व स्पर्धकों में भी जघन्य अनुभाग में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। अश्वकर्ण करण के प्रथम समय से लगाय उसके अन्तिम समय पर्यन्त बराबर यह अपूर्व स्पर्धक बनाने का कार्य चलता रहता है। अर्थात् अश्वकर्ण का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ही इसकी विधि का काल है। इसके ऊपर कृष्टिकरण का काल प्रारम्भ होता है। (क्ष.सा./४८७)।
* योग स्पर्धक का लक्षण- देखें - योग / ५ ।
* स्पर्धक व कृष्टि में अन्तर-देखें - कृष्टि।