क्षय
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
कर्मों के अत्यन्त नाश का नाम क्षय है। तपश्चरण व साम्यभाव में निश्चलता के प्रभाव से अनादि काल के बँधे कर्म क्षण भर में विनष्ट हो जाते हैं, और साधक की मुक्ति हो जाती है। कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव में जो ज्ञाता दृष्टा भाव व अतीन्द्रिय आनन्द प्रकट होता है वह क्षायिक भाव कहलाता है।
- लक्षण व निर्देश
- क्षय का लक्षण
स.सि./2/1/149/6 क्षय आत्यन्तिकी निवृत्ति:। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पङ्कस्यात्यन्ताभाव:।=जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है।
ध.1/1,1,27/215/1 अट्ठण्हं कम्माणं मूलुत्तरभेय...पदेसाणं जीवादो जो णिस्सेस-विणासो तं खवणं णाम।=मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति के भेद से...आठ कर्मों का जीव से अत्यन्त विनाश हो जाता है उसे क्षपण (क्षय) कहते हैं।
पं.का./त.प्र./56 कर्मणां फलदानसमर्थत:....अत्यन्तविश्लेष: क्षय:।=कर्मों का फलदान समर्थरूप से...अत्यन्त विश्लेष सो क्षय है।
गो.क./जी.प्र./8/29/14 प्रतिपक्षकर्मणां पुनरुत्पत्त्यभावेन नाश: क्षय:।=प्रतिपक्ष कर्मों का फिर न उपजैं ऐसा अभाव सो क्षय है।
- क्षयदेश का लक्षण
गो.क./जी.प्र./445/596/4 तत्र क्षयदेशो नाम परमुखोदयेन विनश्यतां चरमकाण्डकचरमफालि:, स्वमुखोदयेन विनश्यता च समयाधिकावलि:।=जे, प्रकृति अन्य प्रकृति रूप उदय देह विनसैं हैं ऐसी परमुखोदयी हैं तिनकैं तो अन्त काण्डक की अन्त फालि क्षयदेश है। बहुरि अपने ही रूप उदय देह विनसै है ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति तिनके एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण काल क्षयदेश है।
गो.क./भाषा./446/597/7 जिस स्थानक क्षय भया सो क्षयदेश कहिए है।
- उदयाभावी क्षय का लक्षण
रा.वा./2/5/3/106/30 यदा सर्वघातिस्पर्धकस्योदयो भवति तदेषदप्यात्मगुणस्याभिव्यक्तिर्नास्ति तस्मात्तदुदयस्याभाव: क्षय इत्युच्यते।=जब सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होता है तब तनिक भी आत्मा के गुण की अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए उस उदय के अभाव को उदयाभावी क्षय कहते हैं।
ध.7/2,1,49/92/6 सव्वघादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणी होदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमणंतगुणहीणत्तं खओ णाम।=सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकों का अनन्तगुण हीनत्व ही क्षय कहलाता है। (ध.5/1,7,39/220/11)।
- अपक्षय का लक्षण—देखें अपक्षय ।
- अष्टकर्मों के क्षय का क्रम
त.सू./10/1 मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।=मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है।1।
क.पा.3/3,22/243/5 मिच्छत्तं-सम्मामिच्छत्ते खइयपच्छा सम्मत्तं खविज्जदि त्ति कम्माणक्खवणक्कम।=मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व को क्षय करके अनन्तर सम्यक्त्व का क्षय होता है।
त.सा./6/21-22 पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तै: क्षयहेतुभि:। संसारबीजं कात्स्र्न्येन मोहनीयं प्रहीयते।21। ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषत:।22।=पूर्व में कहे हुए कर्म क्षपण के हेतुओं के द्वारा सबसे प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है। मोहनीय कर्म ही सब कर्मों का और संसार का असली कारण है। मोह क्षय हुआ कि बाद में एक साथ अन्तराय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तीन घाती कर्म समूल नष्ट हो जाते हैं।
- मोहनीय की प्रकृतियों में पहिले अधिक अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय होता है
क.पा./3/3,22/428/243/7 मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसुकं पुव्वं खविज्जदि। मिच्छत्तं। कुदो, अच्चसुहात्तादो।=प्रश्न—मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व में पहिले किसका क्षय होता है। उत्तर—पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है। प्रश्न—पहले मिथ्यात्व का क्षय किस कारण से होता है? उत्तर—क्योंकि मिथ्यात्व अत्यन्त अशुभ प्रकृति है।
- अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय पहले होना कैसे जाना जाता है
क.पा.3/3,22/428/8 असुहस्स कम्मस्स पुव्वं चक्खवणं होदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मत्तस्स लोहसंजलणस्स य पच्छा खयण्णहाणुवत्तीदो। =प्रश्न–अशुभ कर्म का पहले ही क्षय होता है यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर–अन्यथा सम्यक्त्व व लोभ संज्वलन का पश्चात क्षय बन नहीं सकता है, इस प्रमाण से जाना जाता है कि अशुभ कर्म का क्षय पहले होता है।
- कर्मों के क्षय की ओघआदेशप्ररूपणा—देखें सत्त्व ।
- स्थिति व अनुभाग काण्डक घात—देखें अपकर्षण - 4।
- क्षय का लक्षण
- <a name="2" id="2"></a>दर्शनमोह क्षपणा विधान
- छहों कालों में दर्शनमोहनी क्षपणा सम्भव नहीं है
ध.6/1,9-8,12/247/2 एदेण वक्खाणाभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकालेसुप्पण्णाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदीसु वि कालेसुप्पण्णाणमत्थि। कुदो। एइंदियादो आगंतूण तदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीण दंसणमोहक्खवणदंसणादो। एदं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं।=दुषमा, अतिदुषमा, सुषमासुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा नहीं होती है अवशिष्ट दोनों कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धमानकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। विशेष देखें मोक्ष - 4.3।
- अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना—देखें विसंयोजना ।
- समुद्रों में दर्शनमोहक्षपण कैसे सम्भव है—देखें मनुष्य - 3।
- दर्शनमोह क्षपणा का स्वामित्व
4-7 गुणस्थान पर्यन्त कोई भी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव, त्रिकरणपूर्वक अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करके दर्शनमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करता है। (देखें सम्यग्दर्शन - IV.5)
- त्रिकरण विधान—देखें करण - 3।
- दर्शन मोह की क्षपणा के लिए पुन: त्रिकरण करता है
गो.क./जी.प्र./550/744/9 तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तं विश्रम्यानन्तानुबन्धिचतुष्कं विसंयोज्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं करणत्रयं कृत्वा।=बहुरि ताके अनन्तरि अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेइकरि अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन कीए पीछै अन्तर्मुहूर्त भया तब बहुरि तीन करण करै। (ल.सा./मू./113)
- दर्शनमोह की प्रकृतियों का क्षपणाक्रम
गो.क./जी.प्र./550/744/9 अनिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते शेषैकभागे मिथ्यात्वं तत: सम्यग्मिथ्यात्वं तत: सम्यक्त्वप्रकृतिं च क्रमेण क्षपयति, दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थित्यामान्तर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापक:। अनन्तरसमयादाप्रथमस्थितिचरमनिषेकं निष्ठापक:।=अनिवृत्तिकरण काल का संख्यात भागनि में एक भाग बिना बहुभाग गये एक भाग अवशेष रहैं पहिलैं मिथ्यात्व कौं पीछैं सम्यग्मिथ्यात्व कौ पीछैं सम्यक्त्व प्रकृति कौं अनुक्रमतैं क्षय करैं है। तहाँ दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ का प्रथम समयविषैं स्थायी जो सम्यक्त्व मोहनी की प्रथम स्थिति ताका काल विषैं अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहें तहाँ का अन्तसमय पर्यन्त तौ प्रस्थापक कहिए। बहुरि तिसके अनंतरि समयतैं प्रथम स्थिति का अन्तनिषेकपर्यन्त निष्ठापक कहिए। (गो.जी./जी.प्र./335-3-6/486); (ल.सा./जी.प्र./122-130)
- कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होने का क्रम
ल.सा./जी.प्र./131/172/3 यस्मिन् समये सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्षमात्रस्थितिमवशेषयन् चरमकाण्डकचरमफालिद्वयं पातयति तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्वप्रकृत्यनुभागसत्त्वमतीतानन्तरसमयनिषेकानुभागसत्त्वादनन्तगुणहीनमवशिष्यते।
ल.सा./जी.प्र./145/200/10 प्रागुक्तविधानेन अनिवृत्तिकरणचरमसमये सम्यक्त्वप्रकृतिचरमकाण्डकचरमफालिद्रव्ये अधोनिक्षिप्ते सति तदनन्तरोपरितनसमयात्....कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिरिति जीव: संज्ञायते।=1. जिस समय विषैं सम्यक्त्वमोहनी की अष्टवर्ष स्थिति शेष राखी अर मिश्रमोहनी सम्यक्त्वमोहनी का अन्तकाण्डक की दोय फालिका पतन भया तिसही समयविषैं सम्यक्त्व मोहनी का अनुभाग पूर्वसमय के अनुभागतैं अनन्तगुणा घटता अनुभाग अवशेष रहै है। 2. अनिवृत्तिकरण के अन्त समयविषैं सम्यक्त्वमोहनी का अन्तकाण्डक की अन्तफालीका द्रव्य कौ नीचले निषेकनिेविषैं निक्षेपण किये पीछें अनन्तर समयतैं लगाय...कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हो है। - तत्पश्चात् स्थिति के निषेकों का क्षयक्रम
स.सा./जी.प्र./150/205/20 एवमनुभागस्यानुसमयमनन्तगुणितापवर्तनेन कर्मप्रदेशानां प्रतिसमयमसंख्यातगुणितोदीरणया च कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि: सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितिमन्तर्मुहूर्तायामुच्छिष्टावलिं मुक्त्वा सर्वां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वकं उदयमुखेन गालयित्वा तदनन्तसमये उदीरणारहितं केवलमनुभागसमयापवर्तनेनैव...प्रतिसमयमनन्तगुणितक्रमेण प्रवर्तमानेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वकं प्रतिसमयमेकैकनिषेकं गालयित्वा तदनन्तरसमये क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जायते जीव:।= अनुभाग तो अनुसमय अपवर्तनकरि अर कर्म परमाणूनि की उदीरणा करि यहु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि रही थी जो सम्यक्त्व मोहनी की अन्तर्मुहूर्त स्थिति वामै उच्छिष्टावली बिना सर्व स्थिति है सो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनि का सर्वथा नाश लोएं जो एक-एक निषेक का एक-एक समयविषैं उदय रूप होइ निर्जरना ताकरि नष्ट हो है, बहुरि ताका अनन्तर समयविषैं उच्छिष्टावली मात्र स्थिति अवशेष रहैं उदीरणा का भी अभाव भया, केवल अनुभाग का अपवर्तन है...उदय रूप प्रथम समयतैं लगाय समय-समय अनन्तगुणा क्रमकरि वर्तै है ताकरि प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशनि का सर्वथा नाशपूर्वक समय-समय प्रति उच्छिष्टावली के एक-एक निषेकौं गालि निर्जरा रूप करि ताका अनन्तर समय विषैं जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है: (अधिक विस्तार से ध.6/1,9-8,12/248-266) - दर्शनमोह की क्षपणा में दो मत
ध.6/1,9-8,12/258/3 ताधे सम्मत्तम्हि अट्ठवस्साणि मोत्तूण सव्वमागाइदं। संखेज्जाणि वाससहस्साणि मोत्तूण आगाइदमिदि भणंता वि अत्थि।=(अनन्तानुबंधी की विसंयोजना तथा दर्शन मोह के स्थिति काण्डक घात के पश्चात् अनिवृत्तिकरण में उस जीव ने) सम्यक्त्व के स्थिति सत्त्व में आठ वर्षों को छोड़कर शेष सर्व स्थिति सत्त्व को (घातार्थ) किया। सम्यक्त्व के स्थिति सत्त्व में संख्यात हजार वर्षों को छोड़कर शेष समस्त स्थिति सत्त्व को ग्रहण किया इस प्रकार से कहने वाले भी कितने ही आचार्य हैं।
- छहों कालों में दर्शनमोहनी क्षपणा सम्भव नहीं है
- दर्शनमोह क्षपणा में मृत्यु सम्बन्धी दो मत—देखें मरण - 3।
- नवक समय प्रबद्ध का एक आवली पर्यन्त क्षपण संभव नहीं—देखें उपशम - 4.3।
- चारित्रमोह क्षपणा विधान
- क्षपणा का स्वामित्व
क्ष.सा./भाषा./392/480/13 तीन करण विधान तैं क्षायिक सम्यग्दृष्टि होइ...चारित्रमोह की क्षपणा को योग्य जे विशुद्ध परिणाम तिनि करि सहित होइ तै प्रमत्ततैं अप्रमत्त विषैं, अप्रमत्ततैं प्रमत्तविषैं हजारोंवार गमनागमनकरि...क्षपकश्रेणी को सन्मुख...सातिशय प्रमत्तगुणस्थान विषैं अध:करण रूप प्रस्थान करै है। - क्षपणा विधि के 13 अधिकार
क्ष.सा./मू./392 तिकरणमुभयो सरणं कमकरणं खणदेसमंतरयं। संकमअपुव्वफड्ढयाकिट्टीकरणाणुभवणखमणाये।=अध:करण; अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, क्रमकरण अष्ट कषाय सोलह प्रकृतिनि की क्षपणा, देशघातिकरणं, अंतकरण, संक्रमण, अपूर्व स्पर्धककरण, अन्तर कृष्टिकरण, सूक्ष्म-कृष्टि-अनुभवन, ऐसे ये चारित्र मोह की क्षपणाविषैं अधिकार जानने। - क्षपणा विधि
क्ष.सा./भाषा/1/392-600—1. यहाँ प्रथम ही अध:प्रवृत्तिकरण रूप परिणामों को करता हुआ सातिशय अप्रमत्त संज्ञा को प्राप्त होता है। इस 7वें गुणस्थान के काल में चार आवश्यक हैं–1 प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि; 2 प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुण क्रम से चतुस्थानीय अनुभाग बन्ध; 3 अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तवें भागहीन क्रम से केवल द्विस्थानीय अनुभाग बन्ध, और 4 पल्य/असं॰हीन क्रम से संख्यात सहस्र बन्धापसरण।392-396। तिस गुणस्थान के अन्त में स्थिति बन्ध व सत्त्व दोनों ही घटकर केवल अन्त:कोटाकोटी सागर प्रमाण रहती है।494। 2. तदनन्तर अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करके तहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है–1. असंख्यात गुणक्रम से गुण श्रेणी निर्जरा; 2. असंख्यात गुणा क्रम से ही गुण संक्रमण; 3. सर्व ही प्रकृतियों का स्थितिकाण्डक घात और; 4. केवल अप्रशस्त प्रकृतियों का घात। यहाँ स्थिति काण्डकायाम पल्य/सं. मात्र है, और अनुभाग काण्डक घात में केवल अनन्त बहुभाग क्रम रहता है। इसके अतिरिक्त पल्य/सं. हीनक्रम से संख्यात सहस्र स्थिति बन्धापसरण करता है।397-410। इस गुणस्थान के अन्त में स्थितिबन्ध तो घटकर पृथक्त्व सहस्र सागर प्रमाण और स्थिति सत्त्व घटकर पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण रहते हैं।414। 3. तदनन्तर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके तहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है–1. असंख्यात गुण से गुणश्रेणी निर्जरा; 2. असंख्यात गुणाक्रम से ही गुण संक्रमण; 3. पल्य/असं. आयाम वाला स्थिति काण्डक घात; 4. अनन्त बहुभाग क्रम से अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग काण्डकघात। यह पल्य/असं4 व अनन्त बहुभाग अपूर्वकरण वालों की अपेक्षा अधिक है।411। इसके प्रथम समय में नाना जीवों के स्थिति खण्ड असमान होते हैं परन्तु द्वितीयादि समयों में सर्व के स्थिति सत्त्व व स्थिति खण्ड समान होते हैं।412-413। यहाँ स्थिति बन्धापसरण में पहले पल्य/सं. हीनक्रम होता है, तत्पश्चात् पल्य/सं. बहुभाग हीनक्रम और तत्पश्चात् पल्य/असं. बहुभाग हीनक्रम तक हो जाता है। इस प्रकार विशेष हीनक्रम से घटते-घटते इस गुणस्थान के अन्त में स्थितिबन्ध केवल पल्य/असं. वर्ष मात्र रह जाता है।414-421। स्थिति सत्त्व भी उपरोक्त क्रम से ही परन्तु स्थिति काण्डक घात द्वारा घटता घटता उतना ही रह जाता है।419-421। तीन करणों में ही नहीं बल्कि आगे भी स्थिति-4-5. बन्ध व सत्त्व का अपसरण बराबर हुआ ही करै है।395-418। 6. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही क्रमकरण द्वारा मोहनीय, तीसिय, बीसिय, वेदनीय, नाम व गोत्र, इन सभी प्रकृतियों के स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व के परस्थानीय अल्प-बहुत्व में विशेष क्रम से परिवर्तन होता है, अन्त में नाम व गोत्र की अपेक्षा वेदनीय का स्थितिबन्ध व सत्त्व ड्योढ़ा रह जाता है।422-427। 7. क्षपणा अधिकार में मध्य आठ कषायों (प्रत्य., अप्रत्या.) की स्थिति का संज्वलन चतुष्क की स्थिति में संक्रमण करने का विधान है। यही उन आठों का परमुखरूपेण नष्ट करना है।429। तत्पश्चात् 3 निद्रा और 13 नामकर्म की, इस प्रकार 16 प्रकृतियों को स्वजाति अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करके नष्ट करता है।430। 8. तदनन्तर मति आदि चार ज्ञानावरण, चक्षु आदि तीन दर्शनावरण और 5 अन्तराय इन 12 प्रकृतियों सर्वघाति की बजाय देशघाती अनुभाग युक्त बन्ध व उदय होने योग्य है।431-432। 9. अनिवृत्तिकरण का संख्यात भाग शेष रहने पर ।484। चार संज्वलन और नव कषाय इन 13 प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है।433-435। 10. संक्रमण अधिकार में प्रथम ही सप्तकरण करता है। अर्थात्–‘1-2. मोहनीय के अनुभाग बन्ध व उदय दोनों को दारु से लता स्थानीय करता है। 3. मोहनीय के स्थिति बन्ध को पल्य/असं. से घटाकर केवल संख्यात वर्ष मात्र करता है; 4. मोहनीय के पूर्ववर्तीय यथा तथा संक्रमण को छोड़कर केवल आनुपूर्वीय रूप करता है; 5. लोभ का जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता था वह अब नहीं होता; 6. नपुंसक वेद का अध:प्रवृत्ति संक्रमण द्वारा नाश करता है; 7. संक्रमण से पहले—आवलीमात्र आबाधा व्यतीत भये उदीरणा होती थी वह अब छह आवली व्यतीत होने पर होती है।436-437। सप्तकरण के साथ ही संज्वलन क्रोध, मान, माया व नव नोकषायों, इन 12 प्रकृतियों का आनुपूर्वी क्रम से गुण संक्रमण व सर्व संक्रमण द्वारा एक लोभ में परिणमाकर नाश करता है। उसका क्रम आगे कृष्टिकरण अधिकार के अनुसार जानना।438-440। यहाँ स्थितिबन्धापसरण का प्रमाण नवीनस्थिति बन्ध से संख्यातगुणा घाट होता है।441-461। 11. अनिवृत्तिकरण के इस काल में संज्वलन चतुष्क का अनुभाग प्रथम काण्डक का घात भये पीछे क्रोध से लगाय लोभ पर्यन्त अनन्त गुणा घटता और लोभ से लगाय क्रोध पर्यन्त अनन्तगुणा बधता हो है। इसे ही अश्वकर्ण करण कहते हैं। तहाँ से आगे अब उन चारों में अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है जिससे उनका अनुभाग अनन्त गुणा क्षीण हो जाता है। विशेष–देखें स्पर्धक व अश्वकर्ण ।465-466। 12. तदनन्तर उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के काल में रहता हुआ इन अपूर्व स्पर्धकों का संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि करण द्वारा कृष्टियों में विभाग करता है। साथ ही स्थिति व अनुभाग बराबर काण्डक घात द्वारा क्षीण करता है। अश्वकर्ण काल में संज्वलन चतुष्क की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण थी, वह अब अन्तर्मुहूर्त अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गयी। अवशेष कर्मों की स्थिति संख्यात सहस्रवर्ष प्रमाण है। संज्वलन का स्थितिसत्त्व पहले संख्यात सहस्रवर्ष था, वह अब घटकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा और अघातिया का संख्यात सहस्रवर्ष मात्र रहा। कृष्टिकरण में ही सर्व संज्वलन चतुष्क के सर्व निषेक कृष्टिरूप परिणामे।490-514। विशेष–देखें कृष्टि । 13. कृष्टिकरण पूर्ण कर चुकने पर वहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के चरम भाग में रहता हुआ इन बादर कृष्टियों को क्रोध, मान; माया व लोभ के क्रम से वेदना करता है। तिस काल अपूर्वकृष्टि आदि उत्पन्न करता है। क्रोधादि कृष्टियों के द्रव्य को लोभ की कृष्टि रूप परिणमाता है। फिर लोभ की संग्रहकृष्टि के द्रव्य को भी सूक्ष्म कृष्टि रूप करता है। यहाँ केवल संज्वलन लोभ का ही अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिबन्ध शेष रह जाता है। अन्त में लोभ का स्थिति सत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त मात्र रहा जाता है, और उसके बन्ध की व्युच्छित्ति हो जाती है। शेष घातिया का स्थितिबन्ध एक दिन से कुछ कम और स्थिति सत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण रहा।514-571। विशेष–देखें कृष्टि । 14. अब सूक्ष्म कृष्टि को वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में प्रवेश करता है। यहाँ सर्व ही कर्मों का जघन्य स्थिति बन्ध होता है। तीन घातिया का स्थिति सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है। लोभ का स्थिति सत्त्व क्षय के सम्मुख है। अघातिया का स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है। याके अनन्तर लोभ का क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थान में प्रवेश करै है।582-600। विशेष–देखें कृष्टि । - चारित्रमोह क्षपणा विधान में प्रकृतियों के क्षय सम्बन्धी दो मत
ध/1/1,1,27/217/3 अपुव्वकरण-विहाणेण गमिय अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदि-भागे सेसे...सोलस पयडीओ खवेदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण पच्चक्खाणापच्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभे अक्कमेण खवेदि। ऐसो संतकम्म-पाहुड़-उवएसो। कसाय-पाहुड-उवएसो। पुण अट्ठ कसाएसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहुत्तं गंतूण सोलस कम्माणि खविज्जंति त्ति। एदे दो वि उवएसा सच्चमिदि केवि भण्णंति, तण्ण घडदे, विरुद्धात्तादो सुत्तादो। दो वि पमाणाइं ति वयणमवि ण घडदे पमाणेण पमाणाविरोहिणा होदव्वं’ इदि णायादो।=अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग शेष रहने पर...सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। फिर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है यह सत्कर्म प्राभृत का उपदेश है। किन्तु कषाय प्राभृत का उपदेश तो इस प्रकार है कि पहले आठ कषायों के क्षय हो जाने पर पीछे से एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्म प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त होती हैं। ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं, ऐसा कितने ही आचार्यों का कहना है। किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, उनका ऐसा कहना सूत्र के विरुद्ध पड़ता है। तथा दोनों कथन प्रमाण हैं, यह वचन भी घटित नहीं होता है, क्योंकि ‘एक प्रमाण को दूसरे प्रमाण का विरोधी नहीं होना चाहिए’ ऐसा न्याय है। (गो.जी./मू./386, 391)
* चारित्रमोह क्षपणा में मृत्यु की संभावना—देखें मरण - 3।
- क्षपणा का स्वामित्व
- क्षायिक भाव निर्देश
- क्षायिक भाव का लक्षण
स.सि./2/1/149/9 एवं क्षायिक।=जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण क्षय है वह क्षायिक भाव है।
ध./1/1,1,8/161/1 कर्मणाम् ....क्षयात्क्षायिक: गुणसहचरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते।=जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिकभाव कहते हैं।....गुण के साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञा को प्राप्त्ा होता है। (ध.5/1,7,1/185/1); (गो.क./मू./814)।
ध.5/1,7,10/206/2 कम्माणं खए जादो खइओ, खयट्ठं जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सद्दउप्पत्तो घेत्तत्वा।=कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मों के क्षय के लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार की शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए।
पं.का./त.प्र./56 क्षयेण युक्त: क्षायिक:।=क्षय से युक्त वह क्षायिक है।
गो.जी./जी.प्र./8/29/14 तस्मिन् (क्षये) भव: क्षायिक:। =ताकौ (क्षय) होतै जो होइ सो क्षायिक भाव है। पं.ध./उ./968 यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वत: क्षयात् । जातो य: क्षायिको भाव: शुद्ध: स्वाभाविकोऽस्य स:।968।=प्रतिपक्षी कर्मों के यथा-योग्य सर्वथा क्षय के होने से आत्मा में जो भाव उत्पन्न होता है वह शुद्ध स्वाभाविक क्षायिक भाव कहलाता है।968।
स.सा./ता.वृ./320/408/21 आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुन: शुद्धात्माभिमुखपरिणाम: शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते।=आगम में औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं। और अध्यात्म भाषा में शुद्ध आत्मा के अभिमुख जो परिणाम है, उसको शुद्धोपयोग आदि नामों से कहा जाता है।
- क्षायिक भाव के भेद
त.सू./2/3-4 सम्यक्त्वचारित्रे।3। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।4।=क्षायिक भाव के नौ भेद हैं—क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र। (ध.5/1,7,1/190/11); (न.च./372); (त.सा./2/6); (नि.सा./ता.वृ./41); (गो.जी./मू.300); (गो.क./मू./816)।
ष.खं./14/5,6/18/15 जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो—से खीणकोहे खीणमोणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे, खीणमोहे खीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खाइय चारित्तं खइया दाणलद्धी खइया लाहलद्धी खइया भोगलद्धी खइया परिभोगलद्धी खइया वीरियलद्धी केवलणाणं केवलदंसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सव्वदुक्खाणमंतयडेत्ति जे चामण्णे एवमादिया खइया भावा सो सव्वो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम।18।=जो क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलब्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध-बुद्ध, परिनिर्वृत्त, सर्वदु:ख अन्तकृत्, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सब क्षायिक अविपाक-प्रत्ययिक जीवभावबन्ध है।18।
- <a name="4.3" id="4.3"></a>नीच गतियों आदि में क्षायिक भाव का अभाव है
ध.5/1,7,28/215/1 भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-विदियादिछपुढविणेरइय-सव्वविगलिंदिय-लद्धिअपज्जत्तित्थीवेदेसु सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावा च। =भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क देव, द्वितीयादि छह पृथिवियों के नारकी, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व लब्धपर्याप्तक, और स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगति के अतिरिक्त अन्य गतियों में दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा का अभाव है।
- क्षायिक भाव में भी कंथचित् कर्म जनितत्व
पं.का./मू./58 कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भाव तु कम्मकदं।
पं.का./ता.वृ./56/106/10 क्षायिकभावस्तु केवलज्ञानादिरूपो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्धबुद्धैकजीवस्वभाव: तथापि कर्मक्षयेणोत्पन्नत्वादुपचारेण कर्मजनित एव।=1. कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव नहीं होता, इसलिए भाव (चतुर्विध जीवभाव) कर्मकृत् हैं।58। (पं.का./त.प्र./58) 2. क्षायिकभाव तो केवलज्ञानादिरूप है। यद्यपि वस्तु वृत्ति से शुद्ध-बुद्ध एक जीव का स्वभाव है, तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण उपचार से कर्मजनित कहा जाता है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
1. अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों व संयम मार्गणा में क्षायिक भाव सम्बन्धी शंका समाधान।–देखें वह वह नाम
2. क्षायिकभाव में आगम व अध्यात्मपद्धति का प्रयोग–देखें पद्धति
3. क्षायिक भाव जीव का निज तत्त्व है–देखें भाव - 2।
4. अन्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न भावों सम्बन्धी शंका-समाधान–देखें वह वह नाम
5. मोहोदय के अभाव में भगवान् की औदयिकी क्रियाएँ भी क्षायिकी हैं–देखें उदय - 9
6. क्षायिक सम्यग्दर्शन–देखें सम्यग्दर्शन - IV.5
- क्षायिक भाव का लक्षण
पुराणकोष से
(1) कषायों और कर्मों का नाश । हरिवंशपुराण 3.87, 58.83
(2) पुस्तकर्म के तीन भेदों में प्रथम भेद-लकड़ी का छीलकर खिलौने आदि बनाना । पद्मपुराण 24.38