योग
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
कर्मों के संयोग के कारणभूत जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन योग कहलाता है| अथवा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के प्रति जीव का उपयोग या प्रयत्न-विशेष योग कहलाता है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदि के निमित्त की अपेक्षा तीन या पंद्रह प्रकार का है। ये सभी योग नियम से क्रमपूर्वक ही प्रवृत्त हो सकते हैं, युगपत् नहीं। जीव भाव की अपेक्षा परिणामिक है और शरीर की अपेक्षा क्षायोपशमिक या औदयिक है।
- योग के भेद व लक्षण
- शुभ व अशुभ योगों के लक्षण−देखें वह वह नाम ।
- योग के भेद व लक्षण संबंधी तर्क−वितर्क
- योगद्वारों को आस्रव कहने का कारण।−देखें आस्रव - 2।
- परिस्पंद व गति में अंतर।
- परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे।
- परिस्पंद रहित होने से आठ मध्य प्रदेशों में बंध न हो सकेगा।
- योगद्वारों को आस्रव कहने का कारण।−देखें आस्रव - 2।
- योग व लेश्या में भेदाभेद तथा अन्य विषय।−देखें लेश्या ।
- योग सामान्य निर्देश
- योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ
- केवली को योग होता है।−देखें केवली - 5।
- सयोग-अयोग केवली।−देखें केवली ।
- अन्य योग को प्राप्त हुए बिना गुणस्थान परिवर्तन नहीं होता।−देखें अंतर - 2।
- योग में संभव गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व संबंधी प्ररूपणाएँ।−देखें सत् ।
- योगमार्गणा संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प, बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम ।
- योग मार्गणा में कर्मों का बंध उदय व सत्त्व।−देखें वह वह नाम ।
- कौन योग से मरकर कहाँ उत्पन्न हो।−देखें जन्म - 6।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।−देखें मार्गणा ।
- केवली को योग होता है।−देखें केवली - 5।
- मारणांतिक समुद्घात में उत्कृष्ट योग संभव नहीं।−देखें विशुद्ध - 8.4।
- [[योगस्थान निर्देश
]]
- योगस्थान सामान्य का लक्षण।
- योगस्थानों के भेद।
- उपपाद योगस्थान का लक्षण।
- एकांतानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण।
- परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण।
- परिणाम योगस्थानों की यबमध्य रचना।
- योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में संभव है।
- योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी।
- योगस्थानों के अवस्थान संबंधी प्ररूपणा।−देखें काल - 6।
- लब्ध्यपर्याप्तक के परिणाम योग होने संबंधी दो मत।
- योगस्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबंध के साथ संबंध।
- योगवर्गणा निर्देश
- योग के भेद व लक्षण
- योग सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/7/13/4/540/3 योजनं योगः संबंध इति यावत् । = संबंध करने का नाम योग है ।
धवला 1/1, 1, 4/139/9 युज्यत इति योगः । = जो संबंध अर्थात् संयोग को प्राप्त हो उसको योग कहते हैं ।
- जीव का वीर्य या शक्ति विशेष
पं. सं./पा. /1/88 मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्य (जिह) प्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो । = मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य - परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पंद रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं ।88। ( धवला 1/1, 1, 4/ गा. 88/140); ( गोम्मटसार जीवकांड/216/472 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/33 वीर्यांतरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यलब्धिर्योगः तद्वत् आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालंबनः प्रदेशपरिस्पंदः उपयोगो योगः । = वीर्यांतराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सार्म्थ्य वाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेश का परिस्पंद योग है ।
देखें योग - 2.5(क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है वह योग है) ।
- आत्म प्रदेशों का परिस्पंद या संकोच विस्तार
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/1 योगो वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पंदः । = वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलन को योग कहते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/5 ); ( राजवार्तिक/2/26/4/137/8 ); ( राजवार्तिक/6/1/10/505/15 ); ( धवला 1/1, 1, 60/299/7 ); ( धवला 7/2, 1, 2/6/9 ); ( धवला 7/2, 1, 15/17/10 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/148 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/6 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/18 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/34 आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालंबनः प्रदेशपरिस्पंदः उपयोगो योगः । = मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पंद योग है । ( गोम्मटसार जीवकांड/ मं. प्र./216/474/1) ।
धवला 1/1, 1, 4/140/2 आत्मप्रदेशानां संकोचविकोचो योगः । = आत्मप्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं । ( धवला 7/2, 1, 2/6/10 )।
धवला 10/4, 2, 4, 175/437/7 जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचब्भमणसरूवओ । = जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पंदन होता है वह योग कहलाता है ।
- समाधि के अर्थ में
नियमसार 139 विवरीयाभिणिवेसं परिचत्त जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सोहवे जोगो ।139। = विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव वह योग है ।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/3 योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । = योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं । ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/801/980/13 ); (वै. शे. दै./5/2/16/172) ।
राजवार्तिक/6/1/12/505/27 युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थांतरम् । = योग का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है ।
राजवार्तिक/6/12/8/522/31 निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः, सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । = निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची हैं । ( दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14)।
देखें सामायिक - 1 साम्य का लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व योग एकार्थवाची हैं ।)
देखें मौन - 1(बहिरंतर जल्प को रोककर चित्त निरोध करना योग है ।)
- वर्षादि काल स्थिति
दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/14 योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । = वर्षादि ॠतुओं की काल स्थिति को योग कहते हैं ।
- निरुक्ति अर्थ
- योग के भेद
- मन वचन कायकी अपेक्षा
षट्खंडागम 1/1, 1/ सू. 47, 48/278, 280 जोगाणुवादेण अत्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि ।47। अजोगि चेदि ।48। = योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं ।48। ( बारस अणुवेक्खा/49 ); ( तत्त्वार्थसूत्र/6/1 ); ( धवला 8/3, 6/215 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/9 ); ( द्रव्यसंग्रह/ टी0/13/37/7); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/6 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/1 चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पंच काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः । = चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योग के तेरह भेद हैं । ( राजवार्तिक/8/1/29/564/26 ); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/34 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका /30/89/7-13/37/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/217/475 ); (विशेष देखें मन , वचन, काय) ।
- शुभ व अशुभ योग की अपेक्षा
ब. आ./49-50....मणवचिकायेण पुणो जोगो.... ।49। असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कूं वण्णिदं हवे दुविहं ।.... ।50। = मन, वचन और कार्य ये तीनों योग शुभ और अशुभ के भेद से दो - दो प्रकार के होते हैं । ( नयचक्र बृहद्/308 ) ।
राजवार्तिक/6/3/2/507/1 तस्मादनंतविकल्पादशुभयोगादंयः शुभयोग इत्युच्यते । = अशुभ योग के अनंत विकल्प हैं, उससे विपरीत शुभ योग होता है ।
- मन वचन कायकी अपेक्षा
- त्रिदंड के भेद - प्रभेद
चारित्रसार/99/6 दंडस्त्रिविधः, मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहविकल्पात्मा मानसी दंडस्त्रिविधः । = मन, वचन, काय के भेद से दंड तीन प्रकार का है और उसमें भी राग-द्वेष, मोह के भेद से मानसिक दंड भी तीन प्रकार है।
- द्रव्य भाव आदि योगों के लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/5 कायवाङ्मनोवर्गणावलंबिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः सा भाव योगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु यः किंचिच्चलनरूपपरिस्पंदः स द्रव्य योगः । = जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलंबन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं । और इसी प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पंद है उसको द्रव्ययोग कहते हैं ।
- निक्षेप रूप भेदों के लक्षण
नोट−नाम, स्थापनादि योगों के लक्षण−देखें निक्षेप ।
धवला 10/4, 2, 4, 175/433-434/4 तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो । तं जहा-सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगोगह-णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ ।...णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सच्चित्तगुजोगो अच्चित्तगुणजोगो चेदि । तत्थ अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचविहो - ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि ।...इंदो मेरुं चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जोसो जुंजणजोगो सो तिविहो उववादजोगो एगंताणुवड्ढिजोगो परिणामजोगो चेदि । = तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकार का है यथा−सूर्य-नक्षत्रयोग, चंद्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, चूर्णयोग व मंत्रयोग इत्यादि ।....नोआगम भावयोग तीन प्रकार का है । गुणयोग, संभवयोग और योजनायोग । उनमें से गुणयोग दो प्रकार का है−सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग । उनमें से अचित्तगुणयोग - जैसे रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों से पुद्गल द्रव्य का योग, अथवा आकाशदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग । उनमें से सचित्तगुण योग पाँच प्रकार का है−औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक (इनके लक्षण देखें वह वह नाम ) इंद्र मेरु पर्वत को चलाने के लिए समर्थ है, इस प्रकार का जो शक्ति का योग है वह संभवयोग कहा जाता है । जो योजना - (मन, वचन-काय का व्यापार) योग है वह तीन प्रकार का है−उपपादयोग, एकांतानुवृद्धियोग और परिणामयोग−देखें योग - 5 ।
- योग सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
काय, वचन और मन के निमित्त से होनेवाली आत्मप्रदेशों की परिस्पंदन किया । कर्मबंध के पांच कारणों में यह भी एक कारण है । जहाँ कषाय होती है वहाँ यह अवश्य होता है । यह एक होते हुए भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है । मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार का तथा मनोयोग और वचनयोग के चार-चार और काययोग के सात भेद होने से यह पंद्रह प्रकार का होता है । इनके द्वारा जीव कर्मों के साथ बद्ध होते हैं और इनकी एकाग्रता से आंतरिक एवं बाह्य विकार रोके जा सकते हैं । महापुराण 18.2, 21. 225, 47.311, 48.52, 54.151-152, 62. 310-311, 63.309, हरिवंशपुराण 58.57, पद्मपुराण 22. 70, 23. 31 वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 67