आतम रूप अनूपम अद्भुत
From जैनकोष
आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखैं भव सिंधु तरो ।।टेक ।।
अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो ।
केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौ लोकशिरो ।।१ ।।
या बिन समुझे द्रव्य-लिंगमुनि, उग्र तपनकर भार भरो ।
नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो ।।२ ।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो ।
पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जैहैं, यह नियत करो ।।३ ।।
कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो ।
`दौल' ध्याय अपने आतमको, मुक्तिरमा तब वेग बरो ।।४ ।।