मोही जीव भरम तमतैं नहिं
From जैनकोष
मोही जीव भरम तमतैं नहिं, वस्तुस्वरूप लखै है जैसैं ।।टेक ।।
जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार परिनवै वैसे ।
वृथा दु:खी शठ कर विकलप यौं, नहिं परिनवैं परिनवैं ऐसैं ।।१ ।।
अशुचि सरोग समल जड़मूरत, लखत विलात गगनघन जैसैं ।
सो तन ताहि निहार अपनपो, चहत अबाध रहै थिर कैसैं ।।२ ।।
सुत-पित-बंधु-वियोगयोग यौं, ज्यौं सराय जन निकसै पैसैं ।
विलखत हरखत शठ अपने लखि, रोवत हँसत मत्तजन जैसैं ।।३ ।।
जिन-रवि-वैन किरन लहि जिन निज, रूप सुभिन्न कियौ पर में सैं ।
सो जगमौल `दौल' को चिर-थित, मोहविलास निकास हृदैसैं ।।४ ।।