हे मन तेरी को कुटेव यह
From जैनकोष
हे मन तेरी को कुटेव यह, करनविषय में धावै है ।।टेक ।।
इनहीके वश तू अनादितैं, निजस्वरूप न लखावै है ।
पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै है ।।१ ।।
फरस विषयके कारन बारन, गरत परत दुख पावै है ।
रसनाइन्द्रीवश झष जलमें, कंटक कंठ छिदावै है ।।२ ।।
गन्धलोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावै है ।
नयनविषयवश दीप-शिखा में, अंग पतंग जरावै है ।।३ ।।
करन विषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है ।
`दौलत' तज इनको जिनको भज, यह गुरु सीख सुनावै है ।।४ ।।