क्षय
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
कर्मों के अत्यंत नाश का नाम क्षय है। तपश्चरण व साम्यभाव में निश्चलता के प्रभाव से अनादि काल के बँधे कर्म क्षण भर में विनष्ट हो जाते हैं, और साधक की मुक्ति हो जाती है। कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव में जो ज्ञाता दृष्टा भाव व अतींद्रिय आनंद प्रकट होता है वह क्षायिक भाव कहलाता है।
- लक्षण व निर्देश
- क्षय का लक्षण
- क्षयदेश का लक्षण
- उदयाभावी क्षय का लक्षण
- अष्टकर्मों के क्षय का क्रम
- मोहनीय की प्रकृतियों में पहिले अधिक अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय होता है
- अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय पहले होना कैसे जाना जाता है
- दर्शनमोह क्षपणा विधान
- छहों कालों में दर्शन मोहनी क्षपणा संभव नहीं है
- दर्शनमोह क्षपणा का स्वामित्व
- दर्शन मोह की क्षपणा के लिए पुन: त्रिकरण करता है
- दर्शनमोह की प्रकृतियों का क्षपणा क्रम
- कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होने का क्रम
- तत्पश्चात् स्थिति के निषेकों का क्षयक्रम
- दर्शनमोह की क्षपणा में दो मत
- चारित्रमोह क्षपणा विधान
- क्षपणा का स्वामित्व
- क्षपणा विधि के 13 अधिकार
- क्षपणा विधि
- चारित्रमोह क्षपणा विधान में प्रकृतियों के क्षय संबंधी दो मत
- क्षायिक भाव निर्देश
- लक्षण व निर्देश
- क्षय का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/1/149/6 क्षय आत्यंतिकी निवृत्ति:। यथा तस्मिन्नेवांभसि शुचिभाजनांतरसंक्रांते पंकस्यात्यंताभाव:।=जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यंत अभाव हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है।
धवला 1/1,1,27/215/1 अट्ठण्हं कम्माणं मूलुत्तरभेय...पदेसाणं जीवादो जो णिस्सेस-विणासो तं खवणं णाम।=मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से...आठ कर्मों का जीव से अत्यंत विनाश हो जाता है उसे क्षपण (क्षय) कहते हैं।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 कर्मणां फलदानसमर्थत:....अत्यंतविश्लेष: क्षय:।=कर्मों का फलदान समर्थरूप से...अत्यंत विश्लेष सो क्षय है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/8/29/14 प्रतिपक्षकर्मणां पुनरुत्पत्त्यभावेन नाश: क्षय:।=प्रतिपक्ष कर्मों का फिर न उपजैं ऐसा अभाव सो क्षय है।
- क्षयदेश का लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/445/596/4 तत्र क्षयदेशो नाम परमुखोदयेन विनश्यतां चरमकांडकचरमफालि:, स्वमुखोदयेन विनश्यता च समयाधिकावलि:।=जे, प्रकृति अन्य प्रकृति रूप उदय देह विनसैं हैं ऐसी परमुखोदयी हैं तिनकैं तो अंत कांडक की अंत फालि क्षयदेश है। बहुरि अपने ही रूप उदय देह विनसै है ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति तिनके एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण काल क्षयदेश है।
गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./446/597/7 जिस स्थानक क्षय भया सो क्षयदेश कहिए है।
- उदयाभावी क्षय का लक्षण
राजवार्तिक/2/5/3/106/30 यदा सर्वघातिस्पर्धकस्योदयो भवति तदेषदप्यात्मगुणस्याभिव्यक्तिर्नास्ति तस्मात्तदुदयस्याभाव: क्षय इत्युच्यते।=जब सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होता है तब तनिक भी आत्मा के गुण की अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए उस उदय के अभाव को उदयाभावी क्षय कहते हैं।
धवला 7/2,1,49/92/6 सव्वघादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणी होदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमणंतगुणहीणत्तं खओ णाम।=सर्वघाती स्पर्धक अनंतगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकों का अनंतगुण हीनत्व ही क्षय कहलाता है। ( धवला 5/1,7,39/220/11 )।
- अपक्षय का लक्षण—देखें अपक्षय ।
- अष्टकर्मों के क्षय का क्रम
तत्त्वार्थसूत्र/10/1 मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच्च केवलम् ।=मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है।1।
कषायपाहुड़ 3/3,22/243/5 मिच्छत्तं-सम्मामिच्छत्ते खइयपच्छा सम्मत्तं खविज्जदि त्ति कम्माणक्खवणक्कम।=मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व को क्षय करके अनंतर सम्यक्त्व का क्षय होता है।
तत्त्वसार/6/21-22 पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तै: क्षयहेतुभि:। संसारबीजं कात्स्र्न्येन मोहनीयं प्रहीयते।21। ततोऽंतरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नांयनंतरम् । प्रहीयंतेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषत:।22।=पूर्व में कहे हुए कर्म क्षपण के हेतुओं के द्वारा सबसे प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है। मोहनीय कर्म ही सब कर्मों का और संसार का असली कारण है। मोह क्षय हुआ कि बाद में एक साथ अंतराय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तीन घाती कर्म समूल नष्ट हो जाते हैं।
- मोहनीय की प्रकृतियों में पहिले अधिक अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय होता है
कषायपाहुड़/3/3,22/428/243/7 मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसुकं पुव्वं खविज्जदि। मिच्छत्तं। कुदो, अच्चसुहात्तादो।=प्रश्न—मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व में पहिले किसका क्षय होता है। उत्तर—पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है। प्रश्न—पहले मिथ्यात्व का क्षय किस कारण से होता है? उत्तर—क्योंकि मिथ्यात्व अत्यंत अशुभ प्रकृति है।
- अप्रशस्त प्रकृतियों का क्षय पहले होना कैसे जाना जाता है
कषायपाहुड़ 3/3,22/428/8 असुहस्स कम्मस्स पुव्वं चक्खवणं होदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मत्तस्स लोहसंजलणस्स य पच्छा खयण्णहाणुवत्तीदो। =प्रश्न–अशुभ कर्म का पहले ही क्षय होता है यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर–अन्यथा सम्यक्त्व व लोभ संज्वलन के पश्चात क्षय बन नहीं सकता है, इस प्रमाण से जाना जाता है कि अशुभ कर्म का क्षय पहले होता है।
- कर्मों के क्षय की ओघ आदेश प्ररूपणा—देखें सत्त्व ।
- स्थिति व अनुभाग कांडक घात—देखें अपकर्षण - 4।
- क्षय का लक्षण
- दर्शनमोह क्षपणा विधान
- छहों कालों में दर्शन मोहनी क्षपणा संभव नहीं है
धवला 6/1,9-8,12/247/2 एदेण वक्खाणाभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकालेसुप्पण्णाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदीसु वि कालेसुप्पण्णाणमत्थि। कुदो। एइंदियादो आगंतूण तदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीण दंसणमोहक्खवणदंसणादो। एदं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं।=दुषमा, अतिदुषमा, सुषमासुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शन मोहनीय की क्षपणा नहीं होती है अवशिष्ट दोनों कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धमानकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। विशेष देखें मोक्ष - 4.3।
- अनंतानुबंधी की विसंयोजना—देखें विसंयोजना ।
- समुद्रों में दर्शनमोह क्षपण कैसे संभव है—देखें मनुष्य - 3।
- दर्शनमोह क्षपणा का स्वामित्व
4-7 गुणस्थान पर्यंत कोई भी वेदक सम्यग्दृष्टि जीव, त्रिकरण पूर्वक अनंतानुबंधी की विसंयोजना करके दर्शनमोहनीय की क्षपणा प्रारंभ करता है। (देखें सम्यग्दर्शन - IV.5)
- त्रिकरण विधान—देखें करण - 3।
- दर्शन मोह की क्षपणा के लिए पुन: त्रिकरण करता है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/744/9 तदनंतरमंतर्मुहूर्तं विश्रम्यानंतानुबंधिचतुष्कं विसंयोज्यांतर्मुहूर्तानंतरं करणत्रयं कृत्वा।=बहुरि ताके अनंतरि अंतर्मुहूर्त विश्राम लेइकरि अनंतानुबंधी का विसंयोजन कीए पीछै अंतर्मुहूर्त भया तब बहुरि तीन करण करै। ( लब्धिसार/ मूल/113)
- दर्शनमोह की प्रकृतियों का क्षपणाक्रम
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/744/9 अनिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते शेषैकभागे मिथ्यात्वं तत: सम्यग्मिथ्यात्वं तत: सम्यक्त्वप्रकृतिं च क्रमेण क्षपयति, दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभप्रथमसमयस्थापितसंयक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थित्यामांतर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापक:। अनंतरसमयादाप्रथमस्थितिचरमनिषेकं निष्ठापक:।=अनिवृत्तिकरण काल का संख्यात भागनि में एक भाग बिना बहुभाग गये एक भाग अवशेष रहैं पहिलैं मिथ्यात्व कौं पीछैं सम्यग्मिथ्यात्व कौ पीछैं सम्यक्त्व प्रकृति कौं अनुक्रमतैं क्षय करैं है। तहाँ दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारंभ का प्रथम समयविषैं स्थायी जो सम्यक्त्व मोहनी की प्रथम स्थिति ताका काल विषैं अंतर्मुहूर्त अवशेष रहें तहाँ का अंतसमय पर्यंत तौ प्रस्थापक कहिए। बहुरि तिसके अनंतरि समयतैं प्रथम स्थिति का अंतनिषेकपर्यंत निष्ठापक कहिए। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/335-3-6/486 ); ( लब्धिसार/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/122-130)
- कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होने का क्रम
लब्धिसार/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/131/172/3 यस्मिन् समये सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्षमात्रस्थितिमवशेषयन् चरमकांडकचरमफालिद्वयं पातयति तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्वप्रकृत्यनुभागसत्त्वमतीतानंतरसमयनिषेकानुभागसत्त्वादनंतगुणहीनमवशिष्यते।
लब्धिसार/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/145/200/10 प्रागुक्तविधानेन अनिवृत्तिकरणचरमसमये सम्यक्त्वप्रकृतिचरमकांडकचरमफालिद्रव्ये अधोनिक्षिप्ते सति तदनंतरोपरितनसमयात्....कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिरिति जीव: संज्ञायते।=1. जिस समय विषैं सम्यक्त्वमोहनी की अष्टवर्ष स्थिति शेष राखी अर मिश्रमोहनी सम्यक्त्वमोहनी का अंतकांडक की दोय फालिका पतन भया तिसही समयविषैं सम्यक्त्व मोहनी का अनुभाग पूर्वसमय के अनुभागतैं अनंतगुणा घटता अनुभाग अवशेष रहै है। 2. अनिवृत्तिकरण के अंत समयविषैं सम्यक्त्वमोहनी का अंतकांडक की अंतफालीका द्रव्य कौ नीचले निषेकनिेविषैं निक्षेपण किये पीछें अनंतर समयतैं लगाय...कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हो है। - तत्पश्चात् स्थिति के निषेकों का क्षयक्रम
समयसार/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/150/205/20 एवमनुभागस्यानुसमयमनंतगुणितापवर्तनेन कर्मप्रदेशानां प्रतिसमयमसंख्यातगुणितोदीरणया च कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि: सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितिमंतर्मुहूर्तायामुच्छिष्टावलिं मुक्त्वा सर्वां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वकं उदयमुखेन गालयित्वा तदनंतसमये उदीरणारहितं केवलमनुभागसमयापवर्तनेनैव...प्रतिसमयमनंतगुणितक्रमेण प्रवर्तमानेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वकं प्रतिसमयमेकैकनिषेकं गालयित्वा तदनंतरसमये क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जायते जीव:।= अनुभाग तो अनुसमय अपवर्तनकरि अर कर्म परमाणूनि की उदीरणा करि यहु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि रही थी जो सम्यक्त्व मोहनी की अंतर्मुहूर्त स्थिति वामै उच्छिष्टावली बिना सर्व स्थिति है सो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनि का सर्वथा नाश लोएं जो एक-एक निषेक का एक-एक समयविषैं उदय रूप होइ निर्जरना ताकरि नष्ट हो है, बहुरि ताका अनंतर समयविषैं उच्छिष्टावली मात्र स्थिति अवशेष रहैं उदीरणा का भी अभाव भया, केवल अनुभाग का अपवर्तन है...उदय रूप प्रथम समयतैं लगाय समय-समय अनंतगुणा क्रमकरि वर्तै है ताकरि प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशनि का सर्वथा नाशपूर्वक समय-समय प्रति उच्छिष्टावली के एक-एक निषेकौं गालि निर्जरा रूप करि ताका अनंतर समय विषैं जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है: (अधिक विस्तार से धवला 6/1,9-8,12/248-266 ) - दर्शनमोह की क्षपणा में दो मत
धवला 6/1,9-8,12/258/3 ताधे सम्मत्तम्हि अट्ठवस्साणि मोत्तूण सव्वमागाइदं। संखेज्जाणि वाससहस्साणि मोत्तूण आगाइदमिदि भणंता वि अत्थि।=(अनंतानुबंधी की विसंयोजना तथा दर्शन मोह के स्थिति कांडक घात के पश्चात् अनिवृत्तिकरण में उस जीव ने) सम्यक्त्व के स्थिति सत्त्व में आठ वर्षों को छोड़कर शेष सर्व स्थिति सत्त्व को (घातार्थ) किया। सम्यक्त्व के स्थिति सत्त्व में संख्यात हजार वर्षों को छोड़कर शेष समस्त स्थिति सत्त्व को ग्रहण किया इस प्रकार से कहने वाले भी कितने ही आचार्य हैं।
- छहों कालों में दर्शन मोहनी क्षपणा संभव नहीं है
- दर्शनमोह क्षपणा में मृत्यु संबंधी दो मत—देखें मरण - 3।
- नवक समय प्रबद्ध का एक आवली पर्यंत क्षपण संभव नहीं—देखें उपशम - 4.3।
- चारित्रमोह क्षपणा विधान
- क्षपणा का स्वामित्व
क्षपणासार/ भाषा./392/480/13 तीन करण विधान तैं क्षायिक सम्यग्दृष्टि होइ...चारित्रमोह की क्षपणा को योग्य जे विशुद्ध परिणाम तिनि करि सहित होइ तै प्रमत्ततैं अप्रमत्त विषैं, अप्रमत्ततैं प्रमत्तविषैं हजारोंवार गमनागमनकरि...क्षपकश्रेणी को सन्मुख...सातिशय प्रमत्तगुणस्थान विषैं अध:करण रूप प्रस्थान करै है। - क्षपणा विधि के 13 अधिकार
क्षपणासार/ मूल/392 तिकरणमुभयो सरणं कमकरणं खणदेसमंतरयं। संकमअपुव्वफड्ढयाकिट्टीकरणाणुभवणखमणाये।=अध:करण; अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, क्रमकरण अष्ट कषाय सोलह प्रकृतिनि की क्षपणा, देशघातिकरणं, अंतकरण, संक्रमण, अपूर्व स्पर्धककरण, अंतर कृष्टिकरण, सूक्ष्म-कृष्टि-अनुभवन, ऐसे ये चारित्र मोह की क्षपणाविषैं अधिकार जानने। - क्षपणा विधि
क्षपणासार/ भाषा/1/392-600—1. यहाँ प्रथम ही अध:प्रवृत्तिकरण रूप परिणामों को करता हुआ सातिशय अप्रमत्त संज्ञा को प्राप्त होता है। इस 7वें गुणस्थान के काल में चार आवश्यक हैं–1 प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि; 2 प्रशस्त प्रकृतियों का अनंतगुण क्रम से चतुस्थानीय अनुभाग बंध; 3 अप्रशस्त प्रकृतियों का अनंतवें भागहीन क्रम से केवल द्विस्थानीय अनुभाग बंध, और 4 पल्य/असं॰हीन क्रम से संख्यात सहस्र बंधापसरण।392-396। तिस गुणस्थान के अंत में स्थिति बंध व सत्त्व दोनों ही घटकर केवल अंत:कोटाकोटी सागर प्रमाण रहती है।494। 2. तदनंतर अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करके तहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है–1. असंख्यात गुणक्रम से गुण श्रेणी निर्जरा; 2. असंख्यात गुणा क्रम से ही गुण संक्रमण; 3. सर्व ही प्रकृतियों का स्थितिकांडक घात और; 4. केवल अप्रशस्त प्रकृतियों का घात। यहाँ स्थिति कांडकायाम पल्य/सं. मात्र है, और अनुभाग कांडक घात में केवल अनंत बहुभाग क्रम रहता है। इसके अतिरिक्त पल्य/सं. हीनक्रम से संख्यात सहस्र स्थिति बंधापसरण करता है।397-410। इस गुणस्थान के अंत में स्थितिबंध तो घटकर पृथक्त्व सहस्र सागर प्रमाण और स्थिति सत्त्व घटकर पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण रहते हैं।414। 3. तदनंतर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके तहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है–1. असंख्यात गुण से गुणश्रेणी निर्जरा; 2. असंख्यात गुणाक्रम से ही गुण संक्रमण; 3. पल्य/असं. आयाम वाला स्थिति कांडक घात; 4. अनंत बहुभाग क्रम से अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग कांडकघात। यह पल्य/असं4 व अनंत बहुभाग अपूर्वकरण वालों की अपेक्षा अधिक है।411। इसके प्रथम समय में नाना जीवों के स्थिति खंड असमान होते हैं परंतु द्वितीयादि समयों में सर्व के स्थिति सत्त्व व स्थिति खंड समान होते हैं।412-413। यहाँ स्थिति बंधापसरण में पहले पल्य/सं. हीनक्रम होता है, तत्पश्चात् पल्य/सं. बहुभाग हीनक्रम और तत्पश्चात् पल्य/असं. बहुभाग हीनक्रम तक हो जाता है। इस प्रकार विशेष हीनक्रम से घटते-घटते इस गुणस्थान के अंत में स्थितिबंध केवल पल्य/असं. वर्ष मात्र रह जाता है।414-421। स्थिति सत्त्व भी उपरोक्त क्रम से ही परंतु स्थिति कांडक घात द्वारा घटता घटता उतना ही रह जाता है।419-421। तीन करणों में ही नहीं बल्कि आगे भी स्थिति-4-5. बंध व सत्त्व का अपसरण बराबर हुआ ही करै है।395-418। 6. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही क्रमकरण द्वारा मोहनीय, तीसिय, बीसिय, वेदनीय, नाम व गोत्र, इन सभी प्रकृतियों के स्थितिबंध व स्थितिसत्त्व के परस्थानीय अल्प-बहुत्व में विशेष क्रम से परिवर्तन होता है, अंत में नाम व गोत्र की अपेक्षा वेदनीय का स्थितिबंध व सत्त्व ड्योढ़ा रह जाता है।422-427। 7. क्षपणा अधिकार में मध्य आठ कषायों (प्रत्य., अप्रत्या.) की स्थिति का संज्वलन चतुष्क की स्थिति में संक्रमण करने का विधान है। यही उन आठों का परमुखरूपेण नष्ट करना है।429। तत्पश्चात् 3 निद्रा और 13 नामकर्म की, इस प्रकार 16 प्रकृतियों को स्वजाति अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करके नष्ट करता है।430। 8. तदनंतर मति आदि चार ज्ञानावरण, चक्षु आदि तीन दर्शनावरण और 5 अंतराय इन 12 प्रकृतियों सर्वघाति की बजाय देशघाती अनुभाग युक्त बंध व उदय होने योग्य है।431-432। 9. अनिवृत्तिकरण का संख्यात भाग शेष रहने पर ।484। चार संज्वलन और नव कषाय इन 13 प्रकृतियों का अंतरकरण करता है।433-435। 10. संक्रमण अधिकार में प्रथम ही सप्तकरण करता है। अर्थात्–‘1-2. मोहनीय के अनुभाग बंध व उदय दोनों को दारु से लता स्थानीय करता है। 3. मोहनीय के स्थिति बंध को पल्य/असं. से घटाकर केवल संख्यात वर्ष मात्र करता है; 4. मोहनीय के पूर्ववर्तीय यथा तथा संक्रमण को छोड़कर केवल आनुपूर्वीय रूप करता है; 5. लोभ का जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता था वह अब नहीं होता; 6. नपुंसक वेद का अध:प्रवृत्ति संक्रमण द्वारा नाश करता है; 7. संक्रमण से पहले—आवलीमात्र आबाधा व्यतीत भये उदीरणा होती थी वह अब छह आवली व्यतीत होने पर होती है।436-437। सप्तकरण के साथ ही संज्वलन क्रोध, मान, माया व नव नोकषायों, इन 12 प्रकृतियों का आनुपूर्वी क्रम से गुण संक्रमण व सर्व संक्रमण द्वारा एक लोभ में परिणमाकर नाश करता है। उसका क्रम आगे कृष्टिकरण अधिकार के अनुसार जानना।438-440। यहाँ स्थितिबंधापसरण का प्रमाण नवीनस्थिति बंध से संख्यातगुणा घाट होता है।441-461। 11. अनिवृत्तिकरण के इस काल में संज्वलन चतुष्क का अनुभाग प्रथम कांडक का घात भये पीछे क्रोध से लगाय लोभ पर्यंत अनंत गुणा घटता और लोभ से लगाय क्रोध पर्यंत अनंतगुणा बधता हो है। इसे ही अश्वकर्ण करण कहते हैं। तहाँ से आगे अब उन चारों में अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है जिससे उनका अनुभाग अनंत गुणा क्षीण हो जाता है। विशेष–देखें स्पर्धक व अश्वकर्ण ।465-466। 12. तदनंतर उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के काल में रहता हुआ इन अपूर्व स्पर्धकों का संग्रहकृष्टि व अंतरकृष्टि करण द्वारा कृष्टियों में विभाग करता है। साथ ही स्थिति व अनुभाग बराबर कांडक घात द्वारा क्षीण करता है। अश्वकर्ण काल में संज्वलन चतुष्क की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण थी, वह अब अंतर्मुहूर्त अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गयी। अवशेष कर्मों की स्थिति संख्यात सहस्रवर्ष प्रमाण है। संज्वलन का स्थितिसत्त्व पहले संख्यात सहस्रवर्ष था, वह अब घटकर अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा और अघातिया का संख्यात सहस्रवर्ष मात्र रहा। कृष्टिकरण में ही सर्व संज्वलन चतुष्क के सर्व निषेक कृष्टिरूप परिणामे।490-514। विशेष–देखें कृष्टि । 13. कृष्टिकरण पूर्ण कर चुकने पर वहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के चरम भाग में रहता हुआ इन बादर कृष्टियों को क्रोध, मान; माया व लोभ के क्रम से वेदना करता है। तिस काल अपूर्वकृष्टि आदि उत्पन्न करता है। क्रोधादि कृष्टियों के द्रव्य को लोभ की कृष्टि रूप परिणमाता है। फिर लोभ की संग्रहकृष्टि के द्रव्य को भी सूक्ष्म कृष्टि रूप करता है। यहाँ केवल संज्वलन लोभ का ही अंतर्मुहूर्त मात्र स्थितिबंध शेष रह जाता है। अंत में लोभ का स्थिति सत्त्व भी अंतर्मुहूर्त मात्र रहा जाता है, और उसके बंध की व्युच्छित्ति हो जाती है। शेष घातिया का स्थितिबंध एक दिन से कुछ कम और स्थिति सत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण रहा।514-571। विशेष–देखें कृष्टि । 14. अब सूक्ष्म कृष्टि को वेदता हुआ सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में प्रवेश करता है। यहाँ सर्व ही कर्मों का जघन्य स्थिति बंध होता है। तीन घातिया का स्थिति सत्त्व अंतर्मुहूर्त मात्र रहता है। लोभ का स्थिति सत्त्व क्षय के सम्मुख है। अघातिया का स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है। याके अनंतर लोभ का क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थान में प्रवेश करै है।582-600। विशेष–देखें कृष्टि । - चारित्रमोह क्षपणा विधान में प्रकृतियों के क्षय संबंधी दो मत
ध/1/1,1,27/217/3 अपुव्वकरण-विहाणेण गमिय अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदि-भागे सेसे...सोलस पयडीओ खवेदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण पच्चक्खाणापच्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभे अक्कमेण खवेदि। ऐसो संतकम्म-पाहुड़-उवएसो। कसाय-पाहुड-उवएसो। पुण अट्ठ कसाएसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहुत्तं गंतूण सोलस कम्माणि खविज्जंति त्ति। एदे दो वि उवएसा सच्चमिदि केवि भण्णंति, तण्ण घडदे, विरुद्धात्तादो सुत्तादो। दो वि पमाणाइं ति वयणमवि ण घडदे पमाणेण पमाणाविरोहिणा होदव्वं’ इदि णायादो।=अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग शेष रहने पर...सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। फिर अंतर्मुहूर्त व्यतीत कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है यह सत्कर्म प्राभृत का उपदेश है। किंतु कषाय प्राभृत का उपदेश तो इस प्रकार है कि पहले आठ कषायों के क्षय हो जाने पर पीछे से एक अंतर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्म प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त होती हैं। ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं, ऐसा कितने ही आचार्यों का कहना है। किंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, उनका ऐसा कहना सूत्र के विरुद्ध पड़ता है। तथा दोनों कथन प्रमाण हैं, यह वचन भी घटित नहीं होता है, क्योंकि ‘एक प्रमाण को दूसरे प्रमाण का विरोधी नहीं होना चाहिए’ ऐसा न्याय है। ( गोम्मटसार जीवकांड/386, 391 )
* चारित्रमोह क्षपणा में मृत्यु की संभावना—देखें मरण - 3।
- क्षपणा का स्वामित्व
- क्षायिक भाव निर्देश
- क्षायिक भाव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/1/149/9 एवं क्षायिक।=जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण क्षय है वह क्षायिक भाव है।
धवला/1/1,1,8/161/1 कर्मणाम् ....क्षयात्क्षायिक: गुणसहचरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते।=जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिकभाव कहते हैं।....गुण के साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञा को प्राप्त होता है। ( धवला 5/1,7,1/185/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/814 )।
धवला 5/1,7,10/206/2 कम्माणं खए जादो खइओ, खयट्ठं जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सद्दउप्पत्तो घेत्तत्वा।=कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मों के क्षय के लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार की शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/56 क्षयेण युक्त: क्षायिक:।=क्षय से युक्त वह क्षायिक है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/8/29/14 तस्मिन् (क्षये) भव: क्षायिक:। =ताकौ (क्षय) होतै जो होइ सो क्षायिक भाव है। पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/968 यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वत: क्षयात् । जातो य: क्षायिको भाव: शुद्ध: स्वाभाविकोऽस्य स:।968।=प्रतिपक्षी कर्मों के यथा-योग्य सर्वथा क्षय के होने से आत्मा में जो भाव उत्पन्न होता है वह शुद्ध स्वाभाविक क्षायिक भाव कहलाता है।968।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/21 आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुन: शुद्धात्माभिमुखपरिणाम: शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते।=आगम में औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं। और अध्यात्म भाषा में शुद्ध आत्मा के अभिमुख जो परिणाम है, उसको शुद्धोपयोग आदि नामों से कहा जाता है।
- क्षायिक भाव के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/3-4 सम्यक्त्वचारित्रे।3। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।4।=क्षायिक भाव के नौ भेद हैं—क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र। ( धवला 5/1,7,1/190/11 ); (न.च./372); ( तत्त्वसार/2/6 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 ); ( गोम्मटसार जीवकांड 300 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/816 )।
षट्खंडागम/14/5,6/18/15 जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो—से खीणकोहे खीणमोणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे, खीणमोहे खीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खाइय चारित्तं खइया दाणलद्धी खइया लाहलद्धी खइया भोगलद्धी खइया परिभोगलद्धी खइया वीरियलद्धी केवलणाणं केवलदंसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सव्वदुक्खाणमंतयडेत्ति जे चामण्णे एवमादिया खइया भावा सो सव्वो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम।18।=जो क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध है उसका निर्देश इस प्रकार है-क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलब्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध-बुद्ध, परिनिर्वृत्त, सर्वदु:ख अंतकृत्, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सब क्षायिक अविपाक-प्रत्ययिक जीवभावबंध है।18।
- नीच गतियों आदि में क्षायिक भाव का अभाव है
धवला 5/1,7,28/215/1 भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-विदियादिछपुढविणेरइय-सव्वविगलिंदिय-लद्धिअपज्जत्तित्थीवेदेसु सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावा च। =भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क देव, द्वितीयादि छह पृथिवियों के नारकी, सर्व विकलेंद्रिय, सर्व लब्धपर्याप्तक, और स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगति के अतिरिक्त अन्य गतियों में दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा का अभाव है।
- क्षायिक भाव में भी कंथचित् कर्म जनितत्व
पंचास्तिकाय/58 कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भाव तु कम्मकदं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/56/106/10 क्षायिकभावस्तु केवलज्ञानादिरूपो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्धबुद्धैकजीवस्वभाव: तथापि कर्मक्षयेणोत्पन्नत्वादुपचारेण कर्मजनित एव।=1. कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव नहीं होता, इसलिए भाव (चतुर्विध जीवभाव) कर्मकृत् हैं।58। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/58 ) 2. क्षायिकभाव तो केवलज्ञानादि रूप है। यद्यपि वस्तु वृत्ति से शुद्ध-बुद्ध एक जीव का स्वभाव है, तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण उपचार से कर्मजनित कहा जाता है।
- अन्य संबंधित विषय
1. अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों व संयम मार्गणा में क्षायिक भाव संबंधी शंका समाधान।–देखें वह वह नाम
2. क्षायिकभाव में आगम व अध्यात्म पद्धति का प्रयोग–देखें पद्धति
3. क्षायिक भाव जीव का निज तत्त्व है–देखें भाव - 2।
4. अंतराय कर्म के क्षय से उत्पन्न भावों संबंधी शंका-समाधान–देखें वह वह नाम
5. मोहोदय के अभाव में भगवान् की औदयिकी क्रियाएँ भी क्षायिकी हैं–देखें उदय - 9
6. क्षायिक सम्यग्दर्शन–देखें सम्यग्दर्शन - IV.5
- क्षायिक भाव का लक्षण
पुराणकोष से
(1) कषायों और कर्मों का नाश । हरिवंशपुराण 3.87, 58.83
(2) पुस्तकर्म के तीन भेदों में प्रथम भेद-लकड़ी का छीलकर खिलौने आदि बनाना । पद्मपुराण 24.38