अनुमान
From जैनकोष
यह परोक्ष प्रमाण का एक भेद है, जो जैन व जैनेतर सर्व दर्शनकारों को समान रूपसे मान्य है। यह दो प्रकार का होता है - स्वार्थ व परार्थ। लिंग परसे लिंगो का ज्ञान हो जाना स्वार्थ अनुमान है, जैसे धुएँ को देखकर अग्नि का ज्ञान स्वतः हो जाता है और हेतु तर्क आदि-द्वारा पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पाँच अवयव होते हैं-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय व निगमन। इनका उचित रीति से प्रयोग करना `न्याय' माना गया है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
१. भेद व लक्षण
1. अनुमान सामान्य का लक्षण।
2. अनुमान सामान्य के दो भेद (स्वार्थ व परार्थ)।
3. स्वार्थानुमान के तीन भेद (पूर्ववत्, शेषवत् आदि)।
4. स्वार्थानुमान का लक्षण।
5. परार्थानुमान का लक्षण।
6. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानों के लक्षण।
7. पूर्ववत् अनुमान का लक्षण।
8. शेषवत् अनुमान का लक्षण।
9. सामान्यतोदृष्ट अनुमान का लक्षण।
• अनुमान बाधित का लक्षण। - दे. बाधित.
२. अनुमान सामान्य निर्देश
1. अनुमानज्ञान श्रुतज्ञान है।
2. अनुमानज्ञान कोई प्रमाण नहीं।
• अनुमानज्ञान परोक्ष प्रमाण है। - दे. परोक्ष
• स्मृति आदि प्रमाणों के नाम निर्देश। - दे. परोक्ष
• स्मृति आदि की एकार्थता तथा इनका परस्पर में कार्य-कारण सम्बन्ध। - दे. मतिज्ञान ३
1. अनुमानज्ञान भ्रान्ति या व्यवहार मात्र नहीं है बल्कि प्रमाण है।
2. कार्यपर से कारण का अनुमान किया जाता है।
3. स्थूलपर से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है।
4. परन्तु जीव अनुमानगम्य नहीं है।
• अनुमान अपूर्वार्थग्राही होता है। - दे. प्रमाण २
• अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। - दे. हेतु २
३. अनुमान के अवयव
1. अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश।
2. पाँचों अवयवों की प्रयोग विधि।
3. स्वार्थानुमानमें दो ही अवयव होते हैं।
4. परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथामें ही उपयोगी है, वादमें नहीं।
१. भेद व लक्षण
१. अनुमान सामान्य का लक्षण-
न्यायबिन्दु / मूल या टीका श्लोक संख्या २,१/१ साधनात्साध्यज्ञानमनुमानम्।
= साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।
(परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/१४) (कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या २६७) (न्यायदीपिका अधिकार ३/$१७) (न्या.वि./वृ./२,१/१/१९) (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/१-१५/$३०९/३४१/३)।
२. अनुमान सामान्य के भेद (स्वार्थ व परार्थ)
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/५२-५३ तदनुमान द्वेधा ।।५२।। स्वार्थ परार्थभेदात् ।।५३।।
= स्वार्थ व परार्थ के भेदसे वह अनुमान दो प्रकार का है।
(स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २८/३२२/१) (न्यायदीपिका अधिकार ३/$२३)।
३. स्वार्थानुमान के तीन भेद (पूर्ववत् आदि)
न्या.मू./मू./१-१/५ अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च ।।५।।
= प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान तीन प्रकार का है - पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०,१५/७८/११)।
४. स्वार्थानुमान का लक्षण
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/५४,१४ स्वार्थमुक्तलक्षणम् ।।५४।। साधनात्साध्यविज्ञामनुमानम् ।।१४।।
= स्वार्थ का लक्षण पहिले कह दिया गया है ।।५४।। कि साधन से साध्य का विज्ञान होना अनुमान है ।।१४।।
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २८/३२२/२ तत्रान्यथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंबन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्।
= अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षणवाले हेतु को ग्रहण करने के सम्बन्ध के स्मरणपूर्वक साध्य के ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं।
(स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २०/२५६/१३)।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$२८/७५ में उद्धृत "परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम्। यद्द्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमानं तदुच्यते।।
= परोपदेश के अभाव में भी केवल साधनसे साध्य को जान जो ज्ञान देखनेवाले को उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$२३/७१ परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तर्कानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताद्धूमादेः साधनादुत्पन्नपर्वतादौ धर्मिण्यग्न्यादे; साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानुमानमित्यर्थः।
= परोपदेश की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाण से जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्ति के स्मरण से युक्त, ऐसे धूम आदि हेतुसे पर्वतादि धर्मों में उत्पन्न होनेवाले जो अग्नि आदि के साध्य का ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते हैं।
(न्यायदीपिका अधिकार ३/१७)।
और भी दे. प्रमाण १, (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है)।
५. परार्थानुमान का लक्षण
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/५५-५६ परार्थं तु तदर्थ परामर्शिवचनाज्जातम् ।।५५।। तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ।।५६।।
= स्वार्थानुमान के विषयभूत हेतु और साध्य को अवलम्बन करनेवाले वचनों से उत्पन्न हुए ज्ञान को परार्थानुमान कहते हैं ।।५५।। परार्थानुमान के प्रतिपादक वचन भी उस ज्ञान का कारण होने से उपचार से परार्थानुमान हैं, मुख्यरूप से नहीं ।।५६।।
(स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २८/३२२/३)।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$२९ परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानम्। प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। यतः पर्वतोऽयमग्निमान् भवितुमर्हति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाक्यार्थं पर्यालोचयतः स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते।
= परोपदेश से जो साधन से साध्य का ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। अर्थात् प्रतिज्ञा और हेतुरूप दूसरे का उपदेश सुननेवाले को जो साधन से साध्य का ज्ञान होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। जैसे कि इस पर्वत में अग्नि होनी चाहिए, क्योंकि यदि यहाँपर अग्नि न होती तो धूम नहीं हो सकता था। इस प्रकार किसी के कहनेपर सुननेवाले को उक्त वाक्य के अर्थ का विचार करते हुए और व्याप्ति का स्मरण होने से जो अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। और भी दे. प्रमाण १/३ (परार्थ प्रमाण वचनात्मक होता है)।
६. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानों के लक्षण
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या १६/२१९/६ यद्येन सह नियमेनोपलभ्यते तत् ततो न भिद्यते, यथा सच्चन्द्रादसच्चन्द्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थं इति व्यापकानुपलब्धिः।
= जो जिसके साथ नियम से उपलब्ध होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे यथार्थ चन्द्रमा भ्रान्त चन्द्रमा के साथ उपलब्ध होता है, अतएव भ्रान्त चन्द्रमा यथार्थ चन्द्रमा से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान और पदार्थ एक साथ पाये जाते हैं, अतएव ज्ञान पदार्थ से भिन्न नहीं है। इस व्यापकानुपलब्धि अनुमान से ज्ञान और पदार्थ का अभेद सिद्ध होता है।
वैशेषिक सूत्रोपस्कार (चौखम्बा काशी) /२,१/१ व्यतिरेकव्याप्तिकाल्लिङ्गाद् यदनुमानं क्रियते तद्व्यतिरेकिलिङ्गानुमानमुच्यते। साध्याभावे साधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेकव्याप्तिः। तथा च प्रकृते अनुमाने सर्वरूपसाध्याभावे निर्दोषत्वरूपसाधनाभावः प्रदर्शितः।
= व्यतिरेकव्याप्तिवाले लिंगसे जो अनुमान किया जाता है उसे व्यतिरेक लिंगानुमान कहते हैं। साध्य के अभावमें साधन का भी अभाव दिखलाना व्यतिरेकव्याप्ति है। प्रकृतमें सर्वज्ञरूप साध्य के अभावमंम निदोषत्व रूप साधना का भी अभाव दर्शाया गया है। अर्थात् यदि सर्वज्ञ नहीं है तो निर्दोषपना भी नहीं हो सकता। ऐसा अनुमान व्यतिरेकव्याप्ति अनुमान है।
७. पूर्ववत् अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०,१५/७८/१२ तत्र येनाग्नेर्निःसरन् पूर्वं धूमो दृष्टः स प्रसिद्धाग्निघूमसंबन्धाहितसंस्कारः पश्चाद्धूमदर्शनाद् `अस्त्यत्राग्निः' इति पूर्ववदग्निं गृह्णातीति पूर्वदनुमानम्।
= जिसने अग्नि से निकलते हुए धूम को पहिले देखा है, वह व्यक्ति अग्नि और धूम के प्रसिद्ध सम्बन्ध विशेष को जानने के संस्कार से सहित है। वह व्यक्ति पीछे कभी धूम के दर्शन मात्र से `यहाँ अग्नि है' इस प्रकार पहिले की भाँति अग्नि को ग्रहण कर लेता है। ऐसा पूर्ववत् अनुमान है।
(न्या.सू./भा.१-१/५/१३/१)।
न्या.सू./१-१/५/१२/२४ पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरित।
= जहाँ कारण से कार्य का अनुमान होता है उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं, जैसे बादलों के देखने से आगामी वृष्टि का अनुमान करना।
८. शेषवत् अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०,१५/७८/१४ येन पूर्वं विषाणविषाणिनोः संबन्ध उपलब्धः तस्य विषाणरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत्।
= जिस व्यक्तिने पहिले कभी सींग व सींगवाले के सम्बन्ध का ज्ञान कर लिया है, उस व्यक्ति को पीछे कभी भी सींग मात्र का दर्शन हो जानेपर सींगवाले का ज्ञान हो जाता है। अथवा उस पशु के एक अवयव को देखनेपर भी शेष अनेक अवयवों सहित सम्पूर्ण पशु का ज्ञान हो जाता है, इसलिए वह शेषवत् अनुमान है।
न्या.सू./भा./१-१/५/१२/२५ शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते। पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ्रत्वं च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमीयते भूता वृष्टिरिति।
= कार्य से कारण का अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। जैसे नदी की बाढ़ को देखकर उससे पहिले हुई वर्षा का अनुमान होता है, क्योंकि नदी का चढ़ना वर्षा का कार्य है।
९. सामान्यतोदृष्ट अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०,१५/७८/१५ देवदत्तस्य देशान्तरप्राप्तिं गतिपूर्विकां दृष्ट्वा संबन्ध्यन्तरे सवितरि देशान्तरप्राप्तिदर्शनाद् गतेरत्यन्तपरोक्षाया अनुमानं सामान्यतोदृष्टम्।
= देवदत्त का देशान्तरमें पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य की देशान्तर प्राप्तिपर से अत्यन्त परोक्ष उसकी गति का अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है।
(न्या.सू./भा.१-१/५/१२/२६)।
२. अनुमान सामान्य निर्देश
१. अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञान है
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०,१५/७८/१६ तदेतत्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपत्तिकाले अक्षरश्रुतम्।
= तीनों (पूर्ववत् शेषवत् व सामान्यतोदृष्ट) अनुमान स्वप्रतिपत्ति कालमें अनक्षरश्रुत हैं और पर प्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१-१५/३४१/३ धूमादिअत्थलिंगजं पुण अणुमाणं णाम।
= धूमादि पदार्थरूप लिंगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है।
२. अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं
धवला पुस्तक संख्या ६/१,१,६,६/१५१/१ पवयणे अणुमाणस्स पमाणस्स पमाणत्ताभावत्तादो।
= प्रवचन (परमागम) में अनुमान प्रमाण के प्रमाणता नहीं मानी गयी है।
३. अनुमान ज्ञान परोक्ष प्रमाण है
सिद्धिविनिश्चय / मूल या टीका प्रस्ताव संख्या ६/११-१२/३८९ यथास्वं न चेद्बुद्धेः स्वसंविदन्यथा पुनः। स्वाकारविभ्रमात् सिध्येद् भ्रान्तिरप्यनुमानधीः ।।११।। स्वव्यक्तसंवृतात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम्। यदि हेतुफलात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम् न बुद्धेर्ग्राह्यग्राहकाकारौ भ्रान्तावेव स्वयमेकान्तहानेः ।।१२।।
= यदि ज्ञान यथायोग्य अपने स्वरूप को नहीं जानता तो अपने स्वरूप में भी विभ्रम होने से स्वलक्षण बुद्धि भी भ्रान्तिरूप सिद्ध होगी। यदि कहोगे कि अनुमानसे जानेंगे तो अनुमान बुद्धि भी तो भ्रान्त है ।।११।। यदि एक स्वलक्षण (बुद्धिवस्तु), सुव्यक्त (बोधस्वभाव प्रत्यक्ष) और संवृत (उससे विपरीत) रूपों में व्याप्त होता है, अर्थात् एक साथ व्यक्त और अव्यक्त स्वभाव रूप होता है तो उस स्वलक्षण के अपने कारण और कार्यमें व्याप्त होनेमें क्या रुकावट हो सकती है? बुद्धि के ग्राह्य और ग्राहक आकार सर्वथा भ्रान्त नहीं हैं ऐसा मानने से स्वयं बौद्ध के एकान्त की हानि होती है ।।१२।।
सि.वि./वृ./६/९/३८७/२१ प्रमाणतः सिद्धाः, किमुच्यते व्यवहारिणेति। प्रमाणसिद्ध[त्योभ]योरपि अभ्युपगमार्हत्वातः अन्यथा त्परतः प्रामाणिकत्वाद्वो येन (परस्यापि न प्रामाणिकत्वम्)। व्यवहार्यभ्युपगमात् चेत्, अतएव प्रतिबन्धान्तरमस्तु। न च अप्रमाणाभ्युपगसिद्धेर्द्ववैस स (द्धेः अर्धवैशस्य) न्यायो न्यायानुसारिणां युक्तः।
= यदि पूर्व और उत्तर क्षणमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध प्रमाण से सिद्ध है तो उसे व्यवहार सिद्ध क्यों कहते हो? जो प्रमाण सिद्ध है वह तो वादी और प्रतिवादी दोनों के ही स्वीकार करने योग्य है। अन्यथा यदि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है तो दूसरे को भी प्रामाणिकपना नहीं है। यदि व्यवहारी के द्वा्रा स्वीकृत होनेसे उसे स्वीकार करते हैं तो इसी से उन दोनों के बीचमें अन्य प्रतिबन्ध मानना चाहिए। अप्रमाण भी हो और अभ्युगम (स्वीकृति) सिद्ध भी हो यह अर्ध वैशसन्याय न्यायानुसारियों के योग्य नहीं है।
४. कार्यपर-से कारण का अनुमान किया जाता है
आप्तमीमांसा श्लोक संख्या ६८/६९ कार्यलिङ्गं हि कारणम्।
= कार्यलिंगतैं ही कारण का अनुमान करिये है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ३१२ अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमितिः क्वचित्। दर्शनान्नदपूरस्य देवो वृष्टो यथोपरि ।।३१२।।
= निश्चय से कार्य के अनुमानसे कारण का अनुमान होता है। जैसे नदी में पूर आया देखने से यह अनुमान हो जाता है कि ऊपर कहीं वर्षा हुई है।
(अनुमान १/८)
५. स्थूलपर-से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है
ज्ञानार्णव अधिकार संख्या ३३/४ अलक्ष्य लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत्। सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ।।४।।
= तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्व को प्रगटतया चिन्तवन करे कि-लक्ष्य के सम्बन्ध से तो अलक्ष्य को और स्थूल से सूक्ष्म पदार्थ को चिन्तवन करै। इसी प्रकार किसी पदार्थ विशेष का अवलम्बन लेकर निरालम्ब स्वरूप से तन्मय हो।
६. परन्तु जीव अनुमानगम्य नहीं है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १७२ आत्मनो हि....अलिङ्गग्राह्यत्वम्....न लिङ्गादिन्द्रियगम्याद् धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य।
= आत्मा के अलिंगग्राह्यत्व है। क्योंकि जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है।
३. अनुमान के अवयव
१. अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या १-१/३२ प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ।।३२।।
= प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्य के पाँच अवयव हैं।
२. पाँचों अवयवों की प्रयोगविधि
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/६५ परिणामी शब्दः कृतकत्वात्। य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी। यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बन्ध्यास्तनंधयः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी ।।६५।।
= शब्द परिणामस्वभावी है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वह कृतक है (हेतु)। जो-जो पदार्थ कृतक होता है वह-वह परिणामी देखा गया है, जैसे घट (अन्वय उदाहरण), जो परिणामी नहीं होता, वह कृतक भी नहीं होता जैसे बन्ध्यापुत्र (व्यतिरेकी उदाहरण)। यह शब्द कृतक है (उपनय) इसलिए परिणामी है (निगमन)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ५०/२१३ अन्तरिताः सूक्ष्मपदार्थाः, धर्मिणः कस्यापि पुरुष विशेषस्य प्रत्यक्षा भवन्तीति साध्यो धर्म इति धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम्। कस्मादिति चेत्, अनुमानविषयत्वादिति हेतुवचनम्। किंवत्। यद्यदनुमानविषयं तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्षं भवति, यथाग्न्यादि, इत्यन्वयदृष्टान्तवचनम्। अनुमानेन विषयाश्चेति इत्युपनयवचनम्। तस्मात् कस्यापि प्रत्यक्षा भवन्तीति निगमनवचनम्। इदानीं व्यतिरेकदृष्टान्तः कथ्यते-यन्न कस्यापि प्रत्यक्षं तदनुमानविषयमपि न भवति यथा खपुष्पादि, इति व्यतिरेकदृष्टान्तवचनम्। अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम्। तस्मात् प्रत्यक्षा भवन्तीति पुनरपि निगमनवचनमिति।
= अन्तरित व सूक्ष्म पदार्थ रूप धर्मी किसी भी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष होते हैं। इस प्रकार साध्य धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्षवचन अथवा प्रतिज्ञा है। क्योंकि वे अनुमान के विषय हैं, यह हेतु वचन है। किसकी भाँति? जो-जो अनुमान का विषय है वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे अग्नि आदि, यह अन्वय दृष्टान्त का वचन है। और ये पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं, यह उपनयका वचन है। इसलिए किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, यह निगमन वाक्य है।
अब व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं - जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते, जैसे कि आकाश के पुष्प आदि, यह व्यतिरेकी दृष्टान्त वचन है। और ये अनुमान के विषय हैं, यह पुनः उपनय का वचन है। इसीलिए किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं, यह पुनः निगमन वाक्य है।
३. स्वार्थानुमान में दो ही अवयव होते हैं
न्यायदीपिका अधिकार ३/$२४-२५/७२ अस्य स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि-धर्मी, साध्यं, साधनं च....।।२४।। पक्षो हेतुरित्यङ्गद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात्। तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मीसाध्यसाधनभेदात्त्रीण्यङ्गानि पक्षसाधनभेदादङ्गद्वयं चेति सिद्धं, विवक्षाया वैचित्र्यात् ।।२५।।
= इस स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं - धर्म, साध्य व साधन ।।२४।। अथवा पक्ष व हेतु इस प्रकार दो अंग भी स्वार्थानुमान के हैं, क्योंकि, साध्य धर्म से विशिष्ट होने के कारण साध्य व धर्मीं दोनों का पक्षमें अन्तर्भाव हो जाता है और साधन व हेतु एकार्थवाचक हैं। (यहाँ प्रतिज्ञा नामका कोई अंग नहीं होता, उसके स्थानपर पक्ष होता है)। इस प्रकार स्वार्थानुमानके धर्मी, साध्य व साधन के भेद से तीन अंग भी होते हैं और पक्ष व हेतु के भेदसे दो अंग भी होते हैं। ऐसा सिद्ध है। यहाँ केवल विवक्षा का ही भेद है ।।२५।।
४. परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा में ही उपयोगी हैं, वादमें नहीं
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/३७,४४,४६ एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् ।।३७।। न च तदङ्गे ।।४४।।....बालव्युत्पत्त्य तत्त्रयोगपमे शास्त्र एवासौ नवा दे, अनुपयोगात् ।।४६।।
= पक्ष और हेतु ये दोनों ही अनुमान के अंग है, उदाहरण नहीं ।।३७।। न ही उपनय व निगमन अंग हैं ।।४४।। क्योंकि बाल व्युत्पत्ति के निमित्त इन तीनों का उपयोग शास्त्रमें होता हैं, वादमें नहीं, क्योंकि वहाँ वे अनुपयोगी हैं ।।४६।।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$३१,३४,३६/७६,८१,८२ परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य द्वाववयवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्च ।।३१।। प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमात्रै वोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात्। गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्तप्रसङ्गात् ।।३४।। वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वावयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोग्यं प्रयोगपरिपाटी।....तदेव प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् ।।३६।।
= परार्थानुमान प्रयोजक वाक्य के दो अवयव होते हैं - प्रतिज्ञा व हेतु ।।३१।। प्रतिज्ञा व हेतु इन दो मात्र के प्रयोग से ही व्युत्पन्न जनों को उदाहरणादि के द्वारा प्रतिपाद्य व जाना जाने योग्य अर्थ का भी ज्ञान हो जाता है। जान लिये गये के प्रति भी इनको कहने से पुनरुक्ति का प्रसंग आता है ।।३४।। परन्तु वीतराग कथामें प्रतिपाद्य अभिप्राय के अनुरोध से प्रतिज्ञा व हेतु ये दो अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण इस प्रकार तीन अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इस प्रकार चार भी हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इस प्रकार पाँच भी हैं। यथायोग्य परिपाटी के अनुसार ये सब ही विकल्पघटित हो जाते हैं। इस प्रकार प्रतिज्ञादि रूप परोपदेश से उत्पन्न होने के कारण वह परार्थानुमान है ।।३६।।