पर्याप्ति
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
योनि स्थान में प्रवेश करते ही जीव वहाँ अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण या आहार करता है। तत्पश्चात् उनके द्वारा क्रम से शरीर, श्वास, इंद्रिय, भाषा व मन का निर्माण करता है। यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर इस कार्य में बहुत काल लगता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उपरोक्त छहों कार्य की शक्ति एक अंतर्मुहूर्त में पूरी कर लेता है। इन्हें ही उसकी छह पर्याप्तियाँ कहते हैं। एकेंद्रियादि जीवों को उन-उन में संभव चार, पाँच, छह तक पर्याप्तियाँ संभव हैं। जब तक शरीर पर्याप्ति निष्पन्न नहीं होती, तब तक वह निर्वृत्ति अपर्याप्त संज्ञा को प्राप्त होता है और शरीर पर्याप्ति पूर्ण कर चुकने पर पर्याप्त कहलाने लगता है, भले अभी इंद्रिय आदि चार पर्याप्तियाँ पूर्ण न हुई हों। कुछ जीव तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे क्षुद्रभवधारी, एक श्वास में 18 जन्म-मरण करनेवाले लब्ध्यपर्याप्त जीव कहलाते हैं।
- भेद व लक्षण
- पर्याप्ति निर्देश व तत्संबंधी शंकाएँ
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गर्भ में शरीर की उत्पत्ति का क्रम। - देखें जन्म - 2.8।
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पर्याप्तापर्याप्त प्रकृतियों का बंध उदय व सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- पर्याप्तापर्याप्त का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ।
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पर्याप्तियों का काय मार्गणा में अंतर्भाव।- देखें मार्गणा ।
सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।- देखें मार्गणा ।
पर्याप्तों की अपेक्षा अपर्याप्त जीव कम हैं। - देखें अल्पबहुत्व - 2.6.2।
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जब मिश्रयोगी व समुद्घात केवली में सम्यक्त्व पाया जाता है, तो अपर्याप्त में क्यों नहीं। - देखें आहारक - 4.7।
एक जीव में पर्याप्त अपर्याप्त दोनों भाव कैसे संभव हैं।- देखें आहारक - 4.6।
लब्ध्यपर्याप्त नियम से सम्मूर्च्छिम ही होते हैं।- देखें संमूर्च्छन ।
अपर्याप्तकों के जन्म व गुणस्थान संबंधी।- देखें जन्म - 6।
पर्याप्त अवस्था में लेश्याएँ- देखें लेश्या - 5।
अपर्याप्त काल में सर्वोत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि संभव नहीं। - देखें विशुद्धि ।
अपर्याप्तावस्था में विभंग ज्ञान का अभाव।- देखें अवधिज्ञान - 7।
पर्याप्तापर्याप्त में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
पर्याप्तापर्याप्त के सत् (अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ)।- देखें वह वह नाम ।
अपर्याप्तावस्था में आहारक मिश्रकाययोगी, तिर्यञ्च, नारक, देव आदिकों में सम्यक्त्व व गुणस्थानों के विधि निषेध संबंधी शंका समाधान। - देखें वह वह नाम ।
अपर्याप्तकों से लौटे हुए जीवों के सर्व लघु काल में संयमादि उत्पन्न नहीं होता।- देखें संयम - 2।
अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्वों के सद्भाव व अभाव संबंधी नियम आदि।- देखें जन्म - 3।
- भेद व लक्षण
- पर्याप्ति-अपर्याप्ति सामान्य का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/43 ‘जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थाइयाइं दव्वाइं। तह पुण्णापुण्णाओ पज्जत्तियरा मुणेयव्वा। 43। = जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवों को पर्याप्त और अपूर्ण जीवों को अपर्याप्त जानना चाहिए।’ ( धवला 2/1,1/ गाथा 219/417); (पंचसंग्रह/संस्कृत /1/127); ( गोम्मटसार जीवकांड/118/325 )।
धवला 1/1,1,34/257/4 पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। ...जीवन-हेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते।
धवला 1/1,1,70/311/9 आहारकशरीर... निष्पत्तिः पर्याप्तिः। = पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। ...इंद्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इंद्रियादि रूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं। 257। आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। 311। ( धवला 1/1,1,40/267/10 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/134-135 आहार-सरीरींदियणिस्सासुस्सास-भास-मण-साणं। परिणइ-वावारेसु य जाओ छ च्चेव सत्तीओ। 134। तस्सेव-कारणाणं पुग्गलखंधाण जाहु णिप्पत्ती। सा पज्जत्ती भण्णदि...। 135। = आहार शरीर, इंद्रिय आदि के व्यापारों में अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शक्तियाँ हैं, उन शक्तियों के कारण जो पुद्गल स्कंध हैं उन पुद्गल स्कंधों की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/9 परिशिष्ठ-समंतात्, आप्ति-पर्याप्तिः शक्तिनिष्पत्तिरित्पर्थः। = चारों तरफ से प्राप्ति को पर्याप्ति कहते हैं।
- पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्म के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/2 यदुदयाहारादिपर्याप्तिनिर्वृत्तिः तत्पर्याप्तिनाम। ...षड्विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम। = जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। ...जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के अभाव का हेतु है वह अपर्याप्ति नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/31,33/579/11 ); ( धवला 6/1,9-1,28/62/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/1,13 )।
धवला 13/5,5,101/365/7 जस्स कम्मस्सुदएण जीवापज्जत्ता होंति तं कम्मं पज्जत्तं णामं। जस्स कम्मसुदएण जीवा अप्पज्जत्ता होंति तं कम्ममपज्जत्तं णाम। = जिस कर्म के उदय से जीव पर्याप्त होते हैं वह पर्याप्त नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव अपर्याप्त होते हैं वह अपर्याप्त नामकर्म हैं।
- पर्याप्ति के भेद
मूलाचार/1045 आहारे य सरीरे तह इंदिय आणणाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा। 1045। = आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति - ऐसे छह पर्याप्ति कही हैं। ( बोधपाहुड़/ मूल/34); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/44 ); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/3 ); ( धवला 2/1,1/ गाथा 218/417); ( राजवार्तिक/8/11/31/579/13 ); ( धवला 1/1,1,34/254/4 ); ( धवला 1/1,1,70/311/9 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/119/326 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/134-135 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/128), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/326/10 )।
- छह पर्याप्तियों के लक्षण
धवला 1/1,1,34/254/6 शरीरनामकर्मोदयात् पुद्गलविपाकिन आहारवर्गणागतपुद्गलस्कंधः समवेतानंतपरमाणुनिष्पादिता आत्मावष्टब्धक्षेत्रस्थाः कर्मस्कंधसंबंधतो मूर्तीभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्रयंति। तेषामुपगतानां खलरसपर्यायैः परिणमनशक्तेर्निमित्तानामाप्तिराहारपर्याप्तिः। ...तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावय-वैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्रवावयवैरौदारि-कादिशरीरत्रयपरिणामशक्त्युपेतानां स्कंधानामवाप्तिः शरीर-पर्याप्तिः। ...योग्यदेशस्थितरूपादिविशिष्टार्थग्रहणशक्त्युत्पत्ते-र्निमित्तपुद्गलप्रचायावाप्तिरिंद्रियपर्याप्तिः। ...उच्छवासनिस्सरण-शक्तेर्निमित्तपुद्गलप्रचायावाप्तिरानपानपर्याप्तिः। ...भाषावर्गणायाः स्कंधाच्चतुर्विधभाषाकारेण परिणमनशक्तेर्निमित्तनौकर्मपुद्गलप्रचायावाप्तिर्भाषापर्याप्तिः। ...मनोवर्गणा स्कंधनिष्पंनपुद्गलप्रचयः अनुभूतार्थशक्तिनिमित्तः मनःपर्याप्तिः द्रव्यमनोऽवष्टंभेनानुभूतार्थस्मरणशक्तेरुत्पत्तिर्मनः पर्याप्तिर्वा। = शरीर नामकर्म के उदय से जो परस्पर अनंत परमाणुओं के संबंध से उत्पन्न हुए हैं, और जो आत्मा से व्याप्त आकाश क्षेत्र में स्थित हैं, ऐसे पुद्गल विपाकी आहारकवर्गणा संबंधी पुद्गल स्कंध, कर्म स्कंध के संबंध से कथंचित् मूर्तपने को प्राप्त हुए हैं, आत्मा के साथ समवाय रूप से संबंध को प्राप्त होते हैं, उन खल भाग और रस भाग के भेद से परिणमन करने की शक्ति से बने हुए आगत पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को आहारपर्याप्ति कहते हैं। ...तिल की खली के समान उस खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप से और तिल तेल के समान रस भाग को रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूप से परिणमन करने वाले औदारिकादि तीन शरीरों की शक्ति से युक्त पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को शरीर पर्याप्ति कहते हैं। ...योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के ग्रहण करने रूप शक्ति की उत्पत्ति के निमित्तभूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को इंद्रियपर्याप्ति कहते हैं। ...उच्छ्वास और निःश्वासरूप शक्ति की पूर्णता के निमित्तभूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को आन-पान पर्याप्ति कहते हैं। ...भाषावर्गणा के स्कंधों के निमित्त से चार प्रकार की भाषारूप से परिणमन करने की शक्ति के निमित्तभूत नो-कर्मपुद्गलप्रचय की प्राप्ति को भाषापर्याप्ति कहते हैं। ....अनुभूत अर्थ के स्मरणरूप शक्ति के निमित्तभूत मनोवर्गणा के स्कंधों से निष्पन्न पुद्गल प्रचय को मनःपर्याप्ति कहते हैं। अथवा द्रव्यमन के आलंबन से अनुभूत अर्थ के स्मरणरूप शक्ति की उत्पत्ति को मनः-पर्याप्ति कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/326/12 अत्र औदारिकवैक्रियिकाहारकशरीर-नामकर्मोदयप्रथमसमयादिं कृत्वा तच्छरीरत्रयषट्पर्याप्तिपर्यायपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कंधां खलरसभागेन परिणमयितुं पर्याप्तिनाम-कर्मोदयावष्टमसंभूतात्मनः शक्तिनिष्पत्तिराहारपर्याप्तिः। तथा परिणतपुद्गलस्कंधानां खलभागम् अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपेण रसभागं रुधिरादिद्रवावयवरूपेण च परिणमयितुं शक्तिनिष्पतिः शरीर-पर्याप्तिः। आवरणवीर्यांतरायक्षयोपशमविजृंभितात्मनो योग्य-देशावस्थितरूपादिविषयग्रहणव्यापारे शक्तिनिष्पत्तिर्जातिनामकर्मो-दयजनितेंद्रियपर्याप्तिः। आहारवर्गणायातपुद्गलस्कंधान उच्छ्वासनिश्वासरूपेण परिणमयितुं उच्छ्वासनिश्वासनामकर्मोदय-जनितशक्तिनिष्पत्तिरुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तिः। स्वरनामकर्मोदयवशाद् भाषावर्गणायातपुद्गलस्कंधां सत्यासत्योभयानुभयभाषा-रूपेण परिणमयितुं शक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याप्तिः। मनोवर्गणापुद्गल-स्कंधां अंगोपांगनामकर्मोदयबलाधानेन द्रव्यमनोरूपेण परिणमयितुं तद्द्रव्यमनोबलाधानेनं नोइंद्रियावरणवीर्यांतरायक्षयोपशम-विशेषेणगुणदोषविचारानुस्मरणप्रणिधानलक्षणभावमनः परिणमनशक्ति-निष्पत्तिर्मनः पर्याप्तिः। = औदारिक, वैक्रियिक वा आहारक इनमें से किस ही शरीररूप नामकर्म की प्रकृति के उदय होने का प्रथम समय से लगाकर, जो तीन शरीर और छह पर्याप्तिरूप पर्याय परिणमने योग्य पुद्गल स्कंध को खलरस भागरूप परिणमावनैं की पर्याप्तिनामा नामकर्म के उदय से ऐसी शक्ति निपजै-जैसैं तिल को पेलकर खल और तेल रूप परिणमावै, तैसे कोई पुद्गलतों खल रूप परिणमावै कोई पुद्गल रस रूप। ऐसी शक्ति होने को आहारपर्याप्ति कहते हैं। खलरस भागरूप परिणत हुए उन पुद्गल स्कंधों में से खलभाग को हड्डी, चर्म आदि स्थिर अवयवरूप से और रस भाग को रुधिर, शुक्र इत्यादि रूप से परिणमाने की शक्ति होइ, उसको शरीरपर्याप्ति कहते हैं। मतिश्रुत ज्ञान और चक्षु-अचक्षु दर्शन का आवरण तथा वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न जो आत्मा के यथा योग्य द्रव्येंद्रिय का स्थानरूप प्रदेशों से वर्णादिक के ग्रहणरूप उपयोग की शक्ति जातिनामा नामकर्म से निपजै सो इंद्रियपर्याप्ति है। आहारक वर्गणारूप पुद्गलस्कंधों की श्वासोश्वासरूप परिणमावने की शक्ति होइ, श्वासोश्वास नामकर्म से निपजै सो श्वासोश्वासपर्याप्ति है। स्वरनामकर्म के उदय से भाषा वर्गणारूप पुद्गल स्कंधों को सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भाषारूप परिणमावने की शक्ति की जो निष्पत्ति होइ सो भाषापर्याप्ति है। मनोवर्गणा रूप जो पुद्गलस्कंध, उनको अंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्यमनरूप परिणमावने की शक्ति होइ, और उसी द्रव्यमन के आधार से मन का आवरण अर वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम विशेष से गुणदोष विचार, अतीत का याद करना, अनुगत में याद रखना इत्यादि रूप भावमन की शक्ति होइ उसको मनःपर्याप्ति कहते हैं।
- निर्वृति पर्याप्तापर्याप्त के लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड/121/331 पज्जत्तस्सय उदये णियणियपज्जत्ति णिट्ठिदा-होदि। जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो भवति। 121। = पर्याप्ति-नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादि जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों की संपूर्णता की शक्ति से युक्त होते हैं। जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, उतने काल तक अर्थात् एक समय कम शरीरपर्याप्ति संबंधी अंतर्मुहूर्त पर्यंत निर्वृत्ति अपर्याप्त कहते हैं। (अर्थापत्ति से जब शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है तब निर्वृत्ति पर्याप्त कहते हैं।)। 121।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/136 पज्जत्तिं गिण्हंतो मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि। ता णिव्वत्ति-अपुण्ण मण-पुण्णो भण्णदे पुण्णो। 136। = जीव पर्याप्ति को ग्रहण करते हुए जब तक मनःपर्याप्ति को समाप्त नहीं कर लेता तब तक निर्वृत्त्यपर्याप्त कहा जाता है। और जब मनःपर्याप्ति को पूर्ण कर लेता है तब (निर्वृत्ति) पर्याप्त कहा जाता है।
- पर्याप्त व अपर्याप्त निर्वृति के लक्षण
धवला 14/5,6,287/352/8 जहण्णाउ अबंधो जहण्णियापज्जत्तणिव्वत्तीणाम भवस्स पढमसमयप्पहुडि जाव जहण्णाउवबंधस्स चरिमसमयो त्ति ताव एसा जहण्णिया णिव्वत्ति त्ति भणिदं होदि। ...जहण्ण-बंधोघेत्तव्वो ण जहण्णं संतं। कुदो? जीवणियट्ठाणाणं विसेसाहियत्तण्णहाणुववत्तीदो (पृ. 353/6)।
धवला 14/5,6,646/504/9 घात खुद्दा भवग्गहणस्सुवरि तत्तो संखेज्जगुणं अद्धाणं गंतूण सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्ताणं बंधेण जहण्णं जं णिसेयखुद्दा भवग्गहणं तस्स जहण्णिया अपज्जत्तणिव्वत्ति त्ति सण्णा।
धवला 14/5,6,662/516/10 सरीरपज्जतीए पज्जत्तिणिव्वत्ती सरीरनिव्वृत्तिट्ठाणं णाम। =- जघन्य आयुबंध की जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति संज्ञा है। भव के प्रथम समय से लेकर जघन्य आयुबंध के अंतिम समय तक यह जघन्य निर्वृत्ति होती है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ...यहाँ जघन्य बंध ग्रहण करना चाहिए जघन्यसत्त्व नहीं, क्योंकि अन्यथा जीवनीय स्थान विशेष अधिक नहीं बनते।
- घात क्षुल्लक भव ग्रहण के ऊपर उससे संख्यातगुणा अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवों के जघन्य निषेक क्षुल्लक भव ग्रहण होता है, उसकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति संज्ञा है।
- शरीरपर्याप्ति की निर्वृति का नाम शरीर निर्वृतिस्थान है।
- लब्ध्यपर्याप्त का लक्षण
धवला 1/1,1,40/267/11 अपर्याप्तनामकर्मोदयजनितशक्त्याविर्भावित-वृत्तयः अपर्याप्ताः। = अपर्याप्त नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिन जीवों की शरीर पर्यापि्त पूर्ण न करके मरनेरूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है, उन्हें अपर्याप्त कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/122 उदये दु अपुण्णस्स य सगसगपज्जत्तियं ण णिट्टवदि। अंतोमुहूत्तमरणं लद्धिअपज्जत्तगो सादु। 122। = अपर्याप्त नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादि जे जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके उच्छ्वास के अठारहवें भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त में ही मरण पावैं ते जीव लब्धि अपर्याप्त कहे गये हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/137 उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि। एक्को वि य पज्जत्ती लद्धि अपुण्णो हवे सो दु। 137। = जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाता है, एक भी पर्याप्ति को समाप्त नहीं कर पाता, उसे लब्धि अपर्याप्त कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/122/332/4 लब्ध्वा स्वस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पन्ना लब्ध्यपर्याप्ता इति निरुक्तेः। = लब्धि अर्थात् अपनी पर्याप्तियों की संपूर्णता की योग्यता तींहिकरि अपर्याप्त अर्थात् निष्पन्न न भये ते लब्धि अपर्याप्त कहिए।
- अतीत पर्याप्ति का लक्षण
धवला 2/1,1/416/13 एदासिं छण्हमभावो अदीद-पज्जत्ती णाम। = छह पर्याप्तियों के अभाव को अतीत पर्याप्ति कहते हैं।
- पर्याप्ति-अपर्याप्ति सामान्य का लक्षण
- पर्याप्ति निर्देश व तत्संबंधी शंकाएँ
- षट् पर्याप्तियों के प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल संबंधी नियम
- सामान्य नियम
धवला 1/1,1,34/254/9 सा(आहारपर्याप्तिः) च नांतर्मुहूर्तमंतरेण समये-नैकेनैवोपजायते आत्मनोऽक्रमेण तथाविधपरिणामाभावाच्छरीरोपा-दानप्रथमसमयादारभ्यांतर्मुहूर्तेनाहारपर्याप्तिर्निष्पद्यत इति यावत्। ...साहारपर्याप्तेः पश्चादंतर्मुहूर्तेन निष्पद्यते। ...सापि ततः पश्चादंतर्मुहूर्तादुपजायते। ...एषापि तस्मादंतर्मुहूर्तकाले समतीते भवेत्। एषापि (भाषापर्याप्तिः अपि) पश्चादंतर्मुहूर्तादुपजायते। ...एतासां प्रारंभोऽक्रमेण जन्मसमायादारभ्य तासां सत्त्वाभ्युपगमात्। निष्पत्तिस्तु पुनः क्रमेण। = वह आहार पर्याप्ति अंतर्मुहूर्त के बिना केवल एक समय में उत्पन्न नहीं हो जाती है, क्योंकि आत्मा का एक साथ आहारपर्याप्ति रूप से परिणमन नहीं हो सकता है। इसलिए शरीर को ग्रहण करने के प्रथम समय से लेकर एक अंतर्मुहूर्त में आहारपर्याप्तिपूर्ण होती है। ...वह शरीर पर्याप्ति आहार पर्याप्ति के पश्चात् एक अंतर्मुहूर्त में पूर्ण होती है। ...यह इंद्रियपर्याप्ति भी शरीरपर्याप्ति के पश्चात् एक अंतर्मुहूर्त में पूर्ण होती है। ...श्वासोच्छवास पर्याप्ति भी इंद्रियपर्याप्ति के एक अंतर्मुहूर्त पश्चात् पूर्ण होती है। ...भाषा पर्याप्ति भी आनपान पर्याप्ति के एक अंतर्मुहूर्त पश्चात् पूर्ण होती है... इन छहों पर्याप्तियों का प्रारंभ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है। परंतु पूर्णता क्रम से होती है। ( गोम्मटसार जीवकांड व.जीव तत्त्व प्रदीपिका/120/328)।
- गति की अपेक्षा
मूलाचार/1048 पज्जत्तीपज्जत्ता भिण्णमुहुत्तेण होंति णायाव्वा। अणु-समयं पज्जत्ती सव्वेसिं चोववादीणं। 1048। = मनुष्य तिर्यंच जीव पर्याप्तियों कर पूर्ण अंतर्मुहूर्त में होते हैं ऐसा जानना। और जो देव नारकी हैं उन सबके समय-समय प्रति पूर्णता होती है। 1048।
तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार/गाथा नं. पावेण णिरय बिले जादूणं ता मुहूत्तगंमेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्सिय भयजुदो होदि। 2/113। उप्पज्जंते भवणे उववादपुरे महारिहे सयणे। पावंति छपज्जत्ति जादा अंतोमुहूत्तेण। 3/207। जायंते सुरलोए उववादपुरे महारिहे सयणे। जादा य मुहूत्तेणं छप्पज्जत्तीओ पावंति। 8/567। = नारकी जीव... उत्पन्न होकर एक अंतर्मुहूर्त काल में छह पर्याप्तियों को पूर्ण कर आकस्मिक भय से युक्त होता है। (2/313)। भवनवासियों के भवन में... (देव) उत्पन्न होने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में ही छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर लेते हैं। (3/206)। देव सुरलोक के भीतर... एक मुहूर्त में ही छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर लेते हैं। (8/568)।
- सामान्य नियम
- कर्मोदय के कारण पर्याप्त व अपर्याप्त संज्ञा
धवला 3/1,2,77/311/2 एत्थ अपज्जत्तवयणेण अपज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्वा। अण्णहा पज्जत्तणामकम्मोदयसहितणिव्वत्ति अपज्जत्ताणं पि अपज्जत्तवयणेण गहणप्पसंगादो। एवं पज्जत्ता इदि वुत्ते पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्वा। अण्णहा पज्जत्तणाम-कम्मोदयसहिद णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं गहणाणुववत्तीदो। = यहाँ सूत्र में अपर्याप्त पद से अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त जीवों का ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त निर्वृत्यपर्याप्त जीवों का भी अपर्याप्त इस वचन से ग्रहण प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार पर्याप्त ऐसा कहने पर पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त जीवों का ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त निर्वृत्यपर्याप्त जीवों का ग्रहण नहीं होगा।
- कितनी पर्याप्ति पूर्ण होने पर पर्याप्त कहलाये
धवला 1/1,1,76/315/10 किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्नः उत साकल्येन निष्पन्न इति? शरीरपर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्त इति भण्यते। = प्रश्न - (एकेंद्रियादि जीव अपने-अपने योग्य छह, पाँच, चार पर्याप्तियों में से) किसी एक पर्याप्ति से पूर्णता को प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या संपूर्ण पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है? उत्तर - सभी जीव शरीर पर्याप्ति के निष्पन्न होने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं।
- विग्रह गति में पर्याप्त कहें या अपर्याप्त
धवला 1/1,1,94/334/4 अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तथा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पत्तेरभावात्। न अपर्याप्तास्ते आरंभात्प्रभृति आ उपरमादंतरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात्। न चानारंभकस्य स व्यपदेशः अतिप्रसंगात्। ततस्तृतीयमप्यवस्थांतरं वक्तव्यमिति नैष दोषः, तेषामपर्याप्तेष्वंतर्भावात्। नातिप्रसंगोऽपि कार्मणशरीरस्थितप्राणिनामिवापर्याप्तकैः सह सामर्थ्याभावोपपादै-कांतानुवृद्धियोगैर्गत्यायुःप्रथमद्वित्रिसमयवर्तनेन च शेषप्राणिनां प्रत्यासत्तेरभावात्। ततोऽशेषसंसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम्। = प्रश्न - विग्रह गति में कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किंतु वहाँ पर कार्मणशरीरवालों के पर्याप्ति नहीं पायी जाती है, क्योंकि विग्रहगति के काल में छह पर्याप्तियों की निष्पत्ति नहीं होती है? उसी प्रकार विग्रहगति में वे अपर्याप्त भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि पर्याप्तियों के आरंभ से लेकर समाप्ति पर्यंत मध्य की अवस्था में अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परंतु जिन्होंने पर्याप्तियों का आरंभ ही नहीं किया है ऐसे विग्रह गति संबंधी एक दो और तीन समयवर्ती जीवों को अपर्याप्त संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है इसलिए यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त से भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही कहना चाहिए। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऐसे जीवों का अपर्याप्तों में ही अंतर्भाव किया है, इससे अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि कार्मण शरीर में स्थित जीवों के अपर्याप्तकों के साथ सामर्थ्याभाव, उपपादयोगस्थान, एकांतवृद्धियोगस्थान और गति तथा आयु संबंधी प्रथम, द्वितीय और तृतीय समय में होनेवाली अवस्था के द्वारा जितनी समीपता पायी जाती है, उतनी शेष प्राणियों के नहीं पायी जाती है। अतः संपूर्ण प्राणियों की दो अवस्थाएँ ही होती हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है।
- निवृति अपर्याप्त को पर्याप्त कैसे कहते हो
धवला 1/1,1,34/254/1 तदुदय (पर्याप्तिनामकर्मोदय) वतामनिष्पण-शरीराणां कथं पर्याप्तव्यपदेशो घटत इति चेन्न, नियमेन शरीर-निष्पादकानां भाविनि भूततदुपचारतस्तदविरोधात् पर्याप्तनामकर्मो-दयसहचराद्वा। = प्रश्न - पर्याप्त नामकर्मोदय से युक्त होते हुए भी जब तक शरीर निष्पन्न नहीं हुआ है तब तक उन्हें (निर्वृत्ति अपर्याप्त जीवों को) पर्याप्त कैसे कह सकते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि नियम से शरीर को उत्पन्न कर लेने से पर्याप्त संज्ञा कर लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण पर्याप्त संज्ञा दी गयी है।
- इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर भी बाह्यार्थ का ग्रहण क्यों नहीं होता
धवला 1/1,1,34/255/5 न चेंद्रियनिष्पत्तौ सत्यामपि तस्मिन् क्षणे बाह्यार्थविषयविज्ञानमुत्पद्यते तदा तदुपकरणाभावात्। = इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर भी उसी समय बाह्य पदार्थ संबंधी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उस समय उसके उपकरण रूप द्रव्येंद्रिय नहीं पायी जाती है।
- पर्याप्ति व प्राणों में अंतर
- सामान्य निर्देश
धवला 1/1,1,34/256-257/2 पर्याप्तिग्राणयोः को भेद इति चेन्न, अनयोर्हिमवद्विंध्ययोरिव भेदोपलंभात्। यत आहारशरीरेंद्रियानापान-भाषामनः शक्तीनां निप्पत्तेः कारणं पर्याप्तिः। प्राणीति एभिरात्मेति प्राणाः पंचेंद्रियमनोबाक्कायानापानायूषि इति। 256। पर्याप्ति-प्राणानां नाम्नि विप्रत्तिपत्तिर्न वस्तुनि इति चेन्न, कार्यकारणयोर्भेदात्, पर्याप्तिष्वायुषोऽसत्त्वान्मनोवगुछ्वासप्राणानामपर्याप्ति-कालेऽसत्त्वाच्च तयोर्भेदात्। तत्पर्याप्तयोऽप्यपर्याप्तकालेन संतीति तत्र तदसत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः, ततोऽस्ति तेषां भेद इति। अथवा जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्यं शक्तेर्निष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते, जीवनहेतवः पुनः प्राणा इति तयोर्भेदः। = प्रश्न - पर्याप्ति और प्राण में क्या भेद है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, इनमें हिमवान और विंध्याचल के समान भेद पाया जाता है। आहार, शरीर, इंद्रिय भाषा,श्वासोच्छवास और मनरूप शक्तियों की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं और जिनके द्वारा आत्मा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है उन्हें प्राण कहते हैं, यही इन दोनों में अंतर है। 256। प्रश्न - पर्याप्ति और प्राण के नाम में अर्थात् कहने मात्र में अंतर है, वस्तु में कोई विवाद नहीं है, इसलिए दोनों का तात्पर्य एक ही मानना चाहिए? उत्तर - नहीं, क्योंकि कार्य कारण के भेद से उन दोनों में भेद पाया जाता है, तथा पर्याप्तियों में आयु का सद्भाव नहीं होने से और मन, वचन, बल तथा उच्छ्वास इन प्राणों के अपर्याप्त अवस्था में नहीं पाये जाने से भी पर्याप्ति और प्राणों में भेद समझना चाहिए। प्रश्न - वे पर्याप्तियाँ भी अपर्याप्त काल में नहीं पायी जाती हैं, इससे अपर्याप्त काल में उनका (प्राणों का) सद्भाव नहीं रहेगा? उत्तर - नहीं, क्योंकि, अपर्याप्त काल में अपर्याप्त रूप से उनका (प्राणों का) सद्भाव पाया जाता है। प्रश्न - अपर्याप्त रूप से इसका तात्पर्य क्या है?उत्तर - पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं, इसलिए पर्याप्ति अपर्याप्ति और प्राण इनमें भेद सिद्ध हो जाता है। अथवा इंद्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इंद्रियादि रूप शक्ति की पूर्णता मात्र को पर्याप्ति कहते हैं और जीवन के कारण हैं, उन्हें प्राण कहते हैं। इस प्रकार इन दोनों में भेद समझना चाहिए। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/141/80/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/ मं.प्र./341/344/14)।
- भिन्न-भिन्न पर्याप्तियों की अपेक्षा विशेष निर्देश
धवला 2/1,1/412/4 न (एतेषां इंद्रियप्राणाणां) इंद्रियपर्याप्तावंतर्भावः, चक्षुरिंद्रियाद्यावरणक्षयोपशमलक्षणेंद्रियाणां क्षयोपशमापेक्षया बाह्यार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वविरोधात्। न च मनोबलं मनःपर्याप्तावंतर्भवतिः मनोवर्गणास्कंधनिष्पंन-पुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नात्मबलस्य चैकत्वविरोधात्। नापि वाग्बलं भाषापर्याप्तावंतर्भवतिः आहारवर्गणास्कंधनिष्पंन-पुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नायाः भाषावर्गणास्कंधानां श्रोत्रेंद्रिय ग्राह्यपर्यायेण परिणमनशक्तेश्च साम्याभावात्। नापि कायबलं शरीर-पर्याप्तावंतर्भवतिः वीर्यांतरायजनितक्षयोपशमस्य खलरसभाग-निमित्तशक्तिनिबंधनपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वाभावात्। तथोच्छ्वासनिश्वासप्राणपर्याप्तयोः कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिधातव्य इति। = उक्त (प्राणों संबंधी) पाँचों इंद्रियों का इंद्रिय पर्याप्ति में भी अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि चक्षु इंद्रिय आदि को आवरण करनेवाले कर्मों के क्षयोपशम स्वरूप इंद्रियों को और क्षयोपशम की अपेक्षा बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने की शक्ति से उत्पन्न करने में निमित्तभूत पुद्गलों के प्रचय को एक मान लेने में विरोध आता है। उसी प्रकार मनोबल का मनःपर्याप्ति में अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि मनोवर्गणा के स्कंधों से उत्पन्न हुए पुद्गल प्रचय को और उससे उत्पन्न हुए आत्मबल (मनोबल) को एक मानने में विरोध आता है। तथा वचन बल भी भाषा पर्याप्ति में अंतर्भूत नहीं होता है, क्योंकि आहार वर्गणा के स्कंधों से उत्पन्न हुए पुद्गल प्रचय का और उससे उत्पन्न हुई भाषा वर्गणा के स्कंधों का श्रोत्रेंद्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्याय से परिणमन करने रूप शक्ति का परस्पर समानता का अभाव है। तथा कायबल का भी शरीर पर्याप्ति में अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, वीर्यांतराय के उदयाभाव और उपशम से उत्पन्न हुए क्षयोपशम की और खलरस भाग की निमित्तभूत शक्ति के कारण पुद्गल प्रचय की एकता नहीं पायी जाती है। इसी प्रकार उच्छ्वास, निश्वास प्राण कार्य है और आत्मोपादानकारणक है तथा उच्छ्वास निःश्वास पर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है। अतः इन दोनों में भेद समझ लेना चाहिए। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/11 )।
- सामान्य निर्देश
- षट् पर्याप्तियों के प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल संबंधी नियम
- पर्याप्तापर्याप्त का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ
- किस जीव को कितनी पर्याप्तियाँ संभव हैं
षट्खंडागम 1/1,1/सूत्र- 71-75 सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव असंजद-सम्माइट्ठि त्ति। 71। पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ। 72। बीइं-दिय-प्पहुडि जाव अण्णिपंचिदिया त्ति। 73। चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अप्पज्जतीओ। 74। एइंदियाणं। 75। = सभी पर्याप्तियाँ (छह पर्याप्तियाँ) मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती हैं। 71। पाँच पर्याप्तियाँ और पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं। 72। वे पाँच पर्याप्तियाँ द्वींद्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रियपर्यंत होती हैं। 73। चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियाँ होती हैं। 74। उक्त चारों पर्याप्तियाँ एकेंद्रिय जीवों के होती हैं। 75। (मूलाचार/1046-1047 )।
धवला 2/1,1/416/8 एदाओ छ पज्जत्तीओ सण्णि पज्जत्ताणं। एदेसिं चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असमत्ताओ छ अपज्जत्तीओ भवंति। मणपज्जत्तोए विणा एदाओ चेव पंच पज्जत्तीओ असण्णि-पंचिदिय-पज्जत्तप्पहुडि जाव बीइंदिय-पज्जत्ताणं भवंति। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं एदाओ चेव अणिपण्णाओ पंच अपज्जत्तीओ वूच्चंति। एदाओ चेव-भासा-मणपज्जत्तीहि विणा चत्तारि पज्जत्तीओ एइंदिय-पज्जत्ताणं भवंति। एदेसिं चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असंपुण्णाओ चत्तारि अपज्जत्तीओ भवंति। एदासिं छण्हमभावो अदीद-पज्जत्तीणाम्। = छहों पर्याप्तियाँ संज्ञी-पर्याप्त के होती हैं। इन्हीं संज्ञी जीवों के अपर्याप्तकाल में पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई ये ही छह अपर्याप्तियाँ होती हैं। मनःपर्याप्ति के बिना उक्त पाँचों ही पर्याप्तियाँ असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तों से लेकर द्वींद्रिय पर्याप्तक जीवों तक होती हैं। अपर्याप्तक अवस्था को प्राप्त उन्हीं जीवों के अपूर्णता को प्राप्त वे ही पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं। भाषा पर्याप्ति और मनः-पर्याप्ति के बिना ये चार पर्याप्तियाँ एकेंद्रिय जीवों के होती हैं। इन्हीं एकेंद्रिय जीवों के अपर्याप्त काल में अपूर्णता को प्राप्त ये ही चार अपर्याप्तियाँ होती हैं। तथा इन छह पर्याप्तियों के अभाव को अतीत पर्याप्ति कहते हैं।
- अपर्याप्तों को सम्यक्त्व उत्पन्न क्यों नहीं होता
धवला 6/1,1,9,11/426/4 एत्थवित्तं चेव कारणं। को अच्चंताभाव-करणपरिणामाभावो। = यहाँ अर्थात् अपर्याप्तकों में भी पूर्वोक्त प्रतिषेध रूप कारण होने से प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का अत्यंताभाव है। प्रश्न - अत्यंताभाव क्या है? उत्तर - करणपरिणामों का अभाव ही प्रकृत में अत्यंताभाव कहा गया है।
- किस जीव को कितनी पर्याप्तियाँ संभव हैं
पुराणकोष से
आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन की शक्तियों की पूर्णता । यह नामकर्म का एक भेद है । हरिवंशपुराण - 18.83,हरिवंशपुराण - 18.56. 104, पांडवपुराण 22. 73