मोक्ष के अस्तित्व संबंधी शंकाएँ
From जैनकोष
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- मोक्षाभाव के निराकरण में हेतु
सिद्धि भक्ति/2 नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तेरस्त्यात्मानादिबंधः स्वकृतजफलभुभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी । ज्ञाता द्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा, ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः ।2। =- प्रश्न− मोक्ष का अभाव है, क्योंकि कर्मों के क्षय से आत्मा का दीपकवत् नाश हो जाता है (बौद्ध) अथवा सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न आदि आत्मा के गुणों का अभाव ही मोक्ष है (वैशेषिक) ? उत्तर−नहीं, क्योंकि कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो कि स्वयं अपने नाश के लिए तप आदि कठिन अनुष्ठान करेगा ।
- प्रश्न− आत्मा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है (चार्वाक) ? उत्तर−नहीं; आत्मा का अस्तित्व अवश्य है । (विशेष देखें जीव - 2.4) ।
- प्रश्न− आत्मा या पुरुष सदा शुद्ध है । वह न कुछ करता है न भोगता है (सांख्य) ? उत्तर−नहीं, वह स्वयं कर्म करता है और उसके फलों को भी भोगता है । उन कर्मों के क्षय से ही वह मोक्ष का भागी होता है । वह स्वयं ज्ञाता द्रष्टा है, संकोच विस्तार शक्ति के कारण संसारावस्था में स्वदेह प्रमाण रहता है (देखें जीव - 3.7) वह कूटस्थ नहीं है, बल्कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है । (देखें उत्पादव्ययध्रौव्य 2.1)। वह निर्गुण नहीं है बल्कि अपने गुणों से युक्त है, अन्यथा साध्य की सिद्धि ही नहीं हो सकती । ( सर्वार्थसिद्धि/1/1 की उत्थानिका प/2/2); ( राजवार्तिक/1/1 की उत्थानिका/8/2/3 स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/5/13) ।
राजवार्तिक/10/4/17/644/13 सर्वथाभावोमोक्षः प्रदीपवदिति चेत्; न; साध्यत्वात् ।17।...साध्यमेतत्-प्रदीपो निरन्वयनाशमुपयातीति । प्रदीपा एव हि पुद्गलाः, पुद्गलजातिमजहतः परिणामवशान्मषीभावमापन्ना इति नात्यंतविनाशः ।−दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताद्यवस्थानवत् ।18। यत्रैव कर्मविप्रमोक्षस्तत्रैवावस्थानमिति चेत्; न; साध्यत्वात् ।19।....साध्यमेतत्तत्रैवावस्थातव्यमिति, बंधनाभावादनाश्रितत्वाच्च स्याद्गमनमिति । = - प्रश्न− जिस प्रकार बुझ जाने पर दीपक अत्यंत विनाश को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के क्षय हो जाने पर जीव का भी नाश हो जाता है, अतः मोक्ष का अभाव है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि ‘प्रदीप का नाश हो जाता है’ यह बात ही असिद्ध है । दीपकरूप से परिणत पुद्गलद्रव्य का विनाश नहीं होता है । उनकी पुद्गल जाति बनी रहती है । इसी प्रकार कर्मों के विनाश से जीव का नाश नहीं होता । उसकी जाति अर्थात् चैतन्य स्वभाव बना रहता है । ( धवला 6/1, 9-1/233/ गाथा 2-3/497) ।
- दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार बेड़ियों से मुक्त होने पर भी देवदत्त का अवस्थान देखा जाता है, उसी प्रकार कर्मों से मुक्त होने पर भी आत्मा का स्वरूपावस्थान होता है ।
- प्रश्न− जहाँ कर्म बंधन का अभाव हुआ है वहाँ ही मुक्त जीव को ठहर जाना चाहिए ? उत्तर−नहीं, क्योंकि यह बात भी अभी विचारणीय है कि उसे वहीं ठहर जाना चाहिए या बंधाभाव और अनाश्रित होने से उसे गमन करना चाहिए ।
देखें गति - 1.4 - प्रश्न− उष्णता के अभाव से अग्नि के अभाव की भाँति, सिद्धलोक में जाने से मुक्त जीवों के ऊर्ध्वगमन का अभाव हो जाने से, वहाँ उस जीव का भी अभाव हो जाना चाहिए । उत्तर−नहीं, क्योंकि ऊर्ध्व ही गमन करना उसका स्वभाव माना गया है, न कि ऊर्ध्व गमन करते ही रहना ।)
देखें मोक्ष - 5.6 8. मोक्ष के अभाव में अनाकारता का हेतु भी युक्त नहीं है, क्योंकि हम उसको पुरुषाकर रूप मानते हैं ।)
- मोक्ष अभावात्मक नहीं है, बल्कि आत्मलाभरूप है
पंचास्तिकाय/35 जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सब्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।35। = जिनके जीव स्वभाव नहीं है । (देखें मोक्ष - 3.5) । और सर्वथा उसका अभाव भी नहीं है । वे देहरहित व वचनगोचरातीत सिद्ध हैं ।
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/7/19/485 आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यांतर्मलक्षयात् । नाभावं नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ।19। = आत्मस्वरूप के लाभ का नाम मोक्ष है जो कि जीव की अंतर्मल का क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है । मोक्ष में न तो बौद्धों की भाँति आत्मा का अभाव होता है और न ही वह ज्ञानशून्य अचेतन हो जाता है । मोक्ष में भी उसका चैतन्य अर्थात् ज्ञान दर्शन निरर्थक नहीं होता है, क्योंकि वहाँ भी वह त्रिजगत् को साक्षीभाव से जानता तथा देखता रहता है । [जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य अपने स्वपरप्रकाशकपने को नहीं छोड़ देता, उसी प्रकार कर्ममल का क्षय हो जाने पर आत्मा अपने स्वपरप्रकाशकपने को नहीं छोड़ देता−देखें [[ ]](इस श्लोक की वृत्ति) ।
धवला 6/1, 9-9, 216/490/4 केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्वं न जानातीति कपिलो ब्रूते । तन्न, तन्निराकरणार्थं बुद्धयंत इत्युच्यते । मोक्षो हि नाम बंधपूर्वकः, बंधश्च न जीवस्यास्ति, अमूर्तत्वान्नित्यत्वाच्चेति । तस्माज्जीवस्य न मोक्ष इति नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसकमतम् । एतंनिराकरणार्थमुच्चंतीति प्रतिपादितम् । परिनिर्वाणयंति−अशेषबंधमोक्षे सत्यपि न परिनिर्वांति, सुखदुःखहेतुशुभाशुभकर्मणां तत्रासत्त्वादिति तार्किकयोर्मतं । तन्निराकरणार्थं परिनिर्वांति अनंतसुखा भवंतीत्युच्यते । यत्र सुखं तत्र निश्चयेन दुःखमप्यस्ति दुःखाविनाभावित्वात्सुखस्येति तार्किकयोरेवं मतं, तन्निराकरणार्थं सर्वदुःखानमंतं परिविजाणंतीति उच्यते । सर्वदुःखाननंतं पर्यवसानं परिविजानंति गच्छंतीत्यर्थः । कुतः । दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात् स्वास्थ्यलक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वादिति । = प्रश्न−केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सबको नहीं जानते हैं (कपिल या सांख्य) ? उत्तर−नहीं, वे सब को जानते हैं । प्रश्न−अमूर्त व नित्य होने से जीव को न बंध संभव है और न बंधपूर्वक मोक्ष (नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य व मीमांसक) ? उत्तर−नहीं, वे मुक्त होते हैं । प्रश्न−अशेष बंध का मोक्ष हो जाने पर भी जीव परिनिर्वाण अर्थात् अनंत सुख नहीं प्राप्त करता है; क्योंकि वहाँ सुख-दुःख के हेतुभूत शुभाशुभ कर्मों का अस्तित्व नहीं है (तार्किक मत) ? उत्तर−नहीं, वे अनंतसुख भोगी होते हैं । प्रश्न−जहाँ सुख है वहाँ निश्चय से दुःख भी है, क्योंकि सुख दुःख का अविनाभावी है (तार्किक) ? उत्तर−नहीं, वे सर्व दुःखों के अंत का अनुभव करते हैं । इसका अर्थ यह है कि वे जीव समस्त दुःखों के अंत अर्थात् अवसान को पहुँच जाते हैं, क्योंकि उनके दुःख के हेतुभूत कर्मों का विनाश हो जाता है और स्वास्थ्य लक्षण सुख जो कि जीव का स्वाभाविक गुण है, वह प्रगट हो जाता है ।
- बंध व उदय की अटूट शृंखला का भंग कैसे संभव है ?
द्रव्यसंग्रह टीका/37/155/10 अत्राह शिष्यः−संसारिणां निरंतरं कर्मबंधोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्था दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रुं हंति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया...लब्धिपंचकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हंतीति । यत्पुनरंतःकोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव....कर्महननबुद्धिं क्कापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । = प्रश्न−संसारी जीवों के निरंतर कर्मों का बंध होता है और इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, इस कारण उनके शुद्धात्मा के ध्यान का प्रसंग ही नहीं है, तब मोक्ष कैसे होता है ? उत्तर−जैसे कोई बुद्धिमान् अपने शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर अपने मन में विचार करता है, ‘कि यह मेरे मारने का अवसर है’ ऐसा विचार कर उद्यम करके, वह बुद्धिमान् अपने शत्रु को मारता है । इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती, इस कारण स्थितिबंध और अनुभाग बंध की न्यूनता होने पर जब कर्म हलके होते हैं तब बुद्धिमान् भव्यजीव आगमभाषा में पाँच लब्धियों से और अध्यात्मभाषा में निज शुद्ध आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मलभावना-विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्म शत्रु को नष्ट करता है। और जो अंतःकोटाकोटिप्रमाण कर्मस्थितिरूप तथा लता काष्ठ के स्थानापन्न अनुभागरूप से कर्मभार हलका हो जाने पर भी कर्मों को नष्ट करने की बुद्धि किसी भी समय में नहीं करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण समझना चाहिए। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/3, 459/2 )।
- अनादि कर्मों का नाश कैसे संभव है
राजवार्तिक/10/2/3/641/1 स्यान्मतम् - कर्मबंधसंतानस्याद्यभावादंतेनाप्यस्य न भवितव्यम्, दृष्टिविपरीतकल्पनायां प्रमाणाभावादिति; तन्न; किं कारणम्। दृष्टत्वादंत्यबीजवत्। यथा बीजांकुरसंतानेऽनादौ प्रवर्त्तमाने अंत्यबीजमग्निनोपहतांकुरशक्तिकमित्यंतोऽस्य दृष्टस्तथा मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययसांपरायिकसंततावनादौ ध्यानानलनिर्दग्धकर्मबीजे भवांकुरोत्पादाभावान्मोक्ष इति दृष्टमिदमपह्वोतुमशक्यम्। = प्रश्न−कर्म बंध की संतान जब अनादि है तो उसका अंत नहीं होना चाहिए ? उत्तर−जैसे बीज और अंकुर की संतान अनादि होने पर भी अग्नि से अंतिम बीज को जला देने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मबंध संतति के अनादि होने पर भी ध्यानाग्नि से कर्म बीजों को जला देने पर भवांकुर का उत्पाद नहीं होता, यही मोक्ष है।
कषायपाहुड़/1/1-1/38/56/9 कम्मं पि सहेउअं तव्विणासण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे। ण च कम्मविणासो असिद्धो; बाल-जोव्वण-रायादिपज्जायाणं विणासण्णहाणुववत्तीए तव्विणाससिद्ध दो। कम्ममकट्टिमं किण्ण जायदे। ण; अकट्टिमस्स विणासाणुववत्तीदो। तम्हा कम्मेण कट्टिमेण चेव होदव्वं। = कर्म भी सहेतुक हैं, अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता और कर्मों का विनाश असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि कर्मों के कार्यभूत बाल, यौवन और राजा आदि पर्यायों का विनाश कर्मों का विनाश हुए बिना नहीं हो सकता है। प्रश्न−कर्म अकृत्रिम क्यों नहीं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अकृत्रिम पदार्थ का विनाश नहीं बन सकता है, इसलिए कर्म को कृत्रिम ही होना चाहिए।
कषायपाहुड़/1/1-1/42/60/1 तं च कम्मं सहेउअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। = कर्मों को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा अयोगियों में कर्मबंध का प्रसंग प्राप्त होता है। ( आप्तपरीक्षा/ टीका/111/291/343/10)।
कषायपाहुड़/1/1-1/44/616 अकट्टिमत्तदो कम्मसंताणे ण वोच्छिज्जदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं; अकट्टिमस्स वि बीजंकुरसंताणस्त वोच्छेदुवलंभादो। ण च कट्टिमसंताणिवदिरित्ते सताणो णाम अत्थि जस्स अकट्टिमत्तं वुच्चेज्ज। ण चासेसासवपडिवक्खे सयलसंवरे समुप्पण्णे वि कम्मागमसंताणे ण तुट्टदि त्ति वोत्तुं जुत्तं; जुत्तिवाहियत्तदौ। सम्मत्तसंजमविरायजोगणिरोहाणमक्कमेण पउत्तिदंसणादो च। ण च दिट्ठे अणुववण्णदा णाम। असंपुण्णाणमक्कमवुत्ती दीसइ ण संपुण्णाणं चे; ण; अक्कमेण वट्टमाणाणं सयलत्तकारणसाणिज्झे संते तदविरोहादो। संवरो सव्वकालं संपुण्णो ण होदि चेवेत्ति ण वोत्तुं जुत्तं; वड्ढमाणेसु कस्स वि कत्थ वि णियमेण सगसगुक्कस्सावत्थावत्तिदंसणादो। संवरो वि, वड्ढमाणो उवलब्भए तदो कत्थ वि संपुण्णेण होदव्वं बाहुज्जियतालरुक्खेणेव। आसवो वि कहिं पि णिम्मूलदो विणस्सेज्ज, हाणे तरतमभावण्णहाणुववत्तीदो आयरकणओवलावलीणमलकलंको व्व। =- प्रश्न− अकृत्रिम होने से कर्म की संतान व्युच्छिन्न नहीं होती है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अकृत्रिम होते हुए भी बीज व अंकुर की संतान का विनाश पाया जाता है।
- कृत्रिम संतानी से भिन्न, अकृत्रिम संतान नाम की कोई चीज नहीं है।
- प्रश्न−आस्रवविरोधी सकलसंवर के उत्पन्न हो जाने पर भी कर्मों की आस्रव परंपरा विच्छिन्न नहीं होती ? उत्तर−ऐसा कहना युक्ति बाधित है अर्थात् सकल प्रतिपक्षी कारण के होने पर कर्म का विनाश अवश्य होता है। ( धवला 9/4, 1/44/117/9 )।
- प्रश्न−सकल संवररूप सम्यक्त्व, संयम, वैराग्य और योगनिरोध इनका एक साथ स्वरूपलाभ नहीं होता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि इन सबकी एक साथ अविरुद्धवृत्ति देखी जाती है।
- प्रश्न−संपूर्ण कारणों की वृत्ति भले एक साथ देखी जाये, पर संपूर्ण की सम्यक्त्वादिकी नहीं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि जो वर्द्धमान हैं ऐसे उन सम्यक्त्वादि में से कोई भी कहीं भी नियम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त होता हुआ देखा जाता है। यतः संवर भी एक हाथ प्रमाण तालवृक्ष के समान वृद्धि को प्राप्त होता हुआ पाया जाता है, इसलिए किसी भी आत्मा में उसे परिपूर्ण होना ही चाहिए। ( धवला 9/4, 1, 44/118/1 ) और भी देखें अगला संदर्भ ।
- तथा जिस प्रकार खान से निकले हुए स्वर्णपाषाण का अंतरंग और बहिरंग मल निर्मूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आस्रव भी कहीं पर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है, अन्यथा आस्रव की हानि में तर-तम-भाव नहीं बन सकता है। ( धवला 9/4, 1, 44/118/2 ); ( स्याद्वादमंजरी/17/236/29 )।
- [दूसरी बात यह भी है कि कर्म अकृत्रिम है ही नहीं (देखें विभाव 3 )]।
स्याद्वादमंजरी/17/236/9 पर उद्धृत−देशतो नाशिनो भावा द्रष्टा निखिलनश्वराः। मेघपंक्त्यादयो यद्धत् एवं रागादयो मताः। = जो पदार्थ एक देश से नाश होते हैं, उनका सर्वथा नाश भी होता है। जिस प्रकार मेघों के पटलों का आंशिक नाश होने से उनका सर्वथा नाश भी होता है।
- मुक्त जीवों का परस्पर में उपरोध नहीं
राजवार्तिक/10/4/9/643/13 स्यान्मतम्−अल्पः सिद्धावगाह्य आकाशः प्रदेश आधारः, आधेयाः सिद्धा अनंताः, ततः परस्परोपरोध इति तन्न; कि कारणम्। अवगाहनशक्तियोगात्। मूर्त्तिमत्स्वपि नामा नेकमणिप्रदीपप्रकाशेषु अल्पेऽप्यवकाशे न विरोधः किमंगपुनरमूर्तिषु अवगाहनशक्तियुक्तेषु मुक्तेषु। = प्रश्न−सिद्धों का अवगाह्य आकाश प्रदेश रूप आधारता अल्प है और आधेयभूत सिद्ध अनंत हैं, अतः उनका परस्पर में उपरोध होता होगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि आकाश में अवगाहन शक्ति है। मूर्तिमान् भी अनेक प्रदीप प्रकाशों का अल्प आकाश में अविरोधी अवगाह देखा गया है, तब अमूर्त सिद्धों की तो बात ही क्या है ?
- मोक्ष जाते-जाते जीवराशि का अंत हो जायेगा ?
धवला 14/5, 6, 126/233/7 जीवरासी आयविज्जदो सव्वओ, तत्ते णिव्वुइमुवगच्छंतजीवाणमुवलंभादो। तदो संसारिजीवाणमभाव होदि त्ति भणिदे ण होदि। अलद्धसभावणिगोदजीवाणमणंताण संभवो हादित्ति।
धवला 14/5, 6, 128/235/5 जासिं संखाणं आयविरहियाणं वये संत्ते वोच्छेदो होदि ताओ संखाओ संखेज्जासंखेज्जसण्णिदाओ। जासिं संखाणं आयविरहियाणं संखेज्जासंखेज्जेहि वइज्जमाणाणं पि वोच्छेदो ण होदि तासिमणंतमिदि सण्णा। सव्व जीवरासी वाणंतो तेण सो ण वोच्छिज्जदि, अण्णहा आणंतियविरोहादो।... सव्वे अदीदकालेण जे सिद्धा तेहिंतो एगणिगोदसरीरजीवाणमणंतागुणत्तं...। सिद्धा पुण अदीदकाले समयं पडि जदि वि असंखेज्जलोगमेत्ता सिज्झंति ता वि अदीदकालादो असंखेज्जगुणा चेव ण च एवं, अदीदकालादो सिद्धाणमसंखेव्भागत्तुवलंभादो।... अदीदकाले तसत्तं पत्तजीवा सुट्ठु जदि बहुआ होंति तो अदीदकालादो असंखेज्जगुणं चेव। = प्रश्न−जीव राशि आय से रहित और व्यय सहित है, क्योंकि उसमें से मोक्ष को जाने वाले जीव उपलब्ध होते हैं। इसलिए संसारी जीवों का अभाव प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं होता है; क्योंकि- त्रस भाव को नहीं प्राप्त हुए अनंत निगोद जीव संभव हैं। (और भी देखें निगोद_निर्देश प्रतिष्ठित_व_अप्रतिष्ठित_प्रत्येक_शरीर_परिचय )।
- आय रहित जिन संख्याओं का व्यय होने पर सत्त्व का विच्छेद होता है वे संख्याएँ संख्यात और असंख्यात संज्ञावाली होती हैं। आय से रहित जिन संख्याओं का संख्यात और असंख्यात रूप से व्यय होने पर भी विच्छेद नहीं होता है, उनकी अनंत संज्ञा है (और भी देखें अनंत 1.1 )। और सब जीव राशि अनंत हैं, इसलिए वह विच्छेद को प्राप्त नहीं होती। अन्यथा उसके अनंत होने में विरोध आता है। (देखें अनंत 2.1 )।
- सब अतीतकाल के द्वारा जो सिद्ध हुए हैं उनसे एक निगोदशरीर के जीव अनंतगुणे हैं। (देखें वनस्पति 3.7 )।
- सिद्ध जीव अतीतकाल के प्रत्येक समय में यदि असंख्यात लोक प्रमाण सिद्ध होवें तो भी अतीत काल से असंख्यातगुणे ही होंगे। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अतीतकाल के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही उपलब्ध होते हैं।
- अतीत काल में त्रसपने को प्राप्त हुए जीव यदि बहुत अधिक होते हैं तो अतीतकाल से असंख्यात गुणे ही होते हैं।
स्याद्वादमंजरी/29/331/16 न च तावता तस्य काचित् परिहाणिर्निगोदजीवानंत्यस्याक्षयत्वात्।... अनाद्यनंतेऽपि काले ये केचिन्निर्वृताः निर्वांति निर्वास्यंति च ते निगोदानामनंतभागेऽपि न वर्तंते नावर्तिषत न वर्त्स्यंति। ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसंगः, कथं च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति। अभिप्रेतं चैतद् अन्ययूथ्यानामपि। यथा चोक्तं वार्तिककारेण−अतएव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु संततम्। ब्रह्मांडलोकजीवानामनंतत्वादशूंयता।1। अत्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत्। वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभवः।2। = - [जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद राशि से निकलकर व्यवहारराशि में आ जाते हैं (देखें मोक्ष 2.5 )] अतएव निगोदराशि में से जीवों के निकलते रहने के कारण संसारी जीवों का कभी क्षय नहीं हो सकता। जितने जीव अब तक मोक्ष गये हैं और आगे जाने वाले हैं वे निगोद जीवों के अनंतवें भाग भी नहीं हैं, न हुए हैं और न होंगे। अतएव हमारे मत में न तो मुक्त जीव संसार में लौटकर आते हैं और न यह संसार जीवों से शून्य होता है। इसको दूसरे वादियों ने भी माना है । वार्तिककार ने भी कहा है, ‘इस ब्रह्मांड में अनंत संसारी जीव हैं, इस संसार से ज्ञानी जीवों की मुक्ति होते हुए यह संसार जीवों से खाली नहीं होता। जिस वस्तु का परिमाण होता है, उसी का अंत होता है, वही घटती और समाप्त होती है। अपरिमित वस्तु का न कभी अंत होता है, न वह घटती है और न समाप्त होती है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/196/437/18 सर्वो भव्यसंसारिराशिरनंतेनापि कालेन न क्षीयते अक्षयानंतत्वात्। यो योऽक्षयानंतः सो सोऽनंतेनापि कालेन न क्षीयते यथा इयत्तया परिच्छिन्नः कालसमयोघः, सर्वद्रव्याणां पर्यायोऽविभागप्रतिच्छेदसमूहो वा इत्यनुमानांगस्य तर्कस्य प्रामाण्यसुनिश्चयात्। = - सर्व भव्य संसारी राशि अनंत काल के द्वारा भी क्षय को प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि यह राशि अक्षयानंत है। जो-जो अक्षयानंत होता है, वह-वह अनंतकाल के द्वारा भी क्षय को प्राप्त नहीं होता है, जैसे कि तीनों कालों के समयों का परिमाण या अविभाग प्रतिच्छेदों का समूह। इस प्रकार के अनुमान से प्राप्त तर्क प्रमाण है।
- मोक्षाभाव के निराकरण में हेतु