अन्न
From जैनकोष
१. अन्नंमुद्गादि (लांटी संहिता अधिकार संख्या २/१६) मूंग, मीठ, चना, गेहूँ आदि अन्न कहलाता है। २. वीधा व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है-दे. भक्ष्याभक्ष्य २।
अन्नप्राशनक्रिया-
- दे. संस्कार २।
अन्यत्व-
राजवार्तिक अध्याय संख्या २/७,१३/११२/१ अन्यत्वमपि साधारणं सर्वद्रव्याणां परस्परतोऽन्यत्वात्। कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात् तदपि पारिणामिकम्।
= एक द्रव्य दूसरेसे भिन्न होता है, अतः अन्यत्व भी सर्वसाधारण है। कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेके कारण, यह पारिणामिक भाव है, अर्थात् स्वभावसे ही सबमें पाया जाता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या ३५५/क.२१३ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनः, येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः, किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि ।।२१३।।
= इस लोकमें एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, इसलिए वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है। ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १०६ अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव।
= अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्ता और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणीके तद्भावका अभाव होता है-शुक्ल व वस्त्रकी भाँति।
• दो पदार्थोंके मध्य अन्यत्वका विशेष रूप-दे. कारक, कारण।
अन्यत्वानुप्रेक्षा-
- दे.अनुप्रेक्षा।
अन्यथानुपपत्ति-
-दे.हेतु।
अन्यथायुक्ति खण्डन-
-(ज.प्र./प्र.१०५) Reductio-ad-absurdum.
अन्यदृष्टिप्रशंसा-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/२३/३६४ प्रशंसासंस्तवयोः को विशेषः। मनसा मिथ्यादृष्टेर्ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, भूताभूतगुणोद्भाववचनं संस्तव इत्ययमनयोर्भेदः।
= प्रश्न-प्रशंसा और संस्तवमें क्या अन्तर है? उत्तर-मिथ्यादृष्टिके ज्ञान और चारित्र गुणोंको मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है; और मिथ्यादृष्टिमें जो गुण है या जो गुण नहीं है इन दोनोंका सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है, इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ७/२३,१/५५२) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या ७/२)।
अन्ययोगव्यवच्छेद-
१. अन्ययोगव्यवच्छेदात्मक एवकार-दे. एव।
२. अन्ययोगव्यवच्छेद नामका ग्रन्थ-
श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि (ई.१०८८-११७३) द्वारा रचा गया एक न्यायविषयक ग्रन्थ है। इसपर श्री मल्लिषेण सूरि (ई.१२९२) ने स्याद्वादमंजरी नामकी टीका लिखी है।
अन्योन्यगुणकार शलाका-
(ज.प्र./प्र.१०५) Mutual multiple log.
अन्योन्याभाव-
- दे.अभाव।
अन्योन्याभ्यस्तराशि-
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ९३७/११३७ इट्ठसलायपमाणे दुगसंवग्गे कदेदु इट्ठस्स। पयडिस्स य अण्णोण्णाभत्थपमाणं हवे णियमा।
= अपनी-अपनी इष्ट शलाका जो नाना गुणहानि शलाका तीहिं प्रमाण दोयके अंक मांडि परस्पर गुणै अपनी इष्ट प्रकृतिका अन्योन्याभ्यास्त राशिका प्रमाण ही है।
(गो.क./भाषा/९२२/११०६/३) (गो.जी./भाषा/५९/१५६/९/) (विशेष दे.गणित/II/६/२)।
२. प्रत्येक कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि-दे. गणित II/६/४।
अन्योन्याश्रय हेत्वाभास-
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.४५९/५५५/६/ भाषाकार "परस्परमें धारावाही रूपसे एक-दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है" (जिसे खटकेके तालेकी चाबी तो आलमारीमें रह गयी और बाहरसे ताला बन्द हो गया। तब चाबी निकले तो ताला खुले और ताला खुले तो चाबी निकले, ऐसी परस्परकी अपेक्षा लागू होती है।)
अन्वय-
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/२,४३६/२१ स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः।
= अपनी जातिको न छोड़ते हुए उसी रूपसे अवस्थित रहना अन्वय है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ४/४२,११/२५२/१४ के पुनरन्वयाः। बुद्ध्यभिधानानुवृत्तिलिङ्गेन अनुमीयमानाविच्छेदाः स्वात्मभूतास्तित्वादयः।
= प्रश्न-अन्वय क्या है? उत्तर-अनुगताकार (यह वही है ऐसी) बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोगके द्वारा अनुमान किये जानेवाले तथा नित्य स्थित स्वात्मभूत अस्तित्वादि गुण अन्वय कहलाते है।
समयसार / समयसार तात्पर्यवृत्ति। तात्पर्यवृत्ति गाथा संख्या २२३ अन्वयव्यतिरेकशब्देन सर्वत्र विधिनिषेधौ ज्ञातव्यौ।
= अन्वय और व्यतिरेक शब्दसे सर्वत्र विधि-निषेध जानना चाहिए।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक संख्या १४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु। अर्थो विधिरविशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दाः ।।१४३।।
= सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये सब शब्द अविशेषरूपसे एकार्थवाचक हैं।
२. अन्वय व्यतिरेककी परस्पर सापेक्षता-दे. सप्तभंगी ४।
३. अन्वय द्रव्यार्थि नय-दे.नय IV/२।
अन्वयी-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/३८/३०९ अन्वयिनो गुणाः।
= गुण अन्वयी होते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ४/४२,११/२५२/१४) (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या ८०) (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक संख्या १४४)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक संख्या १३८ तद्वाक्यान्तरमेतद्यया गुणाः सहभुवोऽपि चान्वयिनः। अर्थाच्चैकार्थत्वादर्थादेकार्थवाचकाः सर्वे ।।१३८।।
= गुण, सहभू और अन्वयी तथा अर्थ ये सब शब्द अर्थकी दृष्टिसे एकार्थक होनेके कारण एकार्थवाचक हैं।
अन्वर्थ-
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा संख्या १/७/९ अन्वर्थनाम कि यादृश नाम तादृशोऽर्थः यथा तपतीति तपन आदित्य इत्यर्थः।
= जैसा नाम हो वैसा ही पदार्थ हो उसे अन्वर्थ नाम कहते हैं-जैसे जो तपता है सो तपन अर्थात् सूर्य है।
अप्-
- दे.जल।
अपकर्ष-
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ५१८/९१३/१७ भुज्यमानायुरपकृष्यापकृष्य परभवायुर्बध्यते इत्यपकर्षः।
= भुज्यमान आयुको घटा-घटाकर आगामी परभवकी आयुको बाँधै सो अपकर्ष कहिये (अर्थात् भुज्यमान आयुका २/३ भाग बीत जानेपर आयुबन्धके योग्य प्रथम अवसर आता है। यदि वहाँ न बँधे तो शेष १/३ आयुका पुनः २/३ भाग बीत जानेपर दूसरा अवसर आता है। इस प्रकार आयुके अन्तपर्यन्त आठ अवसर आते हैं। इन्हें आठ अपकर्ष कहते हैं।
(विशेष दे. आयु ४)
अपकर्षण-
अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके कारण स्वतः अथवा तपश्चरण आदिके द्वारा साधक पूर्वोपार्जित कर्मोंकी स्थति व अनुभाग बराबर घटता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढ़ता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है। संसारी जीवों के भी प्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोंका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता है-साधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको काण्डकघात कहते हैं, क्योंकि इसमें कर्मोंके गट्ठे के गट्ठे एक-एक बारमें तोड़ दिये जाते हैं। यह काण्डकघात ही मोक्षका साक्षात् कारण है और केवल ऊँचे दर्जेके ध्यानियोंको होता है। इसी विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१. भेद व लक्षण
1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण।
2. अपकर्षणके भेद (अव्याघात व व्याघात)।
3. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण।
4. व्याघात अपकर्षणका लक्षण।
5. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण।
• जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापना। - दे. अपकर्षण २/१; ४/२।
२. अपकर्षण सामान्य निर्देश
1. अव्याघात अपकर्षण विधान।
2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ।
3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना सम्भव है।
4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालों का नहीं।
३. अपसरण निर्देश
1. चौंतीस स्थितिबन्धापसरण निर्देश।
(पृथक्-पृथक् चारों गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा)
2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश।
3. ३४ बन्धापसरणोंकी अभव्योंमें सम्भावना व असम्भावना सम्बन्धी दो मत।
• स्थिति बन्धापसरण कालका लक्षण-दे. अपकर्षण ४/४
४. व्याघात या काण्डकघात निर्देश
1. स्थितिकाण्डकघात विधान
• चारित्रमोहोपशम विधानमें स्थितिकाण्डकघात। - दे.लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ७७-७८/११२ * चारित्रमोहक्षपणा विधानमें स्थितिकाण्डकघात। - दे.क्षपणासार/४०५-४०७/४९१ २. काण्डकघातके बिना स्थितिघात सम्भव नहीं
2. आयुका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता।
3. स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण में अन्तर।
4. अनुभागकाण्डक विधान।
5. अनुभागकाण्डकघात व अपवर्तनाघातमें अन्तर।
• अनुभागकाण्डकघातमें अन्तरंगकी प्रधानता। - दे.कारण II/२
6. शुभ प्रकृतियोंका अनुभागघात नहीं होता।
7. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं।
8. स्थिति व अनुभागघातमें परस्पर सम्बन्ध।
• आयुकर्मके स्थिति व अनुभागघात सम्बन्धी। - दे.आयु/५
१. भेद व लक्षण
१. अपकर्षण सामान्यका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या १०/४,२,४,२१/५३/२ पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम।
= कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तन (घटने) का नाम अपकर्षण है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ४३८/५९१ स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं णाम।
= स्थिति और अनुभागकी हानि अर्थात् पहिले बान्धी थी उससे कम करना अपकर्षण है।
लब्धिसार / भाषा/५५/८७ स्थिति घटाय ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य नीचले निषेकनि विषैं जहाँ दीजिये तहाँ अपकर्षण कहिये। (पीछे उदय आने योग्य द्रव्यको ऊपरका और पहिले उदयमें आने योग्यको नीचेका जानना चाहिए।
(गो.जी./भाषा/२५८/५६६/१६)।
२. अपकर्षणके भेद
(अपकर्षण दो प्रकारका कहा गया है - अव्याघात अपकर्षण और व्याघात अपकर्षण। व्याघात अपकर्षणका ही दूसरा नाम काण्डकघात भी है, जैसा कि इस संज्ञासे ही विदित है)।
३. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण
लब्धिसार / भाषा/५६/८८/१ जहाँ स्थितकाण्डकघात न पाइए सो अव्याघात कहिये।
४. व्याघात अपकर्षणका लक्षण
लब्धिसार / भाषा/५९/९२/१ जहाँ स्थितिकाण्डकघात होई सोव्याघात कहिये।
५. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या ५६/८७/१२ अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित निर्वचनात्। तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापनं, अतिस्थाप्यते अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम्।
= अपकर्षण किये गये द्रव्यका निक्षेपणस्थान, अर्थात् जिन निषेकोंमें उन्हें मिलाते हैं, वे निषेक निक्षेप कहलाते हैं, क्योंकि, जिसमें क्षेपण किया जाये सो निक्षेप है, ऐसा वचन है, उसके द्वारा अतिक्रमण या उल्लंघन किया जानेवाला स्थान, अर्थात् जिन निषेकोंमें नहीं मिलाते वे सब, अतिस्थापना हैं, क्योंकि `जिसमें अतिस्थापन या अतिक्रमण किया जाता है, सो अतिस्थापना है' ऐसा इसका अर्थ है।
(लब्धिसार / भाषा/५५/८७/२) (लब्धिसार / भाषा/८१/११६/१८)।
२. अपकर्षण सामान्य निर्देश
१. अव्याघात अपकर्षण विधान
लब्धिसार / मू. व टीका/५६-५८/८८-९० केवल भावार्थ [नोट-साथ आगे दिया गया यन्त्र देखिए। द्वितीयावलीके प्रथम निषेकका अपकर्षण करि नीचे (प्रथमावली में) निक्षेपण करिये तहाँ भी कुछ निषेकोमें तो निक्षेपण करते हैं, और कुछ निषेक अतिस्थापना रूप रहते हैं। उनका विशेष प्रमाण बताते हैं।] प्रथमावलीके निषेकनि विषैं समयघाट आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक प्रमाण निषेक तो निक्षेपरूप हैं (अर्थात् यदि आवली १६ समय समय प्रमाण तो १६-१\३+१=६ निषेक निक्षेप रूप है।) इस विषैं सोई द्रव्य दीजिये है। बहुरि अवशेष (नं.७-१६ तकके १०) निषेक अतिस्थापना रूप हैं।
(दे. यन्त्र नं. २)।
(Kosh1_P000113_Fig0010)
यातै ऊपरि द्वितीयावलीके द्वितीय निषेकका अपकर्षण किया। तहाँ एक समय अधिक आवली मात्र (१६+१=१७) याके बीच निषेक हैं। तिनि विषैं निक्षेप तो (वही पहले वाला अर्थात्) निषेक घाट? आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है। अति-स्थापना पूर्वतैं एक समय अधिक हैं (क्योंकि द्वितीयावलिका प्रथम समय जिसके द्रव्यको पहिले अपकर्षण कर दिया गया है, अब खाली होकर अतिस्थापनाके समयोंमें सम्मिलित हो गया है।) ऐसे क्रमतैं द्वितीयावलीके तृतीयादि निषेकनिका अपकर्षण होते निक्षेप तो पूर्वोक्त प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतै जानना। (इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते) अतिस्थापना आवली मात्र (अर्थात् १६ निषेक प्रमाण) ही है, सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। यहाँ तैं (आगै) ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं.७ आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतैं बँधता जाये।
(Kosh1_P000114_Fig0011)
तहाँ स्थितिका अन्त निषेकका द्रव्यको अपकर्षण करि नीचले निषेकनि विषैं निक्षेपण करते, तिस अन्त निषेकके नीचे आवली मात्र निषेक तौ अतिस्थापना रूप हैं, और समय अधिक दोय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थिति मात्र निक्षेप है। सो यहू उत्कृष्ट निक्षेप जानना। (कुल स्थितिमेंसे एक आवली तो आबाधा काल और एक आवली अतिस्थापना काल तथा एक समय अन्तिम निषेकका कम करनेपर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है।
(दे, यन्त्र नं. ४)।
२. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४४५-४४८/५९५-५९८ ओवकट्टणकरणंपुण अजीगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति। खीणं मुहुमंताणं खयदेसं सावलीयसमयोत्ति ।।४४५।। उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलसणं च। खयदेसोत्ति य खवगे अट्ठकसायादिवीसाणं ।।४४६।। मिच्छत्तिमसोलसाणं उवसमसेढिम्मि संतमोहोत्ति। अट्टकसायादीणं उव्वसमियट्ठाणगोत्ति हवे ।।४४७।। पढमकसायाणं च विसंजोजकं वोत्ति अयददेसोत्ति। णिरयतिरियाउगाणमुदीरणसत्तोदया सिद्धा ।।४४८।।
= अयोगि विषैं सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति (पाँच शरीर, पाँच बन्धन,
५ ५
पाँच संघात, छः संस्थान, तीन अंगोपांग, छः संहनन, पाँच वर्ण,
५ ६ ३ ६ ५
दोय गंध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर,
२ ५ ८ २ २ २
देवगति व आनुपूर्वी, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग,
२ २ १
निर्माण, अयशःकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात
१ १ १ १ १ १ १
परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय, नीच गोत्र-ये
१ १ १ १
७२ प्रकृति की तौ अयोगिके द्वि चरम समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषैं पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम
१
वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय,
१ १ १ १ १ १ १
यशःकीर्ति, तीर्थंकरत्व, मनुष्यायु व आनुपूर्वी, उच्च गोत्र-इन
१ १ २ १
तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके अन्त समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है। सर्व मिलि ८५ भई।) तिनिकै (८५ प्रकृतिनि कै) सयोगिका अन्त समय पर्यन्त अपकर्षण जानना। बहुरि क्षीणकषाय विषय सत्त्वसे व्युच्छित्ति भई सोलह और सूक्ष्म-साम्परायविषैं सत्त्वतैं व्युच्छित्ति भया सूक्ष्म लोभ इन तेरह प्रकृतिनिकैं क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षणकरण जानना। (पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा-प्रचला ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ। सर्व मिलि ७ भई।)
५ ४ ५ २
तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसै है; ऐसी परमुखोदयी हैं, तिनकै तो अन्तकाण्डककी अन्त फालि क्षयदेश। बहुरि अपने ही रूप फल देइ विनसै हैं ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति, तिनक एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण क्षयदेश है, तातैं तिनि सतरह प्रकृतिनिकै एक समय आवली काल पर्यन्त अपकर्षण पाइये ।।४४५।। उपशान्तकषाय पर्यन्त देवायुके अपकर्षणकरण है। बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन और `णिरय तिरक्खा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृत्तिकरण विषै क्षय भई सोलह प्रकृति (नरक गति व आनुपूर्वी, तिर्यंचगति व आनुपूर्वी,
२ २
विकलत्रय, स्त्यानगृद्धित्रिक, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, साधारण
३ ३ १ १ १ १
सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरणके पहिले भाग
१ १
विषैं सत्त्वसे व्युच्छित्ति है)। इनिके क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षणकरण है-अन्तकाण्डकका अन्तका फालि पर्यन्त है, ऐसा जानना। बहुरि आठ कषायने आदि देकरि अनिवृत्तिकरणविषैं क्षय भई ऐसी बीस प्रकृति (अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद
४ ४ १ १
छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया। सर्व मिलि
६ १ ३
२० भई।) तिनिकैं अपने-अपने क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षणकरण है। जिस स्थानक क्षय भया सो क्षय देश कहिये ।।४४६।।
उपशम श्रेणीविषैं मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अर नरक द्विकादिक सोलह (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्तिप्राप्त पूर्वोक्त १६) इसिकै उपशान्तकषाय पर्यन्त अपकर्षण है। बहुरि अष्ट कषायादिक (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्ति प्राप्त पूर्वोक्त २०) तिनके अपने-अपने उपशमनेके ठिकाने पर्यन्त अपकर्षणकरण है ।।४४७।। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककै देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तनि विषैं यथा सम्भक जहाँ विसंयोजना होई तहाँ पर्यन्त उपकर्षणकरण है ।।४४८।।
३. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना सम्भव है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१६/२२/३४७ ओकड्डदि जे अंसेसे काले ते च होंति भजिदव्वा। वड्डीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ।।२२।।
= जिन कर्मांशोंका अपकर्षण करता है वे अनन्तर कालमें स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण, और उदय, इनसे भजनीय हैं, अर्थात् अपकर्षण किये जानेके अनन्तर समयमें ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंको होना सम्भव है ।।२२।।
४. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ७/पूर्ण सूत्र/$४२३-४२४/२३९ ओक्कड्डणादो झीणट्ठिदियं णाम किं ।।४२३।। जं कम्ममुदयावलियब्भंतरे ट्ठियं तमोक्कडुणादो झीणट्ठिदियं। जमुदयावलिबाहिरे ट्ठिदं तमोक्कड्डणादो अज्झीणट्ठिदियं ।।४२४।।
= प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले हैं ।।४२३।। उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित है वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता, किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है।
३. अपसरण निर्देश
१. चौंतीस स्थिति बन्धापसरण निर्देश
१. मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा
लब्धिसार / मू.व.जी.प्र.८/९-१६/४७-५३ केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्त्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धमान होता संता प्रायोग्यलब्धिका प्रथम समयतैं लगाय पूर्व स्थिति बन्धकै (?) संख्यातवें भागमात्र अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मनिका स्थितिबन्ध करै है ।।९।। तिस अन्तःकोटाकोटी सागर स्थितिबन्ध तैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समानता लिये करै। बहुरि तातैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त करै है। ऐसे क्रमतै संख्यात स्थितिबन्धापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (८०० या ९००) सागर घटै पहिला स्थिति बन्धापसरण स्थान होइ। २ बहुरि तिस ही क्रमतैं तिस तैं भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबन्धापसरण स्थान ही है। ऐसै इस ही क्रमतैं इतना-इतना स्थिति बन्ध घटै एक-एक स्थान होइ। ऐसे स्थिति बन्धापसरणके चौतीस स्थान होइ। चौतीस स्थाननिविषैं कैसी प्रकृतिका (बन्ध) व्युच्छेद हो है सो कहिए ।।१०।। १. पहिला नरकायुका व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यन्त नरकायुका बन्ध न होइ, ऐसे ही आगे जानना। २. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) ३. मनुष्यायु; ४. देवायु; ५. नरकगति व आनुपूर्वी; ६. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात् तीनोंका युगपत् बन्ध); ७. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; ८. संयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारण; ९. संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; १०. संयोगरूप बेइन्द्रिय अपर्याप्त; ११. संयोगरूप तेइन्द्रिय अपर्याप्त; १२. संयोगरूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त; १४. संयोगरूप संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ।।११।। १५. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; १६. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; १७. संयोगरूप बादर पर्याप्त साधारण; १८. संयोगरूप बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आतप स्थावर; १९. संयोगरूप बेइन्द्रिय पर्याप्त; २०. संयोगरूप तेइन्द्रिय पर्याप्त; २१. चौइन्द्रिय पर्याप्त; २२. असंज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त ।।१२।। २३. संयोगरूप तिर्यंच व आनपूर्वी तथा उद्योत; २४. नीच गोत्र; २५. संयोगरूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वरअनादेय; २६. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन; २७. नपुंसकवेद; २८. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ।।१३।। २९. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहनन; ३०. स्त्रीवेद; ३१. स्वाति संस्थान, नारोच संहनन, ३२. न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराच संहनन; ३३. संयोगरूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी औदारिक शरीर व अंगोपांग-वज्र-वृषभनाराच संहनन; ३४. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश ।।१४।। अरति-शोक-असाता-। ऐसे ये चौतीस स्थान भव्य और अभव्यके समान हो हैं ।।१५।। मनुष्य तिर्यंचनिकैं तो सामान्योक्त चौतीस स्थान पाइये है तिनके ११७ बन्ध योग्यमें-से ४६ की व्युच्छित्ति भई, अवशेष ७१ बान्धिये है ।।१६।।
(धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-२,२/१३५/५) (लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या २२२-२२३/२६७) (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १०-९४/४०/पृ.६१७-६१९) (म.व./पु.३/११५-११६)।
२. भवनत्रिक व सौधर्म युगलकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १६/५३ केवल भावार्थ "भवनत्रिक व सौधर्म युगलविषैं दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि इस (२३-३२) और अन्तका चौतीसवाँ ये चौदह स्थान ही संभवै है। तहां ३१ प्रकृतिनि की व्युच्छित्ति हो है और बन्ध योग्य १०३ विषैं ७२ प्रकृतिनिका बन्ध अवशेष रहे है ।।१६।।
३. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि १० स्वर्गोंकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १७/५४ केवल भाषार्थ-"रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवीनिविषैं और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविषैं पूर्वोक्त (भवनत्रिकके) १४ स्थान अठारहवें बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो हैं। तहाँ बंधयोग्य १०० प्रकृतिनिविषैं ७२ का बन्ध अवशेष रहे है ।।१७।।
४. आनतसे उपरिम ग्रैवेयक तककी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १८/५५ केवल भाषार्थ-"आनन्त स्वर्गादि उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त विषै (उपरोक्त) १३ स्थान दूसरा व तेईसवाँ बिना पाइये। तहाँ तिनि ग्यारह स्थाननिकरि चौबीस घटाइ बन्धयोग्य ९६ प्रकृतिनिविधै ७२ बाँधिये है ।।१८।।
५. सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १९/५५ केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) ११ स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि १० स्थानानि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ बन्ध योग्य ९६ प्रकृतिनिविषैं ७३ वा ७२ बाँधिये है, जातैं उद्योतको बन्ध वा अबन्ध दोनों संभवे है ।।१९।।
२. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश
समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या ४२७-४२८/५०६ केवल भाषार्थ-"मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण (दे. क्रमकरण) रूप बन्ध भया, तातै परै इस ही क्रम लिये तितने ही संख्यात हजार स्थिति बन्ध भये असंज्ञी पंचेन्द्रिय समान (सागरोपमलक्षणपृथक्त्व) स्थिति सत्त्व है। बहुरि तातैं परै जैसे-जैसे मोहनीयादिकका क्रमकरण पर्यन्त स्थिति बन्धका व्याख्यान किया तैसे ही स्थिति सत्त्वका होना अनुक्रम तैं जानना। तहाँ एक पल्य स्थिति पर्यन्त पल्यका संख्यातवाँ भागमात्र, तातैं दूरापकृष्टि पर्यन्त पल्यका संख्यातवां भागमात्र, तातैं संख्यात हजार वर्ष स्थिति पर्यन्त पल्यका असंख्यातवां बहुभागमात्र आयाम लिये जो स्थिति बन्धापसरण तिनिकरि स्थिति बन्धका घटना कहा था, तैसे ही इहाँ तितने आयाम लिये स्थिति काण्डकनिकरिस्थितिसत्त्वका घटना हो है। बहुरि तहाँ संख्यात हजार स्थिति बन्धका व्यतीत होना कहा तैसे इहाँ भी कहिए है, वा तहाँ तितने स्थिति काण्डनिका व्यतीत होना कहिए। जातैं स्थिति बन्धापसरण और स्थितिकाण्डोत्करणका काल समान है। बहुरि तहाँ स्थिति बन्ध जहाँ कह्या था यहाँ स्थिति सत्त्व तहाँ कहना। बहुरि अल्प बहुत्व त्रैराशिक आदि विशेष बन्धापसरणवत् ही जानना। सो स्थिति सत्त्वका क्रम कहिए - प्रत्येक संख्यात हजार काण्डक गये क्रमतै असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, बेंइन्द्रिय, एकेन्द्रियनिकै स्थिति बन्धकै समान कर्मनिकी स्थिति सत्त्व हजार, सौ पचास, पच्चीस, एक सागर प्रमाण हो है। बहुरि संख्यात स्थिति काण्डके भये बीसयानि (नाम गोत्र) का एक पल्य : तीसियनि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय) का ड्योढ पल्य : मोह का दोय पल्य स्थिति सत्त्व ही है। १. तातै परै पूर्व सत्त्वका संख्यात बहुभागमात्र एक काण्डक भये बीसयनिका पल्यके संख्यात भागमात्र स्थिति सत्त्व भया तिस कालविषैं वीसयनिकेतै तीसयनिका संख्यातसगुणा मोहका विशेष अधिक स्थिति सत्त्व भया। २. बहुरि इस क्रमतै संख्यात हजार स्थिति काण्डक भये तीसयनिका (एक) पल्यमात्र, मोहका त्रिभाग अधिक पल्य (१/१\३) मात्र स्थिति सत्त्व भया। ताके परै एक काण्डक भये तीसयनिका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका संख्यातगुणा तैते मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ३. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात स्थितिकाण्डक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक काण्डक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक काण्डक भये माहका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तीहिं समय सातों कर्मनिका स्थिति सत्त्व पल्यके संख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ वीसयनिका स्तोक, तीसयनिका संख्यातगुणा तातैं मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ४. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये बीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहकासंख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ५. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये तीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तब सर्व ही कर्मनिका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ६. बहुरि इस क्रमकरि संख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये नाम-गोत्रका स्तोक तातैं मोहका असंख्यात गुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ७. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकान्डक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व ही है। ८. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थिति काण्डक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ९. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये मोहका स्तोक, तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं नाम-गोत्रका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका विशेष अधिक स्थितिसत्त्व हो है। १०. ऐसे अंतविषैं नामगोत्रतैं वेदनीयका स्थितिसत्त्व साधिक भया तब मोहादिकैं क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भया ।।४२७।। बहुरि इस क्रमकरणतैं परैं संख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत भये जो पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थितिहोइ ताकौं होतै संतै तहाँ असंख्यात समय प्रबद्धनिकी उदीरणा हो है। इहाँ तैं पहिले अपकर्षण किया द्रव्यकौ उदयावलो विषैं देनेके अर्थि असंख्यात लोकप्रमाण भागहार संभवै था। तहाँ समयप्रबद्धके असंख्यातवाँ भाग मात्र उदीरणाद्रव्य था। अब तहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण भागहार होनेतैं असंख्यात समयप्रबद्धमात्र उदीरणाद्रव्य भया ।।४२८।।
३. ३४ बन्धापसरणोंकी अभव्योंमें संभावना व असंभावना संबन्धी दो मत
१. अभव्यको भी संभव है
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १५/४७ बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि।
= चौतीस बन्धापसरणस्थान भव्य वा अभव्यके समान ही है।
२. अभव्यका संभव नहीं
महाबंध पुस्तक संख्या ३/११५/११ पंचिदियाणं सण्णीणं मिच्छादिट्ठीणं अब्भवसिद्धियां पाओग्गं अंतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस्स णत्थि ट्ठिदिबंधवोच्छेदो।
= पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अभव्योंके योग्य अन्तःकोडाकोड़ीपृथक्त्वप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके स्थितिकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती है।
४. व्याघात या काण्डकघात निर्देश
१. स्थितिकाण्डक घात विधान
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ६०/९२ केवल भाषार्थ "जहाँ स्थिति काण्डकघात होइ सो व्याघात कहिए। तहाँ कहिए है-कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति बान्धि पीछे क्षयोपशमलब्धिकरि विशुद्ध भया तब बन्धी थी जो स्थित तीहीं विषै आबाधरूप बन्धावलीकौ व्यतीत भये पीछे एक अन्तर्मुहूर्त कालकरि स्थितिकाण्डकका घात किया। तहाँ जो उत्कृष्ट स्थितिबान्धी थी, तिस विषैं अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति अवशेष राखि अन्य सर्व स्थितिका घात तिस काण्डककरि हो है। तहाँ काण्डकविषैं जेती स्थिति घटाई ताके सर्व निषेकनिका परमाणूनिकौ समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये, अवशेष राखी स्थितिविषैं अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निक्षेपण करिए है। सो समय-समय प्रति जो द्रव्य निक्षेपण किया सोई फालि है। तहाँ अन्तकी फालिविषैं, स्थितिके अन्त निषेकका जो द्रव्य ताकौ ग्रहि अवसेष राखी स्थितिविषैं दिया। तहाँ अन्तःकोटाकोटी सागरकरि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है, जातैं इस विषैं सो द्रव्य न दिया। इहाँ उत्कृष्ट स्थितिविषैं अन्तःकोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविषैं द्रव्य दिया, सो यहू निक्षेप रूप भया। तातैं यहू घटाया अर एक अन्त निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातैं एक समय घटाया है अंक संदृष्टिकरि जैसे हजार समयनिकी स्थितिविषैं काण्डकघातकरि सौ समयकी स्थिति राखी। (तहाँ सौ समय उत्कृष्ट निक्षेप रूप रहे अर्थात्, हजारवाँ समय सम्बन्धी निषेकका द्रव्यकौ आदिके सौ समयसम्बन्धी निषेकनिविषैं दिया)। तहाँ शेष बचे ८९९ मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है ।।५९-६०।।
सत्तास्थितनिषेक-०
उत्कीरित निषेक-X
(Kosh1_P000116_Fig0012)
नोट-[अव्याघात विधानमें अतिस्थापना केवल आवली मात्रथी और निक्षेप एक एक समय बढ़ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही रहता था, इसलिए तहाँ स्थितिका घात होना संभव न था। यहाँ प्रदेशोंका अपकर्षण तो हुआ पर स्थितिका नहीं।
यहाँ स्थिति काण्डक घात विषैं निक्षेप अत्यन्त अल्प है और शेष सर्व स्थिति अतिस्थापना रूप रहती है, अर्थात् अपकृष्ट द्रव्य केवल अल्प मात्र निषेकोंमें ही मिलाया जाता है शेष सर्व स्थितिमें नहीं। उस स्थानका द्रव्य हटाकर निक्षेषमें मिला दिया और तहाँ दिया कुछ न गया। इसलिए वह सर्वस्थान निषेकोंसे शून्य हो गया। यही स्थितिका घटना है। (दे. अपकर्षण/२/१)। जैसे अव्याघात विधानमें आवली प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होनेके पश्चात्, ऊपरका जो निषेक उठाया जाता था उसका समय तो अतिस्थापनाके आवली प्रमाण समयोंमें से नीचेका एक समय निक्षेप रूप बन जाता था। क्योंकि निक्षेप रूप अन्य निषेकोंके साथ-साथ उसमें भी अपकृष्ट द्रव्य मिलाया जाता था। इस प्रकार अतिस्थापनामें तो एक-एक समयकी वृद्धि व हानि बराबर बनी रहनेके कारण वह तो अन्त तक आवली प्रमाण ही रहती थी, और निक्षेपमें बराबर एक एक समयकी वृद्धि होनेके कारण वह कुल स्थितिसे केवल अतिस्थापनावली करि हीन रहता था। यहाँ व्याघात विधान विषै उलटा क्रम है। यहाँ निक्षेपमें वृद्धि होनेकी बजाये अतिस्थापनामें वृद्धि होती है। अपकर्षण-द्वारा जितनी स्थिति शेष रखी गयी उतना ही यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप है। जघन्य निक्षेपका यहाँ विकल्प नहीं है। तथा उससे पूर्व स्थितिके अन्तिम समय तक सर्वकाल अतिस्थापना रूप है। यहाँ ऊपरवाले निषेकोंका द्रव्य पहिले उठाया जाता है और नीचे वालोंका क्रम पूर्वक उसके पीछे। अव्याघात विधानमें प्रति समय एक ही निषेक उठाया जाता था पर यहाँ प्रति समय असंख्यात निषेकोंका द्रव्य इकट्ठा उठाया जाता है। एक समयमें उठाये गये सर्व द्रव्यको एक फालि कहते हैं। व्याघात विधानका कुल काल केवल एक अन्तर्मुहूर्त है, जिसमें कि उपरोक्त सर्व स्थितिका घात करना इष्ट है। अन्तर्मुहूर्तके असंख्यातों खण्ड है। प्रत्येक खण्डमें भी प्रति समय एक एक फालिके क्रमसे जितना द्रव्य समय उठाया गया उसे एक काण्डक कहते हैं। इस प्रकार एक एक अन्तर्मुहूर्तमें एक एक काण्डकका निक्षेपण करते हुए कुल व्याघातके कालमें असंख्यात काण्डक उठा लिये जाते हैं, और निक्षेप रूप निषेकोंके अतिरिक्त ऊपरके अन्य सर्व निषेकोंके समय कार्माण द्रव्यसे शून्य कर दिये जाते हैं। इसीलिए स्थितिका घात हुआ कहा जाता है। क्योंकि इस विधानमें काण्डकरूपसे द्रव्यका निक्षेपण होता है, इसलिए इसे काण्डक घात कहते हैं, और स्थितिका घात होनेके कारण व्याघात कहते हैं।]
२. कान्डकघातके बना स्थितिघात सम्भव नहीं
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१४,४०/४८९/८ खंडयघादेण विणा कम्मट्ठिदीए घादाभावादो।
= काण्डकघातके बिना कर्मस्थितिका घात सम्भव नहीं है।
३. आयुका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,५/२२४/३ अपुव्वकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माणट्ठिदिखंडओ होदि।
= (अपूर्वकरणके प्रकरणमें) यह स्थितिखण्ड आयु कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मोंका होता है। (अन्यत्र भी सर्वत्र यह नियम लागू होता है)।
४. स्थितिकाण्डकघात व स्थिति बन्धापसरणमें अन्तर
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ४१८/४९९ बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ।।४१८।।
= स्थितिबन्धापसरणकरि स्थितिबन्ध घटै है और स्थिति काण्डकनिकरि स्थितिसत्त्व घटै है। नोट-(स्थिति बन्धापसरणमें विशेष हानिक्रमसे बन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकघातमें गुणहानिक्रमसे सत्त्व घटता है।)
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या ७९/११४ एकैकस्थितिखण्डनिपतनकालः, एकैकस्थितिबन्धापसरणकालश्च समानावन्तर्मुहूर्तमात्रो।
= जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार स्थितिबन्ध घटाइये सो स्थिति बन्धापसारणकाल ए दोऊ समान हैं, अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं।
५. अनुभागकाण्डकघात विधान
लब्धिसार / मू.व. टीका ८०-८१/११४/११६ केवल भाषार्थ `अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग काण्डकायाम अनन्तबहुभागमात्र है। अपूर्वकरणका प्रथम समय विषैं (चारित्रमोहोपशमका प्रकरण है) जो पाइए अनुभाग सत्त्व ताको अनन्तका भाग दीए तहाँ एक काण्डक करि बहुभाग घटावै। एक भाग अवशेष राखै है। यहु प्रथम खण्ड भया। याकौ अनन्तका भाग दीए दूसरे काण्डक करि बहुभाग घटाइ एक भाग अवशेष राखे है। ऐसै एक एक अन्तर्मुहूर्त करि एक एक अनुभाग कण्डकघात हो है। तहाँ एक अनुभाग काम्डकोत्करण काल विषैं समय-समय प्रति एक-एक फालिका घटावना हो है ।।८०।। अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्म परमाणु सम्बन्धी एक गुणहानिविषैं स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है। तातैं अनन्तगुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं। तातैं अनन्तगुणे निक्षेप स्पर्धक है। तातैं अनन्तगुणा अनुभाग काण्डकायाम है। इहाँ ऐसा जानना कि कर्मनिके अनुभाग विषैं अनुभाग रचना है। तहाँ प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभाग युक्त हैं। ऊपरिके स्पर्धक बहु अनुभाग युक्त हैं। ऐसे तहाँ तिनि सर्व स्पर्धकनिकौं अनन्तका भाग दियें बहुभागमात्र जे ऊपरिके स्पर्धक, तिनिके परमाणूनिकौ एक भागमात्र जे निचले स्पर्धक तिनि विषैं, केतेइक ऊपरिके स्पर्धक छोड़ि अवशेष निचले स्पर्धकनिरूपपरिणमावै है। तहाँ केतेइक परमाणु पहिले समय परिणमावै है, केतेइक दूसरे समय परिणमावै हैं। ऐसे अन्तर्मुहूर्त कालकरि सर्व परमाणुपरिणमाइ तिनि ऊपरिके स्पर्धकनिका अभावकरै है। तिनिका द्रव्यको जे काण्डकघात भये पीछैं अवशेष स्पर्धक रहैं। तिनि विषैं तिनि प्रथमादि स्पर्धकनिविषैं मिलाया, ते तौ निक्षेप रूप हैं, अर तिनि ऊपरिके स्पर्धकनि विषैं न मिलाया ते अतिस्थापना रूप हैं ।।८१।।
(क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ४०८ ४०९/४९३)
६. अनुभाग काण्डकघात व अयवर्तनघातमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,४१/३२/१ एसो अणुभागखंडयघादो त्ति किण्ण वुच्चदे। ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेणं कालेण जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। अण्णं च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंता भागा हम्मंति, अणुभागखंडयघादे पुण णत्थि एसो णियमो, छव्विहहाणीएखंडयघादुबलंभादो।
=
प्रश्न - इसे (अनुसमयापवर्तनाघातको) अनुभागकाण्डकघात क्यों नहीं कहते? उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रारम्भ किये गये प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है, वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु उत्कीरण कालके बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है, वह अनुसमयापवर्तना है। दूसरे अनुसमयापवर्तनामें नियमसे अनन्त बहुभाग नष्ट होता है परन्तु अनुभाग काण्डकघातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकारकी हानि द्वारा काण्डकघातकी उपलब्धि होती है। विशेषार्थ-काण्डक पोरको कहते हैं। कुल अनुभागके हिस्से करके, एक एक हिस्सेका फालि क्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डक घात कहलाता है। और प्रति समय अनन्त बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्य रूपसे यही इन दोनोंमें अन्तर है।
७. शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,१४/१८/१ सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जे गणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणवेदि। खीणकसायसजोगीसुट्ठिदिअणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्धेट्ठिदिअणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं।
= शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगिनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियोंके अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर `स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है,' यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है।
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ८०/११४ सुहपयडीणं णियमा णत्थि त्ति रसस्स खंडाणि।
= शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकाण्डकघात नियमसे नहीं होता है।
८. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$५७२/३३७/११ ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति।
= प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।
९. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर सम्बन्ध
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२७/२१६/१० अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिकंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेज्जसहस्सगुणे अणुभागकंडय-घादे करेदि, `एक्काणुभाग-कंडय-उक्कीरणकालादी एक्कं ट्ठिदिकंडय-उक्कीरणकालो संखेज्जगुणो' त्ति सुत्तादो।
= एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घात करता है। और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकाण्डकोंका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकान्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डककाउत्कीरणकाल संख्यात गुणा है।
(लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ७९/११४)
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,४०/३९३/१२ पडिभग्गपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणुभागखंडयघादाभावादो।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,९४/४१३/७ अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधसुक्कस्साणुभागसंभवो। ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो।
= प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं बीत जाता तब तक अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं। = प्रश्न-अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागकी संभावना कैसे है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकाण्डक घातका अभाव है।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१३,४१/१-२/३९४ ट्ठिदिघाते हंमंते अणुभागा आऊण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जाण ट्ठिदिघातो ।।१।। अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ट्ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जाणमणुभागो ।।२।।
= स्थितिघात होनेपर (ही) सब आयुओंके अनुभागका नाश होता है। (परन्तु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ।।१।। (इसी प्रकार) अनुभागका घात होनेपर ही सब आयुओंका स्थितिघात होता है (परन्तु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघातके बिना भी अनुभागघात होता है ।।२।।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,१६,१६२/४३१/१३ आउअस्स खवगसेढीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व ट्ठिदि-अणुभागाणं घादाभावादो।
= क्षपकश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभावके समान स्थिति और अनुभागके घातका अभाव है। (इसीलिए वहाँ घातको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा हो जाता है)।
अपकर्षसमा-
न्या.सू./५/१/४/२८८ साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः ।।४।। न्या.भा.५/१/४/२८८ साध्ये धर्माभावे दृष्टान्तात् प्रसञ्जतोऽपकर्षसमः। लोष्ठः खलु क्रियावानविभर्दृष्टः काममात्मापि क्रियावानविभुरस्तु विपर्यये वा विशेषो वक्तव्य इति।
= साध्यमें दृष्टान्तसे धर्माभावके प्रसंगको अपकर्षसम कहते हैं। जैसे कि `लोष्ठ निश्चय क्रियावाला व अविभु देखा गया है अतः (इस दृष्टान्त-द्वारा साध्य) आत्मा भी क्रियावान् व अविभु होना चाहिए। जो ऐसा नहीं है तो विशेषता दिखानी चाहिए।
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.३४४/४७७/४ विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्षः।
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.३४१/४७६ तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टान्तात् समासंजयत् यो वक्ति सोऽपकर्षसमाजातिं वदति। यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वगतोऽस्तु विपर्यये वा विशेषकृद्धेतुर्वाच्य इति।
= विद्यमान हो रहे धर्मका पक्षमें-से अलग कर देना अपकर्ष है। क्रियावान् जीवके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्यधर्मीमें धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भले प्रकार प्रसंग कराता हुआ कह रहा हो कि वह अपकर्षसमा जाति है। - जैसे कि लोष्ठ क्रियावान् हो रहा अव्यापक देखा गया है, उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो जाओ। अथवा विपरीत माननेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिए, जिससे कि ढेलेका एक धर्म (क्रियावान्पना) तो आत्मामें मिला रहे और दूसरा धर्म (असर्वगतपना) आत्मामें न ठहर सके।
अपकार-
- दे. उपकार।
अपकृष्ट-
क्षपणासार/भाषा/५८८/७०६ गुणश्रेणी आदिके अर्थि जो सर्व स्थितिके द्रव्यको अपकर्षण करि ग्रहिये सो अपकृष्टि (अपकृष्ट) द्रव्य कहिए है।
अपक्षय-
राजवार्तिक अध्याय संख्या ४/४२/४/२५०/१९ क्रमेण पूर्वभावैकदेशनिवृत्तिरपक्षयः।
= क्रमपूर्वक पूर्वभावकी एकदेश निवृत्ति होना अपक्षय है।
अपदर्श-
नील पर्वतस्थ कूट व उसका स्वामी देव-दे.लोक/५/४।
अपदेश-
समयसार / समयसार तात्पर्यवृत्ति। तात्पर्यवृत्ति गाथा संख्या १५ अपदिश्यतेऽर्थो येन स भवत्यपदेशः शब्दः द्रव्यश्रुतमिति।
= जिसके द्वारा अर्थ निर्देशित किये जायें सो अपदेश है। वह शब्द अर्थात् द्रव्यश्रुत है।
अपध्यान-
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक संख्या ७८ वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदः ।।७८।।
= जिनशासनमें चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदिके नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेकी आध्यान या उपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/२१/३६० परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्।
= दूसरोंका जय, पराजय, मारना, बाँधना, अंगोंका छेदना, और धनका अपहरण आदि कैसे किया जाये इस प्रकार मनसे विचार करना अपध्यान है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ७/२१/२१/५४९/७) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६/५) (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक संख्या १४१)
चारित्रसार पृष्ठ संख्या १७१/३ उभयमप्येतदपध्यानमम्।
= ये दीनों आर्त व रौद्रध्यान अपध्यान हैं।
(सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/९)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ३४४ परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च। परइत्थी अवलोओ परकलहालोयणं पढमं ।।३४४।।
= परके दोषोंका ग्रहण करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, परायी स्त्रीको ताकना तथा परायी कलहको देखना प्रथम (अपध्यान) अनर्थदण्ड है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या २२/६६/९ स्वयं विषयानुभवरहितोऽप्ययंजीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टं श्रुतं च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते।
= स्वयं विषयोंके अनुभवसे रहित भी यह जीव अन्यके देखे हुए तथा सुने हुए विषयके अनुभवको मनमें स्मरण करके विषयोंकी इच्छा करता है, उसको अपध्यान कहते हैं।
(प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या १५८/२१९)।
अपरविदेह-
१. सुमेरु पर्वतके पश्चिममें स्थित गन्धमालिनी आदि १६ क्षेत्र अपर या पश्चिम विदेह कहलाते हैं-दे. लोक/५। २. नील पर्वतस्थ एक कूट व उसके रक्षक देवका नाम भी अपरविदेह है-दे. लोक/५।
अपरव्यवहार-
आगमकी ७ नयोंमें व्यवहारनयका एक भेद-दे. नय V/४।
अपरसंग्रह-
आगमकी ७ नयोंमें संग्रहनयका एक भेद-दे. नय III/४।
अपराजित-
१. एक यक्ष-दे.यक्ष; २. एक ग्रह-दे.ग्रह; ३. कल्पातीत देवोंका एक भेद-दे.स्वर्ग/२/१; ४, अपराजित स्वर्ग-दे. स्वर्ग/५/४; ५. जम्बूद्वीपकी वेदिकाका उत्तर द्वार-दे.लोक/३/१; ६. अपर विदेहस्थ व प्रवान क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे.लोक/५/२; ७. रुचकवर पर्वतका कूट-दे.लोक/५/१३; ८. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे.विद्याधर; ९. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे.विद्याधर। १०. (महापुराण सर्ग संख्या ५२/श्लो.७) धातकी खण्डमें सुसीमा देशका राजा था (२-३) प्रव्रज्या ग्रहणकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया और ऊर्ध्व ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र हो गये (१२-१४) यह पद्मप्रभ भगवान्का पूर्वका तीसरा भव है। ११. (महापुराण सर्ग संख्या ६२/श्लो.) वत्सकावती देशकी प्रभाकरी नगरीके राजा स्तमितसागरका पुत्र था (४१२-४१३) राज्य पाकर नृत्य देखनेमें आसक्त हो गया और नारदका सत्कार करना भूल गया (४३०-४३१) क्रुद्ध नारदने शत्रु दमितारिको युद्धार्थ प्रस्तुत किया (४४३) इन्होंने नर्तकीका वेश बना उसकी लड़कीका हरण कर लिया और युद्धमें उसको हरा दिया (४६१-४८४) तथा बलभद्र पद पाया (५१०)। अन्तमें दीक्षा ले समाधि-मरण कर अच्युतेन्द्र पद पाया (२६-२७) यह शान्तिनाथ भगवान्का पूर्वका ७वाँ भव है। १२. (महापुराण सर्ग संख्या ६२/श्लो.) सुगन्धिला देशके सिंहपुर नगरके राजा अर्हदास का पुत्र था (३-१०) पहिले अणुव्रत धारण किये (१६) फिर एक माहका उत्कृष्ट संन्यास धारण कर अच्युतेन्द्र हुआ (४५-५०) यह भगवान् नेमिनाथका पूर्वका पाँचवाँ भव है। १३. (हरिवंश पुराण सर्ग ३६/श्लो.) जरासन्धका भाई था, कंसकी मृत्युके पश्चात् कृष्णके साथ युद्धमें मारा गया (७२-७३)। १४. श्रुतावतारके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात् तृतीय श्रुतकेवली हुए थे। समय-वी.नि. ९२-११४, ई.पू.४३४-४१२। दे. इतिहास। ४/४। १५. (सिद्धिविनिश्चय / प्रस्तावना ३४/पं.महेन्द्रकुमार) आप सुमति आचार्यके शिष्य थे। समय-वि. ४९४ (ई.४३७) १६. (भगवती आराधना / प्रस्तावना /पं. नाथूराम प्रेमी) आप चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य और बलदेवसूरिके शिष्य थे। आपका अपर नाम विजयाचार्य था। आपने भगवती आराधनापर विस्तृत संस्कृत टीका लिखी है। समय-शक ६५८ (वि. ७९३) में टीका पूरी की।
अपराजित संघ-
आचार्य अर्हद्बलि-द्वारा स्थापित दिगम्बर साधु संघोंमें-से एक था। दे. इतिहास/४/६।
अपराजिता-
१. भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी शासिका यक्षिणी-दे.तीर्थंकर/५/३; २. पूर्व विदेहस्थ महावत्सा देशकी मुख्य नगरी-दे.लोक ५/२; ३. नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिममें स्थित एक वापी; दे. लोक/५/११; ४. रुचकपर्वत निवासिनी दिक्कुमारी-दे. लोक/५/१३।
अपराध-
समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या ३०५ संसिद्धिराद्धसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ।।३०४।। संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित, ये एकार्थवाची शब्द हैं। जो आत्मा अपगतराध अर्थात् राधसे रहित है वह मात्मा अपराध है।
(नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ८४)
सा./सा./आ/३००/क १८६ परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्। बध्येतानपराधो म स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ।।१८६।।
= जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है, इसलिए बन्धमें पड़ता है। और जो स्व-द्रव्यमें ही संवृत है, ऐसा यति निरपराधी है, इसलिए बन्धता नहीं है
(समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या ३०१)।
अपराह्ण-
दिनका तीसरा पहर।
अपरिगृहीता-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/२८/३६८ या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता।
= जो वेश्या या व्यभिचारिणी होनेसे दूसरे पुरुषोंके पास आती-जाती रहती है, और जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है, वह अपरिगृहीता कहलाती है।
अपरिणत-
आहारका एक दोष-दे.आहार II/४/४।
अपरिणामी-
- दे. परिणमन।
अपरिस्राविता-
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ४८६,४९५ लोहेण पदीमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचारा। ण परिस्सवंति अण्णत्तो सो अपरिस्सवो होदि ।।४८६।। इच्चेवमादिदोसा ण होंति गुरुणो रहस्सधारिस्स। पुट्ठेव अपुट्ठे वा अपरिस्साइस्स धारिस्स ।।४९५।।
= जैसे तपा हुआ लोहेका गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है, वैसे ही जो आचार्य क्षपकके दोषोंको सुनकर अपने अन्दर ही शोषण कर पूछनेपर अथवा न पूछनेपर भी जो उन्हें अन्यपर प्रगट न करे, वह अपरिस्रावी गुणका धारक है।
अपर्याप्त-
- दे. पर्याप्त।
अपवर्ग-
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या १-१/२२ तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः।
= उस दुःखदायी जन्मसे अत्यन्त विमुक्तिका नाम अपवर्ग है।
अपवर्तन-
१. अपवर्तनाघात सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/५३/२०१ बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति संनिधाने ह्रस्वं भवतीत्यपवर्त्यम्।
= उपघातके निमित्त विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तोंके मिलनेपर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आय कहलाती है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १,१८/$३१५/३४७/५ किमोवट्टणं णाम। णवुंसयवेए खविदे सेसणोकसायक्खवणमोवट्टणं णाम।
= प्रश्न-अपवर्तना किसे कहते हैं। उत्तर-नपुंसकवेदका क्षपण हो जानेपर शेष नोकषायोंके क्षपण होनेको यहाँ अपवर्तना कहा है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ६४३/८३७/१६ आयुर्बन्धं कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यामानस्यायुषोऽपवर्तनमपि भवति तदेवापवर्तनघात इत्युच्यते, उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिधानात्।
= आयुके बन्धको करते जीव तिनिकै परिणामनिके वशतै बध्यमान आयुका अपवर्तन भी होता है। अपवर्तन नाम घटनेका है, सो याकौ अपवर्तनघात कहिए, जातैं उदय आई (भुज्यमान) आयुकै अपवर्तनका नाम कदलीघात है। (अर्थात् भुज्यमान आयुके घटनेका नाम कदलीघात और बध्यमान आयुके घटनेका नाम अपवर्तनघात है।)
२. अनुसमयापवर्तनाका लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ५/४-२२/$६२७/३९६/१३ का अणुसमओवट्टणा। उदय-उदयावलियासु पविस्समाणट्टिदीणमणुभागस्स उदयावलिबाहिरट्ठिदीणमणुभागस्स य समयं पडि अपंतगुणहीणकमेण घादो।
= प्रश्न-प्रतिसमय अपवर्तना किसे कहते हैं। उत्तर-उदय और उदयावलिमें प्रवेश करनेवाली स्थितियोंके अनुभागका तथा उदयावलीसे बाहरकी स्थितियोंके अनुभाग जो प्रति समय अनन्तगुणहीन क्रमसे घात होता है उसे प्रतिसमय अपवर्तना कहते हैं।
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,४१/१२/३२/२ उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। अण्णं च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंताभागा हम्मंति।
= उत्कीरणकालके बिना, एक समय द्वारा जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। अथवा अनुसमयापवर्तनामें नियमसे अनन्त बहुभाग नष्ट होता है। (अर्थात् एक समयमें ही अनन्तों काण्डकोंका युगपत् घात करना अनुसमयापवर्तना है।)
• अनुसमयापवर्तना व काण्डकघातमें अन्तर-दे. अपकर्षण ४/६।
• आयुके अपवर्तन सम्बन्धी-दे. आयु ५।
• अकाल मृत्यु वश आयुका अपवर्तन-दे. मरण ४।
• अपवर्तनोद्वर्तन-दे. अश्वकर्ण करण।
३. गणितके सम्बन्धमें अपवर्तन
अमान मूल्योंमें बदलना जैसे १८/७२=१/४-दे. गणित II/१/१०।
अपवाद-
यद्यपि मोक्षमार्ग केवल साम्यता की साधना का नाम है, परन्तु शरीरस्थितिके कारण आहार-विहार आदि में प्रवृत्ति भी करनी पड़ती है। यदि इससे सर्वथा उपेक्षित हो जाये तो भी साधना होनी सम्भव नहीं और यदि केवल इसहीकी चर्या में निरर्गल प्रवृत्ति करने लगे तो भी साधना सम्भव नहीं। अतः साधकको दोनों ही बातों का सन्तुलन करके चलना आवश्यक है। तहाँ साम्यताकी वास्तविक साधनाको उत्सर्ग और शरीर चर्याको अपवाद कहते हैं। इन दोनोंके सम्मेल सम्बन्धी विषय ही इस अधिकारमें प्ररूपित है।
१. भेद व लक्षण
1. अपवाद सामान्यका लक्षण।
2. अपवादमार्गका लक्षण।
3. उत्सर्गमार्गका लक्षण।
• उत्सर्ग व अपवाद लिंगके लक्षण-दे. लिंग १।
२. अपवादमार्ग निर्देश
1. मोक्षमार्गमें क्षेत्र काल आदिका विचार आवश्यक है।
2. अपनी शक्तिका विचार आवश्यक है।
3. आत्मोपयोगमें विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है।
4. आत्मोपयोगमें विघ्न पड़ता जाने तो अपवाद मार्गका आश्रय ले।
• प्रथम व अन्तिम तीर्थमें छेदोपस्थापना चारित्र प्रधान होते हैं। -दे. छेदोपस्थापना।
• उत्सर्ग व अपवाद व्याख्यानमें अन्तर।
३. परिस्थितिवश साधुवृत्तिमें कुछ अपवाद
1. कदाचित् ९ कोटि शुद्धकी अपेक्षा ५ कोटि शुद्ध आहारका ग्रहण।
2. उपदेशार्थ शास्त्रोंका और वैयावृत्त्यर्थ औषध आदिका संग्रह।
• आचार्यकी वैयावृत्त्यके लिए आहार व उपकरणादिक माँगकर लाना।
3. क्षपकके लिए आहार माँगकर लाना।
4. क्षपकको कुरले व तेलमर्दन आदिकी आज्ञा।
5. क्षपकके लिए शीतोपचार व अनीमा आदि।
6. क्षपकके मृतशरीरके अंगोपांगोंका छेदन।
• कालानुसार चारित्रमें हीनाधिकता सम्भव है।-दे. निर्यापकमें/भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ६७१।
• कदाचित् लौकिक संसर्गकी आज्ञा। -दे. संगति।
• कदाचित् मन्त्र प्रयोगकी आज्ञा। -दे. मन्त्र।
7. परोपकारार्थ विद्या व शस्त्रादिका प्रदान।
• कदाचित् अकालमें स्वाध्याय। -दे. स्वाध्याय २/२।
8. कदाचित् रात्रिकी भी बातचीत।
• कदाचित् नौकाका ग्रहण व जलमें प्रवेश। -दे. विहार।
• शूद्रसे छू जानेपर स्नान।-दे. भिक्षा ६।
• मार्गमें कोई पदार्थ मिलनेपर उठाकर आचार्यको दे दे। - दे. अस्तेय।
• एकान्तमें आर्यका संगतिका विधि-निषेध।-दे. संगति।
• कदाचित् स्त्रीको नग्न रहनेकी आज्ञा।-दे. लिंग १/४।
४. उत्सर्ग व अपवादमार्गका समन्वय
1. वास्तवमें उत्सर्ग ही मार्ग है अपवाद नहीं।
2. कारणवश ही अपवादका ग्रहण निर्दिष्ट है सर्वतः नहीं।
3. अपवादमार्गमें योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी आज्ञा है अयोग्यकी नहीं।
• साधुके योग्य उपधि। -दे. परिग्रह १।
• स्वच्छन्दाचारपूर्वक आहार ग्रहणका निषेध। -दे. आहार II/२/७।
4. अपवादका ग्रहण भी त्यागके अर्थ होता है।
5. अपवाद उत्सर्गका साधक होना चाहिए।
6. उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है।
7. निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं।
१. भेद व लक्षण
१. अपवाद सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/३३/१४१ पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः।
= पर्यायका अर्थ विशेष अपवाद और व्यावृत्ति है।
दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या २४/२१/२० विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात्।
= विशेष रूपसे कही गयी विधिको अपवाद कहते हैं।
२. अपवादमार्गका लक्षण
प्र.सा./स.प्र./२३० शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्थ योग्यं मृद्वैवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः।
= बाल, वृद्ध, श्रान्त व ग्लान मुनियोंको शुद्धात्म तत्त्वके साधनभूत संयमका साधन होनेके कारण जो मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना, इस प्रकार अपवाद है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २३० असमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो `व्यवहारय' एकदेश परित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः।
= असमर्थ जन शुद्धात्मभावनाके सहकारीभूत जो कुछ भी प्रासुक आहार ज्ञान व उपकरण आदिका ग्रहण करते हैं, उसीको अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशत्याग, अपहृत संयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग इन नामोंसे कहा जाता है।
३. उत्सर्ग मार्गका लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २२२ आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः।
= उत्सर्ग मार्ग वह है जिसमें कि सर्व परिग्रहका त्याग किया जाये, क्योंकि, आत्माके एक अपने भावके सिवाय परद्रव्यरूप दूसरा पुद्गलभाव नहीं है। इस कारण उत्सर्ग मार्ग परिग्रह रहित है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २३० बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणीयमित्युत्सर्गः।
= बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्लान (रोगी श्रमण) को भी संयमका जो कि शुद्धात्मतत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जैसे न हो उस प्रकार संयतको अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना; इस प्रकार उत्सर्ग है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २३०/३१५/५ शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गे `निश्चयनयः' सर्व परित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः।
= शुद्धात्माके सिवाय अन्य जो कुछ भी बाह्य अवभ्यन्तर परिग्रह रूप है, उस सर्वका त्याग ही उत्सर्ग है। निश्चयनय कहो या सर्वपरित्याग कहो या परमोपेक्षा संयम कहो, या वीतरागचारित्र कहो या शुद्धोपयोग कहो, ये सब एकार्थवाची हैं।
२. अपवादमार्ग निर्देश
१. मोक्षमार्गमें क्षेत्र कालादिका विचार आवश्यक है
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६५/५५८ द्रव्य क्षेत्रं बलं भावं कालं वीर्यं समीक्ष्य च। स्वास्थाय वर्ततां सर्व विशुद्धशुद्धाशनैः सुधीः ।।६५।।
= विचार पूर्वक आचरण करनेवाले साधुओंको आरोग्य और आत्मस्वरूपमें अवस्थान रखनेके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छः बातोंका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्वाशन और शुद्धाशनके द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए।
(अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/१६-१७)।
२. अपनी शक्तिका विचार आवश्यक है
धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,२६/५६/१२ पित्तप्पकोवेण उववास अक्खयेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि....।
= जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ है; जिन्हें आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमें अधिक थकान होती है...(उन्हें यह अवमोदर्य तप करना चाहिए।)
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/९५; ७/१६-१७-दे, पहलेवाला सं.२/१।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २३० (असमर्थ पुरुषको अपवादमार्गका आश्रय लेना चाहिए दे. पहले सं. १/२)।
३. आत्मोपयोगमें विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है
प्र.स./त.प्र./२१५ तथाविधशरीरवृत्त्यविरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरङ्गनिस्तरङ्गविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे....।
= तथाविध शरीरकी वृत्तिके साथ विरोधरहित शुद्धात्म द्रव्यमें नीरंग और निस्तरंग विश्रान्तिकी रचनानुसार प्रवर्तमान अनशनमें...।
४. आत्मोपयोगमें विघ्न पड़ता जाने तो अपवादमार्ग का आश्रय करे
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या ११/१३८ पर उद्धृत `सव्वत्थं संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही नियाविरई।
= मुनिको सर्व प्रकारसे अपने संयमकी रक्षा करनी चाहिए। यदि संयमका पालन करनेमें अपना मरण होता हो तो संयमको छोड़कर अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह मुनि दोषोंसे रहित होता है। वह फिरसे शुद्ध हो सकता है, और उसके व्रत भंगका दोष नहीं लगता।
३. परिस्थितिवश साधुवृत्तिमें कुछ अपवाद
१. ९ कोटिकी अपेक्षा ५ कोटि शुद्ध आहारका ग्रहण
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या ११/१३८/९ यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः। तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावे पञ्चकादियतनया अनेषणीयादिग्रहणमपवादः। सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव।
= जैन मुनियोंके वास्ते सामान्यरूपसे संयमकी रक्षाके लिए नव कोटिसे विशुद्ध आहार ग्रहण करनेकी विधि बतायी गयी है। परन्तु यदि किसी कारणसे कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य आपदाओंसे ग्रस्त हो जाये और उसे कोई मार्ग सूझ न पड़े, तो एसो दशामें वह पांच कोटिसे शुद्ध आहारका ग्रहण कर सकता है। यह अपवाद नियम है। परन्तु जैसे सामान्य विधि संयमकी रक्षाके लिए है, वैसे ही अपवाद विधि भी संयमकी रक्षाके लिए है।
२. उपदेशार्थ शास्त्र तथा वैयावृत्त्यर्थ औषध संग्रह
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १७५/३९३ किंचितत्कारणमुपदिश्य श्रुतग्रहणं, परेषां वा श्रुतोपदेशम् आचार्यादिवैयावृत्त्यादिकं, वा परिभुक्तं व्यवहृतम्। उवधिं परिग्रहमौषधं अतिरिक्तज्ञानसंयमोपकरणानि वा। अणुपधिं ईषत्परिग्रहम्....वसतिरुच्यते। ....वर्जयित्वा आचारति।
= शास्त्र पढ़ना, दूसरोंको शास्त्रोपदेश देना, आचार्योंकी वैयावृत्त्य करना इत्यादि कारणोंके उद्देश्यसे जो परिग्रह संगृहीत किया था, अथवा औषध व तद्व्यतिरिक्त ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण संगृहीत किया था, उसका (इस सल्लेखनाके अन्तिम अवसरपर) त्यागकर विहार करे। तथा ईषत्परिग्रह अर्थात् वसतिका भी त्याग करे।
३. क्षपकके लिए आहार आदि माँगकर लाना
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ६६२/६६६ चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं। छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ।।६६२।। चत्तारि जणा पामयमुवकप्पंति अडिलाए पाओग्गं। छंदियमवगददोसं अमाइण लद्धि संपण्णा ।।६६३।। चत्तारि जणा रक्खंति दवियमुवकप्पियं तयं तेहिं। अगिलाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छंति ।।६६४।। काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवंति खवयस्स। पडिलेहंति य उवधोकाले सेज्जुवधिसंथारं ।।६६५।। खवगस्स घरदुवार सारक्खंति जणा चत्तारि। चत्तारि समोसरणदुवारं रक्खंति जदणाए ।।६६६।।
= चार साधु तो क्षपक के लिए उद्गमादि दोषरहित आहारके पदार्थ (श्रावकके घरसे माँगकर) लाते हैं। चार साधु पीनेके पदार्थ लाते हैं। कितने दिन तक लाना पड़ेगा, इतना विचार भी नहीं करते हैं। माया भाव रहित वे मुनि वात, पित्त, कफ, सम्बन्धी दोषोंको शान्त करनेवाले ही पदार्थ लाते हैं। भिक्षा लब्धिसे सम्पन्न अर्थात् जिन्हें भिक्षा आसानीसे मिल जाती है, ऐसे मुनि ही इस कामके लिए नियुक्त किये जाते है ।।६६२-६६३।। उपर्युक्त मुनियों-द्वारा लाये गये आहार-पानकी चार मुनि प्रमाद छोड़कर रक्षा करते हैं, ताकि उन पदार्थोंमें त्रस जीवोंका प्रवेश न होने पावे। क्योंकि जिस प्रकार भी क्षपकका मन रत्नत्रयमें स्थिर हो वैसा ही वे प्रयत्न करते हैं ।।६६४।। चार मुनि क्षपकका मलमूत्र निकालनेका कार्य करते हैं, तथा सूर्यके उदयकालमें और अस्तकालके समयमें वे वसतिका, उपकरण और संस्तर इनको शुद्ध करते हैं, स्वच्छ करते हैं ।।६६५।। चार परिचारक मुनि क्षपकको वसतिकाके दरवाजेका प्रयत्नसे रक्षण करते हैं, अर्थात् असंयत और शिक्षकोंको वे अन्दर आनेको मना करते हैं और चार मुनि समोसरणके द्वारका प्रयत्नसे रक्षण करते हैं, धर्मोपदेश देने मंडपके द्वारपर चार मुनि रक्षणके लिए बैठते हैं ।।६६६।।
(भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १९९३)।
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १९७८/१७४२ उयसयपडिदावण्णं उवसंगहिदं तु तत्थ उवकरणं। सागारियं च दुविहं पडिहारियमपडिहारिं वा ।।१९७८।।
= क्षपककी शुश्रूषा करनेके लिए जिन उपकरणोंका संग्रह किया जाता था उनका वर्णन इस गाथामें किया गया है? कुछ उपकरण गृहस्थोंसे लाये जाते थे जैसे औषध, जलपात्र, थाली वगैरह। कुछ उपकरण त्यागने योग्य रहते हैं, और कुछ उपकरण त्यागने योग्य नहीं होते। जो त्याज्य नहीं है वे गृहस्थोंको वापिस दिये जाते हैं। कुछ कपड़ा वगैरह उपकरण त्याज्य रहता है।
दे.सल्लेखना/३/१२ (इंगिनीमरण धारक क्षपक अपने संस्तरके लिए स्वयं गाँवसे तृण माँगकर लाता है।)
४. क्षपकको कुरले व तेलमर्दन आदि
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ६८८ तेल्लकसायादीहिं य बहुसो गडूसया दु घेतव्वा। जिब्भाकण्णाण बलं होहि दि तुंडं च से विसदं ।।६८८।।
= तेल और कषायले द्रव्यके क्षपकको बहुत बार कुरले करने चाहिये। कुरले करनेसे जीभ और कानोंमें सामर्थ्य प्राप्त होती है। कर्णमें तेल डालनेसे श्रवण शक्ति बढ़ती है ।।६८८।।
५. क्षपकके लिए शीतोपचार आदि
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १४९९ बच्छीहिं अवट्ठवणतावणेहिं आलेवसीदकिरियाहिं। अब्भंगणपरिमद्दण आदीहिं तिगिंछदे खवयं ।।१४९९।।
= वस्ति कर्म (अनीमा करना), अग्निसे सैंकना, शरीरमें उष्णता उत्पन्न करना, औषधिका लेप करना, शीतपना उत्पन्न करना, सर्व अंग मर्दन करना, इत्यादिके द्वारा क्षपककी वेदनाका उपशमन करना चाहिए।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ३७५ `प्रतिरूपकालक्रिया'-उष्णकाले शीतक्रिया, शीतकाले उष्णक्रिया, वर्षाकाले तद्योग्यक्रिया।
= उष्णकालमें शीतक्रिया और शीतकालमें उष्णक्रिया, वर्षाकालमें तद्योग्य क्रिया करना प्रतिरूपकाल क्रिया है (जिसके करनेका मूल गाथामें निर्देश किया है)।
तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय संख्या ९/४७/३१६/१२ केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति।....केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषाल्लज्जित्वात् तथा कुर्वन्तीति। व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम्।
= कोई-कोई असमर्थ महर्षि शीत आदि कालमें कम्बल शब्दका वाच्य कुश घास या पराली आदिक ग्रहण कर लेते हैं। कोई शरीरमें उत्पन्न हुए दोष वश लज्जाके कारण ऐसा करते हैं। यह व्याख्यान भगवती आराधन में कहे हुए अभिप्रायसे अपवाद रूप है।
(भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४२१/६११/१८)।
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या १७/८५ तस्य....आचार्यस्य-वात्सल्यं भोजनं पानं पादमर्दनं शुद्धतैलादिनाङ्गाभ्यञ्जनं तत्प्रक्षालनं चैत्यादिकं कर्म सर्वं तीर्थंकरनाम कर्मोपार्जनहेतुभूतं वैयावृत्त्यं कुरुत यूयम्।
= उन आचार्य (उपाध्याय व साधु ) परमेष्ठीकी वात्सल्य, भोजन, पान, पादमर्दन, शुद्धतेल आदिके द्वारा अंगमर्दन, शरीर प्रक्षालन आदिक द्वारा वैयावृत्ति करना, ये सब कर्म तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जनके हेतुभूत हैं।
६. क्षपकके मृत शरीरके अंगोपांगों का छेदन
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १९७६-१९७७ गीदत्था कदकज्जा महाबलपरक्कमा महासत्ता। बंधंति य छिंदंति य करचरणंगुट्ठयपदेसे ।।१६७६।। जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई। आदाय तं कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज ।।१९७७।।
= महान् पराक्रम और धैर्य युक्त मुनि क्षपकके हाथ और पाँव तथा अंगूठा इनका कुछ भाग बान्धते हैं अथवा छेदते हैं ।।१९७६।। यदि यह विधि न की जायेगी तो उस मृतशरीरमें क्रीड़ा करनेका स्वभाववाला कोई भूत अथवा पिशाच प्रवेश करेगा, जिसके उपकरण वह शरीर उठना, बैठना, भागना आदि भीषण क्रियायें करेगा ।।१९७७।।
७. परोपकारार्थं विद्या व शस्त्रादिका प्रदान
महापुराण सर्ग संख्या ९५/९८ कामधेन्वभिधां विद्यामीप्सितार्थप्रदायिनीम्। तस्यै विश्राणयांचक्रे समन्त्रं परशुं च सः ।।९८।।
= उन्होंने (मुनिराजने रेणुकाको, उसके सम्यक्त्व व व्रत ग्रहणसे सन्तुष्ट होकर) मनवांछित पदार्थ देनेवाली कामधेनु नामकी विद्या और मन्त्र सहित एक फरसा भी उसके लिए प्रदान किया ।।९८।।
८. कदाचित् रात्रिको भी बोलते हैं
पद्मपुराण सर्ग ४८/३८ स्मरेषुहतचित्तोऽसौ तामुद्दिश्य ब्रजन्निशि। मुनिनावधियुक्तेन मैवमित्यभ्यभाषत ।।३८।।
= (दरिद्रोंकी बस्तीमें किसी सुन्दरीको देखकर) काम बाणोंसे उसका (यक्षदत्तका) हृदय हरा गया। सो वह रात्रिके समय उसके उद्देश्यसे जा रहा था, कि अवधिज्ञानसे युक्त मुनिराजने `मा अर्थात् नहीं' इस प्रकार (शब्द) उच्चारण किया।
४. उत्सर्ग व अपवाद मार्गका समन्वय
१. वास्तवमें उत्सर्ग ही मार्ग है, अपवाद नहीं
ष्ट.सा./त.प्र./२२४ ततोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुनरपवादः। इदमत्र तात्पर्यं वस्तुधर्मत्वात्परमनैर्ग्रन्थ्यमेवावलम्ब्यम्।
= इससे निश्चय होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद नहीं। तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होनेसे परम निर्ग्रन्थत्व ही अवलम्बन योग्य है।
२. कारणवश ही अपवादका ग्रहण निर्दिष्ट है, सर्वतः नहीं
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४२१/६१२/१४ तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमषेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम्।
= इसलिए अर्थाधिकारकी अपेक्षासे बहुत-से सूत्रोंमें जो वस्त्र और पात्रका ग्रहण कहा गया है, वह कारणकी अपेक्षासे निर्दिष्ट है, ऐसा समझना चाहिए।
महापुराण सर्ग संख्या ७४/३१४ चतुर्थ ज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिनः। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।।३१४।।
= मनःपर्ययज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले और स्वाभाविक बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवोंके ही होता है।
(गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ५४७/७१४/५)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २२२ अयं तु विशिष्टकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः। यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परमुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशादवसंन्नशक्तिर्न प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते।
= विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध है। ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधिके निषेधका आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होनेपर भी विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश हीन शक्तिवाला होनेसे उसे प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बाह्य साधनमात्र उपधिका आश्रय लेता है।
३. अपवाद मार्गमें भी योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी आज्ञा है अयोग्यकी नहीं
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या २२३ अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।।२२३।।
= भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असंयत जनोंसे अप्रार्थनीय हो और मूर्च्छादि उत्पन्न करनेवाली न हो, ऐसी ही उपधिको श्रमण ग्रहण करो।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १६२/३७५/१९ उपधिर्नाम पिच्छान्तरं कमण्डल्वन्तरं वा तदानीं संयमसिद्धौ न करणमिति संयमसाधनं न भवति।...अथवा ज्ञानोपकरणं अवशिष्टोपधिरुच्यते।
= एक ही पिच्छिका और एक ही कमण्डल रखता है, क्योंकि उससे ही उसका संयम साधन होता है। दूसरा कमण्डल व दूसरी पिच्छिका उसको संयम साधनमें कारण नहीं है। अवशिष्ट ज्ञानोपकरण (शास्त्र) भी उस (सल्लेखनाके) समय परिग्रह माना गया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २२२ की उत्थानिका "कस्यचित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपदिशति।
= किसीके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है, ऐसा अपवाद कहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २२३ गृह्णातु श्रमणो यमप्यल्पं तथापि पूर्वोक्तोचितलक्षणमेव ग्राह्यं न च तद्विपरीतमधिकं वेत्यभिप्रायः।
= श्रमण जो कुछ भी अल्पमात्र उपधि ग्रहण करता है। वह पूर्वोक्त उचित लक्षणवाली ही ग्रहण करता है, उससे विपरीत या अधिक नहीं, ऐसा अभिप्राय है।
४. अपवादका अर्थ स्वच्छन्द वृत्ति नहीं है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ९३१ जो जट्ठ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधियादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होदि ।।९३१।।
= जो साधु जिस शुद्ध-अशुद्ध देशमें जैसा कैसा शुद्ध-अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है, वह श्रमणगुणसे रहित योगी संसारको बढ़ानेवाला ही होता है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार संख्या २/९१ जे. जिणलिंगु धरेवि मुणि इट्ठ परिग्गह लेंति। छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छिद्दि गिलंति ।।९१।।
= जो मुनि जिनलिंगको धारण कर फिर भी इच्छित परिग्रहका ग्रहण करते हैं, वे जीव! वे ही वमन करके फिर उस वमनको पीछे निगलते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २५० योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं (अपवादमार्ग) व्याख्यानं शोभते। यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २५२ अत्रेदं तात्पर्यम्.... स्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठानं करोतीति।।
= जो स्व शरीरका पोषण करनेके लिए अथवा शिष्य आदिके मोहके कारण सावद्यकी इच्छा नहीं करता है, उसको ही यह अपवाद मार्गका व्याख्यान शोभा देता है। यदि अन्यत्र तो सावद्यकी इच्छा करे और वैयावृत्ति आदि स्वकीय अवस्थाके योग्य धर्मकार्यमें इच्छा न करे, तब तो उसके सम्यक्त्व ही नहीं है ।।२५०।। यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि स्वभाव विघातक रोगादि आ जानेपर तो वैयावृत्ति करता है, परन्तु शेषकालमें स्वकीय अनुष्ठान (ध्यान आदि) ही करता है ।।२५२।।
५. अपवादका ग्रहण भी त्यागके अर्थ होता है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २२२ अयं तु....आहारनिहारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थसुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्।
= यह आहारनीहारादिका ग्रहण-विसर्जन सम्बन्धी बात छेदके निषेधार्थ ग्रहण करनेमें आयी है, क्योंकि, सर्वत्र शुद्धोपयोग सहित है। इसलिए वह छेदके निषेधरूप ही है।
६. अपवाद उत्सर्गका साधक होना चाहिए
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या ११/१३८/६ अन्यार्थमुत्सृष्टम्....अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तम्-उत्सर्गवाक्यम्, अन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते-नापवादगोचरीक्रियते। यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयोन्निम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थ साधनविषयत्वात्।....सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव।
= सामान्य (उत्सर्ग) और अपवाद दोनों वाक्य शास्त्रोंके एक ही अर्थको लेकर प्रयुक्त होते हैं। जैसे ऊँच-नीच आदिका व्यवहार सापेक्ष होनेसे एक ही अर्थका साधक है, वैसे ही सामान्य और अपवाद दोनों परस्पर सापेक्ष होनेसे एक ही प्रयोजनकी सिद्ध करते हैं। -(उदाहरणार्थ नव कोटि शुद्धकी बजाये परिस्थितिवश साधु जो पंचकोटि भी शुद्ध आहारका ग्रहण कर लेता है। जैसे सामान्य विधि संयमकी रक्षाके लिए है, तैसे ही वह अपवाद भी संयमकी रक्षाके लिए ही है।
७. उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या २३० बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग्गं मूलच्छेदं जधा ण हवदि ।।२३०।।
= बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमण, मूलका छेद जिस प्रकारसे न होय उस प्रकार अपने योग्य आचरण आचरो।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २३० बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यातिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः। .....शरीरस्य.....छेदो न यथा स्यात्तथा.....स्वस्य योग्यं मृद्वेवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः। संयमस्य....छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य.....छेदो यथा न स्यात्तथा....स्वस्य योग्यं मृद्वप्याचरणमाचरणीयमित्ययमपवादसापेक्ष उत्सर्गः। शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स्वस्य योग्यं मृद्वाचरणमाचरता संयमस्य....छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः। अतः सर्वथोत्सर्गपवादमैत्र्या सौस्थितस्यमाचरणस्य विधेयम्।
= बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमणको भी संयमका, कि जो शुद्धात्म तत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार संयतका ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है।....संयमके साधनभूत शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना अपवाद है। संयमका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरण आचरते हुए भी शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणका आचरना अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है। शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणको आचारते हुए भी संयमका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरणको भी आचरना उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है। इससे सर्वथा उत्सर्ग अपवादकी मैत्रीके द्वारा आचरणको स्थिर करना चाहिए।
८. निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २३१ अथ देशकालज्ञस्यापि....मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादल्पो लेपां भवत्येव तद्वरमुत्सर्गः। .....मृद्वाचरणं प्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः। ....अल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाऽशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति। तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः। देशकालज्ञस्यापि.....आहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्त्तमानस्य मृद्वाचरणीभूय संयम विराध्या संयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तत्र श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः। अत....परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः।
= देशकालज्ञको भी मृदु आचरणमें प्रवृत्त होनेसे अल्प लेप होता ही है, इसलिए उत्सर्ग अच्छा है। और मृदु आचरणमें प्रवृत्त होनेसे अल्प (मात्र) ही लेप होता है, इसलिए अपवाद अच्छा है अल्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न करे तो अतिकर्कश आचरण रूप होकर अक्रमसे ही शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करता है। तहाँ जिसने समस्त संयमामृतका समूह वमन कर डाला है, उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है, ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं। देशकालज्ञको भी, आहार-विहार आदिसे होनेवाले अल्पलेपको न गिनकर यदि वह उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो, मृदु आचरणरूप होकर संयमविरोधी असंयतजनके समान हुए उसको उस समय तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। इसलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवादसे जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सदा अनुगम्य है।
अपशब्द खंडन-
आ.शुभचन्द्र (ई.१५१६-१५५६) द्वारा रचित न्याय विषयक एक ग्रन्थ।
अपसरण-
- दे. अपकर्षण/३।
अपसिद्धान्त-
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/२३ सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः।
(श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.२६८/४२२/१५)
= किसी अर्थ के सिद्धान्तको मानकर नियम-विरुद्ध `कथाप्रसंग' करना `अपसिद्धान्त' नामक निग्रहस्थान होता है। अर्थात् स्वीकृत आगमके विरुद्ध अर्थका साधन करने लग जाना अपसिद्धान्त है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक संख्या ५६८ जैसे शरीरको जीव बताना अपसिद्धान्त रूप विरुद्ध वचन है।
अपहृत-संयम-
- दे.संयम /१।
अपाच्य-
पश्चिम दिशा।
अपात्र-
१. दान योग्य अपात्र-दे. पात्र। २. ज्ञान योग्य अपात्र-दे. श्रोता।
अपादान कारक-
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १६ शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेनध्रुवत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः।
= शुद्धानन्त शक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके समय पूर्वमें प्रवर्तमान विकलज्ञानस्वभाव का नाश होनेपर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वयं ही ध्रुवताका अवलम्बन करनेसे (आत्मा) अपादानताको धारण करता है।
अपादान कारण-
दे. उपादान।
अपादान शक्ति-
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट शक्ति नं.४५ उत्पादव्ययालिङ्गितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्तिः।
= उत्पाद व्यय से आलिंगित भावका अपाय (हानि या नाश) होनेसे हानिको प्राप्त न होनेवाली ध्रुवत्वमयी अपादान शक्ति है।
अपान-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१९/२८८ आत्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपान इत्याख्यायते।
= आत्मा जिस बाहरी वायुको भीतर करता है निःश्वास लक्षण उस वायुको अपान कहते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१९/३६/४७३) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ६०६/१०६२/१२)।
अपाप-
भावी तेरहवें तीर्थंकर/अपर नाम `निष्पाप' व `पुण्यमूर्ति' व `निष्कषाय'। विशेष दे. तीर्थंकर/५।
अपाय-
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/९/३४७ अभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशकः प्रयोगोऽपायः।
= स्वर्ग और मोक्षकी क्रियाओका विनाश करनेवाली प्रवृत्ति अपाय है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ७/९/१/५३७ अभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियासाधनानां नाशकोऽनर्थः अपाय इत्युच्यते। अथवा ऐहलौकिकादिसप्तविधं भयमपाय इति कथ्यते।
= अभ्युदय और निःश्रेयसके साधनोंका अनर्थ अपाय है। अथवा इहलोकमय परलोकमय आदि सात प्रकारके भय अपाय हैं।
अपाय विचय-
धर्मध्यानका एक भेद व लक्षण। दे. धर्मध्यान/१।
अपार्थक-
न्या.सू./५/२/१० पोर्वापर्यायोगादप्रतिसंबन्धार्थमपार्थम्।
= जहाँ अनेक पद या वाक्योंका पूर्व-पर क्रमसे अन्वय न हो अतएव एक दूसरेसे मेल न खाता हुआ असम्बन्धार्थत्व जाना जाता है, वह समुदाय अर्थके अपाय (हानि) से `अपार्थक' नामक निग्रहस्थान कहलाता है। उदाहरण जैसे दश अनार, छ पूये, कुण्ड, चर्म, अजा, कहना आदि। वाक्यका दृष्टान्त जैसे यह कुमारीका गैरुक (मृगचर्म) शय्या है उसका पिता सोया नहीं है। ऐसा कहना अपार्थक है।
(श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या ४/न्या.२०९/३८७/१९)।
- अ
- लांटी संहिता
- राजवार्तिक
- समयसार
- प्रवचनसार
- सर्वार्थसिद्धि
- चारित्रसार
- स्याद्वादमंजरी
- गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड
- श्लोकवार्तिक
- पंचाध्यायी
- पंचास्तिकाय
- पंचास्तिकाय संग्रह
- गोम्मट्टसार जीवकाण्ड
- क्षपणासार
- लब्धिसार
- धवला
- कषायपाहुड़
- महाबंध
- रत्नकरण्डश्रावकाचार
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
- सागार धर्मामृत
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा
- द्रव्यसंग्रह
- भगवती आराधना
- महापुराण
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- हरिवंश पुराण
- नियमसार
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- दर्शनपाहुड़
- अनगार धर्मामृत
- मूलाचार
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