ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 77 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । (77)
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥81॥
अर्थ:
[एवं] इसप्रकार [पुण्यपापयो:] पुण्य और पाप में [विशेष: नास्ति] अन्तर नहीं है [इति] ऐसा [यः] जो [न हि मन्यते] नहीं मानता, [मोहसंछन्न:] वह मोहाच्छादित होता हुआ [घोर अपारं संसारं] घोर अपार संसार में [हिण्डति] परिभ्रमण करता है ॥७७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्वन्नुपसंहरति -
एवमुक्तक्रमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदु:खद्वैतमिव च न खलु: परमार्थत: पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् । यस्तु पुनरनयो: कल्याणकालायसनिगडयोरिवाहङ्कारिकं विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रपदादिसंपदा निदानमिति निर्भरतरं धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दु:खमेवानुभवति ॥७७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यों पूर्वोक्त प्रकार से, शुभाशुभ उपयोग के द्वैत की भाँति और सुख-दुःख के द्वैत की भाँति, परमार्थ से पुण्य-पाप का द्वैत नहीं टिकता-नहीं रहता, क्योंकि दोनों में अनात्म-धर्मत्व अविशेष अर्थात् समान है । (परमार्थ से जैसे शुभोपयोग और अशुभोपयोग रूप द्वैत विद्यमान नहीं है, जैसे १सुख और दुःखरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, उसीप्रकार पुण्य और पाप-रूप द्वैत का भी अस्तित्व नहीं है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों आत्मा के धर्म न होने से निश्चय से समान ही हैं ।) ऐसा होने पर भी, जो जीव उन दोनों मे-सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति- २अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, अहमिन्द्र-पदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यन्त निर्भरमयरूप से (गाढरूप से) अवलम्बित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (चित्त की भूमि कर्मोपाधि के निमित्त से रंगी हुई-मलिन विकृत होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार-पर्यन्त (-जब तक इस संसार का अस्तित्व है तब तक अर्थात् सदा के लिये) शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है ॥७७॥
१सुख = इन्द्रियसुख
२पुण्य और पाप में अन्तर होने का मत अहंकार-जन्य (अविद्या-जन्य, अज्ञान-जन्य) है