ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 17
From जैनकोष
293. तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह-
293. अब द्रव्येन्द्रियके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।17।।
निर्वृत्ति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय है।।17।।
294. निर्वर्त्यते [1]इति निर्वृत्ति:। केन निर्वर्त्यते ? कर्मणा। सा द्विविधा; बाह्याभ्यन्तरभेदात्। उत्सेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यान्तरा निर्वृत्ति:। तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु य: प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदया-पादितावस्थाविशेष: पुद्गलप्रचय: सा बाह्या निर्वृत्ति:। येन निर्वृत्तेरुपकार: क्रियते तदुपकरणम्। पूर्ववत्त्दपि द्विविधम्। तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलं, बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं [2]शेषेष्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम्।
294. रचनाका नाम निर्वृत्ति है। शंका – किसके द्वारा यह रचना की जाती है ? समाधान – कर्म के द्वारा। निर्वृत्ति दो प्रकार की है – बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकाररूपसे अवस्थित शुद्ध आत्मप्रदेशोंकी रचनाको आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। तथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गलप्रचय होता है उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारका है – आभ्यन्तर और बाह्य। नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण शुक्लमण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इन्द्रियोंमें भी जानना चाहिए।विशेषार्थ – आगममें संसारी जीवके प्रदेश चलाचल बतलाये हैं। मध्यके आठ प्रदेश अचल होते हैं और प्रदेश चल। ऐसी अवस्थामें नियत आत्मप्रदेश ही सदा विवक्षित इन्द्रियरूप बने रहते हैं यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु प्रदेश परिस्पन्दके अनुसार प्रति समय अन्य-अन्य प्रदेश आभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप होते रहते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं उसके उतने इन्द्रियावरण कर्मोंका क्षयोपशम सर्वांग होता है, इसलिए आभ्यन्तर निवृत्तिकी उक्त प्रकारसे व्यवस्था होनेमें कोई बाधा नहीं आती। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है।