ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 25
From जैनकोष
309. यदि हिताहितादिविषयपरिस्पन्द: प्राणिनां मन:प्रणिधानपूर्वक:। अथाभिनवशरीरग्रहणं प्रत्यागूर्णस्य विशीर्णपूर्वमूर्तेर्निर्मनस्कस्य यत्कर्म तत्कुत इत्युच्यते –
309. यदि जीवोंके हित और अहित आदि विषयके लिए क्रिया मनके निमित्तसे होती है तो जिसने पूर्व शरीरीको छोड़ दिया है और जो मनरहित है ऐसा जीव जब नूतन शरीर को ग्रहण करनेके लिए उद्यत होता है तब उसके जो क्रिया होती है वह किस निमित्तसे होती है यही बतलोनके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
विग्रहगतौ कर्मयोग:।।25।।
विग्रहगतिमें कार्मणकाय योग होता है।।25।।
310. विग्रहो देह:। विग्रहार्था गतिर्विग्रहगति:। अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात:[1]। कर्मादानेऽपि नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थ:। विग्रहेण गतिर्विग्रहगति:। सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मणं शरीरं कर्मेत्युच्यते। योगो वाङ्मनसकायवर्गणामिनमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्द:। कर्मणा कृतो योग: कर्मयोगो विग्रहगतौ भवतीत्यर्थ:। तेन कर्मादानं देशान्तरसंक्रमश्च भवति।
310. विग्रहका अर्थ देह है। विग्रह अर्थात् शरीरके लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है। अथवा विरुद्ध ग्रहको विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्याघात है। तात्पर्य यह है कि जिस अवस्थामें कर्मके ग्रहण होनेपर भी नोकर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है और इस विग्रहके साथ होनेवाली गतिका नाम विग्रहगति है। सब शरीरोंकी उत्पत्तिके मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म कहते हैं। तथा वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोंके हलनचलनको योग कहते हैं। कर्मके निमित्तसे जो योग होता है वह कर्मयोग है वह विग्रहगतिमें होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे नूतन कर्मका गहण और एक देशसे दूसरे देशमें गमन होता है।
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- ↑ -व्याघात:। नोकर्म—ता., ना.।